जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
महानगरीय ज़िदगी में एक अदद घर की तलाश कितनी मुश्किल, कितनी भयावह हो सकती है एक प्रेमी युगल के लिए, इसी विषय को लेकर सत्तर के दशक में एक फिल्म बनी थी घरौंदा। श्रीराम लागू, अमोल पालेकर और ज़रीना वहाब अभिनीत ये फिल्म अपने अलग से विषय के लिए काफी सराही भी गयी थी।
मुझे आज भी याद है कि हमारा पाँच सदस्यीय परिवार दो रिक्शों में लदकर पटना के उस वक़्त नए बने वैशाली सिनेमा हाल में ये फिल्म देखने गया था। फिल्म तो बेहतरीन थी ही इसके गाने भी कमाल के थे। दो दीवाने शहर में, एक अकेला इस शहर में, तुम्हें हो ना हो मुझको तो .. जैसे गीतों को बने हुए आज लगभग पाँच दशक होने को आए पर इनमें निहित भावनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक, उतनी ही अपनी लगती हैं।
जयदेव का अद्भुत संगीत गुलज़ार और नक़्श ल्यालपुरी की भावनाओं में डूबी गहरी शब्द रचना और भूपिंदर (जो भूपेंद्र के नाम से भी जाने जाते हैं) और रूना लैला की खनकती आवाज़ आज भी इस पूरे एलबम से बार बार गुजरने को मजबूर करती रहती हैं।
आज इसी फिल्म का एक गीत आपको सुना रहा हूँ जिसे ग़ज़लों की सालाना महफिल खज़ाना में मशहूर गायक पापोन ने पिछले महीने अपनी आवाज़ से सँवारा था।
फिल्म के इस गीत को लिखा था गुलज़ार साहब ने। गुलज़ार की लेखनी का वो स्वर्णिम काल था। सत्तर के दशकों में उनके लिखे गीतों से फूटती कविता एक अनूठी गहराई लिए होती थी। इसी गीत में एक अंतरे में नायक के अकेलेपेन और हताशा की मनःस्थिति को उन्होने कितने माकूल बिंबों में व्यक्त किया है। गुलज़ार लिखते हैं
दिन खाली खाली बर्तन है और रात है जैसे अंधा कुआँ इन सूनी अँधेरी आँखों में आँसू की जगह आता है धुआँ
अपना घर बार छोड़ कर जब कोई नए शहर में अपना ख़ुद का मुकाम बनाने की जद्दोजहद करता है तो अकेले में गुलज़ार की यही पंक्तियाँ उसे आज भी अपना दर्द साझा करती हुई प्रतीत होती हैं।
इन उम्र से लंबी सड़कों को मंज़िल पे पहुँचते देखा नहीं बस दौड़ती-फिरती रहती हैं हमने तो ठहरते देखा नहीं इस अजनबी से शहर में जाना-पहचाना ढूँढता है ढूँढता है, ढूँढता है
संगीतकार जयदेव ने भी कितने प्यारे इंटल्यूड्स रचे थे इस गीत में जो दौड़ती भागती मुंबई के बीच नायक की उदासी ओर एकाकीपन कर एहसास को और गहरा कर देते थे। आपने ध्यान दिया होगा कि मुखड़े के बाद सीटी का भी कितना सटीक इस्तेमाल जयदेव ने किया था। वायलिन व गिटार के अलावा अन्य तार वाद्य भी गीत का माहौल को आपसे दूर होने नहीं देते।
तो सुनिए पापोन की आवाज़ में गीत का यही अंतरा। इस महफिल में उनके साथ अनूप जलोटा और पंकज उधास तो हैं ही, साथ में कुछ नए चमकते सितारे जाजिम शर्मा, पृथ्वी गंधर्व व हिमानी कपूर जिन्होंने मूलतः ग़ज़लों के इस कार्यक्रम में अपनी गायिकी से श्रोताओं का मन मोहा था।
फिल्म घरौंदा में ये गीत अमोल पालेकर पर फिल्माया गया था। जो गीत ज़िंदगी की सच्चाइयों को हमारे सामने उजागर करते हैं, हमें अपने संघर्षों के दिन की याद दिलाते हैं उनकी प्रासंगिकता हर पीढ़ी के लिए उतनी ही होती है। गुलज़ार के लफ्जों में कहूँ तो ऐसे गीत कभी बूढ़े नहीं होते। उनके चेहरे पर कभी झुर्रियाँ नहीं पड़ती। एक अकेला इस शहर में एक ऐसा ही नग्मा है...
जगजीत सिंह ने न जाने कितनी भावप्रवण ग़ज़लें गाई होंगी पर अपने कंसर्ट के बीचों बीच चुटकुले सुनकर माहौल को एकदम हल्का फुल्का कर देना उन्हें बखूबी आता था। उनके और लता जी की मजाहिया स्वभाव का नतीजा ये था कि जब भी वे लोग साथ मिलते आधा घंटा एक दूसरे को चुटकुले सुनाने के लिए तय होता था।
जगजीत जी के साथ चित्रा जी ग़ज़लों की एक महफ़िल में
अपनी निजी ज़िंदगी में भी वो ऐसे ही थे। आज उनका एक बेहद पुराना वीडियो मिला जहां वे दोस्तों की एक महफिल में अपनी मशहूर गजल सरकती जाए है रुख से नकाब आहिस्ता आहिस्ता सुना रहे हैं। इधर कुछ जल्दी जल्दी है और उधर कह कर उनका चित्रा की ओर मजाहिया लहजे में देखना लाजवाब कर गया। साथ ही ये वीडियो मुझे उनके जीवन को वो मोड़ याद दिला गया जहां से उन्होंने साथ साथ रहने का निश्चय किया था।
दरअसल चित्रा जी की पहली शादी अपने से कहीं ज्यादा उम्र के देबू दत्ता से हुई थी। रिश्ता देबू की तरफ से ही आया था पर बाद में उन्हें लगा कि उन्होंने अपने लिए बेमेल हमसफ़र चुन लिया है। चित्रा को दूसरा घर दिलाकर वो अलग रहने लगे और बाद में उनसे तलाक ले लिया। इस अलग अलग रहने से थोड़े दिन पहले ही जगजीत चित्रा के संपर्क में आए थे। जब चित्रा अपनी बेटी के साथ अलग रहने लगीं तो वो उन दोनों का ख्याल रखने लगे। साथ साथ जिंगल गाने से लेकर कंसर्ट तक करने में ये रिश्ता और प्रगाढ़ हुआ और एक दिन बुखार में तपते शरीर लिए जगजीत ने चित्रा से प्रणय निवेदन भी कर दिया।
पर चित्रा जी की मानसिक स्थिति जगजीत के प्रेम को तुरंत स्वीकार करने के लायक नहीं थी। एक तो कागजी तौर पर पहले पति से तलाक हुआ नहीं था और दूसरे बेटी को ले के भी वो असमंजस की स्थिति में थीं। इसलिए अंतिम हामी भरने के पहले हमारे जगजीत जी को उनके घर के कई चक्कर लगाने पड़े।
अब वीडियो देखिए और समझिए कि जगजीत ने जल्दी जल्दी किस मजाहिया लहजे में कहा और कितने शरारती अंदाज़ में आहिस्ता आहिस्ता कह कर चित्रा की ओर देखा। सबके सामने जगजीत को ऐसा करते देख चित्रा जी शर्मा गईं। उनकी शर्मीली खिलखिलाहट और जगजीत जी का गाने का तरीका आप सब के मन को भी जरूर आनंदित करेगा ऐसा मेरा विश्वास है :)।
लबों यानी होंठों का चर्चा हिंदी फिल्मी गीतों और शेर ओ शायरी में अक्सर आता रहा है। जब स्कूल में थे तो पहली बार होठों से जुड़े हुए गीत से जगजीत जी की अनमोल आवाज़ से पहला परिचय हुआ था और वो गीत इस क़दर जुबां पर चढ़ गया था कि अपने शर्मीलेपन को परे रख अपनी शिक्षिका के सामने उसे गुनगुनाया था... होठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो, बन जाओ मीत मेरे, मेरी प्रीत अमर कर दो।
लबों की बात करते हुए फिल्मों में और भी गीत आते रहे। मसलन गुलज़ार का लिखा लबों से चूम लो आँखों से थाम लो मुझको या फिर हाल फिलहाल में केके का गाया लबों को लबों से सजाओ।
अब अगर लबों से जुड़ी ग़ज़लों का रुख किया जाए तो मुझे चित्रा जी की गाई एक ग़ज़ल याद आ रही है जिसे मुजफ्फर वारसी ने लिखा था,
लब ए ख़ामोश से इज़हार ए तमन्ना चाहे बात करने को भी तस्वीर का लहजा चाहे
और फिर मीर तक़ी मीर के उस अमर शेर से कौन वाकिफ़ नहीं होगा
नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
पर आज मुझे इन लबों का ख्याल आया कैसे? दरअसल विशाल शेखर की संगीतकार जोड़ी के शेखर रविजानी ने पिछले महीने इसी ज़मीन से जुड़ी विशुद्ध रूप से ग़ज़ल तो नहीं पर एक ग़ज़लनुमा गीत रिलीज़ किया। इस गीत को लिखा है प्रिया सरैया ने और इसे गाया है मधुबंती बागची ने।
मधुबंती बागची
मधुबंती ने पढ़ाई तो इंजीनियरिंग की की है पर साथ ही साथ शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा भी लेती रही हैं। पिछले एक दशक से बंगाली फिल्मों में उन्हें गाने के मौके मिलते रहे हैं और विगत कुछ सालों से मुंबई में Independent Music की ओर बढ़ते इस दौर में बतौर गायिका और कम्पोजर अपना मुकाम बना रही हैं।
गीत की शुरुआत उनके शानदार आलाप से होती है और फिर आती है सारंगी की मधुर तान जिसे बजाया है दिलशाद खाँ ने। शेखर इस बात के लिए दोहरी तरीफ़ के काबिल हैं कि न केवल उन्होंने एक शानदार धुन बनाई बल्कि मधुबंती की आवाज़ का इस्तेमाल किया जो इस नज़्म को चार चाँद लगाता है। मधुबंती की आवाज़ मधुर चाशनी में घुली न हो के शुभा मुद्गल जैसी मजबूती के साथ कानों तक पहुँचती है।
इस गीत की रिकार्डिंग पुराने ज़माने की तरह Live हुई है। Music Arranger का किरदार निभाया है दीपक पंडित जी ने जो ख़ुद भी एक बेहतरीन संगीतकार हैं । वायलिन बजाने में उनकी माहिरी की वज़ह से जगजीत जी अपनी वादक मंडली में उन्हें हमेशा साथ रखते थे।
प्रिया सरैया के बोल बेहतरीन है। कितनी सादगी से वो दिल की बात जुबां पर लाने की सलाह देती हैं और अगर वो ना हो पाए तो अपने प्यार को लबों से महसूस करने की वकालत करती हैं। वक़्त का क्या भरोसा ये साँसें आज हैं कल ना रहें, या हमारी भावनाएँ ही मर जाएँ। अंतरे में चाँद के विविध रूपों से इश्क़ की तुलना भी अच्छी लगती है।
ये है इसके गीत संगीत के पीछे की पूरी टीम (गीतकार को छोड़कर)
लबों से बात करो
या लबों को मिल जाने दो
साँसें रुक जाएँ कहीं दिल बदल जाए कहीं लबों का जो काम है आज उन्हें कर जाने दो लबों से बात करो...
