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गुरुवार, दिसंबर 14, 2017

किसे पेश करूँ : जब साहिर ने मदन मोहन के लिए लिखे एक ही रदीफ़ पर तीन नग्मे Kise Pesh Karoon ?

ग़ज़लों को संगीतबद्ध करने में अगर किसी संगीतकार को सबसे ज्यादा महारत हासिल थी तो वो थे मदन मोहन। ग़ज़लों के सानिध्य में वो कैसे आए इसके लिए आपको उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में एक बार झाँकना होगा। मदन मोहन के पिता इराक के पुलिस विभाग में मुनीम थे। बगदाद में ही मदन मोहन का जन्म हुआ। पर जब इराक अंग्रेजों के चंगुल से निकल आजाद हुआ, मदनमोहन का परिवार बगदाद से पहले लाहौर और फिर मुंबई आ कर बस गया। 

मदन मोहन के पिता तो उस वक्त बाम्बे टॉकीज़ में नौकरी करने लगे वहीं मदन मोहन ने पढ़ाई के बाद फौज में जाना मुनासिब समझा। पर संगीत के प्रति बचपन से रुझान रखने वाले मदन मोहन को लगा कि उन्होंने अपने व्यवसाय का गलत चुनाव कर लिया है। लिहाजा फौज की नौकरी से इस्तीफा दे कर उन्होंने संगीत से जुड़कर काम करने के लिए लखनऊ की राह पकड़ी। वो वहाँ आल इंडिया रेडियो  में सहायक संगीत संयोजक का काम करने लगे। यहीं उनकी मुलाकात ग़ज़ल गायिका बेगम अख्तर और उभरते हुए गायक तलत महमूद से हुई। यही वो समय था जब ग़ज़लों को करीब से सुनने व परखने का मौका मदन मोहन को नजदीक से मिला।


यूँ तो एक शाम मेरे नाम पर मदन मोहन की संगीतबद्ध कई ग़ज़लों का जिक्र हो चुका है पर आज आपसे मैं बात करना चाहूँगा 1964 में प्रदर्शित हुई एक ऐसी फिल्म की जिसका नाम ही "ग़ज़ल" था। आगरे की सरज़मी पर रची इस कहानी में गीतों को लिखने का जिम्मा मिला था साहिर लुधियानवी को। मिलता भी ना कैसे? कहानी का नायक ही शायर जो  था। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि एक जैसी बहर, रदीफ़ और काफिये के साथ साहिर ने इस फिल्म में दो ग़ज़लें और एक गीत लिखा। साहिर ने इन तीनों में रदीफ़ के तौर पर "किसे पेश करूँ" का इस्तेमाल किया। पर ये मदन मोहन साहब की कारीगिरी थी कि इन मिलते जुलते गीतों के लिए उन्होंने ऐसी धुन तैयार की वो सुनने में बिल्कुल अलग अलग लगते हैं।

सुनील दत्त और मीना कुमारी द्वारा अभिनीत इस प्रेम कहानी का खाका ये तीनों नग्मे खींचते से चलते हैं। जहाँ नायिका पहली ग़ज़ल में  हमदम की तलाश में अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रही हैं तो दूसरी ग़ज़ल में उनकी गायिकी से प्रभावित होकर शायर महोदय अपने दिल में पैदा हुई हलचल की कहानी पेश कर रहे हैं। वहीं अपनी प्रेमिका से ना मिल पाने की तड़प इसी फिल्म के अन्य गीत रंग और नूर की बारात किसे पैश करूँ..  में नज़र आती है। रंग और नूर की बारात .. तो इस फिल्म का सबसे लोकप्रिय नग्मा रहा पर उसी मीटर में साहिर ने जो दो ग़ज़लें लिखी वो कम खूबसूरत नहीं थीं। तो आइए सुनें इन दोनों ग़ज़लों को लता और रफ़ी की आवाज़ में

नग़्मा-ओ-शेर की सौगात किसे पेश करूँ
ये छलकते हुए जज़्बात किसे पेश करूँ

शोख़ आँखों के उजालों को लुटाऊँ किस पर
मस्त ज़ुल्फ़ों की स्याह रात किसे पेश करूँ

गर्म सांसों में छुपे राज़ बताऊँ किसको
नर्म होठों में दबी बात किसे पेश करूँ

कोइ हमराज़ तो पाऊँ कोई हमदम तो मिले
दिल की धड़कन के इशारात किसे पेश करूँ




साहिर के खूबसूरत बोलों से मुझे सबसे ज्यादा न्याय लता की आवाज़ करती है। वैसे भी लता दी ने मदन मोहन के लिए जो गीत गाए उनकी अदाएगी बेमिसाल रही।

 

इश्क़ की गर्मी-ए-जज़्बात किसे पेश करूँ
ये सुलग़ते हुए दिन-रात किसे पेश करूँ

हुस्न और हुस्न का हर नाज़ है पर्दे में अभी
अपनी नज़रों की शिकायात किसे पेश करूँ

तेरी आवाज़ के जादू ने जगाया है जिन्हें
वो तस्सव्वुर, वो ख़यालात किसे पेश करूँ

ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल, ऐ मेरी ईमान-ए-ग़ज़ल
अब सिवा तेरे ये नग़मात किसे पेश करूँ

कोई हमराज़ तो पाऊँ कोई हमदम तो मिले
दिल की धड़कन के इशारात किसे पेश करूँ

जहाँ तक रंग और नूर की बारात किसे पैश करूँ. का ताल्लुक है तो उस गीत का दर्द रफ़ी की आवाज़ में पूरी ईमानदारी से झलका था।  वैसे इन तीनों में आपको कौन सी ग़ज़ल/ गीत प्यारा लगता है?

गुरुवार, दिसंबर 17, 2015

दिल ढूँढता है फिर वही.. जब रसोई में बनी एक सदाबहार धुन ! Dil Dhoondta Hai..

