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बुधवार, अप्रैल 22, 2020

मोहब्बत करने वाले कम न होंगे.. हफ़ीज़ होशियारपुरी

कई शायर ऐसे रहे हैं जिनकी किसी एक कृति ने उनका नाम हमेशा के लिए हमारे दिलो दिमाग पर नक़्श कर दिया। कफ़ील आज़र का नाम कौन जानता अगर उनकी नज़्म बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी ..  को जगजीत जी ने अपनी आवाज़ नहीं दी होती। अथर नफ़ीस साहब वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया से हमेशा अपनी याद दिला जाते हैं। प्रेम वारबर्टनी का नाम सिर्फ तभी आता है जब राजेंद्र व नीना मेहता की गाई नज़्म तुम मुझसे मिलने शमा जलाकर ताजमहल में आ जाना  का जिक्र होता है। वहीं राजेंद्र नाथ रहबर का नाम तभी ज़हन में उभरता है जब तेरे खुशबू से भरे ख़त मैं जलाता कैसे.....  सुनते वक़्त जगजीत की आवाज़ कानों में गूँजती है।



ऐसा नहीं कि इन शायरों ने और कुछ नहीं लिखा। कम या ज्यादा लिखा जरूर पर वे पहचाने अपनी इसी रचना से गए। ऐसे ही एक शायर थे हफ़ीज़ होशियारपुरी साहब जिनका ताल्लुक ज़ाहिरन तौर पर पंजाब के होशियारपुर से था। वही होशियारपुर जहाँ से जैल सिंह और काशी राम जैसी हस्तियाँ राजनीति में अपनी चमक बिखेरती रहीं। स्नातक की पढ़ाई होशियारपुर से पूरी कर हफ़ीज़ लाहौर चले गए। वहाँ तर्कशास्त्र में आगे की पढ़ाई की। हफ़ीज़ साहब के नाना शेख गुलाम मोहम्मद शायरी में खासी रुचि रखते थे। उनकी याददाश्त इतनी अच्छी थी कि  हजारों शेर हमेशा उनकी जुबां पर रहते थे। उन्हें ही सुनते सुनते हफ़ीज़ भी दस ग्यारह साल की उम्र से शेर कहने लगे। बाद में लाहौर में पढ़ाई करते समय फ़ैज़ और राशिद जैसे समकालीन बुद्धिजीवियों का असर भी उनकी लेखनी पर पड़ा।
हफ़ीज़ होशियारपुरी
आज़ादी के आठ बरस पहले उन्होंने कृष्ण चंदर के साथ रेडियो लाहौर में भी काम किया। मंटो भी उनको अपना करीबी मानते थे। मशहूर शायर नासिर काज़मी के तो वो गुरु भी कहे जाते हैं पर इतना सब होते हुए भी उनकी लिखी चंद ग़ज़लें ही मकबूल हुईं और अगर एक ग़ज़ल का नाम लिया जाए जिसकी वज़ह से आम जनता उन्हें आज तक याद रखती है तो वो "मोहब्बत करने वाले कम न होंगे..." ही होगी। जनाब मेहदी हसन ने इस ग़ज़ल के कई शेर अपनी अदायगी में शामिल किये। उनके बाद फरीदा खानम, इकबाल बानो और हाल फिलहाल में पापोन ने भी इसे अपनी आवाज़ से सँवारा है पर मुझे इस ग़ज़ल को हमेशा मेहदी हसन साहब की आवाज़ में ही सुनना पसंद रहा है। जिस तरह से उन्होंने ग़ज़ल के भावों को पढ़कर अपनी गायिकी में उतारा है उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी।

इस ग़ज़ल का मतला तो सब की जुबां पर रहता ही है पर जो शेर मुझे सबसे ज्यादा दिल के करीब लगता है वो ये कि ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म... ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे.. किसी की याद की कसक भी इतनी प्यारी होती है कि उस ग़म को महसूस करते हुए भी आशिक अपने और ग़म भुला देता है। हफ़ीज़ साहब ने अपनी इसी बात को अपने लिखे एक अन्य शेर में यूँ कहा है

अब उनके ग़म से यूँ महरूम ना हो जाएँ कभी
वो जानते हैं कि इस ग़म से दिल बहलते हैं

चलिए ज़रा होशियारपुरी साहब की इस पूरी ग़ज़ल को पढ़ा जाए। जिन अशआर को मेहदी हसन ने गाया है उन्हें मैंने चिन्हित कर दिया है Bold करके।

मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे

मैं अक्सर सोचता हूँ फूल कब तक
शरीक-ए-गिर्या-ए-शबनम न होंगे


मैं जानता हूँ तुम हो ही ऐसी कि तुम्हें चाहने वालों की कभी कमी नहीं रहेगी। हाँ पर देखना कि चाहनेवालों की उस महफिल में तुम्हें मेरी कमी हमेशा महसूस होगी। अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि सुबह की ओस पूरे पौधे पर गिरे पर उसके रुदन की पीड़ा फूल तक ना पहुँचे?

ज़रा देर-आश्ना चश्म-ए-करम है
सितम ही इश्क़ में पैहम न होंगे

ठीक है जनाब कि उन्होंने मेरी ओर थोड़ी देर से ही अपनी नज़र-ए-इनायत की। मैं क्यूँ मानूँ कि आगे भी वे मुझ पे ऐसे ही सितम ढाते रहेंगे?

दिलों की उलझने बढ़ती रहेंगी
अगर कुछ मशवरे बाहम न होंगे

ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे


अगर हमारी बातचीत में यूँ ही खलल पड़ता रहे तो दिल की उलझनें तो बढ़ती ही रहेंगी। लेकिन ये भी है कि इन उलझनों से मन में उठती  बेचैनी और दर्द अगर रहा तो इस ग़म की मिठास से बाकी के ग़म तो यूँ ही दफा हो जाएँगे।

कहूँ बेदर्द क्यूँ अहल-ए-जहाँ को
वो मेरे हाल से महरम न होंगे

हमारे दिल में सैल-ए-गिर्या होगा
अगर बा-दीद-ए-पुरनम न होंगे

इस दुनिया को क्यूँ बेदर्द कहूँ मैं? सच तो ये है कि उन्हें मेरे दिल का हाल क्या मालूम ? मैंने कभी अपनी आँखों में सबके सामने नमी आने नहीं दी भले ही दिल में दर्द का सैलाब क्यूँ न बह रहा हो।

अगर तू इत्तेफ़ाक़न मिल भी जाए
तेरी फ़ुर्कत के सदमें कम न होंगे

'हफ़ीज़ ' उनसे मैं जितना बदगुमां हूँ
वो मुझसे इस क़दर बरहम न होंगे

अब तो अगर कहीं मुलाकात हो भी जाए तो जो सदमा तेरी जुदाई में सहा है वो नहीं कम होने वाला। पता नहीं मुझे अब भी क्यूँ ऐसा लगता है कि जितना मैं उन पर अविश्वास करता रहा, शक़ की निगाह से देखता रहा उतनी नाराज़गी उनके मन में मेरे प्रति ना हो।


तो आइए सुनें इस खूबसूरत ग़ज़ल को मेहदी हसन की आवाज़ में..



