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रविवार, अगस्त 21, 2022

जो समर में हो गए अमर मैं उनकी याद में Jo Samar Mein Ho Gaye Amar

वैसे तो हर गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस के दिन शायद ही ऐ मेरे वतन के लोगों, मेरा रंग दे बसंती चोला, बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की, मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती जैसे लोकप्रिय गीत न बजते हों। पर कुछ गैर फिल्मी देशभक्ति गीत ऐसे भी हुए जो अपेक्षाकृत कम बजे पर उनके भाव और संगीत ने करोड़ों भारतवासियों के मन में अमिट छाप छोड़ी । आजादी की 75 वीं वर्षगांठ पर आपको अपनी पसंद का एक ऐसा ही देशभक्ति गीत आज सुनवा रहा हूँ । 

लता संगीतकार जयदेव के साथ 

आपको याद होगा कि  सन 62 में भारत चीन युद्ध के बाद ऐ मेरे वतन के लोगों गीत बना था और उसे भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अनुरोध पर लता जी ने सबके सामने गाया भी था। कहते हैं कि जब मंच से लता जी ने वो गीत गाया था तो पंडित नेहरू की आँखों में आँसू आ गए थे।

उसके बाद 1971 में जब बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए भारत और पाकिस्तान में युद्ध छेड़ा तो युद्ध के बाद देश के अमर शहीदों के नाम  एक और प्यारा सा गीत लता जी ने गाया था। यह गैर फिल्मी गीत संगीतकार जयदेव ने संगीतबद्ध किया था और इसके बोल लिखे थे पंडित नरेंद्र शर्मा ने। क्या धुन बनाई थी जय देव साहब ने ! कमाल के बोल थे पंडित जी के और इस कठिन गीत को लता जी ने जिस तरह निभाया था शायद ही कोई और वैसा निभा सके। 

लता पंडित नरेंद्र शर्मा को पिता के रूप में  मानती थीं। जब भी वो किसी बात से परेशान होतीं तो वो पंडित जी के पास सलाह मांगने जाती थीं। वही संगीतकार जयदेव के लिए भी उनके मन में बहुत आदर था। नसरीन मुन्नी कबीर को दिए एक साक्षात्कार में लता जी ने बताया था कि
जयदेव वास्तव में जानते थे कि कौन से वाद्य यंत्र गाने में उपयोगी होंगे। वह कभी बहुतायत में वाद्य यंत्रों का उपयोग नहीं करते थे। वह बेहतरीन सरोद बजाते थे और ध्यान रखते थे कि गीत के बोल उत्कृष्ट रहें। जयदेव जी धाराप्रवाह उर्दू और हिंदी बोलते थे। उनका विश्वास था कि गीत के बोल के मायने होने चाहिए और महत्त्व भी।
शायद यही वज़ह थी कि जयदेव जी ने इस गीत के लिए पंडित नरेंद्र शर्मा जैसे मंजे हुए कवि को चुना। पंडित जी विविध भारती के जनक के रूप में मशहूर तो हैं ही, साथ ही वो अपनी लिखी हिंदी कविताओं के लिए भी जाने जाते थे। सत्यम शिवम सुंदरम, प्रेम रोग, सवेरा, भाभी की चूड़ियां जैसी फिल्मों के लिए उनके लिखे गीत आज भी उतने ही चाव से सुने जाते हैं।

लता जी  पंडित नरेंद्र शर्मा के साथ 

जयदेव ने हिंदी की कई छायावादी कविताएं संगीतबद्ध की हैं। उन कविताओं में आशा भोसले का गाया हुआ मैं हृदय की बात रे मन जिसे जयशंकर प्रसाद ने लिखा था और महादेवी वर्मा कृत कैसे तुमको पाऊं आली मुझे बेहद पसंद है।

ऐ मेरे वतन के लोगों की तुलना में इस गीत का मूड भिन्न था। जहां वह गीत युद्ध में हारने के बाद लिखा गया था वहीं ये गीत भारत की जीत के उपलक्ष्य में बनाया गया था। नरेंद्र जी ने यहां उन शहीदों को याद किया है जिनके बलिदान की वजह से भारत युद्ध में विजयी हुआ था और बांग्लादेश अपनी मुक्ति के पथ पर आगे बढ़ पाया था। इसीलिए नरेंद्र जी ने गीत में लिखा .. वो गए कि रह सके, स्वतंत्रता स्वदेश की....विश्व भर में मान्यता हो मुक्ति के संदेश की। लता जी ने इसे भी एक सार्वजनिक सभा में इंदिरा गांधी के की उपस्थिति में लोगों को सुनाया था।

आप जब भी इस गीत को सुनेंगे, जयदेव की सहज पर तबले और बाँसुरी से सजी मधुर धुन आपका चित्त शांत कर देगी। पंडित नरेंद्र शर्मा के शब्द जहाँ अपने वीर सैनिकों के पराक्रम की याद दिलाते हुए मन में गर्व का भाव भरते हैं, वहीं वे परम बलिदान से मिली विजय के उत्सव में उनकी अनुपस्थिति का जिक्र कर आपके मन को गीला भी कर जाते हैं। भावों के साथ जिस तरह गीत के उतार चढ़ाव को लता जी ने अपनी मीठी आवाज़ में समेटा है वो देशभक्ति गीतों की सूची में इस गीत को अव्वल दर्जे की श्रेणी में ला खड़ा करती है।

जो समर में हो गए अमर, मैं उनकी याद में 
गा रही हूँ आज श्रद्धागीत, धन्यवाद में 
जो समर में हो गए अमर... 

लौट कर ना आएंगे विजय दिलाने वाले वीर 
मेरे गीत अंजुलि  में उनके लिये नयन-नीर 

संग फूल-पान के 
रंग हैं निशान के 
शूर-वीर आन के 
जो समर में हो गए अमर...

विजय के फूल खिल रहें हैं, फूल अध-खिले झरे 
उनके खून से हमारे खेत-बाग-बन हरे 

ध्रुव  हैं क्रांति-गान के 
सूर्य  नव-विहान के 
शूर-वीर आन के 
जो समर में हो गए अमर...

वो गए कि रह सके, स्वतंत्रता स्वदेश की 
विश्व भर में मान्यता हो मुक्ति के संदेश की 

प्राण देश-प्राण के 
मूर्ति स्वाभिमान के 
शूर-वीर आन के 
जो समर में हो गए अमर, मैं उनकी याद में 
गा रही हूँ आज श्रृद्धागीत, धन्यवाद में


तो कैसा लगा आपको ये देशभक्ति गीत?

शनिवार, जून 27, 2020

ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी.. जब मिले सुर लता और जगजीत के

कलाकार कितनी भी बड़ा क्यूँ ना हो जाए फिर भी जिसकी कला को देखते हुए वो पला बढ़ा है उसके साथ काम करने की चाहत हमेशा दिल में रहती है। सत्तर के दशक में जब जगजीत बतौर ग़ज़ल गायक अपनी पहचान बनाने में लगे थे तो उनके मन में भी एक ख़्वाब पल रहा था और वो ख़्वाब था सुर कोकिला लता जी के साथ गाने का।



जगजीत करीब पन्द्रह सालों तक अपनी इस हसरत को मन में ही दबाए रहे। अस्सी के दशक के आख़िर में 1988 में अपने मित्र और मशहूर संगीतकार मदनमोहन के सुपुत्र संजीव कोहली से उन्होंने गुजारिश की कि वो लता जी से मिलें और उन्हें एक ग़ज़लों के एलबम के लिए राजी करें। लता जी मदनमोहन को बेहद मानती थीं इसलिए जगजीत जी ने सोचा होगा कि वो शायद संजीव के अनुरोध को ना टाल पाएँ।

पर वास्तव में ऐसा हुआ नहीं। जगजीत सिंह की जीवनी से जुड़ी किताब बात निकलेगी तो फिर में सत्या सरन ने लिखा इस प्रसंग का जिक्र करते हुए लिखा है कि
लता ने कोई रुचि नहीं दिखाई, उन्होंने ये पूछा कि उनको जगजीत सिंह के साथ गैर फिल्मी गीत क्यों गाने चाहिए? हालांकि बतौर गायक वो जगजीत सिंह को पसंद करती थीं। इसके आलावा वे उन संगीतकारों के लिए ही गाना चाहती थीं जिनके साथ उनकी अच्छी बनती हो।
लता जी को मनाने में ही दो साल लग गए। एक बार जब इन दो महान कलाकारों का मिलना जुलना शुरु हुआ तो आपस में राब्ता बनते देर ना लगी। लता जी ने जब जगजीत की बनाई रचनाएँ सुनीं तो प्रभावित हुए बिना ना रह सकीं। जगजीत ने भी उन्हें बताया की ये धुनें उन्होंने सिर्फ लता जी के लिए सँभाल के रखी हैं। दोनों का चुटकुला प्रेम इस बंधन को मजबूती देने में एक अहम कड़ी साबित हुआ। संगीत की सिटिंग्स में बकायदा आधे घंटे अलग से इन चुटकुलों के लिए रखे जाने लगे। लता जी की गिरती तबियत, संजीव की अनुपलब्धता की वज़ह से ग़ज़लों की रिकार्डिंग खूब खिंची पर जगजीत जी ने अपना धैर्य बनाए रखा और फिर सजदा आख़िरकार 1991 में सोलह ग़ज़लों के डबल कैसेट एल्बम के रूप में सामने आया जो कि मेरे संग्रह में आज भी वैसे ही रखा है।

