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रविवार, जून 10, 2018

आ अब लौट चलें … कैसे गूँजा शंकर जयकिशन का शानदार आर्केस्ट्रा? Aa Ab Laut Chalein

पुराने हिंदी फिल्मी गीतों में अगर आर्केस्ट्रा का किसी संगीतकार ने सबसे बढ़िया इस्तेमाल किया तो वो थे शंकर जयकिशन। हालांकि उनके समकालीनों में सलिल चौधरी और बाद के वर्षों में पंचम ने भी इस दृष्टि से अपने संगीत में एक अलग छाप छोड़ी। पर जिस वृहद स्तर पर शंकर जयकिशन की जोड़ी वादकों की फौज को अपने गानों के लिए इक्ठठा करती थी और जो मधुर स्वरलहरी उससे उत्पन्न होती थी उसकी मिसाल किसी अन्य हिंदी फिल्म संगीतकार के साथ मिल पाना मुश्किल है। शंकर जयकिशन का आर्केस्ट्रा ना केवल गीतों में रंग भरता था पर साथ ही इस तरह फिल्म के कथानक के साथ रच बस जाता था कि आप फिल्माए गए दृश्य से संगीत को अलग ही नहीं कर सकते थे।

मिसाल के तौर पर फिल्म  "जिस देश में गंगा बहती है" के इस सदाबहार गीत आ अब अब लौट चलें को याद कीजिए। 1960 में बनी इस फिल्म का विषय चंबल के बीहड़ों में उत्पात मचा रहे डाकुओं को समाज की मुख्यधारा में वापस लौटाने का था। इस फिल्म के निर्माता थे राज कपूर साहब। राजकपूर की फिल्म थी तो शंकर जयकिशन की जोड़ी के साथ शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, मुकेश और लता जैसे कलाकारों का जुड़ना स्वाभाविक था। कुछ ही दिनों पहले सोशल मीडिया पर शैलेंद्र के पुत्र दिनेश शंकर शैलेंद्र ने इस फिल्म से जुड़ी एक रोचक घटना सब के साथ बाँटी थी। दिनेश शंकर शैलेंद्र के अनुसार
"राजकपूर ने फिल्म की पटकथा बताने के लिए शंकर, जयकिशन, हसरत और मुकेश को आर के स्टूडियो के अपने काटेज में बुलाया था। राजकपूर ने  फिल्म की कहानी जब सुनानी खत्म की तो कमरे में सन्नाटा छा गया। अचानक शंकर ने चाय का कप टेबल पर दे मारा और गाली देते हुए उस ठंडे, धुँए भरे कमरे से बाहर निकल गए। सारे लोग उनके इस व्यवहार पर चकित थे। फिर राजकपूर ने शैलेंद्र से कहा कि जरा देखो जा के आख़िर पहलवान* को क्या हो गया? कहानी पसंद नहीं आई? शैलेन्द्र शंकर के पास गए और उनसे पूछा कि मामला क्या है? शंकर ने गालियों की एक और बौछार निकाली और फिर कहा कि डाकुओं की फिल्म में भला संगीत का क्या काम है? बना लें बिन गानों की फिल्म, हमें यहाँ क्यूँ बुलाया है? शैलेंद्र ने उन्हें समझाया कि इस फिल्म में भी गाने होंगे। सब लोग वापस आए और कहानी के हिसाब से गीतों के सही स्थान पर विचार विमर्श हुआ और अंततः फिल्म के लिए नौ गाने बने।" 

(*संगीतकार बनने से पहले शंकर तबला बजाने के साथ साथ पहलवानी का हुनर भी रखते थे 😊।)



तो बात शुरु हुई थी शंकर जयकिशन की आर्केस्ट्रा पर माहिरी से। आ अब लौट चलें के लिए शंकर जयकिशन ने सौ के करीब वायलिन वादकों को जमा किया था। साथ में कोरस अलग से। हालत ये थी कि तारादेव स्टूडियो जहाँ इस गीत की रिकार्डिंग होनी थी में इतनी जगह नहीं बची थी कि सारे वादकों को अंदर बैठाया जा सके। लिहाजा कुछ को बाहर फुटपाथ पर बैठाना पड़ा था। कहा जाता है कि इस गीत कि रिहर्सल डेढ़ दिन लगातार चली और इसीलिए परिणाम भी जबरदस्त आया।

आर्केस्ट्रा में बजते संगीत को ध्यान में रखते हुए निर्देशक राधू कर्माकर ने गीत की रचना की थी। ये गीत फिल्म को अपने अंत पर ले जाता है जब फिल्म का मुख्य किरदार डाकुओं को आत्मसमर्पण करवाने के लिए तैयार करवा लेता है। गीत में एक ओर तो डाकुओं का गिरोह अपने आश्रितों के साथ लौटता दिख रहा है तो दूसरी ओर पुलिस की सशंकित टुकड़ी हथियार से लैस होकर डाकुओं के समूह को घेरने के लिए कदमताल कर रही है। निर्देशक ने पुलिस की इस कदमताल को वायलिन और ब्रास सेक्शन के संगीत में ऐसा पिरोया है कि दर्शक संगीत के साथ उस दृश्य से बँध जाते हैं। संगीत का उतर चढाव भी ऐसा जो दिल की धड़कनों के  साथ दृश्य की नाटकीयता को बढ़ा दे। वायलिन आधारित द्रुत गति की धुन और साथ में लहर की तरह उभरते कोरस को अंतरे के पहले तब विराम मिलता है जब हाथों से तारों को एक साथ छेड़ने से प्रक्रिया से शंकर जयकिशन हल्की मधुर ध्वनि निकालते हैं। इस प्रक्रिया को संगीत की भाषा में Pizzicato कहते हैं। इस गीत में Pizzicato का प्रभाव आप वीडियो के 39 से 45 सेकेंड के बीच में सुन सकते हैं।

