जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
आज गाँधी जयन्ती है और जैसे ही बापू की बात होती है उनका प्रिय भजन वैष्णव जन मन में गूँजने लगता है पर क्या आप जानते हैं कि इस भजन के जनक कौन थे। पन्द्रहवीं शताब्दी के लोकप्रिय गुजराती संत नरसी मेहता जिन्हें लोग नरसिंह मेहता के नाम से भी बुलाते हैं।नरसी मेहता को गुजराती भक्ति साहित्य में वही स्थान प्राप्त है जो हिंदी में सूरदास को। गाँधी जी ने उनके भजन के एक भाग को अपनी प्रार्थना सभाओं का हिस्सा बनाया और वो इतनी सुनी गई कि वैष्णव धुन गाँधी जी के विचारों का प्रतीक बन गयी।
आज मैंने कुलदीप मुरलीधर पाई एवम् उनके शिष्यों द्वारा गायी ये सम्पूर्ण रचना सुनी और मन इसमें डूब सा गया। कुलदीप एक शास्त्रीय गायक, संगीतकार व संगीत निर्माता भी हैं। बचपन से उनका झुकाव आध्यात्म की ओर था इसलिए भक्ति संगीत को उन्होंने अपने संगीत का माध्यम चुना। यू ट्यूब पर उनका भक्ति संगीत का चैनल खासा लोकप्रिय है। उनकी वंदे गुरु परंपरा से संबद्ध कड़ियों ने अपनी आध्यात्मिक परम्पराओं से जुड़ने का आज की पीढ़ी को मौका दिया है।
इस भजन को सुनने से पहले ये जान लेते हैं कि संत नरसी ने तब सच्चे वैष्णव की क्या परिभाषा गढ़ी थी
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे
पर दुःखे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे
वैष्णव जन तो उसे कहेंगे जो दूसरों के दुख को समझता हो। जिसके मन में दूसरो का भला करते हुए भी अभिमान का भाव ना आ सके वही है सच्चा वैष्णव
सकल लोक माँ सहुने वन्दे, निन्दा न करे केनी रे
वाच काछ मन निश्चल राखे, धन-धन जननी तेरी रे
जिसके मन में हर किसी के प्रति सम्मान का भाव हो और जो परनिंदा से दूर रहे। जिसने अपनी वाणी, कर्म और मन को निश्छल रख पाने में सफलता पाई हो उसकी माँ तो ऐसी संतान पा कर धन्य हो जाएगी।
समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, पर स्त्री जेने मात रे
जिहृवा थकी असत्य न बोले, पर धन नव झाले हाथ रे
जिसके पास सबको देखने समझने की समान दृष्टि हो, जो परस्त्री को माँ के समान समझे। जिसकी जिह्वा असत्य बोलने से पहले ही रुक जाए और जिसे दूसरे के धन को पाने की इच्छा ना हो।
मोह माया व्यापे नहि जेने, दृढ वैराग्य जेना तन मा रे
राम नामशुं ताली लागी, सकल तीरथ तेना तन मा रे
जिसे मोह माया व्याप्ति ही न हो, जिसके मन में वैराग्य की धारा बहती हो। जो हर क्षण मन में राम नाम का ऐसा जाप करे कि सारे तीर्थ उसके तन में समा जाएँ वही जानो कि सच्चे वैष्णव मार्ग पर चल रहा है।
वण लोभी ने कपट रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे
भणे नर सैयों तेनु दरसन करता, कुळ एको तेर तार्या रे
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे ।
जिसने लोभ, कपट, काम और क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली हो। ऐसे वैष्णव के दर्शन मात्र से ही, परिवार की इकहत्तर पीढ़ियाँ तर जाती हैं।
हालांकि नरसिंह मेहता ने सच्चे वैष्णव बनने के लिए जो आवश्यक योग्यताएँ रखी हैं वो आज के युग में किसी में आधी भी मिल जाएँ तो वो धन्य मान लिया जाएगा। कम से कम हम इस राह पर बढ़ने की एक कोशिश तो कर ही सकते हैं।
इस भजन में कुलदीप का साथ दिया है राहुल, सूर्यागायत्री और भाव्या गणपति ने। इतना स्पष्ट उच्चारण व गायिकी कि क्या कहने !साथ में ताल वाद्यों और बाँसुरी की ऐसी मधुर बयार कि मन इसे सुनकर निर्मल होना ही है।
1994 में प्रदर्शित हुई इस फिल्म 1942 Love Story संगीतकार पंचम की आख़िरी फिल्म थी। इस फिल्म का संगीत रचने में उन्होंने काफी मेहनत की थी। फिल्म और उसका संगीत बेहद लोकप्रिय हुआ था, पर इस फिल्म के रिलीज़ होने के छः महीने पहले ही बिना इसकी सफलता को देखे हुए पंचम इस दुनिया से रुखसत हो चुके थे।
पंचम अपने कैरियर के उस पड़ाव में अपने संघर्ष काल से गुजर रहे थे। अस्सी के दशक में उन्हें काम मिलना भी कम हो गया था। ये वो दौर था जब हिंदी फिल्म संगीत रसातल में जा रहा था और पंचम से हुनर में बेहद कमतर संगीतकार निर्माता निर्देशकों की पसंद बने हुए थे। मानसिक रूप से अपनी इस अनदेखी से पंचम परेशान थे और जो छोटे मोटी फिल्में उन्हें मिल भी रही थीं उसमें उनका काम उनकी काबिलियत के अनुरूप नहीं था।
ऐसे में जब विधु विनोद चोपड़ा ने पंचम को ये जिम्मेदारी सौंपी तो ये सोचकर कि आज़ादी के पहले के समय का संगीत उनसे अच्छा कोई और नहीं दे सकता। हालाँकि पंचम पर उस समय बतौर संगीत निर्देशक असफलता का ऐसा ठप्पा लग चुका था कि संगीत कंपनी एच एम वी ने विधु विनोद चोपड़ा से कह रखा था कि अगर आपने आर डी बर्मन को इस फिल्म के लिए अनुबंधित किया तो उनका पारीश्रमिक आप ही देना यानी हम ऐसे व्यक्ति पर पैसा नहीं लगाएँगे।
पंचम का भी अपने ऊपर अविश्वास इतना था कि जब कुछ ना कहो की पहली धुन खारिज़ हुई तो उनका पहला सवाल यही था कि मैं इस फिल्म का संगीतकार रहूँगा या नहीं और जवाब में विधु विनोद चोपड़ा ने तल्खी से कहा था कि तुम अपनी भावनाएँ मत परोसो बल्कि अपना अच्छा संगीत दो जिसके लिए तुम जाने जाते हो।
हफ्ते भर में पंचम एक और धुन ले के आए और वो गीत उस रूप में आया जिसमें हम और आप इसे आज सुनते हैं। फिल्म का सबसे कामयाब गीत इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा की चर्चा तो पहले यहाँ कर ही चुका हूँ कि कैसे वो मिनटों में बन गया।
मुझे इस फिल्म का जो गीत सबसे ज्यादा पसंद है वो था दिल ने कहा चुपके से..प्यार हुआ चुपके से। क्या बोल लिखे थे जावेद अख्तर साहब ने इस गीत के लिए। गीत के हर एक अंतरे को सुनकर ऐसा लगता था मानो शहद रूपी कविता की मीठी बूँद टपक रही हो। ऐसी बूँद जिसका ज़ायका मन में घंटों बना रहता था। पंचम के संगीत में राग देश की प्रेरणा के साथ साथ रवींद्र संगीत का भी संगम था। पंचम ने धुन तो कमाल की बनाई ही पर तितलियों से सुना..... के बाद का तबला और मैंने बादल से कभी..... के बाद की बाँसुरी और अंत में निश्चल प्यार को आज़ादी की जंग से जोड़ता सितार गीत को सुनने के बाद भी मन में गूँजते रहे थे।
पहले प्यार के अद्भुत अहसास को तितलियों और बादल के माध्यम से कहलवाने का जावेद साहब का अंदाज़ अनूठा था जिसे कविता कृष्णामूर्ति जी ने इतने प्यार से गुनगुनाया कि इस गीत की बदौलत उस साल की सर्वश्रेष्ठ गायिका का खिताब भी उन्होंने हासिल किया। तो आज उनकी आवाज़ में फूल से भौंरे का व नदी से सागर से मिलने का ये सुरीला किस्सा फिर से एक बार सुनिए आज की इस पोस्ट में..
