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सोमवार, सितंबर 21, 2015

कैसे तय किया ओ पी नैयर ने संघर्ष से सफलता का सफ़र :जा जा जा जा बेवफ़ा, कैसा प्यार कैसी प्रीत रे ! Ja Ja ja Ja Bewafa !

आजकल कई बार ऐसा देखा गया है कि पुराने मशहूर गीतों व ग़ज़लों को नई फिल्मों में फिर से नए कलाकारों से गवा कर या फिर हूबहू उसी रूप में पेश किया जा रहा है। हैदर में गुलों में रंग भरे गाया तो अरिजित सिंह ने पर याद दिला गए वो मेहदी हसन साहब की। वहीं पुरानी आशिकी में कुमार सानू का गाया धीरे धीरे से मेरी ज़िदगी में आना को तोड़ मरोड़ कर हनी सिंह ने अपने रैप में ढाल लिया है। शुक्र है तनु वेड्स मनु रिटर्न में फिल्म के अंत में कंगना पर आर पार के गाने जा जा जा जा बेवफ़ा का मूल रूप ही बजाया गया। इससे ये हुआ कि कई युवाओं ने पुरानी फिल्म आर पार के सारे गीत सुन डाले। आज आर पार की इस सुरीली और उदास गीत रचना का जिक्र छेड़ते हुए कुछ बातें रिदम किंग कहे जाने वाले नैयर साहब के बारे में भी कर लेते हैं।

ये तो सब जानते है कि आर पार ही वो फिल्म थी जिसने सुरों के जादूगर ओ पी नैयर की नैया पार लगा दी थी। पर उसके पहले नैयर साहब को काफी असफलताएँ भी झेलने पड़ी थीं।  नैयर लाहौर में जन्मे और फिर पटियाला में पले बढ़े। घर में सभी पढ़े लिखे और उच्च पदों पर आसीन लोग थे सो संगीत का माहौल ना के बराबर था। ऊपर से उन्हें बचपन में ही ढ़ेर सारी बीमारियों ने धर दबोचा। पर इन सब से जूझते हुए कब संगीत का चस्का लग गया उन्हें ख़ुद ही पता नहीं चला। ये रुझान उन्हें रेडियो तक ले गया जहाँ वे गाने गाया करते थे। 

मज़े की बात है कि ओ पी नैयर साहब ने मुंबई का रुख संगीत निर्देशक बनने के लिए नहीं बल्कि हीरो बनने के लिए किया था। स्क्रीन टेस्ट में असफल होने के बाद उन्हें लगा कि वो इस लायक नहीं हैं। फिर संगीत निर्देशक बनने का ख़्वाब जागा पर मुंबई की पहली यात्रा में अपने संगीत निर्देशन वो दो गैर फिल्मी गीत ही रिकार्ड कर पाए जिसमें एक था सी एच  आत्मा का गाया प्रीतम आन मिलो। काम नहीं मिलने की वज़ह से नैयर साहब वापस चले गए। पर वो गाना बजते बजते इतना लोकप्रिय हो गया कि उस वक़्त आसमान का निर्देशन कर रहे पंचोली साहब ने उन्हें मुंबई आने का बुलावा भेज दिया। कहते हैं कि नैयर साहब के पास ख़ुशी की ये सौगात ठीक उनकी शादी के दिन पहुँची।

1952 में उन्हें आसमान के आलावा दो फिल्में और मिलीं छम छमा छम और गुरुदत्त की बाज। दुर्भाग्यवश उनकी ये तीनों फिल्में बुरी तरह पिट गयीं। गीता जी नैयर साहब के साथ आसमान में देखो जादू भरे मोरे नैन के लिए काम कर चुकी थीं और उन्हें ऐसा लगा कि नैयर साहब उनकी आवाज़ का सही इस्तेमाल कर पाने की कूवत रखते हैं। जब ओ पी नैयर गुरुदत्त से बाज के लिए अपना बकाया माँगने गए तो उन्होंने उन्हें पैसे तो नहीं दिए पर गीता जी के कहने पर उन्हें अपनी अगली फिल्म आर पार के लिए अनुबंधित कर लिया। नैयर साहब ने बाबूजी धीरे चलना...., सुन सुन सुन जालिमा...., मोहब्बत कर लो जी भर लो अजी किसने देखा है.... जैसे गीतों के बल पर वो धमाल मचाया कि पचास के दशक में आगे चलकर किसी फिल्म के लिए एक लाख रुपये लेने वाले पहले संगीत निर्देशन बन गए।

सुन सुन सुन जालिमा.... का ही एक उदास रूप था जा जा जा ऐ बेवफ़ा... ! पर गीत के मूड के साथ साथ दोनों गीतों के संगीत संयोजन में काफी फर्क था। सुन सुन की तरह जा जा जा में ताल वाद्यों का कहीं इस्तेमाल नहीं हुआ। पूरे गीत में पार्श्व में हल्के हल्के तार वाद्यों की रिदम चलती रहती है जो गीत की उदासी को उभारती है। मजरूह ने गीत के मुखड़े और अंतरों में नायिका के शिकायती तेवर को बरक़रार रखा है। उलाहना भी इसलिए दी जा रही है कि कम से कम वही सुन कर नायक का दिल पसीज़ जाए। 