गिटार की धुन के साथ गीत गीत आगे बढ़ता है।  मुकेश तो खैर राजकपूर की शानदार आवाज़ थे ही, अंतरों के बीच कोरस के साथ लता का ऊँचे सुरों तक जाता लंबा आलाप गीत का मास्टर स्ट्रोक था। इस गीत में लता जी की कोई और पंक्ति नहीं है पर ये आलाप इतनी खूबसूरती से निभाया गया है कि पूरे गीत के फिल्मांकन में जान फूँक देता है। गीतकार शैलेंद्र की खासियत थी कि वो बड़ी सहजता के साथ ऐसे बोल लिख जाते थे जो सीधे श्रोताओं के दिल को छू लेते थी। गलत राह पे चलने से नुकसान की बात हो या समाज द्वारा इन भटके मुसाफ़िरों को पुनः स्वीकार करने की बात, अपने सीधे सच्चे शब्दों से शैलेंद्र ने गीत में एक आत्मीयता सी भर दी है। उनका दूसरे अंतरे में बस इतना कहना कि अपना घर तो अपना घर है आज भी घर से दूर पड़े लोगों की आँखों की कोरें गीला कर देगा।


आ अब लौट चलें, आ अब लौट चलें
नैन बिछाए बाँहें पसारे तुझको पुकारे देश तेरा
आ जा रे – आ आ आ

सहज है सीधी राह पे चलना
देख के उलझन बच के निकलना
कोई ये चाहे माने न माने
बहुत है मुश्किल गिर के संभलना
आ अब लौट चलें …

आँख हमारी मंज़िल पर है
दिल में ख़ुशी की मस्त लहर है
लाख लुभाएँ महल पराए
अपना घर फिर अपना घर है
आ अब लौट चलें …

इतना मधुर संगीत संयोजन करने के बाद भी ये गीत उस साल के फिल्मफेयर अवॉर्ड के लिए नामांकित नहीं हुआ। इसके संगीत संयोजन के बारे में शंकर जयकिशन पर आरोप लगा कि उनकी धुन उस समय रिलीज़ हुए इटालवी गीत Ciao Ciao Bambina से मिलती है। अगर आप वो गीत इटालवी में सुनें तो शायद ही आप इस साम्यता को पकड़ पाएँ। पर अलग से उस धुन सुनने के बाद तुझको पुकारे देश मेरा वाली पंक्ति गीत की धुन से मिलती दिखती है। पर इस हल्की सी प्रेरणा को नज़रअंदाज करें तो जिस तरह गीत को शंकर जयकिशन ने कोरस और लता के आलाप के साथ आगे बढ़ाया है वो उनके हुनर और रचनात्मकता को दर्शाता है।



शंकर जयकिशन कुछ शानदार गीतों की फेरहिस्त इस ब्लॉग पर आप यहाँ देख सकते हैं

रविवार, जुलाई 03, 2016

हाल‍ ए दिल हमारा.... कौन थे दत्ताराम वाडकर ? Haal E Dil humara

एक सदाबहार गीत है मुकेश का जिसे मैं कॉलेज के ज़माने से आज तक अक़्सर गुनगुनाया करता हूँ। और मैं क्या.. आप सभी इसे गुनगुनाते होंगे। कौन ऐसा शख़्स है जिसे ज़िंदगी में कभी ये ना लगा हो कि दुनिया  उसके जज़्बातों को समझ  ही नहीं पा रही है। तरुणाई में तो खासकर जब सारी दुनिया ही बेगानी लगती है तब  गीत का ये मुखड़ा  हम सब के मन को सुकून देता रहा कि हाल‍ ए दिल हमारा जाने ना बेवफा ये ज़माना ज़माना

इतने सहज बोल लिए, आशा भरा ये गीत जब मुकेश की आवाज़ में उन दिनों रेडियो पर बजता था तो होठ ख़ुद ब ख़ुद इसकी संगत के लिए चल पड़ते थे। एक भोला सा अपनापन था इस गीत में जिससे जुड़ने में दिल को ज़रा सी भी देरी नहीं लगती थी।

श्रीमान सत्यवादी के लिए ये गीत राज कपूर पर फिल्माया गया था। अब जहाँ राज कपूर और मुकेश साथ हों तो संगीतकार तो शंकर जयकिशन ही होंगे। इस मुगालते में मैं भी बहुत दिनों रहा। बाद में पता चला  कि इस फिल्म के संगीतकार शंकर जयकिशन नहीं बल्कि दत्ताराम वाडकर थे। आप भी सोच रहे होंगे कि सुरेश वाडकर के बारे में तो सुनते आए हैं पर ये दत्ताराम वाडकर के बारे में ज्यादा नहीं सुना। चलिए हमीं बताए देते हैं।