दिल ने कहा चुपके से, ये क्या हुआ चुपके से
क्यों नए लग रहे हैं ये धरती गगन
मैंने पूछा तो बोली ये पगली पवन
प्यार हुआ चुपके से, ये क्या हुआ चुपके से
तितलियों से सुना, मैंने किस्सा बाग़ का
बाग़ में थी इक कली, शर्मीली अनछुई
एक दिन मनचला भँवरा आ गया
खिल उठी वो कली, पाया रूप नया
पूछती थी कली, ये मुझे क्या हुआ
फूल हँसा चुपके से..प्यार हुआ चुपके से...
मैंने बादल से कभी, ये कहानी थी सुनी
परबतों की इक नदी, मिलने सागर से चली
झूमती, घूमती, नाचती, डोलती
खो गयी अपने सागर में जा के नदी
देखने प्यार की ऐसी जादूगरी
चाँद खिला चुपके से, प्यार हुआ चुपके से... जितना प्यारा ये गीत था उतनी ही खूबसूरती से हिमाचल प्रदेश में इसका फिल्मांकन किया गया था। मनीषा की सादगी भरी सुंदरता तो मन को मोहती ही है...
तेरी मिट्टी पिछले साल के बेहद चर्चित गीतों में रहा था। मनोज मुंतशिर की लेखनी और अर्को के मधुर संगीत से सँवरा ये गीत मुझे कितना अजीज़ था इस बात का अदाजा तो आपको होगा ही क्यूँकि ये एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला का सरताज गीत भी बना था पिछले साल। इस फैसले से मनोज कुछ दिनों के लिए विचलित भी रहे थे और उन्होंने सार्वजनिक तौर अपना दुख भी ज़ाहिर किया था। जनता ने तो फैसला पहले ही ले लिया था और उनका प्यार इस गीत के लिए तरह तरह से उमड़ा जो कि इस बात को साबित कर गया कि ये गीत इस साल तो क्या दशकों तक श्रोताओं के दिल में अपनी जगह बरक़रार रखेगा।
जब भी कोई गीत बनता है तो गीतकार उसके कई अंतरे लिखते हैं। उनमें से कुछ निर्माता, निर्देशक व संगीतकार मिल कर चुन लेते हैं और कुछ यूँ ही नोट्स में दबे रह जाते हैं। आजकल अमूमन दो अंतरे फिल्मी गीतों का हिस्सा बनते हैं और कई बार ऐसा होता है कि संपादन के बाद उनमें से गीत का एक टुकड़ा भर ही फिल्म में रह पाता है। बतौर श्रोता मैं ये कह सकता हूँ कि जब किसी गीत का भाव और शब्द मुझे पसंद आते हैं तो अक्सर ये उत्सुकता बनी रहती है कि इसके वो अंतरे कौन से थे जो गीत का हिस्सा नहीं बन पाए। मनोज ने श्रोताओं की इसी मनोभावनाओं का ध्यान रखते हुए इस गीत के कुछ बचे हुए अंतरों को मशहूर वॉयलिन वादक दीपक पंडित और गायिका रूपाली जग्गा के साथ मिलकर गीत की शक़्ल में प्रस्तुत करने का निश्चय किया।
देश के अमर योद्धाओं को समर्पित इस गीत के लिए स्वतंत्रता दिवस से बेहतर दिन और क्या हो सकता था? आजकल मनोज गीत लिखने के साथ साथ अपने यू ट्यूब चैनल पर शायरों और गीतकारों के बारे में बातें भी करते हैं और नए कवियों की चुनिंदा शायरी पढ़कर उनकी हौसला अफजाई भी करते हैं। लिखते तो अच्छा वो हैं ही दिखते भी अच्छे हैं और बोलते भी क्या खूब हैं। आज जो गीत का बचा हुआ हिस्सा रिलीज़ हुआ है उसके बीच बीच में मनोज ने अपनी कविता भी पढ़ी है जो गीत के अनुरूप देश की सरहद पर जान न्योछावर करने वाले वीर जवानों को समर्पित है। कुछ मिसाल देखिए
वो गोलियाँ जो हमारी तरफ बढ़ी थीं कभी
तुम अपने सीने में भरकर ज़मीं पे लेट गए
जहाँ भी प्यार से माँ भारती ने थपकी दी
तुम एक बच्चे की मानिंद वहीं पे लेट गए
या फिर ये देखिए कि
तुम्हीं ना होते तो दुनिया बबूल हो जाती
जमींने ख़ून से यूँ लालाज़ार करता कौन
हजारों लोग यूँ तो हैं ज़माने में लेकिन
हमारे वास्ते यूँ मुस्कुरा के मरता कौन
या फिर बशीर बदर साहब की ज़मीं से उठता उनका ये शेर
भले कच्ची उमर में ज़िदगी की शाम आ जाए
ये मुमकिन ही नहीं कि ख़ून पे इलजाम आ जाए
बहरहाल गीत का ये हिस्सा अगर फिल्म में होता तो शहीद की माशूका पर फिल्माया गया होता क्यूँकि इन अंतरों में मनोज ने उसी के मन को कुछ यूँ पढ़ने की कोशिश की है
हाथों से मेरे ये हाथ तेरे, छूटे तो यार सिहर गई मैं
तू सरहद पे बलिदान हुआ, दहलीज़ पे घर की मर गयी मैं
तू दिल में मेरे आबाद है यूँ जैसे हो फूल किताबों में
ओ माइया वे वादा है मेरा हम रोज़ मिलेंगे ख्वाबों मे
और ये अंतरा तो बस कमाल का है..
सावन की झड़ी जब लगती है, बूँदों में तू ही बरसता है
तू ही तो है जो झरनों के पानी में छुप के हँसता है
त्योहार मेरे सब तुझसे ही, मेरी होली तू बैशाखी तू
मैं आज भी हूँ जोगन तेरी, है आज भी मुझमें बाकी तू
तेरी मिट्टी में मिल जावां, गुल बण के मैं खिल जावां..
इतनी सी है दिल की आरजू..
सबसे बड़ी बात जो मनोज से इस गीत के अंत में कही है और जो हम सबको समझनी चाहिए कि फौजी को भी वहीं खुशियाँ, वही ग़म व्यापते हैं जो एक आम इंसान महसूस करता है पर देश की मिट्टी के लिए सब भूलकर वो अपना सर्वस्व अर्पित कर देता है। गलवान में हमारे बीस लोग शहीद हुए तो उन्हें सिर्फ एक गिनती समझ कर हमें भूल नहीं जाना है पर अपने जैसा एक साथी समझ कर उसके बलिदान को याद रखना हैं।
तो आइए सुनते हैं मनोज, दीपक और रूपाली की ये सम्मिलित प्रस्तुति जो आपकी आँखों को एक बार फिर से नम कर देगी...