नैयर साहब ने गज़ब का गाना रचा था।  मुखड़े का हर जा.. दिल की कचोट को गहराता है वहीं अगली पंक्ति का प्रश्न हताशा के भँवर से निकलता सुनाई देता है।आज भी मन जब यूँ ही उदास होता है तो ये गीत बरबस सामने आ खड़ा होता है.. तो आइए सुनते हैं इस गीत को

जा जा जा जा बेवफ़ा, कैसा प्यार कैसी प्रीत रे
तू ना किसी का मीत रे, झूठी तेरी प्यार की कसम

दिल पे हर जफ़ा देख ली, बेअसर दुआ देख ली
कुछ किया न दिल का ख़याल, जा तेरी वफ़ा देख ली

क्यों ना ग़म से आहें भरूँ, याद आ गए क्या करूँ
बेखबर बस इतना बता, प्यार में जिऊँ या मरूँ




और अब देखिए हाल ही में आई फिल्म तनु वेड्स मनु रिटर्न में कंगना पर इसे कैसे फिल्माया गया है..


रविवार, मई 31, 2015

आपके हसीन रुख पे आज नया नूर है..कितना जानते हैं आप गीतकार अनजान को ?

पिछले पन्द्रह बीस दिनों से मुल्क से बाहर सैर सपाटे पर गया हुआ था। इसीलिए इस ब्लॉग पर शांति छाई रही। जाने के पहले गीतकार अनजान के बारे में लिखने का मन था। जाने के पहले व्यस्तता इतनी रही कि उन पर शुरु किया गया आलेख पूरा ना कर सका।

बचपन में जब हम रेडियों सुनते थे और उद्घोषक गीतकार के रूप में अनजान का नाम बताते थे तो ऐसा लगता था मानो इस गीत के गीतकार का नाम उद्घोषक को भी पता नहीं है। बाद में ये खुलासा हुआ कि अनजान ख़ुद किसी गीतकार का नाम है। वैसे अनजान , अनजान के नाम से पैदा नहीं हुए थे। उनका वास्तविक नाम लालजी पांडे था और उनका जन्म बनारस में हुआ था। अनजान को शुरु से ही कविता पढ़ने औरलिखने  का शौक़ था।  बड़े बुजुर्ग कहा करते कि बनारस में रहे तो एक दिन हरिवंश राय 'बच्चन' जैसी काव्यात्मक ऊँचाइयों को छू पाओगे। ख़ैर ये तो हो ना सका पर बच्चन खानदान से उनका नाता बरसों बाद किसी और रूप मे जाकर जरूर जुड़ा।

पचास के दशक की बात है। उन दिनों ही गायक मुकेश बनारस के क्लार्क होटल में पधारे। होटल के मालिक ने उन्हें अनजान की कविताएँ सुनने का आग्रह किया। मुकेश ने सुना भी और कहा कि मुंबई आकर बतौर गीतकार भाग्य आजमाओ। ख़ैर बात आई गई हो गयी।

अनजान ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से बी कॉम की डिग्री ली थी। इरादा था कि बैंक में नौकरी करेंगे। युवावस्था में ही अनजान को दमे की बीमारी ने जकड़ लिया।। डॉक्टर ने कहा कि अगर अनजान बनारस जैसी सूखी जलवायु वाले इलाके में रहेंगे तो ये रोग बढ़ता ही जाएगा और ज़िदगी भी ख़तरे में पड़ सकती है। साथ ही ये सलाह भी दी कि  आपको किसी ऐसी जगह जाना होगा जहाँ पास में समुद्र तट हो। तब उन्हें गायक मुकेश की बात याद आई और वो अकेले ही रोज़ी रोटी की तलाश में मुंबई चले आए। मु्बई में मुकेश ने उनकी मुलाकात  प्रेमनाथ से करायी जो उस वक़्त Prisoner of Golconda (1956) बना रहे थे। अनजान को मिला ये पहला काम था पर दुर्भाग्यवश फिल्म भी फ्लॉप हुई और उसका संगीत भी। अनजान के लिए ये कठिन घड़ी थी। उनके बेटे समीर उन दिनों की बात करते हुए कहते हैं।

"उस दौर में हालत ये थी कि पिताजी ने कई बार किसी बड़ी इमारत में सीढ़ियों की नीचे वाली जगह में  रातें बिताईं। उनके पास तब दो जोड़ी कपड़े हुआ करते थे। वे कुएँ से पानी खींचते और वहीं नहाते। एक कपड़ा वहीं धुलता और दूसरा वे पहनते।"

अगले सात साल उनका गुजारा छोटी मोटी फिल्मों में काम और ट्यूशन कर चला। फिर 1963 में बनारस के निर्माता निर्देशक त्रिलोक जेटली प्रेमचंद के उपन्यास पर आधारित अपनी  फिल्म गोदान के लिए उत्तर प्रदेश की भाषा को समझने वाला गीतकार ढूँढ रहे थे और उन्होंने इसके लिए अनजान को चुना।  इस तरह अनजान को एक और बड़े कैनवास पर काम करने का मौका मिला। गोदान भी नहीं चली पर उसके गीतों पर लोगों का ध्यान जरूर गया।  भोजपुरी रंग में रँगा मोहम्मद रफ़ी का गाया वो मस्ती भरा नग्मा तो याद होगा ना आपको

