जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
महानगरीय ज़िदगी में एक अदद घर की तलाश कितनी मुश्किल, कितनी भयावह हो सकती है एक प्रेमी युगल के लिए, इसी विषय को लेकर सत्तर के दशक में एक फिल्म बनी थी घरौंदा। श्रीराम लागू, अमोल पालेकर और ज़रीना वहाब अभिनीत ये फिल्म अपने अलग से विषय के लिए काफी सराही भी गयी थी।
मुझे आज भी याद है कि हमारा पाँच सदस्यीय परिवार दो रिक्शों में लदकर पटना के उस वक़्त नए बने वैशाली सिनेमा हाल में ये फिल्म देखने गया था। फिल्म तो बेहतरीन थी ही इसके गाने भी कमाल के थे। दो दीवाने शहर में, एक अकेला इस शहर में, तुम्हें हो ना हो मुझको तो .. जैसे गीतों को बने हुए आज लगभग पाँच दशक होने को आए पर इनमें निहित भावनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक, उतनी ही अपनी लगती हैं।
जयदेव का अद्भुत संगीत गुलज़ार और नक़्श ल्यालपुरी की भावनाओं में डूबी गहरी शब्द रचना और भूपिंदर (जो भूपेंद्र के नाम से भी जाने जाते हैं) और रूना लैला की खनकती आवाज़ आज भी इस पूरे एलबम से बार बार गुजरने को मजबूर करती रहती हैं।
आज इसी फिल्म का एक गीत आपको सुना रहा हूँ जिसे ग़ज़लों की सालाना महफिल खज़ाना में मशहूर गायक पापोन ने पिछले महीने अपनी आवाज़ से सँवारा था।
फिल्म के इस गीत को लिखा था गुलज़ार साहब ने। गुलज़ार की लेखनी का वो स्वर्णिम काल था। सत्तर के दशकों में उनके लिखे गीतों से फूटती कविता एक अनूठी गहराई लिए होती थी। इसी गीत में एक अंतरे में नायक के अकेलेपेन और हताशा की मनःस्थिति को उन्होने कितने माकूल बिंबों में व्यक्त किया है। गुलज़ार लिखते हैं
दिन खाली खाली बर्तन है और रात है जैसे अंधा कुआँ इन सूनी अँधेरी आँखों में आँसू की जगह आता है धुआँ
अपना घर बार छोड़ कर जब कोई नए शहर में अपना ख़ुद का मुकाम बनाने की जद्दोजहद करता है तो अकेले में गुलज़ार की यही पंक्तियाँ उसे आज भी अपना दर्द साझा करती हुई प्रतीत होती हैं।
इन उम्र से लंबी सड़कों को मंज़िल पे पहुँचते देखा नहीं बस दौड़ती-फिरती रहती हैं हमने तो ठहरते देखा नहीं इस अजनबी से शहर में जाना-पहचाना ढूँढता है ढूँढता है, ढूँढता है
संगीतकार जयदेव ने भी कितने प्यारे इंटल्यूड्स रचे थे इस गीत में जो दौड़ती भागती मुंबई के बीच नायक की उदासी ओर एकाकीपन कर एहसास को और गहरा कर देते थे। आपने ध्यान दिया होगा कि मुखड़े के बाद सीटी का भी कितना सटीक इस्तेमाल जयदेव ने किया था। वायलिन व गिटार के अलावा अन्य तार वाद्य भी गीत का माहौल को आपसे दूर होने नहीं देते।
तो सुनिए पापोन की आवाज़ में गीत का यही अंतरा। इस महफिल में उनके साथ अनूप जलोटा और पंकज उधास तो हैं ही, साथ में कुछ नए चमकते सितारे जाजिम शर्मा, पृथ्वी गंधर्व व हिमानी कपूर जिन्होंने मूलतः ग़ज़लों के इस कार्यक्रम में अपनी गायिकी से श्रोताओं का मन मोहा था।
फिल्म घरौंदा में ये गीत अमोल पालेकर पर फिल्माया गया था। जो गीत ज़िंदगी की सच्चाइयों को हमारे सामने उजागर करते हैं, हमें अपने संघर्षों के दिन की याद दिलाते हैं उनकी प्रासंगिकता हर पीढ़ी के लिए उतनी ही होती है। गुलज़ार के लफ्जों में कहूँ तो ऐसे गीत कभी बूढ़े नहीं होते। उनके चेहरे पर कभी झुर्रियाँ नहीं पड़ती। एक अकेला इस शहर में एक ऐसा ही नग्मा है...
