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सोमवार, अप्रैल 30, 2012

मैं हवा हूँ कहाँ वतन मेरा : हवा. मैं और सुरेश चोपड़ा

गर्मियों के ये दिन बड़े सुहाने चल रहे हैं। वैसे आप जरूर पूछेंगे ये तपती झुलसाती गर्मी मेरे लिए सुहानी कैसे हो गई?  आपका पूछना लाज़िमी है। दरअसल पिछले कुछ दिनों से जब जब हमारे शहर का तापमान बढ़ रहा है तब तब तेज़ ठंडी हवाएँ बारिश की फुहार के साथ तन और मन दोनों को शीतल किए दे रही हैं। बारिश से मेरा वैसा लगाव कभी नहीं रहा जैसा अमूमन हर कवि हृदय का होता है। पर जब भी बादलों की हलचल के साथ ठंडी हवा की मस्त बयार शरीर से टकराती है दिल हिलोरें लेने लगता है। ऐसे में मैं हमेशा छत की ओर दौड़ता हूँ इन हवाओं की प्रचंडता को और करीब से महसूस करने के लिए। पता नहीं हवा के इस सुखद स्पर्श में क्या शक्ति है कि मन चाहे कितना भी अवसादग्रस्त क्यूँ ना हो, ऐसी मुलाकातों के बाद तरोताज़ा हो जाया करता है। इन खुशनुमा लमहों में लता जी का गाया फिल्म शागिर्द का ये गीत होठों पर रहता है

उड़ के पवन के रंग चलूँगी
मैं भी तिहारे संग चलूँगी
बस मन को दिक्कत ये आती है कि आगे रुक जा ऐ हवा, थम जा ऐ बहार कहने का दिल नहीं करता..



बचपन की ये आदत कई दशकों के बाद आज भी छूटी नहीं है। वैसे इस आदत के पड़ने का कुछ जिम्मा हमारे देश की विद्युत आपूर्ति करने वाली संस्थाओं को भी जाना चाहिए। जैसा कि भारत में आम है कि जब भी आँधी आती है बिजली या तो चली जाती है या एहतियातन काट दी जाती है। फिर या तो छत या घर की बॉलकोनी, यही जगहें तो बचती है बच्चों को बोरियत से बचने के लिए। उम्र बढ़ती गई और उसकी इक दहलीज़ में आकर आँधी आते ही बिजली का जाना बड़ा भला लगने लगा।  हवा के पड़ते थपेड़ों से उड़ते बालों व धूल फाँकती मिचमिचाती आँखों  के बीच एकांत में घंटों बीत जाते और मुझे उसका पता भी ना चलता। बिजली आती तो बड़े अनमने मन से अपनी वास्तविक दुनिया में वापस लौटते।

पर तेज़ हवाओं से मेरा ये प्रेम अकेले का थोड़े ही है। आपमें से भी कई लोगों को बहती पवन वैसे ही आनंदित करती होगी जैसा मुझे। इस मनचली हवा के प्रेमियों की बात आती है तो मन लगभग दो दशक पूर्व की स्मृतियों में खो जाता है।  बात 1994 की है तब हमारे यहाँ दिल्ली से प्रकाशित टाइम्स आफ इंडिया आया करता था। उसके संपादकीय पृष्ठ पर लेख छपा था सुरेश चोपड़ा (Suresh Chopda) का। शीर्षक था  The Wind and I। उस लेख में लिखी चोपड़ा साहब की आरंभिक पंक्तियाँ मुझे इतनी प्यारी और दिल को छूती लगी थीं कि मैंने उसे अपनी डॉयरी के पन्नों में हू बहू उतार लिया था। चोपड़ा साहब ने लिखा था

"There is something so alive and moving in a strong wind, that one of my concept of perfect bliss is to find myself standing alone on a high cliff by the sea with a strong wind hurtling past me with full ferocity. Nothing depresses me more than a windless day, with everything still and the leaves of the trees hanging still and lifeless. Yes give me the wind any day the stronger, wilder and more ferocious the better."

