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गुरुवार, जुलाई 14, 2016

निदा फ़ाज़ली कैसे आए इस जहान ए फानी में : अपनी अपनी सीमाओं का बंदी हर पैमाना है Apni Apni Seemaon Ka...

निदा फ़ाज़ली को सबसे पहले जगजीत व चित्रा की ग़ज़लों से ही जाना था। उनकी शायरी से मेरी पहली मुलाकात अस्सी के दशक में तब हुई थी जब रेडियो पर बिनाका गीत माला में चित्रा सिंह की गाई ग़ज़ल सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो अप्रत्याशित रूप से पाँचवी पायदान तक जा पहुँची थी। फिर तो उनकी नज़्मों , ग़ज़लों और दोहों से जगजीत की आवाज़ की बदौलत जान पहचान होती रही। बाद में उनके संस्मरण भी पढ़े और शायरी की उनकी कुछ किताबें भी और तब लगा कि उनका गद्य लेखन भी उतना ही सुघड़ है जितनी की उनकी लिखी नज़्में और दोहे। 


निदा की ग़ज़लें वो मुकाम नहीं छू पायीं जो उनके समकालीन शायर बशीर बद्र की ग़ज़लों को मिला पर उनकी नज़्मों की गहराई व दार्शनिकता वक़्त के साथ मन के अंदर उतरती चली गयी । उनकी शायरी का यही अक़्स मुझे उनकी कुछ ग़ज़लों में हाल फिलहाल सुनने को मिला तो सोचा क्यों ना उन्हें आपसे बाँट लूँ पर उससे पहले क्या ये जानना बेहतर ना होगा कि ज़िंदगी के प्रति निदा की सोच किन पारिवारिक परिस्थितियों में रहते हुए विकसित हुई।

निदा फ़ाज़ली की ज़िंदगी में झांकना हो तो उनकी आत्मकथ्यात्मक किताब "दीवारों के बीच" से गुजरिए। अपने आस पास का माहौल वे इतनी बेबाकी से बयां करते हैं कि आप हतप्रध होने के  साथ उनकी लेखनी के कायल भी  हो जाते हैं। निदा का जन्म एक  मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। पिताजी सिंधिया स्टेट में अफ़सर थे। ऊपर की आमदनी पूरी थी और मिजाज़ के रंगीन तबियत वाले थे और ऐसा मैं नहीं कह रहा बल्कि निदा अपनी किताब में कहते हैं। माँ धार्मिक प्रवृति की थीं और दिल्ली से ताल्लुक रखती थीं। शेर ओ सुखन में उनके माता पिता दोनों की ही दिलचस्पी थी। निदा इस दुनिया में कैसे आए उसका भी बड़ा रोचक रेखाचित्र उन्होंने अपनी किताब में खींचा है..

"...हर बच्चे की पैदाइश दिल्ली में होती है। वो अब तीसरे बच्चे की माँ बनने वाली हैं। दो के बाद तीसरा बच्चा ऐसी हालत में ठीक नहीं पर क्या किया जाए? तीन महीने पूरे हो चुके हैं...ऐसे काम छुप छुपा के ही किए जाते हैं। सुनी सुनाई जड़ी बूटियों से ही ख़ुदा के काम में दखल दिया जाता है। कई गर्म सर्द दवाएँ इस्तेमाल की जाती हैं। अभी ये सिलसिला ज़ारी है कि अचानक एक दिन इनके भारी पाँव तले पुरखों के घर की छत खिसक जाती है। होता यूँ है कि वो सुबह बाथरूम से बाहर आती हैं लेकिन जैसे ही पाँव बढ़ाती हैं धँसने लगती हैं। वो टूटती छत से सीधे नीचे ज़मीन पर गिरने को होती हैं कि उनके हाथ में लोहे का सरिया आ जाता है। इत्तिफाक से उनके भाई उस वक़्त नीचे ही  मकान की मरम्मत करा रहे हैं। पत्थरों के गिरने की आवाज़ से वो चौंककर ऊपर देखते हैं और अपनी बहन को ज़मीं और आसमान के बीच लटका हुआ पाते हैं। वो बाहें फैलाकर आगे बढ़ते हैं और बहन को सरिया छोड़ने को कहते हैं। कई लोग जमा हैं। ज़मीं पर रूई के गद्दे बिछा दिये जाते हैं। बच्चों के रोने चिल्लाने और औरतों की चीख पुकार में आख़िरकार वो भाई की बाहों में गिर जाती हैं। गिरते ही बेहोश हो जाती हैं। केस नाजुक है तुरंत अस्पताल ले जाया जाता है, जहाँ समय से पहले ही अपनी मर्जी के खिलाफ जमील फातिमा तीसरे बच्चे को जन्म देती हैं। उसका नाम बड़े लड़के के काफ़िये के अनुसार मुक्तदा हसन रखना तय किया जाता है। ये ही मुक्तदा हसन आगे चलकर काफिये की पाबंदी से ख़ुद को आजाद करके निदा फ़ाज़ली बन जाते हैं।..."

