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शनिवार, अक्टूबर 24, 2015

तुझसे होती भी तो क्या होती शिकायत मुझको..रूबरू होइए शबाना आज़मी की गायिकी से.! Shabana Azmi and songs of Anjuman

अस्सी के दशक में मुज़फ़्फ़र अली ने एक फिल्म बनाई थी अंज़ुमन। इससे पहले मुज़फ़्फ़र गमन, आगमन और उमराव जान जैसी फिल्में बना चुके थे। पर उमराव जान की सफलता से उलट लखनऊ के चिकन से काम से जुड़े कारीगरों की कहानी कहती ये फिल्म ठीक से प्रदर्शित भी नहीं हो पाई। फिर भी इस फिल्म का जिक्र इसके संगीत और गायिकी के लिए गाहे बाहे होता ही रहता है। 

ख़य्याम के संगीत निर्देशन में बनी इस फिल्म में पाँच नग्मे थे जिनमें दो तो युगल गीत थे। रोचक तथ्य ये है कि इस फिल्म के तीन एकल गीतों को मशहूर अदाकारा शबाना आज़मी ने अपनी आवाज़ दी थी। जैसा कि मुजफ्फर अली की अमूमन सभी फिल्मों में होता आया है, इस फिल्म के गीतों की की शब्द रचना जाने मने शायर शहरयार साहब ने की थी।

शबाना ने इस फिल्म तुझसे होती भी तो क्या.. के आलावा मैं राह कब से नई ज़िंदगी की तकती हूँ..हर इक क़दम पे हर इक मोड़ पे सँभलती हूँ...  और ऐसा नहीं कि इसको नहीं जानते हो तुम.आँखों में मेरी ख़्वाब की सूरत बसे हो तुम......  जैसी ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी थी। इसके आलावा भूपेंद्र के साथ उनका एक युगल गीत गुलाब ज़िस्म का भी रिकार्ड हुआ था। 



आजकल नायक व नायिकाओं की आवाज़ का इस्तेमाल निर्माता निर्देशक फिल्मों के प्रमोशन के लिए करते रहते हैं। पिछले कुछ सालों पर नज़र डालें तो आलिया भट्ट, श्रद्धा कपूर व प्रियंका चोपड़ा के साथ सलमान खाँ, संजय दत्त और अक्षय कुमार जैसे कलाकार माइक्रोफोन के पीछे अपनी आवाज़ आज़मा चुके हैं। इनमें प्रियंका और कुछ हद तक आलिया को छोड़ बाकियों की आवाज़ कामचलाऊ ही रही है जिन्हें मशीनों के माध्यम से श्रवणीय बना दिया गया है। पर नब्बे के दशक में रेडिओ के प्रायोजित कार्यक्रम के आलावा कहीं प्रमोशन की ज्यादा गुंजाइश ही नहीं हुआ करती थी और कला फिल्मों की तो वो भी नहीं। फिर भी ख़य्याम ने फिल्म की मुख्य गायिका के रूप में शबाना को ही  चुना।

शबाना जी से जब भी इस संबंध में सवाल किए गए हैं तो उन्होंने यही कहा है कि अपने पिता की ख़्वाहिश पूरी करने के लिए उन्होंने इन गीतों को गाने के लिए सहमति दी।  दरअसल कैफ़ी आज़मी अपनी बेटी को एक अभिनेत्री के आलावा एक गायिका के रूप में भी देखना चाहते थे। शबाना तो अपने आप को बाथरूम सिंगर भी मानने को तैयार नहीं होती पर ये नग्मे उनकी गायिकी के बारे में कुछ और ही कहानी कहते हैं।

भले ही उनकी आवाज़ किसी पार्श्व गायक सरीखी ना हो पर उसे नौसिखिये की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता। पहली बार सुनने पर मुझे तो उनकी आवाज़ में कुछ सलमा आगा और कुछ गीता दत्त का अक़्स आता दिखा। शबाना की गाई फिल्म की एकल ग़ज़लों में तुझसे होती भी तो क्या होती शिकायत मुझको .. सबसे ज्यादा पसंद हैं। शहरयार ने अपनी लेखनी से ग़ज़ल में जिस दर्द को व्यक्त किया है वो शबाना की आवाज़ में सहजता से उतरता दिखता है।

आप किसी को चाहते हैं भली भांति जानते हुए कि वो आपका हो नहीं सकता तो फिर शिकायत करने से क्या फ़ायदा ! हाँ जो पीड़ा आपको सहनी पड़ी वो ही तो ऐसे रिश्तों की दौलत है जिसे आप हृदय में सहेज के रख सकते हैं। इसीलिए ग़ज़ल के मतले में शहरयार कहते हैं..