पिछले हफ्ते संगीतकार पंचम का जन्मदिन था। जैसा कि अक्सर होता है जन्मदिवस पर हम उस व्यक्ति विशेष की कृतियाँ याद करते हैं। उनके बनाए गीत सुनते हैं, गाते हैं, उससे जुड़ी यादें साझा करते हैं और यही कल बहुत लोगों ने किया भी। पर इन सारी पेशकश में सबसे अलग था दो कलाकारों का एक मौलिक प्रयास जो हमें हर पल में पंचम के संगीत की याद दिला रहा था।
एक साझा और बेहद प्यारी कोशिश आश्विन श्रीनिवासन और रोंकिनी गुप्ता की युगल जोड़ी की तरफ से भी हुई। दोनों ही कलाकार शास्त्रीय संगीत की अलग अलग विधाओं में पारंगत हैं। रोंकिनी की शास्त्रीय गायिकी कमाल की है वही आश्विन की उँगलियाँ बचपन से ही बाँसुरी पर थिरकती रही हैं। दोनों ही ऐसे कलाकार हैं जिनका हुनर एक विधा तक सीमित नहीं हैं। इन्होंने अपने संगीत के साथ काफी प्रयोग करने की कोशिश की है। हिन्दी फिल्मों में रोंकिनी के गाए गीत हर साल प्रशंसा बटोरते रहे हैं वहीं आश्विन ने भी संगीत निर्माण से लेकर गीत लिखने व गाने में नामी हस्तियों के साथ गठजोड़ किया है।
आश्विन श्रीनिवासन व पंचम
पंचम की संगीत रचना के बहुत सारे अवयव हैंं जैसे ताल वाद्यों की उनकी एक खास तरह की रिदम, गीत में अक्सर कुछ नई तरीके की आवाज़ पैदा करने की उनकी ललक, इंटरल्यूड्स का संगीत संयोजन, गीत के बीच तैरता आलाप, किरदारों की आपसी बातचीत और भी बहुत कुछ जिसे आप इस गीत को सुनते हुए महसूस कर सकेंगे। आश्विन (Ashwin Srinivasan) ने पंचम की इन्हीं विशिष्टताओं को बड़ी बारीकी से पकड़ा और ऐसा इसीलिए संभव हो सका कि वे पंचम के संगीत के अनन्य भक्त रहे हैं।
रोंकिनी गुप्ता
रहा रोंकिनी (Ronkini Gupta) का सवाल तो अब तक वो जैसे गीत गाती रही हैं ये उससे हट के कुछ अलग कोटि का गीत था और बड़ी खूबी से उन्होंने इसे निभाया। या फिर मैं ऐसे कहूँ कि उन्होंने अपनी बेहतरीन गायिकी से गीत के सहज शब्दों को भी अनमोल बना दिया। मुखड़े से अंतरे में बदलता स्केल हो या इंटरल्यूड्स में संगीत के उनकी ला ला करती मीठी तान..या अंत की चंचल चुहल..ये सब गीत का मज़ा दोगुना कर देती है। कुल मिलाकर इस गीत को सुन कर ऐसा लगता है कि पंचम, आशा व किशोर की तिकड़ी साक्षात पुनः प्रकट हो गयी हो।
तो अब आप इस गीत का आनंद लीजिए आश्विन के लिखे इन शब्दों के साथ
यूँ ही कभी हो जाता है
ख़्वाबों में दिल खो जाता है
तुझसे भी तो हो जाता है
मुझमें भी तू खो जाता है
मुझमें धड़कता है..
यूँ भी कभी हो जाता है....
ऐसी कृतियाँ जो एक महान संगीतकार के संगीत के मुख्य पहलुओं को चंद मिनटों में यूँ सजा दें निश्चय ही सराहने योग्य हैं। तो आइए सुनते हैं इस गीत को इस युगल जोड़ी की आवाज़ में।
आश्विन एक मँजे हुए बाँसुरी वादक हैं। चूँकि आज की पोस्ट पंचम दा पर हैं तो क्यूँ ना उनकी बाँसुरी की माहिरी पंचम की बनाई हुई कुछ सदाबहार धुनों पर सुन ली जाए।
कलाकार कितनी भी बड़ा क्यूँ ना हो जाए फिर भी जिसकी कला को देखते हुए वो पला बढ़ा है उसके साथ काम करने की चाहत हमेशा दिल में रहती है। सत्तर के दशक में जब जगजीत बतौर ग़ज़ल गायक अपनी पहचान बनाने में लगे थे तो उनके मन में भी एक ख़्वाब पल रहा था और वो ख़्वाब था सुर कोकिला लता जी के साथ गाने का।
जगजीत करीब पन्द्रह सालों तक अपनी इस हसरत को मन में ही दबाए रहे। अस्सी के दशक के आख़िर में 1988 में अपने मित्र और मशहूर संगीतकार मदनमोहन के सुपुत्र संजीव कोहली से उन्होंने गुजारिश की कि वो लता जी से मिलें और उन्हें एक ग़ज़लों के एलबम के लिए राजी करें। लता जी मदनमोहन को बेहद मानती थीं इसलिए जगजीत जी ने सोचा होगा कि वो शायद संजीव के अनुरोध को ना टाल पाएँ।
पर वास्तव में ऐसा हुआ नहीं। जगजीत सिंह की जीवनी से जुड़ी किताब बात निकलेगी तो फिर में सत्या सरन ने लिखा इस प्रसंग का जिक्र करते हुए लिखा है कि
लता ने कोई रुचि नहीं दिखाई, उन्होंने ये पूछा कि उनको जगजीत सिंह के साथ गैर फिल्मी गीत क्यों गाने चाहिए? हालांकि बतौर गायक वो जगजीत सिंह को पसंद करती थीं। इसके आलावा वे उन संगीतकारों के लिए ही गाना चाहती थीं जिनके साथ उनकी अच्छी बनती हो।
लता जी को मनाने में ही दो साल लग गए। एक बार जब इन दो महान कलाकारों का मिलना जुलना शुरु हुआ तो आपस में राब्ता बनते देर ना लगी। लता जी ने जब जगजीत की बनाई रचनाएँ सुनीं तो प्रभावित हुए बिना ना रह सकीं। जगजीत ने भी उन्हें बताया की ये धुनें उन्होंने सिर्फ लता जी के लिए सँभाल के रखी हैं। दोनों का चुटकुला प्रेम इस बंधन को मजबूती देने में एक अहम कड़ी साबित हुआ। संगीत की सिटिंग्स में बकायदा आधे घंटे अलग से इन चुटकुलों के लिए रखे जाने लगे। लता जी की गिरती तबियत, संजीव की अनुपलब्धता की वज़ह से ग़ज़लों की रिकार्डिंग खूब खिंची पर जगजीत जी ने अपना धैर्य बनाए रखा और फिर सजदा आख़िरकार 1991 में सोलह ग़ज़लों के डबल कैसेट एल्बम के रूप में सामने आया जो कि मेरे संग्रह में आज भी वैसे ही रखा है।
मुझे अच्छी तरह याद है कि तब सबसे ज्यादा प्रमोशन जगजीत व लता के युगल स्वरों में गाई निदा फ़ाज़ली की ग़ज़ल हर तरह हर जगह बेशुमार आदमी..फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी को मिला था। भागती दौड़ती जिंदगी को निदा ने चंद शेरों में बड़ी खूबसूरती से क़ैद किया था। खासकर ये अशआर तो मुझे बेहद पसंद आए थे
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी
यूँ तो इस एलबम में मेरी आधा दर्जन ग़ज़लें बेहद ही पसंदीदा है पर चूंकि आज बात लता और जगजीत की युगल गायिकी की हो रही है तो मैं आपको इसी एलबम की एक दूसरी ग़ज़ल ग़म का खज़ाना सुनवाने जा रहा हूँ जिसे नागपुर के शायर शाहिद कबीर ने लिखा था। शाहिद साहब दिल्ली में केंद्र सरकार के मुलाज़िम थे और वहीं अली सरदार जाफरी और नरेश कुमार शाद जैसे शायरों के सम्पर्क में आकर कविता लिखने के लिए प्रेरित हुए। चारों ओर , मिट्टी के मकान और पहचान उनके प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह हैं। जगजीत के आलावा तमाम गायकों ने उनकी ग़ज़लें गायीं पर मुझे सबसे ज्यादा आनंद उनकी ग़ज़ल ठुकराओ या तो प्यार करो मैं नशे में हूँ गुनगुनाने में आता है। 😊
जहाँ तक ग़म का खज़ाना का सवाल है ये बिल्कुल सहज सी ग़ज़ल है। दो दिल मिलते हैं, बिछुड़ते हैं और जब फिर मिलते हैं तो उन साथ बिताए दिनों की याद में खो जाते हैं और बस इन्हीं भावनाओं को स्वर देते हुए शायर ने ये ग़ज़ल लिख दी है। इस ग़ज़ल की धुन इतनी प्यारी है कि सुनते ही मज़ा आ जाता है। तो आप भी सुनिए पहले लता और जगजीत की आवाज़ में..
ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी ये नज़राना तेरा भी है, मेरा भी अपने ग़म को गीत बनाकर गा लेना
अपने ग़म को गीत बनाकर गा लेना राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी ग़म का खज़ाना .... तू मुझको और मैं तुमको, समझाऊँ क्या तू मुझको और मैं तुमको समझाऊँ क्या दिल दीवाना तेरा भी है, मेरा भी दिल दीवाना तेरा भी है, मेरा भी ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी शहर में गलियों, गलियों जिसका चर्चा है शहर में गलियों, गलियों जिसका चर्चा है वो अफ़साना तेरा भी है, मेरा भी मैखाने की बात ना कर, वाइज़ मुझसे मैखाने की बात ना कर, वाइज़ मुझसे आना जाना तेरा भी है, मेरा भी ग़म का खज़ाना तेरा भी है....
यूँ तो जगजीत और लता जी की आवाज़ को उसी अंदाज़ में लोगों तक पहुँचा पाना दुसाध्य
कार्य है पर उनकी इस ग़ज़ल को हाल ही में उभरती हुई युवा गायिका प्रतिभा सिंह
बघेल और मोहम्मद अली खाँ ने बखूबी निभाया। हालांकि गीत के बोलों को गाते हुए बोल की छोटी मोटी भूलें हुई हैं उनसे। लाइव कन्सर्ट्स में ऐसी ग़ज़लों को
सुनने का आनंद इसलिए भी बढ़ जाता है क्यूँकि मंच पर बैठे साजिंद भी अपने खूबसूरत
टुकड़ों को मिसरों के बीच बड़ी खूबसूरती से सजा कर पेश करते हैं। अब यहीं देखिए मंच
की बाँयी ओर वॉयलिन पर दीपक पंडित हैं जो जगजीत जी के साथ जाने कितने
कार्यक्रमों में उनकी टीम का हिस्सा रहे। वहीं दाहिनी ओर आज के दौर के जाने
पहचाने बाँसुरी वादक पारस नाथ हैं जिनकी बाँसुरी टीवी पर संगीत कार्यक्रमों से
लेकर फिल्मों मे भी सुनाई देती है।
सजदा का जिक्र अभी खत्म नहीं हुआ है। अगले आलेख बात करेंगे इसी एल्बम की एक और ग़ज़ल के बारे में और जानेंगे कि चित्रा जी को कैसी लगी थी लता जी की गायिकी ?
कई शायर ऐसे रहे हैं जिनकी किसी एक कृति ने उनका नाम हमेशा के लिए हमारे दिलो दिमाग पर नक़्श कर दिया। कफ़ील आज़र का नाम कौन जानता अगर उनकी नज़्म बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी .. को जगजीत जी ने अपनी आवाज़ नहीं दी होती। अथर नफ़ीस साहब वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया से हमेशा अपनी याद दिला जाते हैं। प्रेम वारबर्टनी का नाम सिर्फ तभी आता है जब राजेंद्र व नीना मेहता की गाई नज़्म तुम मुझसे मिलने शमा जलाकर ताजमहल में आ जाना का जिक्र होता है। वहीं राजेंद्र नाथ रहबर का नाम तभी ज़हन में उभरता है जब तेरे खुशबू से भरे ख़त मैं जलाता कैसे..... सुनते वक़्त जगजीत की आवाज़ कानों में गूँजती है।
ऐसा नहीं कि इन शायरों ने और कुछ नहीं लिखा। कम या ज्यादा लिखा जरूर पर वे पहचाने अपनी इसी रचना से गए। ऐसे ही एक शायर थे हफ़ीज़ होशियारपुरी साहब जिनका ताल्लुक ज़ाहिरन तौर पर पंजाब के होशियारपुर से था। वही होशियारपुर जहाँ से जैल सिंह और काशी राम जैसी हस्तियाँ राजनीति में अपनी चमक बिखेरती रहीं। स्नातक की पढ़ाई होशियारपुर से पूरी कर हफ़ीज़ लाहौर चले गए। वहाँ तर्कशास्त्र में आगे की पढ़ाई की। हफ़ीज़ साहब के नाना शेख गुलाम मोहम्मद शायरी में खासी रुचि रखते थे। उनकी याददाश्त इतनी अच्छी थी कि हजारों शेर हमेशा उनकी जुबां पर रहते थे। उन्हें ही सुनते सुनते हफ़ीज़ भी दस ग्यारह साल की उम्र से शेर कहने लगे। बाद में लाहौर में पढ़ाई करते समय फ़ैज़ और राशिद जैसे समकालीन बुद्धिजीवियों का असर भी उनकी लेखनी पर पड़ा।
हफ़ीज़ होशियारपुरी
आज़ादी के आठ बरस पहले उन्होंने कृष्ण चंदर के साथ रेडियो लाहौर में भी काम किया। मंटो भी उनको अपना करीबी मानते थे। मशहूर शायर नासिर काज़मी के तो वो गुरु भी कहे जाते हैं पर इतना सब होते हुए भी उनकी लिखी चंद ग़ज़लें ही मकबूल हुईं और अगर एक ग़ज़ल का नाम लिया जाए जिसकी वज़ह से आम जनता उन्हें आज तक याद रखती है तो वो "मोहब्बत करने वाले कम न होंगे..." ही होगी। जनाब मेहदी हसन ने इस ग़ज़ल के कई शेर अपनी अदायगी में शामिल किये। उनके बाद फरीदा खानम, इकबाल बानो और हाल फिलहाल में पापोन ने भी इसे अपनी आवाज़ से सँवारा है पर मुझे इस ग़ज़ल को हमेशा मेहदी हसन साहब की आवाज़ में ही सुनना पसंद रहा है। जिस तरह से उन्होंने ग़ज़ल के भावों को पढ़कर अपनी गायिकी में उतारा है उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी।
इस ग़ज़ल का मतला तो सब की जुबां पर रहता ही है पर जो शेर मुझे सबसे ज्यादा दिल के करीब लगता है वो ये कि ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म... ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे.. किसी की याद की कसक भी इतनी प्यारी होती है कि उस ग़म को महसूस करते हुए भी आशिक अपने और ग़म भुला देता है। हफ़ीज़ साहब ने अपनी इसी बात को अपने लिखे एक अन्य शेर में यूँ कहा है
अब उनके ग़म से यूँ महरूम ना हो जाएँ कभी
वो जानते हैं कि इस ग़म से दिल बहलते हैं
चलिए ज़रा होशियारपुरी साहब की इस पूरी ग़ज़ल को पढ़ा जाए। जिन अशआर को मेहदी हसन ने गाया है उन्हें मैंने चिन्हित कर दिया है Bold करके।
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे मैं अक्सर सोचता हूँ फूल कब तक शरीक-ए-गिर्या-ए-शबनम न होंगे
मैं जानता हूँ तुम हो ही ऐसी कि तुम्हें चाहने वालों की कभी कमी नहीं रहेगी। हाँ पर देखना कि चाहनेवालों की उस महफिल में तुम्हें मेरी कमी हमेशा महसूस होगी। अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि सुबह की ओस पूरे पौधे पर गिरे पर उसके रुदन की पीड़ा फूल तक ना पहुँचे?
ज़रा देर-आश्ना चश्म-ए-करम है सितम ही इश्क़ में पैहम न होंगे
ठीक है जनाब कि उन्होंने मेरी ओर थोड़ी देर से ही अपनी नज़र-ए-इनायत की। मैं क्यूँ मानूँ कि आगे भी वे मुझ पे ऐसे ही सितम ढाते रहेंगे? दिलों की उलझने बढ़ती रहेंगी अगर कुछ मशवरे बाहम न होंगे ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे
अगर हमारी बातचीत में यूँ ही खलल पड़ता रहे तो दिल की उलझनें तो बढ़ती ही रहेंगी। लेकिन ये भी है कि इन उलझनों से मन में उठती बेचैनी और दर्द अगर रहा तो इस ग़म की मिठास से बाकी के ग़म तो यूँ ही दफा हो जाएँगे।
कहूँ बेदर्द क्यूँ अहल-ए-जहाँ को वो मेरे हाल से महरम न होंगे हमारे दिल में सैल-ए-गिर्या होगा अगर बा-दीद-ए-पुरनम न होंगे
इस दुनिया को क्यूँ बेदर्द कहूँ मैं? सच तो ये है कि उन्हें मेरे दिल का हाल क्या मालूम ? मैंने कभी अपनी आँखों में सबके सामने नमी आने नहीं दी भले ही दिल में दर्द का सैलाब क्यूँ न बह रहा हो। अगर तू इत्तेफ़ाक़न मिल भी जाए तेरी फ़ुर्कत के सदमें कम न होंगे 'हफ़ीज़ ' उनसे मैं जितना बदगुमां हूँ वो मुझसे इस क़दर बरहम न होंगे
अब तो अगर कहीं मुलाकात हो भी जाए तो जो सदमा तेरी जुदाई में सहा है वो नहीं कम होने वाला। पता नहीं मुझे अब भी क्यूँ ऐसा लगता है कि जितना मैं उन पर अविश्वास करता रहा, शक़ की निगाह से देखता रहा उतनी नाराज़गी उनके मन में मेरे प्रति ना हो।
तो आइए सुनें इस खूबसूरत ग़ज़ल को मेहदी हसन की आवाज़ में..
पिछले महीने एक शाम मेरे नाम की ये महफिल चौदह साल पुरानी हो गई। इस ग़ज़ल से उलट आपसे यही उम्मीद रहेगी कि आपकी इस ब्लॉग के प्रति मोहब्बत भी बरक़रार रहे और इस महफिल में सालों साल आप हमारे साथ शिरकत करते रहें।
रूना लैला एक ऐसी गायिका हैं कि जिनकी आवाज़ की तलब मुझे हमेशा कुछ कुछ अंतराल पर लगती रहती है। आज की पीढ़ी से जब भी मैं उनके गाए गीतों के बारे में पूछता हूँ तो ज्यादातर की जुबां पर दमादम मस्त कलंदर का ही नाम होता है। जहाँ तक मेरा सवाल है मुझे तो उनकी आवाज़ में हमेशा घरौंदा का उनका कालजयी गीत तुम्हें हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है ही ज़हन में रहता है।
वैसे क्या आपको पता है कि रूना जी ने बचपन में कला के जिस रूप का दामन थामा था वो संगीत नहीं बल्कि नृत्य था। संगीत तो उनकी बड़ी बहन दीना लैला सीखती थीं। पर उनकी देखा देखी उन्होंने भी शास्त्रीय संगीत में अपना गला आज़माना शुरु कर दिया। दीना को एक संगीत समारोह में गाना था पर उनका गला खराब हो गया और रूना ने उस बारह साल की छोटी उम्र में बहन की जगह कमान सँभाली। उनकी गायिकी इतनी सराही गयी कि उन्होंने संगीत सीखने पर गंभीरता से ध्यान देना शुरु किया। चौदह साल की उम्र में उन्होंने पहली बार पाकिस्तानी फिल्म में गाना गाया।
उबैद्दुलाह अलीम व रूना लैला
साठ के दशक के अंतिम कुछ सालों से लेकर 1974 तक उन्होंने पाकिस्तानी फिल्मों और टीवी के लिए काम किया। फिल्मों के इतर रूना जी ने अपनी गायिकी के आरंभिक दौर में फ़ैज़ और उबैदुल्लाह अलीम की कुछ नायाब ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी थी। रंजिश ही सही के आलावा उनकी गाई कुछ ग़ज़लों को मैंने पहले भी सुनवाया है। फ़ैज़ का लिखा हुआ आए कुछ अब्र कुछ शराब आए.., सैफुद्दीन सैफ़ का गरचे सौ बार ग़म ए हिज्र से जां गुज़री है... उबैदुल्लाह अलीम की बना गुलाब तो काँटे चुभा गया इक शख़्स उनकी गायी मेरी कुछ प्रिय ग़ज़लों में एक है।
अलीम साहब कमाल के शायर थे। वे भोपाल में जन्मे और फिर सियालकोट व कराची में पले बढ़े। उन्होंने रेडियो और टीवी जगत की विभिन्न संस्थाओं में साठ और सत्तर के दशक में अपना योगदान दिया। कुछ दिनों तो बसो मेरी आँखों में, अजीज इतना ही रखो कि जी सँभल जाए, कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी जैसी नायाब ग़ज़लों को लिखने वाले इस शायर और उनसे जुड़ी बातों को यहाँ बाँटा था मैंने। आज मैं आपको इन्हीं अलीम साहब की लिखी एक ग़ज़ल सुनवाने जा रहा हूँ जो उनके ग़ज़ल संग्रह के नाम से बने एलबम चाँद चेहरा सितारा आँखें का भी बाद में हिस्सा बनी। रूना जी ने इसके शुरु के चार अशआर गाए हैं वो बेहद ही दिलकश हैं।
कोई धुन हो मैं तेरे गीत ही गाए जाऊँ दर्द सीने मे उठे शोर मचाए जाऊँ ख़्वाब बन कर तू बरसता रहे शबनम शबनम और बस मैं इसी मौसम में नहाए जाऊँ तेरे ही रंग उतरते चले जाएँ मुझ में ख़ुद को लिक्खूँ तेरी तस्वीर बनाए जाऊँ जिसको मिलना नहीं फिर उससे मोहब्बत कैसी सोचता जाऊँ मगर दिल में बसाए जाऊँ
पीटीवी के इस श्वेत श्याम वीडियो में रूना जी ने इस ग़ज़ल को करीब 20-22 की उम्र में गाया होगा। इसके कुछ सालों बाद वो बांग्लादेश चली गयीं। यही वो समय था जब उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए भी गाने रिकार्ड किए। फिलहाल सुनिए इस ग़ज,ल को उनकी आवाज़ में..
