गुरुवार, मार्च 30, 2006

छिप छिप अश्रु बहाने वालों ........

जिन्दगी में छोटी बड़ी मायूसी तो आती जाती रहती हैं । उन्हें कितने दिनों कोई अपने ऊपर हावी होने देता रहे । नीरज की ये कविता उन लोगों पर एक तीखा कटाक्ष है जो सपनों के टूटने और किसी के जुदा होने का मातम इस तरह मनाते हैं जैसे उसके आलावा उनकी जिन्दगी के कोई मायने ही ना हों ।
ये कविता हमें प्रेरित करती है गम के अंधेरों से बाहर निकलने की ...
और इस कठोर यथार्थ को समझने की, कि संगी साथी, सपने सब छूट जायें भी तो ये जीवन चलता रहता है,.बिना रुके बिना थमें...
तो क्यूँ ना हम बिखरे हुये तिनकों को जोड़ें और चल पड़ें जीवन रुपी पर्व का हर्षोल्लास से स्वागत करने!:)

रविवार, मार्च 26, 2006

आधुनिक हिन्दी कविता क्यूँ है भूली बिसरी ?

अगर हास्य कवियों की बात छोड दी जाए तो आधुनिक हिन्दी कविता के इस युग में इक आध ही ऐसे कवि हैं जिन्हें सुनने में असीम आनंद की अनुभूति होती हो । क्यूँ है ऐसी हालत इस युग की कविता की ? इस दुर्दशा का एक कारण तो ये भी रहा है कि आज के कवियों ने कविता के नये स्वरूप में सिर्फ विचारों को अहमियत दी और लय को तुकबंदी का नाम दे के उसकी सर्वथा उपेछा की ।

मेरा ये मानना है कि अगर भावना में कविता के प्राण बसते हैं तो उसकी लय में उसका शरीर। शब्दों को लय की वेणी से गुथा जाए तो उसके भाव संगीत की लहर पैदा कर आत्मा तक पहुँचते हैं । आत्मा कितनी पवित्र क्यूँ ना हो, शरीर के बिना उसका शिल्प अधूरा है।

इसलिये अगर आप से कोई ये कहे कि हिन्दी कविता सुनाओ तो यकीनन आप आज की पत्र पत्रिकाओं में छपने वाली नहीं बल्कि स्कूल में पढ़ी गयी कोई कविता ही सुनाएँगे । क्यूँकि उस वक्त की कविता दिल में बसती थी और आज की कागज के पन्नों पर ।

इसलिये आज भी अगर कबीर और रहीम के दोहों में आप सही दिशा खोज पाते हों .....आज भी अगर दिनकर और सुभद्रा कुमारी चौहान की कृतियाँ याद कर ही आपके खून में गर्मी आ जाती हो........ महादेवी वर्मा और जयशंकर प्रसाद की भाव प्रवणता देख के आज भी आपकी आखें नम हो जाती हों ....मैथलीशरण गुप्त कि यशोधरा और बच्चन की मधुशाला का प्रतिबिम्ब आज भी आपकी यादों में विद्यमान हो.... तो आगे की कड़ियों में आपकी भागीदारी चाहूँगा१

इस ब्लॉग की पहली वर्षगांठ जो अगले महिने आ रही है उसी पुरानी हिन्दी कविता को समर्पित रहेगी। शुरूआत करूँगा मैं गोपाल दास नीरज से जो आज के युग से ताल्लुक रखने के बावजूद उसी पुरानी काव्य शैली का निर्वहन करते आये हैं। कविता लिखने के साथ साथ उसे लयबद्ध तरीके से गाने में उनका कोई सानी नहीं है । इस मायने में उन्होंने बच्चन की विरासत को आगे बढ़ाया है.....
 

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