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मंगलवार, अक्टूबर 19, 2010

एशियाड के 'अप्पू' से कॉमनवेल्थ के 'शेरा' तक :इन खेलों की वो अनमोल यादें...

अक्टूबर 1982 में होश सँभालने के बाद पहली बार शायद दिल्ली जाना हुआ था। दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतें भी तभी देखी थीं पर सबसे ज्यादा जो बात याद रह गई, वो थी उस रात की! पूरी यात्रा के दौरान पिताजी से यही शिकायत करता रहा था कि पापा अगर आप एक महिने देर से हमें यहाँ लाए होते तो हमें एशियाई खेलों को देखने का मौका मिल जाता। बाद में मेरा मन रखने के लिए पिताजी हमें नवनिर्मित जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम के बाहर ले आए थे।

बाहर से ही दूधिया रोशनी से नहाया हुए स्टेडियम को देखना एक छोटे शहर से आए उस बच्चे के लिए कितना रोमांचकारी रहा होगा ये आप भली भांति समझ सकते हैं। मेरी मनः स्थिति को समझ पिताजी हमें स्टेडियम के अंदर दाखिल कर लेने के जुगाड़ में लग गए थे। अंदर उद्घाटन समारोह की तैयारियाँ जोरों पर थीं।

संयोग से स्टेडियम के बाहर तैनात सुरक्षाकर्मी हमारे प्रदेश का था और पिताजी के कहने पर उसने हमें दस मिनट के लिए अंदर जाने की इज़ाजत दे दी थी। सीढ़ियाँ चढ़कर जब स्टेडियम के अंदर मैंने कदम रखा तो अंदर के उस अलौकिक दृश्य हरी दूब की विशाल आयताकार चादर और उसके चारों और फैला हुआ ट्रैक का कत्थई घेरा और मैदान से आती स्वागतम की मधुर धुन। ... को देख सुन कर मन खुशी से झूम उठा था।

इन्ही स्मृतियों को लिए मैं वापस पटना आ गया था। मन में इन खेलों के प्रति उत्साह का ये आलम था कि अगले महिने जब नवंबर से ये खेल प्रारंभ हुए थे तब मेरा पूरा दिन टेलीविज़न के सामने बैठ कर जाता था। ये बताना आवश्यक होगा कि एशियाई खेलों के साथ ही पटना में रंगीन टेलीविज़न की शुरुआत हुई थी। हमारे घर तब रंगीन क्या, श्वेत श्याम टीवी भी नहीं था। पर हम सुबह आठ बजे ही नहा धो कर पड़ोसी के घर चले जाते और वहाँ अन्य बच्चों के साथ ही जमीन पर बैठ कर खिलाड़ियों के कारनामों को अपलक निहारा करते थे।

जिमनास्टिक, घुड़सवारी, नौकायन, गोल्फ, लॉन टेनिस व एथलेटिक्स की विभिन्न प्रतिस्पर्धाएँ क्या होती हैं और कैसे खेली जाती हैं ये मुझे पहली बार इन्ही खेलों के द्वारा पता चला। बीस किमी दौड़ के स्वर्ण पदक विजेता चाँद राम, मध्यम दूरी की धाविका गीता जुत्शी, हमारी गोल्फ टीम तब के हमारे हीरो बन गए थे। वहीं पाकिस्तान से हॉकी के फाइनल में मिली करारी हार जिसमें हमारे गोलकीपर नेगी का लचर प्रदर्शन और कप्तान ज़फर इकबाल का पेनाल्टी स्ट्रोक मिस कर जाना शामिल था, हमें बहुत दिनों तक अखरता रहा था।

इसी लिए जब 28 सालों बाद इतने बड़े स्तर पर राष्टमंडल खेल जैसी खेल प्रतियोगिता की मेज़बानी करने का मौका भारत को मिला तो मुझे हार्दिक खुशी हुई थी। तमाम लोग इस तरह के खेलों को पैसे की बर्बादी बताते रहे हैं पर मेरे मन में इस बात को ले के कभी सुबहा नहीं रहा कि इस तरह के खेलों का आयोजन से देश के प्रतिभावान खिलाड़ियों (जो आधी अधूरी सुविधाओं के बलबूते पर भी अपनी अपनी स्पर्धाओं में अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं) को एक अच्छा प्लेटफार्म मिल जाता है। जो रोल मॉडल इन खेलों के ज़रिए चमकते हैं वो कई भावी खिलाड़ियों, युवाओं और बच्चों में एक आशा की किरण, एक सपना जगा जाते हैं कि हम भी कभी उस मुकाम पर पहुँच सकते हैं। इसके अतिरिक्त देश के नागरिकों में ऐसे सफल आयोजन से जिस आत्मगौरव की भावना जाग्रत होती है उसका कोई मोल नहीं है।

