गुरुवार, अप्रैल 28, 2016

रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं... Rog Aise Bhi Gham E Yaar Se Lag Jate Hain...

अहमद फ़राज़ मेरे प्रिय शायरों में से एक रहे हैं। उन्हें पढ़ना या यूँ कहूँ कि बार बार पढ़ना मन को सुकून देता रहा है। शायरी की आड़ में उनकी चुहलबाजियाँ जहाँ मन को गुदगुदाती रही हैं वहीं उदासी के साये में उनके अशआर हमेशा मन को अपने सिराहने बैठे मिले हैं। इसी लिए गाहे बगाहे उनकी शायरी आपसे बाँटता रहा हूँ। आज जब उनकी एक ग़ज़ल रह रह कर होठों पर आ रही है उनसे जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा आपको बताना चाहता हूँ। बहुत पहले एक साक्षात्कार में उनके भाई मसूद क़ौसर से किसी ने पूछा कि फ़राज साहब का पहला शेर कौन सा था ?

उनके भाई साहब का कहना था कि बचपन में एक बार उनके वालिद़ पूरे घर भर के लिए कपड़े लाए। फ़राज़ को अपने कपड़ों से कहीं ज्यादा बड़े भाई के लिए लाए गए कपड़े पसंद आ गए और तभी उन्होंने अपनी पहली तुकबंदी इस शेर के माध्यम से व्यक्त की

लाए हैं सबके लिए कपड़े सेल से
लाए हैं हमारे लिए कंबल जेल से

फ़राज को अपनी शायरी सुनाने का बड़ा शौक़ था। पढ़ते तो थे पेशावर में लड़कों के कॉलेज में पर उनकी शायरी के चर्चे पास के गर्ल्स कोलेज में भी होते। पाकिस्तान रेडियो में नौकरी भी मिली तो वे काम से ज्यादा अपने सहकर्मियों को हर दिन अपना नया ताज़ा शेर सुनाना नहीं भूलते थे। पर उनकी प्रतिभा ऐसी थी कि घर हो या दफ़्तर, उन्हें बड़े प्यार से सुना जाता था। हिसाब और भूगोल जैसे विषयों में वे हमेशा कमज़ोर रहे पर रूमानी खयालातों पर तो मानो पी एच डी कर रखी थी उन्होंने। वक़्त के साथ फ़ैज़ और अली सरदार जाफ़री जैसे प्रगतिशील शायरों की शायरी का असर भी उन पर पड़ा और यही वज़ह थी कि पाकिस्तान में जिया उल हक़ के  समय उन्होंने सेना के शासन का पुरज़ोर विरोध भी किया।

आज आपसे उनकी जिस ग़ज़ल का जिक्र छेड़ रहा हूँ उसमें  रूमानियत भी है और दार्शनिकता का पुट भी।

कितने प्यारे अंदाज़ में वो कह जाते हैं कि शुरु शुरु में तो इश्क़ एक मीठा सा अहसास जगाता है पर एक बार जब वो अपनी जड़े दिल में जमा लेता है तो तमाम दर्द का सबब भी वही बन जाता है। दर्द भी ऐसा जनाब कि पल पल सहारा ढूँढे।


रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं

इश्क आगाज़1 में हलकी सी खलिश2 रखता है
बाद में सैकड़ों आज़ार3 से लग जाते हैं

फ़राज अपने अगले शेर में जीवन के एक कटु सत्य को प्रकट करते  हुए कहते हैं एक बार आपने अपने ज़मीर को वासना के हवाले छोड़ दिया तो फिर वो उसका दास बन कर ही रह जाता है।

पहले पहल हवस इक-आध दुकां खोलती है
फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते है

दुख में सुख को खोज लेना भी कोई फ़राज से सीखे। अपनी पीड़ा को हल्का करने का कितना शातिर तरीका खोज निकाला है उन्होंने.... :)

बेबसी भी कभी कुर्बत4 का सबब5 बनती है
रो न पायें तो गले यार के लग जाते हैं

किसी के दुख के प्रति सहानुभूति प्रकट करना एक बात है पर उसे अपनाना इतना आसान भी नहीं तभी तो फ़राज कहते हैं... 