मुझे अच्छी तरह याद है कि तब सबसे ज्यादा प्रमोशन जगजीत व लता के युगल स्वरों में गाई निदा फ़ाज़ली की ग़ज़ल हर तरह हर जगह बेशुमार आदमी..फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी को मिला था। भागती दौड़ती जिंदगी को निदा ने चंद शेरों में बड़ी खूबसूरती से क़ैद किया था। खासकर ये अशआर तो मुझे बेहद पसंद आए थे

रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी

ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी

यूँ तो इस एलबम में मेरी आधा दर्जन ग़ज़लें बेहद ही पसंदीदा है पर चूंकि आज बात लता और जगजीत की युगल गायिकी की हो रही है तो मैं आपको इसी एलबम की एक दूसरी ग़ज़ल ग़म का खज़ाना सुनवाने जा रहा हूँ जिसे नागपुर के शायर शाहिद कबीर ने लिखा था। शाहिद साहब दिल्ली में केंद्र सरकार के मुलाज़िम थे और वहीं अली सरदार जाफरी और नरेश कुमार शाद जैसे शायरों के सम्पर्क में आकर कविता लिखने के लिए प्रेरित हुए। चारों ओर , मिट्टी के मकान और पहचान उनके प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह हैं। जगजीत के आलावा तमाम गायकों ने उनकी ग़ज़लें गायीं पर मुझे सबसे ज्यादा आनंद उनकी ग़ज़ल ठुकराओ या तो प्यार करो मैं नशे में हूँ  गुनगुनाने में आता है। 😊

जहाँ तक ग़म का खज़ाना का सवाल है ये बिल्कुल सहज सी ग़ज़ल है। दो दिल मिलते हैं, बिछुड़ते हैं और जब फिर मिलते हैं तो उन साथ बिताए दिनों की याद में खो जाते हैं और बस इन्हीं भावनाओं को स्वर देते हुए शायर ने ये ग़ज़ल लिख दी है। इस ग़ज़ल की धुन इतनी प्यारी है कि सुनते ही मज़ा आ जाता है। तो आप भी सुनिए पहले लता और जगजीत की आवाज़ में..

ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी
ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी
ये नज़राना तेरा भी है, मेरा भी
अपने ग़म को गीत बनाकर गा लेना
अपने ग़म को गीत बनाकर गा लेना
राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी
राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी
ग़म का खज़ाना ....

तू मुझको और मैं तुमको, समझाऊँ क्या
तू मुझको और मैं तुमको समझाऊँ क्या
दिल दीवाना तेरा भी है, मेरा भी
दिल दीवाना तेरा भी है, मेरा भी
ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी

शहर में गलियों, गलियों जिसका चर्चा है
शहर में गलियों, गलियों जिसका चर्चा है
वो अफ़साना तेरा भी है, मेरा भी

मैखाने की बात ना कर, वाइज़ मुझसे
मैखाने की बात ना कर, वाइज़ मुझसे
आना जाना तेरा भी है, मेरा भी
ग़म का खज़ाना तेरा भी है....

यूँ तो जगजीत और लता जी की आवाज़ को उसी अंदाज़ में लोगों तक पहुँचा पाना दुसाध्य कार्य है पर उनकी इस ग़ज़ल को हाल ही में उभरती हुई युवा गायिका प्रतिभा सिंह बघेल और मोहम्मद अली खाँ ने बखूबी निभाया।  हालांकि गीत के बोलों को गाते हुए बोल की छोटी मोटी भूलें हुई हैं उनसे। लाइव कन्सर्ट्स में ऐसी ग़ज़लों को सुनने का आनंद इसलिए भी बढ़ जाता है क्यूँकि मंच पर बैठे साजिंद भी अपने खूबसूरत टुकड़ों को मिसरों के बीच बड़ी खूबसूरती से सजा कर पेश करते हैं। अब यहीं देखिए मंच की बाँयी ओर वॉयलिन पर दीपक पंडित हैं  जो जगजीत जी के साथ जाने कितने कार्यक्रमों में उनकी टीम का हिस्सा रहे। वहीं दाहिनी ओर आज के दौर के जाने पहचाने बाँसुरी वादक पारस नाथ हैं जिनकी बाँसुरी टीवी पर संगीत कार्यक्रमों से लेकर फिल्मों मे भी सुनाई देती है।

 

सजदा का जिक्र अभी खत्म नहीं हुआ है। अगले आलेख बात करेंगे इसी एल्बम की एक और ग़ज़ल के बारे में और जानेंगे कि चित्रा जी को कैसी लगी थी लता जी की गायिकी ?

रविवार, जून 30, 2019

ओ घटा साँवरी, थोड़ी-थोड़ी बावरी O Ghata Sanwari

बरसात की फुहारें रुक रुक कर ही सही मेरे शहर को भिंगो रही हैं। पिछले कुछ दिनों से दिन चढ़ते ही गहरे काले बादल आसमान को घेर लेते हैं। गर्जन तर्जन भी खूब करते हैं। बरसते हैं तो लगता है कि कहर बरपा ही के छोड़ेंगे पर फिर अचानक ही उनका नामालूम कहाँ से कॉल आ जाता है और वे चुपके से खिसक लेते हैं। गनीमत ये है कि वो ठंडी हवाओं को छोड़ जाते हैं जिनके झोंको का सुखद स्पर्श मन को खुशनुमा कर देता है।

ऍसे ही खुशनुमा मौसम में टहलते हुए परसों 1970 की फिल्म अभिनेत्री का ये गीत कानों से टकराया और बारिश से तरंगित नायिका के चंचल मन की आपबीती का ये सुरीला किस्सा सुन मन आनंद से भर उठा। क्या गीत लिखा था मजरूह ने! भला बताइए तो क्या आप विश्वास करेंगे कि एक कम्युनिस्ट विचारधारा वाला शायर जो अपनी इंकलाबी रचनाओ की वज़ह से साल भर जेल की हवा खा चुका हो इतने रूमानी गीत भी लिख सकता है? पर ये भी तो सच है ना कि हर व्यक्ति की शख्सियत के कई पहलू होते हैं।


मजरूह के बोलों को संगीत से सजाया था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की जोड़ी ने। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल कभी भी मेरे पसंदीदा संगीतकार नहीं रहे। इसकी एक बड़ी वजह थी अस्सी और नब्बे के दशक में उनका संगीत जो औसत दर्जे का होने के बावजूद भी कम प्रतिस्पर्धा के चलते लोकप्रिय होता रहा था। फिल्म संगीत की गुणवत्ता में निरंतर ह्रास के उस दौर में उनके इलू इलू से लेकर चोली के पीछे तक सुन सुन के हमारी पीढ़ी बड़ी हुई थी। लक्ष्मी प्यारे के संगीत की मेरे मन में कुछ ऐसी छवि बन गयी थी कि मैंने उनके साठ व सत्तर के दशक में संगीतबद्ध गीतों पर कम ही ध्यान दिया। बाद में मुझे इन दशकों में उनके बनाए हुए कई नायाब गीत सुनने को मिले जो मेरे मन में उनकी छवि को कुछ हद तक बदल पाने में सफल रहे।

लक्ष्मीकांत बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखते थे। जीवकोपार्जन के लिए उन्होंने संगीत सीखा। मेंडोलिन अच्छा बजा लेते थे। एक कार्यक्रम में उनकी स्थिति के बारे में लता जी को बताया गया। फिर लता जी के ही कहने पर उन्हें कुछ संगीतकारों के यहाँ काम मिलने लगा। इसी क्रम में उनकी मुलाकात प्यारेलाल से हुई जिन्हें वॉयलिन में महारत हासिल थी। कुछ दिनों तक दोनों ने साथ साथ कई जगह वादक का काम किया और फिर उनकी जोड़ी बन गयी जो उनकी पहली ही फिल्म पारसमणि में जो चमकी कि फिर चमकती ही चली गयी़। कहते हैं कि उस ज़माने में उनकी कड़की का ये हाल था कि उनके गीत कितने हिट हुए ये जानने के लिए वे गली के नुक्कड़ पर पान दुकानों पर बजते बिनाका गीत माला के गीतों पर कान लगा कर रखते थे।

लक्ष्मी प्यारे को अगर आरंभिक सफलता मिली तो उसमें उनकी मधुर धुनों के साथ लता जी की आवाज़ का भी जबरदस्त हाथ रहा। ऐसा शायद ही होता था कि लता उनकी फिल्मों में गाने के लिए कभी ना कर दें। फिल्म जगत को ये बात पता थी और ये उनका कैरियर ज़माने में सहायक रही।

ओ घटा साँवरी, थोड़ी-थोड़ी बावरी
हो गयी है बरसात क्या
हर साँस है बहकी हुई
अबकी बरस है ये बात क्या
हर बात है बहकी हुई
अबकी बरस है ये बात क्या
ओ घटा साँवरी...

पा के अकेली मुझे, मेरा आँचल मेरे साथ उलझे
छू ले अचानक कोई, लट में ऐसे मेरा हाथ उलझे
क्यूँ रे बादल तूने.. ए ..ए.. ए.. आह उई ! तूने छुआ मेरा हाथ क्या
ओ घटा साँवरी...

आवाज़ थी कल यही, फिर भी ऐसे लहकती ना देखी
पग में थी पायल मगर, फिर भी ऐसे छनकती ना देखी
चंचल हो गये घुँघरू रू.. मे..रे..,  घुँघरू मेरे रातों-रात क्या
ओ घटा साँवरी...

मस्ती से बोझल पवन, जैसे छाया कोई मन पे डोले
बरखा की हर बूँद पर, थरथरी सी मेरे तन पे डोले
पागल मौसम जारे जा जाजा जा.. जा तू लगा मेरे साथ क्या!
ओ घटा साँवरी...