पर इन सब बातों का ये मतलब नहीं कि हम इन खेलों के आयोजन में हुए भ्रष्टाचार पर आँखें मूँद लें। दोषियों पर नकेल कसने के लिए जो कार्यवाही चल रही है वो अपने उचित मुकाम पर पहुँचे, यही आशा है।

पिछले दो हफ्तों के आयोजन में कार्यालय से घर आ कर बिताए लमहे मेरे लिए बेहद खुशगवार रहे हैं। तीन दशक पूर्व हुए बचपन के उस अभूतपूर्व अनुभव में फर्क यही था कि इस बार मेरे बचपन को मेरे आठ वर्षीय पुत्र ने जीया और मैं भी उसकी संगत में वही बालक बन गया।

आज मैं कॉमनवेल्थ खेलों से जुड़ी इन यादों को उन खिलाड़ियों, मज़दूरों, देश के विभिन्न भागों से आए कलाकारों, सुरक्षा बलों के जवानों, स्वेच्छा से अपनी सेवाएँ देने वाले बच्चों को समर्पित करना चाहता हूँ जिनकी अथक मेहनत का फल हमने इस अभूतपूर्व आयोजन में देखा। उद्घाटन समारोह में भारत के विविध रंगों का इतना सुरुचिपूर्ण प्रदर्शन बहुत दिनों तक याद रहेगा। इतने सुंदर नृत्य, मन मोहती पोशाकें और सबसे लाजवाब भारतीय रेल के बिंब के ज्ररिए भारत के आम नागरिकों का सम्मान।

हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश अपनी संकीर्ण सामाजिक पृष्ठभूमि, मादा भ्रूण हत्याओं के लिए बदनाम रहे हैं। पर मुजफ्फरनगर की अलका तोमर और भिवानी की गीता जब अपनी विरोधी पहलवानों को पटखनी दे रही हैं तो मन यही सोच रहा है क्या वे अपने इलाके के लोगों में बच्चियों के लिए नई सोच का सूत्रपात नहीं करेंगी? गौरतलब रहे कि ये महिलाएँ सरकारी मदद से ज्यादा अपने अभिभावकों द्वारा मिले सहयोग से इस मुकाम तक पहुँचने में सफल हुई हैं। ये वो खिलाड़ी हैं जिन्होंने आयातित गद्दों के बजाए मिट्टी के अखाड़ों में कुश्ती की शुरुआत की। जिमनेज्यिम के बजाए खेत खलिहानों में दौड़कर अपनी फिटनेस बनाए रखने की क़वायद की और इन सबसे ज्यादा समाज की परवाह ना करते हुए भी उस स्पर्धा में नाम कमाया जो उनके लिए प्रायः वर्जित थी।

फिर भी जब इनका जज़्बे की मिसाल देखिए। बबिता, गीता की छोटी बहन हैं। चेहरे से अभी भी बच्ची ही दिखती हैं। रजत पदक जीत लिया उन्होंने पर आँखों में आँसू हैं... कुछ गलती हो गई नहीं तो गोल्ड मैं भी ले ही आती..भगवान करे जीत की ये भूख आगे भी बनी रहे...


चलिए परिदृश्य बदलते हैं। बात करते हैं झारखंड की जहाँ हॉकी और तीरंदाजी के प्रतिभावान खिलाड़ियों की अच्छी खासी पौध है। सुविधाओं के नाम पर कुछ एस्ट्रोटर्फ स्टेडियम बने। रख रखाव के आभाव में फट गए हैं पर खिलाड़ी उन्हीं पर अब भी खेलते हैं। स्पोर्ट्स हॉस्टल हैं पर वहाँ खिलाड़ियों को ढंग का भोजन नसीब नहीं है। फिर भी पुरुष और महिला हॉकी टीम में आदिवासी खिलाड़ी अपनी प्रतिभा के बल पर मुकाम बना ही लेते हैं।

दीपिका कुमारी को ही लीजिए पिता आटोरिक्शा चलाते हैं, माँ एक नर्स हैं। बेटी को निशाना साधने का बचपन से ही शौक था। तीर ना सही पत्थर तो थे और लक्ष्य आम का पेड़। पर शीघ्र ही मन में ये आत्मविश्वास समा गया कि अगर मैं ये निशाना अच्छा लगा सकती हूँ तो तीर भी ही निशाने पर ही छोड़ूँगी। एक बार टाटा की तीरंदाजी एकाडमी में प्रवेश मिला तो फिर उसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। ग्याहरवीं में पढ़नेवाली ये लड़की गेम्स के फाइनल में अपने विरोधी को अपने स्कोर के पास भी नहीं फटकने देती। हमारे सिस्टम में ये चमत्कार नहीं तो और क्या है !

