कुछ लोग ग़म की दुनिया में जीने के लिए बने होते हैं। मीना कुमारी की शख़्सियत भी कुछ ऍसी ही थी। पर्दे की ट्रेजडी क्वीन ने कब अपनी ज़िदगी में ग़मों से खेलना शुरु कर दिया शायद उन्हें भी पता नहीं चला। महज़बीं के नाम से जन्मी और गरीबी में पली बढ़ी इस अदाकारा ने अपने अभिनय का सिक्का पचास और साठ के दशक में इस तरह चलाया कि किसी भी फिल्म से उनका जुड़ाव ही उसके हिट हो जाने का सबब बन जाता था।
अपने कैरियर की ऊँचाई को छू रही मीना जी के कमाल अमरोही साहब से प्रेम, फिर विवाह और कुछ सालों बाद तलाक की कथा तो हम सभी जानते ही हैं। मीना जी का ठोस व्यक्तित्व, उनकी आज़ादख्याली, अपनी ज़िंदगी के निर्णय खुद लेने की क्षमता और अभिनय के प्रति लगन उन्हें जिस मुक़ाम पर ले गई थी वो शायद कमाल साहब से उनके खट्टे होते रिश्तों की वज़ह भी बनी। रिश्तों को न सँभाल पाने के दर्द और अकेलेपन से निज़ात पाने के लिए मीना कुमारी जी ने अपने आप को शराब में डुबो दिया।
यूँ तो मीना कुमारी अपने दिल में उमड़ते जज़्बों को डॉयरी के पन्नों में हमेशा व्यक्त किया करती थीं पर उनका अकेलापन, उनकी पीड़ा और हमसफ़र की बेवफाई उनकी ग़ज़लों और नज़्मों में रह रह कर उभरी। मिसाल के तौर पर उनकी इस नज़्म को लें।मीना जी के काव्य से मेरा पहला परिचय उनकी इस दिल को छू लेने वाली नज़्म से हुआ था
जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौग़ात मिली
जब चाहा दिल को समझें, हँसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, लो फिर तुमको अब मात मिली
बातें कैसी ? घातें क्या ? चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया,बेचैनी भी साथ मिली
३९ वर्ष की आयु में इस दुनिया से रुखसत होते हुए वो अपनी २५ निजी डॉयरियों के पन्ने गुलज़ार साहब को वसीयत कर गईं। गुलज़ार ने उनकी ग़ज़लों और नज़्मों की किताब हिंद पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित कराई है। कल जब राँची के पुस्तक मेले से गुजरा तो उसमें मीना कुमारी की शायरी के आलावा कुछ और भी पढ़ने को मिला और वो भी गुलज़ार की लेखनी से।
गुलज़ार इस किताब में उनके बारे में लिखते हैं ..मीना जी चली गईं। कहती थीं
राह देखा करेगा सदियों तक,
छोड़ जाएँगे यह ज़हाँ तनहा
और जाते हुए सचमुच सारे जहान को तनहा कर गईं; एक दौर का दौर अपने साथ लेकर चली गईं। लगता है, दुआ में थीं। दुआ खत्म हुई, आमीन कहा, उठीं, और चली गईं। जब तक ज़िन्दा थीं, सरापा दिल की तरह ज़िन्दा रहीं। दर्द चुनती रहीं, बटोरती रहीं और दिल में समोती रहीं। समन्दर की तरह गहरा था दिल। वह छलक गया, मर गया और बन्द हो गया, लगता यही कि दर्द लावारिस हो गए, यतीम हो गए, उन्हें अपनानेवाला कोई नहीं रहा। मैंने एक बार उनका पोर्ट्रेट नज़्म करके दिया था उन्हें। लिखा था...
शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लमहा-लमहा खोल रही है
पत्ता-पत्ता बीन रही है
एक-एक साँस बजाकर सुनती है सौदायन
एक-एक साँस को खोल के, अपने तन
पर लिपटाती जाती है
अपने ही तागों की क़ैदी
रेशम की यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुटकर मर जाएगी।
पढ़कर हँस पड़ीं। कहने लगीं–‘जानते हो न, वे तागे क्या हैं ? उन्हें प्यार कहते हैं। मुझे तो प्यार से प्यार है। प्यार के एहसास से प्यार है, प्यार के नाम से प्यार है। इतना प्यार कोई अपने तन से लिपटाकर मर सके, तो और क्या चाहिए ?’
उन्हीं का एक पन्ना है मेरे सामने खुला हुआ। लिखा है....
प्यार सोचा था, प्यार ढूँढ़ा था
ठंडी-ठंडी-सी हसरतें ढूँढ़ी
सोंधी-सोंधी-सी, रूह की मिट्टी
तपते, नोकीले, नंगे रस्तों पर
नंगे पैरों ने दौड़कर, थमकर,
धूप में सेंकीं छाँव की चोटें
छाँव में देखे धूप के छाले
अपने अन्दर महक रहा था प्यार–
ख़ुद से बाहर तलाश करते थे
अपनी और मीना कुमारी जी की चंद पंक्तियों के द्वारा गुलज़ार साहब ने उनके जटिल व्यक्तित्व को कितनी आसानी से पाठकों के लिए पारदर्शी बना दिया है। अगर गुलज़ार ने मीना जी के कवि मन को टटोलने की कोशिश की है तो संगीतकार खय्याम को मीना जी के दिल की व्यथा को उनकी आवाज़ के माध्यम से निकालने का श्रेय जाता है।
खय्याम द्वारा संगीतबद्ध एलबम I write I recite EMI/HMV में मीना जी ने अपनी दिल की मनोभावनाओं को बड़ी बारीकी से अपने स्वर में ढाला है। इस एलबम से ली गई उनकी ये ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद है। आशा है आपको भी पसंद आएगी।
आगाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता
जब जुल्फ की कालिख में घुल जाए कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता
हँस हँस के जवाँ दिल के हम क्यूँ न चुने टुकड़े
हर शख़्स की किस्मत में ईनाम नहीं होता
बहते हुऐ आँसू ने आँखों से कहा थम कर
जो मय से पिघल जाए वो जाम नहीं होता
दिन डूबे हैं या डूबी बारात लिए कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता
