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बुधवार, सितंबर 30, 2015

जगजीत और जावेद : साथ साथ, सिलसिले और सोज़ का वो साझा सफ़र! Tamanna phir machal jaye...

जावेद अख़्तर और जगजीत सिंह यानि 'ज' से शुरु होने वाले वे दो नाम जिनकी कृतियाँ जुबान पर आते ही जादू सा जगाती हैं। अस्सी के दशक के आरंभ में एक फिल्म आई थी साथ साथ जिसके संगीतकार थे कुलदीप सिंह जी। इस फिल्म के लिए बतौर गायक व गीतकार, जगजीत और जावेद साहब को एक साथ लाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। तुम को देखा तो ख्याल आया.. तो ख़ैर आज भी उतना ही लोकप्रिय है जितना उस समय हुआ था। पर फिल्म के अन्य गीत प्यार मुझसे जो किया तुमने तो क्या पाओगी.... और ये तेरा घर ये मेरा घर... तब रेडियो पर खूब बजे थे।

फिल्मों के इतर इन दो सितारों की पहली जुगलबंदी 1998 में आए  ग़ज़लों के एलबम 'सिलसिले ' में हुई। क्या कमाल का एलबम था वो। सिलसिले की ग़ज़ले जाते जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया.., दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं.. और नज़्म मैं भूल जाऊँ तुम्हें, अब यही मुनासिब है... अपने आप में अलग से एक आलेख की हक़दार हैं पर आज बात उनके सिलसिले से थोड़ी कम मक़बूलियत हासिल करने वाले एलबम सोज़ की जो वर्ष 2001 में बाजार में आया।


सोज़ का शाब्दिक अर्थ यूँ तो जलन होता है पर ये एलबम श्रोताओं के सीने में आग लगाने में नाकामयाब रहा। फिर भी सोज़ ने शायरी के मुरीदों को दो बेशकीमती तोहफे जरूर दिये जिन्हें गुनगुनाते रहना उसके प्रेमियों की स्वाभावगत मजबूरी है। इनमें से एक तो ग़ज़ल थी और दूसरी एक नज़्म। मजे की बात ये थी कि ये दोनों मिजाज में बिल्कुल एक दूसरे से सर्वथा अलग थीं। एक में अनुनय, विनय और मान मनुहार से प्रेमिका से मुलाकात की आरजू थी तो दूसरे में बुलावा तो था पर पूरी खुद्दारी के साथ।

पर पहले बात ग़ज़ल  तमन्‍ना फिर मचल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ.. की।  ओए होए क्या मुखड़ा था इस ग़ज़ल का। समझिए इसके हर एक मिसरे में चाहत के साथ एक नटखटपन था जो इस ग़ज़ल की खूबसूरती और बढ़ा देता है। आज भी जब इसे गुनगुनाता हूँ तो मन एकदम से हल्का हो जाता है तो चलिए एक बार फिर सुर में सुर मिलाया जाए..


तमन्‍ना फिर मचल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
यह मौसम ही बदल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ

मुझे गम है कि मैने जिन्‍दगी में कुछ नहीं पाया
ये ग़म दिल से निकल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ

नहीं मिलते हो मुझसे तुम तो सब हमदर्द हैं मेरे
ज़माना मुझसे जल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ

ये दुनिया भर के झगड़े, घर के किस्‍से, काम की बातें
बला हर एक टल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ 

सोज़ की ये ग़ज़ल भले दिल को गुदगुदाती हो पर उसकी इस नज़्म के बारे में आप ऐसी सोच नहीं रख पाएँगे। प्रेम किसी पर दया दिखलाने या अहसान करने का अहसास नहीं। ये तो स्वतःस्फूर्त भावना है जो दो दिलों में जब उभरती है तो एक दूसरे के बिना हम अपने आप को अपूर्ण सा महसूस करते हैं। पर इस मुलायम से अहसास को जब भावनाओं का सहज प्रतिकार नहीं मिलता तो बेचैन मन खुद्दार हो उठता है। प्रेमी से मिलन की तड़प को कोई उसकी कमजोरी समझ उसका फायदा उठाए ये उसे स्वीकार नहीं। तभी तो जावेद साहब कहते हैं कि अहसान जताने और रस्म अदाएगी के लिए आने की जरूरत नहीं.... आना तभी जब सच्ची मोहब्बत तुम्हारे दिल में हो..