ऐसी कितनी ही कहानियाँ आपको निशानेबाजों, भारत्तोलकों और एथलीट की मिल जाएँगी जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपने देश का सर गर्व से ऊँचा किया है। कॉमनवेल्थ खेलों की सफलता का सारा दारोमदार इन खिलाड़ियों पर है। चलते चलते कुछ लमहे जिन्होंने इन खेलों को मेरे लिए कुछ और खास बना दिया।
खेल हॉकी, मैच भारत बनाम पाकिस्तान ...
भारत के लिए करो या मरो की स्थिति। शुरुआती कुछ मिनट और पाकिस्तान गोल पर ताबड़तोड़ हमले..क्या सुरक्षा पंक्ति, क्या आक्रमण पंक्ति, जगह बदल बदल कर , प्रतिद्वन्दियों को छकाते और मौका पड़ने पर लंबे पॉस देने में भी कोताही नहीं बरतते इन खिलाड़ियों के आक्रमण की लहरें देखते ही बनती थीं। कुछ मिनटों में स्कोर 1-0 से बढ़कर 4-0 हो जाता है और अंततः 7-4 से भारत विजयी होता है। शायद कॉमनवेल्थ हॉकी में अब तक पदकविहीन रही भारतीय टीम के लिए ये एक नई शुरुआत हो.....

खेल हॉकी, मैच भारत बनाम इंग्लैंड...
इंग्लैंड 3-0 से आगे। मैं निराश हो कर टीवी बंद करने की गलती कर बैठता हूँ। पुत्र के आग्रह पर पंद्रह मिनट बाद टीवी खोलता हूँ ये क्या स्कोर 3-3 और फिर पेनाल्टी स्ट्रोक का वो ड्रामा। मन में ज़फर इकबाल का भूत फिर उभरता है पर इस बार की पटकथा कुछ और है.....

खेल बैडमिंटन, मैच भारत बनाम मलेशिया
मलेशिया 2-0 से आगे। साइना रबर को बचाने के लिए मैदान में उतरती हैं। मलेशिया की अनुभवी खिलाड़ी बड़े कम अंतर से पहला सेट अपने नाम करती हैं। साइना जानती हें कि उनके जीतने से भी अंतिम निर्णय में ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला। पर अगले दो सेटों में जोर लगाती हैं। हर अंक के लिए काँटे की टक्कर, लंबी थका देने वाली रैलियाँ । पर साइना अपना आत्मबल नहीं खोती। यही कहानी वो एकल फाइनल मुकाबले में दोहराती हैं। कितने दिनों बाद देखा है इतने मजबूत इरादों वाला खिलाड़ी......

खेल : टेबल टेनिस, पदक वितरण समारोह पुरुष युगल
राष्ट्रधुन के साथ तिरंगे का उठना टेबल टेनिस खिलाड़ी शरद कमल को भावातिरेक कर दे रहा है। भारतीय ध्वज ऊपर उठ रहा है और वो पोडियम पर खड़े हो कर फूट फूट कर रो रहे हैं। खुशी के आँसुओं का सैलाब कितना अनोखा होता है ना....

खेल : एथलेटिक्स, 4 x400 मीटर महिला रिले


पर पूरे खेलों का सबसे आनंददायक क्षण दिया मुझे 4 x400 मीटर की महिला रिले टीम ने। मनजीत कौर, सिनी, अश्विनी और मनदीप की इस चौकड़ी ने जिस तरह से नाइजीरियाई धावकों को पीछे छोड़ा वो अपने आप में एक कमाल था। मनजीत और सिनी ने दूसरे चक्र तक भारत को दूसरे स्थान के करीब रखा था पर अश्विनी ने तीसरे चक्र में पीछे खिसक जाने के बाद जिस तेजी से तीसरे से दूसरे और फिर पहले स्थान पर टीम को ला कर खड़ा कर दिया वो कल्पना से परे था। और मनदीप ने ये बढ़त अंत तक बरकरार रखी...