कतरनें ग़म की जो गलियों में उडी फिरती है
घर में ले आओ तो अम्बार से लग जाते है

और इस शेर की तो बात ही क्या ! पूरी ग़ज़ल का हासिल है ये। वक्त बीतता है, उम्र बढ़ती है और साथ साथ बढ़ता है हमारे अनुभवों का ख़जाना। भावनाएँ हमें  रिश्तों में उलझाती हैं, प्रेम करना सिखाती हैं और उन्हें फिर तोड़ना भी। उम्र की इस रफ़्तार  में सिर्फ चेहरे की सलवटें ही हमें परेशान नहीं करतीं। दामन पर पड़े दागों को भी दिल में सहेजना पड़ता है। .. ढोना पड़ता है।

दाग़ दामन के हों, दिल के हों या चेहरे के फ़राज़
कुछ निशाँ उम्र की रफ़्तार से लग जाते हैं

रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं
इश्क आगाज़* में हलकी सी खलिश* रखता है
बाद में सैकड़ों आज़ार* से लग जाते हैं
पहले पहल हवस इक-आध दुकां खोलती है
फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते है
बेबसी भी कभी कुर्बत* का सबब* बनती है
रो न पायें तो गले यार के लग जाते हैं
कतरनें ग़म की जो गलियों में उडी फिरती है
घर में ले आओ तो अम्बार से लग जाते है
दाग़ दामन के हों, दिल के हों या चेहरे के फ़राज़
कुछ निशाँ उम्र की रफ़्तार से लग जाते हैं
1.शुरुआत  2.बेचैनी  3.दर्द  4.नज़दीकी   5. कारण

फ़राज की इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ में पढ़ने की कोशिश की है। सुनने के लिए नीचे के बटन पर क्लिक करें..


और अगर फ़राज के रंग में और रँगना चाहते हैं तो इन्हें पढ़ें..

एक शाम मेरे नाम पर अहमद फ़राज़

रविवार, अप्रैल 17, 2016

कौन कहता है मोहब्बत की जुबाँ होती है..कविता मूर्ति देशपांडे Kaun Kehta Hai Mohabbat Ki.. Kavita Murti Deshpande

कुछ दिन पहले की बात है। एक मित्र ने व्हाट्सएप पर एक ग़ज़ल का वीडियो भेजा। जानी पहचानी ग़ज़ल थी। अस्सी के दशक में जगजीत चित्रा की आवाज़ में खूब बजी और सुनी हुई। पर जो वीडियो भेजा गया था उसमें महिला स्वर नया सा था। बड़ी प्यारी आवाज़ में ग़ज़ल के कुछ मिसरे निभाए गए थे। अक्सर भूपेंद्र व मिताली मुखर्जी की आवाज़ में जगजीत चित्रा की कई ग़ज़लें पहले भी सुनी थीं। तो मुझे लगा कि ये मिताली ही होंगी।

कल मुझे पता चला कि वो आवाज़ मिताली की नहीं बल्कि कविता मूर्ति देशपांडे की है। कविता मूर्ति जी ने ये ग़ज़ल अपने एक कान्सर्ट Closer to Heart के अंत में गुनगुनाई थी। कविता नूरजहाँ, शमशाद बेगम, सुरैया व गीत्ता दत्त जैसे फनकारों की आवाज़ों में अपनी आवाज़ को ढालती रही हैं। पुराने नग्मों को आम जन की याद में जिंदा रखने के इस कार्य में पिछले एक दशक से लगी हैं और पाँच सौ से ज्यादा कानसर्ट में अपनी प्रतिभा के ज़ौहर दिखलाती रही हैं। पर वो ग़ज़ल उनकी अपनी आवाज़ में कानों में एक मिश्री सी घोल गई।