 

अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना

मैंने पलकों पे तमन्‍नाएँ सजा रखी हैं
दिल में उम्‍मीद की सौ शम्‍मे जला रखी हैं
ये हसीं शम्‍मे बुझाने के लिए मत आना

प्‍यार की आग में जंजीरें पिघल सकती हैं
चाहने वालों की तक़दीरें बदल सकती हैं
तुम हो बेबस ये बताने के लिए मत आना


अब तुम आना जो तुम्‍हें मुझसे मुहब्‍बत है कोई
मुझसे मिलने की अगर तुमको भी चाहत है कोई
तुम कोई रस्‍म निभाने के लिए मत आना  


जगजीत तो अचानक हमें छोड़ के चले गए पर अस्पताल में भर्ती होने से केवल एक दिन पहले उन्होंने जावेद साहब के साथ अमेरिका में एक साथ शो करने का प्रोग्राम बनाया था जिसमें आपसी गुफ्तगू के बाद जावेद साहब को अपनी कविताएँ पढ़नी थीं और जगजीत को ग़ज़ल गायिकी से श्रोताओं को लुभाना था। जगजीत के बारे में अक्सर जावेद साहब कहा करते थे कि उनकी आवाज़ में एक चैन था., सुकून था। इसी सुकून का रसपान करते हुए आज की इस महफ़िल से मुझे अब आज्ञा दीजिए पर ये जरूर बताइएगा कि इस एलबम से आपकी पसंद की ग़ज़ल  कौन सी है ?

रविवार, दिसंबर 07, 2014

इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा..कैसे बना 21 रूपकों वाला ये गीत ? Ek ladki ko dekha...

तकरीबन बीस साल हो गए इस बात को। इंजीनियरिंग कॉलेज से निकले हुए एक साल बीता था। नौकरी तो तुरंत लग गई थी अलबत्ता काम करने में मन नहीं लग रहा था। मार्च का महीना था। फरीदाबाद में उस वक़्त गर्मियाँ आई नहीं थी। कार्यालय की मगज़मारी के बाद रात को ही फुर्सत के कुछ पल नसीब होते थे। रात्रि भोज ढाबे में होता था और वहीं दोस्त यारों से बैठकी का अड्डा जमा करता था। कभी कोई नहीं मिला तो यूँ ही सेक्टर चौदह के छोटे से बाजार के चक्कर अकेले मार दिया करता था। ऐसी ही चहलकदमी में एक छोटी सी दुकान में बजता ये गीत पहली बार कानों में पड़ा था और मेरे कदम वहीं ठिठक गए थे।

गीत को पहली बार सुनते ही फिल्म देखने का मन हो आया था। आख़िर क्या खास था इस गाने में? जावेद अख्तर के लिखे वो इक्कीस रूपक जो दिल में एक मखमली अहसास जगाते थे, या फिर कुमार शानू जिनकी आवाज़ का सिक्का आशिकी (पहली वाली) के लोकप्रिय नग्मों के बाद हर गली नुक्कड़ पर चल रहा था। पर सच कहूँ तो दूर से आती इस गीत की धुन ही थी जिसने मेरा इस गीत की ओर उस रात ध्यान खींचा था। तब तो मुझे भी ये भी नहीं पता था कि इस गीत के पीछे पंचम का संगीत है। ताल वाद्यों से अलग तरह की आवाज़ पैदा करने में पंचम को महारत हासिल थी। यहाँ भी ताल वाद्यों के साथ गिटार का कितनी खूबसूरती से उपयोग किया था गीत के आरंभ में पंचम ने। ये गीत वैसे गीतों में शुमार किया जाता है जिसमें मुखड़े और अंतरे को एक साथ ही पिरोया गया है। इंटरल्यूड्स पर आप ध्यान दें तो पाएँगे कि हर एक मुखड़े अंतरे के खत्म होते ही गूँजते ढोल को बाँसुरी का प्यारा साथ मिलता है।


