गुरुवार, मार्च 14, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 : कल रात आया मेरे घर इक चोर

वार्षिक संगीतमाला की पिछली पोस्ट पर मैंने जिक्र किया था देश में पनप रहे स्वतंत्र संगीत (Independent Music) का। कई अच्छे स्वतंत्र गीत बनते हैं और गुमनामी के अँधेरों में खो जाते हैं पर वहीं दूसरी ओर ऐसे भी गीत हैं जो बिना किसी प्रचार के ही वायरल हो जाते हैं। गीत के सेट और अपनी वेशभूषा पर आप चाहे जितनी भी खर्च करें वो सिर्फ कुछ दिनो् तक देखने सुनने वालों का ध्यान खींच सकता है। उसके बाद तो गीत के बोल, धुन और आवाज़ ही लोगों की याददाश्त में रह पाते हैं। आप सज्जाद अली के गीत देखिए। साल में उनके गिने चुने गीत आते हैं और वो भी बड़े साधारण से परिदृश्य और गेटअप के साथ पर रावी विच पानी कोई नहीं उनके गाने के बाद भी आप वर्षों गुनगुनाते रहते हैं और गाते गाते आँखे भी भर जाती हैं। तो ये कमाल है सच्चे गीत संगीत का।

आज जो गीत दाखिल हो रहा है वार्षिक संगीतमाला में वो रिलीज़ तो हुआ था पिछले साल दिसंबर में पर उसके दो महीने बाद तक किसी ने उसकी खोज ख़बर नहीं ली थी। फिर फरवरी के आख़िर में एक ही हफ्ते में इंटरनेट पर वो ऐसा वायरल हुआ कि बॉलीवुड की अभिनेत्रियों से लेकर छोटे छोटे स्कूल के बच्चे भी उस पर ताबड़तोड़ रील बनाने लगे। जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ गीत कल रात आया मेरे घर इक चोर की।

इस गीत को गाया, लिखा और धुन से सजाया एक ऐसे शख़्स ने जिसका वास्तविक नाम अभी तक लोगों को पता नहीं। दुनिया के लिए उन्होंने अपना एक अजीब सा नाम रखा है और वो है जुस्थ। उनसे जब ये सवाल किया जाता है तो वो कहते हैं कि आख़िर नाम में क्या रखा है, आप उसके पीछे के व्यक्ति को  देखिए। जुस्थ एक चार्टेड एकाउटेंट थे। वो सब छोड़ छाड़ कर संगीत की दुनिया में चले आए। अमेरिका में कई जगहों पर अपने शो कर चुके हैं पर आजकल मुंबई में उनका बसेरा है। अपने से लिखते हैं, गाते हैं, गिटार भी खुद ही बजाते हैं और फिर यूँ ही बिना किसी प्रचार के अपने गाने रिलीज़ कर देते हैं। अगर उनका ये चोर ना आया होता तो हम आज जुस्थ के बारे में बातें भी नहीं करते।

चोर के बोलों को गौर से सुनेंगे तो पाएँगे कि उसमें जीवन से लेकर मुक्ति तक की पूरी फिलासफी छुपी है। इस गीत को सुनकर मुझसे सबसे पहले रब्बी शेरगिल का गीत बुल्ला कि जाणा मैं कौन याद आ गया था जिसमें दार्शनिकता का ऐसा ही पुट था। वो गीत भी अपने वक़्त में काफी लोकप्रिय हुआ था। अगर इस गीत की बात करें तो यहाँ भी चोर तो बस एक बिंब है जिसे जुस्थ ने एक गहरी बात कहने के लिए इस्तेमाल किया है। जब हम इस दुनिया में आते हैं हमारे पास कुछ नहीं होता। फिर जैसे जैसे उम्र बढ़ती है ज़िंदगी की पोटली भरती चली जाती है। रिश्ते नातों, जाति मजहब, ख्वाबों, दौलत, शोहरत, ग़म तन्हाई, सफलता असफलता कितने चाही अनचाही भावनाओं का बोझ हमारे दिल पर होता है और सोचिए कोई चोर आकर इन सबसे हमको अलग कर दे तो हम अपनी शख्सियत से ही आज़ाद हो जाएँगे या यूँ कहें कि हमें मुक्ति का मार्ग ही मिल जाएगा।

मुझे नहीं लगता कि सारे लोग जो इस गीत को पसंद कर रहे हैं उनमें सारे इसके धीर गंभीर भाव तक पहुँचे होंगे। फिर क्यूँ बच्चे, युवा और बुजुर्ग इस गीत को सराह रहे हैं? पहला कारण तो ये कि जुस्थ की आवाज़ में एक प्यारी सी ठसक है। गीत में चोर को लाने का उनका विचार भी मज़ेदार है और चैतन्य द्वारा संयोजित किया गया गिटार पर आधारित संगीत, कानों में रस घोलता है। इन सबसे बड़ी बात ये कि इस गाने की पंक्तियों को आप इमोट कर सकते हैं । मतलब रील बनाने के लिए ये गीत सर्वथा उपयुक्त है। तो आइए सुनते हैं बनारस में फिल्माए इस गहरे पर मज़ेदार गीत को जुस्थ की आवाज़ में

कल रात आया मेरे घर इक चोर

आ के बोला दे दे मुझे जो भी तेरा है
मैंने बोला 
मेरा नाम भी ले जा मेरा काम भी ले जा
मेरा राम भी ले जा मेरा श्याम भी ले जा
कल रात आया मेरे घर इक चोर
आ के बोला दे दे मुझे जो भी तेरा है
मैंने बोला 
मेरा जीत भी ले जा, मेरी हार भी ले जा
मेरा डर भी ले जा, मेरा घर भी ले जा
मेरा ख़्वाब भी ले जा मेरा राज भी ले जा
मेरा ग़म भी ले जा हर जख़्म भी ले जा
मेरा जात भी ले जा, मेरा औकात भी ले जा
मेरा बात भी ले जा,  हालात भी ले जा
ते जा मेरा जो भी दिखे
जो ना दिखे वो भी ले जा
कर दे मुझे आज़ाद आज़ाद आज़ाद
कल रात आया मेरे घर इक शोर


शनिवार, मार्च 09, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 : मैं हँसता रहा और आँखों से बह गयी नदी : कैसी कहानी ज़िंदगी ?

आज कल स्वतंत्र संगीत (जिसे हम बोलचाल की भाषा में Independent Music के नाम से जानते हैं) ने आकार लेना शुरु कर दिया है।  सोशल मीडिया के आ जाने के बाद हर अच्छा कलाकार छोटे छोटे बैनरों के तले अपना संगीत ढेर सारे म्यूजिकल प्लेटफार्म्स पर अपलोड कर रहा है। फिल्म संगीत और ओटीटी पर रिलीज़ फिल्मों के सारे गीतों को तब भी आप सुन सकते हैं पर स्वतंत्र संगीत के गहरे सागर के सारे मोतियों को सुनना और चुनना असंभव ही है। वैसे भी सब के पास इतने संसाधन नहीं होते कि वो अपने गीतों को ढंग से प्रचारित कर श्रोताओं के सम्मुख ला सकें।

फिर भी एक संगीतप्रेमी होने के नाते आप उसमें हो रहे अच्छे कामों को अनदेखा नहीं कर सकते। 25 गीतों से सजी इस इस गीतमाला में मैंने इस कोटि के तीन ऐसे गीतों को चुना है जिन्होंने एक बार सुनने के बाद साल भर मेरा पीछा नहीं छोड़ा। इसमें पहला गीत है 'कैसी कहानी ज़िदगी' जिसमें गीत और गायिकी है शांतनु घटक की और संगीत संयोजन है अनूप सातम का। 


बतौर संगीतकार शांतनु घटक से मेरा पहला परिचय फिल्म तुम्हारी सुलु के गीत रफ़ू से हुआ था जो कि उस साल की गीतमाला का सरताज गीत भी बना था। शांतनु हैं तो बंगाल के पर बतौर गीतकार भी बेहद कमाल लिखते हैं। उनकी गायिकी हेमंत दा वाली टोन की याद दिला देती है। वैसे शांतनु जब कोई धुन नहीं बना रहे होते हैं तब विज्ञापनों और फिल्मों में भी यदा कदा वो अभिनय करते नज़र आ जाते हैं।

शांतनु ने इस गीत में जीवन से किसी ख़ास के चले जाने का दर्द बयां किया है। जिस रिश्ते को पोषित पल्लवित करने में हमारी भावनाओं की उर्जा लगी होती है उससे अचानक ही निकल कर जीवन में आगे बढ़ जाना सिर्फ 'मूव आन कहने' जितना सरल नहीं होता। ऊपर ऊपर से तो सब सामान्य रहता और दिखता है पर थोड़ा कुरेदते ही कसकती यादों, हरे जख़्मों और जमे हुए आँसुओं की कई परतें नज़र आने लगती हैं। 

शांतनु की लेखनी बाहर और अंदर के इसी विरोधाभास को गीत में जगह जगह उभारती है। मसलन मैं हँसता रहा और आँखों से बह गयी नदी....मैं बनता गया पर बनती गयी तेरी कमी...मैं रुकता गया कब गुजर गयी तेरी सदी । अनूप सातम का मुखड़ा के पहले पियानो पर बजाया आधे मिनट का टुकड़ा जो अंतरों में भी दोहराया जाता है मन को मधुर तो लगता ही है साथ ही गीत के मायूस करते मूड में ढाल देता है। 

मैं हँसता रहा और आँखों से बह गयी नदी 
कैसी कहानी ज़िंदगी
मैं बसता गया पर पैरों से उड़ चली ज़मीं
कैसी कहानी ज़िंदगी

जब कभी यहाँ छाए बादल
यूँ लगा कि है तेरा काजल
जब वो काजल धुला,  कहीं पे सूरज ना मिला
मैं रुकता गया कब गुजर गयी तेरी सदी 
कैसी कहानी ज़िंदगी

अब तो है तेरा अलग ठिकाना
इस घर ने फिर भी ना माना
खिड़कियाँ खोल के तेरे नज़ारों को छाना
मैं बनता गया पर बनती गयी तेरी कमी
कैसी कहानी ज़िंदगी

तो आइए सुनिए विछोह की इस कहानी को शांतनु की जुबानी

रविवार, मार्च 03, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 : रह जाओ ना