वो कौन होगा जिसे अपने बीते हुए खुशगवार लम्हों में झाँकना अच्छा नहीं लगता? खाली पलों में अपने नजदीकियों से की गई हँसी ठिठोली, गपशप उस लमहे में तो बस यूँ ही गुजारा हुआ वक़्त लगती है। पर आपने देखा होगा की इस बेतहाशा भागती दौड़ती ज़िदगी के बीच कभी कभी  वो पल अनायास से कौंध उठते हैं। मन पुलकता है और फिर टीसता भी है और हम उन्हीं में घुलते हुए खो से जाते हैं। मन की इसी कैफ़ियत के लिए  बस एक ही गीत ज़ेहन में उभरता है  दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...। ग़ालिब के मिसरे पर गुलज़ार ने जो गीत गढ़ा वो ना जाने कितनी पीढियों तक गुनगुनाए जाएगा। अब देखिए ख़ुद गुलज़ार का क्या कहना है इस बारे में
"मिसरा गालिब का और कैफ़ियत अपनी अपनी। दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन। ये फुर्सत रुकी हुई नहीं है। कोई ठहरी हुई जमी हुई चीज़ नहीं। एक जुंबिश है। एक हरकत करती हुई कैफ़ियत"
(दिल की कैफ़ियत - मनोस्थिति,  जुंबिश  -हिलता डुलता हुआ)

गीत के मुखड़े की बात छोड़ भी दें तो इस गीत के हर अंतरे को आपने जरूर कभी ना कभी जिया होगा या मेरी तरह अभी भी जी रहे होंगे। यही वज़ह है कि जाड़ों की नर्म धूप, गर्मियों में तारों से सजा वो आसमान या फिर दूर जंगल के सन्नाटे में बीती वो खामोश रात जैसे गीत में इस्तेमाल किये गए बिंब मुझे इतने अपने से लगते हैं कि क्या कहें?


अपनी बात तो कर ली अब थोड़ी गीत की बात भी कर लें। 1975 में आई फिल्म मौसम के इस गीत की बहुत सारी बाते हैं जो मुझे आपके साथ आज साझा करनी है। पहली तो ये कि इस फिल्म का संगीत पंचम ने नहीं बल्कि मदन मोहन ने दिया था। गुलज़ार को मदनमोहन के साथ सिर्फ दो फिल्में करने का मौका मिला। एक तो कोशिश और दूसरी मौसम। मौसम के संगीत की सफलता को ख़ुद मदनमोहन नहीं देख पाए। 

इस गीत के लिए धुन रचने का काम  कैसे हुआ ये किस्सा भी मज़ेदार है। मदनमोहन पर विश्वनाथ चटर्जी और विश्वास नेरूरकर  की लिखी किताब Madan Mohan: Ultimate Melodies में गुलज़ार ने इस बात का जिक्र किया है..
"मदनमोहन का संगीत रचने का तरीका एकदम अनूठा था। वो हारमोनियम बजाते हुए गीत के बोल गुनगुनाते थे। संगीत रचते हुए जब मूड में होते थे तो सामिष या नॉन वेजीटेरियन भोजन पकाने में लग जाते थे। दिल ढूँढता है......  के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। मैं उनके घर के अंदर बैठा था और मदनमोहन किचन में मटन बना रहे थे और उसके रस के लिए उन्होंने उसमें थोड़ी विहस्की भी मिला दी थी। साथ ही साथ वो इस गीत की धुन भी तैयार कर रहे थे। बीच बीच में वो किचन से बाहर आते और पूछते कि ये धुन कैसी है? मैं उन्हें अपनी राय बताता और वो फिर किचन में चले जाते ये कहकर कि चलो मैं इससे बेहतर कुछ सोचता हूँ।"

कहते हैं कि इस गीत के लिए मदनमोहन जी ने कई अलग अलग धुनें तैयार की और दशकों बाद इसी गीत की एक धुन को फिल्म वीर ज़ारा में यश चोपड़ा ने गीत तेरे लिए हम हैं जिये के लिए इस्तेमाल किया। इस गीत के मुखड़े को लेकर भी काफी बातें चलती रहीं। उसी किताब में गुलज़ार ने ये भी लिखा है कि गीत का मुखड़ा ग़ालिब की ग़ज़ल के हिसाब से जी ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन  था पर मदन मोहन उसे दिल ढूँढता है ..गाते रहे। जब गुलज़ार ने उनसे कहा कि मिसरे के मौलिक रूप से छेड़छाड़ करना सही नहीं तो वो मान भी गए। पर रिकार्डिग के दिन वो अपने साथ ग़ालिब का दीवान ले कर आए और उसमें उन्होंने दिखलाया कि वहाँ  दिल ढूँढता है.. ही लिखा हुआ था।

वैसे मैंने कुछ किताबों में अभी भी जी ढूँढता है.. ही लिखा पाया है। मौसम में इस गीत के दो वर्जन थे एक लता व भुपेंद्र के युगल स्वरों में और दूसरे भूपेंद्र का एकल गीत। जब जब मैं इस गीत की भावनाओं में डूबता हूँ तो मुझे भूपेंद्र का गाया वर्सन और उसके साथ हौले हौले चलती वो धुन ही याद आती है। वैसे इस बारे में आपका ख़्याल क्या है? तो आइए एक बार फिर सुनते हैं इस गीत को..

दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन
बैठे रहे तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...

जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर
आँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साए को
औंधे पड़े रहे कभी करवट लिये हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...

या गरमियों की रात जो पुरवाईयाँ चलें
ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागें देर तक
तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...

बर्फ़ीली सर्दियों में किसी भी पहाड़ पर
वादी में गूँजती हुई खामोशियाँ सुनें
आँखों में भीगे भीगे से लम्हे लिये हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...
 

