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शुक्रवार, जुलाई 31, 2009

आँखे लड़ाने से परहेज़ तो नहीं तो सुनिए ना : ऐ हुस्न - ए- लालाफ़ाम ज़रा आँख तो मिला !

पिछली पोस्ट में मैंने जिक्र छेड़ा था एक ऍसी ग़ज़ल का जिसे मेरे लिए यादगार बनाने का श्रेय गुलाम अली से ज्यादा अभिजीत सावंत को जाता है। पर आज की ये बेहद रूमानी ग़ज़ल, गुलाम अली की गाई मेरी पसंदीदा ग़ज़लों में से एक है। जब भी इसे सुनता हूँ मूड में रंगीनियत खुद-ब-खुद समा जाती है।

सबसे पहले इस ग़ज़ल को सुनने का मौका १९९६ में मिला था जब मैं रुड़की विश्वविद्यालय के छात्रावास में रहा करता था। शीघ्र ही मैंने इसे एक ब्लैंक कैसेट में रिकार्ड कर सुरक्षित कर लिया था। कुछ सालों तक तो ये ग़ज़ल बारहा सुनी गई और फिर सीडी युग आते ही बाकी कैसटों की तरह कहीं कोने में दुबक गई। करीब दो साल पहले जब IIT Mumbai का अपना चक्कर लगा तो विकास ने मुलाक़ात के दौरान बताया कि अगर आपको किसी खास ग़ज़ल की तलाश हो तो वो IIT Mumbai के LAN (Local Area Network) पर आसानी से मिल जाएगी और तब मैंने इस ग़ज़ल की गुहार लगाई और थोड़ी ही देर की सर्च के बाद विकास ने ये ग़ज़ल सामने हाज़िर कर दी।

तो चलें अब इस ग़ज़ल के सुनें गुलाम अली की आवाज़ में। गुलाम अली साहब मतले की शुरुआत कुछ यूँ करते हैं..




ऐ हुस्न ए लालाफ़ाम ज़रा आँख तो मिला
खाली पड़े हैं जाम ज़रा आँख तो मिला

वैसे तो सच बताऊँ जनाब तो 'जाम' से अपना रिश्ता दूर-दूर तक का नहीं है पर अगर चेहरे पर प्यारी सी लाली लिए कोई सुंदरी अपने नयनों से नयन लड़ाए तो कुछ मदहोशी तो दिल पर छाएगी ना! वैसे भी शायर की चले तो आँखें लड़ाना भी भक्ति का एक रूप हो जाए। अब यही शेर देखिए...

कहते हैं आँख आँख से मिलना है बंदगी
दुनिया के छोड़ काम ज़रा आँख तो मिला

बिल्कुल जी हम तो तैयार हैं बस बॉस को बगल की केबिन से हटवा दीजिए और एक बाला सामने की टेबुल पर विराजमान करवा दीजिए फिर देखिए हमारा भक्ति भाव :)

क्या वो ना आज आएँगे तारों के साथ साथ
तनहाइयों की शाम ज़रा आँख तो मिला

हम्म गर वो चाँद जैसे होंगे तो जरूर आएँगे तारों के साथ वर्ना तो ऍसी परियों के साथ अक्सर उनके अमावसी मित्र ही होते हैं जो आशिकों को अपनी शाम, ग़म और तनहाई में बिताने पे मज़बूर कर देते हैं!

साकी मुझे भी चाहिए इक जाम ए आरज़ू
कितने लगेंगे दाम ज़रा आँख तो मिला


उफ्फ ये तो जुलुम है भाई आँखों पर...आँखों से मन की आरज़ू तो पढ़ने की तो बात सुनी थी पर शायर सागर तो आँखों से ही भावनाओं का मोल पूछना चाहते हैं !

है राह ए कहकशाँ में अज़ल से खड़े हुए
सागर तेरे गुलाम ज़रा आँख तो मिला


बताइए सागर साहब ने तो जिंदगी भर की प्रतीक्षा कर ली इस आकाशगंगा को निहारते निहारते और वो हैं कि इतनी गुलामी के बाद भी नैनों का इक़रारनामा नहीं दे रहीं। पुराने ज़माने के लोगों की बात ही अलग थी। ग़ज़ब का धैर्य था लोगों के पास और आज...!

गुलाम अली अपनी गायिकी और बोलों की बदौलता माहौल में रूमानियत तो लाते ही हैं, साथ ही संगीत संयोजन भी मन को आकर्षित करता है। ग़ज़ल, तबले की थाप और बांसुरी की तान के बीच से निकलती हुई निखरती चली जाती है इस तरह कि मन खुद गुनगुनाने को करने लगता है..