वैसे तो हर गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस के दिन शायद ही ऐ मेरे वतन के लोगों, मेरा रंग दे बसंती चोला, बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की, मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती जैसे लोकप्रिय गीत न बजते हों। पर कुछ गैर फिल्मी देशभक्ति गीत ऐसे भी हुए जो अपेक्षाकृत कम बजे पर उनके भाव और संगीत ने करोड़ों भारतवासियों के मन में अमिट छाप छोड़ी । आजादी की 75 वीं वर्षगांठ पर आपको अपनी पसंद का एक ऐसा ही देशभक्ति गीत आज सुनवा रहा हूँ ।
लता संगीतकार जयदेव के साथ
आपको याद होगा कि सन 62 में भारत चीन युद्ध के बाद ऐ मेरे वतन के लोगों गीत बना था और उसे भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अनुरोध पर लता जी ने सबके सामने गाया भी था। कहते हैं कि जब मंच से लता जी ने वो गीत गाया था तो पंडित नेहरू की आँखों में आँसू आ गए थे।
उसके बाद 1971 में जब बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए भारत और पाकिस्तान में युद्ध छेड़ा तो युद्ध के बाद देश के अमर शहीदों के नाम एक और प्यारा सा गीत लता जी ने गाया था। यह गैर फिल्मी गीत संगीतकार जयदेव ने संगीतबद्ध किया था और इसके बोल लिखे थे पंडित नरेंद्र शर्मा ने। क्या धुन बनाई थी जय देव साहब ने ! कमाल के बोल थे पंडित जी के और इस कठिन गीत को लता जी ने जिस तरह निभाया था शायद ही कोई और वैसा निभा सके।
लता पंडित नरेंद्र शर्मा को पिता के रूप में मानती थीं। जब भी वो किसी बात से परेशान होतीं तो वो पंडित जी के पास सलाह मांगने जाती थीं। वही संगीतकार जयदेव के लिए भी उनके मन में बहुत आदर था। नसरीन मुन्नी कबीर को दिए एक साक्षात्कार में लता जी ने बताया था कि
जयदेव वास्तव में जानते थे कि कौन से वाद्य यंत्र गाने में उपयोगी होंगे। वह कभी बहुतायत में वाद्य यंत्रों का उपयोग नहीं करते थे। वह बेहतरीन सरोद बजाते थे और ध्यान रखते थे कि गीत के बोल उत्कृष्ट रहें। जयदेव जी धाराप्रवाह उर्दू और हिंदी बोलते थे। उनका विश्वास था कि गीत के बोल के मायने होने चाहिए और महत्त्व भी।
शायद यही वज़ह थी कि जयदेव जी ने इस गीत के लिए पंडित नरेंद्र शर्मा जैसे मंजे हुए कवि को चुना। पंडित जी विविध भारती के जनक के रूप में मशहूर तो हैं ही, साथ ही वो अपनी लिखी हिंदी कविताओं के लिए भी जाने जाते थे। सत्यम शिवम सुंदरम, प्रेम रोग, सवेरा, भाभी की चूड़ियां जैसी फिल्मों के लिए उनके लिखे गीत आज भी उतने ही चाव से सुने जाते हैं।
लता जी पंडित नरेंद्र शर्मा के साथ
जयदेव ने हिंदी की कई छायावादी कविताएं संगीतबद्ध की हैं। उन कविताओं में आशा भोसले का गाया हुआ मैं हृदय की बात रे मन जिसे जयशंकर प्रसाद ने लिखा था और महादेवी वर्मा कृत कैसे तुमको पाऊं आली मुझे बेहद पसंद है।
ऐ मेरे वतन के लोगों की तुलना में इस गीत का मूड भिन्न था। जहां वह गीत युद्ध में हारने के बाद लिखा गया था वहीं ये गीत भारत की जीत के उपलक्ष्य में बनाया गया था। नरेंद्र जी ने यहां उन शहीदों को याद किया है जिनके बलिदान की वजह से भारत युद्ध में विजयी हुआ था और बांग्लादेश अपनी मुक्ति के पथ पर आगे बढ़ पाया था। इसीलिए नरेंद्र जी ने गीत में लिखा .. वो गए कि रह सके, स्वतंत्रता स्वदेश की....विश्व भर में मान्यता हो मुक्ति के संदेश की। लता जी ने इसे भी एक सार्वजनिक सभा में इंदिरा गांधी के की उपस्थिति में लोगों को सुनाया था।