हरिहरण का नाम आते ही एक शास्त्रीय ग़ज़ल गायक की छवि उभर कर सामने आती है हालांकि उन्होंने कई मशहूर हिंदी फिल्मी गीत भी गाए हैं। ज्यादातर उन्हें ऐसे मौके दक्षिण भारतीय संगीत निर्देशकों ने ही दिये हैं जिसमें ए आर रहमान का नाम आप सबसे आगे रख सकते हैं। गुरु का ऍ हैरते आशिक़ी हो या बांबे का तू ही रे, रोज़ा का रोज़ा जानेमन या फिर सपने का चंदा रे चंदा रे, रहमान और हरिहरण की जोड़ी खूब जमी है। पर रहमान के संगीत निर्देशन के परे उनका गाया झोंका हवा का और बाहों के दरमियाँ भी मुझे बेहद पसंद है।


वार्षिक संगीतमाला के लिए गीतों का चुनाव करते समय जब उनकी आवाज़ मेरे कानों से टकराई तो मैं चौंक गया। चौंकने की वज़ह ये भी थी कि फिल्म तेजस का एल्बम युवा संगीतकार शाश्वत सचदेव का था, फिर भी चुनिंदा गीत गानेवाले हरिहरण को उन्होंने इस फिल्म के लिए राजी कर लिया। ख़ैर शाश्वत प्रतिभावन तो हैं ही। उनके हुनर का पहला नमूना तो उनके सबसे पहले एल्बम फिल्लौरी में मैंने देख ही लिया था

हरिहरण  के साथ शाश्वत सचदेव

शाश्वत ने हरिहरण साहब को जो गीत दिया उसमें अपने प्रिय से और रुकने का अनुरोध है। ऐसी भावना लिए कई कालजयी गीत पहले भी बने हैं। मसलन अभी ना जाओ छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं, न जा कहीं अब न जा दिल के सिवा, ना जाओ सइयाँ छुड़ा के बइयाँ कसम तुम्हारी मैं रो पड़ूँगी और नज़्मों की बात करूँ आज जाने की ज़िद ना करो यूँ ही पहलू में बैठे रहो का जिक़्र कैसे छोड़ा जा सकता है।

गीतकार कुमार के साथ शाश्वत सचदेव


ये गीत उस श्रेणी का तो नहीं फिर भी हरिहरण की आवाज़ में इसे सुनकर मन में एक सुकून सा तारी हो जाता है। कुमार का लिखा मुखड़ा और प्यारा सा अंतरा, शाश्वत का गीत के पार्श्व में बजता पियानो और अंतरों के बीच में सतविंदर पाल सिंह की बजाई सारंगी इस प्रभाव को गहरा करते हैं। 


तो आइए सुनें इस प्यारे से गीत को...

बैठो तो ज़रा यहाँ, कितनी बातें बची हैं अभी
होठों पर तेरे लिए, कबसे रखी हुई है हँसी
कुछ देर के लिए, रह जाओ ना
रह जाओ ना यहीं, रह जाओ ना
अभी तो सितारों को गिनना है बाकी, अधूरी है ख़्वाहिश अभी
अभी बादलों में हमें भींगना है, बची बारिशें हैं कई
बातें बची हैं जो आधी अधूरी वो बात कह जाओ ना
छोड़ दो ये जिद ज़रा मेरा कहना भी मानो अभी
तेरा बाकी अभी रूठना, मेरा बाकी मनाना अभी
कुछ देर के लिए...  रह जाओ ना
अभी तो कहानी के कई मोड़ बाकी, बाकी कई यारियाँ
शैतानियों से खेलने की करनी है तैयारियाँ

मंगलवार, फ़रवरी 27, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 : चल उड़ चल सुगना गउवाँ के ओर जहाँ माटी में सोना हेराइल बा

कई बार फिल्मों में ऐसे गीत बनते हैं जो उस वक्त देश और समाज के हालातों को अपने शब्दों में पिरो डालते हैं और एक तरह से देश के इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं। अभी हाल ही में सदन में प्रधानमंत्री ने विपक्ष पर तंज कसते हुए एक गीत की चर्चा की ये कहते हुए कि विपक्ष के शासन के दौरान मँहगाई इतनी बढ़ गयी थी कि मँहगाई डायन खाए जात है जैसे गीत बनने लगे थे। पिछले साल के पच्चीस शानदार गीतों की इस वार्षिक संगीतमाला में जो गीत आज आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ शायद इसमें वर्णित घटनाओं की चर्चा कुछ सालों बाद कोई और करे। कोविड की महामारी के दौरान प्रवासी मजदूरों की अपने घरों की ओर लौटने में जो बदतर हालत हुई थी ये गीत उसी का यथार्थवादी चित्रण करता है।  

फिल्म भीड़ के इस गीत की धुन बनाई संगीतकार अनुराग सैकिया ने और इसे गाया है लोक गायक ओम प्रकाश यादव ने। डा. सागर के लिखे गीतों की चर्चा  पहले भी वार्षिक संगीतमाला में हुई है। सागर मेरे गृह जिले बलिया से आते हैं और जीवन में बहुत तप कर बॉलीवुड के संसार में अपने कदम जमा पाए हैं। उनके संघर्ष के दिनों की बात लिखी थी मैंने पहले यहाँ। हिंदी फिल्मों में उनके गीत हर साल आते ही रहे हैं पर मुंबई में का बा की सफलता के बाद उनके काम को और सम्मान से देखा जाने लगा है।


मज़े की बात ये है कि ये गीत हिंदी में नहीं नहीं बल्कि भोजपुरी है। बिहार यूपी के पुरवइया मजदूरों का दर्द बयाँ करने के लिए भोजपुरी से अच्छी भाषा क्या हो सकती थी। मैंने सागर के हिंदी फिल्मी और गैर फिल्मी गीतों को सुना है पर इस गीत में इतना बढ़िया खाका खींचा है उन्होंने उस वक़्त की परिस्थितियों का कि ये गीत उनके सबसे अच्छे कामों में आगे भी गिना जाएगा। मुखड़े में सागर लिखते हैं...खुनवा-पसीना सहरिया में भैया, कउड़ी के भाव में बिकाइल बा...चल उड़ चल सुगना गउवाँ के ओर, जहाँ माटी में सोना हेराइल बा। भोजपुरी में सुगना तोते को कहते हैं और हेराइल मतलब छिपा हुआ। अंतरों में भी उनके बिंब कमाल के हैं.. भीड़ में ऐसे छिंटा गईनी ऐसे...बोरा से सरसों छिंटाइल बा या फिर धुआँ धुआँ हो गइल अल्हड़ जवनियाँ...चूल्हा में ऐसे झोंकाइल बा...हाकिम लोग कीड़ा मकौड़ा बूझे..कीटनाशक हमरा पे छिड़काइल बा



क्या क्या नहीं सहा हमारे मजदूरों ने और उनके दिल का सारा दर्द सागर ने महज कुछ अंतरों में हमारे आगे उड़ेल दिया। आज के माहौल में लाउड स्पीकर पर बजते भोजपुरी गीत किस लिए जाने जाते हैं ये मुझे बताने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे में सागर जैसे प्रतिभाशाली गीतकार चैती, कजरी, सोहर, बिरहा से सम्पन्न भोजपुरी संस्कृति को अपने गीतों से एक नई दिशा दे रहे हैं जिसकी जितनी तारीफ़ की जाए कम होगी। 

खुनवा-पसीना सहरिया में भैया, 
कउड़ी के भाव में बिकाइल बा...
चल उड़ चल सुगना गउवाँ के ओर, 
जहाँ माटी में सोना हेराइल बा

घर अँगनइया के सपना सजाकर 
मशिनियो से बेसी देहिया खटवनी
हाय रे करम यही पेटवा की ख़ातिर
अब वाचमैनी के ड्यूटी बजवनी
भीड़ में ऐसे छिंटा गईनी ऐसे
बोरा से सरसों छिंटाइल बा

कवने कानूनवा में हम घिरैलीं
कवन बहेलिया बिछावे रे जाल
काहे भइल बा एतना लाचारी
सुई, दवाई एगो टिकिया मुहाल
हाकिम लोग कीड़ा मकौड़ा बूझे
कीटनाशक हमरा पे छिड़काइल बा

भटके शहरिया में ए भइया जेकर 
खेत खलिहानवा हो बाटे छिनाइल 
गहना गुरिया के बतिया न पूछ 
बाटे समान मोरा बनकी धराइल 
धुआँ धुआँ हो गइल अल्हड़ जवनियाँ
चूल्हा में ऐसे झोंकाइल बा

जतिया धर्मवा के ऐसन अफीम हो
सुतही से केहू चटावे हो राम
हथवा में लेके नफ़रत के लाशा
धीरे से केहू सटावे हो राम
बचके जिय तनि बचके पिया
एही कुइयाँ में भाँगवा घोराइल बा 

अब कुछ बातें इस गीत में संगीत देने वाले अनुराग कीं। अनुराग सैकिया एक अद्भुत संगीतकार हैं। थप्पड़ में उनका संगीतबद्ध गीत एक टुकड़ा धूप का.. मेरी गीतमाला के सरताज गीत का तमगा में ले चुका है। दो साल पहले राजशेखर के साथ ऐसे क्यूँ ने तो युवाओं और बड़ों सबका दिल जीत लिया था। अनुराग असम से आते हैं और वहाँ के लोक संगीत में रच बस कर ही उन्होंने अपनी संगीत की कारीगरी सीखी है। शायद इसीलिए उन्होने इस गीत को गवाने के लिए बिरहा गायक ओम प्रकाश यादव को चुना। शब्द प्रधान इस गीत में संगीत नाममात्र सा ही है। फिर भी ऊस थोड़े से संगीत में तॉपस रॉय का दो तारा और तेजस की बजाई बाँसुरी मन को लुभाती है।

सोमवार, फ़रवरी 26, 2024

अलविदा पंकज उधास.. भुला ना पाएँगे आपकी लोकप्रियता का वो दशक...