तो ये थी निदा फ़ाजली के इस जहान ए फानी में आने की दास्तान। तो आइए उनकी उन ग़ज़लों की बात करें जिने आप तक पहुँचाने की बात मैंने पहले की थी । निदा की ये पहली ग़ज़ल उदासी के आलम में लिपटी हुई है पर उम्दा शेर कहे हैं उन्होंने अपनी इस ग़ज़ल में। अब देखिए ना ज़िंदगी के कुछ लम्हों  को हम आपनी यादों की फोटो फ्रेम में सजा लेते हैं क्यूँकि वैसी तस्वीर ज़िंदगी बार बार नहीं बनाती और इसलिए निदा लिखते हैं  चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें...ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही।

अँधेरे में ठोकर खाकर ही राह निकलने की सूरत, दूरियों की वज़ह से हर पत्थर को चाँद समझने की भूल .या हँसते हुए चेहरे के पीछे क्रंदन करता हृदय निदा ने शायद सब झेला हो और उसी कड़वाहट और हताशा को इन शब्दों में व्यक़्त कर गए


दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही

चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर*आँखें
ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही
 *चित्रकार 
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही

फ़ासला चाँद बना देता है हर पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही

शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की फ़ुरसत
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही

तो सुनिए इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ देने की मेरी कोशिश..



और चलते चलते निदा साहब की एक और ग़ज़ल जिसका मतला ही पूरी ग़ज़ल पर भारी है। अपनी अपनी सीमाओं का बंदी हर पैमाना है..उतना ही दुनिया को समझा जितना ख़ुद को जाना है। भाई वाह! कितनी गहरी बात कह गए चंद शब्दो में निदा फ़ाज़ली साहब। 

इस ग़ज़ल को गाया है जगजीत सिंह के शागिर्द और आज के बदलते समय में ग़ज़ल की विधा को सहेज कर रखने वाले फ़नकार घनशाम वासवानी जी ने। वॉयलिन, पियानो, सितार व ताल वाद्यों का खूबसूरत सम्मिश्रण इस ग़ज़ल की श्रवणीयता में इजाफ़ा कर देता है बाकी घनशाम की मखमली आवाज़ के तो क्या कहने..

अपनी अपनी सीमाओं का बंदी हर पैमाना है
उतना ही दुनिया को समझा जितना ख़ुद को जाना है


अपने आप से प्यार है जिसको प्यारी है हर शय उसको
इतनी बात ही सच है बाकी जो कुछ है अफ़साना है

रोज नया दिन रोज़ नयी शब बीत गया सो बीत गया
रोज़ नया कुछ खोने को है रोज़ नया कुछ पाना है

पैदा होना पैदा होकर मरने तक जीते रहना
एक कहानी है जो सबको अलग अलग दुहराना हो  

सोमवार, अगस्त 09, 2010

जगजीत सिंह की ग़ज़ल गायिकी का सफ़र भाग 7 : उनकी दस बेशकीमती नज़्मों के साथ !