पिपरा के पतवा सरीखे डोले रे मनवा कि हियरा में उठत हिलोल,
पूरवा के झोंकवा में आयो रे संदेसवा कि चल अब देसवा की ओर

अनजान का संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ था। उन्हें अपने अगले बड़े मौके के लिए छः सालों का और इंतज़ार करना पड़ा। जी पी सिप्पी की फिल्म बंधन (1969) के लिए उन्हें नरेंद्र बेदी कल्याण जी आनंद जी से मिलवाने ले गए। अनजान ने उस फिल्म के लिए बिन बदरा के बिजुरिया कैसे चमके जैसा लोकप्रिय गीत लिखा। ये गीत उनकी ज़िंदगी के लिए अहम पड़ाव था क्यूँकि इस गीत के माध्यम से वो उस संगीतकार जोड़ी से मिले जिन्होंने सत्तर के दशक में उनके कैरियर की दशा और दिशा तैयार कर दी।

पर आज मैं आपको अनजान का वो गीत सुनवाने जा रहा हूँ जो उन्होंने साठ के दशक में ओ पी नैयर साहब के लिए लिखा था। बहारे फिर भी आएँगी का ये गीत नैयर साहब के साथ अनजान का इकलौता गीत था। अनजान के लिए ये नग्मा एक चुनौती के रूप में था क्यूँकि उनकी पहचान तब तक ठेठ हिंदी और पुरवइया गीतों के गीतकार के रूप में बन रही थी। उस वक़्त के तमाम नामी गीतकार उर्दू जुबाँ पर अच्छा खासा दखल रखते थे सो इस गीत के लिए अनजान ने उसी अनुरूप अपना अंदाज़ बदला।

क्या रोमांटिक गीत लिखा था अनजान साहब ने. और उतनी ही खूबसूरत धुन बनाई ओ पी नैयर साहब ने। गीत के बोलों के बीच बजती बाँसुरी और इंटरल्यूड्स का पियानो और इन सबके बीच रफ़ी साहब की इत्ती प्यारी रससिक्त आवाज़ जिसमें नायिका को छेड़ती हुई एक चंचलता है और साथ ही प्रणय का छुपा छुपा सा आमंत्रण। ये गीत ऐसा है जिसे गुनगुनाने और सुनने से ही मन में एक ख़ुमार सा छा जाता है।

आपके हसीन रुख पे आज नया नूर है
मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है
आपकी निगाह ने कहा तो कुछ ज़ुरूर है
मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है

खुली लटों की छाँव में खिला-खिला ये रूप है
घटा से जैसे छन रही सुबह-सुबह की धूप है
जिधर नज़र मुड़ी उधर सुरूर ही सुरूर है
मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है

झुकी-झुकी निगाह में भी है बला की शोखियाँ
दबी-दबी हँसी में भी तड़प रही हैं बिजलियाँ
शबाब आपका नशे में खुद ही चूर-चूर है
मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है

जहाँ-जहाँ पड़े क़दम वहाँ फिजा बदल गई
कि जैसे सर-बसर बहार आप ही में ढल गई
किसी में ये कशिश कहाँ जो आप में हुज़ूर है
मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है



क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कोई ऐसा चेहरा सामने आ गया हो जिससे नज़रें हटाने का दिल ही नहीं करे और फिर बरबस ये गीत याद आ गया हो.. ख़ैर इसमें ना आपका कुसूर है ना ऐसे किसी चेहरे का, गलती तो सिर्फ उन्हें बनाने वाले सृष्टिकर्ता की है जो आँखों को ऐसा बेबस कर देते हैं कि वे उन्हें निहारते हुए  झपकने का नाम ही नहीं लेतीं :)।

अनजान के गीतों की यात्रा अभी खत्म नहीं हुई। इस आलेख की अगली कड़ी में आपसे साझा करूँगा संघर्ष के इन दिनों से शोहरत की बुलंदियों तक तय किया गया अनजान का सफ़र..

सोमवार, सितंबर 05, 2011

शम्मी कपूर और मोहम्मद रफ़ी : कैसे तय किया इन महान कलाकारों ने सुरीले संगीत का साझा सफ़र - भाग 1

शम्मी कपूर को गुजरे तीन हफ्ते हो चुके हैं। शम्मी कपूर व मोहम्मद रफ़ी ने मिलकर हिंदी फिल्म संगीत का जो अद्भुत अध्याय रचा है उस पर लिखने की बहुत दिनों से इच्छा थी। पर पहले अन्ना के आंदोलन को लेकर ये इच्छा जाती रही और फिर कार्यालय की व्यस्तताओं ने कंप्यूटर के कुंजीपटल के सामने बैठने नहीं दिया। दरअसल मैं जब भी शम्मी कपूर के बारे में सोचता हूँ तो मुझे सत्तर और अस्सी के दशक का श्वेत श्याम और बाद का रंगीन दूरदर्शन याद आ जाता है। साठ के दशक में जब शम्मी कपूर या शमशेर राज कपूर रुपहले पर्दे पर अपनी फिल्मों की सफलताओं के झंडे गाड़ रहे थे तब तक तो मेरा इस दुनिया में पदार्पण ही नहीं हुआ था। शम्मी कपूर की फिल्मी दुनिया व उनके गीतों से मेरा पहला परिचय दूरदर्शन की मार्फत ही हुआ था।