पर जब आज आपसे जब सुरेश चोपड़ा के लेख का जिक्र किया है तो उसके साथ हवा से जुड़े उनके दो मज़ेदार संस्मरणों को भी बताता चलूँ जिन्हें मैं आज तक भुला नहीं पाया हूँ।

सुरेश चोपड़ा तब आकाशवाणी के संवाददाता थे। एक बार उन्हें पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश के मुख्यालय पेशावर में  काम के सिलसिले में कुछ महिनों के लिए भेजा गया। पेशावर के सदर इलाके में चोपड़ा साहब अपनी मारुति चला रहे थे कि उनकी नज़र सामने तांगे पर जाती एक युवती पर पड़ी। जैसा कि वहाँ का रिवाज़ है उस युवती ने अपनी आँखों को छोड़ अपना पूरा चेहरा काली मोटी चद्दर से ढका हुआ था। वो लगातार उनकी ओर अपलक देख रही थी। ये समझने का प्रयास करती हुई कि आख़िर पाकिस्तान के इस सुदूर इलाके में एक भारतीय कार् क्या कर रही है? चोपड़ा साहब मन ही मन सोच रहे थे कि काश मैं इस कन्या का चेहरा देख पाता कि इतने में पवन का एक तेज़ झोंका आया। झोंके की तीव्रता इतनी थी कि युवती के चेहरे से चादर अचानक ही हट गई। उसने तुरंत चादर वापस अपनी जगह पर कर ली पर हवा की दया से चोपड़ा साहब के मन की तमन्ना पूरी हो गई और उस चेहरे को वो कभी भूल नहीं पाए।

हवा से जुड़ा एक और दिलचस्प वाक्या सत्तर के दशक में हुआ जब चोपड़ा साहब को भारत चीन सीमा पर स्थित नाथू ला पर भेजा गया। नाथू ला पर भारत और चीन की सेनाओं की टुकड़ी आमने सामने गश्त लगाती है। दोनों सीमाओं के बीच बीस गज का फ़ासला हुआ करता था जो कि No man's land कहलाता था। एक दिन वे फौज से उधार माँगे बाइनोक्यूलर से चीनी टुकड़ीकी गतिविधियों का जायज़ा ले रहे थे। तभी उनकी नज़र एक चीनी सैनिक पर पड़ी जो एक दीवार के सहारे खड़ा होकर हाथ में लिये काग़ज़ को पढ़ रहा था। अचानक ही वहाँ हल्की सी आँधी आ गयी। वो काग़ज़ चीनी सैनिक के हाथ से निकलकर हवा में उड़ने लगा। बहुत देर तक हवा के विपरीत बहाव के बीच काग़ज़ का वो टुकड़ा नो मैन्स लेंड के ऊपर मँडराता रहा। कुछ देर के बाद वो टुकड़ा अंतरराष्ट्रीय सीमा को पार करता हुआ भारतीय हिस्से में आकर गिर गया। वो बड़ा नाटकीय क्षण था। किसी भी हालत में उस पत्र को वापस लौटाया नहीं जा सकता था क्यूँकि जवानों के बीच बातचीत की उस वक़्त सख्त मनाही थी। सेना ने उस टुकड़े को ज़ब्त कर लिया और संदेश का अनुवाद करने के लिए उसे दिल्ली भेज दिया गया।

उस घटना के कई साल बाद  जब चोपड़ा जी को सेना क मुख्यालय में जाने का मौका मिला तो उन्हें उस कागज के टुकड़े की याद आई। उन्हें पता लगा कि वो कोई गुप्त संदेश ना होकर एक प्रेम पत्र था जिसका पता चलने के बाद औपचारिक क्षमा के साथ चीनी टुकड़ी को वापस लौटा दिया गया था।
अब हवा क्या जानें सरहद की दीवारों को। वो तो बेखौफ़ उस दिशा में चलती है जिधर उसकी मर्जी हो।चीन से जुड़ी इस घटना को याद करते हुए मुझे अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन की गाई वो ग़ज़ल याद आ रही है जिसमें वो फर्माते हैं

मैं हवा हूँ कहाँ वतन मेरा
दश्त मेरा ना ये चमन मेरा

आप भी सुनिए..


तो ये थे हवा के कुछ शरारती कारनामे। क्या आपकी ज़िंदगी में भी इस नटखट हवा से जुड़ी कुछ यादें हैं ..तो बताइए ना हम सुनने को तैयार बैठे हैं..