तो आइए एक बार फिर देखते हें कि ये सब हुआ कैसे..



एक बार फिर से कॉमनवेल्थ के इन महान सिपाहियों को मेरा कोटिशः नमन। आशा है इनकी मेहनत को से हमारा खेल तंत्र और बेहतर ढंग से काम करेगा ताकि सौ करोड़ से ज्यादा आबादी वाले इस देश को ऐसे अनेक गौरवशाली क्षणों देखने और महसूस करने का मौका मिले।

सोमवार, नवंबर 03, 2008

अनिल कुंबले - क्रिकेट के प्रति पूर्णतः कटिबद्ध इस जीवट खिलाड़ी के खेल जीवन से जुड़े वो यादगार पल...

अनिल कुंबले ने कल दिल्ली टेस्ट के आखिरी दिन प्रथम श्रेणी क्रिकेट से संन्यास ले लिया। नब्बे के दशक से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले अनिल के १८ वर्षों के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के सफ़र का मैं साक्षी रहा हूँ। इस दौरान भारत ले लिए दिया गया उनका योगदान किसी भी हिसाब से सुनील गावस्कर और कपिल देव से कमतर नहीं है, ऐसा मेरा मानना है।


कुंबले का नाम आते ही एक ऐसे खिलाड़ी की शक्ल ज़ेहन में उभर कर आती है जिसने हमेशा टीम के हित को सर्वोपरि रखा। ये खिलाड़ी जब भी मैदान में उतरा अपना सर्वस्व झोंक कर आया। इसलिए अंतिम टेस्ट के लिए जैसे ही कुंबले को ये लगा कि शारीरिक रूप से वो पूर्णतः सक्षम नहीं हैं, उसने इस श्रृंखला के बीच में ही ये निर्णय ले लिया कि अलविदा कहने का वक़्त आ गया है।


अनिल को 'जंबो' की उपमा उनकी तेज गति से फेकी जाने वाली फ्लिपर (Flipper) की वज़ह से ही नहीं मिली बल्कि इसमें उनके जंबो साइज पाँवों का भी हाथ रहा :)। अनिल मेरे हमउम्र तो हैं ही, साथ ही वो हमारी जात बिरादिरी वाले भी हैं। चौंक गए ! अरे जनाब मेरे कहने का मतलब ये था कि वो भी एक यांत्रिकी यानि मेकेनिकल इंजीनियर (वो भी Distinction Holder) हैं। अब ये अलग बात है कि अपने चुस्त दिमाग का प्रयोग उन्होने क्रिकेट के मैदान में अपनी गेंदों की लेंथ, गति और फ्लाइट के बदलाव में दे डाला और तभी तो १३२ टेस्ट में ६१९ विकेट झटक डाले।

जितने मैचों में उन्होंने भारत को अपनी गेंदबाजी के बल पर जिताया है वो उनसे ज्यादा नामी खिलाड़ियो से कहीं अधिक है। वैसे तो कितने ही मौके हैं जो कुंबले ने तमाम भारतीयों के लिए यादगार बना दिए पर आज इस महान खिलाड़ी की विदाई के समय उनमें से कुछ पलों को आपसे फिर बाँटना चाहूँगा जिसे याद कर मन आज भी बेहद रोमांचित हो उठता है।


फरवरी १९९९, फिरोजशाह कोटला, दिल्ली

पाकिस्तान की टीम को जीतने के लिए अंतिम पारी में ४०० से ऊपर रन बनाने हैं। जीत असंभव है बस मैच बचाने की जुगत है। पहले स्पेल में अनिल भी कुछ खास नहीं कर पाते हैं। स्कोर १०१ तक जा पहुँचता है वो भी बिना कोई विकट खोए। पर अनिल का दूसरा स्पेल पाकिस्तानी बल्लेबाजों के लिए प्राणघातक साबित होता है। अफ़रीदी, सईद अनवर , इज़ाज अहमद, सलीम मलिक, इंजमाम जैसे धुरंधर बल्लेबाज कुंबले के शिकार बनते चले जाते हैं। हालत ये है कि सक़लीन मुश्ताक का जब नौवाँ विकेट गिरता है तो श्रीनाथ कोशिश करते हैं कि वो गलती से आखिरी विकेट ना ले जाएँ। वसीम अकरम के आउट होते ही भारत को मिलती है एक जबरदस्त जीत और कुंबले को एक ऍसा व्यक्तिगत मुकाम जिसे क्रिकेट इतिहास में सिर्फ एक और बार ही संपादित किया गया हो। तो आइए फिर से महसूस करें खुशी के उन पलों को और देखें कुंबले ने कैसे किए थे अपने ये दस शिकार


