बुधवार, मई 31, 2017

खुल के मुस्कुरा ले तू, दर्द को शर्माने दे...बूँदों को धरती पर साज एक बजाने दे Khul Ke Muskura Le Tu

कई बार आप सब ने गौर किया होगा। रोजमर्रा की जिंदगी भले ही कितने तनावों से गुज़र रही हो, किसी से हँसी खुशी दो बातें कर लेने से मन हल्का हो जाता है। थोड़ी सी मुस्कुराहट मन में छाए अवसाद को कुछ देर के लिए ही सही, दूर भगा तो डालती ही है। पर दिक्कत तब होती है जब ऐसे क्षणों में आप बिलकुल अकेले होते हैं। बात करें तो किससे , मुस्कुराहट लाएँ तो कैसे ?



पर सच मानिए अगर ऍसे हालात से आप सचमुच गुजरते हैं तो भी किसी का साथ हर वक़्त आपके साथ रहता है। बस अपनी दिल की अँधेरी कोठरी से बाहर झाँकने भर की जरूरत है। जी हाँ, मेरा इशारा आपके चारों ओर फैली उस प्रकृति की ओर है जिसमें विधाता ने जीवन के सारे रंग समाहित किए हैं।

चाहे वो फुदकती चिड़िया का आपके बगीचे में बड़े करीने से दाना चुनना हो...

या फिर बाग की वो तितली जो फूलों के आस पास इस तरह मँडरा रही हो मानो कह रही हो..अरे अब तो पूरी तरह खिलो, नया बसंत आने को है और अभी तक तुम अपनी पंखुड़ियां सिकोड़े बैठे हो ?


या वो सनसनाती हवा जिसका स्पर्श एक सिहरन के साथ मीठी गुदगुदी का अहसास आपके मन में भर रहा हो....


या फिर झील का स्थिर जल जो हृदय में गंभीरता ला रहा हो...


या उफनती नदी की शोखी जो मन में शरारत भर रही हो..


या बारिश की बूदें जो पुरानी यादों को फिर से गीला कर रहीं हों...

हम जितने तरह के भावों से अपनी जिंदगी में डूबते उतराते हैं, सब के सब तो हैं इस प्रकृति में किसी ना किसी रूप में...मतलब ये कि अपने आस पास की फ़िज़ा को जितना ही महसूस करेंगे, अपने दर्द, अपने अकेलेपन को उतना ही दूर छिटकता पाएँगे।



कुछ ऍसी ही बातें प्रसून जोशी ने अपने इस गीत में करनी चाही हैं  फिल्म फिर मिलेंगे से लिया गया है। ये एक ऐसे युवती की कहानी है जिसे अचानक पता चलता है कि वो AIDS वॉयरस से संक्रमित है। प्रसून की लेखनी इस गीत में उसके इर्द गिर्द की ढहती दुनिया के बीच उजाले की किरण तलाशने निकलती है। मुझे हमेशा जानने का मन करता था कि इस गीत को लिखते हुए प्रसून के मन में क्या भाव रहे होगे। मुझे अपनी जिज्ञासा का उत्तर उनकी किताब धूप के सिक्के पढ़ते वक़्त मिला जहाँ उन्होंने इस गीत के बारे में लिखा..
"दुख और दर्द तो प्रकट हैं, पर मैं उन्हें उम्मीद के समक्ष बौना दिखाना चाहता था। यह ऐसा नहीं था कि कोई निराशा के अँधेरों में हो और उसे बलपूर्वक सूरज की रोशनी के सामने खड़ा कर दिया जाए। यहाँ भाव था हौले से मनाने का। यह कहने का कि देखो वह झरोखे से आती धूप की किरणें कितनी सुंदर दिखती हैंन? यह वैसे ही था कि आप दर्द से गुजर रहे व्यक्ति के गले में हाथ डालकर, धीरे से पूरी संवेदनशीलता के साथ उन छोटी छोटी मगर खूबसूरत बातों की ओर उसका ध्यान ले चलें, जिसे देख उसके मन में उम्मीद को गले लगाने की चाह जागे।"

मुझे ये गीत बेहद बेहद पसंद है और  प्रसून के काव्यात्मक गीतों में ये मुझे सबसे बेहतरीन लगता है। इसे बड़ी संवेदनशीलता से गाया है बाम्बे जयश्री ने और इसकी धुन बनाई  है शंकर एहसान और लॉ॓ए ने जो कमाल की है।




खुल के मुस्कुरा ले तू, दर्द को शर्माने दे
बूँदों को धरती पर साज एक बजाने दे
हवाएँ कह रही हैं आजा झूमें ज़रा
गगन के गाल को चल, जा के छू लें ज़रा

झील एक आदत है तुझमें ही तो रहती है
और नदी शरारत है, तेरे संग बहती है
उतार ग़म के मोजे जमीं को गुनगुनाने दे
कंकरों को तलवों में, गुदगुदी मचाने दे
खुल के मुस्कुरा ले तू, दर्द को शर्माने दे...