आप जब भी इस गीत को सुनेंगे, जयदेव की सहज पर तबले और बाँसुरी से सजी मधुर धुन आपका चित्त शांत कर देगी। पंडित नरेंद्र शर्मा के शब्द जहाँ अपने वीर सैनिकों के पराक्रम की याद दिलाते हुए मन में गर्व का भाव भरते हैं, वहीं वे परम बलिदान से मिली विजय के उत्सव में उनकी अनुपस्थिति का जिक्र कर आपके मन को गीला भी कर जाते हैं। भावों के साथ जिस तरह गीत के उतार चढ़ाव को लता जी ने अपनी मीठी आवाज़ में समेटा है वो देशभक्ति गीतों की सूची में इस गीत को अव्वल दर्जे की श्रेणी में ला खड़ा करती है।
बारिश के मौसम को ध्यान में रखते हुए कुछ दिनों पहले मैंने लता जी का गाया फिल्म 'परख' का गीत सुनवाया था। बारिश का मौसम अभी थमा नहीं है। अब आज मेरे शहर का मौसम देखिए ना। बाहर ठंडी बयारें तो है ही और उनकी संगत में बारिश की रेशमी फुहार भी है। तो इस भीगी रात में भींगा भींगा सा रूमानियत से भरा इक नग्मा हो जाए।
आज का ये नग्मा मैंने चुना है फिल्म 'मुझे जीने दो' से जो सन 1963 में प्रदर्शित हुई थी। इसके संगीतकार थे जयदेव साहब। वैसे क्या आपको पता है कि जयदेव पहली बार पन्द्रह साल की उम्र में घर से भागकर मुंबई आए थे तो उनका सपना एक फिल्म अभिनेता बनने का था। यहाँ तक कि बतौर बाल कलाकार उन्होंने सात आठ फिल्में की भी। पर पिता के अचानक निधन ने उनके कैरियर की दिशा ही बदल दी। घर की जिम्मेवारियाँ सँभालने के लिए जयदेव लुधियाना आ गए। बहन की शादी करा लेने के बाद जयदेव ने चालिस के दशक में लखनऊ के उस्ताद अकबर अली से संगीत की शिक्षा ली। जयदेव ने पहले उनके लिए और बाद में एस डी बर्मन जैसे संगीतकार के सहायक का काम किया। जयदेव का दुर्भाग्य रहा कि उनके अनूठे संगीत निर्देशन के बावजूद उनकी बहुत सारी फिल्में जैसे रेशमा व शेरा, आलाप,गमन व अनकही नहीं चलीं। पर 'मुझे जीने दो' और 'हम दोनों' ने उन्हें व्यवसायिक सफलता का मुँह दिखलाया।
जयदेव शास्त्रीय संगीत के अच्छे जानकार थे। उनके रचित गीत अक्सर किसी ना किसी राग पर आधारित हुआ करते थे। 'मुझे जीने दो' का ये गीत 'राग धानी' पर आधारित है। वस्तुतः राग धानी, राग मालकोस से निकला हुआ राग है। शास्त्रीय संगीत के जानकार राग धानी को राग मालकोस का रूमानी , मिठास भरा रूप मानते हैं।
पर ये गीत अगर इतना मधुर व सुरीला बन पड़ा है तो उसमें जयदेव के संगीत से कहीं अधिक साहिर लुधियानवी के बोलों और लता जी की गायिकी का हाथ था। साहिर के बारे में ये कहा जाता था कि वो मानते थे कि गीत के लोकप्रिय होने में सबसे बड़ा हाथ गीतकार का होता है। इसी वज़ह से किसी भी फिल्म में काम करने के पहले उनकी शर्त होती थी कि उनका पारिश्रमिक संगीतकार से एक रुपया ज्यादा रहे।
वैसे साहिर की शायरी इसकी हक़दार भी थी। अब इसी गीत को लें । शब्दों के दोहराव का कितना खूबसूरत प्रयोग किया है साहिर ने गीत के हर अंतरे में। पहले अंतरे में साहिर लिखते हैं तुम आओ तो आँखें खोलें
सोई हुई पायल की छम छम