जब मैं बंगलोर गया था तो एम जी रोड के पास अनिल कुंबले के नाम का वो चौक भी दिखाई पड़ा था जो कर्नाटक सरकार ने उनकी इस उपलब्धि के उपहार स्वरूप दिया था।

मई २००२, एंटीगुआ
भारत और वेस्ट इंडीज के बीच एंटीगुआ में चौथा टेस्ट मैच चल रहा है। वेस्ट इंडीज के तेज गेंदबाज मरविन डिल्लन एक बाउंसर फेंकते हैं। अनिल इससे पहले कि गेंद की लाइन से अपने आप को हटा पाएँ गेंद उनके गाल पर जा लगती है। शुरु में तो ऍसा लगता है कि सिर्फ बाहरी कटाव है पर जब रात में दर्द बढ़ता है तो पता लगता है कि जबड़े में ही क्रैक है। पर जुझारुपन और जीवटता की मिसाल देखिए, चौथे दिन के खेल में सिर पर बैंडेज बाँधे ये खिलाड़ी मैदान पर उतरता है और लारा जैसे महान बल्लेबाज को आउट करने में सफल हो जाता है।


अगस्त २००७, क्वीन्स पार्क, ओवल

ओवल में दूसरा टेस्ट इंग्लैंड और भारत के बीच खेला जा रहा है। रनो का अंबार लग रहा है। धोनी की आतिशी पारी का अनायास अंत हुआ है और मैदान में कुंबले हैं। लग रहा है भारत की पारी जल्दी ही सिमट जाएगी क्यूंकि दूसरे छोर पर श्री संत हैं जिनका टेंपरामेंट जगजाहिर है। पर अपनी टेस्ट जीवन की १५१ वीं पारी में कुंबले पूरे फार्म में हैं। तेंदुलकर की तरह ही कवर ड्राइव लगा रहे हैं। और ये क्या अब तो वो अपने पहले शतक के पास भी पहुँच गए हैं।
हमारे दिल की धड़कने बढ़ गई हैं। निचले क्रम के बल्लेबाज का शतक, ऊपरी क्रम के बल्लेबाज की तुलना में हमारे लिए हजार गुना ज्यादा महत्त्व रखता है। शतक से अब एक शाट की दूरी है पर ये गेंद तो बल्ले के निचले किनारे से निकल कर विकेट की बगल से होती हुई सीमारेखा की ओर जा रही है । वहीं कुंबले पहला रन पूरा कर दूसरे के लिए भाग रहे हैं और अब तो गिर भी पड़े हैं पर शतक पूरा हो गया है। हमारी आँखे खुशी के अतिरेक से सजल हो उठीं हैं और उधर ड्रेसिंग रूम में तो जश्न का माहौल है ही।

नवंबर २००८ फिरोजशाह कोटला, दिल्ली
कुंबले कैच लेते वक़्त फिर घायल हैं। बायें हाथ में फिर 11 टाँकें पड़े हैं फिर भी आस्ट्रेलियाई टीम को आल आउट भी करना है। हरभजन नहीं है तो मैदान में उनकी जरूरत है। इंशांत शर्मा और अमित मिश्रा जैसे युवा खिलाड़ियों से लेकर लक्ष्मण तक आसान कैच नहीं ले पा रहे। कुंबले क्षेत्ररक्षण से खुश नहीं। मिशेल जानसन सीधा कुंबले के सिर के ऊपर से गेंद को उठाते हैं। पर कुंबले ने कॉल कर दिया है कि पीछे दौड़ते हुए भी वे ही कैच लेंगे और वो चोटिल हाथ से भी कैच पकड़ लेते हैं। हमें नहीं पता कि ये उनका अंतिम शिकार है क्यूँकि उनकी आँखों में विकेट लेने की भूख अब भी दिखती है पर ३८ साल की उम्र में शायद शरीर और साथ नहीं दे रहा।


आज ये दुख नहीं बल्कि खुशी का मौका है एक महान खिलाड़ी की विदाई का जिसने अपने विनम्र स्वभाव और खेल के प्रति अटूट कटिबद्धता से इस देश में ही नहीं बल्कि विदेशी खिलाड़ियों के बीच एक सम्मान का स्थान बनाया। आशा है अंतिम टेस्ट में भारतीय टीम कुंबले को सीरीज जीतने का तोहफा जरूर देगी।
आज इस देश को अनिल जैसे जीवट खिलाड़ियों की जरूरत है जिन्हें ना केवल अपनी काबिलियत पर भरोसा है पर अपनी प्रतिभा को तराशते रहने के लिए निरंतर मेहनत करने की इच्छा शक्ति भी है।

अनिल, अपनी पत्नी और बच्चों के साथ जीवन में खुशियाँ बटोरें ये मेरी और तमाम भारतवासियों की शुभकामना है।

सोमवार, जून 23, 2008

१९८३ विश्व कप क्रिकेटः यादें पच्चीस साल पहले की -हाय उस रात मैं क्यूँ सो गया...

