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शुक्रवार, अप्रैल 19, 2013

क्रिकेट,रेडियो और मेहदी हसन : देख तो दिल कि जाँ से उठता है...ये धुआँ सा कहाँ से उठता है ?

बड़ा अज़ीब सा शीर्षक है ना। पर इस ग़ज़ल के बारे में बात करते वक़्त उससे परिचय की छोटी सी कहानी आपके सम्मुख ना रखूँ तो बात अधूरी रहेगी। बात अस्सी के दशक की  है। क्रिकेट या यूँ कहूँ उससे ज्यादा उस वक़्त मैच का आँखों देखा हाल सुनाने वाली क्रिकेट कमेंट्री का मैं दीवाना था। संसार के किसी कोने मैं मैच चल रहा हो कहीं ना कहीं से मैं कमेंट्री को ट्यून कर ही ले लेता था। बीबीसी और रेडियो आस्ट्रेलिया के शार्ट वेव (Short Wave, SW) मीटर बैंड्स जिनसे मैच का प्रसारण होता वो मुझे जुबानी कंठस्थ थे। यही वो वक़्त था जब शारजाह एक दिवसीय क्रिकेट का नया अड्डा बन गया था। दूरदर्शन और आकाशवाणी शारजाह में होने वाले इन मैचों का प्रसारण भी नहीं करते थे। ऐसे ही एक टूर्नामेंट के फाइनल में भारत व पाकिस्तान का मुकाबला था। मेरी बचपन की मित्र मंडली मुझे पूरी आशा से देख रही थी। मैंने भी मैच शुरु होने के साथ ही शार्ट वेव के सारे स्टेशन को एक बार मंथर गति से बारी बारी ट्यून करना शुरु कर दिया।

जिन्हें रेडियो सीलोन या बीबीसी हिंदी सर्विस को सुनने की आदत रही होगी वो भली भाँति जानते होंगे कि उस ज़माने (या शायद आज भी) में शार्ट वेव के किसी स्टेशन को ट्यून करना कोई विज्ञान नहीं बल्कि एक कला हुआ करती थी। मीटर बैंड पर लाल सुई के आ जाने के बाद हाथ के हल्के तेज दबाव से फाइन ट्यूनिंग नॉब को घुमाना और साथ ही ट्राजिस्टर को उचित कोण में घुमाने की प्रक्रिया तब तक चलती रहती थी जब तक आवाज़ में स्थिरता ना आ जाए। ऐसे में किसी ने ट्रांजिस्टर हिला दिया तो सारा गुस्सा उस पर निकाला जाता था।
मेहदी हसन व नसीम बानो चोपड़ा

नॉब घुमाते घुमाते 25 मीटर बैंड पर अचानक ही उर्दू कमेंट्री की आवाज़ सुनाई दी। थोड़ी ही देर में पता लग गया कि ये कमेंट्री रेडियो पाकिस्तान से आ रही है। उसके बाद तो शारजाह में भारत के 125 रनों के जवाब में पाकिस्तान को 87 रन पर आउट करने का वाक़या हो या चेतन शर्मा की आख़िरी गेंद पर छक्का जड़ने का.... सब इसी रेडियो स्टेशन की बदौलत मुझ तक पहुँच सका था। ऐसे ही एक दिन लंच के अवकाश के वक़्त रेडियो पाकिस्तान पर आ रहे एक कार्यक्रम में ये ग़ज़ल पहली बार कानों में पड़ी थी। मेहदी हसन साहब की आवाज़ का ही असर था कि एक बार सुन कर ही ग़ज़ल की उदासी दिल में घर कर गयी थी। तब उर्दू जुबाँ से जगजीत की ग़ज़लों के माध्यम से हल्का फुल्का राब्ता हुआ था तो  मीर तकी 'मीर' की लिखी ये ग़ज़ल पूरी तरह कहाँ समझ आती पर जाने क्या असर था इस ग़ज़ल का कि उसके बाद जब भी हसन साहब की आवाज़ कानों में गूँजती...दिल धुआँ धुआँ हो उठता।