तुझसे होती भी तो क्या होती शिकायत मुझको
तेरे मिलने से मिली दर्द की दौलत मुझको


ऐसी हालत में मन को समझाएँ भी तो कैसे? बस यही कह कर ना कि ज़िदगी में और भी मुकाम हैं मोहब्बत के सिवा। किसे पता शायद ही उन्हें ही पूरा करने के लिए किस्मत ये दिन दिखला रही हो..

जिन्दगी के भी कई कर्ज हैं बाकी मुझ पर
ये भी अच्छा है न रास आई मुहब्बत मुझको


पर उदासी की चादर ओढ़ कर ये जीवन तो जिया नहीं जा सकता ना। सो मुझे तुम्हारी यादों की बदलियों से बाहर निकलना होगा। क्या पता शायद इस ज़हान के किसी कोने में धूप की कोई किरण मेरा इंतज़ार कर रही हो? शायद वो दुनिया ही  मेरे ख़्वाबों की तामीर करे
तेरी यादों के घने साए से रुखसत चाहूँ
फिर बुलाती है कहीं धूप की शिद्दत मुझको 


सारी दुनिया मेरे ख्वाबों की तरह हो जाए
अब तो ले दे के यही एक है हसरत मुझको





तो कैसी लगी आपको शबाना की आवाज? इस फिल्म के बाकी गाने भी फुर्सत से जरूर सुनिएगा। आज़  के इस शोर  सराबे में जरूर सुकून के कुछ पल आप अपने करीब पाएँगे। वैसे चलते चलते ये बता दूँ कि हाल फिलहाल में शबाना आज़मी ने एक फिल्म चॉक और डस्टर के लिए अपनी आवाज़ रिकार्ड की है। गणित की शिक्षिका के  रूप में यहाँ वो  कुछ तुकबंदियों के सहारे  BODMAS के  गुर को समझाती नज़र आएँगी। 

सोमवार, जुलाई 27, 2015

जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने .. उमराव जान की वो भावपूर्ण ग़ज़ल Justuju jis ki thi usko to na paya humne..

पिछले हफ्ते आपसे ख़य्याम साहब और फिल्मी ग़ज़लों के उस छोटे परंतु स्वर्णिम दौर की बात हो रही थी जिसमें दो तीन सालों के बीच बाजार, उमराव जान और अर्थ जैसी फिल्में अपने अलहदा संगीत की वज़ह से जनमानस के हृदय में अमिट छाप छोड़ गयीं।

डिस्को संगीत और मार धाड़ वाली फिल्मों के उस दौर में जब मुजफ्फर अली ख़य्याम साहब के पास लखनऊ की मशहूर तवायफ़ उमराव जान की पटकथा सामने लाए तो उन्होंने इसे चुनौती की तरह लिया। मुजफ्फर अली ख़य्याम से पहले जयदेव को फिल्म के लिए बात कर चुके थे और संगीतकार जयदेव ने लता से फिल्म के गीत गवाने का निश्चय भी कर लिया था। पर होनी को तो कुछ और मंज़ूर था । पारिश्रमिक के लिए बात अटकी और फिल्म ख़य्याम की झोली में आ गिरी।


फिल्म की  कहानी के अनुरूप ग़ज़लों को लिखने के लिए एक ख़ालिस उर्दू  शायर की जरूरत थी। लिहाज़ा  उसके लिए शहरयार साहब चुन लिए गए। पर इन ग़ज़लों को गाने के लिए आशा जी को चुनना थोड़ा चौंकाने वाला जरूर था।  आशा जी उस दौर तक चुलबुले, शोख़ गीतों के लिए ही ज्यादा जानी जाती थीं। संज़ीदा गीतों को भी उन्होंने मिले मौकों में अच्छी तरह निभाया था पर ग़ज़ल के फ़न  में उनका कोई तजुर्बा नहीं था।

Khayyam with Asha Bhosle
ख़य्याम साहब से ये प्रश्न हमेशा से पूछा जाता रहा कि आख़िर उन्होंने लता जी की जगह आशा जी को क्यूँ चुना ? उनका कहना था कि उन्हें ये भय सता रहा था कि अगर उन्होंने इस फिल्म के लिए लता की आवाज़ का इस्तेमाल किया होता तो उनकी गायिकी की तुलना  पाकीज़ा में गाए उनके बेमिसाल मुज़रों से की जाने लगती जो वो नहीं चाहते थे । दूसरे उमराव जान के किरदार के लिए उन्हें आशा की आवाज़ ज्यादा मुफ़ीद लग रही थी। पर उनकी आवाज़ को तवायफ़ के किरदार की तरह प्रभावी बनाने के लिए उन्होंने उनके स्वाभाविक सुर से आधा सुर नीचे गवाया। आशा जी इस बदलाव से खुश तो नहीं थीं पर जब उन्होंने इसका नतीजा देखा तो वो समझ गयीं कि ख़य्याम की सोच बिल्कुल सही थी।