अब आप ही बताइए, एक मुज़रेवाली इससे बेहतर किन लफ़्जों से महफिल में आए अपने प्रशंसकों का दिल जीत सकती है? और गीत के तीसरा अंतरे में इस्तेमाल किए गए प्राकृतिक रूपकों को सुनकर तोदिल से बस वाह वाह ही निकलती है। ज़रा इन पंक्तियों पर गौर फ़रमाएँ
तपते दिल पर यूँ गिरती है तेरी नज़र से प्यार की शबनम जलते हुए जंगल पर जैसे बरखा बरसे रुक-रुक थम-थम
वैसे तो शोख और चंचल गीतों के लिए आशा ताई कई संगीतकारों की पहली पसंद हुआ करती थीं पर यहाँ लता जी ने भी अपनी गायिकी में गीत के हाव भावों को बड़ी खूबसूरती से पकड़ा है। मसलन जब लता होश में थोड़ी बेहोशी है..गाती हैं तो लगता है बस अब मूर्छित हो ही गयीं।
तो आइए सुनते हैं इस गीत को लता जी की सुरीली आवाज़ में
रात भी है कुछ भीगी-भीगी चाँद भी है कुछ मद्धम-मद्धम तुम आओ तो आँखें खोलें सोई हुई पायल की छम छम
किसको बताएँ कैसे बताएँ आज अजब है दिल का आलम चैन भी है कुछ हल्का हल्का दर्द भी है कुछ मद्धम मद्धम छम-छम, छम-छम, छम-छम, छम-छम
तपते दिल पर यूँ गिरती है तेरी नज़र से प्यार की शबनम जलते हुए जंगल पर जैसे बरखा बरसे रुक-रुक थम-थम छम-छम, छम-छम, छम-छम, छम-छम
होश में थोड़ी बेहोशी है
बेहोशी में होश है कम कम तुझको पाने की कोशिश में दोनों जहाँ से खो ही गए हम छम-छम, छम-छम, छम-छम, छम-छम
फिल्म में ये गीत फिल्माया गया था वहीदा जी और सुनील दत्त पर
पिछले एक हफ्ते से ब्लॉगों की दुनिया से दूर रहा। सोचा था कि जाने के पहले सुरेश वाडकर की ये सर्वप्रिय ग़ज़ल सिड्यूल कर आपके सुपुर्द करूँगा पर उसके लिए भी वक़्त नहीं मिला। ख़ैर अब अपनी यात्रा से लौट आया हूँ तो ये ग़ज़ल आपके सामने हैं। इसे लिखा था शहरयार यानि कुँवर अखलाक़ मोहम्मद खान साहब ने।
यूँ तो शहरयार ने चंद फिल्मों के लिए ही अपनी ग़ज़लें लिखी हैं पर वे ग़ज़लें हिन्दी फिल्म संगीत के लिए मील का पत्थर साबित हुई हैं। अब चाहे आप उमराव जान की बात करें या गमन की। ये बात गौर करने की है कि इन दोनों फिल्मों के निर्देशक मुजफ़्फर अली थे। दरअसल शहरयार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जब उर्दू विभाग में पढ़ाते थे तब मुजफ्फर भी वहीं के छात्र थे और शहरयार साहब के काव्य संग्रह से वो इतने प्रभावित हुए कि उनकी दो ग़ज़लों को उन्होंने फिल्म गमन में ले लिया।
उनकी शायरी को विस्तार से पढ़ने का मौका तो अभी तक नहीं मिला पर उनकी जितनी भी ग़ज़लें सुनी हैं उनकी भावनाओं से खुद को जोड़ने में कभी दिक्कत महसूस नहीं की। लेखक मोहनलाल, भारतीय साहित्य की इनसाइक्लोपीडिया (Encyclopedia of Indian Literature, Volume 5) में शहरयार साहब की शायरी के बारे में लिखते हैं
शहरयार ने अपनी शायरी में कभी भी संदेश देने या निष्कर्ष निकालने की परवाह नहीं की। वो तो आज के आदमी के मन में चल रहे द्वन्दों और अध्यात्मिक उलझनों को शब्दों में व्यक्त करते रहे। उनकी शायरी एक ऍसे आम आदमी की शायरी है जो बीत रहे समय और आने वाली मृत्यु जैसी जीवन की कड़वी सच्चाइयों के बीच झूलते रहने के बावज़ूद अपनी अभी की जिंदगी को खुल कर जीना चाहता है। शहरयार ऍसे ही व्यक्ति के ग़मों और खुशियों को अपने अशआरों में समेटते चलते हैं।