बाँसुरी की खिड़कियों पे सुर ये  क्यूँ ठिठकते हैं
आँख के समंदर क्यूँ बेवजह छलकते हैं
तितलियाँ ये कहती हैं अब वसंत आने दे
जंगलों के मौसम को बस्तियों में छाने दे
खुल के मुस्कुरा ले तू, दर्द को शर्माने दे...

खूबसूरत बोल और बेहतरीन संगीत के इस संगम को कभी फुर्सत के क्षणों में सुनें, आशा है ये गीत आपको भी पसंद आएगा।

सोमवार, मई 22, 2017

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में.. आइए सुनें नूर साहब की पूरी ग़ज़ल Aag Hai, Pani Hai, Mitti Hai, Hawa Hai Mujh Mein . by Krishna Bihari Noor

बहुत सारी पसंदीदा ग़ज़लें होती हैं जिनके तीन चार अशआर डॉयरी के पन्नों पर नोट कर हम उन्हें पूरा मान लेते हैं। बरसों वहीं अशआर हमारे ज़हन में रह रह कर उठते और पलते रहते हैं। ऐसे में जब उसी ग़ज़ल के चंद और अशआर अचानक से सामने आ जाते हैं तो लगता है कि बैठे बिठाए कोई सौगात मिल गयी हो। लखनऊ से ताल्लुक रखने वाले शायर  कृष्ण बिहारी नूर की इस मशहूर ग़ज़ल के पाँच शेर बरसों से मेरे पास थे पर कल उनसे जुड़ी एक किताब पढ़ते हुए ग़ज़ल के चंद शेर और हाथ लगे तो सोचा आप तक उनकी ये पूरी कृति पहुँचा दूँ।



इस ग़ज़ल से जुड़े एक किस्से का जिक्र कन्हैयालाल नंदन जी ने अपने एक आलेख में किया है। तब नंदन जी मुंबई में पत्र पत्रकारिता से जुड़े काम के सिलसिले में पदस्थापित थे। नूर साहब एक मुशायरे के सिलसिले में मुंबई आए हुए थे और नवी मुंबई के वासी में ठहरे थे जो कि मुख्य शहर से काफी दूर का इलाका है। उन्होंने नंदन जी को फोन कर कहा कि वो उनसे मिलना चाहते हैं। कन्हैयालाल नंदन को यही लगा कि इतनी दूर से ख़ुद फोन कर मिलने की बात कर रहा है तो जरूर इसे मुझसे कोई काम होगा। पर डेढ़ घंटे बाद जब नूर हाज़िर हुए तो उनसे उनके आने का उद्देश्य जान कर नंदन आश्चर्यचकित रह गए। नूर साहब का कहना था कि बस एक नई ग़ज़ल लिखी है वही आप जैसे संवेदनशील श्रोता को सुनाना चाहता था। वो ग़जल यही ग़ज़ल थी जिसका जिक्र मैंने आज आपसे छेड़ा है।

तो चलिए देखते हैं कि आख़िर क्या कहना चाहा था कृष्ण बिहारी नूर ने अपनी इस ग़ज़ल में...

हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि ये शरीर प्रकृति के पंच तत्वों से निर्मित है और भगवान का वास हर जगह है। यानि अपने अंदर भी अगर हम पवित्र मन से झांकें तो वहाँ परमात्मा जरूर दिखेंगे। कृष्ण बिहारी नूर ने इस सोच को अपने मतले में ढालते हुए लिखा कि

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में
और फिर मानना पड़ता है के ख़ुदा है मुझ में


नूर साहब की ये विशेषता थी कि वो अपनी शायरी में सूफ़ियत के साथ मोहब्बत का रंग बड़े सलीके  से घोला करते थे। अब अगले शेर में वो परमपिता या अपने महबूब से मुख़ातिब हैं इसका फैसला तो आप ही कीजिए। पर जो भी है इस मोहब्बत का आलम ये है कि इसने उन्हें  अपने आप से जुदा कर दिया है। अब तो उसका इख्तियार उनके ज़हन पर हो गया है 