ये.. माहताब.. रोज़ आता है कभी आधा.., कभी उजड़ा.. कभी ये पूरा.. है इश्क़ कुछ ऐसा ही है मानो कुछ ऐसा ही है इश्क़ ये आज हमें अपना, पूरा कर जाने दो
आजकल संगीत जगत में एक चलन देखने में आ रहा है कि अगर कोई गीत थोड़े गंभीर मूड का हो तो उसे ग़ज़ल की श्रेणी में डाल दो भले ही वो गीत ग़ज़ल के व्याकरण से कोसों दूर हो। यहाँ तक कि ऐसी श्रेणी बनाकर विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरस्कार भी बाँटे जा रहे हैं। ग़ज़ल की बारीकियों से आम जन भले वाकिफ़ न हों पर संगीत जगत से जुड़े लोगों में ऐसी अनभिज्ञता अखरती है। पर इस माहौल में भी अच्छी ग़ज़लें बन रही हैं और उसे युवा गायक बड़े बेहतरीन तरीके से निभा रहे हैं। हाँ ये जरूर है कि आज की शायरी का वो स्तर देखने को नहीं मिल रहा जिसकी वज़ह से हम सभी मेहदी हसन, नूरजहाँ गुलाम अली, जगजीत सिंह की गाई ग़ज़लों के मुरीद थे।
ग़ज़ल की जान हैं उसमें समाहित शब्द और उनकी गहराई। जगजीत जी इस बात को बखूबी समझते थे इसलिए उन्होंने अपनी ग़ज़लों का चुनाव ऐसा किया जिनके मिसरों में खूबसूरत कविता तो थी पर बिना भारी भरकम शब्दों का बोझ लिए। बाकी कमाल तो उनकी रूहानी आवाज़ का था ही जो श्रोताओं के दिल तक सीधे पहुँचती थी। गीत तो धुन पर भी चल जाते हैं पर ग़ज़लें बिना गहरे भाव के दिल में हलचल नहीं मचा पातीं।
मीर देसाई, योगेश रायरीकर और काव्या लिमये
ऐसी ही एक बेहतरीन ग़ज़ल से कुछ दिनों पहले मेरी मुलाकात हुई जिसे लिखा शायर संदीप गुप्ते जी ने और धुन बनाई योगेश रायरीकर ने। इसे अपनी आवाज़ दी है काव्या लिमये ने जिन्हें आपने इस साल टीवी पर बारहा देखा ही होगा। योगेश रायरीकर जी की धुन कमाल की है जिसे युवा संयोजक मीर देसाई ने अशआर के बीच गिटार, सैक्सोफोन और बाँसुरी का प्रयोग कर के और निखारा है। जैसे मैंने पहले भी कहा शब्द और उसे बरतने का गायक या गायिका का तरीका ग़ज़ल की जान होता है। संगीत का काम सिर्फ सहायक की भूमिका अदा करना होता हैं ताकि वो माहौल बन जाए जिसमें ग़ज़ल रची बसी है। इतनी कम उम्र में भी मीर देसाई ने इस बात को बखूबी समझा है।
भोपाल में पले बढ़े डा.संदीप गुप्ते को शायरी का चस्का किशोरावस्था में ही लग गया था। बाद में मुंबई नगरपालिका में बतौर अभियंता काम करते हुए उन्होंने अपना ये शौक़ जारी रखा। उनकी रचनाओं को सुरेश वाडकर जी ने भी अपनी आवाज़ दी है। उनकी इस ग़ज़ल के अशआर पर ज़रा गौर फरमाएँ।
हसीन ख़्वाब को सच्चा समझ रहा है कोई फक़त गुमान को दुनिया समझ रहा है कोई
मेरे ख्यालों का इज़हार क्यूँ करूँ मैं फ़ज़ूल मेरी ख़ामोशी को अच्छा समझ रहा है कोई
किसी का कोई नहीं हूँ यहाँ मगर फिर भी न जाने क्यूँ मुझे अपना समझ रहा है कोई
सवाल ये नहीं किस किस को कोई समझाए सवाल ये है कि क्या क्या समझ रहा है कोई
डा.संदीप गुप्ते
गुप्ते साहब का ख़ामोशी वाला शेर पढ़ते मुझे गीत चतुर्वेदी की किताब "अधूरी चीजों का देवता" याद आ गयी जिसमें उन्होने लिखा था "जिसकी अनुपस्थिति में भी तुम जिससे मानसिक संवाद करते हो, उसके साथ तुम्हारा प्रेम होना तय है"। किसी की ख़ामोशी को पढने की बात भी कुछ ऐसी ही है। ग़ज़ल का अंतिम शेर भी मुझे प्यारा लगा।वैसे गुप्ते साहब ने एक शेर और लिखा था इस ग़ज़ल में जिसे यहाँ शामिल नहीं किया गया। वो शेर था...
मेरी नज़र में बड़ी है हर इक छोटी खुशी
मेरे ख्याल को छोटा समझ रहा है कोई
काव्या एक संगीत से जुड़े परिवार से आती हैं। उनके माता पिता कुछ दशकों से गुजराती संगीत जगत में बतौर गायक सक्रिय हैं। वे इस बार के Indian Idol के अंतिम दस में शामिल थीं और वहाँ उन्होंने कहा भी था कि वो अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती हैं। जिस तरह के गीत उन्होंने इस प्रतियोगिता में गाए उससे मेरे लिए ये अंदाज़ लगा पाना मुश्किल था कि वो ऐसी ग़ज़लों को भी शानदार तरीके से निभा सकती हैं। अच्छे उच्चारण के साथ जिस ठहराव की जरूरत थी इस ग़ज़ल को वो उनकी अदाएगी में स्पष्ट दिखी। काव्या कहती हैं कि ये उनके संगीत कैरियर की शुरुआत है और अभी उन्हें काफी कुछ सीखना है। अगर उनकी निरंतर अपने में सुधार लाने की इच्छा बनी रही तो वे संगीत के क्षेत्र में निश्चय ही कई बुलंदियों को छुएँगी ऐसा मेरा विश्वास है।
इस ग़जल की रिकार्डिंग तो बड़ौदा में हुई पर आखिरी स्वरूप में आते आते इसे करीब एक साल का समय लग गया। दो महीने पहले इसी साल इसे रिलीज़ किया गया। तो आइए सुनते हैं काव्या की आवाज़ में ये ग़ज़ल
बहुत ऐसे शायर रहे जिनकी कोई एक ग़ज़ल किसी मशहूर फ़नकार ने गाई और वो बरसों तक उसी ग़ज़ल की वज़ह से जाने जाते रहे। शहज़ाद जालंधरी साहब की ये ग़ज़ल नूरजहाँ जी ने गाई और इसकी शोहरत इसी बात से है कि इस ग़ज़ल को आज भी नए गायक उसी तरह गुनगुना रहे हैं और श्रोताओं की वाहवाही लूट रहे हैं। कल जब प्रतिभा सिंह बघेल की आवाज़ में सालों बाद इस ग़ज़ल का एक टुकड़ा सुना तो पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं जब हम इसे नूरजहाँ और आशा जी की आवाज़ में सुना करते थे।
जो प्यार के लम्हे होते हैं वो बड़े छोटे होते हैं। उनको पकड़ के रखना आसान नहीं होता खासकर तब जब वो शख़्स ही आपकी ज़िंदगी से निकल जाए। ऐसे में रह जाती हैं तो सिर्फ यादें और प्रकृति के वो रूप जो आपके प्रेम के साक्षी रहे थे। शहज़ाद जालंधरी साहब कभी फूलों, कभी चाँदनी रात तो कभी सावन की घटाओं के बीच की उन मुलाकातों को इस ग़ज़ल के जरिये एक बार फिर से महसूस करते हैं। कितनी प्यारी लगती थी वो दुनिया जब उनकी महफिल से लौट कर आते थे और अब तो जो बचा है सिर्फ यादें हैं आँसुओं के सैलाब में तैरती हुई...