अस्सी का दशक मेरे लिए हमेशा नोस्टाल्जिया जगाता रहा है।  फिल्म संगीत के उस पराभव काल ने ग़ज़लों को जिस तरह लोकप्रिय संगीत का हिस्सा बना दिया वो अपने आप में एक अनूठी बात थी। उस दौर की सुनी ग़ज़लें जब अचानक ही ज़ेहन में उभरती हैं तो मन आज भी एकदम से तीस चालीस साल पीछे चला जाता है। बहुत कुछ था उस समय दिल में महसूस करने के लिए, पर साथ ही बड़े कम विकल्प थे मन की भावनाओं को शब्द देने के लिए।


फिल्मी गीतों को हमने सुनना छोड़ दिया था। जगजीत व चित्रा हमारे दिलों पर पहले से ही राज कर रहे थे। उनके साथ गुलाम अली, मेहदी हसन, राजकुमार रिज़वी, और राजेंद्र मेहता की आवाज़ें भी दिल को भाने लगी थीं।

पर इनके साथ साथ एक और चौकड़ी तेजी से लोकप्रियता बटोर रही थी। ये चौकड़ी थी पंकज उधास, अनूप जलोटा, तलत अजीज़ और पीनाज मसानी की। चंदन दास भी इस सूची में आगे जुड़ गए। 

अनूप साहब तो बाद में भजन सम्राट कहे जाने लगे पर पंकज जी की गाई ग़ज़लों को चाहने वाले भी कम न थे। उस दशक में पंकज जी की लोकप्रियता का आलम ये था कि उनके गाए गीत व ग़ज़लें मिसाल के तौर पर 'चाँदी जैसा रंग है तेरा', 'इक तरफ तेरा घर इक तरफ मैकदा..', 'घुँघरू टूट गए..' गली नुक्कड़ों पर ऐसे बजा करते थे जैसे आज के हिट फिल्मी गीत। उनके कितने ही एल्बम की उस ज़माने में प्लेटिनम डिस्क कटी।

इतना होते हुए भी पंकज उधास मेरे पसंदीदा ग़ज़ल गायक कभी नहीं रहे। पर इस नापसंदगी का वास्ता मुझे उनकी आवाज़ से नहीं पर उनके द्वारा चुनी हुई ग़ज़लों से ज्यादा रहा है। पंकज उधास ने ग़ज़लों के चुनाव से अपनी एक ऐसी छवि बना ली जिससे उनकी गाई हर ग़ज़ल में 'शराब' का जिक्र होना लाज़िमी हो गया। ऐसी ग़ज़लें खूब बजीं भी मसलन थोड़ी थोड़ी पिया करो, सबको मालूम है मैं शराबी नहीं, शराब चीज़ ही ऐसी है वगैरह वगैरह पर उनके जैसी प्यारी आवाज़ का उम्दा शायरी से दूर होना मुझे खलता रहा।

पर किशोरावस्था में उनकी कुछ ग़ज़लें ऐसी रहीं जिन्हें गुनगुनाना हमेशा मन को सुकून देता रहा। जैसे ...दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है..हम भी पागल हो जायेंगे, ऐसा लगता है/कितने दिनों के प्यासे होंगे यारों सोचो तो...शबनम का कतरा भी जिनको दरिया लगता है

उनकी गायी मेरी सबसे पसंदीदा ग़ज़ल थी.. तुम न मानो मगर हक़ीक़त है ...इश्क़ इंसान की ज़रूरत है/ उस की महफ़िल में बैठ कर देखो... ज़िंदगी कितनी ख़ूबसूरत है जिसे जनाब क़ाबिल अजमेरी ने लिखा था। इसे तब और आज भी गुनगुनाना मुझे बेहद प्रिय है। 

अस्सी के उत्तरार्ध में फिल्म नाम के लिए.. चिट्ठी आई है आई है ..गा कर उन्होंने पूरे भारत का दिल जीत लिया था। उसके बाद वो जहां भी जाते उनसे इस गीत की फरमाइश जरूर की जाती। उनके गाए फिल्मी गीत उनकी अलग सी आवाज़ के लिए हमेशा लोगों द्वारा पसंद किए जाते रहे।

उनके जितने भी साक्षात्कार सुने उनमें वे मृदुभाषी और विनम्रता से भरे दिखे। पिछले कुछ सालों से वे नए ग़ज़ल गायकों को बढ़ावा देने वाले सालाना कार्यक्रम खज़ाना में अनूप जलोटा जी के साथ मिलकर सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। अभी पिछले साल यहां एक वीडियो शेयर किया था जिसमें पापोन की गायिकी को उनकी भरपूर दाद मिल रही थी। नए गायकों को प्रोत्साहित करने में वे कभी पीछे नहीं रहे।

शायद तब उन्हें भी नहीं पता होगा कि वो कैंसर जैसी गंभीर बीमारी की गिरफ्त में हैं। आज उनका जाना ग़ज़ल प्रेमियों और ग़ज़ल गायकों के लिए एक कठोर आघात की तरह है। 

बस उनकी अचानक हुई रूखसती से उनकी गाई ये पंक्तियां याद आ रही हैं कि 

किसे ने भी तो न देखा निगाह भर के मुझे

गया फिर आज का दिन भी उदास कर के मुझे😞


शुक्रवार, फ़रवरी 23, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 : तेरे वास्ते फ़लक से मैं चाँद लाउँगा

वार्षिक संगीतमाला की अगली सीढ़ी पर पिछले गीत की तरह ही एक बार फिर हल्का फुल्का गीत है जो कि पिछले साल खूब पसंद किया गया। फिल्म है ज़रा हटके ज़रा बचके और गाना तो आप समझ ही गए होंगे "तेरे वास्ते फ़लक से मैं चाँद लाऊँगा..."।

हिंदी फिल्मों में तो चाँद सितारों को तोड़ के लाने की बातें पहले भी हुई हैं। शाहरुख खाँ पर फिल्माया एक गाना चाँद तारे तोड़ लाऊँ बस इतना सा ख़्वाब है.... तो आपको याद ही होगा। पर जब प्रेम का ही प्रदर्शन करना है तो इतनी तोड़ फोड़ क्यूँ करनी? इसीलिए गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य ने इस बार जुमला बदला और लिखा ..तेरे वास्ते फ़लक से मैं चाँद लाउँगा, सोलह सत्रह सितारे संग बाँध लाउँगा🙂


तेरे वास्ते फ़लक से मैं चाँद लाउँगा
सोलह सत्रह सितारे संग बाँध लाउँगा

चाँद तारों से कहो, अभी ठहरें ज़रा
चाँद तारों से कहो कि अभी ठहरें ज़रा
पहले इश्क़ लड़ा लूँ उसके बाद लाउँगा
हम हैं ज़रा हट के, जनाब-ए-आली
रहना ज़रा बच के....

पर इस गीत की खासियत ये नहीं कि वादा क्या किया जा रहा है। खासियत ये है कि वादे से किस खूबसूरती से पलटा जा रहा है। अमिताभ आगे लिखते हैं

देखा जाए तो वैसे, अपने तो सारे पैसे
रह के ज़मीन पे ही वसूल हैं
चेहरा है तेरा चंदा, नैना तेरे सितारे
अंबर तक जाना ही फ़िज़ूल है
अंबर तक जाना ही फ़िज़ूल है

इसके बाद भी अगर तुझे चैन ना मिले
पूरी करके मैं तेरी ये मुराद आउँगा
तेरे वास्ते फ़लक से मैं चाँद लाउँगा
सोलह सत्रह सितारे संग बाँध लाउँगा

अगर ये काबिलियत आप में आ गयी तो प्रेम से लेकर राजनीति सारे समीकरण अपके पक्ष में ही बैठेंगे। सचिन जिगर ने ताल वाद्यों और गिटार के साथ एक फड़कती सी धुन बनाई है जिस पर आप नायक नायिका की तरह आसानी से ठुमके लगा सकते हैं।

पहली बार जब मैंने इस गीत को सुना तो लगा कि ये गाना भी अरिजीत ने गाया होगा पर बाद में पता चला कि गवैया तो कोई और है। दरअसल इस गीत को गाया है युवा गायक वरूण जैन ने। अरिजीत की गायिकी का उन पर स्पष्ट प्रभाव है। मैंने जब उनके गाए पिछले गानों को खँगाला तो पाया कि उन्होंने इससे पहले अरिजीत के गीतों के कई कवर वर्जन गाए हैं। 

वैसे इसके दो साल पहले उन्हें फिल्म हम दो हमारे दो में रेखा भारद्वाज जैसी हुनरमंद गायिका के साथ गाने का मौका मिल चुका है। पर तेरे वास्ते ने उनकी गायिकी को गुमनामी के अंधेरों से निकाल कर सबके सामने ला दिया है।

इस गीत की सफलता के बाद वरुण ने कहा है कि लोगों की अपेक्षाएँ उनसे और बढ़ गयी हैं और अपने संगीत के प्रति वे पहले से ज्यादा जिम्मेदार हो गए हैं। आशा है वो आगे भी अपनी आवाज़ से श्रोताओं का दिल जीतते रहेंगे।

देखने से लगते तो नहीं पर 34 वर्षीय वरुण की आवाज़ में एक ताज़गी है। अपने म्यूजिक वीडियोज़ वे बिल्कुल सादा लिबास में बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ गिटार लिए मिलेंगे। 

गीत के कोरस में वरूण का बखूबी साथ दिया है जिगर सरैया और फरीदी बंधुओं ने। तो आइए सुनते हैं ये मज़ेदार गीत




गुरुवार, फ़रवरी 22, 2024

अमीन सयानी और उनकी प्यारी बिनाका गीतमाला

आज से तकरीबन बीस साल पहले जब गीत संगीत से जुड़ा ब्लॉग एक शाम मेरे नाम शुरु किया था तो यहाँ अपनी पसंदीदा ग़ज़लों, कविताओं , किताबों की चर्चा के अलावा एक हसरत ये भी थी कि अमीन सयानी साहब की तरह अपने पसंदीदा गीतों की एक गीतमाला पेश करूँ। वो गीतमाला तो ब्लॉग पर आज तक चल रही है पर उसकी लौ जलाने वाला प्रेरणास्रोत आज इस जहान को विदा कह गया।

दरअसल बचपन में मनोरंजन के नाम पर हमारे पास ज्यादा कुछ नहीं था। बहुत से बहुत सिनेमा हॉल के महीने में एक दो चक्कर लग जाया करते थे। टीवी तो घर में बहुत देर में आया पर एक चीज़ शुरु से हमारे साथ रही और वो था छोटा पर बेहद सुंदर लाल रंग का नालको का ट्रांजिस्टर। 


इसी ट्रांजिस्टर पर जब समय मिलता हम हवा महल, मन चाहे गीत, रंग तरंग, अनुरोध गीत और छाया गीत जैसे कार्यक्रम सुना लिया करते थे। ये कार्यक्रम तो कभी छूट भी जाते पर अमीन सयानी साहब की बिनाका गीत माला..... उसे छूटने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। उनकी आवाज़ में प्रस्तुत वो कार्यक्रम हमारी पीढ़ी के लिए मनोरंजन का पर्याय था।