राजकपूर के साथ युवा दत्ताराम वाडकर

गोवा में जन्में और दक्षिणी महाराष्ट्र के एक कस्बे सामंतवाड़ी में पले बढ़े दत्ताराम सन 1942 में अपने परिवारवालों के साथ मुंबई पहुँचे। पढ़ने में खास रूचि न लेने वाले दत्ताराम की माँ की पहल पर गुरु पांडरी नागेश्वर से उनकी तबले की शिक्षा शुरु हुई । युवा दत्ताराम तबला बजाने के साथ कसरत करने का भी शौक़ रखते थे। गिरिगाँव के जिस अखाड़े में वो कसरत करते वहीं  संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन वाले शंकर भी वर्जिश के लिए आते थे। एक बार शंकर ने वहीं तबला बजाना शुरु कर दिया और कसरत के बाद अंदर स्नान कर रहे दत्ताराम के मुँह से वाह वाह निकल गई। शंकर ने तबला बजाना रोक दिया। जब दत्ताराम बाहर निकले तो उन्होंने पूछा कि क्या तुम भी तबला बजाते हो? दत्ताराम ने कहा हाँ थोड़ा बहुत बजा लेता हूँ। शंकर ने उन्हें तुरंत बजाने को कहा और उनके वादन से ऐसे प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें अपनी संगीत मंडली में शामिल कर लिया। 

दत्ताराम वाडकर

सालों साल शंकर के वादकों  के साथ अभ्यास करने  और नाटकों के बीच तबला बजाने के बाद फिल्म आवारा के गीत इक बेवफ़ा से प्यार किया में जब पहली बार उन्हें लता जी के साथ ढोलक बजाने का मौका मिला तो मानो  उनके मन की मुराद पूरी हो गई। फिर तो राज कपूर शंकर जयकिशन की फिल्मों  में बतौर वादक, वो एक स्थायी अंग बन गए। सलिल चौधरी  व कल्याणजी आनंद जी के कई मशहूर गीतों  का भी वो हिस्सा बनें। रिदम पर दत्ताराम की गहरी पकड़ थी। संगीत जगत में ढोलक पर उनकी शुरु की हुई रिदम दत्तू ठेका के नाम से मशहूर हुई।

शंकर जयकिशन की बदौलत उन्हें पहली बार फिल्म 'अब दिल्ली दूर नहीं' के लिए संगीत निर्देशन का काम मिला। संगीत के लिहाज़ से उनकी फिल्में परवरिश और श्रीमान सत्यवादी बहुत सराही गयी। आँसू भरी है जीवन की राहें , मस्ती भरा ये समा और चुनचुन करती आई चिड़िया जैसे गीतों को भला  कौन भूल सकता है। तो आइये लौटें श्रीमान सत्यवादी के इस गीत की ओर ।

श्रीमान सत्यवादी के इस गीत में वो अंतरा मुझे सबसे प्यारा लगता है जिसमें हसरत साहब लिखते हैं कि दाग हैं दिल पर हज़ारों हम तो फिर भी शाद (आनंदित) हैं.. आस के दीपक जलाये देख लो आबाद हैं। सच, जीवन में इस मंत्र को जिसने अपना लिया वो ना केवल ख़ुद को बल्कि अपने आस पास के लोगों को भी एक धनात्मक उर्जा से भर देगा। गीत के मुखड़े के पहले का संगीत और इंटरल्यूड्स में तरह तरह के वाद्यों का इस्तेमाल दत्ताराम के संगीत संयोजन की माहिरी की गवाही देता है। ये माहिरी उन्होंने शंकर जयकिशन के साथ लगातार काम करते हुए हासिल की थी।

हाल‍ ए दिल हमारा जाने ना बेवफा ये ज़माना ज़माना
सुनो दुनिया वालों आयेगा लौट कर दिन सुहाना सुहाना

एक दिन दुनिया बदलकर रास्ते पर आयेगी
आज ठुकराती है हमको कल मगर शरमायेगी
बात को तुम मान लो अरे जान लो भैया

दाग हैं दिल पर हज़ारों हम तो फिर भी शाद हैं 
आस के दीपक जलाये देख लो आबाद हैं
तीर दुनिया के सहे पर खुश रहे भैया
हाल-ए-दिल हमारा ...

झूठ की मंज़िल पे यारों हम ना हरगिज़ जायेंगे
हम ज़मीं की खाक़ सही आसमाँ पर छायेंगे
क्यूँ भला दब कर रहें डरते नहीं भैया



 मुकेश की शानदार आवाज़ में तो आपने ये गीत सुन लिया अगर मेरी झेल सकते हों तो ये भी सुन लीजिए :) 


आज दत्ताराम हमारे बीच नहीं है। उन्हें गुजरे लगभग एक दशक होने वाला है। गोवा के एक साधारण से परिवार में जन्मे दत्ताराम अपनी मेहनत के बल पर संगीत की जिन ऊँचाइयों को छू सके वो औरों के लिए एक मिसाल है। ताल वाद्यों पर उनकी गहरी पकड़ और उनके अमर गीतों की बदौलत वो संगीत प्रेमियों द्वारा हमेशा याद रखे जाएँगे।

सोमवार, अगस्त 27, 2012

रात और दिन दिया जले, मेरे मन में फिर भी अँधियारा है...