वो दूरदर्शन ही था जो हम सब को गुरुवार और रविवार को बारहा शम्मी कपूर की फिल्में दिखाया करता था। सच कहूँ तो शुरु शुरु में हम तीनों भाई बहनों को शम्मी जी के नैन मटक्के और उनकी थरथराती अदाएँ बिल्कुल नागवार गुजरती थीं। पर जैसे जैसे वक़्त गुजरा हमें उनके तौर तरीके पसंद आने लगे। शायद इसकी वज़ह ये रही कि हमने उनकी फिल्मों को एक दूसरे नज़रिए से देखना शुरु किया। गीतों में उनकी तरफ़ से डाली गई उर्जा इनके समर्पण को देख सुन हो कर अपने मन को भी तरंगित होता पाया। उनकी फिल्मों के गीत हम बड़े चाव से सुनने लगे। आज जब वे इस दुनिया में नहीं हैं उनके द्वारा अभिनीत गीतों के साथ उन्हें ये श्रृद्धांजलि देना चाहता हूँ।
शम्मी कपूर के गीतों की लोकप्रियता में रफ़ी साहब का कितना बड़ा योगदान था ये किसी से छुपा नहीं है। रफ़ी साहब और शम्मी कपूर की इस बेमिसाल जोड़ी का सफ़र कैसे शुरु हुआ और फिर परवान चढ़ा इसी बात पर चर्चा करेंगे आज की इस पोस्ट में। साथ ही होंगे रफ़ी साहब के गाए और शम्मी कपूर पर फिल्माए मेरे दस पसंदीदा नग्मे। शम्मी कपूर ने सबसे पहले रफ़ी साहब को जबलपुर में एक संगीत के कार्यक्रम में देखा। शम्मी उस वक़्त कॉलेज में थे और वहाँ अपने एक रिश्तेदार से मिलने गए थे। पचास के दशक में शम्मी कपूर की आरंभिक फिल्मों रेल का डिब्बा, लैला मजनूँ, शमा परवाना, हम सब चोर हैं में शम्मी के गाए अधिकांश गीत रफ़ी साहब की ही आवाज़ में थे। पर ये फिल्में ज्यादा सफल नहीं हुईं और उनके संगीत ने भी कोई खास धूम नहीं मचाई। शम्मी कपूर अक्सर अपने गीतों की रिकार्डिंग देखने जाया करते थे। 1957 में नासिर हुसैन की फिल्म तुमसा नहीं देखा के गीतों की रिकार्डिंग चल रही थी। गीत था सर पे टोपी लाल.. ओ तेरा क्या कहना...। शम्मी कपूर ने अपने एक साक्षात्कार में इस गीत के बारे में कहा था

"मैं रफ़ी साहब के पास रिकार्डिंग रूम  में गया और उनसे कहा कि ये गीत मैं गाने वाला हूँ। मेरे कुछ सुझाव हैं कि गीत के इन इन हिस्सों को आप यूँ गाइए तो मुझे उस पर अभिनय करने में सहूलियत होगी। रफ़ी साहब ने कहा ठीक है आपने जैसा कहा वैसी ही कोशिश कर के देखता हूँ। आप विश्वास नहीं करेंगे कि रफ़ी ने जिस तरह से मेरे सुझावों से भी बढ़कर उस गीत के लहजे को ढाला कि वो एक अलग ऊँचाई पर चला गया। यहीं से रफ़ी साहब के साथ मेरी एक जोड़ी की शुरुआत हो गई ।"
रफ़ी साहब और शम्मी की इस जुगलबंदी में मैंने पहला गीत जो लिया है वो है 1959 में आई फिल्म 'दिल दे के देखो से' । इस गीत को लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी ने और इसकी धुन बनाई थी उषा खन्ना ने। इस गीत की खास बात ये है कि ये उषा जी की पहली संगीत निर्देशित फिल्म थी वहीं बतौर नायिका आशा पारिख जी की भी ये पहली फिल्म थी। ये याद दिलाना जरूरी होगा कि रफ़ी की संगत के साथ सह नायिका के रूप में आशा पारिख का साथ भी शम्मी कपूर के लिए बेहद सफल रहा।

कहना होगा कि जिस सुकून जिस तबियत से रफ़ी साहब ने उषा जी की इस बेहतरीन कम्पोजीशन को अपनी आवाज़ दी है कि क्या कहने। मजरूह के बोल भी कम असरदार नहीं। मिसाल देखिए

हम और तुम और ये समां
क्या नशा नशा सा है
बोलिए ना बोलिए
सब कुछ सुना सुना सा है  





रफ़ी साहब की शांत धीर गंभीर आवाज़ शम्मी कपूर के लिए शोख और चंचल हो उठी। उन्होंने अपनी गायिकी में शम्मी के हाव भावों को इस तरह उतारा की ये भिन्न करना मुश्किल हो गया कि इस गीत को शम्मी कपूर गा रहे हैं या रफ़ी साहब। साठ के दशक में ही रिलीज हुई फिल्म 'बदतमीज' का ये गाना याद आ रहा है जिसमें रफी साहब गाते हैं...