गुल खिले चाँद रात याद आई
आपकी बात, बात याद आई गुल खिले चाँद रात याद आई
एक कहानी की हो गई तकमील* एक कहानी की हो गई तकमील एक सावन की रात याद आई आपकी बात, बात याद आई गुल खिले चाँद रात याद आई
* अंत
अश्क आँखों में फिर उमड़ आए
अश्क आँखों में फिर उमड़ आए कोई माज़ी, की बात याद आई आपकी बात, बात याद आई गुल खिले चाँद रात याद आई
उनकी महफ़िल से लौट कर शहज़ाद उनकी महफ़िल से लौट कर शहज़ाद रौनक-ए-कायनात** याद आई आपकी बात, बात याद आई
** ब्रह्मांड
एक अलग तरह की आवाज़ का होना फिल्मी या गैर फिल्मी पार्श्व गायन में हमेशा से एक वरदान सा रहा है। मुकेश, तलत महमूद मन्ना डे, हेमंत कुमार, सचिन देव बर्मन, रफ़ी, किशोर कुमार, लता मंगेशकर, गीता दत्त, आशा भोसले इन सभी नामी गायकों की आवाज़ अपने तरह की थी और इसीलिए अब तक ये हमारे हृदय में राज कर रहे हैं। ग़ज़ल गायकों में वही मुकाम मेहदी हसन, गुलाम अली, जगजीत सिंह, बेगम अख्तर और नूरजहाँ का रहा। नूरजहाँ की आवाज़ में ठसक के साथ एक कशिश थी जो ग़ज़ल के सारे दर्द को अपनी गायकी में समेट लेती थी। इस ग़ज़ल को सुनते ही हुए आप ऐसा ही महसूस करेंगे। उनकी गायिकी को मंटो साहब ने कुछ यूं बयां किया था
मैं उसकी शक्ल-सूरत, अदाकारी का नहीं, आवाज़ का शैदाई था. इतनी साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ आवाज़, मुर्कियां इतनी वाज़िह1, खरज2 इतना हमवार3, पंचम इतना नोकीला! मैंने सोचा अगर ये चाहे तो घंटों एक सुर पर खड़ी रह सकती है, वैसे ही जैसे बाज़ीगर तने रस्से पर बग़ैर किसी लग़्ज़िश4 के खड़े रहते हैं.’
1. स्पष्ट , 2. नीचे के सुर, 3 . बराबर, 4. भूल
तो सुनिए इस ग़ज़ल को मलिका ए तरन्नुम नूरजहाँ जी की आवाज़ में
इस ग़ज़ल को आज की तारीख़ में तमाम नए पुराने गायकों ने गाया है पर मुझे वो वर्सन ज्यादा पसंद आते हैं जो बिना किसी वाद्य यंत्र के साथ गाए जाएँ। शहज़ाद जालंधरी साहब के मिसरों के साथ नज़र हुसैन जी ने ग़ज़ल की जो धुन रची वो अपने आप में इतनी अर्थपूर्ण और मधुर है कि आपको किसी संगीत की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती। नूरजहाँ तो ग़ज़लों की मलिका थीं ही, आशा जी ने भी इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ की मिठास देकर एक अलग ही जामा पहनाया है।
वो एलबम था कशिश जो अस्सी के दशक में HMV ने रिलीज़ किया था। इसमें अधिकतर वो ग़ज़लें थीं जो पहले नूरजहाँ जी ने भी गायी हुई थीं। ज़ाहिर है हर गायक अपनी अदाएगी में एक अलग रंग भरता है। इस ग़ज़ल के साथ साथ इसी एलबम में शामिल नीयत ए शौक़ भी काफी मशहूर हुई थी जिसके पहले मैंने आपको यहाँ रूबरू कराया भी था।
अगर आप ग़ज़ल के शैदाई हैं और एक ही पंक्ति को अलग अलग अंदाज़ में सुनने की इच्छा रखते हों तो आप धुरंधर शास्त्रीय गायक राहुल देशपांडे का ये वर्सन जरूर सुनें। "अश्क़ आँखों में फिर उमड़ आए" में अपनी आवाज़ की लर्जिश से उन्होंने जो दर्द अता किया है वो सुनने लायक है। प्रतिभा सिंह वघेल का गाया इस ग़ज़ल का एक टुकड़ा मैंने इस ब्लॉग के फेसबुक पेज पर यहाँ साझा किया ही है।
नूरजहाँ की गाई मेरे पसंदीदा नज़्में, गीत व ग़ज़लें
Author: Manish Kumar
| Posted at: 1/18/2023 07:36:00 pm |
Filed Under: एम एम करीम
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संगीत हो या साहित्य हमें अपने कलाकारों का हुनर तब नज़र आता है जब वो किसी विदेशी पुरस्कार से सम्मानित होते हैं। हाल ही में एम एम करीम साहब जो दक्षिण की फिल्मों में एम एम कीरावनी के नाम से जाने जाते हैं को RRR के उनके गीत नाचो नाचो (नाटो नाटो) के लिए विश्व स्तरीय गोल्डन ग्लोब पुरस्कार से नवाज़ा गया।
सच पूछिए तो मुझे ये सुनकर कुछ खास खुशी नहीं मिली क्योंकि जिसने भी करीम के संगीत का अनुसरण किया है वो सहज ही बता देगा कि उन्होंने जो नगीने दक्षिण भारतीय और हिन्दी फिल्म संगीत को दिए हैं उनके समक्ष उनकी ये बेहद साधारण सी कृति है। पर हमारी मानसिकता तो ये है कि गोरी चमड़ी वालों ने पुरस्कार दिया नहीं और हम लहालोट होने लगे। मुझे चिंता इस बात की है ऐसे गीतों को पुरस्कार मिलता देख संगीत से जुड़ी नई पीढ़ी भारतीय संगीत की अद्भुत गहराइयों से गुजरे बिना इसे ही अपना आदर्श न मान ले।
करीम साहब तो अस्सी के दशक के आख़िर से ही दक्षिण में अपनी प्रतिभा की वज़ह से लोगों की नज़र में आने लगे थे पर हिंदी फिल्मों में पहली बार वो नब्बे के दशक के मध्य में आई फिल्म क्रिमिनल से लोकप्रिय हुए। इस फिल्म का उनका गीत तू मिले दिल खिले और जीने को क्या चाहिए आज भी जब बजता है तो मन झूम उठता है।
पर उनका हिंदी फिल्मों में सबसे बढ़िया काम मुझे एक अनजानी सी फिल्म इस रात की सुबह नहीं में लगता है। एक बेहद कसी पटकथा लिए हुई कमाल की फिल्म थी वो जिसमें उनका संगीतबद्ध गीत मेरे तेरे नाम नये हैं ये दर्द पुराना है जीवन क्या है तेज़ हवा में दीप जलाना है मन को अंदर तक भिगो डालता है। इसी फिल्म का चुप तुम रहो भी तब बेहद पसंद किया गया था। करीम का दुर्भाग्य ये भी रहा कि जिन हिंदी फिल्मों में शुरुआती दौर में उन्होंने उल्लेखनीय संगीत दिया वो ज्यादा नहीं चलीं। फिल्म ज़ख्म का वो सदाबहार गीत जाने कितने दिनों के बाद गली में आज चांद निकला हो या रोग का दर्द भरा नग्मा "मैंने दिल से कहा ढूंढ लाना खुशी..." आज भी लोगों की जुबां पर रहता है चाहे उन्हें उस फिल्म का नाम याद हो या नहीं। जिस्म के गीत "आवारापन बंजारापन.." और "जादू है नशा है..." का नशा तो श्रोताओं पर सालों साल रहा। सुर जैसी संगीतमय फिल्म में उनके गीत "कभी शाम ढले..", "जाने क्या ढूंढता है..", "दिल में जागी धड़कन ऐसे.." भी काफी सराहे गए थे।
हाल फिलहाल में स्पेशल 26 में उनका गीत "कौन मेरा क्या तू लागे" इतना सुरीला था कि इस गीत को जितनी बार भी सुनूं मन नहीं भरता। बेबी में उनका संगीतबद्ध गीत "मैं तुझसे प्यार नहीं करती" भी सुनने लायक है।
हर कलाकार चाहता है कि उसे उसके बेहतरीन काम से याद किया जाए। काश ऐसे गुणी संगीतकार को हम उनकी इन बेमिसाल कृतियों के लिए सम्मान देते। संगीत की इतनी शानदार विरासत रहने के बाद भी हम अच्छे भारतीय संगीत के लिए ऐसा पुरस्कार विकसित नहीं कर पाए जिसे पाने वाले पर सारी दुनिया ध्यान देती। इसीलिए आज हम गर्वित महसूस करने के लिए किसी गोल्डन ग्लोब या ग्रैमी की बाट जोहते हैं।
विश्व स्तरीय पुरस्कार किसी भी कलाकार के लिए सम्मान की बात है पर विश्व के संगीत प्रेमियों तक हमारी सबसे अच्छी कृति कैसे पहुंचे इस प्रक्रिया में और सुधार लाने की जरूरत है।
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M M Kareem के संगीतबद्ध मेरे चार पसंदीदा नग्मे
1. कौन मेरा, क्या तू लागे
2. मेरे तेरे नाम नये हैं