बुधवार, अगस्त 06, 2014

मदन मोहन की सांगीतिक प्रासंगिकता : लग जा गले .. सनम पुरी Lag Ja Gale .... Sanam Puri

मदन मोहन से जुड़ी पिछली पोस्ट में बात खत्म हुई थी इस प्रश्न पर कि क्या आज की पीढ़ी भी मदन मोहन के संगीत को उतना ही पसंद करती है? इस बात का सीधा जवाब देना मुश्किल है। मेरा मानना है कि हिंदी फिल्मों में ग़ज़लों के प्रणेता समझे जाने वाले मदन मोहन अगर आज हमारे बीच होते तो उनके द्वारा रचा संगीत भी अभी के माहौल में ढला होता। आज उन दो प्रसंगों का जिक्र करना चाहूँगा जो मदन मोहन के संगीत की सार्वकालिकता की ओर इंगित करते हैं।

मदन मोहन के संगीत में आने वाले कल को पहचानने की क्षमता थी वर्ना क्या कोई ऐसा संगीतकार है जिसकी धुनों को उसके मरने के तीस साल बाद किसी फिल्म में उसी रूप में इस्तेमाल कर लिया गया हो। 2004 में प्रदर्शित फिल्म वीर ज़ारा का संगीत तो याद है ना आपको। यश चोपड़ा विभाजन से जुड़ी इस प्रेम कथा के संगीत के लिए नामी गिरामी संगीतकारों के साथ बैठकें की। पर फिल्म के मूड के साथ उन धुनों का तालमेल नहीं बैठ सका। अपनी परेशानी का जिक्र एक बार वो मदन मोहन के पुत्र संजीव कोहली से कर बैठे। संजीव ने उन्हें बताया कि उनके पास पिता की संगीतबद्ध कुछ अनसुनी धुनें पड़ी हैं। अगर वे सुनना चाहें तो बताएँ। चोपड़ा साहब ने हामी भरी और संजीव तीस धुनों की पोटली लेकर उनके पास हाज़िर हो गए।


जैसे जैसे वो पोटली खुलती गई चोपड़ा साहब को फिल्म की परिस्थितियों के हिसाब से गीत और कव्वाली की धुनें मिलती चली गयीं। फिल्म के संगीत को आम जनता ने किस तरह हाथों हाथ लपका ये आप सबसे छुपा नहीं है। ये उदाहरण इस बात को सिद्ध करता है कि वक़्त से आगे के संगीत को परखने और उसमें अपनी मेलोडी रचने की काबिलियत मदन मोहन साहब में थी।

अब एक हाल फिलहाल की बात लेते हैं। अपनी धुनों में मदन मोहन जो मधुरता रचते थे उसके लिए इंटरल्यूड्स और मुखड़े के पहले किया गया संगीत संयोजन कई बार बेमानी हो जाता था। लता जी का गाया फिल्म 'वो कौन थी' का बेहद लोकप्रिय गीत लग जा गले .. तो आप सबने सुना होगा। हाल ही में मैंने इसी गीत को सनम बैंड के सनम पुरी को गाते सुना। मेलोडी वही पर गीत के साथ सिर्फ गिटार और ताल वाद्य का संयोजन। सच मानिए बहुत दिनों बाद एक रिमिक्स गीत में गीत की आत्मा को बचा हुआ पाया मैंने। सनम की आवाज़ का कंपन और इंटरल्यूड्स में उनकी गुनगुनाहट गीत में छुपी विकलता को हृदय तक ले जाती है



वैसे सनम पुरी अगर आपके लिए नया नाम हो तो ये बता दूँ कि मसकत में रहने वाले सनम ने विधिवत संगीत की शिक्षा तो ली नहीं। संगीत के क्षेत्र में आए भी तो परिवार वालों के कहने से। पाँच साल पहले SQS Supastars नाम का बैंड बनाया जिसका नाम कुछ दिनों पहले बदल के सनम हो गया। सनम बताते हैं कि लता जी के गाए इस गीत से उनके बैंड के हर सदस्य की भावनाएँ जुड़ी हैं और इसीलिए उन्होंने अपने इस प्यारे गीत को आज के युवा वर्ग के सामने एक नए अंदाज़ में लाने का ख्याल आया। तो आइए सुनते हैं सनम बैंड के इस गीत को।


लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो
शायद फिर इस जनम में मुलाक़ात हो न हो
लग जा गले  ...

हमको मिली हैं आज ये घड़ियाँ नसीब से
जी भर के देख लीजिये हमको क़रीब से
फिर आपके नसीब में ये बात हो न हो
शायद फिर इस जनम...लग जा गले..

पास आइये कि हम नहीं आएंगे बार-बार
बाहें गले में डाल के हम रो लें ज़ार-ज़ार
आँखों से फिर ये प्यार कि बरसात हो न हो
शायद फिर इस जनम...लग जा गले..


गीत में उनके भाई समर पुरी गिटार पर हैं, वेंकी ने बॉस गिटार सँभाला है जबकि केशव धनराज उनकी संगत कर रहे हैं पेरू से आए ताल वाद्य Cajon पर


जब लता जी रॉयल अलबर्ट हॉल में Wren Orchestra के साथ एक कार्यक्रम कर रही थीं तो कार्यक्रम में शामिल होने वाले गीतों के नोट्स लिख के भेजे गए। जो दो गीत उन्हें सबसे पसंद आए उनमें लग जा गले  भी था। आर्केस्ट्रा प्रमुख का कहना था कि वो धुनों की मेलोडी और उनके साथ किए नए तरह के संगीत संयोजन से चकित हैं। 

आशा है संगीतकार मदन मोहन से जुड़ी ये तीन कड़ियाँ आपको पसंद आयी होंगी। एक शाम मेरे नाम पर उनकी यादों का सफ़र आगे भी समय समय पर चलता रहेगा।

गुरुवार, जुलाई 31, 2014

यादें मदन मोहन की : सपनों में अगर मेरे, तुम आओ तो सो जाऊँ Remembering Madan Mohan : Sapnon Mein Agar Mere...