बदतमीज कहो या कहो जानवर
मेरा दिल तेरे दिल पे फिदा हो गया
बचा लो कोई,सँभालो कोई,
ओ मेरी जाने जाँ मैं तबाह हो गया
होलल्ला होलल्ला होलल्ला होलल्ला




द्रुत गति से गाए इस गीत में रफ़ी साहब जब अपने दिल को बमुश्किल सँभालते हुए होल्ल्ला होलल्ला की लय पकड़ते हैं तो शम्मी कपूर की अदाओं की मस्ती गीत के बोलों में सहज ही समा जाती है। साधना के साथ गाए इस गीत में जो चंचलता थी वो तो आपने महसूस की होगी पर फिल्म राजकुमार में जहाँ एक बार फिर शम्मी कपूर और साधना की जोड़ी थी रफ़ी शम्मी कपूर के लिए एक अलग से संजीदा अंदाज़ में नज़र आए



शम्मी कपूर और रफ़ी की इस जोड़ी ने नैयर साहब के साथ सफलता का एक और सोपान हासिल किया है 1964 में आई फिल्म 'कश्मीर की कली' में। इस फिल्म का एक गीत था तारीफ़ करूँ क्या उसकी जिसने तुझे बनाया। शम्मी कपूर चाहते थे अपनी प्रेमिका के प्रति अपने जज़्बे को उभारने के लिए इस जुमले तारीफ़ करूँ क्या उसकी ....को तरह तरह से दोहराएँ। पर ओ पी नैयर अड़ गए कि उससे गाना लंबा और उबाऊ हो जाएगा। शम्मी दुखी होकर रफ़ी साहब के पास गए। रफ़ी ने उनकी परेशानी सुनी और कहा कि मैं  नैयर को समझाता हूँ। नैयर ने उनसे भी वही कहा पर रफ़ी ने उन्हें ये कहकर मना लिया कि अगर वो ऐसा चाहता है तो एक बार कर के देखते हैं अगर तुम्हें पसंद नहीं आया तो हटा देना। जब गीत पूरा बना तो सब को अच्छा लगा और  शम्मी कपूर को नैयर और रफ़ी साहब दोनों ने सराहा ।

ये घटना दिखाती है कि शम्मी कपूर और रफ़ी साहब की जोड़ी इतनी सफ़ल क्यूँ हुई। मैं आपको ये गीत तो नहीं पर इसी फिल्म के दो और गीत सुनाना चाहूँगा जो मेरे बहुत प्रिय हैं। एक तो ये रोमांटिक गीत..'दीवाना हुआ बादल .....बहार आई...ये देख के दिल झूमा ...ली प्यार ने अँगड़ाई 'जिसे एक बार गुनगुनाकर ही मन हल्का हो जाता है





और दूसरा एस. एच. बिहारी का लिखा ये शानदार नग्मा जिसमें मनोहारी सिंह के सेक्सोफोन ने एक ना छू सकने वाली बुलंदियों तक पहुँचाया है। क्या संगीत, क्या शब्द और क्या गायिकी ...बेमिसाल शब्द भी छोटा जान पड़ता है इस गीत के लिए... सच ऐसी मेलोडी बार बार जन्म नहीं लेती

है दुनिया उसी की ज़माना उसी का,
मोहब्बत में जो हो गया हो किसी का...
लुटा जो मुसाफ़िर दिल के सफ़र में
है जन्नत यह दुनिया उसकी नज़र में
उसी ने है लूटा मज़ा ज़िंदगी का
मोहब्बत में ...
 
है सज़दे के काबिल हर वो दीवाना
के जो बन गया हो तसवीर-ए-जानाँ   
करो एह्तराम उस की दीवानगी का
मोहब्बत में ...

बर्बाद होना जिसकी अदा हो
दर्द-ए-मोहब्बत जिसकी दवा हो
सताएगा क्या ग़म उसे ज़िंदगी का
मोहब्बत में ...




शम्मी कपूर एक ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने अपनी फिल्मों के संगीत को जबरदस्त अहमियत दी। वे खुशकिस्मत रहे कि उनकी इस मुहिम में रफ़ी साहब जैसे गायक और शंकर जयकिशन व ओ पी  नैयर जैसे संगीतकारों का साथ मिला। इस श्रृंखला की अगली कड़ी में उपस्थित हूँगा रफ़ी और शम्मी साहब के इस जोड़ी के पाँच अन्य चुनिंदा गीतों और उनसे जुड़ी बातों को लेकर...

गुरुवार, नवंबर 19, 2009

फिर मिलोगे कभी इस बात का वादा कर लो...

