रविवार, जून 29, 2014

बीती ना बिताई रैना, बिरहा की जाई रैना :जब पंचम ने पकड़ा शास्त्रीयता का दामन ( Beeti na Bitai Raina...)

27 जून यानि परसों पंचम का पचहत्तरवाँ जन्म दिन मनाया गया। पंचम के बारे में एक बात लगातार कही जाती रही है कि ‌उन्होंने नई आवाज़ और बीट्स से सबका परिचय कराया। पुराने साजों के अलग तरीके से इस्तेमाल के साथ साथ उन्होंने कई नए वाद्य यंत्रों का भी प्रचलन किया। दरअसल यही पंचम की शैली थी। अपने बाबा सचिन देवबर्मन से उन्होंने बहुत कुछ सीखा पर वो उनसे हमेशा कुछ अलग करना चाहते थे। 

पर राग और रागिनियों के बारे में पंचम की जानकारी बिल्कुल नहीं हो ऐसा भी नहीं था। बचपन में उन्होंने ब्रजेन विश्वास से तबला सीखा। सरोद सीखने के लिए उन्हें अली अकबर खान के पास भेजा गया। अली अकबर खान और पंडित रविशंकर के बीच की सरोद और सितार के बीच की लंबी जुगलबंदी को भी उन्हें लगातार सुनने का मौका मिला। यही वज़ह है कि पंचम ने जब भी राग आधारित गीतों की रचना की, अपने प्रशंसकों की नज़र में खरे उतरे।

पंचम और गुलज़ार का आपसी परिचय बंदिनी से शुरु हुआ जिसमें पंचम सचिन दा के सहायक का काम निभा रहे थे और गुलज़ार गीतकार का (वैसे तो फिल्म के अन्य गीत शैलेंद्र से लिखवाए गए थे पर मोरा गोरा अंग लई ले के लिए गुलज़ार को याद किया गया था)। पर बतौर निर्देशक गुलज़ार ने पंचम के साथ पहली बार सत्तर के दशक में फिल्म परिचय के लिए काम किया। इस फिल्म के सारे गीत काफी चर्चित हुए। पर उनमें एक गीत बाकियों से पंचम के लिए इन अर्थों में भिन्न था कि वो पहली बार शास्त्रीय राग आधारित किसी युगल गीत का संगीत निर्देशन कर रहे थे। ये गीत था बीते ना बिताई रैना...। 


कई बार गीत की धुन इतनी प्यारी होती है कि हम बिना उसका अर्थ समझे भी उसे गुनगुनाने लगते हैं। स्कूल के समय पहली बार सुने इस गीत को मैं कॉलेज के ज़माने तक चाँद की बिन दीवाली बिन दीवाली रतिया  :) समझकर गाता रहा। मुझे कुछ ऐसे लोग भी मिले जो इसे 'चाँद के बिन दीवानी बिन दीवानी रतिया..' समझते रहे। ख़ैर किसी संगीत मर्मज्ञ ने जब ये बताया कि गुलज़ार यहाँ चाँद की बिंदी वाली रतियों की बात कर रहे हैं तो गीत के प्रति मेरी आसक्ति और बढ़ी।

पंचम ने राग यमन और खमाज़ को मिला जुलाकर जो धुन तैयार की उसमें सितार और तबले को प्रमुखता से स्थान मिला। एक ओर पंचम की मधुर धुन थी तो दूसरी ओर गुलज़ार के बेमिसाल शब्द। क्या क्या उद्धृत करूँ? भींगे नयनों से रात को बुझाने की बात हो या फिर रात को चाँद की बिदी जैसा दिया गया विशेषण। पंचम दा ने स्वर कोकिला लता मंगेशकर के साथ इस गीत में भूपेंद्र की धीर गंभीर आवाज़ का प्रयोग किया जो फिल्म में संजीव कुमार पे खूब फबी। आज भी जब रात में नींद कोसों दूर होती है और मन अनमना सा रहता है तो इस गीत को गुनगुनाना बेहद सुकून पहुँचाता है। वैसे भी गुजरी ज़िदगी के बीते हुए लमहों और उन्हें खास बनाने वाले लोग अगर किसी गीत के माध्यम से याद आ जाएँ तो आँखों में उभर आए आँसुओं के कतरे ओस की बूँदों की तरह मन के ताप को हर ही लेते हैं। तो आइए सुनते हैं इस गीत को...