कभी कभी बेहद पुरानी यादें अचानक ही मस्तिष्क की बंद पड़ी काल कोठरियों से बाहर आ जाती हैं। टीवी पर एक कार्यक्रम देख रहा था जिससे पता चला कि आज मुकेश 36 वीं पुण्य तिथि है और एकदम से वो काला दिन मेरी आँखों के सामने घूम गया। 

शायद मैं स्कूल से लौट कर आया था। पता नहीं किस वज़ह से छुट्टी कुछ जल्दी हो गई थी। कपड़े बदलकर पहला काम तब रेडिओ आन करना ही होता था। विविध भारती पर फिल्म धर्म कर्म से लिया  और मुकेश का गाया नग्मा इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएँगे प्यारे तेरे बोल आ रहा था। वो उस वक़्त का मेरा पसंदीदा गीत हुआ करता था। गाने के बाद उद्घोषिका द्वारा ये बताना कि  हम मुकेश के गाए गीत इसलिए सुना रहे हैं क्यूँकि आज ही अमेरिका में उनका निधन हो गया है मुझे विस्मित कर गया था। बचपन के उन दिनों में बस इतना समझ आता था कि ये खबर, बड़ी खबर है और जल्द ही इसका प्रसारण दौड़कर घर के कोने कोने में कर देना चाहिए। मैंने भी यही किया था और सब के चेहरे पर विषाद की रेखाओं को उभरता देख मन कुछ दुखी अवश्य हो गया था। इस बात को तीन दशक से ऊपर हो गए हैं  पर इन गुजरते वर्षों में मुकेश के गाए गीतों की स्मृतियाँ दिन पर दिन प्रगाढ़ ही होती गयी हैं। 


मुकेश को तकनीकी दृष्टि से बतौर गायक भले ही संगीतकारों ने अव्वल दर्जे पर नहीं रखा पर उनकी आवाज़ की तासीर कुछ ऍसी थी जो सीधे आम लोगों के  दिल में जगह बना लेती थी। दर्द भरे नग्मों को गाने का उनका अंदाज़ अलहदा था। शायद ही उस ज़माने में कोई घर ऐसा रहा होगा जहाँ मुकेश के उदास करने वाले गीतों का कैसेट ना  हो। आज  मुझे ऐसे ही एक गीत की याद आ रही है जिसे संगीतकार शंकर जयकिशन ने 1967 में फिल्म रात और दिन के लिए रचा था। गीत के बोल लिखे थे हसरत जयपुरी ने।

मुकेश, हसरत जयपुरी, शंकर व जयकिशन की चौकड़ी ने ना जाने कितने ही मधुर गीतों को रचा होगा। पर ये जान कर आश्चर्य होता है कि ये सारे कलाकार कितनी मामूली ज़िंदगियों से निकलकर संगीत के क्षेत्र में उन ऊँचाइयों तक पहुँचे जिसकी कल्पना उन्होंने अपने आरंभिक जीवन में कभी नहीं की होगी।   

अब हसरत साहब को ही लें। स्कूल से आगे कभी नहीं पढ़ पाए। क्या आप सोच सकते हैं कि मुंबई आकर उन्होंने अपनी जीविका चलाने के लिए क्या किया होगा? सच तो ये है कि जयपुर का ये शायर मुंबई के शुरुआती दिनों में बस कंडक्टरी कर अपना गुजारा चलाता था। ये जरूर था कि मुफ़लिसी के उस दौर में भी उन्होंने मुशायरों में शिरक़त करना नहीं छोड़ा और यहीं पृथ्वी राज कपूर ने उन्हें सुना और राजकपूर से उनके नाम की सिफारिश की। 

हसरत  जयपुरी की तरह ही शंकर जयकिशन का मुंबई का सफ़र संघर्षमय रहा। शंकर हैदराबाद में छोटे मोटे कार्यक्रमों में तबला बजाते थे तो गुजरात के जयकिशन हारमोनियम में प्रवीण थे। इनकी मुलाकात और फिर पृथ्वी थियेटर में काम पाने के किस्से कोतो मैं पहले ही आपसे साझा कर चुका हूँ। दस बच्चों के परिवार में पले बढ़े मुकेश ने भी दसवीं के बाद पढ़ना छोड़ दिया था। छोटी मोटी सरकारी नौकरी मिली तो साथ में शौकिया गायन भी करते रहे। बहन की शादी में यूँ ही गा रहे थे कि अभिनेता मोतीलाल (जो उनके रिश्तेदार भी थे) की नज़र उन पर पड़ी और वो उन्हें मुंबई ले आए। इससे ये बात तो साफ हो जाती है कि अगर आपमें हुनर और इच्छा शक्ति है तो परवरदिगार आपको आगे का रास्ता दिखाने के लिए मौका जरूर देते हैं और इन कलाकारों ने उन मौकों का पूरा फ़ायदा उठाते हुए फिल्म संगीत जगत में अपनी अमिट पहचान बना ली।

तो लौटते हैं रात और दिन के इस गीत पर।  गीत का मुखड़ा हो या कोई भी अंतरा , हसरत कितने सहज शब्दों में नायक की व्यथा को व्यक्त कर देते हैं और फिर मुकेश की आवाज़ ऐसे गीतों के लिए ही बनी जान पड़ती है।   आप इस गीत को सुनकर क्या महसूस करते हैं ये तो मैं नहीं जानता पर रात और दिन के इस गीत को मैं जब भी सुनता हूँ पता नहीं क्यूँ बिना बात के आँखे नम हो जाती हैं। गीत का नैराश्य मुझे भी शायद अपने मूड में जकड़ लेता है। मन अनमना सा हो जाता है।



रात और दिन दीया जले
मेरे मन में, फिर भी अँधियारा है
जाने कहाँ, है वो साथी
तू जो मिले जीवन उजियारा है
रात और दिन.....