मदन मोहन के कार्यक्रम को सुनने के बाद से पिछले हफ्ते उनके गीतों में से कइयों को फिर से सुना और आज उन्हीं में से एक मोती को चुन कर आपके समक्ष लाया हूँ। पर इससे पहले कि उस गीत की चर्चा करूँ कुछ बातें उनके काम करने की शैली के बारे में करना चाहूँगा। मदन मोहन उन संगीतकारों में नहीं थे जो धुन पहले बना लेते हों। वो गीतों को सुनते थे, उनके भावों में डूबते थे और फिर एक ही गीत के लिए कई सारी मेलोडी बना कर सबसे पूछते थे कि उन्हें कौन सी पसंद आई? वैसे धुन चुनते समय आख़िरी निर्णय उन्हीं का होता था। सेना से आए थे तो समय के बड़े पाबंद थे। वादकों को देर से आने से वापस कर देते थे, गीत को अंतिम रूप देने से पहले लता हो या रफ़ी घंटों रियाज़ कराते थे। एक बार गुस्से में आकर शीशे की दीवार पर जोर से हाथ मारकर वादकों को इंगित कर बोले..बेशर्मों बेसुरा बजाते हो। सुर के प्रति वो बेहद संवेदनशील थे। रेडियो में दिये अपने एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था
"मैं समझता हूँ कि हर फ़नकार का जज़्बाती होना बहुत जरूरी है क्यूँकि अगर उसमें इंसानियत का जज़्बा नहीं है तो वो सही फ़नकार नहीं हो सकता। सुर भगवान की देन है। उसको पेश करना, उसको सुनना, उसको अपनाना ये कुदरत की चीज है जिसे इंसान सीखता नहीं पर महसूस करता है।"

अक्सर कहा जाता है कि मदन मोहन और लता के बीच ग़ज़ब का तारतम्य था। लता जी ने जब भी बाहर अपने कान्सर्ट किये, उन्होंने मदन मोहन को हमेशा याद किया। लता जी ने मदन मोहन के बारे में दिए गए साक्षात्कार में कहा था
"मेरी उनसे पहली मुलाकात फिल्म शहीद के युगल गीत को रिकार्ड करते वक़्त 1947 में हुई थी. वो गीत भाई बहन के रिश्ते के बारे में था और वास्तव में तभी से वे मेरे मदन भैया बन गए। मैने हमेशा कहा है कि वो भारत के सबसे प्रतिभाशाली संगीतकारों में से एक थे और उनकी अपनी एक शैली थी। हांलाकि मैंने बाकी संगीतकारों के साथ ज्यादा काम किया पर मदन भैया के साथ गाए हुए गीतों को बेहद लोकप्रियता मिली।

लोग कहते हैं कि उनके गीतों में मैं कुछ विशिष्ट करती थी। मुझे पता नहीं कि ये कैसे होता था। अगर ये होता था तो शायद इस वज़ह से कि हमारे बीच की आपसी समझ, एक दूसरे के लिए लगाव और सम्मान था। वो मेरी गायिकी को अच्छी तरह समझते थे। वो हमेशा कहा करते थे  कि ये धुन तुम्हीं को ध्यान रख कर रची है और वो उसमें अक्सर मेरी आवाज़ के उतार चढ़ाव को ध्यान में रखकर कुछ जगहें छोड़ते थे। इसलिए उनके साथ काम करना व उनकी आशाओं पर खरा उतरना मेरे लिए हमेशा से चुनौतीपूर्ण होता था। रिकार्डिंग के बाद उनके चेहरे पर जो खुशी दिखती थी वो मुझे गहरा संतोष देती थी।"

आज लता और मदन मोहन की इस जोड़ी का जो गीत आपके सामने पेश कर रहा हूँ वो फिल्म दुल्हन एक रात की का है। इसे लिखा है एक बार फिर राजा मेहदी अली खाँ ने। मुखड़े के पहले सितार की बंदिश के बाद से लता की मधुर आवाज़ का सम्मोहनी जादू गीत के अंत और उसके बहुत देर बाद भी बरक़रार रहता है। इंटरल्यूड्स में पहले अंतरे के पहले सेक्सोफोन की आवाज़ चौंकाती है पर साथ ही सितार के साथ उस के अद्भुत समन्वय को सुन मदन मोहन की काबिलियत का एक उदाहरण सामने आ जाता है।

सपनों में अगर मेरे, तुम आओ तो सो जाऊँ
बाहों की मुझे माला पहनाओ, तो सो जाऊँ

सपनों में कभी साजन बैठो मेरे पास आ के
जब सीने पे सर रख दूँ, मैं प्यार में शरमा के
इक गीत मोहब्बत का तुम गाओ तो सो जाऊँ

बीती हुयी वो यादें, हँसती हुई आती हैं
लहरों की तरह दिल में आती, कभी जाती हैं
यादों की तरह तुम भी आ जाओ तो सो जाऊँ




मदन मोहन को जीते जी कभी वो सम्मान नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे। नेशनल एवार्ड तो उन्हें मिला पर एक अदद फिल्मफेयर जैसे एवार्ड के लिए तरस गए। उनकी धुनें अपने समय से आगे की मानी गयीं। एक किस्सा जो इस संबंध में अक्सर बताया जाता है वो ये कि उनके बेटे संजीव कोहली को जब स्कूल के कार्यक्रम में स्टेज पर अपने पिता के सामने गाने का मौका मिला तो उसने पिता द्वारा रचित किसी गीत को गाने के बजाए बहारों फूल बरसाओ  गाना बेहतर समझा वो भी इस डर से कि शायद वहाँ बैठी आम जनता उसे पसंद ना करे। 