पर क्या आपको पता है कि फिल्म में ये गीत कैसे आया? जावेद अख़्तर साहब ने कुछ अर्से पहले इस गीत के बारे में चर्चा करते हुए बताया था कि पहले ये गीत फिल्म में ही नहीं था। स्क्रिप्ट सुनते वक़्त जावेद साहब ने सलाह दी थी कि यहाँ एक गाना होना चाहिए। पंचम और निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने तब जावेद साहब से कहा कि अगर आपको ऐसा लगता है तो गाना लिखिए। अगर हमें अच्छा लगा तो फिल्म में उसके लिए जगह बना लेंगे।

अगली सिटिंग में जब जावेद जी को जाना था तब उन्हें ख्याल आया कि मैंने सलाह तो दे दी पर लिखा कुछ भी नहीं। रास्ते में वो गीत के बारे में सोचते रहे और एक युक्ति उनके मन में सूझी कि गीत की शुरुआत इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ...से की जाए और आगे रूपकों की मदद से इसे आगे बढ़ाया जाए.. जैसे ये जैसे वो। जावेद साहब सोच रहे थे कि ये विचार शायद ही सबको पसंद आएगा और बात टल जाएगी। पर जब उन्होंने पंचम को अपनी बात कही तो उन्होंने कहा कि तुरंत एक अंतरा लिख कर दो। जावेद साहब ने वहीं बैठ कर अंतरा लिखा और पंचम ने दो मिनट में अंतरे पर धुन तैयार कर दी। जावेद साहब बताते हैं कि पहला अंतरा जिसमें सात रूपक थे तो उन्होंने वहाँ जल्दी ही मुकम्मल कर लिया था पर बाकी हिस्सों में चौदह बचे रूपको को रचने में उन्हें  तीन चार दिन लग गए।

बताइए तो जिन गीतों के बारे में हम इतनी लंबी बातें कर लेते हैं। जिनकी भावनाओं में हम बरसों डूबते उतराते हैं वो इन हुनरमंदों द्वारा चंद मिनटों में ही तैयार हो जाती हैं. ये होता है कलाकार। ख़ैर आपको ये गाना इसके बोलों के साथ एक बार फिर सुनवाए देते हैं।


इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
जैसे खिलता गुलाब
जैसे शायर का ख्वाब
जैसे उजली किरण
जैसे वन में हिरण
जैसे चाँदनी रात
जैसे नरमी की बात
जैसे मन्दिर में हो एक जलता दिया
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा!

इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
जैसे सुबह का रूप
जैसे सरदी की धूप
जैसे वीणा की तान
जैसे रंगों की जान
जैसे बल खाये बेल
जैसे लहरों का खेल
जैसे खुशबू लिये आये ठंडी हवा
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा!

इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
जैसे नाचता मोर
जैसे रेशम की डोर
जैसे परियों का राग
जैसे सन्दल की आग
जैसे सोलह श्रृंगार
जैसे रस की फुहार
जैसे आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता नशा
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा!


फिल्म आई और इसके सारे गीत खूब बजे। मनीषा कोइराला फिल्म में गीत में बयाँ की गई लड़की सी प्यारी दिखीं। ये अलग बात है कि जावेद साहब ने ये गीत तब मनीषा को नहीं बल्कि माधुरी दीक्षित को ध्यान में रखकर लिखा था। यूँ तो मैं फिल्म दोबारा देखता नहीं पर इस फिल्म को तब मैंने एक बार अकेले और दूसरी बार दोस्तों के साथ देखा।