पग-पग मन मेरा ठोकर खाए
चाँद सूरज भी राह न दिखाए
ऐसा उजाला कोई मन में समाए
जिससे पिया का दर्शन मिल जाए
रात और दिन.....

गहरा ये भेद कोई मुझको बताए
किसने किया है मुझ पर अन्याय
जिसका हो दीप वो सुख नहीं पाए
ज्योत दीये की दूजे घर को सजाए
रात और दिन....

खुद नहीं जानूँ, ढूँढे किसको नज़र
कौन दिशा है मेरे मन की डगर
कितना अजब ये दिल का सफ़र
नदिया में आए जाए, जैसे लहर

गुरुवार, अगस्त 27, 2009

मेरे महबूब, मेरे दोस्त नहीं ये भी नहीं, मेरी बेबाक तबियत का तकाज़ा है कुछ और...

पिछली बार मैंने बात की थी मुकेश की गाई ग़ज़ल जरा सी बात पे हर रस्म... की। आज उसी एलबम की वो नज़्म पेश है जिसकी खोज करते करते आखिरकार इस कैसेट तक पहुँच पाया था। तब मैं इंटर में था । ग़ज़लों में दिलचस्पी जब से बढ़ी थी, विविध भारती का एक कार्यक्रम मेरी रोज़ की दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया था। वो कार्यक्रम था रंग तरंग जो उस ज़माने में दिन के साढ़े बारह बजे आता था। और ऍसी ही एक दुपहरी में ट्रांजिस्टर आन करने के बाद दूसरे कमरे से मुकेश की आवाज़ में ये पंक्तियाँ सुनी तो मन ठिठक सा गया था...

ना जाने क्यूँ ये पंक्तियाँ दिल में, पूरी नज़्म से पृथक अपना एक अलग अस्तित्व ही बना गईं। और बरसों बाद भी जब-जब वक़्त ने , जिंदगी के मुकाम पर अकेला छोड़ा तो मैंने खुद को अपने आप से यही कहते पाया।

मेरे महबूब, मेरे दोस्त नहीं ये भी नहीं
मेरी बेबाक तबियत का तकाज़ा है कुछ और..


और शायद उसी कुछ और की तालाश आज भी बदस्तूर ज़ारी है...

इस नज़्म को लिखने वाले थे शौकत जयपुरी साहब जिनके बारे में मुझे कोई खास जानकारी नहीं है सिवाए इस बात के कि वे अठारहवीं शताब्दी के अंत में ये उर्दू शायरी के क्षितिज पर चमके। १९१६ में शौकत साहब का इंतकाल हुआ। पर कमाल देखें कि उनकें गुज़रने के ४०-५० साल बाद, उनकी शायरी को मुकेश के आलावा तलत महमूद और मन्ना डे साहब सरीखे महान गायकों ने अपनी आवाज़ दी। ये नज़्म १९६८ में मुरली मनोहर स्वरूप के संगीत निर्देशन में संगीतबद्ध की गई। तबले की हल्की-हल्की थाप के साथ बाकी साज संयोजन कुछ इस तरह किया गया कि श्रोता का ध्यान इस नज़्म के बोलों से भटके नहीं।

तो पेश है ये नज़्म मेरे अनुवाद की कोशिश के साथ





आशिकों के लिए तो वैसे भी सौ ख़ून माफ हैं और एकबार जब समाज ने आशिक का तमगा दे ही दिया तो फिर कौन रोक सकेगा उसे मचलने से। अरे इश्क में वो ताकत है कि वो अपने से दूर कर दिए हुस्न को भी अपनी और खींच सकता है। राह में काँटें तो क्या अंगारे भी बिछा दें तो भी वो उसपे हँसते-हँसते चल सकता है। पर क्या इस निष्ठुर दुनिया के तौर तरीकों को सहना जरूरी है? नहीं मेरे दोस्त, मेरे प्रिय मेरे मन को ये मंज़ूर नहीं।

हाँ मैं दीवाना हूँ, चाहूँ तो मचल सकता हूँ
ख़िलवत-ए-हुस्न के कानून बदल सकता हूँ
ख़ार तो ख़ार है, अंगारों पे चल सकता हूँ

मेरे महबूब, मेरे दोस्त नहीं ये भी नहीं
मेरी बेबाक तबियत का तकाज़ा है कुछ और..


क्या मैं इस जालिम दुनिया को अपनी अंतरात्मा की आवाज़ अनसुनी कर अपने अक्स को दबाता चला जाऊँ। अपनी तमन्नाओं का गला घोंट, उन्हें वैसे ही बिखर जाने दूँ जैसे तुम्हारी ये हसीन जुल्फ़ें हवा की मार से सर से सीने तक बिखर जाती हैं।नहीं मेरे दोस्त, मेरे हमदम ये मुझे गवारा नहीं...