3. मैने दिल से कहा ढूंढ लाना खुशी
4. तू मिले दिल खिले
आशा है आपने भी ये गीत सुने होंगे ही। अगर न सुने हों तो सुनिएगा।
Author: Manish Kumar
| Posted at: 11/16/2022 11:14:00 pm |
Filed Under: पुस्तक चर्चा
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क़िस्सा क़िस्सा लखनउवा राजकमल द्वारा प्रकाशित एक ऐसी किताब हैं जो छोटे छोटे चुटीले क़िस्सों के माध्यम से से लखनऊ की तहज़ीब और संस्कृति के दर्शन कराती है। अगर आपका संबंध किसी भी तरह से लखनऊ शहर से रहा है या आप उर्दू जुबां की मुलायमियत के शैदाई हैं तो एक बार ये किताब जरूर पढ़नी चाहिए आपको। हिमांशु ने बड़ी मेहनत से लखनऊ के आवामी किस्से छांटें हैं इस किताब में। हिमांशु खुद भी एक बेहतरीन किस्सागो हैं और वो इन कथाओं को अपनी आवाज में जनता के सामने एक विशिष्ट अंदाज़ में अपने कार्यक्रमों में सुनाते भी रहे हैं। हालांकि मुझे अब तक उन्हें आमने-सामने सुनने का मौका नहीं मिल सका है। इस किताब की प्रस्तावना में हिमांशु लिखते हैं
ये क़िस्सागोई की किताब है। ये मेरे क़िस्से नहीं हैं, मेरे शहर के हैं। मैं फ़क़त क़िस्सागो हूँ। इन्हें सुनाने वाला। ज़बानी रिवायत में क़िस्सा सुनाने के अन्दाज़ को बड़ी अहमियत हासिल है। ये अन्दाज़ ही है जो पुराने क़िस्से को भी नई शान और दिलकशी अता करता है। क्योंकि ये अन्दाज़ हर सुनाने वाले का ‘अपना’ होता है। हो सकता है बहुत से लोगों ने ये क़िस्से पहले सुन रखे हों मगर मैं इन क़िस्सों को अपने अन्दाज़ में सुनाना चाहता था। अपने समय के लोगों को। ख़ासकर उन लोगों को, जिन्होंने ये क़िस्से पहले कभी नहीं सुने। ये उस लखनऊ के क़िस्से हैं जहाँ मैं पैदा हुआ, पला बढ़ा और रहता हूँ, और मैं इस लखनऊ को अपने अन्दाज़ में सबको दिखाना चाहता हूँ। क्योंकि ये मेरे लोगों के क़िस्से हैं। उन लोगों के, जिनके क़िस्से ‘लखनवी’ ब्रांड के क़िस्सों में अक्सर शामिल नहीं किए जाते। ये ‘लखनवी’ क़िस्से नहीं हैं, ये ‘लखनउवा’ क़िस्से हैं।
तकरीबन पौने दो सौ पन्नों की इस किताब के सारे किस्से एक जैसे नहीं हैं। कुछ तो बेहद दिलचस्प हैं, तो कुछ चलताऊ और कुछ थोड़े नीरस भी। इनमें वहां के लोगों की नफ़ासत, हाजिर जवाबी, फ़िक़राकशी, अन्दाज़ ए गुफ़्तगू और खुद्दारी की दास्तान बिखरी पड़ी हैं जो आपको रह रह कर गुदगुदाएंगी। पर इन सारे क़िस्सों में एक क़िस्सा मुझे अब हमेशा याद रहेगा। ये क़िस्सा कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से जुड़ा है। बात 1938 की है जब लखनऊ में ऑल इंडिया रेडियो का स्टेशन खुला था पर वहां के उर्दू माहौल की वजह से निराला रेडियो में अपना कविता पाठ करने से कतराते थे। उस समय के नामी साहित्यकार पढ़ीस के कहने पर वे रेडियो पर अपना काव्य पाठ करने को तैयार हुए आगे क्या हुआ यह लेखक की जुबान में पढ़िए
रेडियो में विशुद्ध उर्दू पृष्ठभूमि के लोगों की भरमार थी जिनमें से बहुत सारे लोग हिन्दी लिखना-पढ़ना तो दूर रहा ठीक से हिन्दी बोलना भी नहीं जानते थे। तब रेडियो में शहज़ादे ‘रामचन्दर’ जलवा-अफ़रोज़ होते थे और राजा ‘दुशियंत’ ‘परकट’ होते थे। ‘परदीप’ से ‘परकाश’ मुंतशिर होता था।
निराला जी स्टेशन पर आए। उन्हें काव्य-पाठ करवाने की ज़िम्मेदारी अयाज़ साहब को मिली। निराला जी और अयाज़ साहब स्टूडियो में गए। बाहर ड्यूटी रूम में ड्यूटी ऑफिसर के अलावा स्टेशन डायरेक्टर मो. हसीब साहब ख़ुद बैठे थे। सब रेडियो पर निराला के ऐतिहासिक काव्यपाठ के साक्षी बनना चाहते थे। मगर निराला जी को स्टेशन तक लाने वाले पढ़ीस जी इस एहतमाम से दूर अपने काम में लगे हुए थे। आख़िर अयाज़ साहब की आवाज़ के साथ लाइव प्रसारण शुरू हुआ—अब आप हिन्दी में कविता-पाठ समाअत फ़रमाइए। कवी हैं—इसके बाद कुछ लडख़ड़ाते हुए बोले—“सूरियाकान्ता तिरपाठा निराली” क़ायदे से इसके तुरन्त बाद निराला जी का काव्यपाठ सुनाई देना था पर उसकी जगह सुनाई दी कुछ ‘हुच्च-हुच्च’ की आवाज़ें। और फिर सन्नाटा हो गया। किसी को कुछ समझ नहीं आया। हसीब साहब चिल्लाए—वाट इज़ दिस। ड्यूटी ऑफिसर हड़बड़ाहट में स्टूडियो की तरफ़ भागा। उसने शीशे से झाँककर जो स्टूडियो के अन्दर देखा तो उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसने किसी तरह फिलर बजवाया और भाग के वापस पहुँचा हसीब साहब के पास। बोला—अयाज़ साहब! अयाज़ साहब! हसीब घबराकर स्टूडियो की तरफ़ भागे। झाँककर देखा तो भीमकाय निराला जी ने अयाज़ साहब की गर्दन अपने बाएँ हाथ के तिकोन में दबोच रखी थी। अयाज़ डर के मारे छटपटा भी नहीं पा रहे थे। निराला जी ग़ुस्से में तमतमा रहे थे, आँखें लाल-लाल थीं मगर जानते थे कि स्टूडियो में हैं इसलिए ख़ामोश थे। निराला जी के ग़ुस्से से सब वाक़िफ़ थे इसलिए किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि अयाज़ साहब को रेस्क्यू करवाए। आख़िर पढ़ीस को बुलवाया गया और उन्होंने अनुनय-विनय करके अयाज़ साहब को मुक्त करवाया। अब निराला जी का ग़ुस्सा पढ़ीस पर निकला। अवधी में बोले—तुमसे कहा रहय कि हमका रेडियो-फेडियो ना लयि चलउ। मुलु तुम न मान्यौ। ऊ गदहा हमका तिरपाठा निराली कहिस। पढ़ीस जी ने हाथ जोड़कर उनसे माफ़ी माँगी। निराला जी आख़िर शान्त हुए। पढ़ीस से बोले—अब हमका हियाँ से लइ चलौ...और इसके बाद बिना कुछ कहे वहाँ से चले आए।
इस किताब की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह नवाबी लखनऊ के ज़माने में आम लोगों के किस्सों को पाठक तक पहुंचाती है। किताब में प्रस्तुत किस्से इस बात की पुरज़ोर वकालत करते हैं कि लखनऊ की तहज़ीब के जो चर्चे किताबों में मिलते हैं उनका श्रेय सिर्फ लखनऊ के नवाबों को नहीं जाता बल्कि उसके सच्चे हक़दार वहां के हर वर्ग के लोग थे जिनके आचार व्यवहार ने लखनऊ को वह पहचान दिलाई। यही वजह है कि इस किताब में आप लखनऊ के रिक्शेवालों, नचनियों, गायकों, विक्रेताओं, खानसामों, फकीरों से लेकर नवाबों का जिक्र पाएंगे।
उस समय के माहौल को पढ़ने वाले के मन में बैठाने के लिए लेखक ने खालिस उर्दू का इस्तेमाल किया है जो वाज़िब भी है पर उर्दू के कठिन शब्दों का नीचे अर्थ न दिया जाना इस किताब की सबसे बड़ी कमजोरी है जो शायद आज के युवाओं को इसका पूरा लुत्फ़ उठाने में अवश्य बाधा उत्पन्न करेगी। आशा है कि किताब के अगले संस्करण इस बात पर ध्यान देंगे।
हाल ही में ZEE5 पर आई एक वेब सीरीज का एक संगीत एलबम सुनने को मिला। खास बात ये कि इस एल्बम में दो ग़ज़लें भी थीं। वैसे तो आज के दौर में भी कम ही सही पर युवा कलाकार पुरानी ग़ज़लों को तो बखूबी निभा रहे हैं पर उनकी गायी नई ग़ज़लों के मिसरों में वो गहराई नहीं दिखती जो ग़ज़ल को सही मायने ग़ज़ल का रूतबा दिलाने के लिए बेहद जरूरी है।