मेरी सोच यह है कि साहित्य को अपने दौर से अपने समाज से जुड़ा होना चाहिए, मैं साहित्य को मात्र मन की मौज नहीं मानता, मैं समझता हूँ जब तक दूसरे आदमी का दुख दर्द शामिल न हो तो वह आदमी क्यों पढ़ेगा आपकी रचना को। जाहिर है दुख दर्द ऐसे हैं कि वो कॉमन होते हैं। जैसे बेईमानी है, झूठ है, नाइंसाफी है, ये सब चीजें ऐसी हैं कि इनसे हर आदमी प्रभावित होता है। कुछ लोग कहते हैं कि अदब से कुछ नहीं होता है। मैं कहता हूँ कि अदब से कुछ न कुछ होता है।
अब १९७९ में प्रदर्शित गमन फिल्म की इसी ग़ज़ल पर गौर करें मुझे नहीं लगता कि हममें से ऍसा कोई होगा जिसने इन सवालातों को जिंदगी के सफ़र में कभी ना कभी अपने दिल से ना पूछा हो। मुझे यूँ तो इस ग़ज़ल के सारे अशआर पसंद हैं पर दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे.. वाला शेर सुनते ही मन खुद बा खुद इस गीत को गुनगुनाते हुए इसमें डूब जाता है।
दरअसल एक शायर की सफलता इसी बात में है कि वो अपने ज़रिए कितने अनजाने दिलों की बातें कह जाते हैं।
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है? इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है?
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेज़ान सा क्यूँ है?
तन्हाई की ये कौन सी मंज़िल है रफ़ीक़ों ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है?
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है?
ऊपर से जयदेव का कर्णप्रिय सुकून देने वाला संगीत जिसमें सितार , बाँसुरी और कई अन्य भारतीय वाद्य यंत्रों का प्रयोग मन को सोहता है। तो लीजिए सुनिए इस गीत को सुरेश वाडकर की आवाज़ में
हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक युग ‘छायावाद’ के नाम से जाना जाता है, जिसके चार बड़े महारथी थे - प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवी। सातवीं से लेकर दसवीं तक मैं इन छायावादी कवियों की कविताओं से बिल्कुल घबरा जाया करता था। शिक्षक चाहे कितना भी समझा लें, इन कवियों की लिखी पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या करने और भावार्थ लिखने में हमारे पसीने छूट जाते थे। जयशंकर प्रसाद की पहली कविता जो ध्यान में आती है वो थी बीती विभावरी जाग री.... जो कुछ यूँ शुरु होती थी
बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा घट ऊषा नागरी।
शिक्षक बड़े मनोयोग से रात्रि के बीत जाने और सुबह होने पर नायिका के जागने के आग्रह को तमाम रूपकों से विश्लेषित करते हुए समझाते, पर मन ये मानने को तैयार ना होता कि सामान्य सी बात रात के जाने और प्रातः काल की बेला के आने के लिए इतना कुछ घुमा फिरा कर लिखने की जरूरत है। वैसे भी घर पर सुबह ना उठ पाने के लिए पिताजी की रोज़ की उलाहना सुनने के बाद कवि के विचारों से मन का कहाँ साम्य स्थापित हो पाता ? वक़्त बीता, समझ बदली। और आज जब इस कविता को किसी के मुख से सुनता हूँ तो खुद मन गुनगुना उठता है
खग कुल-कुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई, मधु मुकुल नवल रस गागरी।
अधरों में राग अमंद पिये, अलकों में मलयज बंद किये
तू अब तक सोई है आली, आँखों में भरे विहाग री।
बीती विभावरी जाग री!