जितना मुझे याद है बिनाका गीत माला जो बाद में सिबाका और विविध भारती पर कोलगेट गीत माला में तब्दील हो गयी रेडियो सीलोन से हर बुधवार रात आठ बजे आती थी और मैं अपने ट्रांजिस्टर को पंद्रह मिनट पहले ही गोद में रखकर शार्ट वेव के 25 मीटर बैंड पर रेडियो सीलोन को ट्यून करने बैठ जाता था। उस ज़माने में रेडियो सीलोन के स्टेशन को ट्यून करना एक बेहद नाजुक मसला हुआ करता था। जहाँ fine tune से हाथ खिसका नहीं सीलोन से वॉयस आफ अमेरिका पहुँचने में देर नहीं लगती थी। एक बार ट्यूनिंग हो गयी तो परिवार के छोटे बड़े किसी भी सदस्य के लिए ट्रांजिस्टर को हिलाना डुलाना और घुमाना वर्जित हुआ करता था।

जैसे ही कार्यक्रम शुरु होता हम अमीन सयानी की जादुई आवाज़ में मंत्रमुग्ध से पायदानों पर चढ़ते उतरते और उनकी शब्दावली में छलांग मार कर सीधे ऊपर की पायदान पर विराजमान होते गीतों को एकाग्रचित्त सप्ताह दर सप्ताह सुना और गुना करते। साल के अंत में जब वे चोटी के गीत की घोषणा करते हुए कहते कि बहनों और भाइयों वक़्त आ गया है सरताजी बिगुल के बजने का तब मेरा तन मन रोमांचित हो जाता इस आशा में कि क्या मेरा पसंदीदा गीत अबकी बार पहली पायदान पर होगा। कई बार मुझे मायूसी हाथ लगती और मन ही मन उन गुमनाम श्रोता संघों की राय और रिकार्ड बिक्री के आंकड़ों पर खीझ उभरती पर मजाल है कि इन गीतों को क्रमबद्ध पेश करने वाले अमीन सयानी साहब पर मेरे दिल में कभी मलाल का एक कतरा भी आता।

अमीन साहब जैसा उद्घोषक भारतीय रेडियो के इतिहास में न कभी हुआ है न होगा। गीतों से परिचय कराने का उनका नायाब अंदाज़, उनकी आवाज़ की खनखनाहट, शब्दों को खींचने का उनका तरीका, संगीत से जुड़ी हस्तियों के बारे में उनके खज़ाने से निकले रोचक किस्से सब कुछ मन में ऐसा बैठ गया है जो शायद मरते दम तक मेरी यादों में हमेशा बना रहेगा और हाँ उनकी यादों की प्रेरणा से एक शाम मेरे नाम पर वार्षिक गीतमाला भी चलती रहेंगी। आज भले ही 91 वर्षों की लंबी आयु के बाद वो सशरीर हमारे बीच नहीं हैं पर मन में वो हमेशा के लिए बने रहेंगे।

मंगलवार, फ़रवरी 20, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 : बाबूजी भोले भाले दुनिया फरेबी है जी

वार्षिक संगीतमाला में आज जो गीत बजने जा रहा है वो किसी फिल्म का नहीं है बल्कि एक वेब सीरीज का है। ये वेब सीरीज है जुबली। जुबली की कहानी  चालीस पचास के दशक के बंबइया फिल्म जगत के इर्द गिर्द घूमती है। अमित त्रिवेदी को जब इस ग्यारह गीतों वाले एल्बम की बागडोर सौंपी गई तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि किस तरह चालीस और पचास के दौर के संगीत को पेश करें कि उसे आज की पीढ़ी भी स्वीकार ले और उस दौर के संगीत का जो मिज़ाज था वो भी अपनी जगह बना रहे।

अमित हमेशा ऐसी चुनौतियों का सामना करते रहे हैं। आमिर, देव डी, लुटेरा और हाल फिल हाल में उनकी फिल्म कला के संगीत ने खासी वाहवाहियाँ बटोरी हैं। अमित अपने इस प्रयास में कितने सफ़ल हुए हैं वो इसी बात से समझ आ जाता है कि जब भी आप इस एल्बम का कोई नग्मा सुनते हैं तो एक साथ आपके ज़ेहन में उस दौर के तीन चार गीत सामने आ जाते हैं जिसकी संगीत रचना और गायिकी का कोई ना कोई अक्स जुबली के नग्मे में नज़र आ जाता है। 


अब आज जुबली के गीत बाबूजी भोले भाले की जाए तो सुनिधि चौहान की गायिकी का अंदाज़ आशा जी और गीता दत्त के अंदाज़ से मेल खाता दिखेगा वहीं गीत की संगीत रचना और फिल्मांकन आपको एक साथ शोला जो भड़के, मेरा नाम चिन चिन चू और बाबूजी धीरे चलना जैसे गीतों की याद दिला दे जाएगा। 

कौसर मुनीर के मज़ाहिया बोल मन को गुदगुदाते हैं और उन बोलों के बीच में आइ डी राव का बजाया वुडविंड और वादक गिरीश विश्व के ढोलक की जुगलबंदी थिरकने पर मजबूर कर देती है। पुराने गीतों की तरह ताली का इस्तेमाल भी है। इसके अलावा आपको इस गीत में वायलिन और मेंडोलिन जैसे तार वाद्यों की झंकार भी सुनाई देगी।

अमित त्रिवेदी ने धुन तो झुमाने वाली बनाई ही है पर एक बड़ी सी शाबासी के हक़दार सनी सुब्रमण्यम भी हैं जिन्होने परीक्षित के साथ मिलकर इस गीत और एल्बम में अरेंजर की भूमिका निभाई है। इन दोनों के पिता फिल्म उद्योग ये काम करते थे और उनके अनुभव का फायदा इस जोड़ी ने सही वाद्य यंत्रों के चुनाव में बखूबी उठाया है।


बाबूजी भोले-भाले, दुनिया फ़रेबी है जी

तू भी ज़रा टेढ़ा हो ले, दुनिया जलेबी है जी
बाबूजी भोले-भाले, दुनिया 
जलेबी है जी
राजा, ज़रा गोल घूम जा, राजा, ज़रा गोल घूम जा

बाबूजी भोले-भाले, दुनिया ये गोला है जी
तू भी ज़रा bat घुमा ले, बस ये ही मौक़ा है जी
बाबूजी भोले-भाले, दुनिया ये गोला है जी
आ जा, लगा ले चौका, आ जा

चमकीली खिड़कियों से तुझको बुलाते हैं जो
shutter नीचे गिरा के ख़ुद भाग जाएँगे वो
भड़कीली तितलियों से तुझको बहकाते हैं जो
बत्ती तेरी बुझा के ख़ुद जाग जाएँगे वो

बाबूजी भोले-भाले, बम का धमाका बंबई
तू भी जला ले तीली, बन जा पलीता है, भाई
बाबूजी भोले-भाले, बम का धमाका बंबई
राजा, बंबइया तू बन जा

दिल को समझा ले ज़रा, धक-धक करना मना है
प्यार का कलमा पढ़ना, प्यारे, सुन ले गुनाह है
मन को मना ले ज़रा, गुमसुम रहना मना है
ग़म में भी मार ठहाका, रोना-धोना मना है

बाबूजी-बाबूजी, दुनिया ये फ़ानी है जी
तू भी ज़रा मौज मना ले, whiskey जापानी है जी
बाबूजी-बाबूजी, दुनिया ये फ़ानी है जी
ले-ले जवानी का मज़ा..
.

तो आइए मासूमियत को धता बताते हुए टेढा होने की वकालत करते इस गीत का आनंद लीजिए। इस गीत को फिल्माया गया है वामिका गब्बी पर जो इससे पहले ग्रहण में नज़र आयी थीं। साथ ही आपको दिखेंगे राम कपूर बिल्कुल अलग से गेट अप में

गुरुवार, फ़रवरी 15, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 : नौका डूबी रे

वार्षिक संगीतमाला में पिछले साल के बेहतरीन गीतों के इस सिलसिले में आज का जो गीत है उसका नाम है नौका डूबी। ऐसे तो नौका डूबी रवीन्द्रनाथ टैगोर का एक मशहूर उपन्यास भी है जिसकी कहानी पर कई बार हिंदी और बंगाली में फिल्में बनी हैं पर आज इसी नाम के जिस गीत की चर्चा मैं करने जा रहा हूँ उसका टैगोर के उपन्यास से बस इतना ही लेना देना है कि वहाँ भी एक नौका डूबती है और कहानी में उथल पुथल मचा देती है जबकि इस गीत में रिश्तों की नैया डूबती उतरा रही है। 

ये गीत है पिछले साल आई फिल्म Lost का और इसे लिखा है मेरे प्रिय गीतकार स्वानंद किरकिरे ने, धुन बनाई है उनके पुराने जोड़ीदार शांतनु मोइत्रा ने। चूंकि ये फिल्म एक ऐसे OTT प्लेटफार्म पर आई जो उतना लोकप्रिय नहीं है इसी वज़ह से आप में से अधिकांश ने शायद ये गीत न सुना हो। पर इस गीत के साथ साथ किसी गुमशुदा इंसान की खोज करती एक महिला पत्रकार की कहानी भी बेहद सराही गई थी।


एक ज़माना था जब मदनमोहन जैसे कई संगीतकार लता जी की आवाज़ और क्षमतको ध्यान में रखकर गीत की धुनें बनाते थे और आज वही रुतबा श्रेया घोषाल ने अपने लिए अर्जित किया है। आज की तारीख़ में उनकी कोशिश यही रहती है कि वे ऐसे गाने लें जिसमें उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिले।

किशोरावस्था में देवदास से अपना फिल्म संगीत का सफ़र शुरू करने वाली श्रेया को आज फिल्म जगत में बीस से ज्यादा साल हो चुके हैं पर आज भी आवाज़  की उस मिश्री सी खनक के साथ साथ उनमें नया कुछ करने की वैसी ही ललक है जैसी मुझे सोनू निगम और अरिजीत में दिखाई देती है। 

कमाल गाया है उन्होंने ये गीत। ऊँचे से एकदम नीचे सुरों का उतार चढ़ाव वे इतनी सहजता से लाँघती है कि सुन के आनंद आ जाता है। शांतनु का शांत संगीत तार वाद्यों, हारमोनियम और बाँसुरी की मदद से गीत के साथ बहता चलता है।

शहर समंदर ये दिल का शहर समंदर
दो कश्तियाँ थी तैरती, यहाँ बनके हमसफ़र 
ओ कितना हसीं दिखता था, वो इश्क़ का मंज़र
तभी वक्त की एक आँधी उठी आया बवंडर

खोया मेरा प्यार, खोया ख़्वाब खोया, नौका डूबी रे
तेरा मेरा साथ छूटा, फिर बने हम अजनबी रे
खोया मेरा चाँद खोया, चाँदनी अम्बर से टूटी रे
तेरा मेरा साथ छूटा, फिर बने हम अजनबी रे

शहर समंदर ये दिल का, शहर समंदर
दो कश्तियाँ थी तैरती, यहाँ हो के बेखबर
तू रात में ही उलझा था मैं बन गई सहर
तू साँसें माँगता था और मैं पी गयी ज़हर 

हम दोनों दो किनारे, पास नहीं हैं
कैसे कह दें, हम जुदा हैं, हम दूर नहीं हैं
परछाइयाँ बन दूर रह के साथ चलेंगे
कभी आना तुम ख़्यालों में, हम बातें  करेंगे

खोया मेरा प्यार...हम अजनबी रे
खोया मेरा चाँद खोया, हम अजनबी रे
अजनबी रे... अजनबी रे.