इसी रफ़्तार से, दुनिया को गुजर जाने दूँ
दिल में घुट घुट कर तमन्नाओं को मर जाने दूँ
तेरी जुल्फ़ों को सर-ए-तोश बिखर जाने दूँ

मेरे महबूब, मेरे दोस्त नहीं ये भी नहीं
मेरी बेबाक तबियत का तकाज़ा है कुछ और..



मेरा दिल करता है कि बुजुर्गियत ओढ़े इन बड़े लोगों का अहंकार को छिन्न भिन्न कर दूँ। तोड़् दूँ इस दुश्मन दुनिया के फैलाए हुए आतंक के इस घेरे को। अगर ऍसा करने से सत्ता के मद में चूर इन सामाजिक कीटाणुओं का ख़ून भी बहता है तो मुझे इसकी कोई परवाह नहीं। आखिरकार ये सूरत-ए-हाल इन्हीं लोगों की वज़ह से है। और एक सच्चे आशिक का धर्म भी यही कहता है कि अपने महबूब तक पहुँचने के लिए समाज के ठेकेदारों के बनाए भेदभाव पूर्ण दीवार को भी तोड़ना पड़े तो वही सही...


एक दिन छीन लूँ मैं अज़मत ए बातिल का जुनूँ
तोड़ दूँ, तोड़ दूँ मैं शौकत-ए-दुनिया का फ़सूँ
और बह जाए यहीं नफ़्स ए ज़रोसीम का ख़ून
गैरत-ए-इश्क को मंज़ूर तमाशा है यही
मेरी फ़ितरत का मेरे दोस्त तक़ाजा है यही

सोमवार, जून 08, 2009

सजन रे झूठ मत बोलो..: कैसे रचा शैलेंद्र ने इस नायाब गीत को ?

तीसरी कसम के गीतों की इस श्रृंखला में मेरी पसंद का तीसरा गीत वो है जो अक्सर पिताजी के मुख से बचपन में सुना करता था। मुझे याद हे कि गीत के बोल इतने सरल थे कि बड़ी आसानी से पिताजी से सुन सुन कर ही मुखड़ा और पहला अंतरा याद हो गया था। उस वक्त तो इस गीत से पापा हमें झूठ ना बोलने की शिक्षा दिया करते थे। आज इतने सालों बाद जब यही गीत फिर से सुनाई देता है तो दो बातें सीधे हृदय में लगती हैं। पहली तो ये कि हिंदी फिल्मों में फिलॉसफिकल गीत आजकल नाममात्र ही सुनने को मिलते हैं और दूसरी ये कि गीतकार शैलेन्द्र ने जिस सहजता के साथ जीवन के सत्य को अपनी पंक्तियों में चित्रित किया है उसकी मिसाल मिल पाना मुश्किल है। अब इन पंक्तियों ही को देखें

लड़कपन खेल में खोया,
जवानी नींद भर सोया
बुढ़ापा देख कर रोया
बुढ़ापा देख कर रोया, वही किस्सा पुराना है
बड़े बड़े ज्ञानी महात्मा जिस बात को भक्तों को प्रवचन, शिविरों में समझाते रहे हैं वो कितनी सरलता से शैलेंद्र ने अपने इस गीत की चंद पंक्तियों में समझा दी। चलिए ज़रा कोशिश करें ये जानने कि शैलेंद्र के मन में ऍसा बेहतरीन गीत कैसे पनपा होगा?

शैलेंद्र की उस वक़्त की मानसिक स्थिति के बारे में उनके मित्र फिल्म पत्रकार रामकृष्ण लिखते हैं

वो उन दिनों के किस्से सुनाता... जब परेल मजदूर बस्ती के धुएँ और सीलन से भरी गंदी कोठरी में अपने बाल बच्चों को लेकर वह आने वाली जिन्दगी के सपने देखा करता था और इन दिनों के किस्से जब रिमझिम जैसे शानदार मकान और आस्टिन-कैम्ब्रिज जैसी लंबी गाड़ी का स्वामी होने के बावजूद अपने रीते लमहों की आग उसे शराब की प्यालियों से बुझानी पड़ती।
शैलेंद्र कहा करता...उन दिनों की याद, रामकृष्ण, सच ही भूल नहीं पाता हूं मैं। मानसिक शांति का संबंध, लगता है, धनदौलत और ऐशोआराम के साथ बिलकुल नहीं है, ऐसी बात न होती तो आज मुझे वह सुकून, वह चैन क्यों नहीं मिल पाता आखिर जो उस हालत में मुझे आसानी से नसीब था-आज, जब मेरे पास वह सब कुछ है जिसकी तमन्ना कोई कर सकता है-नाम, इज्जत पैसा... यह सब कहते कहते शैलेंद्र अचानक ही बड़ी गंभीरता के साथ चुप हो जाया करता था और देखने लगता था मेरी आँखों की ओर, जैसे उसके सवालों का जवाब शायद वहां से उसे मिल सकें।
वहीं सत्तर के दशक में विविध भारती से फौजी भाइयों के लिए प्रसारित जयमाला कार्यक्रम में इस गीत को सुनाने के पहले में संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन वाले शंकर ने शैलेन्द्र के बारे में कहा था

सच्ची और खरी बात कहना और सुनना शैलेन्द्र को अच्छा लगता था। कई बार गीत के बोलों को लेकर हम खूब झगड़ते थे, लेकिन गीत की बात जहाँ खत्म होती, फिर वोही घी-शक्कर.. शैलेन्द्र एक सीधा सच्चा आदमी था, झूठ से उसे नफ़रत थी क्यूँकि उसका विश्वास था, 'ख़ुदा के पास जाना है'
अब शैलेन्द्र के बारे में शंकर ने सही कहा ये गलत इस पर तो पर हम बाद में चर्चा
करेंगे पर पहले सुनिए ये गीत..

