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रविवार, दिसंबर 07, 2014

इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा..कैसे बना 21 रूपकों वाला ये गीत ? Ek ladki ko dekha...

तकरीबन बीस साल हो गए इस बात को। इंजीनियरिंग कॉलेज से निकले हुए एक साल बीता था। नौकरी तो तुरंत लग गई थी अलबत्ता काम करने में मन नहीं लग रहा था। मार्च का महीना था। फरीदाबाद में उस वक़्त गर्मियाँ आई नहीं थी। कार्यालय की मगज़मारी के बाद रात को ही फुर्सत के कुछ पल नसीब होते थे। रात्रि भोज ढाबे में होता था और वहीं दोस्त यारों से बैठकी का अड्डा जमा करता था। कभी कोई नहीं मिला तो यूँ ही सेक्टर चौदह के छोटे से बाजार के चक्कर अकेले मार दिया करता था। ऐसी ही चहलकदमी में एक छोटी सी दुकान में बजता ये गीत पहली बार कानों में पड़ा था और मेरे कदम वहीं ठिठक गए थे।

गीत को पहली बार सुनते ही फिल्म देखने का मन हो आया था। आख़िर क्या खास था इस गाने में? जावेद अख्तर के लिखे वो इक्कीस रूपक जो दिल में एक मखमली अहसास जगाते थे, या फिर कुमार शानू जिनकी आवाज़ का सिक्का आशिकी (पहली वाली) के लोकप्रिय नग्मों के बाद हर गली नुक्कड़ पर चल रहा था। पर सच कहूँ तो दूर से आती इस गीत की धुन ही थी जिसने मेरा इस गीत की ओर उस रात ध्यान खींचा था। तब तो मुझे भी ये भी नहीं पता था कि इस गीत के पीछे पंचम का संगीत है। ताल वाद्यों से अलग तरह की आवाज़ पैदा करने में पंचम को महारत हासिल थी। यहाँ भी ताल वाद्यों के साथ गिटार का कितनी खूबसूरती से उपयोग किया था गीत के आरंभ में पंचम ने। ये गीत वैसे गीतों में शुमार किया जाता है जिसमें मुखड़े और अंतरे को एक साथ ही पिरोया गया है। इंटरल्यूड्स पर आप ध्यान दें तो पाएँगे कि हर एक मुखड़े अंतरे के खत्म होते ही गूँजते ढोल को बाँसुरी का प्यारा साथ मिलता है।


पर क्या आपको पता है कि फिल्म में ये गीत कैसे आया? जावेद अख़्तर साहब ने कुछ अर्से पहले इस गीत के बारे में चर्चा करते हुए बताया था कि पहले ये गीत फिल्म में ही नहीं था। स्क्रिप्ट सुनते वक़्त जावेद साहब ने सलाह दी थी कि यहाँ एक गाना होना चाहिए। पंचम और निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने तब जावेद साहब से कहा कि अगर आपको ऐसा लगता है तो गाना लिखिए। अगर हमें अच्छा लगा तो फिल्म में उसके लिए जगह बना लेंगे।

अगली सिटिंग में जब जावेद जी को जाना था तब उन्हें ख्याल आया कि मैंने सलाह तो दे दी पर लिखा कुछ भी नहीं। रास्ते में वो गीत के बारे में सोचते रहे और एक युक्ति उनके मन में सूझी कि गीत की शुरुआत इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ...से की जाए और आगे रूपकों की मदद से इसे आगे बढ़ाया जाए.. जैसे ये जैसे वो। जावेद साहब सोच रहे थे कि ये विचार शायद ही सबको पसंद आएगा और बात टल जाएगी। पर जब उन्होंने पंचम को अपनी बात कही तो उन्होंने कहा कि तुरंत एक अंतरा लिख कर दो। जावेद साहब ने वहीं बैठ कर अंतरा लिखा और पंचम ने दो मिनट में अंतरे पर धुन तैयार कर दी। जावेद साहब बताते हैं कि पहला अंतरा जिसमें सात रूपक थे तो उन्होंने वहाँ जल्दी ही मुकम्मल कर लिया था पर बाकी हिस्सों में चौदह बचे रूपको को रचने में उन्हें  तीन चार दिन लग गए।