अंबर से चांदनी के टूटने का बिंब तो प्रभावी लगता ही है पर अगले अंतरे में स्वानंद की लेखनी दिल में टीस सी पैदा करती है जब वो लिखते हैं तू रात में ही उलझा था मैं बन गई सहर..तू साँसें माँगता था और मैं पी गयी ज़हर

ZEE5 पर प्रदर्शित फिल्म Lost के इस गीत को बेहद खूबसूरती से  फिल्माया है यामी गौतम और नील भूपालम पर


गीत के आडियो वर्सन में स्वानंद का लिखा एक और अंतरा भी है और हां उन्होंने ख़ुद भी इस गीत को गाया है एल्बम में।

शहर समंदर ये दिल का, शहर समंदर
दो कश्तियाँ थी तैरती, यहाँ हो के बेखबर
तू रात में ही उलझा था मैं बन गई सहर
तू साँसें माँगता था और मैं पी गयी ज़हर 


वार्षिक संगीतमाला का ये गीत फिलहाल प्रथम दस के आप पास मँडरा रहा है। आशा है आप लोगों को भी ये उतना ही पसंद आएगा।

शनिवार, फ़रवरी 10, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 दिल झूम झूम जाए

2023 के बेहतरीन गीतों की इस वार्षिक संगीतमाला में अगला गीत है एक sequel से जो कि अंत अंत में आकर इस गीतमाला में शामिल हुआ है। ये गीत है फिल्म गदर 2 का।


आज से दो  दशक पहले जब फिल्म गदर रिलीज़ हुई थी तो फिल्म के साथ-साथ उसके संगीत में भी काफी धमाल किया था। उड़ जा काले कावां कह लीजिए या फिर मैं निकला गड्डी लेकर तो जबरदस्त हिट हुए ही थे, साथ ही साथ मुसाफ़िर जाने वाले और आन मिलो सजना ने तो दिल ही को छू लिया था। इस फिल्म के लिए उदित नारायण की गायकी को आज तक सराहा जाता है।

इसकी पुनरावृत्ति गदर दो में होनी तो मुश्किल ही थी फिर भी संगीतकार मिथुन ने एक ईमानदार कोशिश जरूर की। फिल्म के दो गीत तो  पुरानी फिल्म से ही ले लिए गए पर दो-तीन गीत और जोड़े गए और उनमें एक गीत ऐसा जरूर रहा जिसका मुखड़ा गुनगुनाना मुझे अच्छा लगता है। ये गीत है दिल झूम झूम जाए और इसके बोल लिखे हैं सईद क़ादरी साहब ने जो कि बतौर गीतकार तीन दशकों से सक्रिय हैं और मिथुन की संगीतबद्ध फिल्मों में अक्सर नज़र आते हैं। 

गीत का मुखड़ा कुछ यूं है

ये शोख़ ये शरारत, ये नफ़ासत नज़ाकत
बहुत खूबसूरत हो आप सर से पांव तक
दिल झूम झूम, दिल झूम झूम, दिल झूम झूम जाए
तुम्हें हूर हूर, तुम्हें हूर हूर, हां, हूर सा ये पाए
दिल झूम झूम, दिल झूम झूम, दिल झूमता ही जाए

अब अगर गीत रूमानी तबीयत का हो तो आज की तारीख़ में लगभग हर संगीतकार अरिजीत पर सबसे ज्यादा विश्वास  रखते हैं । इसमें तो कोई शक ही नहीं कि अरिजीत अच्छी धुनों को अपनी गायिकी से और कर्णप्रिय बना देते हैं। अब देखिए ये गीत आपको झुमा पता है या नहीं 

रविवार, फ़रवरी 04, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 कि रब्बा जाणदा, तैनूँ कितनी मोहब्बताँ दिल करदा

जुबीन नौटियाल वैसे तो करीब एक दशक से पार्श्व गायिकी में अपने गाए रूमानी गीतों की वज़ह से युवाओं के चहेते गायक रहे हैं पर जबसे उनका गीत बजाओ ढोल स्वागत में, मेरे घर राम आए हैं वायरल हुआ है तबसे क्या बच्चे और क्या बड़े सब उनके गाए गीत के साथ भक्तिमय हुए जा रहे हैं। देहरादून से ताल्लुक रखने वाले इस उभरते गायक ने कई सारे फिल्मी और गैर फिल्मी एल्बमों में गाने गाए हैं पर मुझे बजरंगी भाईजान के लिए उनका गाया हुआ नग्मा कुछ तो बता जिंदगी मेरा पता जिंदगी... सबसे प्रिय है।

गीतमाला को आगे बढ़ाते हुए आज पेश है उन्हीं का गाया फिल्म मिशन मजनू का एक बेहद सुरीला नग्मा जिसके मुखड़े की मेलोडी आपको कहीं से भी खींच कर ये गीत सुनने को मजबूर कर देगी।

इस गीत की धुन बनाई है तनिष्क बागची ने और हिंदी पंजाबी मिश्रित बोल लिखे हैं शब्बीर अहमद ने। आपको याद होगा कि पिछले साल तनिष्क बागची और जुबीन की इसी जोड़ी का गीत राता लंबियाँ हर महफिल की रौनक बना था।

जुबीन की आवाज़ का तो कहना ही क्या! सीधे दिल को जा कर लगती है। मुखड़ा तो जितनी बार गुनगुनाया जाए मन नहीं भरता पर अंतरों में ऊँचे सुरों में उनका ये माधुर्य थोड़ा फीका जरूर पड़ जाता है। तनिष्क की धुन तो मधुर है पर पर मुखड़े के पहले और  इंटरल्यूड्स में राताँ लंबियाँ वाले संगीत संयोजन का दोहराव स्पष्ट दिखता है।


मिशन मजनू की नायिका नेत्रहीन हैं और बला की खूबसूरत भी। ज़ाहिर है हमारे मज़नूँ जी का दिल उन पर आ जाता है। जो आँखें देख ना सकें वो अपने भावों से बहुत कुछ सिखा जाती हैं सामने वाले इंसान को। शब्बीर इसी भाव को गीत में अपने सहज शब्दों से सँवारते हैं।

कि रब्बा जाणदा, कि रब्बा जाणदा, 
तैनूँ कितनी मोहब्बताँ दिल करदा
हाँ तेरे वाजू जी नहीं लगदा
रोग ये लगा इशक का
हर दुआ में तैनूँ मँगदा
कि रब्बा जाणदा, कि रब्बा जाणदा, 

ओ रे ओ रे तेरे नैना, 
छीन ले गए  दिल का चैना
इनमें झलके है ना ये जग सारेया

इश्क़ ये कैसे होता है
रंग ये कैसे खिलते हैं
देखूँ ये तेरी इन आँखों में

चाँदनी ये क्या होती है
दीप ये जलते कैसे हैं
देखूं ये तेरी इन आँखों में

हो ना जाने कब दिन चढ़ दा
कुछ वी पता नही चलदा
हर दुआ में तैनूँ मँगदा
कि रब्बा जाणदा, कि रब्बा जाणदा, 
तैनूँ कितनी मोहब्बताँ दिल करदा..

देख दुनिया मेरी आँखियों से
मैं रखाँगा तैनूँ पलकों पर
इक उम्र का सौदा ना करिये
वादे कर दूँ सातों जन्मों के
कि रब्बा जाणदा, कि रब्बा जाणदा...



 
मिशन मजनू का ये गीत फिल्माया गया है सिद्धार्थ और रश्मिका पर

बुधवार, जनवरी 31, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 : ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते

वार्षिक संगीतमाला में अब तक आपने कुछ रूमानी और कुछ थिरकते गीतों का आनंद उठाया पर आज जिस गीत का चुनाव मैंने किया है उसका मिज़ाज मन को धीर गंभीर करने वाला है और मेरा विश्वास है कि उसमें निहित संदेश आपको अपने समाज का आईना जरूर दिखाएगा। 

हिंदी फिल्मों में फ़ैज़ की नज़्मों और ग़ज़लों का बारहा इस्तेमाल किया गया है। कभी किरदारों द्वारा उनकी कविता पढ़ी गयी तो कभी उनके शब्द गीतों की शक़्ल में रुपहले पर्दे पर आए। फ़ैज़ की शायरी की एक खासियत थी कि उन्होने रूमानी शायरी के साथ साथ तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक हालातों पर भी लगातार अपनी लेखनी चलाई और इसीलिए जनमानस ने उन्हें बतौर शायर एक ऊँचे ओहदे से नवाज़ा। लोगों ने जितने प्रेम से मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग को पसंद किया उतने ही जोश से सत्ता के प्रति प्रतिकार को व्यक्त करती उनकी नज़्म हम देखेंगे को भी हाथों हाथ लिया।



फ़ैज़ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। सर्वहारा वर्ग के शासन के लिए वो हमेशा अपनी नज़्मों से आवाज उठाते रहे। बोल की लब आजाद हैं तेरे....उनकी एक ऐसी नज़्म है जो आज भी जुल्म से लड़ने के लिए आम जनमानस को प्रेरित करने की ताकत रखती है। पिछले कुछ वर्षों में उनकी नज़्म के इस रंग को हिंदी फिल्मों में लगातार जगह मिली हो। कुछ साल पहले पल्लवी जोशी ने Buddha In A Traffic Jam'.फ़क़त चंद रोज़ मेरी जान को आवाज़ दी थी। नसीरुद्दीन शाह एक फिल्म में ये दाग दाग उजाला को अपनी आवाज़ दे चुके हैं। हैदर में उनकी ग़ज़ल का इस्तेमाल करने वाले विशाल भारद्वाज ने इस बार पिछले साल की शुरुआत में कुत्ते फिल्म के शीर्षक गीत के तौर पर फ़ैज़ की इसी नाम की नज़्म का इस्तेमाल किया।