पिछले महीने एक शाम मेरे नाम की ये महफिल चौदह साल पुरानी हो गई। इस ग़ज़ल से उलट आपसे यही उम्मीद रहेगी कि  आपकी इस ब्लॉग के प्रति मोहब्बत भी बरक़रार रहे और इस महफिल में सालों साल आप हमारे साथ शिरकत करते रहें।

गुरुवार, सितंबर 19, 2019

ज़िंदगी को न बना लें वो सज़ा मेरे बाद.. मेहदी हसन / हिमानी कपूर Zindagi Ko Na Bana Lein

कई बार नए कलाकार कुछ ऐसी पुरानी ग़ज़लों की याद दिला देते हैं जिनसे सालों से राब्ता टूटा हुआ था। पिछले हफ्ते जनाब मेहदी हसन की गायी ऐसी ही एक नायाब ग़ज़ल सुनने को मिली। दरअसल गणेशोत्सव में हर साल संगीतकार व गायक शंकर महादेवन के यहाँ सुरों की महफिल जमती है। इस बार उस आयोजन में युवा गायिका हिमानी कपूर ने बड़े प्यार से हकीम नासिर की इस ग़ज़ल के कुछ शेर गुनगुनाए और सच में सुन के आनंद आ गया।
मेहदी हसन/ हिमानी कपूर
अब जब इस ग़ज़ल की बात हो रही है तो उसे रचने वाले हकीम नासिर साहब के बारे में भी कुछ जान लिया जाए। जनाब काबिल अजमेरी की तरह नासिर साहब की पैदाइश राजस्थान के अजमेर में हुई थी। विभाजन के बाद उनका परिवार कराची में बस गया। घर का पुश्तैनी काम ही हकीमी था सो नासिर साहब ने भी बाप दादा के बनाए कराची के निजामी दवाखाने में हकीमी की। कॉलेज के ज़माने में नासिर साहब ने नियमित रूप से क्रिकेट भी खेली। कराची के हमदर्द कॉलेज से हिकमत की पढ़ाई करने के दौरान ही उन्हें शायरी का चस्का लगा।

हकीम नासिर
हकीम मोहम्मद नासिर मोहब्बतों के ही शायर रहे। उनकी सबसे ज्यादा मकबूल ग़ज़ल "जब से तूने मुझे दीवाना बना ..  " है जिसे आबिदा  परवीन  ने अपनी रुहानी आवाज़ से कालजयी बना दिया। हकीम साहब से उनके हर मुशायरे में इस ग़ज़ल को पढ़ने की गुजारिश होती रहती थी। याद के लिए चंद अशआर इसी ग़ज़ल के आप सब की नज़र

जब से तूने मुझे दीवाना बना रक्खा है
संग हर शख़्स ने हाथों में उठा रक्खा है 

उस के दिल पर भी कड़ी इश्क़ में गुज़री होगी
नाम जिस ने भी मोहब्बत का सज़ा रक्खा है 

इश्क़ के सामने कौन नहीं बेबस हो जाता है और इसी बेबसी पर उनकी एक ग़ज़ल और याद आ रही है जिसमें उन्होंने लिखा था

इश्क़ कर के देख ली जो बेबसी देखी न थी
इस क़दर उलझन में पहले ज़िंदगी देखी न थी

आप से आँखें मिली थीं फिर न जाने क्या हुआ 
लोग कहते हैं कि ऐसी बे-ख़ुदी देखी न थी

हाकिम नासिर के इश्क़िया मिज़ाज की गवाही देते ये अशआर भी खूब थे..

ये दर्द है हमदम उसी ज़ालिम की निशानी
दे मुझ को दवा ऐसी कि आराम न आए

मैं बैठ के पीता रहूँ बस तेरी नज़र से
हाथों में कभी मेरे कोई जाम न आए 

तो आइए अब बात करें उस ग़ज़ल की जिससे आज की बात शुरु हुई थी। एक अजीब सी तड़प है इस ग़ज़ल मेंजिससे मोहब्बत थी उसका साथ छूट गया पर उसके बावज़ूद शायर को इस बात का यकीं है कि जिस शिद्दत से उसने मुझे प्यार किया था वो शिद्दत अपने मन  में वो और किसी के लिए नहीं ला पाएगी। 

अब अगर ये शायर की खुशफहमी है तब तो कोई बात ही नहीं पर अगर यही हक़ीक़त है तो फिर मन ये सवाल जरूर करता है कि इतने प्यारे रिश्ते को तोड़ने की जरूरत क्या थी? पर ये भी तो सच है ना कि रिश्तों की डोर कब पूरी तरह अपने हाथ में रही है?

ज़िंदगी को न बना लें वो सज़ा मेरे बाद
हौसला देना उन्हें मेरे ख़ुदा मेरे बाद


कौन घूँघट को उठाएगा सितम-गर कह के
और फिर किस से करेंगे वो हया मेरे बाद

हाथ उठते हुए उन के न कोई देखेगा
किस के आने की करेंगे वो दुआ मेरे बाद



फिर ज़माने में मोहब्बत की न पुर्सिश* होगी
रोएगी सिसकियाँ ले ले के वफ़ा मेरे बाद

किस क़दर ग़म है उन्हें मुझ से बिछड़ जाने का
हो गए वो भी ज़माने से जुदा मेरे बाद

वो जो कहता था कि ‘नासिर’ के लिए जीता हूँ
उस का क्या जानिए क्या हाल हुआ मेरे बाद

* पूछ 

बहरहाल मेहदी हसन साहब की ये ग़ज़ल आपने सुनी ही होगी। 


हिमानी ने भी इस ग़ज़ल के कुछ अशआरों को बड़े दिल से निभाया है। हिमानी की आवाज़ का मैं तब से प्रशंसक रहा हूँ जब वे 2005 के सा रे गा मा पा में पहली बार संगीत के मंच पर दिखाई पड़ी थीं। पहली बार जब उनकी आवाज़ में  जिया धड़क धड़क जिया धड़क धड़क जाये... सुना था तो रोंगटे खड़े हो गए थे।


हिमानी ने पिछले एक दशक में बैंड बाजा बारात और बचना ऐ हसीनों सहित सात आठ फिल्मों के लिए गाने गाए हैं पर एक दो गानों को छोड़कर उनके बाकी गाने उतने लोकप्रिय नहीं हुए। इंटरनेट के युग में उनके जैसे हुनरमंद कलाकार अब अपने सिंगल्स खुद ही निकाल रहे हैं। हिमानी का मानना है कि फिल्मों के बजाए Independent Music करने में सहूलियत ये होती है कि आप अपनी पसंद के गीत चुनते हैं और दर्शकों से सीधे मुखातिब होते हैं।

ये ग़ज़ल भी उन्होंने यू ट्यूब पर पहली बार ॠषिकेश में गंगा के किनारे यूँ ही रिकार्ड की थी पर जैसा मैंने आपको ऊपर बताया कि हाल ही में इसे उन्होंने शंकर महादेवन के घर में सुनाया। आप भी सुन लीजिए उनका ये प्यारा सा प्रयास...


आज तो ना हमारे बीच हकीम मोहम्मद नासिर हैं और ना ही मेहदी हसन साहब लेकिन जब तक उनकी गायिकी का परचम फहराने वाले ऐसे युवा कलाकार हमारे बीच रहेंगे उनकी याद हमेशा दिल में बनी रहेगी।

सोमवार, नवंबर 14, 2016

अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा Arz e niyaz e ishq ... Ghalib

चचा ग़ालिब की शायरी से सबसे पहले गुलज़ार के उन पर बनाए गए धारावाहिक के ज़रिए ही मेरा परिचय हुआ था। हाईस्कूल का वक़्त था वो! किशोरावस्था के उन दिनों में चचा की ग़ज़लें आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक..., हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले...., दिल ही तो है ना संगो ख़िश्त ...और कोई दिन गर जिंदगानी और है ... अक्सर जुबां पर होती थी। जगजीत चित्रा की आवाज़ का जादू तब सिर चढ़कर बोलता था।