तो लौटें आज के इस चुहल भरे सुरीले गीत पर। लक्ष्मी प्यारे ने इस गीत की धुन राग कलावती पर आधारित की थी। बारिश के आते ही नायिका का तन मन कैसे एक मीठी अगन से सराबोर हो जाता है मजरूह ने इसी भाव को इस गीत में बेहद प्यारे तरीके से विस्तार दिया है। लक्ष्मी प्यारे ने लता जी से हर अंतरे की आखिरी पंक्ति में शब्दों के दोहराव से जो प्रभाव उत्पन्न किया है वो लता जी की आवाज़ में और मादक हो उठा है। तो चलिए हाथ भर के फासले पर मँडराते बादल और मस्त पवन के झोंको के बीच सुनें लता जी की लहकती आवाज़ और छनकती पायल को ...


जितना प्यारा ये गीत है उतना ही बेसिरपैर का इसका फिल्मांकन है। हेमा मालिनी पर फिल्माए इस गीत की शुरुआत तो बारिश से होती है पर गीत खत्म होते होते ऐसा लगता है कि योग की कक्षा से लौटे हों। बहरहाल एक रोचक तथ्य ये भी है कि इस फिल्म के प्रीमियर पर धरम पा जी ने पहली बार अपनी चंगी कुड़ी हेमा को देखा था।

एक शाम मेरे नाम पर मानसूनी गीतों की बहार  

बुधवार, अप्रैल 17, 2019

क्या कमाल थी ताजमहल में रोशन और साहिर की जुगलबंदी ! : जुर्म-ए-उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं ...

संगीतकार रोशन और गीतकार साहिर लुधयानवी ने यूँ तो कई फिल्मों में साथ साथ काम किया पर 1963 में प्रदर्शित ताजमहल उनके साझा सांगीतिक सफ़र का अनमोल सितारा थी। दोनों को उस साल ताजमहल के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। रोशन को सबसे अच्छे फिल्म संगीत के लिए और साहिर को जो वादा किया है निभाना पड़ेगा गीत लिखने के लिए। बतौर संगीतकार यूँ तो रोशन की गीत, ग़ज़ल और कव्वाली रचने में माहिरी थी पर उनमें आत्मविश्वास की बेहद कमी थी इसलिए अपने गीतों की असफलता का डर उन्हें हमेशा सताता था। वो अक्सर अपने संगीतोबद्ध गीतों पर दूसरों की राय से बहुत प्रभावित हो जाया करते थे। ऐसी मनोस्थिति में फिल्मफेयर का ये पहला पुरस्कार उनके लिए कितना मायने रखता होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।



ताजमहल में जो गीत सबसे मकबूल हुआ वो था जो वादा किया है निभाना पड़ेगा। मेरी नज़र में गीत के बोलों के ख्याल से साहिर का सबसे अच्छा काम जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं में था पर फिल्मफेयर हमेशा से गुणवत्ता से ज्यादा लोकप्रियता पर विश्वास करता आया है इसलिए इस गीत को कोई पुरस्कार तब नहीं मिला। अपनी प्रेयसी के किन खूबसूरत पहलुओं को उसकी तस्वीर उभार नहीं पाती इसे साहिर ने कितने प्यार से गूँथा था गीत के इन अंतरों में।  

रंगों में तेरा अक्स ढाला, तू ना ढल सकी
साँसों की आँच, जिस्म की खुशबू ना ढल सकी
तुझ में जो लोच है, मेरी तहरीर में नहीं


बेजान हुस्न में कहाँ, रफ़्तार की अदा
इन्कार की अदा है ना इकरार की अदा
कोई लचक भी जुल्फ-ए-गिरहगीर में नहीं

जो बात तुझमें है, तेरी तस्वीर में नहीं


गीतों में ऐसी कविता आजकल भूले भटके ही मिलती है। ऐसी पंक्तियाँ कोई साहिर जैसा शायर ही लिख सकता था जिसने प्रेम को बेहद करीब से महसूस किया हो। रफ़ी साहब ने इसे गाया भी बड़ी मुलायमियत से था।


रोशन ने मैहर के अताउल्लाह खान से जो सारंगी सीखी थी उसका अपने गीतों में उन्होंने बारहा प्रयोग किया। इस गीत में भी तबले के साथ सारंगी की मोहक  तान को आप जगह जगह सुन सकते हैं।

इसी फिल्म का  सवाल जवाब वाले अंदाज़ में रचा एक युगल गीत भी तब काफी लोकप्रिय हुआ था। साहिर की कलम यहाँ भी क्या खूब चली थी..  दो मचलते प्रेमियों की मीठी तकरार कितनी सहजता से उभरी थी उनकी लेखनी  में ..

पाँव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी 
दिल की बेचैन उमंगों पे करम फ़रमाओ 
इतना रुक रुक के चलोगी तो क़यामत होगी 

शर्म रोके है इधरशौक़ उधर खींचे है 
क्या खबर थी कभी इस दिल की ये हालत होगी



वैसे तो हिंदी फिल्म संगीतकारों में मदनमोहन को फिल्मी ग़ज़लों का बेताज बादशाह माना गया है पर अगर संगीतकार रोशन द्वारा संगीतबद्ध ग़ज़लों को आँका जाए तो लगेगा कि उनकी ग़ज़लों और नज़्मों को वो सम्मान नहीं मिला जिनकी वे हक़दार थीं। लता मंगेशकर मदनमोहन की तरह रोशन की भी प्रिय गायिका थीं। रोशन ने उनकी आवाज़ में दुनिया करे सवाल तो, दिल जो ना कह सका, रहते थे कभी जिनके दिल में जैसी प्यारी ग़ज़लें रचीं। सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में उनके द्वारा संगीतबद्ध नज़्म शराबी शराबी ये सावन का मौसम भी मुझे बेहद प्रिय है।


ताजमहल के लिए भी उन्होंने साहिर से एक ग़ज़ल लिखवाई जुर्म ए उल्फत पे हमें लोग सज़ा देते हैं। बिल्कुल नाममात्र के संगीत पर भी इस ग़ज़ल की धुन का कमाल ऐसा है कि दशकों बाद भी इसका मुखड़ा हमेशा होठों पर आ जाया करता है। साहिर की शायरी का तिलिस्म लता की आवाज़ में क्या खूब निखरा है। राग अल्हैया बिलावल पर आधारित इस धुन में मुझे बस एक कमी यही लगती है कि अशआरों के बीच संगीत के माध्यम से कोई अंतराल नहीं रखा गया।


जुर्म--उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं 
कैसे नादान हैंशोलों को हवा देते हैं 

हम से दीवाने कहीं तर्क-ए-वफ़ा करते हैं 
जान जाये कि  रहे, बात निभा देते हैं 

आप दौलत के तराज़ू में दिलों को तौलें 
हम मोहब्बत से मोहब्बत का सिला देते हैं 


तख़्त क्या चीज़ है और लाल--जवाहर क्या है 
इश्क़ वाले तो खुदाई भी लुटा देते हैं 

हमने दिल दे भी दिया अहद---वफ़ा ले भी लिया 
आप अब शौक़ से  दे दें, जो सज़ा देते हैं 


(उल्फ़त : प्रेम ,  तर्क-ए-वफ़ा : बेवफ़ाई,  सिला :प्रतिकार,  लाल--जवाहर : माणिक, अहद---वफ़ा :वफ़ा का वादा )


ग़ज़ल लता के मधुर से आलाप से शुरु होती है। आलाप खत्म होते ही आती है सारंगी की आहट। फिर तो साहिर के शब्द और लता की मधुर आवाज़ के साथ इश्क का जुनूनी रूप बड़े रूमानी अंदाज़ में ग़ज़ल का हर शेर उभारता चला जाता है। रोशन की धुन में उदासी है जिसे आप इस गीत को गुनगुनाते हुए महसूस कर सकते हैं। तो आइए सुनते हैं लता की आवाज़ में ये ग़ज़ल

रविवार, सितंबर 02, 2018

अटल बिहारी बाजपेयी : क्या खोया, क्या पाया जग में... Kya Khoya Kya Paya Jag Mein

स्कूल के ज़माने से जब भी मुझसे पूछा जाता कि तुम्हारे सबसे प्रिय राजनेता कौन हैं तो हमेशा मेरा उत्तर अटल बिहारी बाजपेयी होता था। शायद उस वक़्त मेरी जितनी भी समझ थी वो मुझे यही कहती थी कि एक नेता को दूरदर्शी, मेहनती, कुशल वक्ता और लोगों से सहजता से घुलने वाला हँसमुख इंसान होना चाहिए। मोरारजी, इंदिरा, चरण सिंह, आडवाणी, नरसिम्हा राव, चंद्रशेखर जैसों की भीड़ में मुझे ये गुण सिर्फ अटल जी में ही नज़र आते थे।

मुझे लगता है कि अगर नब्बे के दशक की शुरुआत से बहुमत के साथ प्रधानमंत्री पद की जिम्मेवारी मिली होती तो उनके नेतृत्व में देश एक सही दिशा और दशा में अग्रसर होता। ख़ैर वो हो न सका और अपनी पहली पारी में कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में काम करने के बाद भी वो अपनी दूसरी पारी में पराजित हो गए। फिर तो ढलते स्वास्थ ने उन्हें राजनीतिक परिदृश्य से बाहर ही कर दिया और पिछले महीने वो इस लोक से ही विदा ले गए।

