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शनिवार, अगस्त 17, 2019

जिसे मिलना ही नहीं उससे मोहब्बत कैसी... सोचता जाऊँ मगर दिल में उतरता देखूँ (Tu jo aa jaye..)

सत्तर के दशक में जगजीत जी ने कई ग़ज़लें गायीं। कभी निजी महफिलों में तो कभी स्टेज शो में। वो वक़्त ग्रामोफोन का हुआ करता था। चुनिंदा ग़ज़लें ही रिकार्ड होती थीं। जब कैसेट का युग आया तो भी उस शुरुआती दौर में HMV का एकाधिकार रहा।  नतीजा ये हुआ कि जगजीत जी की बहुत सारी ग़ज़लें उनके उसे पहली बार गाने के कई दशकों बाद किसी एलबम का हिस्सा बनीं। आज इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिकी की लिखी जो ग़ज़ल आपको सुनाने जा रहा हूँ वो इसी कोटि की है।


इस ग़ज़ल को लिखने वाले सीमाब अकबराबादी के पोते इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिकी से आपकी मुलाकात मैंने फिल्म अर्थ के लिए लिखी उनकी चर्चित ग़ज़ल तू नहीं तो ज़िदगी में और क्या रह जाएगा के जिक्र के दौरान की थी। दादा की मौत के बाद उनका परिवार आगरा से मुंबई आया और विकट परिस्थितियों में शायर पत्रिका का सालों साल बिना रुके संपादन करता रहा। वे अपने किसी भी साक्षात्कार में फक्र से ये बताना नहीं भूलते कि एक समय वो भी था जब निदा फ़ाज़ली जैसा शायर उन्हें ख़त लिखता था कि उनकी शायरी पत्रिका में छाप दी जाए।

इमाम साहब की ज़िंदगी ने तब दुखद मोड़ लिया जब वर्ष 2002 में चलती ट्रेन पर चढ़ने की कोशिश में वो गिर पड़े और उस दुर्घटना के बाद उमका कमर से नीचे का हिस्सा बेकार हो गया। आज उनकी ज़िंदगी व्हीलचेयर के सहारे ही घिसटती है, फिर भी वो इसी हालत में 'शायर' के संपादन में जुटे रहते हैं। कुछ साल पहले भास्कर को दिए अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि
"हमारी विरासत शायरी है। हम उसे आगे ले जाने के लिए हर सुबह आंखें खोलते हैं और रात में पलकें झपकाते हैं तो इस यकीन के साथ कि अगली सुबह फिर अदब को मज़बूती देने के लिए सांस लेते हुए उठेंगे। यही हमारी ज़िंदगी है। कई बार कुछ लोग कहते हैं कि जिस साहित्यिक समाज के लिए हमने सब कुछ दांव पर लगा दिया, उसने बेकद्री की है, लेकिन हमें ऐसा कतई नहीं लगता। तमाम संस्थाओं ने मान-सम्मान दिया है, हमारी ग़ज़लें पढ़ी-सुनी हैं, ‘शायर’ को अब तक हाथोहाथ लिया है तो चंद दुखों के आगे लोगों की मोहब्बत को हम कैसे नाकाफी कह दें।
जगजीत सिंह, चित्रा सिंह, पंकज उधास और सुधा मल्होत्रा जैसे गायक और गायिकाओं ने मेरे कलाम गाए, निदा फाज़ली और बशीर बद्र को फ़िल्म इंडस्ट्री से इंट्रोड्यूस कराने का मुझे मौका मिला, कृश्नचंदर, महेंदरनाथ, राजिंदर सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास से सोहबत रही- और बताइए, दौलत क्या होती है। "
इमाम साहब का ये जज़्बा यूँ ही बना रहे। उनकी मशहूर ग़ज़लों की तो रिकार्डिंग उपलब्ध नहीं पर उनको अगर आप तरन्नुम में गाते सुन लें तो यूँ महसूस होगा कि सफेद बालों के इस वृद्ध इंसान के भीतर रूमानियत से भरा एक युवा दिल आज भी धड़क रहा है।


वैसे तो मुझे उनकी ये पूरी ग़ज़ल ही प्यारी लगती है पर इसके दो शेर खासतौर पर दिल के करीब लगते हैं। पहला तो वो जिसमें इमाम साहब कहते हैं जिसे मिलना ही नहीं उससे मोहब्बत कैसी...सोचता जाऊँ मगर दिल में उतरता देखूँ और दूसरा वो चंद लम्हे जो तेरे कुर्ब के मिल जाते हैं...इन्ही लम्हों को मैं सदियों में बदलता देखूँ।