पर ग़ालिब की शायरी में उपजी ये उत्सुकता ज़्यादा दिन नहीं रह पाई। जब भी उनका दीवान हाथ लगा उनकी ग़ज़लों को समझने की कोशिश की पर अरबी फ़ारसी के शब्दों के भारी भरकम प्रयोग की वज़ह से वो दिलचस्पी भी जाती रही। मिर्जा के समकालीन साहित्यकार फ़ारसी में ही कविता करने और यहाँ तक की पत्र व्यवहार करने में ही अपना बड़प्पन समझते थे और ख़ुद मिर्जा ग़ालिब का भी ऐसा ही ख़्याल था। पचास की उम्र पार करने के बाद उन्होंने उर्दू में दिलचस्पी लेनी शुरु की। पर शायरी कहने का उनका अंदाज़ भाषा के मामले में पेचीदा ही रहा।

मरने के सालों बाद ग़ालिब को जो लोकप्रियता मिली उसका नतीजा ये हुआ कि अपनी शायरी चमकाने के लिए बहुतेरे कलमकारों ने अपने हल्के फुल्के अशआरों में मक़्ते के तौर पर ग़ालिब का नाम जोड़ दिया। चचा के नाम पर इतने शेर कहे गए कि उन्हें  देखकर उनका अपनी कब्र से निकलने कर जूतमपाज़ी करने  का जी चाहता होगा। इंटरनेट पर ग़ालिब के नाम से इकलौते शेरों को जमा कर दिया जाए तो उसका एक अलग ही दीवान बन जाएगा। ये दीगर बात है कि उसमें से दस से बीस फीसदी शेर चचा के होंगे।

बहरहाल एक बात मैंने गौर की कि चचा ग़ालिब की ग़ज़लों को जब जब गाया गया वो सुनने में बड़ी सुकूनदेह रहीं। उनकी ऐसी ही एक ग़ज़ल मैंने पिछले दिनों सुनी पहले जनाब मेहदी हसन और फिर जगजीत सिंह की आवाज़ों में। अब ये फ़नकार ऐसे हैं कि किसी ग़ज़ल में जान डाल दें और ये ग़ज़ल तो चचा की है।


आपकी सहूलियत के लिए चचा ग़ालिब की इस ग़ज़ल का अनुवाद भी साथ किए दे रहा हूँ।

अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा

हालात ये हैं कि अब ये दिल प्रेम की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के भी लायक नहीं रहा। अब तो इस जिस्म में वो दिल ही नहीं रहा जिस पर कभी गुरूर हुआ करता था।

जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती लिये हुए
हूँ शमआ़-ए-कुश्ता दरख़ुर-ए-महफ़िल नहीं रहा

कितनी तो ख़्वाहिशें थीं! कहाँ पूरी होनी थीं? जीवन की उन अपूर्ण ख़्वाहिशों का दाग़ मन में लिए रुख़सत ले रहा हूँ  मैं। मैं तो वो बुझा हुआ दीया हूँ जो किसी महफिल की रौनक नहीं बन पाया।

मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं
शायाने-दस्त-ओ-बाज़ू-ए-कातिल नहीं रहा

अब तो लगता है कि इस दिल को लुटाने का कुछ और बंदोबस्त करना होगा। अब तो मैं अपने क़ातिल के कंधों और बाहों में क़ैद होकर मृत्यु का आलिंगन कर सकने वाला भी नहीं रहा।

वा कर दिये हैं शौक़ ने बन्द-ए-नक़ाब-ए-हुस्न
ग़ैर अज़ निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा

अब कहाँ मेरा हक़ उन पर सो मेरी चाहत ने भी स्वीकार कर लिया है उन पर्दों को खोलना जिनमें उनकी खूबसूरती छिपी थी। अब उन पर गैरों की निगाह पड़ने की रुकावट भी नहीं रही।

गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हाए-रोज़गार
लेकिन तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा

यूँ तो ज़िदगी ही दुनिया के अत्याचारों से पटी रही मगर फिर भी तुम्हारी यादें मेरे दामन  से कभी अलग नहीं हुईं ।

दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा मिट गया कि वां
हासिल सिवाये हसरत-ए-हासिल नहीं रहा

दिल की ज़ानिब आती वो हवा जो हमारी वफ़ाओं की नाव को किनारे लगाने वाली थी वही  रुक सी गयी जैसे । ठीक वैसे ही जैसे तुम तक पहुँचने की वो हसरत, वो तड़प ना रही बस तुम रह गई ख़यालों में ।

बेदाद-ए-इश्क़ से नहीं डरता मगर 'असद'
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा

प्यार का ग़म झेलने सेे कभी डरा नहीं मैं पर अब तो प्यार करने का वो जिगर ही नहीं रहा जिस पर कभी मुझे नाज़ था।

ग़ालिब की ये ग़ज़ल मायूस करने वाली है। सोचिए तो जिसे हम दिलों जाँ से चाहें और फिर कुछ ऐसा हो कि वो चाहत ही मर जाए तो फिर दिल उस शख़्स के बारे में सोचकर कैसा खाली खाली सा हो जाता है। भावनाएँ मर सी जाती हैं, कुछ ऐसी ही कैफ़ियत , कुछ ऐसे ही अहसास दे जाती है ये ग़ज़ल... इस ग़ज़ल को मेहदी हसन साहब की आवाज़ में सुनने में बड़ा सुकून मिलता है।

 

रविवार, मार्च 22, 2015

अहसान दानिश मजदूरी से मक़बूलियत का सफ़र Yoon na mil mujh se khafa ho jaise

आदमी की शुरुआती ज़िदगी भले किसी भी मोड़ पर शुरु हो मगर उसमें शायरी का कीड़ा है तो देर सबेर उभरता ही है। अब देखिए मोहब्बतों का शायर कहे जाने वाले क़तील शिफ़ाई एक ज़माने में पहलवानी किया करते थे। आनंद नारायण 'मुल्ला' को शायरी के लिए जब साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया तो वो इलाहाबाद हाई कोर्ट में जज की कुर्सी पर आसीन थे। पर इन सबसे विस्मित करने वाले एक शायर थे अहसान दानिश जिन्होंने मेहनत मजदूरी करते हुए शायरी की और उस मुकाम तक पहुँचे कि देश की ओर से उन्हें तमगा ए इम्तियाज़ का सम्मान प्राप्त हुआ। आज उन्ही दानिश साहब की पुण्य तिथि है तो सोचा उनकी शख़्सियत के साथ उनकी कुछ कृतियों की चर्चा कर ली जाए।


अहसान दानिश का जन्म भारत के मुजफ्फरनगर जिले के कांधला में हुआ था। वे एक बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखते थे सो चौथी कक्षा से आगे नहीं पढ़ पाए। पर शायरी का शौक़ उन्हें तीसरी ज़मात से ही लग गया था। शुरुआती दौर में उन्होंने खेती बाड़ी में बतौर मज़दूरी की। फसलें काटी, हल चलाया। तीस के दशक में जब लाहौर पहुँचे तो भवन निर्माण के काम में लग गए। अपनी आत्मकथा और साक्षात्कारों में उन्होंने इस बात का जिक्र किया है कि पंजाब यूनिवर्सिटी के निर्माण में उन्होंने गारा ढोया। दीवारों पे रंग रोगन किया। 

वक़्त का कमाल या मेहनत की मिसाल देखिए कि जिस यूनिवर्सिटी के निर्माण में बतौर मजदूर उनका पसीना गया , उसी यूनिवर्सिटी ने उन्हें बाद में  एम ए के प्रश्नपत्र को बनाने का जिम्मा सौंपा। दानिश कहा करते थे कि उस दौर में वे दिन भर मशक्क़त करते और रात में अपने इल्म की कमी को पूरा करने के लिए पढ़ाई करते और कभी कभी समय निकालकर मुशायरों में बतौर श्रोता शिरक़त करते। बाद में लोग जब ये जानने लगे कि ये कुछ लिखना पढ़ना और शायरी करना जानता है तो प्रूफ रीडिंग और नज़्म लिखने का काम मिलने लगा। चौंकिए मत तब दानिश दो रुपये  में अपनी नज़्म दूसरों के लिए लिख कर बेचा करते थे।

एहसान दानिश ने इस दौर में जो कष्ट सहे, जिन परिस्थितियों को झेला उन्हें ही अपनी शायरी का मुख्य विषय बनाया। मजदूरों की ज़िदगी पर लिखी उनकी नज़्में इतनी मकबूल हुई कि ऊन्हें शायर ए मज़दूर की उपाधि दी गई। उनकी नज़्म मज़दूर की बेटी में आर्थिक तंगी के बीच होते विवाह उत्सव का मार्मिक चित्रण हैं। अब देखिए अपने मालिक के कुत्ते द्वारा दौड़ाए जाने को दानिश ने अपनी नज़्म 'मज़दूर और कुत्ता' में किस तरह चित्रित किया है।


कुत्ता इक कोठी के दरवाज़े पे भूँका यक़बयक़
रूई की गद्दी थी जिसकी पुश्त से गरदन तलक
रास्ते की सिम्त सीना बेख़तर ताने हुए
लपका इक मज़दूर पर वह सैद गरदाने हुए

जो यक़ीनन शुक्र ख़ालिक़ का अदा करता हुआ
सर झुकाए जा रहा था सिसकियाँ भरता हुआ

पाँव नंगे फावड़ा काँधे पे यह हाले तबाह
उँगलियाँ ठिठुरी हुईं धुँधली फ़िज़ाओं पर निगाह
जिस्म पर बेआस्तीं मैला, पुराना-सा लिबास
पिंडलियों पर नीली-नीली-सी रगें चेहरा उदास

ख़ौफ़ से भागा बेचारा ठोकरें खाता हुआ
संगदिल ज़रदार के कुत्ते से थर्राता हुआ

क्या यह एक धब्बा नहीं हिन्दोस्ताँ की शान पर
यह मुसीबत और ख़ुदा के लाडले इन्सान पर
क्या है इस दारुल -अमाँ1 में आदमीयत का वक़ार2
जब है इक मज़दूर से बेहतर सगे सरमायादार3

एक वो हैं जिनकी रातें हैं गुनाहों के लिए
एक वो हैं जिनपे शब आती है आहों के लिए

 1.सुख से रहने का स्थान, 2.शील,व्यवहार, 3. पूँजीपति

वे कहा करते थे कि मजदूरों के बारे में लिखने के पीछे उनका मकसद यही था कि मालिक उनके हालातों को समझ सकें और उनके श्रम को वो उचित मूल्य और इज्ज़त दें जिसके वे वाकई हक़दार हैं। पर ये नहीं कि उनकी शायरी मजदूरों के हालात तक ही सिमट गई। अन्य शायरों की तरह उन्होंने रूमानी शायरी पर भी हाथ आज़माया। उनका कहना था कि

"जो आदमी हुस्न से मुतासिर नहीं होता उसे मैं आदमी ही नहीं समझता। ये अलग बात है कि मेरी ज़िदगी कुछ यूँ रही कि इसमें ज्यादा उलझने का अवसर मुझे नहीं मिला।"

उनकी लिखी इस ग़ज़ल के चंद अशआर  याद आ रहे हैं..

कभी मुझ को साथ लेकर, कभी मेरे साथ चल के
वो बदल गये अचानक, मेरी ज़िन्दगी बदल के

कोई फूल बन गया है, कोई चाँद कोई तारा
जो चिराग़ बुझ गये हैं, तेरी अंजुमन में जल के

एहसान दानिश एक आवामी शायर थे और इसी वज़ह से उनकी भाषा में वो सहजता थी जो आम आदमी के दिल को छू सके। मिसाल के तौर पर इस ग़ज़ल को देखिए। कितनी सहजता से प्रेम और विरह की पीड़ा को इन अशआरों में ढाला है उन्होंने। मेहदी हसन ने भी पूरी तबियत से लफ़्जों के अंदर के अहसासों को और उभार दिया है।



यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे
साथ चल मौज़-ए-सबा हो जैसे

लोग यूँ देख कर हँस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे

इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूँ न छुप हमसे ख़ुदा हो जैसे

मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ
मुझ पे एहसान किया हो जैसे

ऐसे अजान बने बैठे हो
तुम को कुछ भी न पता हो जैसे

हिचकियाँ रात को आती ही रहीं
तू ने फिर याद किया हो जैसे

ज़िन्दगी बीत रही है "दानिश"
एक बेजुर्म सज़ा हो जैसे

अहसान दानिश का कर्मठ जीवन हमेशा काव्य प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा ऐसी उम्मीद है।

रविवार, नवंबर 02, 2014

गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले.. Gulon Mein Rang bhare...

दीवाली की छुट्टियों के दौरान विशाल भारद्वाज की फिल्म हैदर देखी। फिल्म में विशाल ने फैज़ की लिखी सदाबहार ग़ज़ल गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले फिर से जुबाँ पर ला दी। फिल्मों में किसी ग़ज़ल को खूबसूरती से पेश किया जाए तो उसमें अन्तरनिहित भावनाएँ दिल में बहुत दिनों तक बनी रहती हैं। सोचा था वार्षिक संगीतमाला 2014 में  अरिजित सिंह की गाई इस ग़ज़ल को तो स्थान मिलेगा ही तब ही लिखूँगा इसके बारे में। पर एक बार कोई गीत ग़ज़ल दिमाग पर चढ़ जाए फिर मन कहाँ मानता है बिना उसके बारे में लिखे हुए। मुझे मालूम है कि हैदर देखते हुए बहुत से लोगों का पहली बार इस ग़ज़ल से साबका पड़ा होगा और उसकी भावनाओं की तह तक पहुँचने की राह में उर्दू व फ़ारसी के कठिन शब्दों ने रोड़े अटकाए होंगे। मैंने यही कोशिश की है कि जो भावनाएँ ये ग़ज़ल मेरे मन में जगाती है वो इस आलेख के माध्यम से आप तक पहुँचा सकूँ। ये इस ग़ज़ल का शाब्दिक अनुवाद नहीं पर ग़ज़ल को समझने की मेरी छोटी सी कोशिश है। ग़ज़ल का मतला है..

गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

काश ऐसा हो कि वसंत की ये हवा चले और इस बागीचे के सारे फूल अपने रंग बिरंगे वसनों को पहन कर खिल उठें। पर सच बताऊँ इस गुलशन की असली रंगत तो तब आएगी जब तुम इनके बीच रहो।

कफ़स उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बह्र-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुब्ह तेरे कुन्ज-ए-लब से हो आगाज़
कभी तो शब् सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले


फ़ैज़ ने ये ग़ज़ल तब लिखी थी जब वो जेल की सलाखों के पीछे थे। उनके अशआरों में छुपी बेचैनी को इसी परिपेक्ष्य में महसूस करते हुए ऐसा लगता है मानो वे कह रहे हों इन सींखचों के पीछे मन में तैरती उदासी जाए तो जाए कैसे ? ऐ हौले हौले बहने वाली हवा भगवान के लिए तुम्हीं उनका कोई ज़िक्र छेड़ो ना। क्या पता उनकी यादों की खुशबू इस मायूस हृदय को सुकून पहुँचा सके। कभी तो ऐसा हो कि सुबह की शुरुआत तुम्हारे होठों के किनारों के छू जाने से होने वाली सिहरन की तरह हो। कभी तो रात का आँचल तुम्हारी घनी जुल्फो से आती खुशबू सा महके।