इस ग़ज़ल के कुछ अशआर और भी थे तो मैंने सोचा कि क्यूँ ना आपको ये पूरी ग़ज़ल इसे लिखनेवाले शायर की आवाज़ में भी सुना दूँ।
अब तू उस की हुई जिस पे मुझे प्यार आता है ज़िंदगी आ तुझे सीने से लगाए जाऊँ यही चेहरे मिरे होने की गवाही देंगे हर नए हर्फ़ में जाँ अपनी समाए जाऊँ जान तो चीज़ है क्या रिश्ता-ए-जाँ से आगे कोई आवाज़ दिए जाए मैं आए जाऊँ शायद इस राह पे कुछ और भी राही आएँ धूप में चलता रहूँ साए बिछाए जाऊँ अहल-ए-दिल होंगे तो समझेंगे सुख़न को मेरे बज़्म में आ ही गया हूँ तो सुनाए जाऊँ
रूना जी पिछले दिसंबर में गुलाबी गेंद से खेले गए भारत बांग्लादेश टेस्ट मैच में अतिथि के रूप में कोलकाता आई थीं। बतौर संगीतकार उन्होंने पिछले दिसंबर में ही एक एलबम रिलीज़ किया है जिसका नाम है Legends Forever । इस एलबम के सारे गीत बांग्ला में हैं पर अन्य नामी कलाकारों के साथ उन्होंने इस एलबम में हरिहरण और आशा जी की आवाज़ का इस्तेमाल किया है।
जब उनसे इस भारत यात्रा के दौरान पूछा गया कि पुराने और अभी के संगीत में क्या फर्क आया है तो उन्होंने कहा कि
पहले हम एक गीत गाने के पहले वादकों के साथ रियाज़ करते थे। एक गलती हुई तो सब कुछ शुरु से करना पड़ता था। रिकार्डिंग के पहले भी घंटों और कई बार दिनों तक रियाज़ चलता था और इसका असर ये होता था कि गीत की आत्मा मन में बस जाती थी। आज तो हालत ये है कि आप स्टूडियो जाते हैं, वहीं गाना सुनते हैं और रिकार्ड कर लेते हैं। टेक्नॉलजी ने सब कुछ पहले से आसान बना दिया है और हमें थोड़ा आलसी।
रूना जी के इस कथन से शायद ही आज कोई संगीतप्रेमी असहमत होगा। वे इसी तरह संगीत के क्षेत्र में आने वाले सालों में भी सक्रियता बनाए रखेंगी ऐसी उम्मीद है।
वार्षिक संगीतमाला की ये समापन कड़ी है 2019 के संगीत सितारों के नाम। पिछले साल रिलीज़ हुई फिल्मों के बेहतरीन गीतों से तो मैंने आपका परिचय पिछले दो महीनों में तो कराया ही पर गीत लिखने से लेकर संगीत रचने तक और गाने से लेकर बजाने तक हर विधा में किस किस ने उल्लेखनीय काम किया यही चिन्हित करने का प्रयास है मेरी ये पोस्ट। तो आइए मिलते हैं एक शाम मेरे नाम के इन संगीत सितारों से।
साल के बेहतरीन गीत
पुराने गीतों पर रिमिक्स बनाने का चलन कोई नया नहीं है पर पिछले साल तो हद ही हो गयी। कुछ ऐसे एलबम आए जिनमें उनके आलावा कुछ था नहीं। इतने प्रतिभाशाली संगीतकारों के रहते हुए भी लोग मेहनत से बच कर इस तरह के शार्ट कट इख्तियार करने लगें तो ये सचमुच चिंता का विषय है। अगर संगीतमाला के आधे गीत महज चार पाँच एलबम में सिमट जाएँ तो सोचिए कि जो हर साल सौ से अधिक फिल्में बनती हैं उनमें कैसा संगीत परोसा गया होगा?
आइटम नंबर की तरह रैप सांग को हर एलबम बनाने की प्रवृति भी इस साल नज़र आई। गली ब्वॉय ने रैप गीतों से कुछ सार्थक संदेश देने में एक अच्छी पहल की। मल्टी कंपोसर एलबमों की संख्या में और वृद्धि हुई। वहीं इस प्रवृति ने एक संगीत उद्योग में म्यूजिक सुपरवाइसर का एक नए पद ही ईजाद कर दिया जिसका काम अलग अलग संगीतकारों से फिल्म की कहानी के हिसाब से गाने बनवाना है। कुछ बेहद कम बजट की गुमनाम फिल्मों में भी ऐसे गीत निकल कर आए जो बेहद मधुर थे। कई नए युवा संगीतकारों, गायक और गीतकारों ने मिलकर सुरीले रंग बिखेरे। जैसे मैंने पिछली पोस्ट में बताया था मेरे लिएइस साल का सरताज गीत तेरी मिट्टीरहा। वार्षिक संगीतमाला में शामिल सारे गीतों की सूची एक बार फिर ये रही।
साल का सर्वश्रेष्ठ गीत : तेरी मिट्टी, केसरी (अर्को प्रावो मुखर्जी, मनोज मुंतशिर, बी प्राक)
अगर पूरे एलबम के लिहाज़ से देखा जाए तो कुछ छोटे बजट की फिल्मों ने भी अच्छा संगीत दिया जैसे कि गॉन केश, मोतीचूर चकनाचूर और घोस्ट। देशप्रेम के जज़्बे को उभारते केसरी और URI का भी संगीत काफी सराहा गया पर खिताबी जंग का मुकाबला इस बार त्रिकोणीय था। कलंक, मणिकर्णिका और कबीर सिंह के लगभग सभी गाने खासे लोकप्रिय हुए। जहाँ कबीर सिंह युवाओं की आवाज़ बना वही कलंक और मणिकर्णिका जैसी पीरियड फिल्मों ने पुरानी मेलोडी की यादें ताज़ा कर दीं। पर साल का सबसे बेहतरीन एलबम रहा कलंक जिसने
मणिकर्णिका से थोड़े अंतर से बाजी मारी ।
मणिकर्णिका : शंकर एहसान लॉय
कलंक : प्रीतम
Uri: The Surgical Strike : शाश्वत सचदेव
कबीर सिंह : कई संगीतकार
गॉन केश : कई संगीतकार
साल का सर्वश्रेष्ठ एलबम : कलंक, प्रीतम
साल के कुछ खूबसूरत बोलों से सजे सँवरे गीत
इस साल कुछ नए और कुछ पुराने गीतकारों के बेहद अर्थपूर्ण गीत सुनने को मिले। नए लिखने वालों में अभिरुचि चंद ने मंज़र है ये नया में मन में जोश भरने के साथ अपने प्रतीकों से गुलज़ार साहब की याद दिला दी वहीं अभिषेक मजाल अपने रूमानी गीत बेईमानी से में नए खूबसूरत बिंब भरते नज़र आए। प्रसून जोशी और जावेद अख्तर ने देशप्रेम के जज़्बे को कविता सरीखे शब्दों से नवाज़ा तो मनोज तेरी मिट्टी में सैनिक के दिल की आवाज़ बन कर उभरे। सीमा सैनी की बेइमान चंदा से नोक झोंक बड़ी प्यारी रही, वहीं रुआँ रुआँ में वरुण ग्रोवर ने अपने गहरे शब्दों से दिल जीता। अमिताभ ने कलंक के शीर्षक गीत इश्क़ का जोग विजोग फिर उभारा तो इरशाद कामिल ने आईना में रूमानियत से भरी बेहद दिलकश पंक्तियाँ रचीं। इतने सारे प्यारे गीतों में किसी एक को चुनना मेरे लिए बड़ा कठिन रहा और अंत में मैंने प्रसून जोशी की काव्यात्मकता और मनोज के दिल छूते भावों के आधार पर इन दोनों को ही संयुक्त रूप से साल के बेहतरीन लिखे गीतों में जगह दी है।
अमिताभ भट्टाचार्य : कलंक नहीं, इश्क़ है काजल पिया ….
प्रसून जोशी : मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए...
प्रसून जोशी : बोलो कब प्रतिकार करोगे
वरुण ग्रोवर, : रुआँ रुआँ, रौशन हुआ...
सीमा सैनी : ओ रे चंदा बेईमान ...
इरशाद कामिल : ये आईना है या तू है...
मनोज मुंतशिर : तेरी मिट्टी
अभिषेक मजाल : बेईमानी से
अभिरुचि चंद : मंज़र है ये नया
जावेद अख्तर : मर्द मराठा
साल के सर्वश्रेष्ठ बोल : तेरी मिट्टी.. मनोज मुंतशिर /मैं रहूँ या ना रहूँ ...प्रसून जोशी
साल के गीतों की कुछ बेहद जानदार पंक्तियाँ
जब आप पूरा गीत सुनते हैं तो कुछ पंक्तियाँ कई दिनों तक आपके होठों पर रहती हैं और उन्हें गुनगुनाते वक़्त आप एक अलग खुशी महसूस करते हैं। पिछले साल के गीतों की वो बेहतरीन पंक्तियों जिनके शब्दों के साथ मेरे दिल की मँगनी हुई वे कुछ यूँ हैं 😃
तू झील खामोशियों की... लफ़्ज़ों की मैं तो लहर हूँ..एहसास की तू है दुनिया..छोटा सा मैं एक शहर हूँ
जिस्म से तेरे मिलने दे मुझे, बेचैन ज़िन्दगी इस प्यार में थी...उँगलियों से तुझपे लिखने दे ज़रा, शायरी मेरी इंतज़ार में थी
रुआँ रुआँ, रौशन हुआ...धुआँ धुआँ, जो तन हुआ...हाँ नूर को, ऐसे चखा..मीठा कुआँ, ये मन हुआ
काँधे पे सूरज, टिका के चला तू..हाथों में भर के चला बिजलियाँ..तूफां भी सोचे, ज़िद तेरी कैसी..ऐसा जुनून है किसी में कहाँ
मेरी नस नस तार कर दो और बना दो एक सितार..राग भारत मुझपे छेड़ो झनझनाओ बार बार
तरसे जिसको मोरे नैन चंदा, तू दिखे उसे सारी रैन चंदा..मैं जल जाऊँ तुझसे ओ चंदा, हाय लगाऊँ तुझपे ओ चंदा
दुनिया की नज़रों में ये रोग है..हो जिनको वो जाने, ये जोग है...इकतरफा शायद हो दिल का भरम...दोतरफा है, तो ये संजोग है
ओ माई मेरे क्या फिकर तुझे, क्यूँ आँख से दरिया बहता है, तू कहती थी तेरा चाँद हूँ मैं, और चाँद हमेशा रहता है
अग्नि वृद्ध होती जाती है, यौवन निर्झर छूट रहा है...प्रत्यंचा भर्रायी सी है, धनुष तुम्हारा टूट रहा है..कब तुम सच स्वीकार करोगे, बोलो, बोलो कब प्रतिकार करोगे?