इन्हीं मदनमोहन की अंतिम यात्रा में अमिताभ, धर्मेंद्र, राजे्द्र कुमार व राजेश खन्ना जैसे कलाकारों ने कंधा लगाया। संजीव कहते हैं कि अगले दिन ये फोटो अख़बार में छपी और मैं रातों रात कॉलेज में इतना लोकप्रिय हो गया जितना कभी उनके जीते जी नहीं हुआ था। शायद यही दुनिया का दस्तूर है कि हम कई बार किसी के हुनर को वक़्त रखते नहीं परख पाते हैं।

मदन मोहन को हमारा साथ छोड़े लगभग चार दशक हो गए। उनके संगीतबद्ध गीतों को क्या हम भुला पाए हैं ? क्या उनके गीतों को आज की पीढ़ी भी पसंद करती है?  अगली प्रविष्टि में एक हाल ही में रिकार्ड किये गीत के माध्यम से इन प्रश्नों के उत्तर को ढूँढने का प्रयास करूँगा।

शनिवार, जुलाई 26, 2014

मदन मोहन के संगीत में रची बसी वो शाम : आप को प्यार छुपाने की बुरी आदत है... Aap ko pyar chhupane ki buri aadat hai

पिछले हफ्ते की बात है। दफ़्तर के काम से रविवार की शाम पाँच बजे दिल्ली पहुँचा। पता चला पास ही मैक्स मुलर मार्ग पर स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में संगीतकार मदनमोहन की स्मृति में संगीत के कार्यक्रम का आयोजन हो रहा है। कार्यक्रम साढ़े छः बजे शुरु होना था पर दस मिनट की देरी से जब हम  पहुँचे तो वहाँ तिल धरने की जगह नहीं थी। श्रोताओं में ज्यादातर चालीस के ऊपर वाले ही बहुमत में थे पर पुराने गीतों की महफिल में ऐसा होना लाज़िमी था। कुछ मशहूर हस्तियाँ जैसे शोभना नारायण भी दर्शक दीर्घा में नज़र आयीं।


उद्घोषकों ने मदनमोहन के संगीतबद्ध गीतों के बीच बगदाद में जन्मे इस संगीतकार की ज़िंदगी के छुए अनछुए पहलुओं से हमारा परिचय कराया। मुंबई की आरंभिक पढ़ाई, देहरादून के बोर्डिंग स्कूल में रहना, पिता के आग्रह पर सेना में नौकरी करना, उनका कोपभाजन बनते हुए भी फिल्मी दुनिया में अपने बलबूते पर संगीतकार की हैसियत से पाँव जमाना, लता के साथ उनके अद्भुत तालमेल, फिल्मी ग़ज़लों को लयबद्ध करने में उनकी महारत, उनका साहबों वाला रोबीला व्यक्तित्व,  हुनर के हिसाब से उनको लोकप्रियता ना मिलने का ग़म और शराब में डूबी उनकी ज़िदगी के कुछ आख़िरी साल ..उन ढाई घंटों में उनका पूरा जीवन वृत आँखों के सामने घूम गया।

पर इन सबके बीच उनके कुछ मशहूर और कुछ कम बज़े गीतों को सुनने का अवसर भी मिला। ऐसे कार्यक्रमों में कितना भी चाहें आपके सारे पसंदीदा नग्मों की बारी तो नहीं आ पाती। फिर भी 'ना हम बेवफ़ा है ना तुम बेवफ़ा हो...', 'लग जा गले से हसीं रात हो ना हो...', 'तुम्हारी जुल्फों के साये में शाम कर दूँगा..', 'झुमका गिरा रे...' जैसे सदाबहार नग्मों को सुनने का अवसर मिला तो वहीं 'इक हसीं शाम को दिल मेरा खो गया...',  'तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है...', 'नैनों में बदरा छाए...', 'ज़रा सी आहट होती है....', 'कोई शिकवा भी नहीं कोई भी शिकायत भी नहीं...' जैसे गीतों को live सुन पाने की ख़्वाहिश..ख़्वाहिश ही रह गयी।

इन्हीं गीतों के बीच  एक युगल गीत भी पेश किया गया जिसे कई सालों बाद अचानक और सीधे आर्केस्ट्रा के साथ मंच से सुनने में काफी आनंद आया। एक हल्की सी छेड़छाड़ और चंचलता लिए इस गीत को 1965 में आई फिल्म "नीला आकाश" में मोहम्मद रफ़ी और आशा ताई ने गाया था। इस गीत को लिखा था राजा मेहदी अली खाँ ने। मदनमोहन और राजा साहब की संगत ने हिंदी फिल्म संगीत को कितने अनमोल मोती दिए वो तो आप सब जानते ही हैं। राजा साहब से जुड़े इस लेख में आपको पहले ही उनके बारे में विस्तार से बता चुका हूँ। उसी लेख में इस बात का भी जिक्र हुआ था कि किस तरह उन्होंने हिंदी फिल्मी गीतों में 'आप' शब्द का प्रचलन बढ़ाया। आज जिस गीत की बात मैं आपसे करने जा रहा हूँ वो भी इसी श्रेणी का गीत है।

देखिए तो इस खूबसूरती से राजा साहब ने गीत की पंक्तियाँ गढ़ी हैं कि हर अगली पंक्ति पिछली पंक्ति का माकूल जवाब सा लगती है।
आप को प्यार छुपाने की बुरी आदत है
आप को प्यार जताने की बुरी आदत है

आपने सीखा है क्या दिल के लगाने के सिवा,
आप को आता है क्या नाज दिखाने के सिवा,
और हमें नाज उठाने की बुरी आदत है

किसलिए आपने शरमा के झुका ली आँखें,
इसलिए आप से घबरा के बचा ली आँखें,
आपको तीर चलाने की बुरी आदत है

हो चुकी देर बस अब जाइएगा, जाइएगा,
बंदा परवर ज़रा थोड़ा-सा क़रीब आइएगा,
आपको पास न आने की बुरी आदत है


तो आइए सुनते हैं राग देस पर आधारित इस मधुर युगल गीत को

 


वैसे तो सर्वव्यापी धारणा रही है लड़कों में अपने प्यार का इज़हार करने का उतावलापन रहता है, वहीं लड़कियाँ शर्म ओ हया से बँधी उसे स्वीकार करने में झिझकती रही हैं। पर वक़्त के साथ क्या आप ऐसा महसूस नहीं  करते कि मामला इतना स्टीरियोटाइप भी नहीं रह गया है। पहल दोनों ओर से हो रही है। सोच रहा हूँ कि अगर आज गीतकार को ये परिस्थिति दी जाए तो वो क्या लिखेगा। है आपके पास कोई कोरी कल्पना ?