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब्-ए-हिजरां
हमारे अश्क तेरे आक़बत सँवार चले

जब हम प्रेम में होते हैं तो हमें अपने से ज्यादा अपने साथी की फिक्र होती है उसकी हर खुशी हमें अपने ग़म से बढ़कर प्रतीत होती हैं। फ़ैज अपने  शेर में इस भावना को कुछ यूँ बयाँ करते हैं.. मैं तो अपनी पीड़ा को किसी तरह सह लूँगा पर मेरे दोस्त मुझे इस बात का संतोष तो है कि विरह की उस रात में बहे मेरे आँसू बेकार नहीं गए। कम से कम आज तुम्हारारे भविष्य सही राहों पर तो है।

हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह मे लेके गरेबां का तार-तार चले

आज उन्होंने बुलाया है मुझे, मेरे जुनूँ मेरी दीवानगी के सारे बही खातों पर गौर फ़रमाने के लिए और मैं हूँ कि अपने दिल रूपी गिरेबान कें अदर दर्द के इन टुकड़ो् की गाँठ बाँध कर निकल पड़ा हूँ।

मक़ाम फैज़ कोई राह मे जँचा ही नही
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

फ़ैज ने आपनी शायरी की शुरुआत तो रूमानियत से की पर माक्रसवादी विचारधारा के प्रभाव ने उन्हें एक क्रांतिकारी शायर बना दिया। अपनी ज़िदगी में उन्होंने कभी बीच की राह नहीं चुनी। मक़्ते में शायद इसीलिए वे कहते हैं इस दोराहे के बीच उन्हें कोई और रास्ता नहीं दिखा। प्रेमिका की गली से निकले तो फिर वो राह चुनी जो फाँसी के फंदे पर जाकर ही खत्म होती थी।

वैसे तो इस ग़ज़ल को तमाम गायकों ने अपनी आवाज़ दी है पर पर जनाब मेहदी हसन की अदाएगी की बात कुछ और है तो लीजिए सुनिए उनकी आवाज़ में ये दिलकश ग़ज़ल


वैसे अगर आप पूरी पोस्ट मेरी आवाज़ में सुनना चाहते हों तो इस पॉडकॉस्ट में सुन भी सकते हैं। बोलने में तीन चार जगह गलतियाँ हो गई हैं उसके लिए पहले से ही क्षमा प्रार्थी हूँ।

रविवार, अगस्त 31, 2014

जब कोई प्यार से बुलाएगा.. तुमको एक शख़्स याद आएगा Jab koyi pyar se bulayega... Mehdi Hassan

पिछले दो हफ्तों से मेरे शहर का मौसम बड़ा खुशगवार है। दिन में हल्की फुल्की बारिश और फिर रात में खुले आसमान के नीचे मंद मंद बहती प्यारी शीतल हवा। ऐसी ही इक रात में इंटरनेट की वादियों में भटकते भटकते ये गीत सुनाई दिया। गीत तो सरहद के उस पार का था जहाँ से चलती गोलियों ने पिछले कुछ हफ्तों से सीमा पर रहने वाले लोगों का जीवन हलकान कर दिया है। गीत में आवाज़ उस शख्स की थी जिसकी गायिकी ने दोनों देशों के आवाम को अपना मुरीद बनाया है। जी हाँ मैं मेहदी हसन की बात कर रहा हूँ। सोचता हूँ कि अगर इन दोनों देशों की हुकूमत मेहदी हसन व गुलज़ार सरीखे कलाकारों के हाथ होती तो गोलियों का ये धुआँ गीत संगीत की स्वरलहरियों की धूप से क्षितिज में विलीन हो गया होता।


अमूमन मेहदी हसन का नाम ग़ज़ल सम्राट के रूप में लिया जाता रहा है पर अपने शुरुआती दिनों में गायिकी का ये बादशाह साइकिल और फिर कार व ट्रैक्टर का मेकेनिक हुआ करता था। पर आर्थिक बाधाओं से जूझते हुए भी कलावंत घराने के इस चिराग ने रियाज़ का दामन नहीं छोड़ा। रेडियो में ठुमरियाँ गायीं । उससे कुछ शोहरत मिली तो शायरी से मोहब्बत की वज़ह से ग़ज़लें भी गाना शुरु किया। साठ के दशक में इसी नाम के बल पर पाकिस्तानी फिल्मों के नग्मे गाने का मौका मिला। उनकी रुहानी आवाज़ को मकबूलियत इस हद तक मिली कि साठ से सत्तर के दशक की कोई भी फिल्म उनके गाए नग्मे के बिना अधूरी मानी जाती रही। 

मेहदी हसन के गाए जिस गीत की गिरफ्त में मैं आजकल हूँ उसे उन्होंने फिल्म ज़िंदगी कितनी हसीन है के लिए गाया था। गीत में अपनी महबूबा से दूर होते विकल प्रेमी की पीड़ा है। गीत की धुन तो सुरीली है ही पर मेहदी हसन की आवाज़ को इस अलग से सहज अंदाज़ में सुनने का आनंद ही कुछ और है। तो चलिए उसी आनंद को बाँटते हैं आप सब के साथ

जब कोई प्यार से बुलाएगा
तुमको एक शख़्स याद आएगा

लज़्ज़त-ए-ग़म से आशना होकर
अपने महबूब से जुदा हो कर
दिल कहीं जब सुकून न पाएगा
तुमको एक शख़्स याद आएगा


तेरे लब पे नाम होगा प्यार का
शम्मा देखकर जलेगा दिल तेरा
जब कोई सितारा टिमटिमाएगा
तुमको एक शख़्स याद आएगा


ज़िन्दग़ी के दर्द को सहोगे तुम
दिल का चैन ढूँढ़ते रहोगे तुम
ज़ख़्म-ए-दिल जब तुम्हें सताएगा
तुमको एक शख़्स याद आएगा।





पर गीत को सुनने के बाद उसकी मूल भावनाओं से भटकते हुए मुझे तुमको एक शख़्स याद आएगा वाली पंक्ति ने दूसरी जगह ले जा खींचा।  जीवन की पगडंडियों में चलते चलते जाने कितने ही लोगों से आपकी मुलाकात होती है। उनमें से कुछ के साथ गुजारे हुए लमहे चाहे वो कितने मुख्तसर क्यूँ ना हों हमेशा याद रह जाते हैं। रोज़ की आपाधापी में जब ये यादें अचानक से कौंध उठती हैं तो आँखों के सामने ऐसे ही किसी शख़्स का चेहरा उभर उठता है और मन मुस्कुरा उठता है। फिर तो घंटों उस एहसास की खुशबू हमें तरोताज़ा बनाए रखती है..

बहरहाल बात सरहद, मेहदी हसन और गुलज़ार से शुरु हुई थी तो उसे गुलज़ार की मेहदी हसन को समर्पित पंक्तियों से खत्म क्यूँ ना किया जाए..

आँखो को वीसा नहीं लगता
सपनों की सरहद नहीं होती
बंद आँखों से रोज़ चला जाता हूँ
सरहद पर मिलने मेहदी हसन से

अब तो मेहदी हसन साहब बहुत दूर चले गए हैं, सरहदों की सीमा से पर उनकी आवाज़ कायम है और रहेगी जब तक ये क़ायनात है।

सोमवार, दिसंबर 16, 2013

उज्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं : दाग़ देहलवी की ग़ज़ल मेहदी हसन की आवाज़ में !