अपने समाज के दबे कुचले, बेघर, बेरोजगार, आवारा फिरती आवाम में जागृति जलाने के उद्देश्य से फैज ने प्रतीकात्मक लहजे में उनकी तुलना गलियों में विचरते आवारा कुत्तों से की। किस तरह आम जनता नेताओं, रसूखदारों, नौकरशाहों के खुद के फायदे के लिए उनकी चालों में मुहरा बन कर भी अपना दर्द चुपचाप सहती रहती है, ये नज़्म उसी ओर इशारा करती है।

ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख्शा गया जिनको ज़ौक़ ए गदाई*
ज़माने की फटकार सरमाया** इनका
जहां भर की दुत्कार इनकी कमाई

ना आराम शब को ना राहत सवेरे
ग़लाज़त*** में घर , नालियों में बसेरे
जो बिगड़ें तो एक दूसरे से लड़ा दो
जरा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फ़ाक़ों से उकता के मर जाने वाले
ये मज़लूम मख़्लूक़^ गर सर उठाये
तो इंसान सब सरकशीं^^ भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आकाओं की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इनको एहसासे ज़िल्लत^^^ दिला ले
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे

*भीख मांगने की रुचि **संचित धन ***गंदगी ^ आम जनता ^^घमंड ^^^ अपमान की अनुभुति

फैज को विश्वास था कि गर आम जनता को अपनी ताकत का गुमान हो जाए तो वो बहुत कुछ कर सकती है।रेखा भारद्वाज की आवाज़ में ये नज़्म हमारे हालातों पर करारी चोट करती हुई दिल तक पहुँचती है। विशाल कोरस में भौं भौं का अनूठा प्रयोग करते हैं। इस भूल जाने वाले एल्बम में ये नज़्म एकमात्र ऐसा नगीना है जिसे लोग कई दशकों बाद तक याद रखेंगे।
  
 


शुक्रवार, जनवरी 26, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 : ओ माही ओ माही तेरी वफ़ा पर हक़ हुआ मेरा

वार्षिक संगीतमाला की अगली कड़ी में आज एक गीत फिल्म डंकी से। ये फिल्म तो लोगों ने उतनी पसंद नहीं की, हां पर इसके एक दो गाने यू ट्यूब पर खूब बजे, इंस्टा की रीलों पर छा गए। अब इसका सबसे ज्यादा श्रेय तो मैं संगीतकार प्रीतम को देना चाहता हूं।

प्रीतम एक ऐसे संगीतकार हैं जिनकी मेलोडी पर जबरदस्त पकड़ है। वो ये बखूबी समझते हैं कि श्रोताओं को कैसी सिग्नेचर धुन, कैसे इंटरल्यूड्स पसंद आयेंगे। ज्यादातर वे इरशाद कामिल और अमिताभ भट्टाचार्य के साथ अपने गीत रचते हैं जो उनकी बनाई धुनों के साथ न्याय करने में सक्षम हैं।


तो डंकी फिल्म का जो गीत मेरे पसंदीदा गीतों की सूची में आया है वो है ओ माही ओ माही। मुखड़े के पहले के बीस सेकेंड में ही प्रीतम अपनी आरंभिक धुन से ध्यान खींच लेते हैं।

माही शब्द को केंद्र में ले के दर्जनों गीत बन होंगे पर मजाल है कि श्रोता आज तक इससे ऊबे हों। इस गीत की तो ओ माही के दुहराव वाली पंक्ति ही लोगों के मन में रच बस गई है। दरअसल आज भी युवा अपने प्रेम का इज़हार करने के लिए ऐसे फिल्मी गीतों का सहारा लेते हैं जिसके बोल प्यारे पर सहज हों और जिसका संगीत कर्णप्रिय हो।

वार्षिक संगीतमाला का ये गीत किस पायदान पर अंततः आएगा उसका खुलासा तो बाद में होगा पर इतना तो तय है कि सुरीले गीतों की इस साल की फेरहिस्त में अरिजीत सिंह का नाम बार बार आएगा।

तो अगर आपने इरशाद कामिल का लिखा ये गीत न सुना हो तो सुन लीजिए।

यारा तेरी कहानी में, हो जिकर मेरा
कहीं तेरी खामोशी में, हो फिकर मेरा
रुख तेरा जिधर का हो हो उधर मेरा
तेरी बाहों तलक ही है ये सफ़र मेरा
ओ माही ओ माही..ओ माही ओ माही
तेरी वफ़ा पर हक़ हुआ मेरा
ओ माही ओ माही...ओ माही ओ माही
लो मैं क़यामत तक हुआ तेरा..

बातों को बहने दो बाहों में रहने दो 
हैं सुकून इनमें 
रास्ते हो बेगाने, झूठे वो अफसाने 
तू न हो जिनमें 
हो थोड़ी उमर है प्यार ज़्यादा मेरा 
कैसे बताएं ये सारा तेरा होगा 
मैंने मुझे है तुझको सौंपना 
राहों पे बाहों पे राहों पनाहों पे आहों पे बाहों पे 
साहों सलाहों पे मेरे इश्क़ पे हुआ हक़ तेरा
ओ माही ओ माही...ओ माही ओ माही
लो मैं क़यामत तक हुआ तेरा..

रविवार, जनवरी 21, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 रुआँ रुआँ खिलने लगी है जमीं ...

वार्षिक संगीतमाला के गीत इस साल किसी क्रम में नहीं आ रहे। पिछले साल के अपने सारे पसंदीदा गीतों को सुनवाने के बाद सारी पायदानों का खुलासा होगा सरताज गीत के साथ। पिप्पा का झूमता झुमाता गीत तो मैंने पिछली पोस्ट में सुनवाया ही था। आशा है गीत के साथ साथ ईशान खट्टर के थिरकने का अंदाज आपको भाया होगा।

आज जिस गीत को मैं अपनी इस संगीतमाला में पेश कर रहा हूँ, वो बिल्कुल अलग प्रकृति का होते हुए दो बातों में पिछले गीत से मेल खाता है। पहली तो ये कि पिप्पा के गीत की तरह इस गीत को भी आप रेट्रो की श्रेणी में डाल सकते हैं और दूसरे ये कि इस गीत की संगीत रचना भी ए आर रहमान के हाथों हुई है। ये गीत है रुआँ रुआँ जो पिछले साल अप्रैल में रिलीज़ फिल्म पोन्नियिन सेल्वन 2 का अहम हिस्सा था। अगर आप इस फिल्म के शीर्षक के अर्थ को लेकर सशंकित हों तो ये बता दूँ इसका सीधा सा अर्थ है पोन्नी का बेटा। अब पोन्नी कौन है? प्राचीन तमिल साहित्य में पोन्नी,कावेरी नदी को कहा जाता था। इसी नदी के आसपास चोल साम्राज्य फला फूला।  पोन्नियिन सेल्वन फिल्म इसी नाम के ऐतिहासिक उपन्यास पर आधारित है।

 

फिल्म के इस रोमांटिक गीत को लिखा गुलज़ार साहब ने। गुलज़ार, मणिरत्मन और रहमान जब भी एक साथ हुए हैं फिल्म संगीत ने नई ऊँचाइयों को छुआ है। साथिया, दिल से व गुरु के कितने ही गाने आज तक हमारी आपकी जुबां पर चढ़े हुए हैं। 

रहमान रुआँ रुआँ के बारे में कहते हैं कि उन्होंने जिन आठ दस धुनों को तैयार कर के रखा था उसमें मणिरत्नम जी ने सबसे उलझी हुई धुन चुनीं। गीत की शुरुआत पहले रुआँ से न होकर आगे से थी। जब गुलज़ार से उस शब्द से गीत शुरु करने को कहा गया तो उन्होंने बाद की पंक्तियाँ बदल दीं।  गुलज़ार ने बड़ा प्यारा मुखड़ा रचा है इस गीत का। मंद मंद नीम बंद अधखुली वाली पंक्ति सुन कर दिल मुलायमियत से भर उठता है। बाकी गुलज़ार हैं तो इस रूमानी गीत में फूल, शबनम, जुगनू बादल और चाँद की चमक तो रहेगी ही।


रुआँ रुआँ खिलने लगी है जमीं ओ
तेरी ही तो खुशबू है न कहीं ओ
मंद मंद, नीम बंद, नैनों से कहीं ओ
आके बांके तूने कहीं झाँका तो नहीं

 
सज़ा मिली है प्यार की, क़ैदी हूँ बहार की
बंदी बनके ही रहूँ, मर्ज़ी है मेरे यार की
 
रुआँ रुआँ खिलने लगी है..तूने कहीं झाँका तो नहीं
 
फूलों पे शबनम, हौले से उतरे
जुगनू जलाएं, रौशनी के कतरे
जाऊँ जो चमन में, पंछी पुकारे
आजा रे कोयल, आरती उतारे

चाँद ढूंढते हैं आसमां खोल के,
भूल गए बादल दिन है कि रात है
आँखों में ख़्वाब ही ख़्वाब भरे हैं
नींद नहीं आती…

रुआँ रुआँ खिलने लगी है जमीं ओ...