अटल जी एक राजनीतिज्ञ तो थे ही, विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरह ही उनके मन में एक कवि हृदय बसता था। प्रकृति से उनके प्रेम का आलम ये था कि प्रधानमंत्री के कार्य का दायित्व निर्वाह करते हुए भी वो साल में एक बार मनाली की यात्रा करना नहीं भूलते थे।
1977 की बात है जब इमंरजेसी के बाद हुए चुनाव में मोरारजी भाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। अटल जी उस ज़माने में देश के विदेश मंत्री थे। उन्हीं दिनों का एक रोचक प्रसंग है जो मैंने और शायद आपने भी कई बार पढ़ा हो। जब जब मैं ये किस्सा पढ़ता हूँ तो चेहरे पर मुस्कान के साथ बतौर इंसान अटल जी के प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ जाती है इसलिए इस पत्राचार को आज अपने ब्लॉग पर सँजो लिया है।

अटल जी ने तब एक कविता लिखी थी और अपने मातहत के जरिये उन्होंने उसे साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपने के लिए उसके तात्कालिक संपादक मनोहर श्याम जोशी को भेजा। जब बहुत दिनों तक जोशी जी की ओर से कोई जवाब नहीं आया तो अटल जी से रहा नहीं गया और उन्होंने एक कुंडली के माध्यम से बड़े मोहक अंदाज़ में जोशी जी से अपनी शिकायत दर्ज करवाई।
"प्रिय संपादक जी, जयराम जी की…समाचार यह है कि कुछ दिन पहले मैंने एक अदद गीत आपकी सेवा में रवाना किया था। पता नहीं आपको मिला या नहीं...नीका लगे तो छाप लें नहीं तो रद्दी की टोकरी में फेंक दें। इस सम्बंध में एक कुंडली लिखी है..
कैदी कवि लटके हुए, संपादक की मौज,
कविता 'हिंदुस्तान' में, मन है कांजी हौज,
मन है कांजी हौज, सब्र की सीमा टूटी,
तीखी हुई छपास, करे क्या टूटी-फूटी,
कह क़ैदी कविराय, कठिन कविता कर पाना,
लेकिन उससे कठिन, कहीं कविता छपवाना!"
मनोहर श्याम जोशी भी एक जाने माने लेखक व पत्रकार थे। बाजपेयी जी ने कविता के माध्यम से शिकायत की थी तो वो भला क्यूँ पीछे रहते। उन्होंने भी जवाब में एक कविता लिख मारी जिसका मजमूँ कुछ यूँ था।
"आदरणीय अटलजी महाराज,
आपकी शिकायती चिट्ठी मिली, इससे पहले कोई एक सज्जन टाइप की हुई एक कविता दस्ती दे गए थे कि अटलजी की है। न कोई खत, न कहीं दस्तखत...आपके पत्र से स्थिति स्पष्ट हुई और संबद्ध कविता पृष्ठ 15 पर प्रकाशित हुई। आपने एक कुंडली कही तो हमारा भी कवित्व जागा -  
कह जोशी कविराय नो जी अटल बिहारी,
बिना पत्र के कविवर,कविता मिली तिहारी,
कविता मिली तिहारी साइन किंतु न पाया,
हमें लगा चमचा कोई,ख़ुद ही लिख लाया,
कविता छपे आपकी यह तो बड़ा सरल है,
टाले से कब टले, नाम जब स्वयं अटल है।"
अटल जी की कविताओं को सबसे पहले जगजीत सिंह ने अपने एलबम संवेदना में जगह दी थी। इस एलबम में अटल जी की कविताओं का प्राक्कथन अमिताभ बच्चन की आवाज़ में था। बाद में लता मंगेशकर जी ने भी अटल जी की कविताओं को अपना स्वर दिया। मुझे जगजीत जी से ज्यादा लता की आवाज़ में अटल जी की कविताओं को सुनना पसंद है। तो आइए आज आपको सुनाएँ लता जी की आवाज़ में उनकी कविता क्या खोया क्या पाया जग में..

क्या खोया, क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!

पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!

जन्म-मरण का अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
कौन जानता किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!


संवाद की जो गरिमा अटल जी की खासियत थी वो आज के माहौल में छिन्न भिन्न हो चुकी है। अटल जी को सच्ची श्रद्धांजलि तो यही होगी कि नेता उनकी तरह व्यक्तिगत आक्षेप लगाए बिना वाकपटुता और हास्य के पुट के साथ बहस करना सीख सकें।
सदन और उसके बाहर दिए गए उनके भाषण, उनके व्यक्तित्व का चुटीलापन और उनकी ओजपूर्ण वाणी में पढ़ी उनकी कविताएँ व्यक्तिगत रूप से हमेशा मेरी स्मृतियों का हिस्सा रहेंगी..शायद आपकी भी रहें। चलते चलते उनके इस जज्बे को सलाम..

मैं जी भर कर जिया, मैं मन से मरूँ
लौटकर आऊँगा कूच से क्यूँ डरूँ

रविवार, जून 10, 2018

आ अब लौट चलें … कैसे गूँजा शंकर जयकिशन का शानदार आर्केस्ट्रा? Aa Ab Laut Chalein

पुराने हिंदी फिल्मी गीतों में अगर आर्केस्ट्रा का किसी संगीतकार ने सबसे बढ़िया इस्तेमाल किया तो वो थे शंकर जयकिशन। हालांकि उनके समकालीनों में सलिल चौधरी और बाद के वर्षों में पंचम ने भी इस दृष्टि से अपने संगीत में एक अलग छाप छोड़ी। पर जिस वृहद स्तर पर शंकर जयकिशन की जोड़ी वादकों की फौज को अपने गानों के लिए इक्ठठा करती थी और जो मधुर स्वरलहरी उससे उत्पन्न होती थी उसकी मिसाल किसी अन्य हिंदी फिल्म संगीतकार के साथ मिल पाना मुश्किल है। शंकर जयकिशन का आर्केस्ट्रा ना केवल गीतों में रंग भरता था पर साथ ही इस तरह फिल्म के कथानक के साथ रच बस जाता था कि आप फिल्माए गए दृश्य से संगीत को अलग ही नहीं कर सकते थे।

मिसाल के तौर पर फिल्म  "जिस देश में गंगा बहती है" के इस सदाबहार गीत आ अब अब लौट चलें को याद कीजिए। 1960 में बनी इस फिल्म का विषय चंबल के बीहड़ों में उत्पात मचा रहे डाकुओं को समाज की मुख्यधारा में वापस लौटाने का था। इस फिल्म के निर्माता थे राज कपूर साहब। राजकपूर की फिल्म थी तो शंकर जयकिशन की जोड़ी के साथ शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, मुकेश और लता जैसे कलाकारों का जुड़ना स्वाभाविक था। कुछ ही दिनों पहले सोशल मीडिया पर शैलेंद्र के पुत्र दिनेश शंकर शैलेंद्र ने इस फिल्म से जुड़ी एक रोचक घटना सब के साथ बाँटी थी। दिनेश शंकर शैलेंद्र के अनुसार
"राजकपूर ने फिल्म की पटकथा बताने के लिए शंकर, जयकिशन, हसरत और मुकेश को आर के स्टूडियो के अपने काटेज में बुलाया था। राजकपूर ने  फिल्म की कहानी जब सुनानी खत्म की तो कमरे में सन्नाटा छा गया। अचानक शंकर ने चाय का कप टेबल पर दे मारा और गाली देते हुए उस ठंडे, धुँए भरे कमरे से बाहर निकल गए। सारे लोग उनके इस व्यवहार पर चकित थे। फिर राजकपूर ने शैलेंद्र से कहा कि जरा देखो जा के आख़िर पहलवान* को क्या हो गया? कहानी पसंद नहीं आई? शैलेन्द्र शंकर के पास गए और उनसे पूछा कि मामला क्या है? शंकर ने गालियों की एक और बौछार निकाली और फिर कहा कि डाकुओं की फिल्म में भला संगीत का क्या काम है? बना लें बिन गानों की फिल्म, हमें यहाँ क्यूँ बुलाया है? शैलेंद्र ने उन्हें समझाया कि इस फिल्म में भी गाने होंगे। सब लोग वापस आए और कहानी के हिसाब से गीतों के सही स्थान पर विचार विमर्श हुआ और अंततः फिल्म के लिए नौ गाने बने।" 

(*संगीतकार बनने से पहले शंकर तबला बजाने के साथ साथ पहलवानी का हुनर भी रखते थे 😊।)



तो बात शुरु हुई थी शंकर जयकिशन की आर्केस्ट्रा पर माहिरी से। आ अब लौट चलें के लिए शंकर जयकिशन ने सौ के करीब वायलिन वादकों को जमा किया था। साथ में कोरस अलग से। हालत ये थी कि तारादेव स्टूडियो जहाँ इस गीत की रिकार्डिंग होनी थी में इतनी जगह नहीं बची थी कि सारे वादकों को अंदर बैठाया जा सके। लिहाजा कुछ को बाहर फुटपाथ पर बैठाना पड़ा था। कहा जाता है कि इस गीत कि रिहर्सल डेढ़ दिन लगातार चली और इसीलिए परिणाम भी जबरदस्त आया।

आर्केस्ट्रा में बजते संगीत को ध्यान में रखते हुए निर्देशक राधू कर्माकर ने गीत की रचना की थी। ये गीत फिल्म को अपने अंत पर ले जाता है जब फिल्म का मुख्य किरदार डाकुओं को आत्मसमर्पण करवाने के लिए तैयार करवा लेता है। गीत में एक ओर तो डाकुओं का गिरोह अपने आश्रितों के साथ लौटता दिख रहा है तो दूसरी ओर पुलिस की सशंकित टुकड़ी हथियार से लैस होकर डाकुओं के समूह को घेरने के लिए कदमताल कर रही है। निर्देशक ने पुलिस की इस कदमताल को वायलिन और ब्रास सेक्शन के संगीत में ऐसा पिरोया है कि दर्शक संगीत के साथ उस दृश्य से बँध जाते हैं। संगीत का उतर चढाव भी ऐसा जो दिल की धड़कनों के  साथ दृश्य की नाटकीयता को बढ़ा दे। वायलिन आधारित द्रुत गति की धुन और साथ में लहर की तरह उभरते कोरस को अंतरे के पहले तब विराम मिलता है जब हाथों से तारों को एक साथ छेड़ने से प्रक्रिया से शंकर जयकिशन हल्की मधुर ध्वनि निकालते हैं। इस प्रक्रिया को संगीत की भाषा में Pizzicato कहते हैं। इस गीत में Pizzicato का प्रभाव आप वीडियो के 39 से 45 सेकेंड के बीच में सुन सकते हैं।