पर फिल्म के संगीत निर्देशक पंचम स्वयम् इस गीत की लोकप्रियता को जीते जी नहीं देख सके। वैसे उन्हें इस फिल्म का संगीत रचते हुए ये यकीन हो चला था कि इस बार उनकी मेहनत रंग लाएगी। पंचम पर लिखी गई किताब R D Burman The Man The Music में इस गीत को याद करते हुए फिल्म के निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा बताते हैं कि
31 दिसम्बर 1993 को फिल्म सिटी के टाउन स्कवायर में नए साल के उपलक्ष्य में इस एक पार्टी का आयोजन हुआ था। पार्टी में यूनिट के सभी सदस्यों और कामगारों ने हिस्सा लिया था। हमने साउंड सिस्टम पर इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...बजाया। मुभे याद है कि सारे लोगों को उत्साह बढ़ाते और तालियाँ बजाते देख पंचम समझ चुके थे कि उनका काम इस बार जरूर सराहा जाएगा।

शायद पंचम के लिए वो आख़िरी मौका था कि वो अपने रचे संगीत को सबके साथ सुन रहे थे। उसके तीन दिन बाद ही हृदयाघात की वज़ह से उनका देहांत हो गया था।पंचम भले आज हमारे बीच नहीं हों पर ये गीत, इसकी धुन इसके रूपक को हम हर उस सलोने चेहरे के साथ जोड़ते रहेंगे जिसने हमारे दिल में डेरा जमा रखा होगा। क्यूँ है ना?

गुरुवार, जुलाई 14, 2011

सुनो आतंकवादी,मुझे गुस्सा भी आता है, तरस भी आता है तुम पर : जावेद अख़्तर

31 महिनों का अंतराल और फिर वही बम धमाका। इस पर मुंबईवासियों को गृह मंत्री की पीठ ठोकनी चाहिए या फिर ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करना चाहिए। इतना तो सही है कि शिवराज पाटिल के ज़माने में आम जनता में जो लाचारी और नैराश्य का भाव चरम पर था उसमें पिछले कुछ सालों में काफी कमी आई थी। आज चिंदाबरम के हिसाब से देश का कोई कोना सुरक्षित नहीं है। पर इसमें नया क्या है। राहुल बाबा कहते हैं कि हम ऐसे हादसों को रोक नहीं सकते। मुझे इनसे असहमत होने का कोई कारण नहीं दिखता। ये सब तो हम भारतवासी अच्छी तरह जानते ही हैं। पर इन हुक्मरानों के मुंह से ऐसा सुनना अच्छा नहीं लगता।

अगर राहुल इतनी ही साफगोई बरतना चाहते थे तो उन्हें  ये भी जोड़ना चाहिए था कि खासकर तब जब यहीं के लोग बाहरी शक्तियों से मिल जाएँ । ऐसा पुलिस व खुफ़िया तंत्र मजबूत कर देने भर से ही नहीं होगा। उसके लिए स्पष्ट नीतियों की आवश्यकता होती है और उससे भी अधिक उन्हें तेज़ी से कार्यान्वित करने की इच्छा शक्ति। पिछले कई सालों से तो यही देखता आया हूँ कि ये सरकार दो कदम आगे बढ़ाती है फिर चार कदम पीछे भी हटती नज़र आती है।

आज जब सरकार की ओर से मायूसी और निराशा के स्वर उभर रहे हैं तो मुझे जावेद अख़्तर साहब की दो साल पहले मुंबई हमले की बरसी पर लिखी ये नज़्म याद आ रही है जो निराशा के इस माहौल में भी हमारी उम्मीद और हौसले को जगाए रखती है। जावेद साहब ने इस नज़्म में वही भावनाएँ, वही आक्रोश व्यक्त किया हैं है जो ऐसे हादसों के बाद हमारे जैसे आम जन अपने दिल में महसूस करते हैं..

मुझे पूरा यक़ी हैं कि जावेद साहब की आवाज़ में जब आप ये नज़्म सुनेंगे तो बहुत देर तक उनके कहे शब्द आपके दिलो दिमाग को झिंझोड़ कर रख देंगे..