सोच की दीवारों पे. तारीख लिख के चला है..साँसों की मीनारों पे, ख़्वाहिश रख के चला है..रह गया है गर्दिशों में..ये सवाल कैसा..इक मलाल है ऐसा
अग्नि हो कर मँगनी हो गई पानी से..
साल के बेहतरीन गायक
गायिकी की बात करूँ तो ये साल पुराने के साथ नए उभरते गायकों का भी रहा। शांतनु सुदामे द्वारा मंज़र है ये नया का जोशीला गायन ध्यान खींचने में सफल रहा। पापोन की नमकीन आवाज़ तेरा साथ है को एक अलग ही स्तर पर ले गयी। सोनू निगम मिर्जा वे और शर्त में अपनी उसी पुरानी लय में दिखे। वही अरिजीत सिंह ने हमेशा की तरह कलंक के शीर्षक गीत के उतार चढ़ाव को बखूबी निभाया। अरमान मलिक की आवाज़ की मुलायमियत तेरा जिक्र में मन को सहलाने वाली थी। पर ये साल पंजाबी गायिकों के लिए खास तौर से अच्छा रहा। सूफी गायिकी के लिए मशहूर करण ग्रेवाल ने चिट्ठिये का दर्द अपनी आवाज़ में उतार लिया तो वहीं अर्जुन हरजाई बड़ी मासूमियत से छोटी छोटी गल में मान जाने की वकालत करते रहे पर जिस आवाज़ ने गीत की पहली पंक्ति से रोंगटे खड़े कर दिए वो थी बी प्राक की आवाज़ जिन्होंने पंजाबी फिल्मों से पहली बार इस साल बालीवुड का रुख किया है। उनके गाये इस गीत के लिए अक्षर कुमार को भी कहना पड़ा कि ये उनके कैरियर के सबसे शानदार गाए गीतों में से एक है।
पिछले साल की अपेक्षा इस साल गायिकाओं को भी कई एकल गीत गाने का मौका मिला। कविता सेठ की आवाज़ बहुत सालों के बाद इस साल नुस्खा तराना में गूँजी। ज्योतिका टांगरी ने इस साल कई गीत गाए पर घोस्ट के लिए उनका गाया गीत काफी मधुर रहा। नई गायिकाओं में जिन आवाज़ों ने सबसे अधिक प्रभावित किया वो थीं आज जागे रहना में हिमानी कपूर और राजा जी में प्रतिभा सिंह बघेल। आशा है आने वाले सालों में इनके और गीत सुनने को मिलेंगे। बेहतरीन गायिका के लिए जीत का सेहरा लगातार दूसरे साल श्रेया घोषाल की झोली में गया । घर मोरे परदेशिया के शास्त्रीय आलाप हों या या ओ रे चंदा की मीठी चुहल वो दोनों ही गीतों में अपनी बेहतरीन गायिकी का सिक्का जमा गयीं।
हिमानी कपूर : आज जागे रहना, ये रात सोने को है.
श्रेया घोषाल : ओ रे चंदा बेईमान
प्रतिभा बघेल : ओ राजा जी
श्रेया घोषाल : घर मोरे परदेसिया
कविता सेठ : नुस्खा तराना
ज्योतिका टांगरी : ये जो हो रहा है
साल की सर्वश्रेष्ठ गायिका : श्रेया घोषाल (घर मोरे परदेसिया, ओ रे चंदा बेईमान)
गीत में प्रयुक्त हुए संगीत के कुछ बेहतरीन टुकड़े
संगीत जिस रूप में हमारे सामने आता है उसमें संगीतकार संगीत संचालक और निर्माता की बड़ी भूमिका रहती है पर संगीतकार की धुन हमारे कानों तक पहुँचाने का काम हुनरमंद वादक करते हैं जिनके बारे में हम शायद ही जान पाते हैं। वैसे आजकल गीतों में लाईव आर्केस्ट्रा का इस्तेमाल बेहद कम होता जा रहा है। ज्यादातर अंतरों के बीच प्री मिक्सड टुकड़े बजा दिए जाते हैं। फिर भी इस साल कलंक, केसरी, मणिकर्णिका, पानीपत जैसी फिल्मों के गीतों में लाइव रिकार्ड किए हुए भांति भांति के वाद्य गूँजे। विशाल भारद्वाज ने रुआँ रुआँ में गिटार को गीत के शब्दों के साथ बड़े करीने से समायोजित किया। संगीत संचालकों में आदित्य देव के काम ने बार बार ध्यान खींचा। कुछ गीतों में स्वीडन और थाइलैंड के विदेशी वादक समूहों का भी प्रयोग हुआ। कानों को मधुर लगने वाली धुनों की चर्चा तो नीचे है पर सबसे ज्यादा दिल खुश हुआ विपिन पटवा के तेरा साथ है के लिए किए गए संगीत संयोजन ने । घड़े, सितार और शहनाई के साथ तार वाद्यों की स्वरलहरी गीत के खत्म होने के बाद भी ज़हन में बजती रही।
रूआँ रूआँ : गिटार अंकुर मुखर्जी, विशाल भारद्वाज
तेरा साथ है गीत के अंत में तार वाद्यों पर आधारित धुन : विपिन पटवा
तेरी मिट्टी अंत में तार वाद्यों पर आधारित धुन प्रकाश वर्मा, आदित्य देव, अर्को प्रावो मुखर्जी
तेरा ना करता जिक्र प्रील्यूड : गिटार - केबा जरमिया, असद खाँ
मिर्जा वे सिग्नेचर ट्यून : जीत गाँगुली
रुह का रिश्ता,इंटरल्यूड : आदित्य देव, सोनल प्रधान
जहाँ तू चला मिडनाइट मिक्स इंटरल्यूड : जसलीन रॉयल, अक्षय राहेजा
संगीत की सबसे कर्णप्रिय मधुर तान : तेरा साथ है, विपिन पटवा
संगीतमाला के समापन मैं अपने सारे पाठकों का धन्यवाद देना चाहूँगा जिन्होंने समय समय पर अपने दिल के उद्गारों से मुझे आगाह किया। आपकी टिप्पणियाँ इस बात की गवाह थीं कि आप सब का हिंदी फिल्म संगीत से कितना लगाव है। इस साल गीतमाला शुरु होने के पहले मैंने आप सबसे अपनी पसंद के गीतों का चुनाव करने को कहा था और साथ में ये बात भी कही थी कि जिन लोगों की पसंद सबसे ज्यादा इस गीतमाला के गीतों से मिलेगी उन्हें एक छोटा सा तोहफा दिया जाएगा मेरे यात्रा ब्लॉग मुसाफ़िर हूँ यारों की तरफ से। इस बार की प्रतियोगिता के सभी विजेताओं बठिंडा से अरविंद मिश्र, पटना से मनीष, लखनऊ से कंचन सिंह चौहान और कोयम्बटूर से स्मिता जयचंद्रन को मेरी तरफ से ढेर सारी बधाई।
एक बार फिर आप सभी का दिल से शुक्रिया इस सफ़र में साथ बने रहने के लिए।
वक़्त आ गया है एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला 2019 का सरताज बिगुल बजाने का। धुन, शब्द और गायिकी तीनों ही लिहाज़ से बाकी सारे गीतों से कहीं बेहतर रहा फिल्म केसरी का वो नग्मा जिसने इस गीतमाला की पहली सीढ़ी पर अपने आसन जमाए हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के आख़िर में हुए अफगान सेना और अंग्रेजों की सिख पलटन के बीच हुए सारागढ़ी के युद्ध पर आधारित फिल्म केसरी का गीत 'तेरी मिट्टी' हर उस सिपाही को समर्पित है जिसने अपनी मातृभूमि के लिए प्राणों की आहुति दी है।