अब जब इस ग़ज़ल का जिक्र छिड़ा है तो आइए देखें जनाब मीर तकी 'मीर' ने क्या कहना चाहा है अपनी इस ग़ज़ल में

देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है

गोर किस दिल-जले की है ये फ़लक
शोला इक सुबह याँ से उठता है


मतले के बारे में क्या कहना! असली शेर तो उसके बाद आता है जब मीर पूछते हैं..हमारे चारों ओर फैले आसमाँ में आख़िर ये किस की कब्र है ? जरूर कोई दिलजला रहा होगा वर्ना इस कब्र से रोज़ सुबह एक शोला ( सूरज का गोला) यूँ नहीं उठता।

खाना-ऐ-दिल से जिनहार न जा
कोई ऐसे मकान से उठता है

नाला सर खेंचता है जब मेरा
शोर एक आसमान से उठता है

मेरे दिल से तुम हरगिज़ अलग ना होना। भला कोई अपने घर से यूँ जुदा होता है। रो रो कर की जा रही ये फ़रियाद मेरे दिल को विकल कर रही है। मुझे आसामाँ से एक आतर्नाद सा उठता महसूस हो रहा है।

लड़ती है उस की चश्म-ऐ-शोख जहाँ
इक आशोब वाँ से उठता है

जब भी उस शोख़ नज़र से मेरी निगाह मिलती है दिल में इक घबराहट ...इक बेचैनी सी फैल जाती है।

बैठने कौन दे है फिर उस को
जो तेरे आस्तान से उठता है

ऐ ख़ुदा जिस शख़्स से तेरा करम ही उठ गया उसे फिर कहाँ ठौर मिलती है?

यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है

इश्क इक 'मीर' भारी पत्थर है
बोझ कब नातवाँ से उठता है


मैंने तुम्हारी गली से आना जाना क्या छोड़ा, लगता है जैसे ये संसार ही मुझसे छूट गया है। सच तो ये है मीर कि इश्क़ एक ऐसा भारी पत्थर है जिसका बोझ शायद ही कभी इस कमजोर दिल से हट पाए।

वैसे क्या आप जानते हैं कि मीर की इस ग़ज़ल का इस्तेमाल एक हिंदी फिल्म में भी किया गया है। वो फिल्म थी पाकीज़ा। पाकीज़ा में कमाल अमरोही साहब ने फिल्म के संवादों के पीछे ना कई ठुमरियाँ बल्कि ये ग़ज़ल भी डाली है। इधर मीना कुमारी फिल्म के रुपहले पर्दे पर अपने दिल का दर्द बयाँ करती हैं वहीं पीछे से ये नसीम बानो चोपड़ा की आवाज़ में ये ग़ज़ल डूबती उतराती सी बहती चलती है।



वैसे नसीम बानो की गायिकी भी अपने आप में एक पोस्ट की हक़दार है पर वो चर्चा फिर कभी! वैसे आपका इस ग़ज़ल के बारे में क्या ख्याल है?

गुरुवार, अगस्त 02, 2007

दिखाई दिए यूँ, कि बेखुद किया.. : फिल्म बाज़ार से लिया मीर तकी 'मीर' का क़लाम


बाज़ार फिल्म में लता मंगेशकर की गाई इस ग़ज़ल में मीर तकी 'मीर' के लिखे हुए चंद शेरों को शामिल किया गया है। ख़य्याम साहब की धुन, लता जी की गायिकी और पर्दे पर सुप्रिया पाठक की अदायगी का अंदाज़ ही कुछ ऍसा है कि ये ग़ज़ल, पूरा मर्म ना समझते हुए भी, मन में कुछ अज़ीब सी क़शिश छोड़ जाती है।

पिछले हफ्ते 'भानुमति का पिटारा' वाले अमित कुलश्रेष्ठ ने इसके बारे में तफ़सील से लिखने को कहा। मुझे याद पड़ा कि एक दफ़ा अंतरजाल के किसी फोरम पर इसकी चर्चा हुई थी। लिहाजा डॉयरी के पन्ने उलटे और पूरी ग़ज़ल ही लिखी मिल गई। तो हुजूर जितना मैं समझ पाया मीर की इस ग़ज़ल को, वो आप तक पहुँचाने कि कोशिश करता हूँ....