जिन्हें हम पसंद करते हैं उनके साथ ज़िदगी बीते ना बीते उनका स्थान दिल की गहराइयों में वैसे ही बना रहता है और जब कभी ऐसी शख्सियत से मुलाकात होती है तो उन बेशकीमती पलों को हम हृदय में तह लगाकर रख देते हैं और जब जब मन होता है उन यादों को ओढ़ते बिछाते रहते हैं।

तू जो आ जाए तो इस घर को सँवरता देखूँ
एक मुद्दत से जो वीरां है वो बसता देखूँ

ख़्वाब बनकर तू बरसता रहे शबनम शबनम
और बस मैं इसी मौसम को निख़रता देखूँ

जिसे मिलना ही नहीं उससे मोहब्बत कैसी
सोचता जाऊँ मगर दिल में उतरता देखूँ

चंद लम्हे जो तेरे कुर्ब के मिल जाते हैं
इन्ही लम्हों को मैं सदियों में बदलता देखूँ
(कुर्ब : निकटता )

जगजीत जी ने इसी बहर में पाकिस्तान के मशहूर शायर अहमद नदीम कासिमी का भी एक शेर गाया है जो कुछ यूँ है

दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता
मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ  😄            -


स्टेज शो में तब जगजीत बहुत कुछ मेहदी हसन वाली शैली अपनाते थे। यानी ग़ज़ल के अशआरों के बीच श्रोताओं को उनकी शास्त्रीय गायिको सुनने का लुत्फ मिल जाया करता था। जगजीत ने  इस ग़ज़ल में राग दुर्गा पर आधारित बंदिश का इस्तेमाल किया है।

जगजीत जी को ग़ज़लों के साथ कई नए तरह के वाद्य यंत्र जैसे वॉयलिन, पियानो, सरोद आदि इस्तेमाल करने का श्रेय दिया जाता है पर नब्बे के दशक के बाद उनके संगीत संयोजन में एक तरह का दोहराव आने लगा। अगर आप उस समय के एलबमों को सुनते हुए बड़े हुए हैं तो उनकी ये ग़ज़ल और उसका संगीत संयोजन आपको ग़ज़ल गायिकी की पारंपरिक शैली की ओर ले जाता मिलेगा। मुझे तो लुत्फ़ आ गया इसे सुन कर। आप भी सुनें।

बुधवार, मई 15, 2013

तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा : कौन हैं इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिकी ( Iftikhar Imam Siddiqui ) ?

फिल्म 'अर्थ' और उसका संवेदनशील संगीत तो याद  है ना आपको। बड़े मन से ये फिल्म बनाई थी महेश भट्ट ने। शबाना, स्मिता का अभिनय, जगजीत सिंह चित्रा सिंह की गाई यादगार ग़ज़लें और कैफ़ी आज़मी साहब की शायरी को भला कोई कैसे भूल सकता है। पर फिल्म अर्थ में शामिल एक ग़ज़ल के शायर का नाम शायद ही कभी फिल्म की चर्चा के साथ उठता है। ये शायर हैं इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिकी  ( Iftikhar Imam Siddiqui ) साहब जिनकी मन को विकल कर देने वाली ग़ज़ल तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा ..को चित्रा सिंह ने बड़ी खूबसूरती से निभाया था।


आगरा से ताल्लुक रखने वाले जाने माने शायर सीमाब अकबराबादी के पोते इफ़्तिख़ार इमाम को कविता करने का इल्म विरासत में ही मिल गया था। सीमाब अकबराबादी  ने उर्दू शायरी की पत्रिका 'शायर' (Shair) का प्रकाशन आगरा में 1930 से शुरु किया था।  सीमाब तो विभाजन के बाद पाकिस्तान यात्रा पर गए और वहीं लकवा मारे जानी की वज़ह से स्वदेश नहीं लौट पाए। सीमाब के पाकिस्तान जाने के बाद ये जिम्मेदारी इफ़्तिख़ार इमाम के पिता इज़ाज सिद्दिकी ने सँभाली और 1951 में अपने आगरा के पुश्तैनी मकान से बेदखल होने के बाद मुंबई आ गए। आज भी मध्य मुंबई के ग्रांट रोड के एक कमरे के मकान से इस पत्रिका को इफ्तिख़ार इमाम अपने भाइयों के सहयोग से बखूबी चलाते हैं। इस पत्रिका की खास बात ये है कि इसके पाठकों द्वारा भेजे गए सारे ख़तों को आज भी सुरक्षित रखा गया है

'शायर' ने कई नौजवान शायरों की आवाज़ को आम जन तक पहुँचाने का काम किया। इसमें निदा फ़ाजली जैसे मशहूर नाम भी थे। इमाम के पास आज भी वो चिट्ठियाँ मौज़ूद हैं जब निदा उनसे 'शायर' पत्रिका में अपनी कविताएँ छापने का आग्रह किया करते थे।

तो इससे पहले कि इफ्तिख़ार इमाम सिद्दिकी के बारे में कुछ और बाते हों उनके चंद खूबसूरत रूमानी अशआरों से रूबरू हो लिया जाए। देखिए तो किस तरह एक आशिक के असमंजस को यहाँ उभारा है उन्होंने..