शुक्रवार, अप्रैल 04, 2014

तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम कर लूँगा..कैसे कह पाए कैफ़ी अपनी पहली ग़ज़ल ? Tumhari Zulf ke saaye..Kaifi Azmi

साठ के दशक में एक फिल्म आयी थी नौनिहाल। संगीतकार थे मदनमोहन। इस फिल्म के सारे गीत कैफ़ी आज़मी ने लिखे थे।  आज भी कैफ़ी आज़मी की पहचान गीतकार के बजाए एक शायर के रूप में ज्यादा है। पर काग़ज़ के फूल से ले कर अर्थ तक जितनी भी फिल्मों में कैफ़ी साहब ने लिखा, उनका काम सराहा गया। लोग उनकी तुलना साहिर से करते हैं। साहिर और कैफ़ी दोनों ही कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे। जहाँ साहिर ने फिल्मी गीतों में भी अपनी राजनीतिक सोच को व्यक्त किया वहीं कैफ़ी अपनी विचारधारा को अपनी शायरी की जुबान बनाते रहे पर फिल्मी गीतों में अपने लेखन को उन्होंने इस सोच से परे रखा। इससे पहले कि मैं आपसे नौनिहाल की इस ग़ज़ल की चर्चा करूँ, कैफ़ी साहब की ज़िंदगी से जुड़ा एक वाक़या आपसे बाँटना चाहूँगा।


एक इंसान.शायर कैसे बनता है ये हर काव्य प्रेमी जानना चाहता है। अब कैफ़ी साहब को ही ले लीजिए। उनके अब्बाजान ख़ुद तो शायर नहीं थे पर उन्हें कविता की पूरी समझ थी। उनसे बड़े तीनों भाई शायरी के बड़े उस्ताद थे। छुट्टियों में वो जब घर आते तो सारा कस्बा उनको सुनने उमड़ पड़ता। बालक कैफ़ी जब अपने भाइयों की वाहवाही सुनते तो उन्हें लगता कि क्या मैं भी कभी इनकी तरह शेर कह पाऊँगा। दुख की बात ये थी की इन महफिलों में उन्हें ज्यादा देर बैठना ही नसीब न होता था। उनके पिता उन्हें जब तब पान बनवाने का काम थमा कर वहाँ से भगा देते थे।

कैफ़ी के पिता जब बहराइच में थे तो वहाँ एक तरही मुशायरा हुआ। तरह थी (Word pattern for Qafiya & Radeef) मेहरबाँ होता, राजदाँ होता...कैफ़ी साहब को मौका मिला तो उनके मन में बहुत दिनों से जो चल रहा था वो शेर की शक़्ल में बाहर आ गया.. उन्होंने पढ़ा

वह सबकी सुन रहे हैं,सबको दाद ए शौक़ देते हैं
कहीं ऐसे में मेरा किस्सा ए गम बयाँ होता

लोगों ने तारीफ़ की  कि बड़ी अच्छी याददाश्त है, क्या बढ़िया ढंग से पढ़ते हो। दरअसल सब यही सोच रहे थे कि  कैफ़ी ने अपने भाईयों की ग़ज़ल उड़ाकर अपने नाम से यहाँ पढ़ दी है। जब उनके पिता ने भी यही शक़ ज़ाहिर किया तो  कैफ़ी फूट फुट कर रो पड़े। सब लोगों ने कहा कि अगर तुमने ये ग़ज़ल लिखी है तो तुम्हें एक इम्तिहान देना पड़ेगा। कैफ़ी साहब को मिसरा (शेर की एक पंक्ति) थमा दिया गया ''इतना हँसों की आँख से आँसू निकल पड़ें''। अब इस कठिन मिसरे पर कैफ़ी को पूरी ग़ज़ल बनानी थी। कैफ़ी उसी कमरे में दीवार की ओर मुँह कर के बैठ गए और थोड़ी देर में तीन चार शेर लिख डाले। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि  कैफ़ी साहब तब सिर्फ ग्यारह साल के थे।  कैफ़ी साहब ने लिखा था...

इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल1 पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल2 पड़े

जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े

एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़3 है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े

मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े
1.विघ्न  2. चैन  3. उतार चढ़ाव

तो ये थी कैफ़ी आज़मी की शायर बनने की दास्ताँ। लौटते हैं नौनिहाल की उस ग़ज़ल पर। क्या लिखा था कैफ़ी आज़मी साहब ने और क्या धुन बनाई मदनमोहन ने..वल्लाह ! मदन मोहन ग़ज़लों को इस खूबी से संगीतबद्ध करते थे कि लता जी आज भी उनको ''ग़ज़लों के शाहजादे'' के नाम से याद किया करती हैं। सितार और वॉयलिन का बेहतरीन इस्तेमाल किया है इस गीत के संगीत संयोजन में उन्होंने। पर कैफ़ी के अशआरों में धार ना होती तो मदनमोहन का संगीत कहाँ उतना प्रभावी हो पाता?