ये ग़ज़ल गुलाम अली के एलबम Immortal Ghazals का हिस्सा है और नेट पर यहाँ और यहाँ उपलब्ध है।

सोमवार, जुलाई 27, 2009

रुक गया आँख से बहता हुआ दरिया कैसे : एक ग़ज़ल दो आवाज़ें..दूसरी आवाज़ थी अभिजीत सावंत की !

कुछ ग़ज़लें खास होती हैं कुछ उन्हें गाने वाले खास बना देते हैं और अक्सर ऐसा जो कलाकार कर पाते हैं उन्हें हम महान गायकों की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। पर आज जिस ग़ज़ल का जिक्र करना चाहता हूँ उसके बारे में मेरा अनुभव कुछ उल्टा रहा। यानि इस ग़ज़ल को मेरे लिए खास बनाया एक ऐसे कलाकार ने जो ग़ज़ल गायिकी के लिए नहीं जाना जाता।

यूँ तो गुलाम अली की तमाम ग़ज़लें मुझे बेहद पसंद हैं पर जब कृष्ण बिहारी नूर की लिखी ये ग़ज़ल उनकी आवाज़ में सुनी थी तो मुझे ये ग़ज़ल सुनने में कुछ खास मज़ा नहीं आया था। हाँ, नूर साहब का एक शेर जरूर बेहद पसंद आया था

हर घड़ी तेरे ख़यालों में घिरा रहता हूँ
मिलना चाहूँ तो मिलूँ ख़ुद से मैं तनहा कैसे


जो उस वक़्त दिमाग में चढ़ सा गया था। इस बात को बरसों बीत गए और फिर एक दिन टीवी पर एक कार्यक्रम में इसी ग़ज़ल को मैंने एक नवोदित गायक को गाते सुना। उस गायक ने ग़जल का मतला और सामान्य सा लगने वाला एक शेर इस तरह दिल से डूब कर गाया कि मैं इस भूली हुई ग़ज़ल को एक दूसरे ही अंदाज़ से महसूस करने लगा।

बस मलाल इस बात का ही रहा कि बंदे ने उस कार्यक्रम में ये ग़ज़ल पूरी नहीं सुनाई। बाद में बहुत खोजबीन करने पर मुझे उस टीवी रिकार्डिंग के कुछ टुकड़े मिले जिसे मैं जोड़ कर करीब डेढ़ पौने दो मिनट की एक फाइल बना सका। आज भी उदास लमहों में इस ग़ज़ल का ये छोटा सा हिस्सा मैं अक्सर सुना करता हूँ। आज यही हिस्सा आप के साथ भी बाँट रहा हूँ।

तो पहले सुनिए नूर साहब की ये मशहूर ग़ज़ल जनाब गुलाम अली के स्वर में। वैसे कहीं ये भी पढ़ा था की इस ग़ज़ल को उस्ताद असलम खाँ ने भी अपनी आवाज़ दी है।
रुक गया आँख से बहता हुआ दरिया कैसे
ग़म का तूफ़ाँ तो बहुत तेज़ था ठहरा कैसे

मुझको ख़ुद पर भी भरोसा नहीं होने पाता
लोग कर लेते हैं ग़ैरों पे भरोसा कैसे

हर घड़ी तेरे ख़यालों में घिरा रहता हूँ
मिलना चाहूँ तो मिलूँ ख़ुद से मैं तनहा कैसे

और भी अहल-ए-खिरद अहल-ए-जुनूँ थे मौजूद
लुट गये हम ही तेरी बज़्म में तनहा कैसे



और ये है यू ट्यूब पर इसी ग़ज़ल का आडिओ वर्सन...



और अब सुनिए बिना किसी संगीत के इस ग़ज़ल के टुकड़े को। ये कलाकार टीवी पर संगीत के कार्यक्रमों की बदौलत कुछ फिल्मों और एलबमों के लिए गाना गा चुका है। अब आपको ही बताना है इस गायक का नाम। रिकार्डिंग गुणवत्ता अच्छी नहीं है और श्रोताओं का बिना मतलब का शोर भी आपको झेलना पड़ेगा ये पहले ही बता देता हूँ पर फिर भी ये टुकड़ा गायिकी के लिहाज़ से आपको भी आनंदित करेगा ऐसी उम्मीद है।




और ये रहा जवाब !