वैसे तो इस फिल्म में प्रयुक्त सभी ग़ज़लें मकबूल हुईं। पर जहाँ दिल चीज़ क्या है...,  ये क्या जगह है दोस्तों...., इन आँखो की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं.... का संगीत एक मुजरे के रूप में प्रस्तुत किया गया वहीं जुस्तज़ू जिसकी थी उसको तो ना पाया हमने.... का फिल्मांकन और संगीत एक खालिस ग़ज़ल का रखा गया। फिल्म देखते हुए तो मुझे इसके सारे नग्मे दिलअजीज़ लगते हैं पर कहानी के इतर दर्द में डूबी ये ग़ज़ल गाहे बगाहे ज़ेहन में आती रहती है।

अब  फिल्म की कहानी में इस ग़ज़ल की परिस्थिति को ज़रा याद कीजिए।  उमराव जान एक अच्छे घर से अगवा कर के कोठे पर बैठा दी गयीं। वहाँ नवाब साहब से मुलाकात हुई, प्रेम हुआ। नवाब नर्म दिल थे, मोहब्बत उन्हें भी थी पर अपनी माँ से बगावत करने की हिम्मत नहीं थी। शादी किसी और से कर ली और छोड़ दिया उमराव को उसके हाल पर तनहा। उमराव उन्हीं नवाब साहब के सामने इस ग़ज़ल के माध्यम से अपनी तनहा ज़िदगी की गिरहें खोलती हैं।

जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने

तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुए
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने 

शहरयार साहब की यूँ तो पूरी ग़ज़ल ही कमाल की है पर इसके ये दो शेर मुझे खास पसंद हैं। एक में उमराव कहती हैं ना तो मैंने तुम्हारी बेवफाई पर सवाल उठाए ना ही ख़ुद पश्चाताप की अग्नि में जली। बस इसी क़ायदे से अपनी मोहब्बत निभाती रही।

कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
ज़िन्दगी तुझ को तो बस ख़्वाब में देखा हमने 

तेरे वज़ूद में मैंने अपनी ज़िंदगी की झलक देखी थी। अब तो ये भी याद नहीं कि वो झलक कब आँखों से ओझल हो गई। अब तो लगता है  कि तेरा, मेरी ज़िदगी में आना बस एक ख़्वाब बनकर ही रह गया।
 
ऐ 'अदा' और सुनाए भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तनहा हमने

तो आइए सुनते हैं आशा जी को उनकी इस भावपूर्ण ग़ज़ल में


दरअसल फिल्म में शहरयार की शायरी का प्रयोग यूँ हुआ है कि कहानी उस में ख़ुद बा ख़ुद बयाँ हो जाती है। अब यहीं देखिए ना ग़ज़ल के पहले संवादों के बीच शहरयार की एक दूसरी ग़ज़ल के कुछ अशआर कितनी खूबसूरती से पिरोये गए हैं


तुझसे बिछुड़े है तो अब किससे मिलाती है हमें
जिन्दगी देखिये क्या रंग दिखाती है हमें 

गर्दिशे-वक़्त का कितना बड़ा अहसाँ है कि आज
ये ज़मी चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें

वैसे क्या आपको पता है कि जुस्तज़ू जिसकी थी ..शहरयार पहले ही लिख चुके थे। पर इस फिल्म के लिए अपने मतले को वही रखते हुए उन्होंने अपनी ग़ज़ल में थोड़ा रद्दोबदल कर उसे वे  इस रूप में ले आए। वैसे भी मक़ते में उमराव जान का तख़ल्लुस ''अदा'' लाने के लिए बदलाव जरूरी था। बहरहाल इस फिल्म के संगीत ने आम और खास सब से वाहवाहियाँ बटोरी। ख़य्याम को सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक के लिए फिल्मफेयर और राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। आशा जी को सर्वश्रेष्ठ गायिका का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और रही शहरयार की बात  तो वे इसके बाद जहाँ भी गए उनके साथ उमराव जान के गीतों के लेखक का तमगा साथ गया। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था
"मैं AIIMS में जाता हूँ तो वहाँ मुझे लाइन नहीं लगानी पड़ती़। डॉक्टर भी कार्ड देखे बिना बड़ी खुशी से मुआयना कर देता है। ट्रेन या हवाई जहाज में रिजर्वेशन का मसला हो या कोई और उमराव जान के गानों ने मेरी बड़ी मदद की है। मेरे बच्चों से अक़्सर ये सवाल किया जाता है कि आप उसी शहरयार के बच्चे हैं जिसने उमराव जान के गाने लिखे हैं?"