सोमवार, मार्च 19, 2012

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, कि मेरी नज़र को ख़बर न हो :हुसैन बंधुओं की आवाज़ में

भारतीय ग़ज़लकारों में बशीर बद्र एक ऐसे शायर रहे हैं जिनकी ग़ज़लें समाज के हर तबके में मशहूर हुई हैं। जब भी कोई काव्य प्रेमी पहली बार शेर ओ शायरी में अपनी दिलचस्पी ज़ाहिर करता है और मुझसे पूछता है कि मुझे शुरुआत किन शायरों से करनी चाहिए तो मैं सबसे पहले बशीर साहब का ही नाम लेता हूँ। बशीर बद्र साहब अपनी ग़ज़लों में भारी भरकम अलफ़ाजों के चयन से बचते रहते हैं। पर ये सहजता बरक़रार रखते हुए भी उन्होंने अपने भावों की गहराइयाँ कम नहीं होने दी है। यही उनकी लोकप्रियता का मुख्य कारण है।


काव्य समीक्षक विजय वाते उनके ग़ज़लों के संग्रह 'उजाले अपनी यादों के' की प्रस्तावना में उनकी भाषा की इसी सादगी के बारे में कहते हैं
"...डा. बद्र की कविता का अत्यंत प्रीतिकर पक्ष उनकी सादगी है। कितने भोलेपन से वे कह सकते हैं
हम से मुसाफ़िरों का सफ़र इंतज़ार है
सब खिड़कियों के सामने लंबी कतार है

सहजता में कविता एक चिंतन को कैसे रूप दे सकती है ये डा. साहब की कविता में देखा जा सकता है और ये भी कि संप्रेषण के स्तर पर सरलता से उपलब्ध कविता अनुभूति और रचना प्रक्रिया के स्तर पर सहज होते हुए भी अपने पीछे से कवि के आत्म संघर्ष, भीतरी खोजें, बेचैनी, उसके अध्ययन और चिंतन के सराकोरों से लबालब होती है।.."

यही कारण है कि बशीर बद्र साहब के लिखे शेर तुरंत याद हो जाते हैं। यही हाल उन ग़ज़लों की गेयता का भी है। बशीर बद्र की तमाम ग़ज़लों को अलग अलग गायकों ने अपने मुख्तलिफ़ अंदाज में गाया है। इनमें जगजीत सिंह अग्रणी रहे हैं। आज बद्र साहब की जिस मक़बूल ग़ज़ल को आपके सामने पेश कर रहा हूँ उसे बारहा आपने जगजीत जी की आवाज़ में सुना होगा। पर आज उसी ग़ज़ल को सुनिए हुसैन बंधुओं की आवाज़ में। 

जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ जनाब अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन की। हुसैन बंधुओं की ग़ज़लों से मेरा साथ स्कूल के दिनों का है। उस ज़माने में रेडिओ पर उनकी तमाम ग़ज़लें सुनने को मिलती थीं। उनमें से कुछ के बारे में तो पहले भी चर्चा कर चुका हूँ। चल मेरे साथ ही चल, मैं हवा हूँ कहाँ वतन मेरा, इलाही कोई हवा का झोंका और दो जवाँ दिलों का ग़म तो हाई स्कूल और इंटर के ज़माने में मेरी पसंदीदा ग़ज़लें हुआ करती थीं।

पर  कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, कि मेरी नज़र को ख़बर न हो मैंने सबसे पहले जगजीत जी की आवाज़ में ही सुनी थी। पर जब हुसैन बंधुओं की जुगलबंदी में इसे सुना तो उसका एक अलग ही लुत्फ़ आया। डा. बशीर बद्र की ये ग़ज़ल वाकई कमाल की ग़जल है। क्या मतला लिखा है उन्होंने

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, कि मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हो

सहर : सुबह

कितना प्यारा ख़्याल है ना  किसी को चुपके से  हमेशा हमेशा के लिए अपनी आँखों में बसाने का। पर बद्र साहब का अगला शेर भी उतना ही असरदार है

वो बड़ा रहीमो-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआ में असर न हो

सिफ़त :  विशेषता, गुण,    अता करे :  प्रदान करे

अब भगवन ने ना भूलने का ही वर दे दिया तब तो उनसे ज़ुदा होने का तो मौका ही नहीं आएगा। और देखिए तो यहाँ बशीर बद्र का अंदाज़े बयाँ

मिरे बाज़ुओं में थकी-थकी, अभी महवे- ख़्वाब है चाँदनी
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो

यानि मेरी गोद में थकी हुई निद्रामग्न चाँदनी लेटी  है।  बस अब तो मेरी यही इल्तिज़ा  है कि तारों से भरी इस रात की पालकी कभी ना उठे और ख़ामोशी का आलम बदस्तूर ज़ारी रहे।

कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब को फूल को चूम के
यूँ ही साथ-साथ चले सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो

पर जगजीत ने इस ग़ज़ल का एक और शेर गाया है और वो इस ग़ज़ल के रोमांटिक मूड को और पुख्ता कर देता है

मेरे पास मेरे हबीब आ, ज़रा और दिल के करीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं, कि बिछड़ने का कभी डर न हो

तो आइए सुने इस ग़ज़ल को हुसैन बंधुओं की आवाज़ में...