ये रिकार्डिंग थी पिछले साल १२ जुलाई २००८ को स्टार प्लस पर प्रसारित जो जीता वही सुपरस्टार के मेगा फाइनल की । इस प्रतियोगिता में विभिन्न संगीत कार्यक्रमों सा रे गा मा, इंडियन आइडल और वॉयस आफ इंडिया के पिछले दो सालों के विजेताओं को बुलाया गया था। फाइनल में मुकाबला था अभिजीत सावंत, राहुल वैद्य और हर्षित के बीच में। और उसी कार्यक्रम में ये ग़ज़ल इतनी खूबसूरती से गुनगुनाई थी अभिजीत सावंत ने।



जैसा कि आपको मालूम है अभिजीत का सबसे चर्चित एलबम 'जुनून' रहा था। पहले इंडियन आइडल के विजेता रहे अभिजीत ने हाल ही में बतौर हीरो 'लॉटरी' फिल्म में काम किया था। जो जीता वही सुपरस्टार में अभिजीत राहुल वैद्य से खिताबी मुकाबला हार कर दूसरे नंबर पर रहे थे।

आप लोगों ने कई अनुमान लगाए पर अल्पना वर्मा जी ने दूसरे प्रयास में अभिजीत का नाम लिया। अल्पना जी को सही जवाब देने के लिए बधाई और आप सब को अनुमान लगाने के लिए।

सोमवार, अक्टूबर 13, 2008

इतनी मुद्दत बाद मिले हो, किन सोचों में गुम रहते हो : दिलराज कौर और गुलाम अली की आवाज़ों में

पिछले हफ़्ते भर मैं अपने चिट्ठे से दूर उड़ीसा के कस्बों और जंगलों में यायावरी करता रहा । सफ़र के दौरान नौका पर लेटे लेटे आसमान की ओर नज़रें डालीं तो ये आधा अधूरा चाँद मुझको ताकता दिखा और बरबस जनाब मोहसीन नक़वी की ये पंक्तियाँ याद आ गईं

बिछुड़ के मुझ से कभी तूने ये भी सोचा है
अधूरा चाँद भी कितना उदास लगता है

चिट्ठे से अपना विरह आज समाप्त हुआ तो दिल हुआ कि क्यूँ ना मोहसीन नक़वी साहब की ये प्यारी ग़ज़ल आप सबको सुनवाई जाए। ये ग़ज़ल गुलाम अली साहब की उस एलबम का हिस्सा थी जिसने उन्हें भारत में ग़ज़ल गायिकी के क्षेत्र में मकबूलियत दिलवाई। अब हंगामा है क्यूँ बरपा, आवारगी और इतनी मुद्दत बाद मिले हो जैसी मशहूर ग़ज़लों को कौन भूल सकता है। 'आवारगी' लिखने वाले भी मोहसीन ही थे।

पर कभी-कभी सीधे सहज शब्द ज्यादा तेजी से असर करते हैं। शायद यही वज़ह रही कि बीस बाईस साल पहले गुलाम अली की ये ग़ज़ल ऐसी दिल में बसी कि फिर कभी नहीं निकल सकी।
इतनी मुद्दत बाद मिले हो
किन सोचों में गुम रहते हो

तेज़ हवा ने मुझसे पूछा,
रेत पे क्या लिखते रहते हो

हमसे न पूछो हिज्र के किस्से
अपनी कहो, अब तुम कैसे हो

कौन सी बात है तुम में ऐसी
इतने अच्छे क्यों लगते हो


पर आज इसे मैं आपको गुलाम अली साहब की आवाज़ के साथ साथ दिलराज कौर की आवाज में भी सुना रहा हूँ। जहाँ गुलाम अली ने इस ग़ज़ल में शब्दों के उतार चढ़ाव को अपनी गायिकी के हुनर के ज़रिए कई नमूनों में पेश किया है वहीं दिलराज कौर ने सीधे तरीके से इस ग़ज़ल को अपनी खूबसूरत आवाज़ से सँवारा है। तो पहले सुनिए दिलराज कौर की दिलकश अदाएगी..

<bgsound src="ItniMuddatBaadMileHo-DilrajKaur.wma">


गुलाम अली इस ग़ज़ल को गाते समय कहते हैं जैसे लफ्ज़ इज़ाजत दें वैसे ही सुर लगाने की कोशिश कर रहा हूँ तो सुनिए उनका अपना अलग सा अंदाज़...


वैसे आप बताएँ कि इनमें से ग़ज़ल गायिकी का कौन सा तरीका आपको ज्यादा पसंद आया ?