दरअसल कविता तो ग़ज़ल की आत्मा है जिसके मूड को समझते हुए संगीतकार उसमें अपनी धुन का रंग भरता है और गायक उसके शब्दों के वज़न को समझते हुए अपनी अदाएगी के ज़रिए हर मिसरे के भावों को श्रोताओं के दिल में बैठा देता है। मुझे मुखबिर में शामिल ग़ज़लों को सुनते हुए ये लगा कि शायरी, धुन और गायिकी तीनों को इस तरह से पिरोया गया है कि उनका सम्मिलित प्रभाव एक समां बाँध देता है।
जब आप हमसे तो वो बेहतर हैं सुनेंगे तो आपको लगेगा कि आप एकदम से साठ सत्तर के दशक में पहुँच गए हैं जब बेगम अख्तर, मेहदी हसन और गुलाम अली जैसे गायकों की तूती बोलती थी और ग़ज़लें एक परम्परागत तरीके से गायी जाती थीं। ये ग़ज़ल भी उसी माहौल में रची बसी है क्यूँकि कहानी का काल खंड भी वही है। क्या निभाया है ग़ज़ल गायिकी के उस तौर तरीके को रोंकिनी ने और वैभव ने उन्हें मौका दिया है हर मिसरे में तंज़ की शक्ल में छुपी पीड़ा को अपनी शास्त्रीय अदाकारी से उभारने का।
ज़िंदगी में हमारा हुनर, हमारा व्यवहार कौशल अपने से दूर खड़े लोगों में भले ही खूबसूरत छवि गढ़ दे पर उसका क्या फायदा जब हम अपनी मिट्टी, अपने शहर और अपने करीबियों के मन को ही ना जीत पाएँ। ऐसे ही व्यक्तित्व के विरोधाभास को उभारा है वैभव मोदी ने अपने शब्दों में।
अभिषेक नेलवाल के संगीत निर्देशन में ग़ज़ल के मिसरों के बीच अभिनय रवांडे का बजाया हारमोनियम मन को लुभाता है। तो आइए सुनिए इस ग़जल को
हमसे तो वो बेहतर हैं जो किसी के ना हुए इक आप हैं जिसके हैं उसी के ना हुए
परवाज़ को जिनके मिली आसमां की ये रज़ा कुछ लोग हैं ऐसे जो ज़मीं के ना हुए
इक उम्र लग गयी कि कहें वो भी वाह वाह वो हो गए कायल मगर खुशी से ना हुए
लेते हमारा नाम ये गलियाँ ये रास्ते पर हम थे जिस शहर के वहीं के ना हुए
एल्बम की दूसरी ग़ज़ल का मिज़ाज थोड़ा नर्म और रूमानियत से भरा है। ज़ाहिर है यहाँ वाद्य यंत्रों का चुनाव भारतीय और पश्चिमी का मिश्रण है। मुखड़े के पहले गिटार की कानों में मिश्री भरती टुनटुनाहट है तो मिसरों के बीच ताली की थपथपाहट के साथ कभी बाँसुरी तो कभी तार वाद्यों की झंकार। रोंकिनी का गाना है तो फिर सरगम का सुरीला तड़का तो बीच बीच में रहेगा ही।
अभिषेक की मधुर धुन जहाँ मन को सहलाती है वहीं वैभव के मिसरे वास्तव में दिल को तसल्ली देते हुए एक उम्मीद सी जगाते हैं। तेरे सीने पे हर इक रात की सहर हो बस वाला शेर तो कमाल सा करता हुआ निकल जाता है। रोंकिनी की आवाज़ इस ग़ज़ल की जान है। क्या निभाया है उन्होंने दोनों ग़ज़लों के अलग अलग मूड को। इस बात को आप तब और महसूस करेंगे जब इसी ग़ज़ल को अभिषेक की आवाज़ में सुनेंगे।
क्या पता फिर से ये सँभल जाए
तेरे आने से दिल बहल जाए
सर्द आहों से बुझ गयी थी कभी
कुछ ऐसा कर ये शमा जल जाए
ये आरजू ये शिकस्त ये तेरे इश्क़ की बाजी
ख़ुदा करे कि तेरा कोई दाँव चल जाए
तेरे सीने पे हर इक रात की सहर हो बस
तेरी बाहों में मेरा दम यूँ ही निकल जाए
गंभीर भावनात्मक गीतों में रोंकिनी अपनी काबिलियत पहले ही साबित कर चुकी हैं पर इन ग़ज़लों में जो रंग उनकी आवाज़ ने भरा उससे उनकी बहुमुखी प्रतिभा की नयी झलक देखने को मिली।
पिछले दो महीनों में मैंने पाँच किताबें पढ़ीं और उनमें सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ नदी के द्वीप से जिसे लिखा था अज्ञेय ने। निर्मल वर्मा की तरह अज्ञेय अपने क्लिष्ट लेखन के लिए जाने जाते हैं। इन लेखकों की किताबों को सरसरी निगाह से पढ़ जाने की हिमाकत आप नहीं कर सकते। उनके लिखे को मन में उतारने के लिए समय और मानसिक श्रम की जरूरत होती है। कई बार आप वैसी मनःस्थिति में नहीं रहते इसलिए उनसे कतराने की कोशिश करते हैं। शायद यही वज़ह है कि सैकड़ों पुस्तक पढ़ने के बाद मैं ये साहस कर पाया।
अज्ञेय का वास्तविक नाम सच्चिदानंद हीरालाल वात्सायन था। यूँ तो उन्होंने गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में काफी लेखन किया पर उनके लिखे दो उपन्यास शेखर एक जीवनी और नदी के द्वीप उनके गद्य लेखन की पहचान रहे। उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में जन्मे अज्ञेय भारत के विभिन्न प्रान्तों में रहे उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया और जीवन के कई साल जेल में बिताए। ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अज्ञेय अपने लेखन में अपनी भाषा शैली और अपने पात्रों के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण के लिए जाने जाते हैं।
नदी के द्वीप कमाल का उपन्यास है खासकर अपनी संरचना की दृष्टि से। ले दे के चार मुख्य पात्र जिनमें 3 तो एक प्रेम त्रिकोण का हिस्सा हैं और चौथा अपने कृत्यों से प्रेमी कम खलनायक ज्यादा महसूस होता है। उपन्यास के चारों मुख्य किरदार मध्यम वर्गीय पढ़े लिखे परिवेश से आते हैं। खास बात ये है कि इन चारों के बीच का संवाद ज्यादातर पत्रों के माध्यम से चलता है। ज़ाहिर है इनके लिखे पत्र विद्वतापूर्ण है और कई बार दिल के तारों को छू लेते हैं। मसलन भुवन से जब गौरा अपने भविष्य के बारे में मार्गदर्शन चाहती है तो भुवन कितनी सुंदर बात लिख जाता है
"गौरा कोई किसी के जीवन का निर्देशन करे यह मैं शुरू से गलत मानता आया हूं, तुम जानती हो। दिशा-निर्देशन भीतर का आलोक ही कर सकता है; वही स्वाधीन नैतिक जीवन है, बाकी सब गुलामी है। दूसरे यही कर सकते हैं कि उस आलोक को अधिक द्युतिमान बनाने में भरसक सहायता दें। वही मैंने जब-तब करना चाहा है, और उस प्रयत्न में स्वयं भी आलोक पा सका हूं, यह मैं कही ही चुका। तुम्हारे भीतर स्वयं तीव्र संवेदना के साथ मानो एक बोध भी रहा है जो नीति का मूल है; तुम्हें मैं क्या निर्देश देता?"
कभी-कभी ये किरदार प्रत्यक्ष रूप से भी मिल लेते हैं। आपस में बौद्धिक बहसें करते हैं और इन बहसों के बीच अचानक ही गहरा कुछ निकल कर ऐसा आता है जिससे पाठक अज्ञेय की लेखनी से अभिभूत हो जाता है।
"फिर थोड़ा मौन रहा, दोनों सूनी रात को देखते रहे। लोग एक ही आकाश को, एक ही बादल को, एक ही टिमकते तारे को देखते हैं और उनके विचार बिल्कुल अलग-अलग लीकों पर चलते जाते हैं, पर ऐसा भी होता है कि वे लीकें समानांतर हों और कभी ऐसा भी होता है कि थोड़ी देर के लिए वे मिलकर एक हो जाएं; एक विचार, एक स्पंदन जिसमें सांझेपन की अनुभूति भी मिली हो। असंभव यह नहीं है, और यह भी आवश्यक नहीं है कि जब ऐसा हो तो उसे अचरज मानकर स्पष्ट किया ही जाए, प्रचारित किया ही जाए - यह भी हो सकता है कि वह स्पंदन फिर विभाजित हो जाए, विचार फिर समानांतर लीकें पकड़ लें।"
हम सब नदी के द्वीप हैं, द्वीप से द्वीप तक सेतु हैं। सेतु दोनों ओर से पैरों के नीचे रौंदा जाता है, फिर भी वह दोनों को मिलाता है एक करता है....!