ये ग़ज़ल लिखी थी साहिर साहब ने। ये वो साहिर नहीं जिसने अपनी अज़ीम शायरी से लुधियाना को शेर ओ शायरी की दुनिया में हमेशा हमेशा के लिए नक़्श कर दिया। पंजाब में एक और शायर हुए इसी नाम के। बस अंतर ये रहा कि उन्होंने लुधियाना की जगह होशियारपुर में पैदाइश ली। ये शायर थे साहिर होशियारपुरी। साहिर होशियारपुरी का वास्तविक नाम राम प्रसाद था । उन्होंने होशियारपुर के सरकारी कॉलेज से पारसी में एम ए की डिग्री ली और फिर कानपुर से पत्र पत्रिकाओं के लिए लिखते रहे। होशियारपुरी, जोश मलसियानी के शागिर्द थे जिनकी शायरी पर दाग देहलवी का काफी असर माना जाता रहा है।

साहिर होशियारपुरी ने तीन किताबें जल तरंग, सहर ए नग्मा व सहर ए ग़जल लिखीं जो उर्दू में हैं। यही वज़ह है कि उनकी शायरी लोगों तक ज़्यादा नहीं पहुँच पाई। जगजीत सिंह ने उनकी ग़ज़लों तुमने सूली पे लटकते जिसे देखा होगा और कौन कहता है कि मोहब्बत कि जुबाँ होती हैं को गा कर उनकी प्रतिभा से लोगों का परिचय करा दिया।

जगजीत की ग़ज़लों के आलावा उनकी एक ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद थी । पूरी ग़ज़ल तो याद नहीं पर इसके जो शेर मुझे पसंद थे वो अपनी डॉयरी के पन्नो् से यहाँ बाँट रहा हूँ।

दोस्त चले जाते हैं तो कोई शहर एकदम से बेगाना लगने लगता है और अकेलापन काटने को दौड़ता है और तब साहिर की उसी ग़ज़ल के ये अशआर याद आते हैं..

किसी चेहरे पे तबस्सुम1, ना किसी आँख में अश्क़2
अजनबी शहर में अब कौन दोबारा जाए

शाम को बादाकशीं3, शब को तेरी याद का जश्न
मसला ये है कि दिन कैसे गुजारा जाए

वैसे इसी ग़ज़ल के ये दो अशआर भी काबिले तारीफ़ हैं।

तू कभी दर्द, कभी शोला, कभी शबनम है
तुझको किस नाम से ऐ ज़ीस्त4  पुकारा जाए

हारना बाजी ए उल्फत5 का है इक खेल मगर
लुत्फ़ जब है कि इसे जीत के हारा जाए
1. हँसी, 2. आँसू, 3. शराब पीना 4. ज़िंदगी 5. प्रेम

तो बात हो रही थी कि साहिर होशियारपुरी की इस ग़ज़ल को जगजीत चित्रा ने तो अपनी आवाज़ से अमरत्व दे दिया था पर कविता मूर्ति ने अपनी मीठी आवाज़ में इसे सुनाकर हमारी सुषुप्त भावनाओं को एक बार फिर से जगा दिया। पर उन्होंने ये ग़ज़ल पूरी नहीं गाई।  

वाकई कितनी प्यारी ग़ज़ल है।आँखों ही आंखों में इशारे हो गया वाला गीत तो हम बचपन से सुन ही रहे हैं ,साहिर साहब ने आँखों की इसी ताकत से ग़ज़ल का खूबसूरत मतला गढ़ा है। और ख़लिश वाले शेर की तो बात ही क्या ! वो ना रहें तो उनकी याद खाने को दौड़ती है और सामने आ जाएँ तो दिल इतनी तेजी से धड़कता है कि उस पर लगाम लगाना मुश्किल। मक़ते में सुलगती चिता के रूप में ज़िंदगी को देखने का उनका ख़्याल गहरा है
। तो आइए पहले सुनें इस ग़ज़ल को कविता मूर्ति की आवाज़ में..



