रविवार, अप्रैल 23, 2017

चाँद फिर निकला, मगर तुम न आए : सचिन दा व मजरूह की जुगलबंदी का कमाल Chand Phir Nikla

1957 में एस डी बर्मन साहब की तीन फिल्में प्रदर्शित हुई थीं। प्यासा, पेइंग गेस्ट और नौ दौ ग्यारह। हिट तो ये तीनों फिल्में रहीं। पर इनमें गुरुदत्त की प्यासा हर लिहाज़ से अलहदा फिल्म थी। फिल्म का संगीत भी उतना ही चला। फिल्म के गीतकार थे साहिर लुधियानवी। अक्सर जब गीतकार संगीतकार मिलकर इस तरह की सफल फिल्में देते हैं तो उनकी जोड़ी और पुख्ता हो जाती है  पर सचिन दा की उसी साल रिलीज़ फिल्मों में साहिर का नाम नदारद था और उनकी जगह ले ली थी मजरूह सुल्तानपुरी ने।

सचिन दा और साहिर की अनबन की पीछे उनके अहम का टकराव था। साहिर को एक बार ओ पी नैयर ने एक फिल्मी पार्टी में ये कहते सुना था कि मैंने ही सचिन दा को बनाया है। ज़ाहिर है साहिर के मन में ये बात रही होगी कि गीतकार के रूप में उनका योगदान संगीतकार से ज्यादा है। ऐसा कहा जाता है कि प्यासा के निर्माण के दौरान वे अपना पारिश्रमिक सचिन दा से एक रुपये ज्यादा रखने पर अड़े रहे। शायद उनके इस रवैये से सचिन दा खुश नहीं थे।

सचिन दा की मजरूह के साथ आत्मीयता थी। इसलिए जब पेइंग गेस्ट में गीतकार को चुनने का वक़्त आया तो उन्होंने मजरूह को बुला लिया। सचिन दा मजरूह को मुजरू कह कर बुलाते थे। चाय, काफी और पान के साथ दोनों की घंटों सिटिंग चलती। सचिन दा धुन रचते और बोलों से धुन का तालमेल बिठाते। कभी कभी तो एक ही गीत के लिए दस या बीस धुनें बनती। ये सिलसिला तब तक चलता जब तक सचिन दा खुद संतुष्ट नहीं हो जाते। अगर कहीं दिक्कत होती तो मुजरू को बोल बदलने को कहते।


पेइंग गेस्ट के लिए सचिन दा ने एक बेहद मधुर धुन  बनाई थी जिस पर मजरूह ने मुखड़ा दिया था चाँद फिर निकला मगर तुम ना आए। विरह की भावना से ओतप्रोत इस गीत में जिस तरह मजरूह ने चाँद जैसे बिम्ब का प्रयोग किया था वो इस गीत को अनुपम बना देता है।

चाँद फिर निकला, मगर तुम न आए
जला फिर मेरा दिल, करुँ क्या मैं हाय
चाँद फिर निकला …


पर मुझे इस गीत की सबसे दिल को छूती पंक्ति वो लगती है जब मजरूह पहले अंतरे में कहते हैं

ये रात कहती है वो दिन गये तेरे
ये जानता है दिल के तुम नहीं मेरे

खड़ी मैं हूँ फिर भी निगाहें बिछाये
मैं क्या करूँ हाय के तुम याद आए
चाँद फिर निकला …


रात के साथ दिन के इस सहज मेल से अच्छे दिन चले जाने का जो भाव पैदा किया मजरूह ने उसका जवाब नहीं।
 
सुलगते सीने से धुँआ सा उठता है
लो अब चले आओ के दम घुटता हैं
जला गये तन को बहारों के साये
मैं क्या करुँ हाय के तुम याद आए
चाँद फिर निकला …


मजरूह अपने साक्षात्कारों में अक्सर कहा करते थे कि सचिन दा को ज्यादा साज़ और साज़िंद पसंद नहीं थे। वे  अक्सर कोशिश करते कि कम से कम वाद्य यंत्रों से काम चलाया जाए। शंकर जयकिशन से उलट आर्केस्ट्रा के प्रयोग से वो दूर रहना पसंद करते थे। सचिन दा का मानना था कि गाने पर अगर ज्यादा  जेवर चढ़ेगा तो गाना तो फिर दिखेगा ही नहीं। प्रील्यूड व इंटरल्यूड्स को छोड़ दें तो इस गीत में लता की आवाज़ के साथ घटम के आलावा कोई ध्वनि नहीं आती। पर मजरूह के बोल और सचिन दा की मेलोडी इतनी जबरदस्त थी कि वहाँ  संगीत का आभाव ज़रा भी नहीं खटकता। यही वजह है कि ये गीत छः दशकों बाद भी हम सबके दिलों पर अपनी गिरफ्त बनाए हुए है।

फिल्म में देव आनंद की प्रतीक्षा करती नूतन के गीत को भावों को अपनी भाव भंगिमा से जोड़ा है कि लता की आवाज़ का दर्द पर्दे पर भी बखूबी उभर आता है। तो आइए सुनते हैं इस गीत को..

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन सुकमा नक्सली हमला और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. यह मेरे पसंदीदा गीतों में से एक है..बेहद सुंदर गीत..

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  3. आलोक, दुर्गा व अनीता ये आप सब का भी पसंदीदा नग्मा है जान कर प्रसन्नता हुई।

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  4. नूतन खुद भी गायिका है इसीलिए यह संभव हो पाया

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  5. Annapurna वैसे वो एक कुशल अभिनेत्री भी थीं।

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  6. बहुत सुन्दर। गीत वाकई कर्णप्रिय है।

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  7. जानकर खुशी हुई रश्मि कि आपको भी ये गीत पसंद है।

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