मतले में मीर साहब कहते हैं कि जिंदगी मैंने फ़कीरों सी काटी। चाहा बस इतना कि सब राजी खुशी रहें..

फ़कीराना आए सदा कर चले
मियाँ खुश रहो ये दुआ कर चले


मेरा निश्चय था तुम्हारे साथ जीने मरने का..आज उसी सोच को मैंने तुम्हारे सामने ज़ाहिर कर दिया ताकि उसे निभाने को हमेशा तैयार रहूँ

जो तुझ बिन ना जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफा कर चले


मन में कोई उम्मीद तो नहीं फिर भी निगाह है कि उस राह से हटती ही नहीं। पर ये कैसी बेरुखी या रब ... कि तुम आ॓ए भी तो मुँह छिपाकर चलते बने ?

कोई नाउम्मीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छिपा कर चले


मिलने की बेक़रारी इस कदर थी कि रगों में बहते खून की लाली सारे शरीर पर छा गई थी। बस ये समझ लो मेरे महबूब, कि तुम्हारी गली, तुम्हारे दरबार में बस, अपने खून से नहाकर आ रहे हैं।

बहुत आरज़ू थी गली की तेरी
सो यां से लहू में नहा कर चले


और ये जो अगला शेर है उसे फिल्मी ग़ज़ल में बतौर मुखड़े की तरह इस्तेमाल किया गया है। ये शेर मुझे पूरी ग़ज़ल की जान लगता है। मीर साहब कहते हैं कि तुम्हारी इक झलक पाकर हम इस कदर मदहोश हो चुके हैं कि हमें अब अपनी ख़बर ही नहीं है। या यूँ कहें कि मेरा वज़ूद तेरे हुस्न की चाँदनी में समा सा गया है। सादगी भरे अल्फ़ाज़ में कितनी खूबसूरती से गहरी बात कह गए हैं मीर!


दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया
हमें आप से ही जुदा कर चले


जिंदगी भर ये मस्तक तेरी अराधना में झुका ही रहा। कम से कम इस बात का तो संतोष है कि हमने तेरी ख़िदमत में कोई कमी नहीं रखी।

जबीं सज़दा करते ही करते गई
हक़-ए-बंदगी हम अदा कर चले


इतनी शिद्दत और गहराई से मैंने तुझे पूजा मेरे दोस्त कि जिन्होंने मेरी ये इबादत देखी, वे सारे लोग तुझे भगवान का ही रूप मान बैठे।

परस्तिश कि यां तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले


सारी ज़िदगी ग़ज़ल के अशआर मुकम्मल करने में गुजर गई। पर आज देखो हमारी वो मेहनत रंग ला रही है और ये काव्य कला कितनी फल-फूल रही है

गई उम्र दर बंद‍-ए-फिक्र-ए-ग़ज़ल
सो इस फ़न को बढ़ा कर चले


मक़ते में मीर का अंदाज कुछ अध्यात्मिक हो जाता है। कहते हैं कि ग़र कोई हमसे पूछे कि इस संसार में हमें किस लिए भेजा गया था और हमने अपने इस जीवन से क्या कुछ पाया तो हम क्या जवाब देंगे?

कहें क्या जो पूछे कोई हम से मीर
ज़हाँ में तुम आए थे क्या कर चले


बाज़ार फिल्म की इस ग़जल को आप यहाँ भी सुन सकते हैं।


और महफ़िल का वो दृश्य भी देखना चाहें जहाँ सुप्रिया, आँखों ही आँखों में इस ग़जल के माध्यम से फारूख शेख साहब से अपनी मोहब्बत का इज़हार कर रही हैं तो ये वीडियो अवश्य देखें।



Dikhai Diye Yoon Ke Bekhud Kiya by waferthin
 

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