रहमान ने इस गीत के लिए  बतौर गायिका शिल्पा राव का चुनाव किया। शिल्पा की आवाज़ की बुनावट एकदम अलग सी तो है ही और वो बेहद हुनरमंद गायिका भी हैं। कुछ साल पहले कलंक और इस साल पठान में गाए उनके गीतों ने सफलता के नए कीर्तिमान बनाए हैं। उनके गाए पिछले गीतों की तुलना में ये काफी कठिन गीत था क्यूँकि इसकी धुन मुखड़े, पहले अंतरे से दूसरे अंतरे तक पहुँचते पहुँचते कई मोड़ तय करती है जिसे निभाना इतना आसान नहीं है। रहमान का गीत गाना किसी भी गायक या गायिका के लिए गौरव की बात होती है और शिल्पा ने इसे चुनौती कै रूप में स्वीकार किया।

रहमान के गीतों में वॉयलिन और बाँसुरी का बखूबी इस्तेमाल होता है। यहाँ कुछ अंशों में इनके अलावा वीणा की हल्की सी खनक भी है। सज़ा मिली है वाले हिस्सा सुनकर साठ के दशक के गीतों की याद आ जाती है। तो आइए सुनते हैं ये गीत जिसे हिंदी के साथ साथ तमिल, तेलगु, मलयालम और कन्नड़ में भी रचा गया है।

गुरुवार, जनवरी 18, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 : मैं परवाना तेरा नाम बताना

पिछले साल से एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमालाओं का सिलसिला रुका रुका सा है। इसका मुख्य कारण कोविड के बाद से बहुतेरी फिल्मों का OTT प्लेटफार्म पर रिलीज़ होना है। कई बार इन फिल्मों के गाने ढूँढने से भी नहीं मिलते। पहले मैं साल में प्रदर्शित हर फिल्म के गीतों को सुनकर अपनी संगीतमाला को अंतिम रूप देता था पर अब ये दावा करना मुश्किल है। पर पिछले कुछ दिनों से एक शाम मेरे नाम के कई पुराने पाठकों ने गुजारिश करी है कि ये सिलसिला फिर से शुरु किया जाए। अब उनके प्रेम को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल था इसलिए लगा कि एक कोशिश तो करनी ही चाहिए।

तो चलिए आरंभ करते हैं इस साल की संगीतमाला को तड़कते फड़कते गीत से जिसे लिखा शैली ने,धुन बनाई ए आर रहमान ने और आवाज़ दी अरिजीत सिंह ने।


भारत बांग्लादेश युद्ध पर बनी फिल्म पिप्पा के इस गीत की खासियत है अरिजीत सिंह ने किस तरह अपनी आवाज़ और गाने के तरीके में बदलाव किया। ये गीत उनकी बहुआयामी गायिकी का एक जीता जाता उदहारण है। इस गीत में अरिजीत का बखूबी साथ दिया है सहगायिका पूजा तिवारी और निशा शेट्टी ने। ट्रम्पेट,गिटार, एकार्डियन और ताल वाद्यों से रहमान की सजी सँवरी धुन आपको थिरकने पर मजबूर कर देगी। एक बार सुनिये तो सही..

इस गीत द्वारा इशान खट्टर ने भी दिखा दिया है कि वे डांस करने में किसी से कम नहीं हैं। पूरा गीत तो ब्लॉग पर ही सुन पाएँगे पर यहाँ देखिए उसकी एक झलक

मैं परवाना.. तेरा नाम बताना 
तेरे प्यार में जलना जलाना 
यूँ नज़रें उठाना यूँ नज़रें गिराना 
तू शम्मा मैं हूँ मस्ताना 
दिल पे वार वार वार ऐसा किया 
Arrow आर पार यार कर दिया 
चढ़ी हुई है गरारी अड़ी हुई है 
मैं फौजी आज टिप्सी हो गया

मंगलवार, नवंबर 21, 2023

एक अकेला इस शहर में : घरौंदा फिल्म का कालजयी गीत

महानगरीय ज़िदगी में एक अदद घर की तलाश कितनी मुश्किल, कितनी भयावह हो सकती है एक प्रेमी युगल के लिए, इसी विषय को लेकर सत्तर के दशक में एक फिल्म बनी थी घरौंदा। श्रीराम लागू, अमोल पालेकर और ज़रीना वहाब अभिनीत ये फिल्म अपने अलग से विषय के लिए काफी सराही भी गयी थी।


मुझे आज भी याद है कि हमारा पाँच सदस्यीय परिवार दो रिक्शों में लदकर पटना के उस वक़्त नए बने वैशाली सिनेमा हाल में ये फिल्म देखने गया था। फिल्म तो बेहतरीन थी ही इसके गाने भी कमाल के थे। दो दीवाने शहर में, एक अकेला इस शहर में, तुम्हें हो ना हो मुझको तो .. जैसे गीतों को बने हुए आज लगभग पाँच दशक होने को आए पर इनमें निहित भावनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक, उतनी ही अपनी लगती हैं।

जयदेव का अद्भुत संगीत गुलज़ार और नक़्श ल्यालपुरी की भावनाओं में डूबी गहरी शब्द रचना और भूपिंदर (जो भूपेंद्र के नाम से भी जाने जाते हैं) और रूना लैला की खनकती आवाज़ आज भी इस पूरे एलबम से बार बार गुजरने को मजबूर करती रहती हैं। 

आज इसी फिल्म का एक गीत आपको सुना रहा हूँ जिसे ग़ज़लों की सालाना महफिल खज़ाना में मशहूर गायक पापोन ने पिछले महीने अपनी आवाज़ से सँवारा था। 

फिल्म के इस गीत को लिखा था गुलज़ार साहब ने।  गुलज़ार की लेखनी का वो स्वर्णिम काल था। सत्तर के दशकों में उनके लिखे गीतों से फूटती कविता एक अनूठी गहराई लिए होती थी। इसी गीत में एक अंतरे में नायक के अकेलेपेन और हताशा की मनःस्थिति को उन्होने कितने माकूल बिंबों में व्यक्त किया है। गुलज़ार लिखते हैं

दिन खाली खाली बर्तन है 
और रात है जैसे अंधा कुआँ
इन सूनी अँधेरी आँखों में
आँसू की जगह आता है धुआँ

अपना घर बार छोड़ कर जब कोई नए शहर में अपना ख़ुद का मुकाम बनाने की जद्दोजहद करता है तो अकेले में गुलज़ार की यही पंक्तियाँ उसे आज भी अपना दर्द साझा करती हुई प्रतीत होती हैं।

इन उम्र से लंबी सड़कों को
मंज़िल पे पहुँचते देखा नहीं
बस दौड़ती-फिरती रहती हैं
हमने तो ठहरते देखा नहीं
इस अजनबी से शहर में
जाना-पहचाना ढूँढता है
ढूँढता है, ढूँढता है

संगीतकार जयदेव ने भी कितने प्यारे इंटल्यूड्स रचे थे इस गीत में जो दौड़ती भागती मुंबई के बीच नायक की उदासी ओर एकाकीपन कर एहसास को और गहरा कर देते थे। आपने ध्यान दिया होगा कि मुखड़े के बाद सीटी का भी कितना सटीक इस्तेमाल जयदेव ने किया था। वायलिन व गिटार के अलावा अन्य तार वाद्य भी गीत का माहौल को आपसे दूर होने नहीं देते।

तो सुनिए पापोन की आवाज़ में गीत का यही अंतरा। इस महफिल में उनके साथ अनूप जलोटा और पंकज उधास तो हैं ही, साथ में कुछ नए चमकते सितारे जाजिम शर्मा, पृथ्वी गंधर्व व हिमानी कपूर जिन्होंने मूलतः ग़ज़लों के इस कार्यक्रम में अपनी गायिकी से श्रोताओं का मन मोहा था।



फिल्म घरौंदा में ये गीत अमोल पालेकर पर फिल्माया गया था। जो गीत ज़िंदगी की सच्चाइयों को हमारे सामने उजागर करते हैं, हमें अपने संघर्षों के दिन की याद दिलाते हैं उनकी प्रासंगिकता हर पीढ़ी के लिए उतनी ही होती है। गुलज़ार के लफ्जों में कहूँ तो ऐसे गीत कभी बूढ़े नहीं होते। उनके चेहरे पर कभी झुर्रियाँ नहीं पड़ती। एक अकेला इस शहर में एक ऐसा ही नग्मा है...

रविवार, सितंबर 10, 2023

क्यों जगजीत का प्यार जल्दी जल्दी था और चित्रा का आहिस्ता आहिस्ता?

जगजीत सिंह ने न जाने कितनी भावप्रवण ग़ज़लें गाई होंगी पर अपने कंसर्ट के बीचों बीच चुटकुले सुनकर माहौल को एकदम हल्का फुल्का कर देना उन्हें बखूबी आता था। उनके और लता जी की मजाहिया स्वभाव का नतीजा ये था कि जब भी वे लोग साथ मिलते आधा घंटा एक दूसरे को चुटकुले सुनाने के लिए तय होता था।

जगजीत जी के साथ चित्रा जी ग़ज़लों की एक महफ़िल  में 

अपनी निजी ज़िंदगी में भी वो ऐसे ही थे। आज उनका एक बेहद पुराना वीडियो मिला जहां वे दोस्तों की एक महफिल में अपनी मशहूर गजल सरकती जाए है रुख से नकाब आहिस्ता आहिस्ता सुना रहे हैं। इधर कुछ जल्दी जल्दी है और उधर कह कर उनका चित्रा की ओर मजाहिया लहजे में देखना लाजवाब कर गया। साथ ही ये वीडियो मुझे उनके जीवन को वो मोड़ याद दिला गया जहां से उन्होंने साथ साथ रहने का निश्चय किया था।

दरअसल चित्रा जी की पहली शादी अपने से कहीं ज्यादा उम्र के देबू दत्ता से हुई थी। रिश्ता देबू की तरफ से ही आया था पर बाद में उन्हें लगा कि उन्होंने अपने लिए बेमेल हमसफ़र चुन लिया है। चित्रा को दूसरा घर दिलाकर वो अलग रहने लगे और बाद में उनसे तलाक ले लिया। इस अलग अलग रहने से थोड़े दिन पहले ही जगजीत चित्रा के संपर्क में आए थे। जब चित्रा अपनी बेटी के साथ अलग रहने लगीं तो वो उन दोनों का ख्याल रखने लगे। साथ साथ जिंगल गाने से लेकर कंसर्ट तक करने में ये रिश्ता और प्रगाढ़ हुआ और एक दिन बुखार में तपते शरीर लिए जगजीत ने चित्रा से प्रणय निवेदन भी कर दिया।

पर चित्रा जी की मानसिक स्थिति जगजीत के प्रेम को तुरंत स्वीकार करने के लायक नहीं थी। एक तो कागजी तौर पर पहले पति से तलाक हुआ नहीं था और दूसरे बेटी को ले के भी वो असमंजस की स्थिति में थीं। इसलिए अंतिम हामी भरने के पहले हमारे जगजीत जी को उनके घर के कई चक्कर लगाने पड़े।

अब वीडियो देखिए और समझिए कि जगजीत ने जल्दी जल्दी  किस मजाहिया लहजे में कहा और कितने शरारती अंदाज़ में आहिस्ता आहिस्ता कह कर चित्रा की ओर देखा। सबके सामने जगजीत को ऐसा करते देख चित्रा जी शर्मा गईं। उनकी शर्मीली खिलखिलाहट और जगजीत जी का गाने का तरीका आप सब के मन को भी जरूर आनंदित करेगा ऐसा मेरा विश्वास है :)।