गिटार की धुन के साथ गीत गीत आगे बढ़ता है।  मुकेश तो खैर राजकपूर की शानदार आवाज़ थे ही, अंतरों के बीच कोरस के साथ लता का ऊँचे सुरों तक जाता लंबा आलाप गीत का मास्टर स्ट्रोक था। इस गीत में लता जी की कोई और पंक्ति नहीं है पर ये आलाप इतनी खूबसूरती से निभाया गया है कि पूरे गीत के फिल्मांकन में जान फूँक देता है। गीतकार शैलेंद्र की खासियत थी कि वो बड़ी सहजता के साथ ऐसे बोल लिख जाते थे जो सीधे श्रोताओं के दिल को छू लेते थी। गलत राह पे चलने से नुकसान की बात हो या समाज द्वारा इन भटके मुसाफ़िरों को पुनः स्वीकार करने की बात, अपने सीधे सच्चे शब्दों से शैलेंद्र ने गीत में एक आत्मीयता सी भर दी है। उनका दूसरे अंतरे में बस इतना कहना कि अपना घर तो अपना घर है आज भी घर से दूर पड़े लोगों की आँखों की कोरें गीला कर देगा।


आ अब लौट चलें, आ अब लौट चलें
नैन बिछाए बाँहें पसारे तुझको पुकारे देश तेरा
आ जा रे – आ आ आ

सहज है सीधी राह पे चलना
देख के उलझन बच के निकलना
कोई ये चाहे माने न माने
बहुत है मुश्किल गिर के संभलना
आ अब लौट चलें …

आँख हमारी मंज़िल पर है
दिल में ख़ुशी की मस्त लहर है
लाख लुभाएँ महल पराए
अपना घर फिर अपना घर है
आ अब लौट चलें …

इतना मधुर संगीत संयोजन करने के बाद भी ये गीत उस साल के फिल्मफेयर अवॉर्ड के लिए नामांकित नहीं हुआ। इसके संगीत संयोजन के बारे में शंकर जयकिशन पर आरोप लगा कि उनकी धुन उस समय रिलीज़ हुए इटालवी गीत Ciao Ciao Bambina से मिलती है। अगर आप वो गीत इटालवी में सुनें तो शायद ही आप इस साम्यता को पकड़ पाएँ। पर अलग से उस धुन सुनने के बाद तुझको पुकारे देश मेरा वाली पंक्ति गीत की धुन से मिलती दिखती है। पर इस हल्की सी प्रेरणा को नज़रअंदाज करें तो जिस तरह गीत को शंकर जयकिशन ने कोरस और लता के आलाप के साथ आगे बढ़ाया है वो उनके हुनर और रचनात्मकता को दर्शाता है।



शंकर जयकिशन कुछ शानदार गीतों की फेरहिस्त इस ब्लॉग पर आप यहाँ देख सकते हैं

बुधवार, मई 23, 2018

इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा : जब मोत्सार्ट का रंग चढ़ा सलिल चौधरी पर Itna na mujhse tu pyar badha

सलिल चौधरी के गीतों के बारे में लिखते हुए पहले भी मैं आपको बता चुका हूँ कि कैसे उनका बचपन अपने डाक्टर पिता के साथ रहते हुए असम के चाय बागान में बीता। पिता संगीत के रसिया थे। उनके एक आयरिश मित्र थे जो वहाँ से जाते समय अपना सारा पश्चिमी शास्त्रीय संगीत का खजाना सलिल दा के पिता को दे गए थे।  उनके संग्रह से ही सलिल को मोत्सार्ट, शोपिन, बीथोवन जैसे पश्चिमी संगीतकारों की कृतियाँ हाथ लगी थीं।

सलिल के गीतों की खास बात ये थी कि उनकी मधुरता लोक संगीत और भारतीय रागों से बहकर निकलती थी पर जो मुखड़े या इंटरल्यूड्स में वाद्य यंत्रों का संयोजन होता था वो पश्चिमी संगीत से प्रभावित रहता था । उन्होंने अपने कई गीतों में मोत्सार्ट (Mozart)) से लेकर शोपिन (Chopin) की धुन से प्रेरणा ली। आज के संगीतकार भी कई बार ऐसा करते हैं पर अपने आप को किसी धुन से प्रेरित होने की बात स्वीकारने में झिझकते हैं। आज के इस इंटरनेट युग में सलिल दा को अपने इस मोत्सार्ट प्रेम पर कुछ मुश्किल सवालों के जवाब जरूर देने पड़ते पर सलिल दा ने अपने संगीत में मोत्सार्ट के प्रभाव को कभी नहीं नकारा। वो तो अपने आप को फिर से पैदा हुआ मोत्सार्ट ही कहते थे।

आज उनके ऐसे ही एक गीत की बात आप को बताना चाहता हूँ जिसे लिखा था राजेंद्र कृष्ण ने। ये युगल गीत था फिल्म छाया से जो वर्ष 1961 में प्रदर्शित हुई थी। गीत के बोल थे इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा..सलिल दा ने इस गीत के मुखड़े की धुन मोत्सार्ट सिम्फोनी 40 G Minor 550 से हूबहू इस्तेमाल की थी। खुद मोत्सार्ट ने इस सिम्फोनी को वर्ष 1788 में विकसित किया था। मोत्सार्ट की इस मूल धुन को  पहले पियानो और फिर छाया फिल्म के इस युगल गीत में सुनिए। समानता साफ दिखेगी।


इस गीत को आवाज़े दी थीं तलत महमूद और लता मंगेशकर ने। युगल गीत को गीतकार राजेंद्र कृष्ण ने एक सवाल जवाब की शक्ल में ढाला था। बिम्ब भी बड़े खूबसूरत चुने थे उन्होंने नायक नायिका के लिए। जहाँ नायक अपने आप को आवारा बादल बताता है तो वहीं नायिका बादल के अंदर छिपी जलधारा में अपनी साम्यता ढूँढती है। इस गीत को फिल्माया गया था आशा पारिख और सुनील दत्त की जोड़ी पर।

इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा, कि मैं इक बादल आवारा
कैसे किसी का सहारा बनूँ, कि मैं खुद बेघर बेचारा

इस लिये तुझसे प्यार करूँ, कि तू एक बादल आवारा
जनम-जनम से हूँ साथ तेरे, कि नाम मेरा जल की धारा

मुझे एक जगह आराम नहीं, रुक जाना मेरा काम नहीं
मेरा साथ कहाँ तक दोगी तुम, मै देश विदेश का बंजारा

ओ नील गगन के दीवाने, तू प्यार न मेरा पहचाने
मैं तब तक साथ चलूँ तेरे, जब तक न कहे तू मैं हारा

क्यूँ प्यार में तू नादान बने, इक बादल का अरमान बने
अब लौट के जाना मुश्किल है मैंने छोड़ दिया है जग सारा



वैसे राजेंद्र कृष्ण ने इसी गीत का दूसरा दुखभरा रूप भी गढा था जिसे तलद महदूद ने एकल रूप में गाया था। अगर गीत के रूप में उनकी आवारा बादल और उसमें से बरसती जलधारा की कल्पना अनुपम थी तो दूसरे रूप में ठोकर खाए दिल की अंदरुनी तड़प बखूबी उभरी थी..

अरमान था गुलशन पर बरसूँ, एक शोख के दामन पर बरसूँ
अफ़सोस जली मिट्टी पे मुझे, तक़दीर ने मेरी दे मारा

मदहोश हमेशा रहता हूँ, खामोश हूँ कब कुछ कहता हूँ
कोई क्या जाने मेरे सीने में, है बिजली का भी अंगारा

इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा, कि मैं इक बादल आवारा
कैसे किसी का सहारा बनूँ, कि मैं खुद बेघर बेचारा


गुरुवार, दिसंबर 14, 2017

किसे पेश करूँ : जब साहिर ने मदन मोहन के लिए लिखे एक ही रदीफ़ पर तीन नग्मे Kise Pesh Karoon ?