जगजीत सिंह पर आधारित इस श्रृंखला में बात हो रही थी उनकी गाई दस सबसे बेहतरीन नज़्मों की। पिछली पोस्ट में मैंने इनमें से पाँच नज़्मों के बारे में आपसे बात की। आज बारी है बाकी की नज़्मों की। पिछली बार की नज़्मों में जहाँ एक आशिक का दर्द रह रह कर बाहर आ रहा था वहीं आज की नज़्मों में इसके आलावा आपको एक फिलासफिकल सोच भी मिलेगी। इन नज़्मों ने मुझे और निसंदेह आपको भी बारहा अपनी अब तक की गुजारी हुई जिंदगी के बारे में सोचने पर मज़बूर किया होगा। तो आज की इस कड़ी की शुरुआत करते हैं निदा फ़ाज़ली की लिखी इस नज़्म से


आपको याद होगा अस्सी की शुरुआत में एक कंपनी कलर टीवी के उत्पाद को ला कर बाजार में तेजी से उभरी थी। ये कंपनी थी 'वेस्टन'। इसी कंपनी ने 1994 में जगजीत का एक एलबम निकाला था जिसका नाम था 'Insight'। इस एलबम की खासियत थी कि इसमें सिर्फ निदा साहब की कृतियों को शामिल किया गया था। दोहों व ग़ज़लो से सजे इस एलबम में निदा जी की दो एक नज़्में भी थीं। उन्ही नज़्मों में से एक में जिंदगी के निचोड़ को चंद शब्दों मे जिस सलीके से निदा ज़ी ने बाँधा था कि एक बार सुनकर ही मन विचलित सा हो गया था।

जगजीत का संगीत संयोजन भी अच्छा था। नज़्म की शुरुआत गिटार (वादक : अरशद अहमद) और साथ में वॉयलिन (वादक : दीपक पंडित) की सम्मिलित धुन से होती है। जैसे जैसे ये नज़्म आगे बढ़ती है जगजीत नज़्म की भावनाओं के साथ नज़्म का टेंपो बदलते हैं और जब जगजीत नज़्म के आखिर में नहीं दुबारा ये खेल होगा... तीन बार दोहराते हैं तो शायर की बात आपके मस्तिष्क से होती हुई दिल में अच्छी तरह से समा चुकी होती है। तो गौर कीजिए निदा फ़ाज़ली के शब्दों और जगजीत जी की गायिकी की सम्मिलित जादूगरी पर...


ये ज़िन्दगी..

ये ज़िन्दगी..तुम्हारी आवाज़ में ग़ले से निकल रही है
तुम्हारे लफ़्ज़ों में ढल रही है
ये ज़िन्दगी.. ये ज़िन्दगी ..ये ज़िन्दगी
जाने कितनी सदियों से
यूँ ही शक्लें, बदल रही है
ये ज़िन्दगी.. ये ज़िन्दगी ..
बदलती शक्लों, बदलते जिस्मों
चलता-फिरता ये इक शरारा
जो इस घड़ी नाम है तुम्हारा
इसी से सारी चहल-पहल है
इसी से रोशन है हर नज़ारा
सितारे तोड़ो या घर बसाओ
क़लम उठाओ या सर झुकाओ
तुम्हारी आँखों की रोशनी तक
है खेल सारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा

जहाँ निदा फाज़ली ने जीवन को अपनी दार्शनिकता भरी नज़्म में बाँधा वही मज़ाज लखनवी ने अपनी जिंदगी की हताशा और निराशा को अपनी मशहूर नज़्म 'आवारा' में ज्यों का त्यों चित्रित किया है और फिर जगजीत ने मजाज़ के उसी दर्द को बखूबी कहकशाँ में गाई अपनी इस नज़्म में क़ैद किया है। इस नज़्म की ताकत का अंदाज़ा इसी बात से लगता है कि मन इसे सुनकर ही नहीं पर इसे पढ़ने से ही गमगीन हो जाता है...


शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

रास्ते में रुक के दम ले लूँ, मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फितरत नहीं
और कोई हमनवाँ मिल जाये, ये किस्मत नहीं

ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?




वैसे जगजीत ने मज़ाज साहब की इस नज़्म के कुछ ही हिस्से गाए हैं पर पूरी नज़्म और इसके पीछे मज़ाज़ की जिंदगी की कहानी आप यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं।


मेरे इस संकलन की तीसरी नज़्म है एलबम 'फेस टू फेस (Face to Face)' की जिसकी कैसेट मैंने 1993 में खरीदी थी। इस एलबम में एक नज़्म थी सबीर दत्त साहब की। यह वही दत्त साहब हैं जिनकी रचना 'इक बरहामन ने कहा है कि ये साल अच्छा है........' उन दिनों बेहद मशहूर हुई थी। हाल ही में मुझे इस चिट्ठे की एक पाठिका ने मेल कर ये सवाल पूछा कि ये नज़्म क्या एक ईसाई गीत है?
सच कहूँ तो इस प्रश्न को पढ़ने के पहले तक ये ख्याल कभी मेरे ज़ेहन में नहीं उभरा था कि इस नज़्म को ऐसा कहा जा सकता है।

इसमें कोई शक़ नहीं हरियाणा के नामी शायर सबीर दत्त साहब ने इस नज़्म में भगवन जीसस की ज़िंदगी की घटनाओं को लिया है पर वो यहाँ सिर्फ एक प्रतीक, एक बिंब के रूप में इस्तेमाल हुआ है। दरअसल सबीर जी की ये नज़्म आज के दौर के इस बेईमान और भ्रष्ट समाज का आईना है। भगवन जीसस के रूपक का इस्तेमाल करते हुए वे ये बताना चाहते हैं कि जीवन में सत्य और ईमानदारी की राह पर चलने वालों को हर तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। नज़्म के अंत में हमारे समाज पर बतौर कटाक्ष करते हुए सबीर लोगों को सच ना बोलने की सलाह दे डालते हैं। जगजीत जी की इस नज़्म का संगीत संयोजन भी अपनी तरह का है। इस नज़्म में समूह स्वर का इस्तेमाल भी बेहद प्रभावी ढंग से किया गया है।



सच्ची बात कही थी मैंने
लोगों ने सूली पे चढाया

मुझ को ज़हर का जाम पिलाया

फिर भी उन को चैन न आया

सच्ची बात कही थी मैंने


ले के जहाँ भी, वक्त गया है

ज़ुल्म मिला है, ज़ुल्म सहा है

सच का ये इनाम मिला है

सच्ची बात कही थी मैंने


सब से बेहतर कभी न बनना

जग के रहबर कभी न बनना

पीर पयाम्बर कभी न बनना


चुप रह कर ही वक्त गुजारो

सच कहने पे जान मत वारो

कुछ तो सीखो मुझ से यारो

सच्ची बात कही थी मैंने...


और अगर इन सब नज़्मों को सुनने के बाद आपका मन कुछ भारी हो गया हो तो क्यूँ ना बचपन की यादों को ताज़ा कर आपके मूड को बदला जाए। सुदर्शन फ़ाक़िर साहब ने क्या उम्दा नज़्म लिखी थी हम सबके मासूम बचपन को केंद्र में रखकर। जब भी इस नज़्म को सुनता हूँ उनकी लेखनी को सलाम करने को जी चाहता है।

जगजीत साहब जब भी कान्सर्ट्स में चिर परिचित धुन के साथ इस नज़्म का आगाज़ करते थे पूरा माहौल तालियों से गूँज उठता था। वैसे तो बाद के एलबमों में इस नज़्म का संगीत थोड़ा बदल गया व चित्रा जी की आवाज़ की जगह सिर्फ जगजीत का सोलो ही सुनने को मिलता रहा पर आज यहाँ मैं उसी पुराने वर्सन को आपके सामने प्रस्तुत करना चाहूँगा



ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मग़र मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी

मोहल्ले की सबसे निशानी पुरानी,
वो बुढ़िया जिसे बच्चे कहते थे नानी,
वो नानी की बातों में परियों का डेरा,
वो चेहरे की झुर्रियों में सदियों का फेरा,
भुलाए नहीं भूल सकता है कोई,
वो छोटी-सी रातें वो लम्बी कहानी

कड़ी धूप में अपने घर से निकलना
वो चिड़िया, वो बुलबुल, वो तितली पकड़ना,
वो गुड़िया की शादी पे लड़ना-झगड़ना,
वो झूलों से गिरना, वो गिर के सँभलना,
वो पीतल के छल्लों के प्यारे-से तोहफ़े,
वो टूटी हुई चूड़ियों की निशानी।

कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जाना
घरौंदे बनाना,बना के मिटाना,
वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी
वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी,
न दुनिया का ग़म था, न रिश्तों का बंधन,
बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िन्दगानी


सच सुदर्शन जी उस ज़िंदगी का भी अपना ही एक मजा था..


दस नज़्मों के इस संकलन का समापन मैं जावेद अख्तर की लिखी इस नज़्म से करना चाहूँगा जिसे जगजीत जी ने अपने एलबम सिलसिले का हिस्सा बनाया था। ये एलबम 1998 में आई थी पर जावेद साहब ने इस नज़्म में उन अहसासात को अपने शब्द दे दिए हैं जिनसे यक़ीनन हम सभी कभी ना कभी जरूर गुजर चुके हैं या गुजरेंगे। इस माएने में ये नज़्म समय की सीमाओं से परे है और इसी वज़ह से आज की इन पाँच नज़्मों में सबसे ज्यादा प्रिय है। जगजीत साहब ने अपने रुहानी स्वर से इसे हमेशा हमेशा के लिए अज़र अमर कर दिया है।






मैं भूल जाऊँ तुम्हें मैं भूल जाऊँ तुम्हें अब यही मुनासिब है
मगर भूलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं


यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ

कमबख़्त

भुला सका न ये वो सिलसिला जो था ही नहीं

वो इक ख़याल
जो आवाज़ तक गया ही नहीं
वो एक बात
जो मैं कह नहीं सका तुम से
वो एक रब्त

जो हम में कभी रहा ही नहीं

मुझे है याद वो सब
जो कभी हुआ ही नहीं
अगर ये हाल है दिल का तो कोई समझाए

तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ

कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं...




तो जनाब जगजीत की गाई मेरी दस पसंदीदा नज़्में तो ये थीं
  • बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी..
  • बहुत दिनों की बात है...
  • तेरे खुशबू मे बसे ख़त मैं जलाता कैसे..
  • कोई ये कैसे बताए, कि वो तनहा क्यों है..
  • अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?
  • ये ज़िन्दगी जाने कितनी सदियों से यूँ ही शक्लें, बदल रही है...
  • सच्ची बात कही थी मैंने..
  • ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो
  • ऐ गमे दिल क्या करूँ ऐ वहशते दिल क्या करूँ...
  • तुझे भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
जानना चाहूँगा कि इनमें से या इनके इतर जगजीत की गाई किस नज़्म को आपने अपने दिल में बसाया है?

इस श्रृंखला में अब तक
  1. जगजीत सिंह : वो याद आए जनाब बरसों में...
  2. Visions (विज़न्स) भाग I : एक कमी थी ताज महल में, हमने तेरी तस्वीर लगा दी !
  3. Visions (विज़न्स) भाग II :कौन आया रास्ते आईनेखाने हो गए?
  4. Forget Me Not (फॉरगेट मी नॉट) : जगजीत और जनाब कुँवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' की शायरी
  5. जगजीत का आरंभिक दौर, The Unforgettables (दि अनफॉरगेटेबल्स) और अमीर मीनाई की वो यादगार ग़ज़ल ...
  6. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 1
  7. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 2
  8. अस्सी के दशक के आरंभिक एलबम्स..बातें Ecstasies , A Sound Affair, A Milestone और The Latest की
 

मेरी पसंदीदा किताबें...

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