गुरुवार, सितंबर 15, 2022

नदी के द्वीप : अज्ञेय Nadi Ke Dweep

पिछले दो महीनों में मैंने पाँच किताबें पढ़ीं और उनमें सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ नदी के द्वीप से जिसे लिखा था अज्ञेय ने। निर्मल वर्मा की तरह अज्ञेय अपने क्लिष्ट लेखन के लिए जाने जाते हैं। इन लेखकों की किताबों को सरसरी निगाह से पढ़ जाने की हिमाकत आप नहीं कर सकते। उनके लिखे को मन में उतारने के लिए समय और मानसिक श्रम की जरूरत होती है। कई बार आप वैसी मनःस्थिति में नहीं रहते इसलिए उनसे कतराने की कोशिश करते हैं। शायद यही वज़ह है कि सैकड़ों पुस्तक पढ़ने के बाद मैं ये साहस कर पाया।

अज्ञेय का वास्तविक नाम सच्चिदानंद हीरालाल वात्सायन था। यूँ तो उन्होंने गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में काफी लेखन किया पर उनके लिखे दो उपन्यास शेखर एक जीवनी और नदी के द्वीप उनके गद्य लेखन की पहचान रहे। उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में जन्मे अज्ञेय भारत के विभिन्न प्रान्तों में रहे उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया और जीवन के कई साल जेल में बिताए। ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अज्ञेय अपने लेखन में अपनी भाषा शैली और अपने पात्रों के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण के लिए जाने जाते हैं।

नदी के द्वीप कमाल का उपन्यास है खासकर अपनी संरचना की दृष्टि से। ले दे के चार मुख्य पात्र जिनमें 3 तो एक प्रेम त्रिकोण का हिस्सा हैं और चौथा अपने कृत्यों से प्रेमी कम खलनायक ज्यादा महसूस होता है। उपन्यास के चारों मुख्य किरदार मध्यम वर्गीय पढ़े लिखे परिवेश से आते हैंखास बात ये है कि इन चारों के बीच का संवाद ज्यादातर पत्रों के माध्यम से चलता है। ज़ाहिर है इनके लिखे पत्र विद्वतापूर्ण है और कई बार दिल के तारों को छू लेते हैं। मसलन भुवन से जब गौरा अपने भविष्य के बारे में मार्गदर्शन चाहती है तो भुवन कितनी सुंदर बात लिख जाता है

"गौरा कोई किसी के जीवन का निर्देशन करे यह मैं शुरू से गलत मानता आया हूं, तुम जानती हो। दिशा-निर्देशन भीतर का आलोक ही कर सकता है; वही स्वाधीन नैतिक जीवन है, बाकी सब गुलामी है। दूसरे यही कर सकते हैं कि उस आलोक को अधिक द्युतिमान बनाने में भरसक सहायता दें। वही मैंने जब-तब करना चाहा है, और उस प्रयत्न में स्वयं भी आलोक पा सका हूं, यह मैं कही ही चुका। तुम्हारे भीतर स्वयं तीव्र संवेदना के साथ मानो एक बोध भी रहा है जो नीति का मूल है; तुम्हें मैं क्या निर्देश देता?"



कभी-कभी ये किरदार प्रत्यक्ष रूप से भी मिल लेते हैं। आपस में बौद्धिक बहसें करते हैं और इन बहसों के बीच अचानक ही गहरा कुछ निकल कर ऐसा आता है जिससे पाठक अज्ञेय की लेखनी से अभिभूत हो जाता है।

"फिर थोड़ा मौन रहा, दोनों सूनी रात को देखते रहे। लोग एक ही आकाश को, एक ही बादल को, एक ही टिमकते तारे को देखते हैं और उनके विचार बिल्कुल अलग-अलग लीकों पर चलते जाते हैं, पर ऐसा भी होता है कि वे लीकें समानांतर हों और कभी ऐसा भी होता है कि थोड़ी देर के लिए वे मिलकर एक हो जाएं; एक विचार, एक स्पंदन जिसमें सांझेपन की अनुभूति भी मिली हो। असंभव यह नहीं है, और यह भी आवश्यक नहीं है कि जब ऐसा हो तो उसे अचरज मानकर स्पष्ट किया ही जाए, प्रचारित किया ही जाए - यह भी हो सकता है कि वह स्पंदन फिर विभाजित हो जाए, विचार फिर समानांतर लीकें पकड़ लें।"

 

हम सब नदी के द्वीप हैं, द्वीप से द्वीप तक सेतु हैं। सेतु दोनों ओर से पैरों के नीचे रौंदा जाता है, फिर भी वह दोनों को मिलाता है एक करता है....!