एक शाम मेरे नाम पर आज की महफिल सजी है जनाब नवाब मिर्ज़ा ख़ान की एक प्यारी ग़ज़ल से। ये वही खान साहब हैं जिन्हें उर्दू कविता के प्रेमी दाग़ देहलवी के नाम से जानते हैं।

दाग़ (1831-1905) मशहूर शायर जौक़ के शागिर्द थे। जौक़, बहादुर शाह ज़फर के दरबार की रौनक थे वहीं दाग़ का प्रादुर्भाव ऐसे समय हुआ जब जफ़र की बादशाहत में मुगलिया सल्तनत दिल्ली में अपनी आख़िरी साँसें गिन रही थी। सिपाही विद्रोह के ठीक एक साल पहले दिल्ली में गड़बड़ी की आशंका से दाग़ रामपुर के नवाबों की शरण में चले गए। दो दशकों से भी ज्यादा वहाँ बिताने के बाद जब नवाबों की नौकरी छूटी तो हैदराबाद निज़ाम के आमंत्रण पर वे उनके दरबार का हिस्सा हो गए और अपनी बाकी की ज़िंदगी उन्होंने वहीं काटी।


उर्दू साहित्य के समालोचक मानते हैं कि दाग़ की शायरी में उर्दू का भाषा सौंदर्य निख़र कर सामने आता है। इकबाल, ज़िगर मुरादाबादी, बेख़ुद देहलवी, सीमाब अकबराबादी जैसे मशहूर शायर दाग़ को अपना उस्ताद मानते थे। बहरहाल चलिए देखते हैं कि दाग़ ने क्या कहना चाहा है अपनी इस ग़ज़ल में

उज्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात बताते भी नहीं

देखते ही मुझे महफिल में ये इरशाद हुआ
कौन बैठा है इसे लोग उठाते भी नहीं

उन्हें मेरे यहाँ आने में भी संकोच है तो दूसरी तरफ़ अपनी महफ़िलों में उन्होंने मुझे बुलाना ही छोड़ दिया है। अगर ग़लती से वहाँ चला जाऊँ तो वो भी लोगों को नागवार गुजरता है। दुख तो इस बात का है कि मुझसे ना मिलने की उसने कोई वज़ह भी नहीं बतलाई है।

दाग़ का अगला शेर व्यक्ति की उस मनोदशा को निहायत खूबसूरती से व्यक्त करता है जिसमें कोई शख्स चाहता कुछ है और दिखाना कुछ और चाहता है। मन में इतनी नाराजगी है कि उनके सामने जाना गवारा नहीं पर दिल की बेचैनी उन्हें एक झलक देख भी लेना चाहती है। ऐसी हालत में चिलमन यानि बाँस की फट्टियों वाले पर्दे ही तो काम आते हैं..

खूब पर्दा है के चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

और ये तो मुझे ग़ज़ल का सबसे खूबसूरत शेर लगता है..

हो चुका क़ता ताल्लुक तो जफ़ायें क्यूँ हों
जिनको मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं

यहाँ दाग़ कहते हैं जब आपस में वो रिश्ता रहा ही नहीं फिर क्यूँ मुझे प्रताड़ित करते हो। दरअसल तुम मुझे भूल नहीं पाए हो वर्ना मुझे सताने की इस तरह कोशिश ही नहीं करते।

मुंतज़िर हैं दमे रुख़सत के ये मर जाए तो जाएँ
फिर ये एहसान के हम छोड़ के जाते भी नहीं

तुम्हें इंतज़ार है कि मैं इस ज़हाँ को छोड़ूँ तो तुम जा सको और मैं हूँ कि ये एहसान करना ही नहीं चाहता :)

सर उठाओ तो सही, आँख मिलाओ तो सही
नश्शाए मैं भी नहीं, नींद के माते भी नहीं

अरे तुमने कैसे समझ लिया कि मैं नींद में हूँ या नशे में हूँ। मेरे चेहरे की रंगत तो यूँ ही बदल जाएगी..बस एक बार तुम सिर उठाकर, आँखों में आँखें डाल कर तो देखो।

क्या कहा, फिर तो कहो; हम नहीं सुनते तेरी
नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं

देखिए दाग़ प्रेमियों की आपसी नोंक झोक को कैसे प्यार भरी उलाहना के रूप में व्यक्त करते हैं। लो सारा दिन तुम्हारा ख़्याल दिल से जाता ही नहीं । तिस पर तुम कहते हो कि हम तुम्हारी सुनते नहीं। ऐसे लोगों को कुछ कहने से क्या फ़ायदा जो दिल की बात भी ना समझ सकें।

मुझसे लाग़िर तेरी आँखों में खटकते तो रहे
तुझसे नाज़ुक मेरी आँखों में समाते भी नहीं

कुछ तो चाहत है हम दोनों के बीच जो हम जैसे भी हैं एक दूसरे को पसंद करते हैं। वर्ना क्या ऐसा होता कि मुझसे दुबली पतली काया वाले तुम्हें अच्छे नहीं लगते वहीं तुमसे भी हसीन, नाजुक बालाएँ मुझे पसंद नहीं आतीं।

ज़ीस्त से तंग हो ऐ दाग़ तो जीते क्यूँ हो
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं

और मक़ते में दाग दार्शनिकता का एक पुट ले आते हैं। हम हमेशा अपनी ज़िंदगी, अपने भाग्य को कोसते रहते हैं। वही ज़िदगी जब हमें छोड़ कर जाने लगती है तो उसे किसी हालत में खोना नहीं चाहते। इसलिए अपनी तंगहाली का रोना रोने से अच्छा है कि उससे लड़ते हुए अपने जीवन को जीने लायक बनाएँ।

ये तो थी दाग़ की पूरी ग़ज़ल। इस ग़ज़ल के कुछ अशआरों को कई फ़नकारों ने अपनी आवाज़ से सँवारा है मसलन बेगम अख्तर, फरीदा खानम, रूना लैला व मेहदी हसन। पर व्यक्तिगत तौर पर मुझे इसे मेहदी हसन की आवाज़ में इस ग़ज़ल को सुनना पसंद है। जिस तरह वो ग़जल के एक एक मिसरे को अलग अंदाज़ में गाते हैं उसका कमाल बस सुनकर महसूस किया जा सकता है।


वैसे ग़ज़ल गायिकाओं की बात करूँ तो इस ग़ज़ल को गुनगुनाते वक़्त फरीदा खानम का ख़्याल सबसे पहले आता है।


वैसे आपको इस ग़ज़ल का सबसे उम्दा शेर कौन सा लगा ये जानने का इंतज़ार रहेगा मुझे।

शुक्रवार, अप्रैल 19, 2013

क्रिकेट,रेडियो और मेहदी हसन : देख तो दिल कि जाँ से उठता है...ये धुआँ सा कहाँ से उठता है ?

बड़ा अज़ीब सा शीर्षक है ना। पर इस ग़ज़ल के बारे में बात करते वक़्त उससे परिचय की छोटी सी कहानी आपके सम्मुख ना रखूँ तो बात अधूरी रहेगी। बात अस्सी के दशक की  है। क्रिकेट या यूँ कहूँ उससे ज्यादा उस वक़्त मैच का आँखों देखा हाल सुनाने वाली क्रिकेट कमेंट्री का मैं दीवाना था। संसार के किसी कोने मैं मैच चल रहा हो कहीं ना कहीं से मैं कमेंट्री को ट्यून कर ही ले लेता था। बीबीसी और रेडियो आस्ट्रेलिया के शार्ट वेव (Short Wave, SW) मीटर बैंड्स जिनसे मैच का प्रसारण होता वो मुझे जुबानी कंठस्थ थे। यही वो वक़्त था जब शारजाह एक दिवसीय क्रिकेट का नया अड्डा बन गया था। दूरदर्शन और आकाशवाणी शारजाह में होने वाले इन मैचों का प्रसारण भी नहीं करते थे। ऐसे ही एक टूर्नामेंट के फाइनल में भारत व पाकिस्तान का मुकाबला था। मेरी बचपन की मित्र मंडली मुझे पूरी आशा से देख रही थी। मैंने भी मैच शुरु होने के साथ ही शार्ट वेव के सारे स्टेशन को एक बार मंथर गति से बारी बारी ट्यून करना शुरु कर दिया।