चलते चलते इसी ग़ज़ल का एक और शेर जिसे जगजीत या हुसैन बंधुओं ने अपने वर्सन में शामिल नहीं किया है..

ये ग़ज़ल के जैसे हिरन की आँखों में पिछली रात की चाँदनी
न बुझे ख़राबे की रौशनी, कभी बे-चिराग़ ये घर न हो

गुरुवार, अक्टूबर 30, 2008

अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन : इलाही कोई हवा का झोंका, दिखा दे चेहरा उड़ा के आँचल..

एक ज़माना वो था जब आँखों की देखा देखी के लिए शापिंग मॉल और मल्टीप्लेक्स की जगह छत और घर की छोटी सी बॉलकोनी युवाओं के लिए आदर्श स्थल हुआ करती थी। मोबाइल, चैट और ई मेल की कौन कहे तब तो पत्थर से बाँध कर पड़ोसिनों की छत पर पैगाम पहुँचाए जाते थे। हाथों का हल्का इशारा, झरोखों के पर्दों से दिखती बेचैन निगाहें या फिर एक खूबसूरत सी मुस्कान सालों चलते सो कॉल्ड चक्कर की कुल जमा पूँजी हुआ करतीं थी। पर मैं इन बातों को आपको क्यों याद दिला रहा हूँ ? शायद इसलिए कि अहमद और मोहम्मद हुसैन का गाया ये नग्मा भी वैसे ही किसी ज़माने में लिखा गया होगा।

पर इससे पहले कि हुसैन बंधुओं के इस नटखट और गुदगुदाते से नग्मे को सुना जाए समय की परिधि को १४ वर्ष पहले तक समेटने का मन हो रहा है।

बात १९९४ की है....
हम तीन मित्र जो उस वक़्त एस्कार्ट्स,फरीदाबाद में कार्यरत थे एक परीक्षा देने दिल्ली में आए। परीक्षा केंद्र था IIT दिल्ली। साथ वालों में एक बंदा दिल्ली का था और दूजा मेरठ का। परीक्षा के बाद बस से हम हॉज खास (Hauz Khas) से लाजपत नगर तक आ गए थे। अब हमें वहाँ से आश्रम के रास्ते फरीदाबाद जाने वाली बस पकड़नी थी।

अब जो भी बस जा रही थीं वो पूरी तरह ठसाठस भरी हुईं।
सो करे तो क्या करें हम ?
कभी उस तेज धूप तो कभी DTC को कोस रहे थे..

कि इत्ते में दूर से एक चार्टर्ड बस आती दिखाई दी। अमूमन ऍसी बस सिर्फ अपने रोज़ के मुसाफ़िरों को ही बैठाती हैं सो उसके वहाँ रुकने की कोई आशा नहीं थी। पर बस ज्योंही पास आई कि हम सबकी नज़र उस खूबसूरत मुखड़े पर जा अटकी जो खिड़की से हम सभी की ओर ही देख रही थी। बस फिर क्या था हम सभी के मन में शरारत सूझी और सब समवेत स्वर में उसकी ओर देख के एक साथ चिल्ला उठे...

रोको! रोको! हमें इसी बस में चढ़ना है !

अब दिल्ली के बस कंडक्टर तो ऍसे ही इतने ही कठोर हृदय वाले ठहरे सो भला बस क्यूँ रुकती पर हम भी जान लगाकर बस के साथ ऍसे दौड़े कि आज तो बस में इन्ट्री ले ही लेंगे। पर दौड़ना तो एक बहाना था, बस मोहतरमा का ध्यान अपनी ओर खींचना था।

और हमारा दौड़ना व्यर्थ नहीं गया क्योंकि तोहफे में मिली हमें एक उनमुक्त सी खिलखिलाती हँसी जिसे देख कर हम निहाल हो गए :)।

जिंदगी की यादों में क़ैद ये लमहे जब भी ज़ेहन की वादियों में उभरते हैं, मन में खुशमिज़ाजी आ जाती है। और ये नग्मा जिसे अस्सी के दशक में पहली बार सुना था, बहुत कुछ ऍसा ही अह्सास दिला जाता है



वो जिंदगी में क़मर की तरह से रौशन हैं
कि उसी के अक़्स से शफ्फाक़ दिल का दर्पण है
हसीं शरीक ए सफ़र है बहुत मुबारक है
उसी के साथ तो मेरा जनम का बंधन है

इलाही कोई हवा का झोंका
दिखा दे चेहरा उड़ा के आँचल
जो झाँकता है भी वो सितमगर
वो खिड़कियों में लगा के आँचल


सुनी जो कदमों के मेरे आहट
तो जा के चुपके से सो गए वो
सो गए वो...
जो मैंने तलवों में गुदगुदाया
पलट दिया मुसकुराकर आँचल
इलाही कोई हवा का झोंका......