" नीति से अलग विज्ञान बिना सवार का घोड़ा है, बिना चालक का इंजिन : वह विनाश ही कर सकता है। और संस्कृति से अलग विज्ञान केवल सुविधाओं और सहूलियतों का संचय है, और वह संचय भी एक को वंचित कर के दूसरे के हक में; और इस अम्बार के नीचे मानव की आत्मा कुचली जाती है, उसकी नैतिकता भी कुचली जाती है, वह एक सुविधावादी पशु हो जाता है…और यह केवल युद्ध की बात नहीं है, सुविधा पर आश्रित जो वाद आजकल चलते हैं वे भी वैज्ञानिक इसी अर्थ में हैं कि वे नीति-निरपेक्ष हैं : मानव का नहीं, मानव पशु का संगठन ही उन का इष्ट है। "
पर ये भी है कि पुस्तक के कुछ हिस्सों में किरदारों के व्याख्यान इतने गहरे और बोझिल हो जाते हैं कि उनकी एक एक पंक्ति पर दिमाग खपाने का दिल नहीं करता और उन हिस्सों को सरसरी निगाह से पढ़कर निकल जाना होता है बिना गहरे डूबे हुए। अज्ञेय पर पश्चिमी साहित्यकारों का अच्छा खासा प्रभाव रहा है। यही वज़ह है कि डी एच लारेंस व इलियट जैसे प्रख्यात अंग्रेजी कवियों की रचनाओं से पात्रों के माध्यम से पाठक रूबरू होता रहता है।
है तो यह एक प्रेम कथा ही और वो भी बिना किसी ज्यादा घुमाव या तेजी से बदलती घटनाओं के। कथा का कालखंड 80-90 साल पुराना है पर पर जिन व्यक्तित्वों को अज्ञेय ने गढ़ा है वह आज के चरित्रों से बहुत पुराने नहीं हैं। ऐसा इसलिए है कि अज्ञेय की दृष्टि तत्कालीन घटनाओं से ज्यादा व्यक्ति की आंतरिक चिंतन धारा और मानसिक उथल-पुथल पर ज्यादा है और आदमी तो अंदर से एक सदी में भी कहां बदला है?
इसलिए किताब के प्राक्कथन में कहा गया है कि उपन्यास में लेखक ने व्यक्ति के विकसित आत्म को निरूपित करने की सफल कोशिश की है। वह व्यक्ति जो विराट समाज का अंग होते हुए भी उसी समाज की तीव्रगामी धाराओं, भावनाओं और तरंगों के बीच अपने भीतर एक द्वीप की तरह लगातार बनता, बिगड़ता और फिर बनता रहता है। वेदना जिसे मांजती है, पीड़ा जिसे व्यस्क बनाती है और धीरे-धीरे द्रष्टा।
जो विशुद्ध हिंदी भाषा के प्रेमी हैं उन्हें अज्ञेय की लेखनी से सीखने को बहुत कुछ मिलेगा। मैंने तो इस किताब को पढ़ते हुए हिंदी के दर्जन भर ऐसे शब्द जाने जिनका इस्तेमाल मैं तो अब तक नहीं करता था। जो लोग आोशो के दर्शन से प्रभावित हैं उन्हें जानकर अच्छा लगेगा कि हिंदी की प्रिय पुस्तकों में उन्होंने सिर्फ नदी के द्वीप का नाम शामिल किया था।
क्योंकि इस 310 पन्नों के इस उपन्यास को हिंदी की एक क्लासिक किताब का दर्जा प्राप्त है इसलिए आप में से कईयों ने इसे पढ़ा होगा। मैं जानना चाहूंगा कि आपको भुवन, रेखा, गौरा और चंद्र माधव में किस किरदार ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया और क्यूं ?
मुझसे पूछेंगे तो गौरा का सहज व्यक्तित्व मेरे दिल के सबसे करीब रहा। शायद इसलिए कि प्रेम जिस स्वरुप में उसे मिला या नहीं मिला वह उसी में संतोष करती हुई अपने ध्येय को साध्य करने के लिए पूरी मेहनत से जुटी रही। प्रेम में आहत होने के बावजूद उसके प्रेमी के व्यक्तित्व को मलिन करने की चेष्टाएं, उसके विश्वास पर जरा भी असर नहीं करतीं और फिर उसका सहज हास्य बोध मन को तरंगित भी करता रहता है।
वैसे तो हर गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस के दिन शायद ही ऐ मेरे वतन के लोगों, मेरा रंग दे बसंती चोला, बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की, मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती जैसे लोकप्रिय गीत न बजते हों। पर कुछ गैर फिल्मी देशभक्ति गीत ऐसे भी हुए जो अपेक्षाकृत कम बजे पर उनके भाव और संगीत ने करोड़ों भारतवासियों के मन में अमिट छाप छोड़ी । आजादी की 75 वीं वर्षगांठ पर आपको अपनी पसंद का एक ऐसा ही देशभक्ति गीत आज सुनवा रहा हूँ ।
लता संगीतकार जयदेव के साथ
आपको याद होगा कि सन 62 में भारत चीन युद्ध के बाद ऐ मेरे वतन के लोगों गीत बना था और उसे भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अनुरोध पर लता जी ने सबके सामने गाया भी था। कहते हैं कि जब मंच से लता जी ने वो गीत गाया था तो पंडित नेहरू की आँखों में आँसू आ गए थे।
उसके बाद 1971 में जब बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए भारत और पाकिस्तान में युद्ध छेड़ा तो युद्ध के बाद देश के अमर शहीदों के नाम एक और प्यारा सा गीत लता जी ने गाया था। यह गैर फिल्मी गीत संगीतकार जयदेव ने संगीतबद्ध किया था और इसके बोल लिखे थे पंडित नरेंद्र शर्मा ने। क्या धुन बनाई थी जय देव साहब ने ! कमाल के बोल थे पंडित जी के और इस कठिन गीत को लता जी ने जिस तरह निभाया था शायद ही कोई और वैसा निभा सके।
लता पंडित नरेंद्र शर्मा को पिता के रूप में मानती थीं। जब भी वो किसी बात से परेशान होतीं तो वो पंडित जी के पास सलाह मांगने जाती थीं। वही संगीतकार जयदेव के लिए भी उनके मन में बहुत आदर था। नसरीन मुन्नी कबीर को दिए एक साक्षात्कार में लता जी ने बताया था कि
जयदेव वास्तव में जानते थे कि कौन से वाद्य यंत्र गाने में उपयोगी होंगे। वह कभी बहुतायत में वाद्य यंत्रों का उपयोग नहीं करते थे। वह बेहतरीन सरोद बजाते थे और ध्यान रखते थे कि गीत के बोल उत्कृष्ट रहें। जयदेव जी धाराप्रवाह उर्दू और हिंदी बोलते थे। उनका विश्वास था कि गीत के बोल के मायने होने चाहिए और महत्त्व भी।
शायद यही वज़ह थी कि जयदेव जी ने इस गीत के लिए पंडित नरेंद्र शर्मा जैसे मंजे हुए कवि को चुना। पंडित जी विविध भारती के जनक के रूप में मशहूर तो हैं ही, साथ ही वो अपनी लिखी हिंदी कविताओं के लिए भी जाने जाते थे। सत्यम शिवम सुंदरम, प्रेम रोग, सवेरा, भाभी की चूड़ियां जैसी फिल्मों के लिए उनके लिखे गीत आज भी उतने ही चाव से सुने जाते हैं।
लता जी पंडित नरेंद्र शर्मा के साथ
जयदेव ने हिंदी की कई छायावादी कविताएं संगीतबद्ध की हैं। उन कविताओं में आशा भोसले का गाया हुआ मैं हृदय की बात रे मन जिसे जयशंकर प्रसाद ने लिखा था और महादेवी वर्मा कृत कैसे तुमको पाऊं आली मुझे बेहद पसंद है।
ऐ मेरे वतन के लोगों की तुलना में इस गीत का मूड भिन्न था। जहां वह गीत युद्ध में हारने के बाद लिखा गया था वहीं ये गीत भारत की जीत के उपलक्ष्य में बनाया गया था। नरेंद्र जी ने यहां उन शहीदों को याद किया है जिनके बलिदान की वजह से भारत युद्ध में विजयी हुआ था और बांग्लादेश अपनी मुक्ति के पथ पर आगे बढ़ पाया था। इसीलिए नरेंद्र जी ने गीत में लिखा .. वो गए कि रह सके, स्वतंत्रता स्वदेश की....विश्व भर में मान्यता हो मुक्ति के संदेश की। लता जी ने इसे भी एक सार्वजनिक सभा में इंदिरा गांधी के की उपस्थिति में लोगों को सुनाया था।