कौन कहता है मोहब्बत की जुबाँ होती है
ये हकीक़त तो निगाहों से बयाँ होती है

वो ना आए तो सताती है ख़लिश1 दिल को
वो जो आए तो ख़लिश और जवाँ होती है।

रूह को शाद2 करे दिल को जो पुरनूर3 करे
हर नजारे में ये तनवीर4 कहाँ होती है

ज़ब्त-ऐ-सैलाब-ऐ-मोहब्बत को कहाँ तक रोके
दिल में जो बात हो आंखों से अयाँ5 होती है

जिंदगी एक सुलगती सी चिता है "साहिर"
शोला बनती है न ये बुझ के धुआँ होती है

 1. पीड़ा, 2. प्रसन्न, 3. प्रकाशमान 4. रौशनी 5.स्पष्ट, ज़ाहिर


पूरी ग़ज़ल जगजीत चित्रा की आवाज़ में ये रही...

साहिर होशियारपुरी ने तो 1994 में हमारा साथ छोड़ दिया पर उनकी ग़ज़लों की खुशबू हमारे साथ है, बहुत कुछ उनके इस शेर की तरह...

मैं फ़िज़ाओं में बिखर जाऊंगा ख़ुशबू बनकर,
रंग होगा न बदन होगा न चेहरा होगा

बुधवार, अप्रैल 06, 2016

आजा पिया, तोहे प्यार दूँ.. गोरी बैयाँ , तोपे वार दूँ Aaja Piya Tohe Pyar Doon..

साठ के दशक में नासिर हुसैन साहब ने एक फिल्म बनाई थी बहारों के सपने। फिल्म का संगीत तो बहुत लोकप्रिय हुआ था पर अपनी लचर पटकथा के कारण फिल्म बॉक्स आफिस पर ढेर हो गयी थी। कल बहुत दिनों बाद इस फिल्म के अपने प्रिय गीत को सुनने का अवसर मिला तो सोचा आज इसी गीत पर आपसे दो बातें कर ली जाएँ। लता की मीठी आवाज़ और मज़रूह के लिखे बोलों पर पंचम की संगीतबद्ध इस मधुर रचना को सुनते ही मेरा इसे गुनगुनाने का दिल करने लगता है। मजरूह साहब ने इतने सहज पर इतने प्यारे बोल लिखे इस गीत के कि क्या कहा जाए। पर पहले बात संगीतकार  पंचम की।

1967 में जब ये फिल्म प्रदर्शित हुई थी तो पंचम  तीसरी मंजिल की सफलता के बाद धीरे धीरे हिंदी फिल्म संगीत में अपनी पकड़ जमा रहे थे। पर शुरु से ही उनकी छवि पश्चिमी साजों के साथ तरह तरह की आवाज़ों को मिश्रित कर एक नई शैली विकसित करने वाले संगीतकार की बन गयी थी। पर उन्होंने अपनी इस छवि से हटकर जब भी शास्त्रीय या विशुद्ध मेलोडी प्रधान गीतों की रचना की, परिणाम शानदार ही रहे। आजा पिया, तोहे प्यार दूँ... का शुमार पंचम के ऐसे ही गीतों में किया जाता रहा है।


वैसे  क्या आपको मालूम है कि इस गीत की धुन इस फिल्म को सोचकर नहीं बनाई गयी थी। सबसे पहले इस धुन का इस्तेमाल फिल्म तीन देवियाँ के पार्श्व संगीत में हुआ था। सचिन देव बर्मन उस फिल्म के संगीतकार थे पर संगीत के जानकारों का मानना है  कि उसका पार्श्व संगीत यानि बैकग्राउंड स्कोर पंचम की ही देन थी। हाँ, ये बात जरूर थी कि मजरूह सुल्तानपुरी दोनों फिल्मों के गीतकार थे। हो सकता हूँ मजरूह ने ये गीत तभी लिखा हो  और उस फिल्म में ना प्रयुक्त हो पाने की वज़ह से उसका इस्तेमाल यहाँ हुआ हो या फिर उस शुरुआती धुन को पंचम ने इस फिल्म के लिए विकसित किया हो। ख़ैर जो भी हो पंचम को इस बात की शाबासी देनी चाहिए कि उन्होंने मधुर लय में बहते गीत के संगीत संयोजन में लता की आवाज़ को सर्वोपरि रखा। इंटरल्यूड्स में एक जगह संतूर के टुकड़े के साथ  बाँसुरी आई तो दूसरी जगह सेक्सो।