जिन्हें रेडियो सीलोन या बीबीसी हिंदी सर्विस को सुनने की आदत रही होगी वो भली भाँति जानते होंगे कि उस ज़माने (या शायद आज भी) में शार्ट वेव के किसी स्टेशन को ट्यून करना कोई विज्ञान नहीं बल्कि एक कला हुआ करती थी। मीटर बैंड पर लाल सुई के आ जाने के बाद हाथ के हल्के तेज दबाव से फाइन ट्यूनिंग नॉब को घुमाना और साथ ही ट्राजिस्टर को उचित कोण में घुमाने की प्रक्रिया तब तक चलती रहती थी जब तक आवाज़ में स्थिरता ना आ जाए। ऐसे में किसी ने ट्रांजिस्टर हिला दिया तो सारा गुस्सा उस पर निकाला जाता था।
मेहदी हसन व नसीम बानो चोपड़ा

नॉब घुमाते घुमाते 25 मीटर बैंड पर अचानक ही उर्दू कमेंट्री की आवाज़ सुनाई दी। थोड़ी ही देर में पता लग गया कि ये कमेंट्री रेडियो पाकिस्तान से आ रही है। उसके बाद तो शारजाह में भारत के 125 रनों के जवाब में पाकिस्तान को 87 रन पर आउट करने का वाक़या हो या चेतन शर्मा की आख़िरी गेंद पर छक्का जड़ने का.... सब इसी रेडियो स्टेशन की बदौलत मुझ तक पहुँच सका था। ऐसे ही एक दिन लंच के अवकाश के वक़्त रेडियो पाकिस्तान पर आ रहे एक कार्यक्रम में ये ग़ज़ल पहली बार कानों में पड़ी थी। मेहदी हसन साहब की आवाज़ का ही असर था कि एक बार सुन कर ही ग़ज़ल की उदासी दिल में घर कर गयी थी। तब उर्दू जुबाँ से जगजीत की ग़ज़लों के माध्यम से हल्का फुल्का राब्ता हुआ था तो  मीर तकी 'मीर' की लिखी ये ग़ज़ल पूरी तरह कहाँ समझ आती पर जाने क्या असर था इस ग़ज़ल का कि उसके बाद जब भी हसन साहब की आवाज़ कानों में गूँजती...दिल धुआँ धुआँ हो उठता।



अब जब इस ग़ज़ल का जिक्र छिड़ा है तो आइए देखें जनाब मीर तकी 'मीर' ने क्या कहना चाहा है अपनी इस ग़ज़ल में

देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है

गोर किस दिल-जले की है ये फ़लक
शोला इक सुबह याँ से उठता है


मतले के बारे में क्या कहना! असली शेर तो उसके बाद आता है जब मीर पूछते हैं..हमारे चारों ओर फैले आसमाँ में आख़िर ये किस की कब्र है ? जरूर कोई दिलजला रहा होगा वर्ना इस कब्र से रोज़ सुबह एक शोला ( सूरज का गोला) यूँ नहीं उठता।

खाना-ऐ-दिल से जिनहार न जा
कोई ऐसे मकान से उठता है

नाला सर खेंचता है जब मेरा
शोर एक आसमान से उठता है

मेरे दिल से तुम हरगिज़ अलग ना होना। भला कोई अपने घर से यूँ जुदा होता है। रो रो कर की जा रही ये फ़रियाद मेरे दिल को विकल कर रही है। मुझे आसामाँ से एक आतर्नाद सा उठता महसूस हो रहा है।

लड़ती है उस की चश्म-ऐ-शोख जहाँ
इक आशोब वाँ से उठता है

जब भी उस शोख़ नज़र से मेरी निगाह मिलती है दिल में इक घबराहट ...इक बेचैनी सी फैल जाती है।

बैठने कौन दे है फिर उस को
जो तेरे आस्तान से उठता है

ऐ ख़ुदा जिस शख़्स से तेरा करम ही उठ गया उसे फिर कहाँ ठौर मिलती है?

यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है

इश्क इक 'मीर' भारी पत्थर है
बोझ कब नातवाँ से उठता है


मैंने तुम्हारी गली से आना जाना क्या छोड़ा, लगता है जैसे ये संसार ही मुझसे छूट गया है। सच तो ये है मीर कि इश्क़ एक ऐसा भारी पत्थर है जिसका बोझ शायद ही कभी इस कमजोर दिल से हट पाए।

वैसे क्या आप जानते हैं कि मीर की इस ग़ज़ल का इस्तेमाल एक हिंदी फिल्म में भी किया गया है। वो फिल्म थी पाकीज़ा। पाकीज़ा में कमाल अमरोही साहब ने फिल्म के संवादों के पीछे ना कई ठुमरियाँ बल्कि ये ग़ज़ल भी डाली है। इधर मीना कुमारी फिल्म के रुपहले पर्दे पर अपने दिल का दर्द बयाँ करती हैं वहीं पीछे से ये नसीम बानो चोपड़ा की आवाज़ में ये ग़ज़ल डूबती उतराती सी बहती चलती है।



वैसे नसीम बानो की गायिकी भी अपने आप में एक पोस्ट की हक़दार है पर वो चर्चा फिर कभी! वैसे आपका इस ग़ज़ल के बारे में क्या ख्याल है?

बुधवार, अप्रैल 04, 2012

मेहदी हसन के दो नायाब फिल्मी गीत : मुझे तुम नज़र से.. और इक सितम और मेरी जाँ ..

बतौर ग़ज़ल गायक तो मेहदी हसन की गायिकी से शायद ही कोई संगीत प्रेमी परिचित ना होगा। पर ये बात भारत में कम ही लोगों को पता है कि ग़ज़ल गायिकी के इस बादशाह ने 1960-80 के दशक में साठ से ज्यादा पाकिस्तानी फिल्मों में पार्श्वगायक की भूमिका अदा की। आज भी पाकिस्तान में उनके गाए पुराने नग्मे चाव से सुने जाते हैं। तो आज आपसे बातें होगी ऐसे ही दो गीतों के बारे में जिनमें एक तो भारत में भी बेहद मशहूर है। 


इन दोनों गीतों के बारे में एक और साम्यता ये है कि इन्हें लिखनेवाले थे मसरूर अनवर जिन्हें पाकिस्तानी फिल्म उद्योग के लोकप्रिय गीतकार का दर्जा प्राप्त था। मसरूर के लिखे हिट गीतों की फेरहिस्त का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वो दस से ज्यादा बार निगार अवार्ड से सम्मानित हुए जो कि पाकिस्तान में हमारे फिल्मफेयर एवार्ड के बराबर की हैसियत रखता है।

1967 में परवेज़ मलिक ने एक फिल्म बनाई थी दो राहा। इस फिल्म का सिर्फ एक गीत मेहदी हसन साहब ने गाया था। फिल्म के संगीतकार थे सुहैल राना। गीत में तीन बातें गौर करने की है। एक तो ग़ज़ल सम्राट की आवाज़ जिसका पैनापन उस समय चरम पर था। दूसरी संगीतकार सुहैल राना द्वारा गीत के मुखड़े और इंटरल्यूड्स में रची हुई पियानो की धुन। तीसरे इस गीत को सुनने के बाद कोई भी संगीतप्रेमी इसे गुनगुनाए बिना नहीं रह सकता। इतनी आसानी से ये गीत होठों पर उतर आता है कि क्या कहें!