ग़ज़लों को संगीतबद्ध करने में अगर किसी संगीतकार को सबसे ज्यादा महारत हासिल थी तो वो थे मदन मोहन। ग़ज़लों के सानिध्य में वो कैसे आए इसके लिए आपको उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में एक बार झाँकना होगा। मदन मोहन के पिता इराक के पुलिस विभाग में मुनीम थे। बगदाद में ही मदन मोहन का जन्म हुआ। पर जब इराक अंग्रेजों के चंगुल से निकल आजाद हुआ, मदनमोहन का परिवार बगदाद से पहले लाहौर और फिर मुंबई आ कर बस गया। 

मदन मोहन के पिता तो उस वक्त बाम्बे टॉकीज़ में नौकरी करने लगे वहीं मदन मोहन ने पढ़ाई के बाद फौज में जाना मुनासिब समझा। पर संगीत के प्रति बचपन से रुझान रखने वाले मदन मोहन को लगा कि उन्होंने अपने व्यवसाय का गलत चुनाव कर लिया है। लिहाजा फौज की नौकरी से इस्तीफा दे कर उन्होंने संगीत से जुड़कर काम करने के लिए लखनऊ की राह पकड़ी। वो वहाँ आल इंडिया रेडियो  में सहायक संगीत संयोजक का काम करने लगे। यहीं उनकी मुलाकात ग़ज़ल गायिका बेगम अख्तर और उभरते हुए गायक तलत महमूद से हुई। यही वो समय था जब ग़ज़लों को करीब से सुनने व परखने का मौका मदन मोहन को नजदीक से मिला।


यूँ तो एक शाम मेरे नाम पर मदन मोहन की संगीतबद्ध कई ग़ज़लों का जिक्र हो चुका है पर आज आपसे मैं बात करना चाहूँगा 1964 में प्रदर्शित हुई एक ऐसी फिल्म की जिसका नाम ही "ग़ज़ल" था। आगरे की सरज़मी पर रची इस कहानी में गीतों को लिखने का जिम्मा मिला था साहिर लुधियानवी को। मिलता भी ना कैसे? कहानी का नायक ही शायर जो  था। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि एक जैसी बहर, रदीफ़ और काफिये के साथ साहिर ने इस फिल्म में दो ग़ज़लें और एक गीत लिखा। साहिर ने इन तीनों में रदीफ़ के तौर पर "किसे पेश करूँ" का इस्तेमाल किया। पर ये मदन मोहन साहब की कारीगिरी थी कि इन मिलते जुलते गीतों के लिए उन्होंने ऐसी धुन तैयार की वो सुनने में बिल्कुल अलग अलग लगते हैं।

सुनील दत्त और मीना कुमारी द्वारा अभिनीत इस प्रेम कहानी का खाका ये तीनों नग्मे खींचते से चलते हैं। जहाँ नायिका पहली ग़ज़ल में  हमदम की तलाश में अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रही हैं तो दूसरी ग़ज़ल में उनकी गायिकी से प्रभावित होकर शायर महोदय अपने दिल में पैदा हुई हलचल की कहानी पेश कर रहे हैं। वहीं अपनी प्रेमिका से ना मिल पाने की तड़प इसी फिल्म के अन्य गीत रंग और नूर की बारात किसे पैश करूँ..  में नज़र आती है। रंग और नूर की बारात .. तो इस फिल्म का सबसे लोकप्रिय नग्मा रहा पर उसी मीटर में साहिर ने जो दो ग़ज़लें लिखी वो कम खूबसूरत नहीं थीं। तो आइए सुनें इन दोनों ग़ज़लों को लता और रफ़ी की आवाज़ में

नग़्मा-ओ-शेर की सौगात किसे पेश करूँ
ये छलकते हुए जज़्बात किसे पेश करूँ

शोख़ आँखों के उजालों को लुटाऊँ किस पर
मस्त ज़ुल्फ़ों की स्याह रात किसे पेश करूँ

गर्म सांसों में छुपे राज़ बताऊँ किसको
नर्म होठों में दबी बात किसे पेश करूँ

कोइ हमराज़ तो पाऊँ कोई हमदम तो मिले
दिल की धड़कन के इशारात किसे पेश करूँ




साहिर के खूबसूरत बोलों से मुझे सबसे ज्यादा न्याय लता की आवाज़ करती है। वैसे भी लता दी ने मदन मोहन के लिए जो गीत गाए उनकी अदाएगी बेमिसाल रही।

 

इश्क़ की गर्मी-ए-जज़्बात किसे पेश करूँ
ये सुलग़ते हुए दिन-रात किसे पेश करूँ

हुस्न और हुस्न का हर नाज़ है पर्दे में अभी
अपनी नज़रों की शिकायात किसे पेश करूँ

तेरी आवाज़ के जादू ने जगाया है जिन्हें
वो तस्सव्वुर, वो ख़यालात किसे पेश करूँ

ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल, ऐ मेरी ईमान-ए-ग़ज़ल
अब सिवा तेरे ये नग़मात किसे पेश करूँ

कोई हमराज़ तो पाऊँ कोई हमदम तो मिले
दिल की धड़कन के इशारात किसे पेश करूँ

जहाँ तक रंग और नूर की बारात किसे पैश करूँ. का ताल्लुक है तो उस गीत का दर्द रफ़ी की आवाज़ में पूरी ईमानदारी से झलका था।  वैसे इन तीनों में आपको कौन सी ग़ज़ल/ गीत प्यारा लगता है?

रविवार, अप्रैल 23, 2017

चाँद फिर निकला, मगर तुम न आए : सचिन दा व मजरूह की जुगलबंदी का कमाल Chand Phir Nikla

1957 में एस डी बर्मन साहब की तीन फिल्में प्रदर्शित हुई थीं। प्यासा, पेइंग गेस्ट और नौ दौ ग्यारह। हिट तो ये तीनों फिल्में रहीं। पर इनमें गुरुदत्त की प्यासा हर लिहाज़ से अलहदा फिल्म थी। फिल्म का संगीत भी उतना ही चला। फिल्म के गीतकार थे साहिर लुधियानवी। अक्सर जब गीतकार संगीतकार मिलकर इस तरह की सफल फिल्में देते हैं तो उनकी जोड़ी और पुख्ता हो जाती है  पर सचिन दा की उसी साल रिलीज़ फिल्मों में साहिर का नाम नदारद था और उनकी जगह ले ली थी मजरूह सुल्तानपुरी ने।

सचिन दा और साहिर की अनबन की पीछे उनके अहम का टकराव था। साहिर को एक बार ओ पी नैयर ने एक फिल्मी पार्टी में ये कहते सुना था कि मैंने ही सचिन दा को बनाया है। ज़ाहिर है साहिर के मन में ये बात रही होगी कि गीतकार के रूप में उनका योगदान संगीतकार से ज्यादा है। ऐसा कहा जाता है कि प्यासा के निर्माण के दौरान वे अपना पारिश्रमिक सचिन दा से एक रुपये ज्यादा रखने पर अड़े रहे। शायद उनके इस रवैये से सचिन दा खुश नहीं थे।

सचिन दा की मजरूह के साथ आत्मीयता थी। इसलिए जब पेइंग गेस्ट में गीतकार को चुनने का वक़्त आया तो उन्होंने मजरूह को बुला लिया। सचिन दा मजरूह को मुजरू कह कर बुलाते थे। चाय, काफी और पान के साथ दोनों की घंटों सिटिंग चलती। सचिन दा धुन रचते और बोलों से धुन का तालमेल बिठाते। कभी कभी तो एक ही गीत के लिए दस या बीस धुनें बनती। ये सिलसिला तब तक चलता जब तक सचिन दा खुद संतुष्ट नहीं हो जाते। अगर कहीं दिक्कत होती तो मुजरू को बोल बदलने को कहते।


पेइंग गेस्ट के लिए सचिन दा ने एक बेहद मधुर धुन  बनाई थी जिस पर मजरूह ने मुखड़ा दिया था चाँद फिर निकला मगर तुम ना आए। विरह की भावना से ओतप्रोत इस गीत में जिस तरह मजरूह ने चाँद जैसे बिम्ब का प्रयोग किया था वो इस गीत को अनुपम बना देता है।

चाँद फिर निकला, मगर तुम न आए
जला फिर मेरा दिल, करुँ क्या मैं हाय
चाँद फिर निकला …


पर मुझे इस गीत की सबसे दिल को छूती पंक्ति वो लगती है जब मजरूह पहले अंतरे में कहते हैं

ये रात कहती है वो दिन गये तेरे
ये जानता है दिल के तुम नहीं मेरे

खड़ी मैं हूँ फिर भी निगाहें बिछाये
मैं क्या करूँ हाय के तुम याद आए
चाँद फिर निकला …


रात के साथ दिन के इस सहज मेल से अच्छे दिन चले जाने का जो भाव पैदा किया मजरूह ने उसका जवाब नहीं।
 
सुलगते सीने से धुँआ सा उठता है
लो अब चले आओ के दम घुटता हैं
जला गये तन को बहारों के साये
मैं क्या करुँ हाय के तुम याद आए
चाँद फिर निकला …


मजरूह अपने साक्षात्कारों में अक्सर कहा करते थे कि सचिन दा को ज्यादा साज़ और साज़िंद पसंद नहीं थे। वे  अक्सर कोशिश करते कि कम से कम वाद्य यंत्रों से काम चलाया जाए। शंकर जयकिशन से उलट आर्केस्ट्रा के प्रयोग से वो दूर रहना पसंद करते थे। सचिन दा का मानना था कि गाने पर अगर ज्यादा  जेवर चढ़ेगा तो गाना तो फिर दिखेगा ही नहीं। प्रील्यूड व इंटरल्यूड्स को छोड़ दें तो इस गीत में लता की आवाज़ के साथ घटम के आलावा कोई ध्वनि नहीं आती। पर मजरूह के बोल और सचिन दा की मेलोडी इतनी जबरदस्त थी कि वहाँ  संगीत का आभाव ज़रा भी नहीं खटकता। यही वजह है कि ये गीत छः दशकों बाद भी हम सबके दिलों पर अपनी गिरफ्त बनाए हुए है।

फिल्म में देव आनंद की प्रतीक्षा करती नूतन के गीत को भावों को अपनी भाव भंगिमा से जोड़ा है कि लता की आवाज़ का दर्द पर्दे पर भी बखूबी उभर आता है। तो आइए सुनते हैं इस गीत को..

शुक्रवार, अगस्त 05, 2016

इस मोड़ से जाते हैं, कुछ सुस्त कदम रस्ते, कुछ तेज़ कदम राहें.. Is Mod Se Jate Hain...