 

" नीति से अलग विज्ञान बिना सवार का घोड़ा है, बिना चालक का इंजिन : वह विनाश ही कर सकता है। और संस्कृति से अलग विज्ञान केवल सुविधाओं और सहूलियतों का संचय है, और वह संचय भी एक को वंचित कर के दूसरे के हक में; और इस अम्बार के नीचे मानव की आत्मा कुचली जाती है, उसकी नैतिकता भी कुचली जाती है, वह एक सुविधावादी पशु हो जाता है…और यह केवल युद्ध की बात नहीं है, सुविधा पर आश्रित जो वाद आजकल चलते हैं वे भी वैज्ञानिक इसी अर्थ में हैं कि वे नीति-निरपेक्ष हैं : मानव का नहीं, मानव पशु का संगठन ही उन का इष्ट है। "

पर ये भी है कि पुस्तक के कुछ हिस्सों में किरदारों के व्याख्यान इतने गहरे और बोझिल हो जाते हैं कि उनकी एक एक पंक्ति पर दिमाग खपाने का दिल नहीं करता और उन हिस्सों को सरसरी निगाह से पढ़कर निकल जाना होता है बिना गहरे डूबे हुए। अज्ञेय पर पश्चिमी साहित्यकारों का अच्छा खासा प्रभाव रहा है। यही वज़ह है कि डी एच लारेंस व इलियट जैसे प्रख्यात अंग्रेजी कवियों की रचनाओं से पात्रों के माध्यम से पाठक रूबरू होता रहता है।

है तो यह एक प्रेम कथा ही और वो भी बिना किसी ज्यादा घुमाव या तेजी से बदलती घटनाओं के। कथा का कालखंड 80-90 साल पुराना है पर पर जिन व्यक्तित्वों को अज्ञेय ने गढ़ा है वह आज के चरित्रों से बहुत पुराने नहीं हैं। ऐसा इसलिए है कि अज्ञेय की दृष्टि तत्कालीन घटनाओं से ज्यादा व्यक्ति की आंतरिक चिंतन धारा और मानसिक उथल-पुथल पर ज्यादा है और आदमी तो अंदर से एक सदी में भी कहां बदला है?



इसलिए किताब के प्राक्कथन में कहा गया है कि उपन्यास में लेखक ने व्यक्ति के विकसित आत्म को निरूपित करने की सफल कोशिश की है। वह व्यक्ति जो विराट समाज का अंग होते हुए भी उसी समाज की तीव्रगामी धाराओं, भावनाओं और तरंगों के बीच अपने भीतर एक द्वीप की तरह लगातार बनता, बिगड़ता और फिर बनता रहता है। वेदना जिसे मांजती है, पीड़ा जिसे व्यस्क बनाती है और धीरे-धीरे द्रष्टा।

जो विशुद्ध हिंदी भाषा के प्रेमी हैं उन्हें अज्ञेय की लेखनी से सीखने को बहुत कुछ मिलेगा। मैंने तो इस किताब को पढ़ते हुए हिंदी के दर्जन भर ऐसे शब्द जाने जिनका इस्तेमाल मैं तो अब तक नहीं करता था। जो लोग आोशो के दर्शन से प्रभावित हैं उन्हें जानकर अच्छा लगेगा कि हिंदी की प्रिय पुस्तकों में उन्होंने सिर्फ नदी के द्वीप का नाम शामिल किया था।

क्योंकि इस 310 पन्नों के इस उपन्यास को हिंदी की एक क्लासिक किताब का दर्जा प्राप्त है इसलिए आप में से कईयों ने इसे पढ़ा होगा। मैं जानना चाहूंगा कि आपको भुवन, रेखा, गौरा और चंद्र माधव में किस किरदार ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया और क्यूं ?
मुझसे पूछेंगे तो गौरा का सहज व्यक्तित्व मेरे दिल के सबसे करीब रहा। शायद इसलिए कि प्रेम जिस स्वरुप में उसे मिला या नहीं मिला वह उसी में संतोष करती हुई अपने ध्येय को साध्य करने के लिए पूरी मेहनत से जुटी रही। प्रेम में आहत होने के बावजूद उसके प्रेमी के व्यक्तित्व को मलिन करने की चेष्टाएं, उसके विश्वास पर जरा भी असर नहीं करतीं और फिर उसका सहज हास्य बोध मन को तरंगित भी करता रहता है।



नदी के द्वीप : *** 
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