बताइए तो जिन गीतों के बारे में हम इतनी लंबी बातें कर लेते हैं। जिनकी भावनाओं में हम बरसों डूबते उतराते हैं वो इन हुनरमंदों द्वारा चंद मिनटों में ही तैयार हो जाती हैं. ये होता है कलाकार। ख़ैर आपको ये गाना इसके बोलों के साथ एक बार फिर सुनवाए देते हैं।


इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
जैसे खिलता गुलाब
जैसे शायर का ख्वाब
जैसे उजली किरण
जैसे वन में हिरण
जैसे चाँदनी रात
जैसे नरमी की बात
जैसे मन्दिर में हो एक जलता दिया
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा!

इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
जैसे सुबह का रूप
जैसे सरदी की धूप
जैसे वीणा की तान
जैसे रंगों की जान
जैसे बल खाये बेल
जैसे लहरों का खेल
जैसे खुशबू लिये आये ठंडी हवा
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा!

इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
जैसे नाचता मोर
जैसे रेशम की डोर
जैसे परियों का राग
जैसे सन्दल की आग
जैसे सोलह श्रृंगार
जैसे रस की फुहार
जैसे आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता नशा
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा!


फिल्म आई और इसके सारे गीत खूब बजे। मनीषा कोइराला फिल्म में गीत में बयाँ की गई लड़की सी प्यारी दिखीं। ये अलग बात है कि जावेद साहब ने ये गीत तब मनीषा को नहीं बल्कि माधुरी दीक्षित को ध्यान में रखकर लिखा था। यूँ तो मैं फिल्म दोबारा देखता नहीं पर इस फिल्म को तब मैंने एक बार अकेले और दूसरी बार दोस्तों के साथ देखा।

पर फिल्म के संगीत निर्देशक पंचम स्वयम् इस गीत की लोकप्रियता को जीते जी नहीं देख सके। वैसे उन्हें इस फिल्म का संगीत रचते हुए ये यकीन हो चला था कि इस बार उनकी मेहनत रंग लाएगी। पंचम पर लिखी गई किताब R D Burman The Man The Music में इस गीत को याद करते हुए फिल्म के निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा बताते हैं कि
31 दिसम्बर 1993 को फिल्म सिटी के टाउन स्कवायर में नए साल के उपलक्ष्य में इस एक पार्टी का आयोजन हुआ था। पार्टी में यूनिट के सभी सदस्यों और कामगारों ने हिस्सा लिया था। हमने साउंड सिस्टम पर इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...बजाया। मुभे याद है कि सारे लोगों को उत्साह बढ़ाते और तालियाँ बजाते देख पंचम समझ चुके थे कि उनका काम इस बार जरूर सराहा जाएगा।

शायद पंचम के लिए वो आख़िरी मौका था कि वो अपने रचे संगीत को सबके साथ सुन रहे थे। उसके तीन दिन बाद ही हृदयाघात की वज़ह से उनका देहांत हो गया था।पंचम भले आज हमारे बीच नहीं हों पर ये गीत, इसकी धुन इसके रूपक को हम हर उस सलोने चेहरे के साथ जोड़ते रहेंगे जिसने हमारे दिल में डेरा जमा रखा होगा। क्यूँ है ना?

बुधवार, मई 08, 2013

इक ये आशिक़ी है...इक वो आशिक़ी थी !