जगजीत जी की अवाज़ में पूरी ग़ज़ल की लिंक ये रही

रविवार, अगस्त 20, 2023

लबों से बात करो.... या लबों को मिल जाने दो

लबों यानी होंठों का चर्चा हिंदी फिल्मी गीतों और शेर ओ शायरी में अक्सर आता रहा है। जब स्कूल में थे तो पहली बार होठों से जुड़े हुए गीत से जगजीत जी की अनमोल आवाज़ से पहला परिचय हुआ था और वो गीत इस क़दर जुबां पर चढ़ गया था कि अपने शर्मीलेपन को परे रख अपनी शिक्षिका के सामने उसे गुनगुनाया था... होठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो, बन जाओ मीत मेरे, मेरी प्रीत अमर कर दो। 

लबों की बात करते हुए फिल्मों में और भी गीत आते रहे। मसलन गुलज़ार का लिखा लबों से चूम लो आँखों से थाम लो मुझको या फिर हाल फिलहाल में केके का गाया लबों को लबों से सजाओ।

अब अगर लबों से जुड़ी ग़ज़लों का रुख किया जाए तो मुझे चित्रा जी की गाई एक ग़ज़ल याद आ रही है जिसे मुजफ्फर वारसी ने लिखा था,

लब ए ख़ामोश से इज़हार ए तमन्ना चाहे
बात करने को भी तस्वीर का लहजा चाहे

और फिर मीर तक़ी मीर के उस अमर शेर से कौन वाकिफ़ नहीं होगा

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

पर आज मुझे इन लबों का ख्याल आया कैसे? दरअसल विशाल शेखर की संगीतकार जोड़ी के शेखर रविजानी ने पिछले महीने  इसी ज़मीन से जुड़ी विशुद्ध रूप से ग़ज़ल तो नहीं पर एक ग़ज़लनुमा गीत रिलीज़ किया। इस गीत को लिखा है प्रिया सरैया ने और इसे गाया है मधुबंती बागची ने।

मधुबंती बागची

मधुबंती ने पढ़ाई तो इंजीनियरिंग की की है पर साथ ही साथ शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा भी लेती रही  हैं। पिछले एक दशक से बंगाली फिल्मों में उन्हें गाने के मौके मिलते रहे हैं और विगत कुछ सालों से मुंबई में Independent Music की ओर बढ़ते इस दौर में बतौर गायिका और कम्पोजर अपना मुकाम बना रही हैं।

गीत की शुरुआत उनके शानदार आलाप से होती है और फिर आती है सारंगी की मधुर तान जिसे बजाया है दिलशाद खाँ ने।  शेखर इस बात के लिए दोहरी तरीफ़ के काबिल हैं कि न केवल उन्होंने एक शानदार धुन बनाई बल्कि मधुबंती की आवाज़ का इस्तेमाल किया जो इस नज़्म को चार चाँद लगाता है। मधुबंती की आवाज़ मधुर चाशनी में घुली न हो के शुभा मुद्गल जैसी मजबूती के साथ कानों तक पहुँचती है।

इस गीत की रिकार्डिंग पुराने ज़माने की तरह Live हुई है। Music Arranger का किरदार निभाया है दीपक पंडित जी ने जो ख़ुद भी एक बेहतरीन संगीतकार हैं ।  वायलिन बजाने में उनकी माहिरी की वज़ह से जगजीत जी अपनी वादक मंडली में उन्हें हमेशा साथ रखते थे।

प्रिया सरैया के बोल बेहतरीन है। कितनी सादगी से वो दिल की बात जुबां पर लाने की सलाह देती हैं और अगर वो ना हो पाए तो अपने प्यार को लबों से महसूस करने की वकालत करती हैं। वक़्त का क्या भरोसा ये साँसें आज हैं कल ना रहें, या हमारी भावनाएँ ही मर जाएँ। अंतरे में चाँद के विविध रूपों से इश्क़ की तुलना भी अच्छी लगती है।

ये है इसके गीत संगीत के पीछे की पूरी टीम (गीतकार को छोड़कर)

लबों से बात करो

या लबों को मिल जाने दो

साँसें रुक जाएँ कहीं
दिल बदल जाए कहीं
लबों का जो काम है
आज उन्हें कर जाने दो
लबों से बात करो...

ये.. माहताब.. रोज़ आता है
कभी आधा.., कभी उजड़ा..
कभी ये पूरा.. है
इश्क़ कुछ ऐसा ही है
मानो कुछ ऐसा ही है
इश्क़ ये आज हमें 
अपना, पूरा कर जाने दो

तो आइए सुनते हैं ये नज़्म




शुक्रवार, अप्रैल 14, 2023

हसीन ख़्वाब को सच्चा समझ रहा है कोई... Haseen Khwab by Kavya Limaye

आजकल संगीत जगत में एक चलन देखने में आ रहा है कि अगर कोई गीत थोड़े गंभीर मूड का हो तो उसे ग़ज़ल  की श्रेणी में डाल दो भले ही वो गीत ग़ज़ल के व्याकरण से कोसों दूर हो। यहाँ तक कि ऐसी श्रेणी बनाकर विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरस्कार भी बाँटे जा रहे हैं। ग़ज़ल की बारीकियों से आम जन भले वाकिफ़ न हों पर संगीत जगत से जुड़े लोगों में ऐसी अनभिज्ञता अखरती है। पर इस माहौल में भी अच्छी ग़ज़लें बन रही हैं और उसे युवा गायक बड़े बेहतरीन तरीके से निभा रहे हैं। हाँ ये जरूर है कि आज की शायरी का वो स्तर देखने को नहीं मिल रहा जिसकी वज़ह से हम सभी मेहदी हसन, नूरजहाँ गुलाम अली, जगजीत सिंह की गाई ग़ज़लों के मुरीद थे। 


ग़ज़ल की जान हैं उसमें समाहित शब्द और उनकी गहराई। जगजीत जी इस बात को बखूबी समझते थे इसलिए उन्होंने अपनी ग़ज़लों का चुनाव ऐसा किया जिनके मिसरों में खूबसूरत कविता तो थी पर बिना भारी भरकम शब्दों का बोझ लिए। बाकी कमाल तो उनकी रूहानी आवाज़ का था ही जो श्रोताओं के दिल तक सीधे पहुँचती थी। गीत तो धुन पर भी चल जाते हैं पर ग़ज़लें बिना गहरे भाव के दिल में हलचल नहीं मचा पातीं। 

मीर देसाई, योगेश रायरीकर और काव्या लिमये

ऐसी ही एक बेहतरीन ग़ज़ल से कुछ दिनों पहले मेरी मुलाकात हुई जिसे लिखा शायर संदीप गुप्ते जी ने और धुन बनाई योगेश रायरीकर ने। इसे अपनी आवाज़ दी है काव्या लिमये ने जिन्हें आपने इस साल टीवी पर बारहा देखा ही होगा। योगेश रायरीकर जी की धुन कमाल की है जिसे युवा संयोजक मीर देसाई ने अशआर के बीच गिटार, सैक्सोफोन और बाँसुरी का प्रयोग कर के और निखारा है। जैसे मैंने पहले भी कहा शब्द और उसे बरतने का गायक या गायिका का तरीका ग़ज़ल की जान होता है। संगीत का काम सिर्फ सहायक की भूमिका अदा करना होता हैं ताकि वो माहौल बन जाए जिसमें ग़ज़ल रची बसी है। इतनी कम उम्र में भी मीर देसाई ने इस बात को बखूबी समझा है।

भोपाल में पले बढ़े डा.संदीप गुप्ते को शायरी का चस्का किशोरावस्था में ही लग गया था। बाद में मुंबई नगरपालिका में बतौर अभियंता काम करते हुए उन्होंने अपना ये शौक़ जारी रखा। उनकी रचनाओं को सुरेश वाडकर जी ने भी अपनी आवाज़ दी है। उनकी इस ग़ज़ल के अशआर पर ज़रा गौर फरमाएँ।

हसीन ख़्वाब को सच्चा समझ रहा है कोई
फक़त गुमान को दुनिया समझ रहा है कोई

मेरे ख्यालों का इज़हार क्यूँ करूँ मैं फ़ज़ूल
मेरी ख़ामोशी को अच्छा समझ रहा है कोई

किसी का कोई नहीं हूँ यहाँ मगर फिर भी
न जाने क्यूँ मुझे अपना समझ रहा है कोई

सवाल ये नहीं किस किस को कोई समझाए
सवाल ये है कि क्या क्या समझ रहा है कोई

डा.संदीप गुप्ते

गुप्ते साहब का ख़ामोशी वाला शेर पढ़ते मुझे गीत चतुर्वेदी की किताब "अधूरी चीजों का देवता" याद आ गयी जिसमें उन्होने लिखा था "जिसकी अनुपस्थिति में भी तुम जिससे मानसिक संवाद करते हो, उसके साथ तुम्हारा प्रेम होना तय है"। किसी की ख़ामोशी को पढने की बात भी कुछ ऐसी ही है। ग़ज़ल का अंतिम शेर भी मुझे प्यारा लगा।वैसे गुप्ते साहब ने एक शेर और लिखा था इस ग़ज़ल में जिसे यहाँ शामिल नहीं किया गया। वो शेर था...

मेरी नज़र में बड़ी है हर इक छोटी खुशी
मेरे ख्याल को छोटा समझ रहा है कोई

काव्या एक संगीत से जुड़े परिवार से आती हैं। उनके माता पिता कुछ दशकों से गुजराती संगीत जगत में बतौर गायक सक्रिय हैं। वे इस बार के Indian Idol के अंतिम दस में शामिल थीं और वहाँ उन्होंने कहा भी था कि वो अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती हैं। जिस तरह के गीत उन्होंने इस प्रतियोगिता में गाए उससे मेरे लिए ये अंदाज़ लगा पाना मुश्किल था कि वो ऐसी ग़ज़लों को भी शानदार तरीके से निभा सकती हैं। अच्छे उच्चारण के साथ जिस ठहराव की जरूरत थी इस ग़ज़ल को वो उनकी अदाएगी में स्पष्ट दिखी। काव्या कहती हैं कि ये उनके संगीत कैरियर की शुरुआत है और अभी उन्हें काफी कुछ सीखना है। अगर उनकी निरंतर अपने में सुधार लाने की इच्छा बनी रही तो वे संगीत के क्षेत्र में निश्चय ही कई बुलंदियों को छुएँगी ऐसा मेरा विश्वास है।

इस ग़जल की रिकार्डिंग तो बड़ौदा में हुई पर आखिरी स्वरूप में आते आते इसे करीब एक साल का समय लग गया। दो महीने पहले इसी साल इसे रिलीज़ किया गया। तो आइए सुनते हैं काव्या की आवाज़ में ये ग़ज़ल

 

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