जिंदगी कई राहों को हमारे सामने खोल कर रखती है। कुछ पर हम चलते हैं, कभी दौड़ते है, कभी थोड़ी दूर चलकर वापस आ जाते है तो कभी बिल्कुल ही ठहर जाते हैं असमंजस में कि क्या ये राह हमें मंजिल तक पहुँचाएगी? पर मंजिल देखी किसने है, सामने तो रास्ता है और उस रास्ते पर साथ चलने वाले लोग। मंजिल जरूर हमें प्रेरित करती है चलते रहने के लिए पर जीवन की खुशी या ग़म तो उन लोगों से वाबस्ता है जो हमारे सफ़र के भागीदार रहे। कुछ पल, कुछ दिन या हमेशा हमेशा के लिए...  ऐसे ख्यालों के बीच दिल में गुलज़ार के ये शब्द ही गूँजते हैं ..

इक दूर से आती है, पास आ के पलटती है
इक राह अकेली सी, रुकती है ना चलती है
 ...... ..........................इस मोड़ से जाते हैं 
कुछ सुस्त कदम रस्ते, कुछ तेज़ कदम राहें।


आँधी एक ऐसी फिल्म थी जिसका संगीत सत्तर के दशक से लेकर आज तक मन में वही मीठी  तासीर छोड़ता है। पर इस मिठास के साथ, कुछ तो अलग सा है इस फिल्म के गीतों में कि आप उनमें जब डूबते हैं तो अपने इर्द गिर्द के रिश्तों को टटोलते परखते कुछ खो से जाते हैं अपने  ख़्यालों  में ।


आँधी के इस गीत को गुलज़ार ने लिखा था पंचम के साथ ! अपने साक्षात्कारों में इस गीत के बारे में दो बातें वो अक्सर कहा करते थे। पहली तो पंचम के बारे में जिन्हें उर्दू कविता और शब्दों की उतनी समझ कभी नही रही
"गाना बनाते हुए तुम जुबां से ज्यादा साउंड का ख्याल रखते थे। लफ़्जों की साउंड अच्छी हो तो फौरन उन्हें होठों पर ले लिया करते थे। मानी....? तुम कहा करते थे लोग पूछ लेंगे। जैसे तुमने इस गाने में पूछा था मुझसे.. ये नशेमन कौन सा शहर है यार ?"
और दूसरी ये कि फिल्म में इस गीत की शूटिंग के दौरान संजीव कुमार को भी 'नशेमन' का अर्थ गुलज़ार से पूछना पड़ा था।

आज जब मैं जब अस्सी और नब्बे के इस गीत को रिपीट मोड में बारहा सुनने की बात सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि पंचम की तरह मैंने भी इस गीत में उभरते स्वरों को ही मन में बसाया था उसके अर्थ को नहीं। तब कहाँ जानता था कि मुखड़े में गुलज़ार  आपसी रिश्तों के चरित्र को इन तीन अनूठे बिम्बों से दर्शा रहे हैं 

पत्थर की हवेली को, शीशे के घरोंदों में
तिनकों के नशेमन तक, इस मोड़ से जाते हैं

ये जीवन कैसे कैसे मोड़ पर ले जाता है? कैसे कैसे रिश्तों को जन्म देता है है ? एक राह पत्थर की हवेली की तरफ़ ले जाती है यानि एक ऐसे  रिश्ते की जानिब जो समाज के मापदंडों में बाहर से मजबूत दिखता तो है पर है अंदर से बिल्कुल बेजान। वहीं दूसरी शीशे के घरोंदों जैसे संबंध बनाती है जिनमें पारदर्शिता है पर जिनकी नींव इतनी कमजोर है कि एक बाहरी ठोकर भी ना बर्दाश्त कर सके।

गुलज़ार का तीसरा बहुचर्चित बिंब ऐसे रिश्तों की बात करता है जो तिनकों के बनाए उस घोंसले  की तरह हैं जहाँ परस्पर आत्मीयता है, प्यार है पर ये प्रेम समाजिक स्वीकृति के दायरों से बाहर है और हालात की आँधी के बीच तहस नहस होने को मजबूर है। फिर भी नायक नायिका आशावान है कि इन टेढी मेढी राहों के बीच से इक डगर वो ढूँढ ही लेंगे जो उन्हें एक दूसरे के और करीब ले आ सके।

इस गीत के इंटरल्यूड्स में बाँसुरी, सितार सरोद और वायलिन जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग हुआ है। राग यमन से प्रेरित इस बंदिश में किशोर और लता के मधुर स्वरों के बीच हरि प्रसाद चौरसिया की बाँसुरी, ज़रीन दारूवाला का सरोद और जयराम आचार्य का सितार, गीत में एक अलग रंग भरते हैं। 


इस मोड़ से जाते हैं
कुछ सुस्त कदम रस्ते, कुछ तेज़ कदम राहें
पत्थर की हवेली को, शीशे के घरोंदों में
तिनकों के नशेमन तक, इस मोड़ से जाते हैं
इस मोड़ से ...

आँधी की तरह उड़कर, इक राह गुज़रती है
शरमाती हुई कोई कदमों से उतरती है
इन रेशमी राहों में, इक राह तो वो होगी
तुम तक जो पहुँचती है, इस मोड़ से जाती है
इस मोड़ से...

इक दूर से आती है, पास आ के पलटती है
इक राह अकेली सी, रुकती है ना चलती है
ये सोच के बैठी हूँ, इक राह तो वो होगी
तुम तक जो पहुँचती है, इस मोड़ से जाती है
इस मोड़ से ...


निसंदेह आँधी का संगीत पंचम गुलज़ार की जोड़ी की सबसे शानदार कृतियों में अव्वल दर्जा पाने की काबिलियत रखता है और यही वजह है कि बनने के चार दशक बाद भी ये उतने ही मन से सुना जाता है और आने वाले कई दशकों तक सुना जाता रहेगा।

बुधवार, अप्रैल 06, 2016

आजा पिया, तोहे प्यार दूँ.. गोरी बैयाँ , तोपे वार दूँ Aaja Piya Tohe Pyar Doon..

साठ के दशक में नासिर हुसैन साहब ने एक फिल्म बनाई थी बहारों के सपने। फिल्म का संगीत तो बहुत लोकप्रिय हुआ था पर अपनी लचर पटकथा के कारण फिल्म बॉक्स आफिस पर ढेर हो गयी थी। कल बहुत दिनों बाद इस फिल्म के अपने प्रिय गीत को सुनने का अवसर मिला तो सोचा आज इसी गीत पर आपसे दो बातें कर ली जाएँ। लता की मीठी आवाज़ और मज़रूह के लिखे बोलों पर पंचम की संगीतबद्ध इस मधुर रचना को सुनते ही मेरा इसे गुनगुनाने का दिल करने लगता है। मजरूह साहब ने इतने सहज पर इतने प्यारे बोल लिखे इस गीत के कि क्या कहा जाए। पर पहले बात संगीतकार  पंचम की।

1967 में जब ये फिल्म प्रदर्शित हुई थी तो पंचम  तीसरी मंजिल की सफलता के बाद धीरे धीरे हिंदी फिल्म संगीत में अपनी पकड़ जमा रहे थे। पर शुरु से ही उनकी छवि पश्चिमी साजों के साथ तरह तरह की आवाज़ों को मिश्रित कर एक नई शैली विकसित करने वाले संगीतकार की बन गयी थी। पर उन्होंने अपनी इस छवि से हटकर जब भी शास्त्रीय या विशुद्ध मेलोडी प्रधान गीतों की रचना की, परिणाम शानदार ही रहे। आजा पिया, तोहे प्यार दूँ... का शुमार पंचम के ऐसे ही गीतों में किया जाता रहा है।


वैसे  क्या आपको मालूम है कि इस गीत की धुन इस फिल्म को सोचकर नहीं बनाई गयी थी। सबसे पहले इस धुन का इस्तेमाल फिल्म तीन देवियाँ के पार्श्व संगीत में हुआ था। सचिन देव बर्मन उस फिल्म के संगीतकार थे पर संगीत के जानकारों का मानना है  कि उसका पार्श्व संगीत यानि बैकग्राउंड स्कोर पंचम की ही देन थी। हाँ, ये बात जरूर थी कि मजरूह सुल्तानपुरी दोनों फिल्मों के गीतकार थे। हो सकता हूँ मजरूह ने ये गीत तभी लिखा हो  और उस फिल्म में ना प्रयुक्त हो पाने की वज़ह से उसका इस्तेमाल यहाँ हुआ हो या फिर उस शुरुआती धुन को पंचम ने इस फिल्म के लिए विकसित किया हो। ख़ैर जो भी हो पंचम को इस बात की शाबासी देनी चाहिए कि उन्होंने मधुर लय में बहते गीत के संगीत संयोजन में लता की आवाज़ को सर्वोपरि रखा। इंटरल्यूड्स में एक जगह संतूर के टुकड़े के साथ  बाँसुरी आई तो दूसरी जगह सेक्सो।

गीतकार मज़रूह के कम्युनिस्ट अतीत, गीत लिखने के प्रति उनकी शुरुआती अनिच्छा और प्रगतिशील ग़ज़ल लिखने वालों में फ़ैज़ के समकक्ष ना पहुँच पाने के मलाल जैसी कुछ बातों के बारे में मैं यहाँ पहले भी लिख चुका हूँ आज आपके सामने उनका परिचय उनके समकालीन शायर निदा फ़ाजली के माध्यम से कराना चाहता हूँ।



निदा फ़ाज़ली ने अपने एक संस्मरण में मजरूह की छवि को बढ़ी खूबसूरती से कुछ यूँ गढ़ा है

"..... शक़्लो सूरत से क़ाबीले दीदार, तरन्नुम से श्रोताओं के दिलदार, बुढ़ापे तक चेहरे की जगमगाहट, पान से लाल होठों की मुस्कुराहट और अपने आँखों की गुनगुनाहट से मज़रूह दूर से ही पहचाने जाते थे। बंबई आने से पहले यूपी के छोटे से इलाके में एक छोटा सा यूनानी दवाखाना चलाते थे। एक स्थानीय मुशायरे  में जिगर साहब ने उन्हें सुना और अपने साथ मुंबई के एक बड़े मुशायरे में ले आए। सुंदर आवाज़, ग़ज़ल में उम्र के लिहाज से जवान अल्फाज़, बदन पर सजी लखनवी शेरवानी के अंदाज़ ने स्टेज पर जो जादू जगाया कि पर्दा नशीनों ने नकाबों को उठा दिया।....."