गुरूर ढाएगा कोई कितना
गुरूर महशत बपा करेगा
गुरूर ढाएगा ...
ये तेरा आठखेलियों से चलना
झुका के गर्दन गिरा के आँचल

इलाही कोई हवा का झोंका......

जुरूर है माज़रा ये कोई
वो रहते हैं दूर दूर हमसे
दूर दूर................
जो पास आकर भी बैठते हैं
तो हर तरफ से दबा का आँचल

इलाही कोई हवा का झोंका......

मंगलवार, सितंबर 30, 2008

चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल : सुनिए हुसैन बंधुओं की आवाज़ में ये दिलकश ग़ज़ल

शास्त्रीय संगीत में जुगलबंदी का अपना ही मजा होता है। वैसा ही कुछ अहसास तब होता है जब हुसैन बंधु एक साथ मिलकर ग़ज़ल के तार छेड़ते हैं। जी हाँ मैं उस्ताद अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन की बात कर रहा हूँ। हुसैन बंधुओं को संगीत का फ़न विरासत में ही मिला था। इनके पिता उस्ताद अफज़ल हुसैन जयपुरी खुद एक चर्चित ठुमरी और ग़ज़ल गायक रह चुके हैं।

हुसैन बंधुओं की गायिकी से पहला परिचय अस्सी के दशक में म्यूजिक इंडिया नाम की कंपनी की कैसेट के तहत हुआ था। पर इनकी ज्यादातर ग़ज़लों को सुनना और पसंद करना संभव हुआ विविध भारती के कार्यक्रम रंग तरंग की वजह से। जाने क्या मोहब्बत थी विविध भारती वालों की इनसे कि हर दूसरे दिन इनकी ग़ज़लें सुनने को मिल ही जाया करती थीं। एक ग़ज़ल जो बार-बार बजा करती थी और जो मुझे उन दिनों पूरी याद हो गई थी, वो थी

दो जवाँ दिलों का गम दूरियाँ समझती हैं
कौन याद करता है हिचकियाँ समझती है...

जिसने कर लिया दिल में पहली बार घर 'दानिश'
उसको मेरी आँखों की पुतलियाँ समझती हैं


पर जिस ग़जल की बात आज मैं कर रहा हूँ उसकी तासीर ही दिल पर कुछ अलग सी होती है। ये उन ग़ज़लों मे से है जो जिंदगी के हर पड़ाव पर मेरे साथ रही है एक हौसला देती हुई सी। जब भी मन परेशान हो और अपना लक्ष्य धुँधला सा हो तो ये ग़ज़ल रास्ता दिखलाती सी महसूस हुई। 'राग यमन' पर आधारित इस ग़ज़ल को लिखा था, हुसैन बंधुओ के चहेते, मशहूर गीतकार हसरत जयपुरी साहब ने।

कुछ महिनों पहले डा. अजित कुमार ने भी इस ग़जल की चर्चा करते हुए इसे अपना पसंदीदा माना था। तो आइए सुनते हैं हुसैन बंधुओं की दिलकश आवाज़ में ये ग़ज़ल



चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल
इन समाजों के बनाये हुये बंधन से निकल, चल

हम वहाँ जाएँ जहाँ प्यार पे पहरे न लगें
दिल की दौलत पे जहाँ कोई लुटेरे न लगें
कब है बदला ये ज़माना, तू ज़माने को बदल, चल

प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं
बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं
तू भी बिजली की तरह ग़म के अँधेरों से निकल, चल

अपने मिलने पे जहाँ कोई भी उँगली न उठे
अपनी चाहत पे जहाँ कोई भी दुश्मन न हँसे
छेड़ दे प्यार से तू साज़-ए-मोहब्बत पे ग़ज़ल, चल

पीछे मत देख न शामिल हो गुनाहगारों में
सामने देख कि मंज़िल है तेरी तारों में
बात बनती है अगर दिल में इरादे हों अटल, चल



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