रविवार, नवंबर 02, 2014

गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले.. Gulon Mein Rang bhare...

दीवाली की छुट्टियों के दौरान विशाल भारद्वाज की फिल्म हैदर देखी। फिल्म में विशाल ने फैज़ की लिखी सदाबहार ग़ज़ल गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले फिर से जुबाँ पर ला दी। फिल्मों में किसी ग़ज़ल को खूबसूरती से पेश किया जाए तो उसमें अन्तरनिहित भावनाएँ दिल में बहुत दिनों तक बनी रहती हैं। सोचा था वार्षिक संगीतमाला 2014 में  अरिजित सिंह की गाई इस ग़ज़ल को तो स्थान मिलेगा ही तब ही लिखूँगा इसके बारे में। पर एक बार कोई गीत ग़ज़ल दिमाग पर चढ़ जाए फिर मन कहाँ मानता है बिना उसके बारे में लिखे हुए। मुझे मालूम है कि हैदर देखते हुए बहुत से लोगों का पहली बार इस ग़ज़ल से साबका पड़ा होगा और उसकी भावनाओं की तह तक पहुँचने की राह में उर्दू व फ़ारसी के कठिन शब्दों ने रोड़े अटकाए होंगे। मैंने यही कोशिश की है कि जो भावनाएँ ये ग़ज़ल मेरे मन में जगाती है वो इस आलेख के माध्यम से आप तक पहुँचा सकूँ। ये इस ग़ज़ल का शाब्दिक अनुवाद नहीं पर ग़ज़ल को समझने की मेरी छोटी सी कोशिश है। ग़ज़ल का मतला है..

गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

काश ऐसा हो कि वसंत की ये हवा चले और इस बागीचे के सारे फूल अपने रंग बिरंगे वसनों को पहन कर खिल उठें। पर सच बताऊँ इस गुलशन की असली रंगत तो तब आएगी जब तुम इनके बीच रहो।

कफ़स उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बह्र-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुब्ह तेरे कुन्ज-ए-लब से हो आगाज़
कभी तो शब् सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले


फ़ैज़ ने ये ग़ज़ल तब लिखी थी जब वो जेल की सलाखों के पीछे थे। उनके अशआरों में छुपी बेचैनी को इसी परिपेक्ष्य में महसूस करते हुए ऐसा लगता है मानो वे कह रहे हों इन सींखचों के पीछे मन में तैरती उदासी जाए तो जाए कैसे ? ऐ हौले हौले बहने वाली हवा भगवान के लिए तुम्हीं उनका कोई ज़िक्र छेड़ो ना। क्या पता उनकी यादों की खुशबू इस मायूस हृदय को सुकून पहुँचा सके। कभी तो ऐसा हो कि सुबह की शुरुआत तुम्हारे होठों के किनारों के छू जाने से होने वाली सिहरन की तरह हो। कभी तो रात का आँचल तुम्हारी घनी जुल्फो से आती खुशबू सा महके।

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब्-ए-हिजरां
हमारे अश्क तेरे आक़बत सँवार चले

जब हम प्रेम में होते हैं तो हमें अपने से ज्यादा अपने साथी की फिक्र होती है उसकी हर खुशी हमें अपने ग़म से बढ़कर प्रतीत होती हैं। फ़ैज अपने  शेर में इस भावना को कुछ यूँ बयाँ करते हैं.. मैं तो अपनी पीड़ा को किसी तरह सह लूँगा पर मेरे दोस्त मुझे इस बात का संतोष तो है कि विरह की उस रात में बहे मेरे आँसू बेकार नहीं गए। कम से कम आज तुम्हारारे भविष्य सही राहों पर तो है।

हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह मे लेके गरेबां का तार-तार चले