जिंदगी के इस सफ़र में ना जाने कितने लोग हमारे संपर्क में आते हैं। पर बीते समय में झाँक कर देखने पर क्या आपको नहीं लगता कि कुछ ऐसे चेहरे रह गए जिनसे अपने रिश्तों को समय रहते हम वो रूप नहीं दे पाए जो देना चाहते थे।

दिल खुशफहमियाँ पालता रहता है कि काश कभी उनसे एक मुलाकात और तो हो जिसमें हम ऍसे मरासिम बना सके जिन्हें परिभाषित करने में हमारे अंतरमन को कोई दिक्कत ना हो। पर अव्वल तो ऍसी मुलाकातें हो नहीं पाती और होती भी हैं तो माहौल ऐसा नहीं बन पाता कि रिश्तों के अधखुले सिरों को फिर से टटोला जा सके।

ये तो हुई वास्तविक जिंदगी की बात पर फिल्मों में ऐसी मुलाकातें अक्सर हो जाया करती हैं क्यूँकि उनके बिना कहानी आगे बढ़ती नहीं। इसीलिए तो गीतों का ये आशावादी दृष्टिकोण हमारे मन को सुकून देता है। साथ ही उन्हें गुनगुनाकर हम अपने आप को पहले से तरो ताज़ा और उमंगों से भरा महसूस करते हैं।

ऍसा ही एक गीत गाया था रफ़ी साहब ने फिल्म ये रात फिर ना आएगी के लिए और क्या कमाल गाया था। १९६५ में आई ये फिल्म अपने गीतों के लिए बेहद चर्चित रही थी। चाहे आशा जी का गाया 'यही वो जगह है... हो या फिर महेंद्र कपूर का गाया मेरा प्यार वो है..... हो, ओ पी नैयर द्वारा संगीत निर्देशित इस फिल्म के सारे गीत लाज़वाब थे। और इस गीत का तो शमसुल हूदा बिहारी ने, मुखड़ा ही बड़ा जबरदस्त लिखा था ...

फिर मिलोगे कभी इस बात का वादा कर लो
हमसे एक और मुलाकात का वादा कर लो


वैसे बिहारी साहब अपने नाम के अनुरूप सचमुच बिहार के ही थे और पटना के पास स्थित आरा में उनका जन्म हुआ था। संगीतकार ओ पी नैयर के करीबियों का कहना है कि ओ पी नैयर ने बिहारी के मुखड़े को आगे बढ़ाते हुए पहला अंतरा ख़ुद ही रच डाला था। ये अंतरा गुनगुनाना मुझे बेहद पसंद रहा है इसलिए आज इसे यहाँ लगा दे रहा हूँ



वैसे आप मुझे ना झेलना चाहें तो रफ़ी साहब की गायिकी का आनंद यहाँ ले सकते हैं।




फिर मिलोगे कभी इस बात का वादा कर लो
हमसे इक और मुलाकात का वादा कर लो

दिल की हर बात अधूरी है अधूरी है अभी
अपनी इक और मुलाकात ज़रूरी है अभी
चंद लमहों के लिये साथ का वादा कर लो
हमसे इक और मुलाकात का वादा करलो
फिर मिलोगे कभी .....

आप क्यूँ दिल का हसीं राज़ मुझे देते हैं
क्यूँ नया नग़मा नया साज़ मुझे देते हैं
मैं तो हूँ डूबी हुई प्यार की तूफ़ानों में
आप साहिल से ही आवाज़ मुझे देते हैं
कल भी होंगे यहीं जज़्बात ये वादा करलो
हमसे इक और मुलाकात का वादा करलो
फिर मिलोगे कभी .....


इस गीत का दूसरा अंतरा आप इस वीडियो में देख सकते हैं जिसे आशा जी ने गाया है। ये गीत पर्दे पर फिल्माया गया था विश्वजीत और शर्मिला टैगोर जी पर

सोमवार, अक्टूबर 06, 2008

महेंद्र कपूर की याद मे : मेरा प्यार वो है के, मर कर भी तुम को...

महेंद्र कपूर पिछले हफ्ते इस दुनिया से रुखसत कर गए। अभी कुछ दिन पहले ही महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें इस साल का लता मंगेशकर पुरस्कार देने की घोषणा की थी। पार्श्व गायन तो उन्होंने छोड़ ही रखा था पर सत्तर से ऊपर होने के बावजूद अभी भी वो सांगीतिक गतिविधियों से अलग नहीं हुए थे। भारत के बाहर उनके कानसर्ट हर साल हुआ करते थे और अभी हाल में ये भी पढ़ा था कि गायन की सभी विधाओं में अपनी प्रतिभा दिखाने के बाद वो एक सूफी एलबम की तैयारी में जुटे थे।

महेंद्र कपूर के मशहूर गीतों से हम सब वाकिफ़ हैं। मनोज कुमार और बी आर चोपड़ा के बैनर तले बनी फिल्मों के अधिकतर गीत उन्होंने ही गाए। देशभक्ति गीतों का खयाल आते ही आज भी जनता को पहले उन्हीं का चेहरा ज़ेहन में आता है पर मैंने तो अन्य कोटि के गीतों में भी कपूर साहब की गायिकी को बेहतरीन पाया है। आज मैं वो गीत आपके सामने पेश कर रहा हूँ वो मुझे बेहद पसंद रहा है। जब भी इसे गुनगुनाता हूँ, मन पूरी तरह इसके भावों में डूब जाता है।