आज इस सरताज गीत के तीन नायकों अर्को, मनोज मुंतशिर, बी प्राक और उनके पीछे के उन लोगों की बात करेंगे जिनकी वज़ह से ये गीत आपके सामने इस रूप में आ सका।
सबसे पहले शुरुआत करते हैं गीतकार मनोज मुंतशिर से जिनके एक दर्जन से भी ज्यादा गीत पिछले कुछ सालों से संगीतमाला का हिस्सा बनते आए हैं। मेरी उनसे बस एक ही शिकायत रहती थी कि अपनी प्रतिभा को रूमानियत भरे गीतों तक ही सीमित ना रखें। अब देखिए, जैसे ही उन्हें मौका मिला उन्होंने एक सैनिक का दिल इतनी तबियत से पढ़ लिया कि उन भावनाओं को महसूस कर ही संगीतप्रेमियों की आँखें नम हो गयीं। मनोज ने सैनिक के शौर्य की बात करते हुए चंद पक्तियों उसके गाँव, खेत खलिहान और घर परिवार का पूरा नक्शा ही उकेर दिया।
वार्षिक संगीतमाला का पिछले डेढ़ महीने का सफ़र अब समापन की ओर है। इस दौरान आपको मैंने पिछले साल के कई अनसुने नग्मों से मिलवाया। जहाँ तक चोटी के दो गीतों की बात है, ये दोनों आपके जाने पहचाने गीत हैं और चहेते भी होंगे ऐसी मेरी उम्मीद है।
एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला के इस पन्द्रहवें संस्करण में रनर्स अप का खिताब जीता है फिल्म कलंक के शीर्षक गीत कलंक नहीं, इश्क़ है काजल पिया ने जिसे गाया अरिजीत सिंह ने, धुन बनाई प्रीतम ने और बोल लिखे अमिताभ भट्टाचार्य ने।
संगीतकार प्रीतम ने इस साल अपने चाहनेवालों को निराश नहीं किया। कलंक के आलावा उन्होंने इस साल The Sky is Pink और छिछोरे का भी संगीत दिया। छिछोरे तो खूब चली पर गाने सबसे ज्यादा कलंक के पसंद किए गए। आज़ादी के पहले की इस कहानी का संगीत देना प्रीतम के लिए चुनौती भरा था। प्रीतम ने इस बात का ख्याल रखा कि फिल्म के गीतों में ज्यादा से ज्यादा भारतीय वाद्यों का प्रयोग हो। फिल्म के कई गाने रागों और लोक धुनों से प्रभावित हैं। कलंक के इस शीर्षक गीत का मुखड़ा राग शिवरंजनी पर आधारित है।
प्रीतम के साथ अमिताभ भट्टाचार्य और अरिजीत सिंह का रिश्ता बहुत पुराना है। अरजीत तो एक समय में प्रीतम के सहायक का काम भी किया करते थे। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि इस गीत की प्रोग्रामिंग में भी अरिजीत शामिल रहे। यहाँ तक कि गीत में हारमोनियम भी उन्होंने बजाया। गीत के पीछे हुई मेहनत का अगर अंदाजा लगाना हो तो सिर्फ इतना जान लीजिए कि वरुण धवन ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि अरिजीत ने इस गीत को बारह सौ बार गाने के बाद अंतिम रूप दिया। अब इसमें थोड़ी अतिश्योक्ति हो सकती है पर अगर प्रीतम और अरिजीत की अंत अंत तक लगातार सुधार करने की फितरत देखें तो ये सच भी हो सकता है। जिस दिन ये गाना इंटरनेट पर रिलीज़ होना था उस दिन नहीं हुआ क्यूँकि आखिरी क्षणों में भी ये पूरी टीम उसे और बेहतर बनाने में लगी थी।
अरिजीत सिंह और प्रीतम
इश्क़ तो एक जोग और इबादत का रूप है तो इसमें पड़ना कलंक का सबब कैसे बन सकता है। इसी भाव को ध्यान में रखकर अमिताभ ने ये प्यारा मुखड़ा रचा कलंक नहीं, इश्क़ है काजल पिया। इस गीत में आगे अमिताभ इकतरफा और दोतरफा का भेद भी बड़े करीने से बता जाते हैं जब वो कहते हैं कि दुनिया की नज़रों में ये रोग है...हो जिनको वो जाने, ये जोग है इकतरफा शायद हो दिल का भरम.. दोतरफा है, तो ये संजोग है...दिल छू जाती है ये प्यारी पंक्तियाँ।
अमिताभ भट्टाचार्य
सच्चा प्रेम हमें तो बिल्कुल तुच्छ बना देताा है और हम प्रियतम की इबादत पर उतर आते हैं। देखिए इसी भावना को अमिताभ गीत के अंत में कितने खूबसूरत शब्दों में पिरोते हैं...मैं गहरा तमस, तू सुनहरा सवेरा....मुसाफ़िर मैं भटका, तू मेरा बसेरा...तू जुगनू चमकता, मैं जंगल घनेरा... भई वाह !
प्रीतम ने फिल्म के समय को देखते हुए इस गीत में प्रमुखता से तार वाद्यों और तबले का प्रयोग किया है। गीत के बीच में उभरता कोरस उसके प्रभाव को और बढ़ाता है। गीत की लोकप्रियता जब बढ़ी तो इसका एक और वर्सन रिलीज़ हुआ जिसका एक अंतरा शिल्पा राव ने बखूबी गाया है।
हवाओं में बहेंगे, घटाओं में रहेंगे तू बरखा मेरी, मैं तेरा बादल पिया जो तेरे ना हुए तो, किसी के ना रहेंगे दीवानी तू मेरी, मैं तेरा पागल पिया हज़ारों में किसी को तक़दीर ऐसी मिली है इक राँझा और हीर जैसी ना जाने ये ज़माना, क्यूँ चाहे रे मिटाना? कलंक नहीं, इश्क़ है काजल पिया कलंक नहीं, इश्क़ है काजल पिया पिया, पिया पिया रे, पिया रे, पिया रे पिया रे, पिया रे (पिया रे, पिया रे) दुनिया की नज़रों में ये रोग है हो जिनको वो जाने, ये जोग है इकतरफा शायद हो दिल का भरम दोतरफा है, तो ये संजोग है लाई रे हमें ज़िन्दगानी की कहानी कैसे मोड़ पे हुए रे खुद से पराए हम किसी से नैना जोड़ के हज़ारों में .. काजल पिया मैं तेरा, हो मैं तेरा मैं गहरा तमस, तू सुनहरा सवेरा मैं तेरा, हो मैं तेरा मुसाफ़िर मैं भटका, तू मेरा बसेरा मैं तेरा, हो मैं तेरा तू जुगनू चमकता, मैं जंगल घनेरा मैं तेरा हो पिया मैं तेरा, मैं तेरा.. तो आइए सुनें अरिजीत की आवज़ में इस गीत को
बनलता जोयपुर जंगलों के किनारे बसा फूलों का गाँव
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पश्चिम बंगाल में ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे विख्यात जगह है तो वो है बिष्णुपुर।
वर्षों पहले बांकुरा जिले में स्थित इस छोटे से कस्बे में जब मैं यहाँ के
विख्या...
इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।