इस  ग़ज़ल के हर मिसरे को पढ़ते ही मन के तार रूमानियत के रागों से झंकृत होने लगते हैं । जिस अंदाज़ में रफ़ी साहब ने इन खूबसूरत लफ्जों को अपनी आवाज़ दी है  लगता है कि वक़्त ठहर जाए, ये ग़ज़ल और उससे उभरते अहसास मन की चारदीवारी से कभी बाहर ही ना निकलें।

तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम कर लूँगा..
सफ़र इस उम्र का, पल में.., तमाम कर लूँगा

नजर.. मिलाई तो, पूछूँगा इश्क का.. अंजा..म
नजर झुकायी तो खाली सलाम कर लूँगा,

तुम्हारी जुल्फ ...

जहा..न-ए-दिल पे हुकूमत तुम्हे मुबा..रक हो..
रही शिकस्त. तो वो अपने नाम कर लूँगा
तुम्हारी जुल्फ ...



वैसे जानना चाहूँगा कि आप इस ग़ज़ल को सुनकर कैसा महसूस करते हैं?

शनिवार, मई 15, 2010

गीतकार राजा मेंहदी अली खाँ और उनका लिखा ये प्यारा नग्मा ' इक हसीन शाम को..'

राजा मेंहदी अली खाँ, जब भी ये नाम सुना तो लगा भला इतने रईस खानदान के चराग़ को गीत लिखने का शौक कैसे हो गया? गोकि ऍसा भी नहीं कि हमारे राजे महाराजे इस हुनर से महरूम रहे हों। तुरंत ही जनाब वाज़िद अली शाह का ख्याल ज़ेहन में उभरता है। पर उनकी मिल्कियत दिल्ली और अवध तक फैली हुई थी पर राजा साहब को क्या सूझी कि वो अपने बाप दादाओं की जमीदारी छोड़कर मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा बन बैठे?
राजा साहब के बारे में जानने की इच्छा बहुत दिनों तक बनी रही पर उनके अनमोल गीतों और संगीतकार मदनमोहन के साथ उनकी अनुपम जोड़ी के किस्सों के आलावा कुछ ज्यादा हाथ नहीं लगा।

कुछ दिनों पहले फिल्म 'दुल्हन एक रात की' का अपना एक पसंदीदा नग्मा गुनगुना रहा था कि याद आया कि अरे ये गीत भी तो राजा साहब का ही लिखा हुआ है। राजा साहब के बारे में मेरा पुराना कौतुहल, फिर जाग उठा। इस बार उन पर लिखे कुछ लेख हाथ लगे। पता चला कि राजा साहब, अविभाजित भारत के करमाबाद की पैदाइश हैं। पिता बचपन में ही गुजर गाए और माता हेबे जी के संरक्षण में मेंहदी अली खाँ पले बढ़े। माँ अपने ज़माने उर्दू की क़ाबिल शायरा के रूप में जानी गयीं। चालिस के दशक में जब वो आकाशवाणी दिल्ली में काम कर रहे थे तो मुंबई से उन्हें सदात हसन मंटो का बुलावा आ गया। मंटों ने तब हिंदी फिल्मों में काम करना शुरु किया था।

पर राजा साहब ने आते ही अपनी शायरी के जलवे दिखाने शुरु कर दिये ऐसा भी नहीं था। आपको जानकर हैरानी होगी कि राजा साहब की फिल्म उद्योग में शुरुआत बतौर पटकथा लेखक के हुई। और तो और उन्होंने एक फिल्म के लिए छोटा सा रोल भी किया। पर पटकथालेखन और अभिनय उन्हें ज्यादा रास नहीं आया। 1947 की फिल्म दो भाई में राजा साहब को पहली बार गीत लिखने का मौका मिला । इस फिल्म का गीत "मेरा सुंदर सपना टूट गया..." बेहद चर्चित रहा। विभाजन और दंगों की आग में जल रहे देश में डटे रहने का फ़ैसला भी राजा साहब के भारत के प्रति प्रेम को दर्शाता है। और फिर फिल्म शहीद (1950) में देशप्रेम से ओतप्रोत उनके लिखे उस गीत को भला कौन भूल सकता है 'वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हो'.. '

पचास का दशक राजा मेंहदी अली खाँ के उत्कर्ष का दशक था। दशक की शुरुआत में संगीतकार मदनमोहन के साथ फिल्म 'मदहोश' में उनकी जो सफल जोड़ी बनी वो 'अनपढ़', 'मेरा साया', 'वो कौन थी', 'नीला आकाश', 'दुल्हन एक रात की' आदि फिल्मों में और पोषित पल्लवित होती गई।

राजा मेंहदी अली खाँ के लिखे गीतों पर नज़र रखने वाले फिल्म समीक्षकों का मानना है कि राजा ने ही फिल्मी गीतों में 'आप' शब्द का प्रचलन बढ़ाया। मसलन उनके लिखे इन गीतों को याद करें... 'आप की नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे...' या 'जो हमने दास्ताँ अपनी सुनाई आप क्यूँ रोए ' , 'आपने अपना बनाया मेहरबानी आपकी...'। मदन मोहन के आलावा राजा साहब ने ओ पी नैयर व सी रामचंद्र के संगीत निर्देशन में भी बेहतरीन नग्मे दिये। वैसे क्या आपको पता है कि 'मेरे पिया गए रंगून वहाँ से किया है टेलीफून.. ' भी राजा साहब का ही लिखा हुआ गीत है।

साठ के दशक के मध्य में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ 'अनीता' और 'जाल' जैसी फिल्में उनके फिल्मी सफ़र की आखिरी फिल्में थी। जुलाई 1996 में राजा साहब इस दुनिया से कूच कर गए। पर उनके रचे गीतों से आज भी वे हमारे मन में समाए हैं। आज की ये पोस्ट उस गीत के जिक्र बिना अधूरी रह जाएगी जिसकी वज़ह से राजा साहब की याद पुनः मन में आ गई।

फिल्म 'दुल्हन एक रात की' फिल्म का ये गीत मुझे बेहद पसंद है और क्यूँ ना हो 'शामों' से मेरे लगाव की बात क्या आप सब से छिपी हे। और फिर जहाँ गीत में ऐसी ही किसी शाम को अपने हमसफ़र की यादों में गोता लगाने का जिक्र हो तो वो गीत क्या दिलअज़ीज नहीं बन जाएगा ?