आशिक़ी 2 फिल्म और उसके गीतों के आज काफी चर्चे हैं। सोचा आज इसके गीतों को सुन लिया जाए। सुन रहा है..और कुछ हद तक तुम ही हो के आलावा फिल्म के बाकी गीत सामान्य ही लगे। हाँ ये जरूर हुआ कि जिस फिल्म की वज़ह से ये दूसरा भाग अस्तित्व में आया  है उसके गीत संगीत की इस फिल्म ने यादें ताज़ा कर दीं।

1990 में जब आशिक़ी आई थी तब मैं इंजीनियरिंग कर रहा था। फिल्म के रिलीज़ होने के पहले ही इसके संगीत ने ऐसी धूम मचा दी थी कि हॉस्टल के हर कमरे से इसका कोई ना कोई गीत बजता ही रहता था। राँची के संध्या सिनेमा हाल में फिल्म देखने के बाद फिल्म की कहानी से ज्यादा उसके गीत ही गुनगुनाए गए थे और आज भी इस फिल्म के बारे में सोचने से इसकी पटकथा नहीं पर इसके गाने जरूर याद आ जाते हैं।


आशिक़ी के गीतों की लोकप्रियता ने नदीम श्रवण की संगीतकार जोड़ी को फर्श से अर्श तक पहुँचा दिया था। अस्सी का दशक इस जोड़ी के लिए संघर्ष का समय था। छोटी मोटी फिल्में करते हुए उन्होंने उस ज़माने में ही अपनी बनाई धुनों का बड़ा जख़ीरा बना लिया था जो नब्बे के दशक में गुलशन कुमार द्वारा आशिक़ी में बड़ा ब्रेक दिए जाने के बाद खूब काम आया। आशिक़ी हिंदी फिल्म उद्योग की उन चुनिंदा फिल्मों का हिस्सा रही है जिसका हर गीत हिट रहा था। नदीम श्रवण के संगीत में कर्णप्रिय धुनों के साथ मेलोडी का अद्भुत मिश्रण था।


आज भी आशिक़ी के गीतों के मुखड़ों को याद करने के लिए दिमाग पर ज़रा भी जोर देना नहीं पड़ता। शीर्षक गीत साँसों की जरूरत हो जैसे ज़िंदगी के लिए बस इक सनम चाहिए आशिक़ी के लिए या फिर नज़र के सामने जिगर के पास कोई रहता है वो हो तुम या फिर धीरे धीरे से मेरी ज़िंदगी में आना धीरे धीरे से दिल को चुराना या अब तेरे बिन जी लेंगे हम जहर ज़िदगी का पी लेंगे हम  ये सारे गीत एक बार ज़ेहन में जो चढ़े वे कभी वहाँ से उतरे ही नहीं।

आशिक़ी ने बतौर संगीतकार नदीम श्रवण की जोड़ी के साथ गायक कुमार शानू और अनुराधा पोडवाल को सीधे शिखर पर पहुँचा दिया और पूरे नब्बे के दशक में इन्हीं कलाकारों की हिंदी फिल्म संगीत पर तूती बोलती रही। यहाँ तक कि गीतकार समीर का परचम भी इसी दौर में फहरा। गुलशन कमार की कंपनी टी सीरीज़ का कारोबार यूँ बढ़ा कि HMV के कदम भी डगमगाने लगे।

आशिक़ी फिल्म का मेरा सबसे प्रिय गीत वो हे जो ऊपर के गीतों की तुलना में उतना तो नहीं बजा पर मेरे दिल के बेहद करीब रहा है। मेरी समझ से इस फिल्म में कुमार शानू द्वारा गाया ये सबसे मधुर गीत था। तो आइए सुनते हैं कुमार शानू को आशिक़ी फिल्म के इस गीत में..


तू मेरी ज़िन्दगी है,तू मेरी हर खुशी है
तू ही प्यार तू ही चाहत
तू ही आशिक़ी है
तू मेरी ज़िन्दगी है....

पहली मुहब्बत का अहसास है तू
बुझ के भी बुझ न पाई, वो प्यास है तू
तू ही मेरी पहली ख्वाहिश,तू ही आखिरी है
तू मेरी ज़िन्दगी है...........

हर ज़ख्म दिल का मेरे, दिल से दुआ दे
खुशियां तुझे ग़म सारे, मुझको खुदा दे
तुझको भुला ना पाया, मेरी बेबसी है
तू मेरी ज़िन्दगी है...........

वैसे पुरानी वाली आशिक़ी का आप को कौन सा गीत सबसे पसंद है?
 

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