मज़रूह ने जहाँ अपनी शायरी में अरबी फारसी के शब्दों का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया वहीं गीतों में यूपी की बोली का। नतीजा ये  रहा कि  उनकी ग़ज़लों की अपेक्षा  गीतों को आम जनता ने हाथों हाथ लिया। अब इस गीत को ही लें, एक प्रेम से भरी नारी की भावनाओं को कितनी सहजता से व्यक्त किया था मजरूह ने। दुख के बदले सुख लेने की बात तो ख़ैर अपनी जगह थी पर उसके साथ मैं भी जीयूँ, तू भी जिए लिखकर मजरूह ने उस भाव को कितना गहरा बना दिया। तीनों अंतरों में सरलता से कही मजरूह की बातें लता जी की आवाज़ में कानों में वो रस बरसाती हैं कि बस मन  किसी पर न्योछावर कर देने को जी चाहने लगता है..
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आजा पिया, तोहे प्यार दूँ
गोरी बैयाँ , तोपे वार दूँ
किसलिए तू, इतना उदास?
सूखे सूखे होंठ, अखियों में प्यास
किसलिए, किसलिए?

जल चुके हैं बदन कई, पिया इसी रात में
थके हुए इन हाथों को, दे दे मेरे हाथ में
हो सुख मेरा ले ले, मैं दुःख तेरे ले लूँ
मैं भी जीयूँ, तू भी जिए

होने दे रे, जो ये जुल्मी हैं, पथ तेरे गाँव के
पलकों से चुन डालूँगी मैं, कांटे तेरे पाँव के
हो लट बिखराए, चुनरिया बिछाए
बैठी हूँ मैं, तेरे लिए

अपनी तो, जब अखियों से, बह चली धार सी
खिल पड़ीं, वहीं इक हँसी , पिया तेरे प्यार की
हो मैं जो नहीं हारी, सजन ज़रा सोचो
किसलिए, किसलिए?


वैसे आपका क्या ख्याल है इस गीत के बारे  में ?

गुरुवार, जुलाई 31, 2014

यादें मदन मोहन की : सपनों में अगर मेरे, तुम आओ तो सो जाऊँ Remembering Madan Mohan : Sapnon Mein Agar Mere...

मदन मोहन के कार्यक्रम को सुनने के बाद से पिछले हफ्ते उनके गीतों में से कइयों को फिर से सुना और आज उन्हीं में से एक मोती को चुन कर आपके समक्ष लाया हूँ। पर इससे पहले कि उस गीत की चर्चा करूँ कुछ बातें उनके काम करने की शैली के बारे में करना चाहूँगा। मदन मोहन उन संगीतकारों में नहीं थे जो धुन पहले बना लेते हों। वो गीतों को सुनते थे, उनके भावों में डूबते थे और फिर एक ही गीत के लिए कई सारी मेलोडी बना कर सबसे पूछते थे कि उन्हें कौन सी पसंद आई? वैसे धुन चुनते समय आख़िरी निर्णय उन्हीं का होता था। सेना से आए थे तो समय के बड़े पाबंद थे। वादकों को देर से आने से वापस कर देते थे, गीत को अंतिम रूप देने से पहले लता हो या रफ़ी घंटों रियाज़ कराते थे। एक बार गुस्से में आकर शीशे की दीवार पर जोर से हाथ मारकर वादकों को इंगित कर बोले..बेशर्मों बेसुरा बजाते हो। सुर के प्रति वो बेहद संवेदनशील थे। रेडियो में दिये अपने एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था
"मैं समझता हूँ कि हर फ़नकार का जज़्बाती होना बहुत जरूरी है क्यूँकि अगर उसमें इंसानियत का जज़्बा नहीं है तो वो सही फ़नकार नहीं हो सकता। सुर भगवान की देन है। उसको पेश करना, उसको सुनना, उसको अपनाना ये कुदरत की चीज है जिसे इंसान सीखता नहीं पर महसूस करता है।"

अक्सर कहा जाता है कि मदन मोहन और लता के बीच ग़ज़ब का तारतम्य था। लता जी ने जब भी बाहर अपने कान्सर्ट किये, उन्होंने मदन मोहन को हमेशा याद किया। लता जी ने मदन मोहन के बारे में दिए गए साक्षात्कार में कहा था
"मेरी उनसे पहली मुलाकात फिल्म शहीद के युगल गीत को रिकार्ड करते वक़्त 1947 में हुई थी. वो गीत भाई बहन के रिश्ते के बारे में था और वास्तव में तभी से वे मेरे मदन भैया बन गए। मैने हमेशा कहा है कि वो भारत के सबसे प्रतिभाशाली संगीतकारों में से एक थे और उनकी अपनी एक शैली थी। हांलाकि मैंने बाकी संगीतकारों के साथ ज्यादा काम किया पर मदन भैया के साथ गाए हुए गीतों को बेहद लोकप्रियता मिली।

लोग कहते हैं कि उनके गीतों में मैं कुछ विशिष्ट करती थी। मुझे पता नहीं कि ये कैसे होता था। अगर ये होता था तो शायद इस वज़ह से कि हमारे बीच की आपसी समझ, एक दूसरे के लिए लगाव और सम्मान था। वो मेरी गायिकी को अच्छी तरह समझते थे। वो हमेशा कहा करते थे  कि ये धुन तुम्हीं को ध्यान रख कर रची है और वो उसमें अक्सर मेरी आवाज़ के उतार चढ़ाव को ध्यान में रखकर कुछ जगहें छोड़ते थे। इसलिए उनके साथ काम करना व उनकी आशाओं पर खरा उतरना मेरे लिए हमेशा से चुनौतीपूर्ण होता था। रिकार्डिंग के बाद उनके चेहरे पर जो खुशी दिखती थी वो मुझे गहरा संतोष देती थी।"

आज लता और मदन मोहन की इस जोड़ी का जो गीत आपके सामने पेश कर रहा हूँ वो फिल्म दुल्हन एक रात की का है। इसे लिखा है एक बार फिर राजा मेहदी अली खाँ ने। मुखड़े के पहले सितार की बंदिश के बाद से लता की मधुर आवाज़ का सम्मोहनी जादू गीत के अंत और उसके बहुत देर बाद भी बरक़रार रहता है। इंटरल्यूड्स में पहले अंतरे के पहले सेक्सोफोन की आवाज़ चौंकाती है पर साथ ही सितार के साथ उस के अद्भुत समन्वय को सुन मदन मोहन की काबिलियत का एक उदाहरण सामने आ जाता है।

सपनों में अगर मेरे, तुम आओ तो सो जाऊँ
बाहों की मुझे माला पहनाओ, तो सो जाऊँ

सपनों में कभी साजन बैठो मेरे पास आ के
जब सीने पे सर रख दूँ, मैं प्यार में शरमा के
इक गीत मोहब्बत का तुम गाओ तो सो जाऊँ

बीती हुयी वो यादें, हँसती हुई आती हैं
लहरों की तरह दिल में आती, कभी जाती हैं
यादों की तरह तुम भी आ जाओ तो सो जाऊँ




मदन मोहन को जीते जी कभी वो सम्मान नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे। नेशनल एवार्ड तो उन्हें मिला पर एक अदद फिल्मफेयर जैसे एवार्ड के लिए तरस गए। उनकी धुनें अपने समय से आगे की मानी गयीं। एक किस्सा जो इस संबंध में अक्सर बताया जाता है वो ये कि उनके बेटे संजीव कोहली को जब स्कूल के कार्यक्रम में स्टेज पर अपने पिता के सामने गाने का मौका मिला तो उसने पिता द्वारा रचित किसी गीत को गाने के बजाए बहारों फूल बरसाओ  गाना बेहतर समझा वो भी इस डर से कि शायद वहाँ बैठी आम जनता उसे पसंद ना करे। 

इन्हीं मदनमोहन की अंतिम यात्रा में अमिताभ, धर्मेंद्र, राजे्द्र कुमार व राजेश खन्ना जैसे कलाकारों ने कंधा लगाया। संजीव कहते हैं कि अगले दिन ये फोटो अख़बार में छपी और मैं रातों रात कॉलेज में इतना लोकप्रिय हो गया जितना कभी उनके जीते जी नहीं हुआ था। शायद यही दुनिया का दस्तूर है कि हम कई बार किसी के हुनर को वक़्त रखते नहीं परख पाते हैं।

मदन मोहन को हमारा साथ छोड़े लगभग चार दशक हो गए। उनके संगीतबद्ध गीतों को क्या हम भुला पाए हैं ? क्या उनके गीतों को आज की पीढ़ी भी पसंद करती है?  अगली प्रविष्टि में एक हाल ही में रिकार्ड किये गीत के माध्यम से इन प्रश्नों के उत्तर को ढूँढने का प्रयास करूँगा।
 

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