 

सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है
न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है

तुम्हारे महल चौबारे, यहीं रह जाएँगे सारे
अकड़ किस बात कि प्यारे
अकड़ किस बात कि प्यारे, ये सर फिर भी झुकाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है


भला कीजै भला होगा, बुरा कीजै बुरा होगा
बही लिख लिख के क्या होगा
बही लिख लिख के क्या होगा, यहीं सब कुछ चुकाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है...

लड़कपन खेल में खोया,
जवानी नींद भर सोया
बुढ़ापा देख कर रोया
बुढ़ापा देख कर रोया, वही किस्सा पुराना है

सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है
न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है...



और इससे पहले की इस श्रृंखला का समापन करूँ कुछ और बातें गीतकार शैलेंद्र के बारे में। शैलेंद्र की फिल्म तीसरी कसम बुरी तरह फ्लॉप हुई और लोगों का मानना है कि वो इस फिल्म के असफल होने का आघात नहीं सह पाए थे। पर आपको ये भी बताना मुनासिब रहेगा कि शैलेंद्र मँहगी शराब के बेहद शौकीन थे और इस वज़ह से उनका स्वास्थ दिनों दिन वैसे भी गिरता जा रहा था।
नेट पर विचरण करते हुए मुझे उनके मित्र और फिल्म पत्रकार रहे रामकृष्ण का आलेख मिला जो शैलेंद्र के व्यक्तित्व की कई कमियों को उजागर करता है। मिसाल के तौर पर हर रात शराब के नशे में धुत रहना, अपनी आलोचना को बर्दाश्त ना कर पाना, अपने स्वार्थ के लिए मित्रों में फूट डालना और यहाँ तक कि अपने पक्ष में पत्र पत्रिकाओं में लेख छपवाने के लिए पैसे देना। अगर आप गीतकार शैलेंद्र के बारे में रुचि रखते हैं तो ये लेखमाला 'गुनाहे बेलात 'अवश्य पढ़ें।
ये कुछ ऍसी बाते हैं जो शायद प्रतिस्पर्धात्मक फिल्म इंडस्ट्री के बहुतेरे कलाकारों में पाई जाती हों। पर इससे यह स्पष्ट है कि बतौर कलाकार हम क्या सृजन करते हैं और वास्तविक जिंदगी में हम कैसा व्यवहार करते हैं इसमें जरूरी नहीं कि साम्य रहे।
जैसा कि मैंने इस श्रृंखला की पहली पोस्ट में कहा कि तीसरी कसम के अन्य सभी गीत भी अव्वल दर्जे के है। पिछली पोस्ट में आप में से कुछ ने तीसरी कसम के अन्य गीतों को भी पेश करने की इच्छा ज़ाहिर की थी। शीघ्र ही उन्हें आपके सामने संकलित रूप से पेश करता हूँ।

मंगलवार, जून 02, 2009

सजनवा बैरी हो गए हमार :.लोकगीत सी मिठास लिए हुए एक उदास करता नग्मा..

पिछली पोस्ट में मैंने जिक्र किया था कि तीसरी कसम के तीन गीत मुझे विशेष तौर पर प्रिय हैं। आशा जी के मस्ती से भरे गीत के बाद आज बात करते हैं इस फिल्म में मुकेश के गाए हुए मेरे दो प्रिय गीतों में से एक की। तीसरी कसम में बतौर नायक राज कपूर के अलग से रोल में थे। मैंने दूरदर्शन की बदौलत राज कपूर की अधिकांश फिल्में देखी हैं। बतौर अभिनेता वे मुझे औसत दर्जे के कलाकार ही लगते रहे पर तीसरी कसम में गाड़ीवान का उनका किरदार मुझे बेहद प्यारा लगा था और जीभ काटकर इस फिल्म में उनके द्वारा बोले जाने वाले उस इस्स........ को तो मैं आज तक भूल नहीं पाया।

राजकपूर ने जहाँ गाड़ीवान के किरदार हीरामन को बेहतरीन तरीके से निभाया वहीं उनकी आवाज़ कहे जाने वाले गायक मुकेश ने भी उन पर फिल्माए गीतों में अपनी बेहतरीन गायिकी की बदौलत जान फूँक दी। उनसे जुड़े एक लेख में मैंने पढ़ा था कि मुकेश ने अपने मित्रों को ख़ुद ही बताया था कि जब शैलेंद्र ‘तीसरी कसम’ बना रहे थे तब उन्होंने राजकपूर अभिनीत गीतों की आत्मा में उतरने के लिए फ़णीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम’ को कई बार पढ़ा था। ये बात स्पष्ट करती है कि उस ज़माने के गायक गीत में सही प्रभाव पैदा करने के लिए कितनी मेहनत करते थे।