गीतकार मज़रूह के कम्युनिस्ट अतीत, गीत लिखने के प्रति उनकी शुरुआती अनिच्छा और प्रगतिशील ग़ज़ल लिखने वालों में फ़ैज़ के समकक्ष ना पहुँच पाने के मलाल जैसी कुछ बातों के बारे में मैं यहाँ पहले भी लिख चुका हूँ आज आपके सामने उनका परिचय उनके समकालीन शायर निदा फ़ाजली के माध्यम से कराना चाहता हूँ।



निदा फ़ाज़ली ने अपने एक संस्मरण में मजरूह की छवि को बढ़ी खूबसूरती से कुछ यूँ गढ़ा है

"..... शक़्लो सूरत से क़ाबीले दीदार, तरन्नुम से श्रोताओं के दिलदार, बुढ़ापे तक चेहरे की जगमगाहट, पान से लाल होठों की मुस्कुराहट और अपने आँखों की गुनगुनाहट से मज़रूह दूर से ही पहचाने जाते थे। बंबई आने से पहले यूपी के छोटे से इलाके में एक छोटा सा यूनानी दवाखाना चलाते थे। एक स्थानीय मुशायरे  में जिगर साहब ने उन्हें सुना और अपने साथ मुंबई के एक बड़े मुशायरे में ले आए। सुंदर आवाज़, ग़ज़ल में उम्र के लिहाज से जवान अल्फाज़, बदन पर सजी लखनवी शेरवानी के अंदाज़ ने स्टेज पर जो जादू जगाया कि पर्दा नशीनों ने नकाबों को उठा दिया।....."

मज़रूह ने जहाँ अपनी शायरी में अरबी फारसी के शब्दों का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया वहीं गीतों में यूपी की बोली का। नतीजा ये  रहा कि  उनकी ग़ज़लों की अपेक्षा  गीतों को आम जनता ने हाथों हाथ लिया। अब इस गीत को ही लें, एक प्रेम से भरी नारी की भावनाओं को कितनी सहजता से व्यक्त किया था मजरूह ने। दुख के बदले सुख लेने की बात तो ख़ैर अपनी जगह थी पर उसके साथ मैं भी जीयूँ, तू भी जिए लिखकर मजरूह ने उस भाव को कितना गहरा बना दिया। तीनों अंतरों में सरलता से कही मजरूह की बातें लता जी की आवाज़ में कानों में वो रस बरसाती हैं कि बस मन  किसी पर न्योछावर कर देने को जी चाहने लगता है..
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आजा पिया, तोहे प्यार दूँ
गोरी बैयाँ , तोपे वार दूँ
किसलिए तू, इतना उदास?
सूखे सूखे होंठ, अखियों में प्यास
किसलिए, किसलिए?

जल चुके हैं बदन कई, पिया इसी रात में
थके हुए इन हाथों को, दे दे मेरे हाथ में
हो सुख मेरा ले ले, मैं दुःख तेरे ले लूँ
मैं भी जीयूँ, तू भी जिए

होने दे रे, जो ये जुल्मी हैं, पथ तेरे गाँव के
पलकों से चुन डालूँगी मैं, कांटे तेरे पाँव के
हो लट बिखराए, चुनरिया बिछाए
बैठी हूँ मैं, तेरे लिए

अपनी तो, जब अखियों से, बह चली धार सी
खिल पड़ीं, वहीं इक हँसी , पिया तेरे प्यार की
हो मैं जो नहीं हारी, सजन ज़रा सोचो
किसलिए, किसलिए?


वैसे आपका क्या ख्याल है इस गीत के बारे  में ?
 

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