जगजीत सिंह के जाने के बाद ग़ज़ल के एलबमों का अकाल सा हो गया है। संगीत कंपनियों को लगता है कि लोगों को ख़ालिस ग़ज़ल की समझ नहीं है इसलिए ग़ज़लों के जो इक्का दुक्का एलबम रिलीज़ होते हैं उनमें सम्मिलित ग़ज़लों के बोल इतने छिछले होते हैं कि वो ग़ज़ल कम हल्के फुल्के गीत ज्यादा लगते हैं। यही वज़ह रही है कि पिछले सालों में नामी कलाकारों की फेरहिस्त होने के बावज़ूद ऐसे एलबम अपनी कोई विशेष छाप नहीं छोड़ पाए। दरअसल ग़ज़लों की रुह उनके शब्दों में बसती है। दो पंक्तियों के मिसरे में गहरे से गहरे भाव को कह देने की सलाहियत ही ग़ज़ल को विशिष्ट बनाती है। ग़जल में अरबी फारसी शब्दों का ज्यादा समावेश ना हो पर उसके भाव गहरे हों, इन दो बातों में संतुलन बिठाने में जगजीत सिंह को महारत हासिल थी। खूबसूरत कविता और उसपर उनकी आवाज़ सोने पे सुहागा का काम करती थी।
आवाज़ें तो आज भी हमारे पास हैं पर गायकों और निर्माताओं द्वारा एलबम में सही ग़ज़लों का चुनाव इस युग की सबसे बड़ी समस्या है। संगीत निर्माताओं को समझना चाहिए कि ग़ज़लों को सुनने समझने वाला एक अपेक्षाकृत छोटा ही सही पर एक प्रबुद्ध वर्ग है जो आज यू ट्यूब के ज़माने में भी अच्छी ग़ज़लों को हाथों हाथ वायरल बना सकता है। ग़ज़लों के सरलीकरण से ऐसा ना हो कि वे ना तो आम श्रोता तक पहुँच पाएँ ना खास तक।
कुछ दिनों पहलें ग़ज़लों की तलाश मुझे एक ऐसे एलबम तक ले गई जो आज से चार साल पहले एक नई कंपनी रेड रिबन ने रिलीज़ की थी। नए पुराने कलाकारों का एक अच्छा संगम था इस एलबम में। एक ओर राशिद खाँ, अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन, अनूप जलोटा जैसे उस्ताद ग़ज़ल गायक थे तो दूसरी ओर सोनू निगम, कविता कृष्णामूर्ति, जावेद अली और अरिजीत सिंह जैसे मशहूर पार्श्व गायकों की आवाज़ें भी। एलबम का नाम था कुछ दिल ने कहा। पूरे एलबम में कुल ग्यारह ग़ज़लें थी जिन्हें लिखा था गुजराती ग़ज़लकार हर्ष ब्रह्मभट्ट ने।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हर्ष ब्रह्मभट्ट गुजरात सरकार में अतिरिक्त सचिव के पद से रिटायर हुए। प्रशासनिक सेवा में योगदान करते हुए पिछले दो दशकों में उनके कई ग़ज़ल संग्रह जैसे कंदील, सरगोशी, मेरा अपना आसमान, ख़ामोशी है इबादत आदि प्रकाशित हुए। जहाँ तक इस एलबम की बात है मैं ये तो नहीं कहूँगा कि मुझे सारी ग़ज़लें पसंद आयीं पर कुछ तो निश्चय ही दिल को छू गयीं। उनमें से एक थी...आसमां की परी सी लगती हो जिसे सुनकर दिल खुश हो गया और मैंने इसे रिकार्ड कर लिया। आप भी सुनिए
आसमां की परी सी लगती हो
तुम मुझे ज़िंदगी सी लगती हो
फूल भी सज़दे करते हों जिसको
ऐसी दिलकश कली सी लगती हो
खुशबू दिल की ज़मीं से आती है
तुम इस पर चली सी लगती हो
सादगी का सरापा हो पैकर
और फिर भी सजी सी लगती हो
यानि सिर से पैर तक तुम सादगी की प्रतिमूर्ति पर तुम्हारा लावण्य कुछ ऐसा है कि तुम फिर भी सजी सी लगती हो।
इस ग़ज़ल को एलबम में हुसैन बंधुओं ने अपने चिरपरिचित अंदाज़ में गाया है। वो ग़ज़ल आप यहाँ सुन सकते हैं।
वैसे पूरे एलबम में इतने नामचीन गायकों में सबसे ज्यादा मन को सुकून दे गए अरिजीत सिंह। आपको याद होगा कि हैदर में अरिजीत ने मेहदी हसन की मशहूर ग़ज़ल गुलों में रंग भरे को निभाने की ईमानदार कोशिश की थी। फिर यू ट्यूब पर आज जाने की ज़िद ना करो को गाने का प्रयास सराहा गया था। पर ये दोनों अपने आप में मशहूर ग़ज़लें थीं। कुछ दिल ने कहा में उनकी गायिकी को इस रूप में सुनना एक ताज़ी हवा सा लगा। उन्हें सुनकर ये समझ आता है कि फिल्मी गीतों के साथ साथ ग़ज़ल गायिकी में भी वो नाम कमा सकते हैं बशर्ते उन्हें सही मौके मिलें।
ज़िंदगी के खट्टे मीठे अनुभवों से गुजरते हुए अंत में एक वक़्त ऐसा आता है जब हम माज़ी के उन लमहों को मन के तराजू में तौलते हैं। ये ग़ज़ल उन्हीं लमहों को फिर से जिंदा करती चलती है। ग़ज़ल का संगीत संयोजन भी कर्णप्रिय और इसका श्रेय जाता है मशहूर भजन व ग़ज़ल गायक अनूप जलोटा को।
रिश्तों के सारे मंज़र चुपचाप देखता हूँ
हाथों में सबके खंजर चुपचाप देखता हूँ
जिसमें पला है मेरे बचपन का लम्हा लम्हा
उजड़ा हुआ सा वो घर चुपचाप देखता हूँ
धरता है कितने तोहमत मुझपे वजूद मेरा
जब भी मैं दिल के अंदर चुपचाप देखता हूँ
वो रहगुज़र कभी जो मंज़िल की इब्तिदा थी
उसको मैं अब पलटकर चुपचाप देखता हूँ
हाथों में सबके खंजर हाथों में सबके खंजर
रिश्तों के सारे मंज़र चुपचाप देखता हूँ
(इब्तिदा - आरंभ)