ओ पी नैयर के संगीत निर्देशन में 'ये रात फिर ना आएगी' फिल्म के इस गीत को लिखा था शमसुल हूदा 'बिहारी' यानि एस.एच.'बिहारी' साहब ने। अब उनका जिक्र आया है तो ये बताना मुनासिब होगा कि अपने नाम के अनुरूप बिहारी साहब बिहार के एक नगर आरा के निवासी थे। यूँ तो उन्होंने ज्यादा फिल्मों के लिए गीत नहीं लिखे पर जिनके लिए भी लिखा कमाल लिखा। प्रेम की भावनाओं को व्यक्त करने का उनका तरीका ही अलहदा था। क्या आपको नहीं लगता कि प्रेम को शिद्दत से महसूस करने वाला ही ये लिख सकता है

खुदा भी अगर तुमसे आ के मिले तो
तुम्हारी क़सम है मेरा दिल जलेगा

इसी फिल्म के लिए आशा जी का अमर गीत यही वो जगह है भी बिहारी साहब की लेखनी की उपज था।

बिहारी के इस इस गीत को महेंद्र जी ने इस भाव प्रवणता से गाया है कि ये गीत आपके मूड को संजीदा करने की ताकत रखता है... तो आइए सुनें ये गीत



और ये रहा विश्वजीत पर फिल्माए इस गीत का वीडिओ



मेरा प्यार वो है के, मर कर भी तुम को
जुदा अपनी बाहों से होने न देगा
मिली मुझको जन्नत तो जन्नत के बदले
खुदा से मेरी जाँ तुम्हें माँग लेगा
मेरा प्यार वो है ........

ज़माना तो करवट बदलता रहेगा
नए ज़िन्दगी के तराने बनेंगे
मिटेगी न लेकिन मुहब्बत हमारी
मिटाने के सौ सौ बहाने बनेंगे
हक़ीकत हमेशा हक़ीकत रहेगी
कभी भी न इसका फ़साना बनेगा
मेरा प्यार वो है ... ...

तुम्हें छीन ले मेरी बाहों से कोई
मेरा प्यार यूँ बेसहारा नहीं है
तुम्हारा बदन चाँदनी आके छू ले
मेरे दिल को ये भी गवारा नहीं है
खुदा भी अगर तुमसे आ के मिले तो
तुम्हारी क़सम है मेरा दिल जलेगा
मेरा प्यार वो है के ... .....

महेंद्र कपूर ने उस काल खंड में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई जब रफी, किशोर और मुकेश जैसे महान गायक अपनी चोटी पर थे। ये भी एक कारण रहा कि जिस शोहरत और सम्मान के वो हक़दार थे वो पूरी तरह उन्हें नहीं मिल पाया। इस बात का मुगालता कपूर साहब को भी रहा। एक पत्रिका को दिए अपने साक्षात्कार में एक बार उन्होंने बड़ी विनम्रता से पूछा था

".....मेरे बारे में इतना कम लिखा जाता है। मुझे समझ नही आता क्यूँ ? क्या मैंने कोई गलती की है? ....."


महेंद्र कपूर तो नहीं रहे पर उनके गाए गीत आने वाली पीढ़ियों के दिलों को भी जीतते रहेंगे ऍसी आशा है।

रविवार, जनवरी 28, 2007

ओ पी नैयर की धुनों का सफर : मेरी श्रद्धांजलि

इससे पहले कि इस गीतमाला को आगे बढ़ाने के लिए नई पोस्ट लिखता ,ये खबर मिली की मशहूर संगीतकार ओ. पी. नैयर साहब नहीं रहे।

अभी हाल में यानि १६ जनवरी को उन्होंने अपना ८० वाँ जन्मदिन मनाया था । ओ.पी. नैयर का संगीत अपने तरह से अनूठा था । पश्चिमी संगीत और हिन्दुस्तानी संगीत का जिस तरह से उन्होंने उस जमाने में समावेश किया उसका जोड़ ढूंढना मुश्किल है । अपनी इसी खासियत के लिए उन्हें रिदम किंग की उपाधि दी जाती है। इतने वर्षौं के बाद भी उनकी धुनें आज भी उतनी ही कर्णप्रिय लगती हैं । उनकी रचित धुनों की लोकप्रियता का आलम ये है कि पुराने संगीतकारों में पंचम के बाद सबसे ज्यादा उन्हीं की धुनों पर रिमिक्स संगीत बनाया गया है। आज जब वो हमारा साथ छोड़ गए हैं मेरी समझ से उनके लिए मेरी श्रृद्धांजलि यही होगी कि उनकी यादगार धुनों को आप सब के साथ फिर से बाँट सकूँ ।

पचास और साठ के दशक में अपनी धुनों का जादू बिखेरने वाले ओंकार प्रसाद नैयर ने अपनी पहली मुख्य सफलता गुरुदत्त की फिल्म आर पार (१९५४) से अर्जित की । वैसे तो नय्यर साहब ने आशा जी के साथ सबसे ज्यादा काम किया पर उनकी कई बेहतरीन धुनें गीता दत्त ने गायी हैं । आर पार में गीता दत्त से गवाये उनके गीत...