महावीर और बुद्ध की,
नानक और चिश्ती की,और गाँधी की धरती पर,
मैं जब आतंक के ऐसे नज़ारे देखता हूँ तो,
मैं जब अपनी ज़मीं पर अपने लोगों के लहू के बहते धारे देखता हूँ तो,
मेरे कानों में जब आती हैं उन मज़बूर ग़म से लरज़ती माओं की चीखें,
कि जिनके बेटे यह कहकर गए थे, शाम से पहले ही घर लौट आएँगे हम तो,
मैं जब भी देखता हूँ सूनी और उजड़ी हुई मांगें,
ये सब हैरान से चेहरे, ये सब भींगी हुई आँखें,
तो मेरी आँखें हरसू ढूँढती हैं उन दरिन्दों को,
जिन्होंने ट्रेन में, बस में, जिन्होंने सडको में, बाजारों में बम आके हैं फोड़े,
जिन्होंने अस्पतालों पर भी अपनी गोलियाँ बरसाई, मंदिर और मस्जिद तक नहीं छोड़े,
जिन्होंने मेरे ही लोगों के खूँ से मेरे शहरों को रँगा है,
वो जिनका होना ही हैवानियत की इंतहा है,
मेरे लोगों जो तुम सबकी तमन्ना है, वही मेरी तमन्ना है,
कि इन जैसे दरिंदों की हर एक साज़िश को मैं नाकाम देखूँ,
जो होना चाहिए इनका मैं वो अंज़ाम देखूँ ,
मगर कानून और इंसाफ़ जब अंजाम की जानिब इन्हें ले जा रहे हों तो,
मैं इनमें से किसी भी एक से इक बार मिलना चाहता हूँ.

मुझे यह पूछना है,
दूर से देखूँ तो तुम भी जैसे एक इंसान लगते हो,
तुम्हारे तन में फिर क्यूँ भेड़ियों का खून बहता है ?
तुम्हारी साँस में साँपों की ये फुंकार कबसे है ?
तुम्हारी सोच में यह ज़हर है कैसा ?
तुम्हें दुनिया की हर नेकी हर इक अच्छाई से इंकार कबसे है?
तुम्हारी ज़िन्दगी इतनी भयानक और तुम्हारी आत्मा आतंक से बीमार कबसे है?


सुनो आतंकवादी,
मुझे गुस्सा भी आता है, तरस भी आता है तुम पर,
कि तुम तो बस प्यादे हो,
जिन्होंने है तुम्हें आगे बढ़ाया वो खिलाडी दूर बैठे हैं,
बहुत चालाक बनते हैं, बहुत मगरूर बैठे हैं,
ज़रा समझो, ज़रा समझो, तुम्हारी दुश्मनी हम से नहीं हैं,
जहाँ से आए हो मुड़कर ज़रा देखो, तुम्हारा असली दुश्मन तो वहीं हैं,
वो जिनके हाथ में कठपुतलियों की तरह तुम खेले,
वो जिनके कहने पर तुमने बहाए खून के रेले,
तुम्हारे तो है वो दुश्मन, जिन्होंने नफ़रतों का यह सबक तुमको रटाया है,
तुम्हारे तो है वो दुश्मन जिन्होंने तुमको ऐसे रास्ते में ला के छोड़ा है,
जो रास्ता आज तुमको मौत के दरवाज़े लाया है,
यह एक धोखा है, एक अँधेर है, एक लूट है समझो,
जो समझाया गया है तुमको वो सब झूठ है समझो,


कोई पल भर न ये समझे की मैं ज़ज़्बात में बस यूँ ही बहता हूँ,
मुझे मालूम है वो सुन रहे हैं जिनसे कहता हूँ,
अभी तक वक़्त है जो पट्टियाँ आँखों की खुल जाएँ,
अभी तक वक़्त है जो नफ़रतों के दाग धुल जाएँ,
अभी तक वक़्त है हमने कोई भी हद नहीं तोड़ी,
अभी तक वक़्त है हमने उम्मीद अब तक नहीं छोड़ी,
अभी तक वक़्त है चाहो तो ये मौसम बदल जाएँ,
अभी तक वक़्त है जो दोस्ती की रस्म चल जाए,
कोई दिलदार बनके आए तो दिलदार हम भी हैं,
मगर जो दुश्मनी ठहरी तो फिर तैयार हम भी हैं.


 ताकि सनद रहे
 

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