आप जब भी इस गीत को सुनेंगे, जयदेव की सहज पर तबले और बाँसुरी से सजी मधुर धुन आपका चित्त शांत कर देगी। पंडित नरेंद्र शर्मा के शब्द जहाँ अपने वीर सैनिकों के पराक्रम की याद दिलाते हुए मन में गर्व का भाव भरते हैं, वहीं वे परम बलिदान से मिली विजय के उत्सव में उनकी अनुपस्थिति का जिक्र कर आपके मन को गीला भी कर जाते हैं। भावों के साथ जिस तरह गीत के उतार चढ़ाव को लता जी ने अपनी मीठी आवाज़ में समेटा है वो देशभक्ति गीतों की सूची में इस गीत को अव्वल दर्जे की श्रेणी में ला खड़ा करती है।
संजीव कुमार हमेशा से हिंदी फिल्म जगत के मेरे पसंदीदा अभिनेता रहे हैं। पत्रिकाओं में उन पर छपे आलेखों से उनके जीवन की थोड़ी बहुत झलकियाँ मिलती रहीं पर ऐसे शानदार अभिनेता पर किसी किताब का ना होना अखरता था। अभी हाल ही में मुझे पता चला कि हनीफ झावेरी और सुमंत बात्रा द्वारा पिछले साल ही ये किताब पेंगुइन द्वारा प्रकाशित की गयी है। हनीफ फिल्म पत्रकार तो हैं ही नाटककारों की संस्था IPTA से भी जुड़े रहे और उसी के माध्यम से संजीव कुमार से उनकी पहली मुलाकात भी हुई। किताब में उनके सहलेखक सुमंत बात्रा वैसे तो वित्तीय सलाहकार और वकील हैं पर संजीव कुमार के बहुत बड़े प्रशंसक भी।
संजीव कुमार को गुजरे दशकों हो गए इसलिए लेखक द्वय के लिए उनसे जुड़ी जानकारियाँ जुटाने का काम ज़रा मुश्किल था। इस काम में ज़रीवाला परिवार और संजीव के संगी साथियों ने हनीफ झावेरी की बड़ी मदद की। सुमंत किताब लिखने के दौरान बाद में जुड़े और उन्होंने बतौर फैन संजीव से जुड़ी जो जानकारियाँ सहेजी थीं वो किताब को अंतिम रूप देने में सहायक हुईं।
करीब दो सौ पन्नों की इस पूरी किताब को चार पाँच हिस्सों में बाँटा जा सकता है। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, स्कूल में अभिनय से उनके लगाव और फिर नाटकों में उनकी हिस्सेदारी से लेकर बी ग्रेड फिल्मों तक उनका सफ़र आरंभिक अध्यायों में समेटा गया है। जानकीदास को अपना सचिव बनाने के बाद हिंदी फिल्मों में किस तरह उन्होंने एक के बाद एक झंडे गाड़े इसकी तो गाथा है ही, साथ ही उन फिल्मों के बनने के दौरान हुए मनोरंजक वाकयों का भी जिक्र है। किताब उनकी फिल्मों के बाहर की ज़िदगी से रूबरू कराती हुई, बीमारी से लड़ते हुए उनके अंतिम दिनों तक ले जाती है।
संजीव का बचपन बड़े उतार-चढ़ाव के बीच बीता। गुजरात से ताल्लुक रखने वाले जरीवाला परिवार ने शुरुआत में व्यापार में अच्छी सफलता हासिल की पर पिता के असमय निधन से और अर्जित संपत्ति पर परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा हथियाने के प्रयास की वजह से उनकी मां शांताबेन को परिवार चलाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा।
इन्हीं संघर्षों के बीच उन्होंने नाटकों की दुनिया में कदम रखा। साथ ही फिल्मालय से अभिनय का प्रशिक्षण भी लिया। नाटकों में कमाल का अभिनय दिखाने के बावज़ूद उन्हें ढंग की फिल्में मिलने में पूरा दशक लग गया।
गुलज़ार के साथ संजीव कुमार ने अपनी फिल्मी सफ़र के सबसे अहम किरदार निभाए
जो भी संजीव कुमार की अदाकारी को पसंद करता है वह निश्चय ही उनकी आवाज़ और संवाद को अपनी विशिष्ट शैली से बोलने का कायल होगा। क्या आप यकीन कर सकते हैं कि संजीव फिल्म उद्योग में आने के पहले खुद ही अपनी कमजोर आवाज़ के प्रति सशंकित थे? वे निरंतर अपनी संवाद अदायगी का अभ्यास करते। एक ही पंक्ति को तरह तरह से बोलते हुए आवाज़ को तीव्रता से मुलायमियत की ओर ले जाते और उसमें अलग-अलग भावनाओं का पुट भरते हुए बदलाव करते थे। उनकी फिल्मों में इस मेहनत का नतीजा स्पष्ट दिखता है।
किताब में असली आनंद तब आता है जब फिल्मों के इतर आप उनके व्यक्तित्व के उन पहलुओं को पढ़ते हैं जिनके बारे में आप उनके अभिनीत किरदारों से शायद ही अंदाज़ा लगा पाएँ। अपने सहकलाकारों की मदद और उनके आपसी झगड़े सुलझाने की उनकी प्रवृति, उनकी सादगी, सेट पर की उनकी भयंकर लेट लतीफी, सामिष भोजन से उनका अतिशय प्रेम, एक दो पेग ले लेने के बाद उनके चेहरे पर चिपकी प्यारी मुस्कुराहट.. कितना कुछ है इस किताब में जो बतौर व्यक्ति संजीव कुमार के और करीब ले जाता है।
संजीव कुमार के बारे में कहा जाता है कि वह हंसमुख इंसान थे। सेट पर हमेशा कई कई घंटे विलंब से आते पर आने के बाद इस तरह का व्यवहार करते जैसे कुछ हुआ ही ना हो सह कलाकारों के चेहरे पर चढ़ी त्योरियाँ उनकी प्यारी मुस्कुराहट से कुछ पल में ही गायब हो जाती थीं। किताब में उनके ज़िदादिल व्यक्तित्व के कई प्रसंग हैं।
शतरंज के खिलाड़ी में शबाना आज़मी से काम करने के दौरान पूछा गया कि उन्हें कितने पैसे मिल रहे हैं? शबाना ने पलटकर कहा कि सत्यजीत रे की फिल्म में काम करने के लिए अगर उन्हें अपने हाथ भी कटवाने पड़े तो वो कटवा लेंगी। पास खड़े संजीव कुमार ने झट से चुटकी ली कि उनके हाथ तो सिप्पी साहब ने शोले में पहले ही कटवा दिए थे इसलिए वह ऐसा नहीं कर पाएंगे।😀
त्रिशूल की शूटिंग में शशि कपूर को एक दिन जल्दी निकलना था। शशि की हड़बड़ी देख संजीव कुमार शर्ट और टाई के साथ लुंगी पहनकर बाहर निकले और कैमरामैन से कहा कि तुम ऊपर से हाफ शॉट लो ताकि लुंगी ना दिखे। वह अलग बात है कि शशि कपूर का हंसते-हंसते इतना बुरा हाल हो गया कि शॉट काफी देर के बाद पूरा हो पाया।😁
किताब का प्राक्कथन शत्रुघ्न सिन्हा द्वारा लिखा गया है जो उनके पारिवारिक मित्र थे। संजीव कुमार की तरह सेट पर लेट आने में उनका नाम भी हिंदी फिल्म उद्योग मे् स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता है। वे लिखते हैं कि खिलौना की शूटिंग के दौरान जब संजीव जी की इस आदत से निर्माता एल वी प्रसाद परेशान हो गए तो उन्होंने शत्रुघ्न सिन्हा से कहा कि तुम तो उसके दोस्त हो, तुम उसके घर जाकर उसे साथ लेते आया करो। शत्रु जब उनके घर पहुँचते तो शूटिंग के वक्त उन्हें चाय सिगरेट के साथ आराम करता हुआ पाते। शत्रु तब फिल्मों में नए नए थे। उनको तो मानो अपना गुरु ही मिल गया। नतीजन दोनों संग संग विलंब से आने लगे।
प्रसाद जब उन दोनों से सवाल करते तो वे कहते आज माहिम चर्च के पास दो टैक्सी टकरा गयीं तो कभी ये कि माहिम चर्च के पास बस दुर्घटना हो गयी। तंग आकर एल वी प्रसाद ने दोनों से कहा कि तुम लोग परिस्थिति नहीं बदल सकते कम से कम घटना का स्थान तो बदल दिया करो। 😂
संजीव कुमार खाने पीने के बेहद शौकीन थे। अक्सर रात बिरात दोस्तों के घर पहुंच जाते थे। उनके भोजन प्रेम के कई किस्से इस किताब में आपको मिल जाएँगे। एक तो ये रहा :)
एक बार मौसमी चटर्जी अपने पति के साथ घर से निकल ही रही थीं कि संजीव कुमार आ गए। उन्हें जाते देख बस इतना कहा निकल रही हो तो निकलो। बस अपनी कामवाली को कह दो कि कुछ नॉनवेज बना दे। फिर वह बैठे, फिल्म के वीडियो देखे, खाए पिए और चलते बने। एक बार तो इतनी रात में आ गए कि मौसमी चटर्जी को कहना पड़ा कि आप सिर्फ खाने के लिए यहां आते हैं? अगर ऐसा है तो ड्राइवर को भेज दीजिए हम डिब्बा भिजवा देंगे। 😡