पच्चीस साल पहले की बातों को याद करना कठिन है , पर इस घटना को मैं कैसे भूल सकता हूँ। जी हाँ, मैं १९८३ के विश्व कप की बात कर रहा हूँ। भारत में रंगीन टेलीविजन तो १९८२ के एशियाई खेलों के समय आया था पर १९८३ में हुए प्रूडेन्शियल विश्व क्रिकेट के सारे मैचों का सीधे प्रसारण की व्यवस्था यहाँ तो क्या इंग्लैंड में भी नहीं थी। यही वज़ह है कि उस प्रतियोगिता में जिम्बाब्वे के खिलाफ संकटमोचक की तरह उतरे कपिलदेव के शानदार नाबाद १७५ रनों का वीडिओ फुटेज उपलब्ध ही नहीं है।

जैसा कल IBN 7 पर टीम के सदस्य कह रहे थे कि हम पर उस वक़्त जीतने का कोई दबाव नहीं था। होता भी कैसे जिस टीम ने उससे पहले के सारे विश्व कपों में कुल मिलाकर एक मैच ही जीता हो, उससे ज्यादा उम्मीद भी क्या रखी जा सकती थी? प्रतियोगिता शुरु होने वक़्त मैं अपनी नानी के घर कानपुर गया हुआ था। भारत के पहले मैच के अगले दिन जब दूरदर्शन समाचार ने भारत के अपने पहले लीग मैच में ही वेस्ट इंडीज को पटखनी देने की खबर सुनाई, मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा। अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य को जब तक मैंने ये खबर नहीं सुनाई दिल को चैन नहीं पड़ा।

सुननेवालों ने तो खवर में उतनी दिलचस्पी नहीं दिखाई पर मेरे दिल में अपनी टीम के लिए आशा का दीपक जल चुका था। बीबीसी वर्ल्ड और दूरदर्शन से मिलती खबरें ही मैच के नतीजों को हम तक पहुँचा पाती थीं। भारतीय टीम को अपने ग्रुप में वेस्ट इंडीज, आस्ट्रेलिया और जिम्बाबवे से दो दो मैच खेलने थे। भारत ने अपने पहले तीन में दो मैच जीत लिए थे पर आस्ट्रेलिया से अपने पहले मैच में वो बुरी तरह हार गया था।

चौथे मैच में वेस्टइंडीज से हारने के बाद भी भारत प्रतियोगिता में पहले की दर्ज जीतों की वज़ह से बना हुआ था। पर १८ जून १९८३ में जिम्बाबवे के साथ खेला मैच भारत के लिए प्रतियोगिता का टर्निंग पव्याइंट था। भारत पहले बैटिंग करते हुए १७ रनों पर पाँच विकेट खो चुका था और ७८ तक पहुँचते पहुँचते ये संख्या सात तक पहुँच गई थी पर कप्तान कपिल देव ने अपने नाबाद १७५ रनों जिसमें सोलह चौके और छः छक्के शामिल थे स्कोर को आठ विकेट पर २६० तक पहुँचा दिया। भारत ने जिम्बाब्वे को इस मैच में ३१ रनों से हरा दिया था। विपरीत परिस्थितियों में मैच को जीतने के बाद मुझे विश्वास हो गया था कि अबकि अपनी टीम सेमी फाइनल में तो पहुँच ही जाएगी। और हुआ भी वही! अगले लीग मैच में आस्ट्रेलिया को हराकर भारत सेमी फाइनल में पहुँच चुका था।