ऍसी मोहक पंक्तियाँ लिखने वाले जयशंकर प्रसाद जी की पृष्ठभूमि क्या रही ये जानने को आपका मन भी उत्सुक होगा। जयशंकर जी के काव्य संकलन पर एक किताब साहित्य अकादमी ने छापी थी। उसके प्राक्कथन में विख्यात साहित्य समीक्षक विष्णु प्रभाकर जी ने लिखा है
"..........जयशंकर जी का जन्म मात शुल्क दशमी संवत् 1946 (सन् 1889) के दिन काशी के एक सम्पन्न और यशस्वी घराने में हुआ था। जब पिता का देहावसान हुआ, उस समय प्रसाद की अवस्था केवल ग्यारह वर्ष की थी। कुछ ही वर्षों के भीतर बड़े भाई भी परलोक सिधार गये और सोलह वर्षीय कवि पर समस्याओं का पहाड़ आ टूटा। आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह जर्जर हो चुकी एक संस्कारी कुल परिवार के लुप्त गौरव के पुनरुद्धार की चुनौती तो मुँह बाये सामने खड़ी ही थी, जिस परिवार पर अन्तहीन मुक़दमेबाज़ी, भारी क़र्ज़ का बोझ, स्वार्थी और अकारणद्रोही स्वजन, तथाकथित शुभचिन्तकों की खोखली सहानुभूति का व्यंग्य...सबकुछ विपरीत ही विपरीत था। कोई और होता तो अपनी सारी प्रतिभा को लेकर इस बोझ के नीचे चकनाचूर हो गया होता। किंतु इस प्रतिकूल परिस्थिति से जूझते हुए प्रसाद जी ने न केवल कुछ वर्षों के भीतर अपने कुटुम्ब की आर्थिक अवस्था सृदृढ़ कर ली, बल्कि अपनी बौद्धिक-मानसिक सम्पत्ति को भी इस वात्याचक्र से अक्षत उबार लिया।
स्वयम् जयशंकर जी ने लिखा है
ये मानसिक विप्लव प्रभो, जो हो रहे दिन रात हैं कुविचार कुरों के कठिन कैसे कुटिल आघात हैं हे नाथ मेरे सारथी बन जाव मानस-युद्ध में फिर तो ठहरने से बचेंगे एक भी न विरुद्ध में।
यही हुआ भी। जिस गहरे मनोविज्ञान यथार्थवाद की नींव पर प्रसाद के जीवन कृतित्व की पूरी इमारत खड़ी है, वह उनकी व्यक्तिगत जीवनी की भी बुनियाद है। घर-परिवार व्यवस्थित कर लेने के बाद हमारे कवि ने अपने अन्तर्जीवन की व्यवस्था भी उतनी ही दृढ़ता से सम्हाली और अपनी रचनात्मक प्रतिभा के निरन्तर और अचूक विकास क्रम से उन्होंने साहित्य जगत को विस्मय में डाल दिया।
धीरे-धीरे, लगभग नामालूम ढंग से उनकी रचनाएँ साहित्य जगत में गहरे भिदती गईं और क्या कविता, क्या कहानी, क्या नाटक, क्या-चिंतन हर क्षेत्र में खमीर की तरह रूपान्तरित सिद्ध होती चली गई। किसी ने उनके बारे में लिखा है कि प्रसाद का जो आन्तरित व्यक्तित्व था, वह लीलापुरुष कृष्ण के दर्शन से प्रेरणा पाता था, और उनका जो सामाजिक व्यक्तित्व था, वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम को अपना आदर्श मानता था। निश्चित ही प्रसाद जी के काव्य के पीछे जो जीवन और व्यक्तित्व है, उसमें धैर्य और निस्संगता की विपुल क्षमता रही होनी चाहिए।
प्रसाद का वैशिष्ट्य करुणा और आनन्द के अतिरिक्त जिन दो तत्वों से प्रेरित है, वे है उनका इतिहास-बोध और आत्म-बोध। पहली दृष्टि में परस्पर विरोधी लगते हुए भी ये दोनों चीज़ें उनके कृतित्व में इतने अविच्छेद्य रूप में जुड़ी हुई हैं कि लगता है, दोनों का विकास दो लगातार पास आती हुई और अंत में एक बिन्दु पर मिल जाने वाली रेखाओं की तरह हुआ। यह बिन्दु निश्चय ही ‘कामायनी’ है।............"