अब सजनवा बैरी हो गए हमार की ही बात करें। शैलेंद्र ने इस गीत की परिपाटी लोकगीतों के ताने बाने में बुनी है। पिया के परदेश जाने और वहाँ जा कर अपने प्रेम को भूल जाने की बात बहुतुरे लोकगीतों की मूल भावना रही है। शैलेंद्र के बोल और मुकेश की आवाज़ विरहणी की पीड़ा को इस पुरज़ोर तरीके से हमारे सामने लाते हैं कि सुनने वाले की आँखें आद्र हुए बिना नहीं रह पातीं। और शंकर जयकिशन का संगीत देखिए सिर्फ उतना भर जितनी की जरूरत है। जब मुकेश गा रहे होते हैं तो सिर्फ और सिर्फ उनकी आवाज़ कानों से टकराती है और दो अंतरे के बीच दिया गया संगीत बोलों के प्रभाव को गहरा करते चलता है।

शायद इसीलिए ये गीत मुझे इस फिल्म का सर्वप्रिय गीत लगता है। तो पहले सुनिए इस गीत को गुनगुनाने का मेरा प्रयास..


सजनवा बैरी हो गए हमार
चिठिया हो तो हर कोई बाँचे
भाग ना बाँचे कोए
करमवा बैरी हो गए हमार

जाए बसे परदेश सजनवा, सौतन के भरमाए
ना संदेश ना कोई खबरिया, रुत आए, रुत जाए
डूब गए हम बीच भँवर में
कर के सोलह पार, सजनवा बैरी हो गए हमार

सूनी सेज गोद मेरी सूनी मर्म मा जाने कोए
छटपट तड़पे प्रीत बेचारी, ममता आँसू रोए
ना कोई इस पार हमारा ना कोई उस पार
सजनवा बैरी हो गए हमार...

तो आइए सुनें और देखें मुकेश के गाए इस गीत को

और हाँ एक रोचक तथ्य ये भी है कि जिस गाड़ी में राज कपूर और वहीदा जी पर ये गीत फिल्माया गया वो गाड़ी रेणु जी की खुद की थी और वो आज भी उनके भांजे के पास यादगार स्वरूप सुरक्षित है।

 
अगली बार बात उस गीत की जिसे मैंने इस फिल्म देखने के बहुत पहले अपने पापा के मुँह से सुना था और जो आज भी वक़्त बेवक़्त जिंदगी की राहों में आते प्रश्नचिन्हों को सुलझाने में मेरी मदद करता आया है...

गुरुवार, अक्टूबर 04, 2007

मुकेश की आवाज में जाँ निसार अख्तर का कलाम : जरा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था...

लमहा लमहा तेरी यादें जो चमक उठती हैं
ऐसा लगता है कि उड़ते हुए पल जलते हैं
मेरे ख़्वाबों में कोई लाश उभर आती है
बंद आँखों में कई ताजमहल जलते हैं...

जाँ निसार अख्तर





जो जल गया वो तो राख राख ही हुआ चाहता है।
कहाँ रही संबंधों में ताजमहल की शीतल सी मुलायमियत ?
अब तो धुएँ की लकीर के साथ है तो बस राख का खुरदरापन।
गुज़रे व़क्त की छोटी छोटी बातें दिल में नासूर सा बना गई और वो ज़ख्म रिस रिस कर अब फूट ही गया।
जलते रिश्तों का धुआँ आँखों मे तो बस जलन ही पैदा कर रहा है ना।
अब शायर अफ़सोस करे तो करता रहे...कुछ बातें बदल नहीं सकतीं
क्या सही था क्या गलत ये सोचने का वक़्त जा चुका है
फिर भी कमबख़्त यादें हैं कि पीछा नहीं छोड़तीं..
ऐसे सवाल करती हैं जिनका जवाब देना अब आसान नहीं रह गया है...


तो आइए सुने इन्हीं ज़ज़्बातों को उभारती मुकेश की आवाज में जावेद अख्तर के वालिद जाँ निसार अख्तर की ये ग़ज़ल। इस ग़जल की धुन बनाई थी खय्याम साहब ने।



जरा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था

दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था


मुआफ़ कर ना सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को
वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था
*शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था

गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-**शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था

पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था
*विकसित, खिला हुआ, ** चिनगारी


मुकेश की ये बेहतरीन ग़जल HMV के कैसेट(STHVS 852512) और अब सीडी में भी मौजूद है। सोलह गैर फिल्मी नग्मों और ग़ज़लों में चार जाँ निसार अख्तर साहब की हैं। चलते-चलते पेश है इस एलबम में शामिल उनकी लिखी ये खूबसूरत ग़जल जो सुनने से ज़्यादा पढ़ने में आनंद देती है। इस ग़ज़ल के शेरों की सादगी और रूमानियत देख दिल वाह वाह कर उठता है।

अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिये हैं

कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिये हैं


अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिये हैं

आँखों में जो भर लोगे तो कांटों से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिये हैं

देखूँ तेरे हाथों को तो लगता है तेरे हाथ
मंदिर में फ़क़त दीप जलाने के लिये हैं

सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिये हैं

ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिये हैं

जाँ निसार अख्तर की रचनाएँ आप 'कविता कोश' में यहाँ पढ़ सकते हैं
जिन्हें मुकेश की आवाज़ बेहद पसंद है उन्हे ये एलबम जरूर पसंद आएगा। अगली पोस्ट में इसी एलबम की एक और ग़ज़ल के साथ लौटूँगा जिसकी वजह से वर्षों पहले मैंने ये कैसेट खरीदी थी।
 

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