अब तक मैं वापस पटना आ चुका था और सेमीफाइनल में जब भारत ने इंग्लैंड को हराया तब मैंने उसका सीधा प्रसारण बीबीसी वर्ल्ड से सुनने का पूर्ण आनंद प्राप्त किया था। फाइनल के दो दिन पहले से ही हमारे मोहल्ले के सारे बच्चे मैच के बारे में विस्तार से चर्चा करते रहते। दूरदर्शन ने फाइनल मैच के सीधे प्रसारण की व्यवस्था की थी। स्कूल की गर्मी की छुट्टियाँ शायद चल ही रहीं थी। हम दस बारह वच्चे पड़ोसी के घर में श्वेत श्याम टेलीविजन के सामने मैच शुरु होने के पंद्रह मिनट पहले ही जमीन पर चादर बिछाकर बैठ गए थे। पर जब भारत बिना पूरे साठ ओवर खेले ही १८३ रन बनाकर लौट आया, हम सारे बच्चों के चेहरों की उदासी देखने लायक थी। पहले तो प्रोग्राम रात भर पड़ोसी के घर
डेरा जमाए रखने का था। पर भारतीय बल्लेबाजों के इस निराशाजनक प्रदर्शन ने मुझे अपना विचार बदलने पर मज़बूर कर दिया। मन इतना दुखी था कि थोड़ा बहुत खा पी कर मैं जल्द ही सोने चल गया।

सुबह उठ के अखबार खोला तो जीत का समाचार देख के दंग रह गया। भागा भागा अपने टीवी वाले दोस्तों के घर गया कि भाई ये सब हुआ कैसे? बाद में कई बार उन यादगार लमहों की रेडियो कमेंट्री
सुनीं और वीडियो फुटेज भी देखा पर दिल में मलाल रह ही गया कि मैं उस रात क्यूँ सोया...


खेलों में कुछ खास ना कर पाने वाले देश के लिए वो जीत एक बहुत बड़ी जीत थी। उस जीत ने एकदिवसीय क्रिकेट में अच्छा करने के लिए आगे की भारतीय टीमों के लिए एक सपना जगाया। आज जब इस बात को पचीस साल बीतने वाले हैं , आइए उन लमहों को एक बार फिर से देखें यू ट्यूब के इस वीडियो के जरिए..




साथ ही उन खिलाड़ियों को मेरा कोटि कोटि सलाम जिन्होंने विश्व कप जीतकर एक मिसाल आगे की पीढ़ियों के लिए छोड़ दी..


क्रिकेट से जुड़ी मेरी कुछ अन्य पोस्ट :

बुधवार, सितंबर 26, 2007

टवेन्टी-टवेन्टी विश्व कप: हो गयी अनहोनी...जिताकर ले आया धोनी

१९८३ में वेस्टइंडीज के खिलाफ मात्र १८३ रन बनाने के बाद हम सब बच्चे अपने पड़ोसी के श्वेत श्याम टीवी को छोड़ निराश मन से शाम को अपने अपने घर लौट आए थे। साठ ओवरों में उस वक़्त की विश्व विजेता टीम वेस्टइंडीज ये रन संख्या नहीं पार कर पाएगी, ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था और उस रात भरे मन से सो गए थे। पर अगली सुबह का अखबार कुछ और ही कहानी कह रहा था। उस मैच को लाइव ना देख पाने का दुख कई वर्षों तक सालता रहा ।

इसीलिए, २४ सालों बाद विश्व कप के किसी फाइनल को टीवी पर लाइव देखने का विशेष रोमांच तो था ही, पर साथ ही ये भी लग रहा था कि इस बार भाग्य भी हमारी टीम के साथ है। सच पूछें तो कल के फाइनल से कहीं ज्यादा आस्ट्रेलिया और पाकिस्तान के साथ इस प्रतियोगिता में पहले हुए मैच का मैंने जम के आनंद उठाया था।

कल तो शुरु से ही एक अज़ीब किस्म के तनाव ने मन में घर कर लिया था। खेल की ऊँच-नीच के साथ तनाव तो घटता बढ़ता गया पर भज्जी की गेदों पर मिसबा उल हक ने जिस तरह छक्के लगाए और हमारे भज्जी जिस तरह छक्के लगने के बाद भी यार्कर लेंथ की बॉल को फेंकने का असफल प्रयास करते रहे , ये तनाव अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया।

अंतिम ओवर के फेंके जाने के समय जब हम सब का गला सूख रहा था तो भला जोगिंदर शर्मा की क्या बिसात। भाई जी ने पहली बार में विकेट से एक हाथ के बजाए चार हाथ बाहर की गेंद डाली तो बस शुष्क मन से यही निकला
"सही जा रहे हो बेटा.."