सुन , सुन, सुन, सुन बेवफा, कैसा प्यार कैसी प्रीत रे
तू ना किसी का मीत रे, झूठी तेरी प्यार की कसम
....

या फिर ..शोखी और चंचलता लिये ये गीत

"बाबूजी धीरे चलना, प्यार में जरा सँभलना, होऽऽऽऽऽऽबड़े हैं धोखे हैं इस प्यार में..." या फिर

"ये लो मैं हारी पिया..." बेहद लोकप्रिय हुए ।

इसके आलावा CID (1956) के गीत "आँखो ही आँखों में इशारा हो गया...", हावड़ा ब्रिज (1958) का "मेरा नाम चिन चिन चूँ,रात चाँदनी मैं और तू , हैलो मिस्टर हाउ डू यू डू ?..."या फिर मिस्टर एवम् मिसेज ५५(1955) की ठंडी हवा , काली घटा आ ही गई झूम के जैसे लोकप्रिय गीतों में गीता दत्त को नैयर साहब ने निर्देशित किया ।

पर आशा भोंसले के साथ नैयर साहब का जुड़ाव भावनात्मक और पेशेवर दोनों तौर पर बेहद पुख्ता रहा । ऐसा कहा जाता है कि लता इनके बीच के घनिष्ठ संबंधों को पसंद नहीं करती थीं। नैयर साहब ने लता से कभी कोई गीत नहीं गवाया । उनका कहना था कि लता की आवाज उनके संगीत के अनुरूप नहीं थी ।

आशा और नैयर साहब ने साथ मिलकर कई बेशकीमती गीत दिये हैं ।
हावड़ा ब्रिज का ये गीत "आइए मेहरबान, बैठिए जानेजान, शौक से लीजिए जी..इश्क की इम्तिहान.." को भला कौन भूल सकता है ।

१९६८ में आई उनकी फिल्म हमसाया जिसमें आशा जी का गीत
"वो हसीन दर्द दे दो जिसे मैं गले लगा लूँ, वो निगाह मुझ पे डालो कि मैं जिंदगी बना लूँ ..."मुझे बेहद प्रिय है । इसी फिल्म से रफी का गाया हुआ नग्मा "दिल की आवाज भी सुन मेरे फसाने पे ना जा..." बहुत मशहूर हुआ था ।

पर आशा जी ने नैयर साहब के निर्देशन में १९६५ की फिल्म मेरे सनम के लिए जो गीत गाए वो उनके कैरियर के सबसे बेहतरीन गीतों में से एक हैं ।
"जाइए आप कहाँ जाएँगे, ये नजर लौट के फिर आएगी ,
दूर तक आपके पीछे पीछे मेरी आवाज चली आएगी
"

और इसी फिल्म का एक और अमर गीत "ये है रेशमी जुल्फों का अँधेरा ना घबराइए.." की तो बात ही क्या है ।
पर आशा के साथ मोहम्मद रफी भी नैयर साहब के प्रिय कलाकारों में से एक थे ।मेरे ख्याल में कश्मीर की कली (१९६४) के गीतों में इन दोनों प्रतिभाओं ने अपने जबरदस्त हुनर की नुमाइश की । "दीवाना हुआ बादल हो....", या "सुभान अल्लाह हसीं चेहरा...", या फिर "ये दुनिया उसी की" (याद है ना गीत के पहले की सेक्सोफोन कि मधुर धुन), ये सारे गीत आज भी उतने ही मनभावन हैं जितना तब थे ।

१९६५ में रफी ने ये रात फिर ना आएगी में उनके ही निर्देशन में फिर मिलोगे कभी इस बात का वादा कर लो जैसा मधुर गीत गाया । और इसी फिल्म से आशा जी का गाया नग्मा ...
यही वो जगह है,यही वो फिजा है
यहाँ पर कभी आप हम से मिले थे ।
.....भी है ।

नैयर साहब ने अपने कैरियर के आखिरी मुकाम पर आने से पहले मुकेश (चल
अकेला चल अकेला...) और किशोर दा (रूप तेरा एसा दर्पण में ना समाए....) के साथ भी काम किया । ये तो थे उनके वो गीत जिन्होंने मुझे इस प्रविष्टि को लिखने को बाध्य किया ।

नैयर साहब ने अपने संगीत निर्देशन में जो बेशुमार गीत हमको दिये हैँ वो उनकी मृत्यु के बाद भी संगीत प्रेमियों के दिल में वैसे ही रहेंगे जैसे अब तक थे । चलते-चलते महेंद्र कपूर का उनकी फिल्म 'ये रात फिर ना आएगी' का ये गीत उन्हें अपनी श्रृद्धांजलि स्वरूप समर्पित कर रहा हूँ
मेरा प्यार वो है जो मर कर भी तुमको
जुदा अपनी बाहों से होने ना देगा
मिली मुझको जन्नत तो, जन्नत के बदले
खुदा से मेरी जां तुझे माँग लेगा
 

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