उसी 'कामायनी' से लिए गए इस अंश को आशा जी ने बेहद सुरीले अंदाज़ में गाया है। संगीत जयदेव का है। ये गीत आशा जयदेव के एलबम An Unforgettable Treat से लिया गया है जो सारेगामा पर उपलब्ध है। इसी एलबम में महादेवी जी का लिखा कैसे उनको पाऊँ आली भी है ।
मेरे ख्याल से किसी हिंदी कवि की कविता को इतने अद्भुत रूप में कभी स्वरबद्ध नहीं किया गया है। बस लगता यही है कि प्रसाद के शब्दों में आशा जयदेव की जोड़ी ने प्राण फूँक दिए हों। आशा है आप को भी इस मधुर गीत को सुनने में उतना ही आनंद आएगा जितना मुझे आता रहा है...
तुमुल कोलाहल कलह में
मैं ह्रदय की बात रे मन
विकल होकर नित्य चंचल,
खोजती जब नींद के पल,
चेतना थक-सी रही तब,
मैं मलय की बात रे मन
चिर-विषाद-विलीन मन की,
इस व्यथा के तिमिर-वन की
मैं उषा-सी ज्योति-रेखा,
कुसुम-विकसित प्रात रे मन
जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,
चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन-घाटियों की,
मैं सरस बरसात रे मन
पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जी रहा झुक,
इस झुलसते विश्व-दिन की
मैं कुसुम-ॠतु-रात रे मन
चिर निराशा नीरधर से,
प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,
मधुप-मुखर मरंद-मुकुलित,
मैं सजल जलजात रे मन"
बात सत्तर के दशक के उत्तरार्ध की है जब गर्मी की तपती दुपहरी में हमारा परिवार दो रिक्शों में सवार होकर पटना के 'वैशाली सिनेमा हाल' मे अमोल पालेकर और जरीना बहाव की फिल्म 'घरौंदा' देखने गया था। सभी को फिल्म बहुत पसंद आई थी। भला कौन सा मध्यमवर्गीय परिवार एक बड़े मकान का सपना नहीं देखता । इसलिए जब फिल्म में इन सपनों को बनते बनते टूटता दिखाया गया तो वो ठेस कलाकारों के माध्यम से सहज ही हम दर्शकों के दिल में उतर ही गई थी। उस वक्त जो गीत सिनेमा हाल के बाहर तक हमारे साथ आया वो था दो दीवाने शहर में...रात को और दोपहर में इक आबोदाना ढूंढते हैं.. गायक ने 'आबोदाना' की जगह मकान क्यों नहीं कहा, ये प्रश्न बहुत दिनों तक बालमन को मथता रहा था। अब आबोदाना यानी भोजन पानी का रहस्य तो बहुत बाद में जाकर उदघाटित हुआ।
दिन बीतते गए और जब कॉलेज के समय गीत सुनने की नई-नई लत लगी तो कैसेट्स की नियमित खरीददारी शुरु हुई। पहली बार तभी ध्यान गया कि अरे इस घरौंदा के कुछ गीत तो गुलज़ार ने लिखे हैं और ये भी पता चला कि १९७७ में दो दीवाने शहर में.... के लिए गुलज़ार फिल्मफेयर एवार्ड से सम्मानित हुए थे। सारे गीत बार बार सुने गए और इस बार जो गीत दिल में बैठ सा गया वो रूना लैला जी का गाया ये गीत था। पर इस गीत यानी 'तुम्हें हो ना हो....' को नक़्श लायलपुरी (Naqsh Lyallpuri) ने लिखा था। क्या कमाल के लफ़्ज दिये थे नक़्श साहब ने।