मंगलवार, दिसंबर 11, 2007

ये आलम शौक़ का देखा न जाए , वो बुत है या ख़ुदा देखा न जाए

अहमद फ़राज पाकिस्तान के मशहूर और मक़बूल शायरों में से एक हैं जिन्हें भारत में भी उतने ही चाव से पढ़ा जाता है। आज पेश है उनकी लिखी एक ग़ज़ल जिसे फ़राज ने खुद भी अपनी पसंदीदा माना है। इसे मैंने पहली बार १९८७ में सुना था और एक बार सुनकर ही इसकी खूबसूरती मन को भा गई थी। ऊपर से गुलाम अली की गायिकी और हर शेर के बाद की तबले की मधुर थाप पर मन वाह-वाह कर उठा था। पर जिस कैसेट में ये ग़ज़ल थी उसमें इसके कुल चार ही शेर थे। बहुत दिनों से पूरी ग़ज़ल की तलाश में था, वो आज भटकते भटकते इंटरनेट पर मिली। लीजिए अब आप भी इसका लुत्फ उठाइए।



ये आलम शौक़ का देखा न जाये
वो बुत है या ख़ुदा देखा न जाये

ये किन नज़रों से तुमने आज देखा
कि तेरा देखना देखा न जाये


हमेशा के लिये मुझसे बिछड़ जा
ये मंज़र बारहा देखा न जाये


ग़लत है जो सुना पर आज़मा कर
तुझे ऐ बा-वफ़ा देखा न जाये

यही तो आशनां बनते हैं आखिर
कोई ना आशनां देखा ना जाए

ये महरूमी नहीं पस-ए-वफ़ा है
कोई तेरे सिवा देखा न जाये

'फ़राज़' अपने सिवा है कौन तेरा
तुझे तुझसे जुदा देखा न जाये


वैसे गुलाम अली साहब के आलावा पाकिस्तानी गायिका ताहिरा सैयद ने भी इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ दी है जिसे अर्सा पहले एक पाक फीचर फिल्म में भी शामिल किया गया था। ये वही ताहिरा सैयद हैं जिनकी गाई एक बेहतरीन ग़ज़ल "बादबां खुलने के पहले का इशारा देखना" मैंने परवीन शाकिर वाली पोस्ट में पेश की थी।



इन दोनों रूपों में मुझे तो गुलाम अली वाला वर्सन हमेशा से ज्यादा रुचिकर लगा। अब आप बताएँ आपकी राय क्या है?

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गुलाम अली की गाई ग़ज़ल हमने हसरतों के दाग से संबंधित मेरी पिछली प्रविष्टि आप यहाँ देख सकते हैं।

सोमवार, नवंबर 05, 2007

हमने हसरतों के दाग आँसुओं से धो लिए:सुनिए गुलाम अली की गाई ये ग़ज़ल

जिंदगी में कितनी बार ऍसा होता है कि आप अपने मित्र से रूठ जाते हैं। बात चीत बंद हो जाती है। आप सोचते हैं कि इस बार मैं नहीं बोलने वाला। उसे ही मुझे मनाना होगा। पर फिर एक दिन अनायास ही सब पहले जैसा हो जाता है, झुकता कोई एक है पर खुशी दोनों को होती है।

मेरे एक मित्र हैं जो बताते हैं कि कुछ ऍसा ही मसला उनके साथ कॉलेज के ज़माने में पेश आया था। अब बात कॉलेज की है तो आप समझ ही रहे होंगे कि ये दोस्ती किस तरह की थी। सब कुछ सही चल रहा था कि इन्होंने कुछ कह दिया और उधर मुँह ऍसा फूला कि लोगों ने होठ ना हिलाने की कसम खा ली। अब ये संवादहीनता की स्थिति कब तक बर्दाश्त हो पाती?

पर क्या करें जनाब ....बहुत उपाय सोचे गए और अंत में एक दिन आनन फानन में ये गुलाम अली की कैसेट खरीदी और दे आए साथ में इस ग़जल का मतला लिख कर...

हमने हसरतों के दाग आँसुओं से धो लिए
आपकी खुशी हुजूर बोलिए ना बोलिए

अब गुलाम अली की आवाज़ कहिए या मतले की गहराई मामला फिर ऍसा चल निकला कि आज तक दौड़ रहा है। :) तो आप के साथ कभी ऍसा हो तो आप भी ये तरकीब अपना सकते हैं।

अब लौटें इस ग़ज़ल पर..वास्तव में ये पूरी ग़ज़ल बड़ी प्यारी है। खासकर पहले दो शेर तो वाकई कमाल के हैं। यक़ीन नहीं आता तो खुद ही सुन लें..

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हमने हसरतों के दाग आँसुओं से धो लिए
आपकी खुशी हुजूर बोलिए ना बोलिए


क्या हसीन ख़ार* थे, जो मेरी निगाह ने
सादगी से बारहा, रूह में चुभो लिए

*काँटे
मौसम-ए-बहार है, अम्बरीन* खुमार है
किसका इंतज़ार है, गेसुओं को खोलिए

*इत्र

जिंदगी का रास्ता काटना तो था अदम*
जाग उठे तो चल दिये, थक गए तो सो लिए

*कठिन
 

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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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