मैं जानता हूँ वो रखता है चाहतें कितनी
मगर ये बात उसे किस तरह बताऊँ मैं

जो चुप रहा तो समझेगा बदगुमाँ मुझे
बुरा भला ही सही कुछ तो बोल आऊँ मैं

ज़िदगी में जब तब कोई ख़्वाहिश अपने पर फड़फड़ाने लगती है। मन की ये सारी इच्छाएँ जायज नहीं होती या यूँ कहूँ तो ज्यादा बेहतर होगा कि व्यक्ति की वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल नहीं होतीं । पर दिल तो वो सीमाएँ लाँघने के लिए कब से तैयार बैठा है बिना उनके अंजाम की परवाह किए। इसी बात को इफ्तिख़ार इमाम सिद्दिकी कितनी खूबसूरती से अपने शब्द देते हैं..

दिल कि मौसम के निखरने के लिए बेचैन है
जम गई है उनके होठों की घटा अपनी जगह

कर कभी तू मेरी ख़्वाहिशों का एहतराम
ख़्वाहिशों की भीड़ और उनकी सजा अपनी जगह


हम अपने लक्ष्य के पीछे  भागते हैं और वो हमारी बेसब्री पर मन ही मुस्कुराते हुए और ऊँचा हो जाता है। नतीजा वही होता है जो इफ्तिख़ार इमाम सिद्दिकी इस शेर में कह रहे हैं...

इक मुसलसल दौड़ में हैं मंजिलें और फासले
पाँव तो अपनी जगह हैं रास्ता अपनी जगह

इफ़्तिख़ार साहब जितना अच्छा लिखते हैं उतना ही वो उसे तरन्नुम में गाते भी हैं। ग़ज़ल गायिकी का उनका अंदाज़ इतना प्यारा है कि आप उनकी आवाज़ को बार बार सुनना पसंद करें। इस ग़ज़ल में उनके शब्द तो सहज है पर अपनी गायिकी से वो उसमें एक मीठा रस घोल देते हैं।

ग़म ही चाँदी है गम ही सोना है
गम नहीं तो क्या खुशी होगी

उस को सोचूँ उसी को चाहूँ मैं
मुझसे ऐसी ना बंदिगी होगी



इमाम साहब की ज़िंदगी ने तब दुखद मोड़ लिया जब वर्ष 2002 में चलती ट्रेन पर चढ़ने की कोशिश में वो गिर पड़े और उस दुर्घटना के बाद उमका कमर से नीचे का हिस्सा बेकार हो गया। आज उनकी ज़िंदगी व्हीलचेयर के सहारे ही घिसटती है, फिर भी वो इसी हालत में 'शायर' के संपादन में जुटे रहते हैं।

उनकी ये ग़ज़ल जिस कातरता से अपने प्रियतम के विछोह से पैदा हुई दिल की भावनाओं को बयाँ करती है वो आँखों को नम करने के लिए काफी है। फिल्म में इस ग़ज़ल का दूसरा शेर प्रयुक्त नहीं हुआ है।

तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा,
दूर तक तन्हाइयों का सिलसिला रह जाएगा

कीजिए क्या गुफ़्तगू, क्या उन से मिल कर सोचिए
दिल शिकस्ता ख़्वाहिशों का जायक़ा रह जाएगा

दर्द की सारी तहें और सारे गुज़रे हादसे
सब धुआँ हो जाएँगे इक वाक़या रह जाएगा

ये भी होगा वो मुझे दिल से भुला देगा मगर
यूँ भी होगा ख़ुद उसी में इक ख़ला रह जाएगा

दायरे इंकार के इकरार की सरग़ोशियाँ
ये अगर टूटे कभी तो फ़ासला रह जाएगा


(ख़ला : खालीपन,शून्य,  सरग़ोशियाँ : फुसफुसाहट)
तो आइए सुनते हैं इस ग़ज़ल को चित्रा जी की आवाज़ में...



इसी जज़्बे के साथ अपनी पत्रिका को वो अपना वक़्त देते रहें यही मेरी मनोकामना है। चलते चलते उनके ये अशआर आपकी नज़र करना चाहता हूँ

वो ख़्वाब था बिखर गया ख़याल था मिला नहीं
मगर ये दिल को क्या हुआ क्यूँ बुझ गया पता नहीं

हम अपने इस मिज़ाज में कहीं भी घर ना हो सके
किसी से हम मिले नहीं किसी से दिल मिला नहीं
 

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