अब तो ले-दे के वही शख़्स बचा है मुझ में
मुझको मुझसे अलग करके छुपा है मुझ में


ऐसे अगर आपको चाहने वाला आपकी हर छोटी छोटी बात को आत्मसात करते हुए आपके अंतर्मन को टटोलने की कोशिश करने लगे तो फिर अपने हाल के बारे में आप भी कह उठेंगे कि 

मेरा ये हाल उघड़ती हुई परतें जैसे,
वो बड़ी देर से कुछ ढूँढ रहा है मुझ में


ये तो मुझे पूरी ग़ज़ल में सबसे कमाल का शेर लगता है। कितनी तरह के अच्छे बुरे अहसासों, विराधाभासों से दिल जूझता रहता है। ठीक मौसम की बदलती रंगत की तरह। ये अहसास कभी सुकून के पल ले आते हैं तो कभी बेहिसाब बेचैनी। इन बदलती भावनाओं के बीच दिल की फ़िज़ा जो रंग बिखेरती है उन्हें शब्दों में बयाँ करना आसान है क्या?

जितने मौसम हैं वो सब जैसे कहीं मिल जाएँ
इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझ में


आप मेरे करीब भी नहीं आएँ, दूर से ही मेरे बारे में कोई राय बना लें तो इसमें मेरा क्या कुसूर? मेरे सच्चे दिल की पुकार और व्यक्तित्व की चमक को महसूस करने के लिए आपको मेरे संग कुछ वक़्त तो ज़ाया करना ही पड़ेगा।

वो ही महसूस करेगा जो मुख़ातिब होगा
ऐसे अनदेखे उजाले की सदा है मुझमें


मैंने तो सोचा था कि उनकी नज़दीकियाँ पूरे जिस्म में एक ख़ुमारी सी ले आती हैं। पर मैं नहीं जानता था कि उनके लिए मेरा प्रेम एक नशा नहीं जो चढ़ के उतर जाएगा। वो तो मेरे शरीर के हर कोने में दौड़ते लहू की भांति मेरी नस नस में है जो  मेरी साँस थमने से ही रुकेगा।

नशा-ए-मय की तरह समझा था क़ुरबत उसकी
वो तो मानिंद ए लहू दौड़ रहा है मुझमें


आईने की भी अपनी सीमाएँ हैं। वो बस आपका बाहरी रूप रंग ही दिखा पाता है। आपके अंदर का अक़्स उसकी पहुँच से कोसों दूर है।

आईना ये तो बताता है के मैं क्या हूँ लेकिन
आईना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझ में

टोंक देता है, कदम जब भी ग़लत उठता है
ऐसा लगता है कोई मुझसे बड़ा है मुझमें

अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ 'नूर'
मैं कहाँ तक करूँ साबित के वफ़ा है मुझ में


ये तो थे ग़ज़ल के पूरे शेर। नूर साहब की आवाज़ में जब ये ग़ज़ल नहीं मिली तो मैंने सोचा क्यूँ ना इसे अपनी आवाज़ में ही रिकार्ड कर लूँ। तो ये रही नूर साहब की भावनाओं तक अपनी आवाज़ से पहुँचने की मेरी कोशिश।

रविवार, मई 07, 2017

मरीज़-ए-इश्क़ का क्या है, जिया जिया ना जिया .. है एक साँस का झगड़ा, लिया लिया ना लिया

नब्बे के दशक में हरिहरण फिल्म संगीत और ग़ज़ल गायिकी में एक सितारे की तरह चमके थे। इस दौरान उनकी ग़ज़लों के कई एलबम आए  जिनमें से एक था 1992 में रिलीज़ हुआ हाज़िर। इस एलबम की पहली ग़ज़ल (जो सबसे लोकप्रिय हुई थी) का मतला कुछ यूँ था मरीज़-ए-इश्क़ का क्या है, जिया जिया ना जिया ..है एक साँस का झगड़ा, लिया लिया ना लिया

ये उन दिनों की बात थी जब इंजीनियरिंग कॉलेज के चार साल पूरे होने आए थे और इश्क़ था कि हमारी ज़िदगानी से मुँह छुपाए घूम रहा था। ऐसे में इस ग़ज़ल के मतले को मन ही मन मैं कुछ यूँ गुनगुनाने को मज़बूर हो गया था।
मरीज़-ए-इश्क़ का क्या है, किया किया ना किया
है तो ये रोज़ का लफड़ा, लिया लिया ना लिया 😁