दिल और दिमाग की कशमकश को बिल्कुल सीधे बोलों से मन में उतार दिया था उन्होंने.. ....अब दिमाग अपने अहम का शिकार होकर लाख मना करता रहे कि वो प्रेम से कोसों दूर है पर बेचैन दिल की हरकतें खुद बा खुद गवाही दे जाती हैं।
इस गीत को संगीतबद्ध किया था जयदेव ने। गौर करें की इस गीत में धुन के रूप में सीटी का कितना सुंदर इस्तेमाल हुआ है। इस गीत की भावनाएँ, गीत में आते ठहरावों और फिर अनायास बढती तीव्रता से और मुखर हो कर सामने आती है। जहाँ ठहराव दिल में आते प्रश्नों को रेखांकित करते हैं वहीं गति दिल में प्रेम के उमड़ते प्रवाह का प्रतीक बन जाती है। इस गीत को फिल्म में एक बार पूरे और दूसरी बार आंशिक रूप में इस्तेमाल किया गया है। तो पहले सुनिए पूरा गीत
तुम्हें हो ना हो, मुझको तो, इतना यकीं है
मुझे प्यार, तुम से, नहीं है, नहीं है
मुझे प्यार, तुम से, नहीं है, नहीं है
मगर मैंने ये राज अब तक ना जाना
कि क्यूँ, प्यारी लगती हैं, बातें तुम्हारीं
मैं क्यूँ तुमसे मिलने का ढूँढू बहाना
कभी मैंने चाहा, तुम्हे् छू के देखूँ
कभी मैंने चाहा तुम्हें पास लाना
मगर फिर भी...
मगर फिर भी इस बात का तो यकीं है.
मुझे प्यार, तुम से, नहीं है, नहीं है
फिर भी जो तुम.. दूर.. रहते हो.. मुझसे
तो रहते हैं दिल पे उदासी के साये
कोई, ख्वाब ऊँचे, मकानों से झांके
कोई ख्वाब बैठा रहे सर झुकाए
कभी दिल की राहों.. में फैले अँधेरा..
कभी दूर तक रोशनी मुस्कुराए
मगर फिर भी...
मगर फिर भी इस बात का तो यकीं है.
मुझे प्यार तुम से नहीं है, नहीं है
तुम्हें हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है
मुझे प्यार तुम से नहीं है, नहीं है
तुम्हें हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है
जैसा मैंने पिछली पोस्ट में भी कहा कि रूना लैला का हिंदी फिल्मों में गाया ये मेरा सबसे प्रिय गीत है। रूना जी की आवाज गीत के उतार चढ़ाव को बड़ी खूबसूरती से प्रकट करती चलती है। जब नायक सपनों के टूटने से उपजी खीज से मोदी को सफलता (कहानी का एक पात्र) की सीढ़ी बनाने की बात करता है तो नायिका को लगने लगता है कि मैंने सच,ऍसे शख्स से प्रेम नहीं किया था और गीत के दूसरे रूप में यहीं भावना उभरती है। रूना जी की आवाज की गहराई यहाँ आँखों को नम कर देती है..
उत्तरी कारो नदी में पदयात्रा Torpa , Jharkhand
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कारो और कोयल ये दो प्यारी नदियां कभी सघन वनों तो कभी कृषि योग्य पठारी
इलाकों के बीच से बहती हुई दक्षिणी झारखंड को सींचती हैं। बरसात में उफनती ये
नदियां...
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