आज भी अंगूर की यादें होठों पर हँसी ले ही आती हैं।
जिन हसीनाओं को संजीव जी से निकटता बनानी होती थी वो उनको डिब्बे भिजवाया करती थीं। संजीव कुमार ने शादी क्यों नहीं की ये प्रश्न भी उनके चाहने वालों के मन में उठता रहा है। किताब में लेखकों ने इस प्रश्न का उत्तर देने की कोशिश की है। प्रेम तो संजीव कुमार ने कई तारिकाओं से किया पर बात कभी बन नहीं पाई। नूतन तो पहले से शादीशुदा थीं और हेमा संजीव व उनके परिवार की शादी के बाद काम ना करने वाली शर्त को मान नहीं पायीं। सुलक्षणा पंडित वाले प्रसंग को एकतरफा बता कर किताब में ज्यादा विस्तार नहीं दिया गया है जो थोड़ा अजीब लगता है क्यूँकि सत्तर के दशक में संजीव कुमार से जुड़ी ख़बरों में सबसे ज्यादा चर्चे उन दोनों के ही होते थे।।
खानपान पर उनका कोई कंट्रोल नहीं था। हृदय की बीमारी उनका खानदानी रोग था। यही वज़ह थी कि अपने पिता व भाईयों की तरह ही वो उम्र में पचास का आँकड़ा छुए बिना ही चल बसे। उन्हें इस बात का आभास था।
एक बार तबस्सुम ने संजीव कुमार से साक्षात्कार के दौरान पूछा कि वह अपनी उम्र से बड़े किरदार हमेशा क्यों निभाते हैं? संजीव का जवाब था कि किसी भविष्यवक्ता ने कहा है कि मैं ज्यादा दिन नहीं जिऊंगा और इसीलिए मैं उस उम्र को पर्दे पर ही जी लेना चाहता हूं।
अगर आप संजीव कुमार के प्रशंसक हैं और उनके व्यक्तित्व, उनके शुरुआती संघर्ष और अपने सहकलाकारों के साथ उनके संबंध के बारे में जानना चाहते हैं तो ये किताब निश्चय ही पठनीय है। ए के हंगल, अंजू महेंद्रू, हेमा, राजेश खन्ना, नूतन, शत्रुघ्न सिन्हा, मौसमी चटर्जी, दिलीप कुमार, शर्मीला टैगोर, सारिका, शबाना आज़मी से जुड़े तमाम रोचक किस्से किताब मैं मौज़ूद हैं जिनमें कुछ का जिक्र मैंने ऊपर किया।
बतौर लेखक हनीफ और बात्रा कहानी कहने की कला में औसत ही कहे जाएँगे, खासकर उन हिस्सों में जहाँ परिवार से जुड़े लोगों के कथ्य प्रस्तुत किए गए हैं। पर संजीव कुमार पर किया गया उनका शोध और उनके साथियों के संस्मरण इस किताब को बेहद रुचिकर बनाते हैं। वे बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने एक ऐसे अभिनेता के जीवन को उसके चाहने वालों के सामने प्रस्तुत किया है जिसके बारे में किताब की शक़्ल में पहले कुछ नहीं लिखा गया।
वैसे इस ब्लॉग पर मेरे द्वारा पढ़ी अन्य पुस्तकों का मेरी रेटिंग के साथ सिलेसिलेवार जिक्र यहाँ पर।
लोकगीतों की एक अलग ही मिठास होती है क्यूँकि उसके बोल जनमानस के बीच से निकलते हैं। उनमें अपने घर आँगन, रीति रिवाज़, आबो हवा की एक खुशबू होती है। उसके बोलों में आप उस इलाके के जीवन की झलक भी सहजता से महसूस कर पाते हैं। यही वज़ह है कि ऐसे गीत पीढ़ी दर पीढ़ी उत्सवों या बैठकी में गाए गुनगुनाते जाते रहे हैं। ऐसा ही एक लोकगीत जिसे आज आपके सामने पेश कर रहा हूँ वो करीब सौ साल पहले रचा गया और देखिए आज इतने साल बाद भी इंस्टाग्राम पर धूम मचा रहा है।
ऐसा कहते हैं कि इस गीत को मूलतः पाकिस्तान के ख़ैबर पख्तूनवा राज्य के डेरा इस्माइल खाँ कस्बे से किसी पोखरी बाई बात्रा ने लिखा था। डेरा इस्माइल खाँ में उस वक्त साराइकी भाषा बोली जाती थी जो पंजाबी से बहुत हद तक मिलती जुलती है। बाद में वहीं के प्रोफेसर दीनानाथ ने इसे पहली बार संगीतबद्ध किया। आज़ादी मिलने के बाद संगीतकार विनोद ने 1948 में फिल्म चमन में इसे पुष्पा हंस जी से गवाया। देश के बँटवारे के बाद तो दीनानाथ जी दिल्ली चले आए पर ये लोकगीत सरहद के दोनों ओर पंजाब के गाँव कस्बों में गूँजता रहा।। फिर तो सुरिंदर कौर, अताउल्लाह खान से होते हुए हाल फिलहाल में इसके बदले हुए रूपों को आयुष्मान खुराना और अली सेठी जैसे युवा गायकों ने आवाज़ दी है।
पर इन सारे गायकों में जिस तरह से अली सेठी ने अपनी गायिकी और गीत की धुन में से गीत के मूड को पकड़ा है वैसा असर औरों को सुन कर नहीं आ पाता। इस लोकगीत को सुनते हुए आप शब्दों का अर्थ ना समझते हुए भी गीत में अंतर्निहित विरह के स्वरों को दिल में गूँजता पाते हैं। चाँद के माध्यम से अपने प्रेमी को उलाहना देते हुए इस लंबे लोकगीत के सिर्फ दो अंतरे ही अली सेठी ने इस्तेमाल किए हैं पर वही काफी हैं आपका दिल जीतने के लिए
सराइकी में इस तरह के लोकगीत को दोहरा या दोडा कहा जाता है। इसकी दो पंक्तियों के अंतरों में जो पहली पंक्ति होती है वो सिर्फ रिदम बनाने का काम करती है और अर्थ के संदर्भ में उसका दूसरी से कोई संबंध नहीं होता। चलिए इस गीत के बोलों के साथ का अर्थ आपको बता दूँ ताकि सुनने वक्त भाव और स्पष्ट हो जाए।
चन कित्थाँ गुज़ारी आयी रात वे? मेंडा जी दलीलां दे वात वे चन कित्थाँ गुज़ारी आयी?
चाँद तुमने पिछली रात किसके साथ , कहाँ गुजारी? तुम मुझसे मिलने भी नहीं आए। सारी रात मेरे दिल मुझसे ये सवाल करता रहा और मैं तरह तरह की दलीलें दे कर उसे दिलासा देती रही।
कोठड़े उत्थे कोठड़ा माही
कोठे सुखदियाँ तोरियाँ
कोठड़े उत्थे कोठड़ा माही
कोठे सुखदियाँ तोरियाँ
कल्लियाँ रातां जाग के असां
गिनियाँ तेरियां दूरियां
छत के ऊपर जो छत है वहाँ कल सब्जियाँ सुखाई जा रही थीं वहीं रात में उसी छत पर मैं अकेले जागती हुई सोच रही थी कि तुम मुझसे कितनी दूर हो।
मैं बन जावां माछली तू बगला बन के आ भला वे चन कित्थाँ गुज़ारी आयी रात वे..
छत के ऊपर जो छत है वहाँ एक कौआ बैठा था और मैं ये सोच रही थी कि काश मैं मछली बन जाती और तुम बगुला बन कर आते और मुझे उठा कर अपने देश में ले जाते।
पाकिस्तान से ताल्लुक रखने वाले 38 वर्षीय अली सेठी पहली बार सुर्खियों में 2009 में आए थे जब उन्होंने The Wish Maker नाम की एक किताब लिखी थी। उनकी किताब को वो सफलता तो नहीं मिली जिसकी उन्हें उम्मीद थी। उसके बाद पिछले एक दशक से संगीत की ओर उनका गंभीरता से झुकाव हुआ। चन कित्थाँ गुज़ारी रात वे तो 2017 में लोकप्रिय हुआ पर फिलहाल कोक स्टूडियो में उनका गाया हुआ पसूरी इंटरनेट पर छाया हुआ है।
इस गीत में भी साद सुल्तान के साथ मिलकर जो उन्होंने माहौल रचा है वो दिल को सुकून पहुँचाता है। गिटार और ढोलक के साथ बीच में बजती बीन खासतौर पर ध्यान खींचती है। अली सेठी की आवाज़ में इस लोक गीत में छुपा दर्द सजीव हो उठता है। तो कभी सुनिए इस गीत को अकेले छत पर बैठे हुए चाँद तारों के साथ और याद कीजिए अपने किसी करीबी को जिससे आप वर्षों से ना मिल पाए हों..
इस गीत को पुष्पा हंस और उसके बाद सुरिंदर कौर ने एक अलग अंदाज़ में गाया था। सुरिंदर कौर को भी सुन लीजिए..
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