आज उन्होंने बुलाया है मुझे, मेरे जुनूँ मेरी दीवानगी के सारे बही खातों पर गौर फ़रमाने के लिए और मैं हूँ कि अपने दिल रूपी गिरेबान कें अदर दर्द के इन टुकड़ो् की गाँठ बाँध कर निकल पड़ा हूँ।

मक़ाम फैज़ कोई राह मे जँचा ही नही
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

फ़ैज ने आपनी शायरी की शुरुआत तो रूमानियत से की पर माक्रसवादी विचारधारा के प्रभाव ने उन्हें एक क्रांतिकारी शायर बना दिया। अपनी ज़िदगी में उन्होंने कभी बीच की राह नहीं चुनी। मक़्ते में शायद इसीलिए वे कहते हैं इस दोराहे के बीच उन्हें कोई और रास्ता नहीं दिखा। प्रेमिका की गली से निकले तो फिर वो राह चुनी जो फाँसी के फंदे पर जाकर ही खत्म होती थी।

वैसे तो इस ग़ज़ल को तमाम गायकों ने अपनी आवाज़ दी है पर पर जनाब मेहदी हसन की अदाएगी की बात कुछ और है तो लीजिए सुनिए उनकी आवाज़ में ये दिलकश ग़ज़ल


वैसे अगर आप पूरी पोस्ट मेरी आवाज़ में सुनना चाहते हों तो इस पॉडकॉस्ट में सुन भी सकते हैं। बोलने में तीन चार जगह गलतियाँ हो गई हैं उसके लिए पहले से ही क्षमा प्रार्थी हूँ।

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8 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी on नवंबर 02, 2014 ने कहा…

पहले भी कई बार सुनी थी । आज फिर एक बार और सुन ली । आभार ।

Mamta Swaroop on नवंबर 04, 2014 ने कहा…

Aap ki aawaz me ghazal suni . Bahut achha laga . Aap ka prayas sarahniy hai bahut sundar.

Sonroopaa Vishal on नवंबर 06, 2014 ने कहा…

Aapki ye post padhi ....bahut badhiya...Faiz sahab ki rooh ki aavaz ko sateek byaan kiya hai aapne.

Kamlesh Kumar Shukla on नवंबर 06, 2014 ने कहा…

Aur Mehndi hassan saheb ne apni awaz de kar is ghazal me char chand laga diya ..

lori on नवंबर 10, 2014 ने कहा…

भाई! सबसे प्यारी चीज़ फिल्म " हैदर" की
" पोशन बहारां आओ यूर्वालो …।" गीत के साथ इसका सामंजस्य।
बहरहाल फिल्म बड़ी जानदार है
ग़ज़ल का इस्तेमाल बढ़िया हुआ है.
खासकर :
" क़फ़स उदास है यारों ! मिसरे का तो गज़ब इस्तेमाल किया है "
आपसे क्या कहूँ , अपने ब्लॉग पर इसके बारे में लिखने वाली थी
मगर रिसर्च मोहलत ही नहीं दे रही
आपने मेरी फीलिंग्स को अलफ़ाज़ दे दिए - शुक्रिया

Manish Kumar on नवंबर 17, 2014 ने कहा…

सुशील जी शुक्रिया

ममता जी सोनरूपा जी मेरा ये प्रयास आपको पसंद आया जानकर अच्छा लगा

कमलेश जी बिकलुल सही कह रहे हैं आप

Manish Kumar on नवंबर 17, 2014 ने कहा…

लोरी जी फिल्म में डा. साहब की आवाज़ में इसका गुनगुनाया जाना रोंगटे खड़े कर देता है। इस सदाबहार ग़ज़ल को विशाल ने आज की पीधी के सामने पेश किया है वो काबिलेतारीफ़ है।

मन्टू कुमार on नवंबर 26, 2015 ने कहा…

मिल गई :)
अबतक तो सिर्फ मतले का अर्थ समझकर पूरे ग़ज़ल को सुनते आए थे अब सब समझ आया है...धन्यवाद !

 

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