शनिवार, दिसंबर 19, 2009

दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे : शहरयार की एक दिलकश ग़ज़ल सुरेश वाडकर के स्वर में

पिछले एक हफ्ते से ब्लॉगों की दुनिया से दूर रहा। सोचा था कि जाने के पहले सुरेश वाडकर की ये सर्वप्रिय ग़ज़ल सिड्यूल कर आपके सुपुर्द करूँगा पर उसके लिए भी वक़्त नहीं मिला। ख़ैर अब अपनी यात्रा से लौट आया हूँ तो ये ग़ज़ल आपके सामने हैं। इसे लिखा था शहरयार यानि कुँवर अखलाक़ मोहम्मद खान साहब ने।

यूँ तो शहरयार ने चंद फिल्मों के लिए ही अपनी ग़ज़लें लिखी हैं पर वे ग़ज़लें हिन्दी फिल्म संगीत के लिए मील का पत्थर साबित हुई हैं। अब चाहे आप उमराव जान की बात करें या गमन की। ये बात गौर करने की है कि इन दोनों फिल्मों के निर्देशक मुजफ़्फर अली थे। दरअसल शहरयार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जब उर्दू विभाग में पढ़ाते थे तब मुजफ्फर भी वहीं के छात्र थे और शहरयार साहब के काव्य संग्रह से वो इतने प्रभावित हुए कि उनकी दो ग़ज़लों को उन्होंने फिल्म गमन में ले लिया।

उनकी शायरी को विस्तार से पढ़ने का मौका तो अभी तक नहीं मिला पर उनकी जितनी भी ग़ज़लें सुनी हैं उनकी भावनाओं से खुद को जोड़ने में कभी दिक्कत महसूस नहीं की। लेखक मोहनलाल, भारतीय साहित्य की इनसाइक्लोपीडिया (Encyclopedia of Indian Literature, Volume 5) में शहरयार साहब की शायरी के बारे में लिखते हैं

शहरयार ने अपनी शायरी में कभी भी संदेश देने या निष्कर्ष निकालने की परवाह नहीं की। वो तो आज के आदमी के मन में चल रहे द्वन्दों और अध्यात्मिक उलझनों को शब्दों में व्यक्त करते रहे। उनकी शायरी एक ऍसे आम आदमी की शायरी है जो बीत रहे समय और आने वाली मृत्यु जैसी जीवन की कड़वी सच्चाइयों के बीच झूलते रहने के बावज़ूद अपनी अभी की जिंदगी को खुल कर जीना चाहता है। शहरयार ऍसे ही व्यक्ति के ग़मों और खुशियों को अपने अशआरों में समेटते चलते हैं।

मेरी सोच यह है कि साहित्य को अपने दौर से अपने समाज से जुड़ा होना चाहिए, मैं साहित्य को मात्र मन की मौज नहीं मानता, मैं समझता हूँ जब तक दूसरे आदमी का दुख दर्द शामिल न हो तो वह आदमी क्यों पढ़ेगा आपकी रचना को। जाहिर है दुख दर्द ऐसे हैं कि वो कॉमन होते हैं। जैसे बेईमानी है, झूठ है, नाइंसाफी है, ये सब चीजें ऐसी हैं कि इनसे हर आदमी प्रभावित होता है। कुछ लोग कहते हैं कि अदब से कुछ नहीं होता है। मैं कहता हूँ कि अदब से कुछ न कुछ होता है।

अब १९७९ में प्रदर्शित गमन फिल्म की इसी ग़ज़ल पर गौर करें मुझे नहीं लगता कि हममें से ऍसा कोई होगा जिसने इन सवालातों को जिंदगी के सफ़र में कभी ना कभी अपने दिल से ना पूछा हो। मुझे यूँ तो इस ग़ज़ल के सारे अशआर पसंद हैं पर दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे.. वाला शेर सुनते ही मन खुद बा खुद इस गीत को गुनगुनाते हुए इसमें डूब जाता है।

दरअसल एक शायर की सफलता इसी बात में है कि वो अपने ज़रिए कितने अनजाने दिलों की बातें कह जाते हैं।

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है?
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है?

दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेज़ान सा क्यूँ है?

तन्हाई की ये कौन सी मंज़िल है रफ़ीक़ों
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है?

क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है?

ऊपर से जयदेव का कर्णप्रिय सुकून देने वाला संगीत जिसमें सितार , बाँसुरी और कई अन्य भारतीय वाद्य यंत्रों का प्रयोग मन को सोहता है। तो लीजिए सुनिए इस गीत को सुरेश वाडकर की आवाज़ में 


 

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