सच तो ये था कि उन दिनों भी कहकशाँ व गालिब जैसे जगजीत के एलबमों का जादू मेरे सिर चढ़ कर बोल रहा था। हरिहरण की गायिकी लुभाती तो थी पर जगजीत की आवाज़ का मैं कुछ ज्यादा ही मुरीद था। उस वक्त दूरदर्शन पर भी नियमित रूप से हरिहरण के कार्यक्रम आया करते थे। मुझे याद है कि ऐसे ही एक महफिल में उन्होंने एक प्यारे से गीत को अपनी आवाज़ दी थी जिसके बोल थे मेरी साँसों में बसी है, तेरे दामन की महक, जैसे फूलों में उतर आई हो उपवन की महक। कभी इस गीत की रिकार्डिंग हाँ लगी तो जरूर आपसे साझा करूँगा।

प्रियंका बार्वे
तो फिर अचानक ही इतने सालों बाद मुझे हरिहरण की याद कहाँ से आ गयी। हुआ यूँ कि कुछ दिनों पहले मराठी फिल्मों की प्रतिभावान गायिका प्रियंका बार्वे की आवाज़ में ये ग़ज़ल सुनने को मिल गयी। प्रियंका ने बिना किसी संगीत के शुरुआत के तीन अशआर गा कर मन में मिठास सी घोल दी। सच तो ये है कि कुछ ग़ज़लें बिना संगीत के आभूषण के सुनी जाएँ तो ज्यादा आनंद देती हैं और मेरे ख़्याल से ये एक ऐसी ही ग़ज़ल है।


पुणे के संगीतज्ञों के परिवार से ताल्लुक रखने वाली प्रियंका ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा अपनी दादी मालती पांडे बार्वे से ली। फिलहाल प्रियंका का इरादा गायिकी के साथ साथ अभिनय के क्षेत्र में उतरने का भी है। पिछले साल वे फिरोज़ खान द्वारा निर्देशित नाटक मुगल ए आज़म में अनारकली के रूप में नज़र आयीं। प्रियंका की इस प्रस्तुति को सुन कर ऐसा लगा कि उन्हें मराठी के आलावा हिंदी फिल्मों और ग़ज़लों में अपनी आवाज़ का जादू बिखेरना चाहिए।

इस ग़ज़ल को लिखा है ब्रिटेन में रहने वाले उर्दू के नामचीन शायर डा. सफ़ी हसन ने। आपको जान कर अचरज होगा कि पाकिस्तान से ताल्लुक रखने वाले और फिलहाल बर्मिंघम में बसे सफ़ी साहब पेशे से एक वैज्ञानिक हैं। कितना खूबसूरत मतला लिखा था सफ़ी साहब ने। जिसे इश्क़ का रोग लग गया उसकी तो हर साँस ही गिरवी हो जाती है। फिर उसका जीना क्या और मरना क्या?

मरीज़-ए-इश्क़ का क्या है, जिया जिया ना जिया
है एक साँस का झगड़ा, लिया लिया ना लिया 

सफ़ी साहब आगे फर्माते हैं कि अगर दर्द से पूरा शरीर ही छलनी हो तो दिल को रफ़ू कर के कौन सी ठंडक मिलने वाली है?

बदन ही आज अगर तार-तार है मेरा
तो एक चाक-ए-ग़रेबाँ, सिया सिया ना सिया

और इसकी तो बात ही क्या ! पसंदीदा शेर है मेरा इस ग़ज़ल का। जनाब सफ़ी हसन यहाँ कहते हैं की भले ही उनका नाम मेरे होठों पर नहीं आया पर क्या कभी उन्हें अपने ख्यालों से दूर  कर पाया हूँ?

ये और बात के तू हर रह-ए-ख़याल मे है
कि तेरा नाम जुबाँ से, लिया लिया ना लिया

मेरे ही नाम पे आया है जाम महफ़िल मे
ये और बात के मै ने, पिया पिया ना पिया

ये हाल-ए-दिल है 'सफ़ी' मैं तो सोचता ही नही
कि क्यों किसी ने सहारा, दिया दिया ना दिया

वैसे चलते चलते हरिहरण की आवाज़ में पूरी ग़ज़ल भी सुनते जाइए। तबले पे हरिहरण जी का साथ दे रहे हैं मशहूर वादक ज़ाकिर हुसैन ।

 

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