बीती ना बिताई रैना, बिरहा की जाई रैना
भीगी हुई अँखियों ने लाख बुझाई रैना

बीती हुयी बतियाँ कोई दोहराए
भूले हुए नामों से कोई तो बुलाये
चाँद की बिंदी वाली, बिंदी वाली रतिया
जागी हुयी अँखियों में रात ना आयी रैना

युग आते है, और युग जाए
छोटी छोटी यादों के पल नहीं जाए
झूठ से काली लागे, लागे काली रतिया
रूठी हुयी अँखियों ने, लाख मनाई रैना


जया जी ने एक बार अमीन सायनी को दिये साक्षात्कार में कहा था कि हम लोग इस गाने की शूटिंग करते समय इतने डूब गए थे कि ऐसा लग रहा था कि गाने के भाव हमारी असल ज़िंदगी में घटित हो रहे हैं। हालात ये थे कि मैं, संजीव कुमार और सेट पर मौज़ूद टेकनीशियन सब की आँखें भींगी हुई थी शूट के बाद।

इस गीत के लिए उस साल यानि 1972 का सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायिका का पुरस्कार लता मंगेशकर को मिला। पंचम भले ही कोई इस फिल्म या गीत के लिए पुरस्कार ना जीत पाएँ हों पर उन्होंने बतौर संगीतकार उन लोगों के मन में आदर का भाव जागृत कराया जो उन्हें सिर्फ पश्चिमी संगीत के भारतीयकरण करने में ही पारंगत मानते थे।
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18 टिप्पणियाँ:

Leena Mehendale ने कहा…

सदा की तरह बहुत सुंदर लेख

Manish Kumar on जून 29, 2014 ने कहा…

लेख पसंद करने के लिए आभार लीना जी !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' on जून 29, 2014 ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (30-06-2014) को "सबसे बड़ी गुत्थी है इंसानी दिमाग " (चर्चा मंच 1660) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

बेनामी ने कहा…

एक बहुत सुंदर गीत इतनी अच्छी जानकारी के साथ सुनवाने के लिए हार्दिक धन्यवाद | आपकी अगली पोस्ट का हमेशा इंतजार रहता है | सादर

राजेश गोयल

HARSHVARDHAN on जून 29, 2014 ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन की आज कि बुलेटिन वास्तविकता और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

Asha Joglekar on जून 29, 2014 ने कहा…

सुंदर गीत और जानकारी देती पोस्ट।

दीपिका रानी on जून 30, 2014 ने कहा…

रात और चांद तो गुलज़ार के फेवरिट हैं..

Ekta Singh on जून 30, 2014 ने कहा…

hame ye geet bahut pasand hai..thanks

Anurag Arya on जून 30, 2014 ने कहा…

I know its a classic in nature but some how i love it even some time sing it . thats the beauty of pancham .It can compete with "jaidev "music of "AALAP "

Sonroopa Vishal on जून 30, 2014 ने कहा…

चाँद की बिन दीवाली बिन दीवाली रतिया..................मैं भी इसको ऐसे ही गाती और समझती रही थी पहले !

Manish Kumar on जून 30, 2014 ने कहा…

इसे गुनगुनाना मुझे भी हमेशा से बेहद सुकून देता आया है अनुराग

जानकर खुशी हुई एकता

यानी हमारी सोच में शुरु से साम्यता रही है सोनरूपा :)

हर्षवर्धन, शास्त्री जी, आशा जी शुक्रिया !
दीपिका बिल्कुल

Manish Kumar on जून 30, 2014 ने कहा…

राजेश गोयल यूँ ही अपनी राय रखते रहिए !

Unknown on जुलाई 03, 2014 ने कहा…

Waah! Bahut sundar geet. Inn sadabhaar geeto ko Kitni bar bhi suna jaye kam hai.. Shayad isliye hi in he sadabahar geet kehte hai...

दिलीप कवठेकर on जुलाई 04, 2014 ने कहा…

आप सही फ़रमाते हैं.

अमूमन अभी भी मैं कई पुराने गीतों को मात्र उनके धुनों के चमत्कार के कारण पहचानता हूं. यह गीत भी ऐसा ही है, जिसकी इतनी अच्छी लिखाई और उसके पीछे के भावार्थ अभी अभी पूरी तरह से पढे और समझ के दाद दिये बगैर नहीं रह सका.....
शुक्रिया इस गीत को पोस्ट करने के लिये.

Sandeep Lele on जुलाई 05, 2014 ने कहा…

My most favorite song! Thanks Manish-san for your wonderful write-up!!

Aarna Singh on जुलाई 05, 2014 ने कहा…

वाह वाह......पुरानी यादों की गलियों में मन भटकने लगा..

Guide Pawan Bhawsar on जुलाई 05, 2014 ने कहा…

बेहद उम्दा गीत और शालीन संगीत ....
अद्भुत लेखन और गायन
मास्टर स्ट्रोक आर.डी.बर्मन का .....
आर डी बर्मन साहब हमारे दिल के किसी कोने में हरदम अपने अनमोल नगमो से तरंगीत रहते हे
कई मुकाम और कई पीढ़िया
आपने संगीत से सजाई
जीवन में मेरे पन्चम दा का ना होना अखरता हे
ज़िन्दगी के सफ़र में गुजर जाते हे जो मक़ाम वो फीर नही आते...गाइड पवन भावसार

Asha Joglekar on जुलाई 26, 2014 ने कहा…

आज फिर मन हुआ इस गीत को सुनने का।

 

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