कप्तान साहब अगली गेंद पर ना जाने क्या कह आए कि पहली बार तो जोगिन्दर मिस्बा को आफ स्टंप के बाहर छकाने में कामयाब हुए पर ओवर की दूसरी गेंद पर शर्मा जी ने एक ऐसा हाई फुलटॉस फेंका जिसे देखते ही कलेजा मुँह को आ गया। फिर भी हक के बल्ले से जब
शॉट निकला तो मुझे ऐसा लगा की ये तो लांग आफ पर ही आ रहा है। पर वो नामुराद, आखिरकार छक्का निकला।
अब चार गेंदों में छः रन....
अंत तो आ ही गया था. प्रश्न सिर्फ ये था कि वो कितनी जल्दी या कितनी देर से आता है।
मुझे यकीं हैं कि मेरी क्या, मेरे सारे देशवासियों के चेहरे के मनोभाव इन हालातों में ऍसे व्यक्ति के ही रहे होंगे जिसका सब कुछ लुट चुका हो।
तीसरी गेंद पर मिस्बा का बैक स्कूप मुझे तो सीमा के बाहर जाता दिखा क्यूँकि दो सेकेंड तक श्रीसंत कहीं भी फ्रेम
में नजर नहीं आ रहे थे। इधर श्रीसंत ने कैच लिया और उधर हमारे बेज़ार पड़े दिल में उमंगों की मुरझाई कोपलें एकदम से फूट पड़ीं।
वैसे ये पूरी दास्तां इस वीडियो में भी नज़र आएगी


ये असली मायने में टीम इंडिया की जीत थी। इस पूरी प्रतियोगिता में किसी ना किसी मैच मे खेलने वाले हर खिलाड़ी ने जीत में अपना योगदान दिया। ये जीत छोटे-छोटे शहरों से आने वाले खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा पुंज का काम करेगी इसमें कोई शक नहीं।
चाहे वो केरल जैसे क्रिकेट में कमजोर राज्य के श्रीसंत हों या हरियाणा के जोगिंदर शर्मा, राजनीति का गढ़ रही रायबरेली के रुद्र प्रताप सिंह हों या बड़ौदा के पठान बंधु.....इन खिलाड़ियों ने ये दिखा दिया है कि छोटे-छोटे शहरों में रहने वाले भी बड़े सपने देख सकते हैं ..उन्हें साकार कर सकते हैं। अब हमारे शहर राँची से ताल्लुक रखने वाले भारतीय टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धौनी (जो धोनी के नाम से ज्यादा मशहूर हैं) की ही बात करें।

धोनी खुद एक निम्न मध्यम वर्ग परिवार से आते हैं। वे हमारी घर के बगल की कॉलोनी श्यामली में रहते हैं। जब वे डी.ए.वी. श्यामली में थे तो पहले फुटबॉल के खेल में बतौर गोलकीपर हुआ करते थे। स्कूल के प्रशिक्षक ने उन्हें गोलकीपर से स्कूल की टीम का विकेट कीपर बना दिया। शीघ्र ही विकेटकीपर के साथ साथ लंबे छक्के मारने वाले खिलाड़ी के रूप में वो झारखंड में जानें जाने लगे। रणजी ट्राफी में एक दूसरे दर्जे की टीम बिहार का प्रतिनिधित्व करने के बावज़ूद उन्होंने देश के लिए खेलने की आशा नहीं छोड़ी। और मौका मिलते ही इतने कम समय में देखिए, वो खुद और पूरी टीम को किस मुकाम तक ले गए हैं।

राँची में तीन दिनों से लगातार बारिश हो रही है। पर जीत की खबर मिलते ही, बारिश में भी कल रात से धोनी के घर के बाहर भारी भीड़ जुटी हुई है। जश्न अभी तक थमा नहीं है...और इसकी पुनरावृति देश के हर कस्बे, हर ग्राम और शहर में हो रही होगी। अपने शहर के इस सुपूत के नेतृत्व में टीम के सारे खिलाड़ियों ने जिस एकजुटता के साथ संघर्ष करते हुए विजय प्राप्त की और देशवासियों को खुशियों के ये हसीन पल दिये वो पूरा देश हमेशा याद रखेगा।

पिछले कुछ महिने खेल के लिए अच्छे जा रहे हैं। पहले हॉकी का एशिया कप, फिर फुटबॉल का नेहरू कप और अब टवेन्टी-टवेन्टी विश्व कप की जीत 'चक दे इंडिया' का सही समां बाँधती नज़र आ रही है।

तो लगे रहो इंडिया तुमसे आगे भी ऐसी और कई उम्मीदें हैं......


(सभी चित्र साभार cricinfo.com)
 

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