मेहदी साहब ने बाद अपने लाइव कन्सर्ट में इस गीत ग़ज़ल के अंदाज़ में  पेश करना शुरु कर दिया था।  पर मुझे आज भी ज्यादा आनंद इसके फिल्मी संस्करण को सुनने में ही आता है।


मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो
मुझे तुम कभी भी भुला ना सकोगे
ना जाने मुझे क्यूँ यक़ीं हो चला है
मेरे प्यार को तुम मिटा ना सकोगे
मुझे तुम नज़र से....

मेरी याद होगी, जिधर जाओगे तुम,
कभी नग़मा बन के, कभी बन के आँसू
तड़पता मुझे हर तरफ़ पाओगे तुम
शमा जो जलायी मेरी वफ़ा ने
बुझाना भी चाहो, बुझा ना सकोगे
मुझे तुम नज़र से....

कभी नाम बातों में आया जो मेरा
तो बेचैन हो हो के दिल थाम लोगे
निगाहों पे छाएगा ग़म का अँधेरा
किसी ने जो पूछा, सबब आँसुओं का
बताना भी चाहो, बता ना सकोगे
मुझे तुम नज़र से....

1968 में आई फिल्म सैक़ा के लिए मसरूर अनवर ने एक बेहद संज़ीदा नज़्म लिखी। क्या कमाल का मुखड़ा था इक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है..। मेहदी साहब ने भी अपनी आवाज़ में गीत की भावनाओं को क्या खूब उतारा। आप खुद ही सुन लीजिए ना



इक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है
दिल में अबतक तेरी उल्फ़त का निशाँ बाक़ी है

जुर्म-ए-तौहीन-ए-मोहब्बत की सज़ा दे मुझको
कुछ तो महरूम-ए-उल्फ़त का सिला1 दे मुझको
जिस्म से रूह2 का रिश्ता नहीं टूटा है अभी
हाथ से सब्र का दामन नहीं छूटा है अभी
अभी जलते हुये इन ख़्वाबों का धुआँ बाक़ी है

अपनी नफ़रत से मेरे प्यार का दामन भर दे
दिल-ए-गुस्ताख़ को महरूम-ए-मोहब्बत कर दे
देख टूटा नहीं चाहत का हसीन ताजमहल
आ के बिखरे नहीं महकी हुई यादों के कँवल3
अभी तक़दीर के गुलशन में ख़िज़ा4 बाकी है
इक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है...

1. प्रेम से दूर रखने की सज़ा,  2. आत्मा बिना, 3. फूल   4. पतझड़.

मसरूर साहब सिर्फ गीत ही नहीं लिखते थे। कई फिल्मों की उन्होंने पटकथा भी लिखी। इसके आलावा वो कमाल के शायर भी थे। चलते चलते उनकी एक हल्की फुल्की ग़ज़ल भी पढ़वाना चाहूँगा जिसे गुलाम अली ने बड़ी मस्ती के साथ गाया है

हमको किसके ग़म ने मारा ये कहानी फिर सही
किसने तोड़ा दिल हमारा ये कहानी फिर सही

दिल के लुटने का सबब पूछो न सबके सामने
नाम आयेगा तुम्हारा ये कहानी फिर सही

नफ़रतों के तीर खा कर दोस्तों के शहर में
हमने किस किस को पुकारा ये कहानी फिर सही


क्या बताएँ प्यार की बाज़ी वफ़ा की राह में
कौन जीता कौन हारा ये कहानी फिर सही

मंगलवार, नवंबर 13, 2007

हमारी साँसों में आज तक वो हिना की ख़ुशबू महक रही है....सुनिए नूरजहाँ और मेहदी हसन की आवाज़ में ये गज़ल़


पिछला हफ्ता अंतरजाल यानि 'नेट' से दूर रहा। जाने के पहले सोचा था कि नूरजहाँ की गाई ये ग़ज़ल आपको सुनवाता चलूँगा पर पटना में दीपावली की गहमागहमी में नेट कैफे की ओर रुख करने का दिल ना हुआ। वैसे तो नूरजहाँ ने तमाम बेहतरीन ग़ज़लों को अपनी गायिकी से संवारा है पर उनकी गाई ग़ज़लों में तीन मेरी बेहद पसंदीदा रही हैं। उनमें से एक फ़ैज़ की लिखी मशहूर नज़्म "....मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब ना माँग....." इस चिट्ठे पर आप पहले सुन ही चुके हैं। अगर ना सुनी हो तो यहाँ देखें।


तो आज ज़िक्र उन तीन ग़ज़लों में इस दूसरी ग़ज़ल का। ये ग़ज़ल मैंने पहली बार १९९५-९६ में एक कैसेट में सुनी थी और तभी से ये मेरे मन में रच बस गई थी। लफ़्जों की रुमानियत का कमाल कहें या नूरजहाँ की गहरी आवाज़ का सुरूर कि इस ग़ज़ल को सुनते ही मन पुलकित हो गया था। इस ग़जल की बंदिश 'राग काफी' पर आधारित है जो अर्धरात्रि में गाया जाने वाला राग है। वैसे भी महबूब के खयालों में खोए हुए गहरी अँधेरी रात में बिस्तर पर लेटे-लेटे जब आप इस ग़ज़ल को सुनेंगे तो यक़ीन मानिए आपके होठों पर शरारत भरी एक मुस्कुराहट तैर जाएगी।



हमारी साँसों में आज तक वो हिना की ख़ुशबू महक रही है
लबों पे नग्मे मचल रहे हैं, नज़र से मस्ती झलक रही है

वो मेरे नजदीक आते आते हया से इक दिन सिमट गए थे
मेरे ख़यालों में आज तक वो बदन की डाली लचक रही है

सदा जो दिल से निकल रही है वो शेर-ओ-नग्मों में ढल रही है
कि दिल के आंगन में जैसे कोई ग़ज़ल की झांझर झनक रही है

तड़प मेरे बेकरार दिल की, कभी तो उन पे असर करेगी
कभी तो वो भी जलेंगे इसमें जो आग दिल में दहक रही है


इस ग़जल को किसने लिखा ये मुझे पता नहीं पर हाल ही मुझे पता चला कि इस ग़ज़ल का एक हिस्सा और है जिसे जनाब मेहदी हसन ने अपनी आवाज़ दी है। वैसे तो दोनों ही हिस्से सुनने में अच्छे लगते हैं पर ये जरूर है कि नूरजहाँ की गायिकी का अंदाज कुछ ज्यादा असरदार लगता है।

शायद इस की एक वज़ह ये भी हैं कि जहाँ इस ग़ज़ल के पहले हिस्से में महकते प्यार की ताज़गी है तो वहीं दूसरे हिस्से में आशिक के बुझे हुए दिल का यथार्थ के सामने आत्मसमर्पण।

तो मेहदी हसन साहब को भी सुनते चलें,इसी ग़ज़ल के एक दूसरे रूप में जहाँ एक मायूसी है..एक पीड़ा है और कई अनसुलझे सवाल हैं...


हमारी साँसों में आज तक वो हिना की ख़ुशबू महक रही है
लबों पे नग्मे मचल रहे हैं, नज़र से मस्ती झलक रही है

कभी जो थे प्यार की ज़मानत वो हाथ हैं गैरो की अमानत
जो कसमें खाते थे चाहतों की, उन्हीं की नीयत बहक रही है

किसी से कोई गिला नहीं है नसीब ही में वफ़ा नहीं है
जहाँ कहीं था हिना को खिलना, हिना वहीं पे महक रही है

वो जिन की ख़ातिर ग़ज़ल कही थी, वो जिन की खातिर लिखे थे नग्मे
उन्हीं के आगे सवाल बनकर ग़ज़ल की झांझर झनक रही है

 

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