मदनमोहन द्वारा मुखड़े की आरंभिक धुन कमाल की है। यही कारण हे कि इस गीत के मुखड़े को गुनगुनाना मेरा प्रिय शगल रहा है। आज सोचा मोहम्मद रफ़ी साहब की मखमली आवाज़ में गाए पूरे गीत को गुनगुनाने की कोशिश करूँ। रफ़ी साहब ने जिस मस्ती से इस गीत को गाया है कि सुन कर ही मन झूम उठता है और होठ थिरकने लगते हैं।


इक हसीन.. शा..म को दिल मेरा... खो गया
पहले अपना, हुआ करता था, अब किसी का... हो गया

मुद्दतों से.., आ..रजू थी, जिंदगी में.. कोई आए
सूनी सूनी, जिंदगी में. कोई शमा.. झिलमिलाए
वो जो आए तो रौशन ज़माना हो गया
इक हसीन.. शा..म को दिल मेरा... खो गया

मेरे दिल के, कारवाँ को ले चला है.. आज कोई
शबनमी सी. जिसकी आँखें, थोड़ी जागी.. थोड़ी सोई
उनको देखा तो मौसम सुहाना हो गया
इक हसीन.. शा..म को दिल मेरा... खो गया
पहले अपना, हुआ करता था, अब किसी का... हो गया

मुझे झेल लिया है ! ठीक है जनाब अब रफ़ी की आवाज़ में भी इस गीत को सुनवाए देते हैं। वैसे फिल्म में इस गीत को फिल्माया गया था धर्मेंद्र व नूतन पर..


बुधवार, अक्टूबर 07, 2009

कोई शिक़वा भी नहीं.... और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं

प्यार भी एक अजीब सी फ़ितरत है। पहले तो किसी का दिल जीतने के लिए मशक्क़त कीजिए । और अगर वो मिल गया तो भी चैन कहाँ है जनाब ! उसे खोने का डर भी तो साथ चला आता है। और तो और परिस्थितियाँ बदलती रहें तो भी हमारे साथी की हमसे उम्मीद रहती है कि प्यार की तपिश बनी रहे। और गर आप साथी के खयालतों की सुध लेने से चूके तो फिर ये उलाहना मिलते देर नहीं कि तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं !

पर ये भी है कि बिना शिक़वे, शिकायतों और मनुहारों जैसे टॉनिकों के प्रेम का रंग फीका रह जाता है। इसलिए रिश्तों की खामोशी भी मन में शक़ और बेचैनी पैदा कर देती है । ऐसी ही कुछ शिकायतें लिए एक प्यारा सा नग्मा आया था १९६६ में प्रदर्शित फिल्म 'नींद हमारी ख़्वाब तुम्हारे' में। रूमानियत में डूबे इस गीत को लिखा था राजेंद्र कृष्ण साहब ने और इस गीत की धुन बनाई थी मदन मोहन ने। गीतकार राजेंद्र के बोलों में वो कशिश थी कि कितने भी नाराज़ हमराही की मुस्कान को वापस लौटा लाए। बस जरूरत थी एक मधुर धुन और माधुर्य भरी आवाज़ की। और इस जरूरत को भली भांति पूरा किया मदनमोहन और आशा ताई की जोड़ी ने..

ये गीत वैसे गीतों में शुमार होता है जो बिना किसी वाद्य यंत्र के भी सुने जाएँ तो भी दिल को छूते से जाते हैं.. तो अगर आप भी शिकायती मूड में हैं तो बस अपने मीत के पास जाकर यही गीत गुनगुना दीजिए ना..



कोई शिक़वा भी नहीं, कोई शिकायत भी नहीं
और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं
कोई शिक़वा भी नहीं....

ये खामोशी, ये निगाहों में उदासी क्यूँ है?
पा के सब कुछ भी मोहब्बत अभी प्यासी क्यूँ है?
राज- ए- दिल हम भी सुनें इतनी इनायत भी नहीं
और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं
कोई शिक़वा भी नहीं....

प्यार के वादे वफ़ा होने के दिन आए हैं
ये ना समझाओ खफ़ा होने के दिन आए हैं
रूठ जाओगे तो कुछ दूर क़यामत भी नहीं
और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं
कोई शिक़वा भी नहीं....

हम वही अपनी वफ़ा अपनी मोहब्बत है वही
तुम जहाँ बैठ गए अपनी तो जन्नत है वही
और दुनिया में किसी चीज की चाहत भी नहीं
और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं
कोई शिक़वा भी नहीं....


शनिवार, जून 07, 2008

ज़रा सी आहट होती है तो दिल सोचता है कहीं ये वो तो नहीं ...

जिंदगी में कोई जब इतना करीब हो जाए कि आप उस शख्स के साये में भी उसकी खुशबू महसूस करने लगें.. दूर से आते उसके पदचापों को सुन कर आपके हृदय की धड़कन तीव्र गति से चलने लगे, गाहे-बगाहे आपकी आँखों के सामने उसी की छवि उभरने लगे, तब समझ लीजिए कि आप भगवन की बनाई सबसे हसीन नियामत 'प्रेम' की गिरफ्त में हैं।

ऍसी ही भावनाओं को लेकर मशहूर शायर कैफ़ी आजमी ने १९६४ में फिल्म हक़ीकत में एक प्यारा सा नग्मा लिखा था। 'हक़ीकत' भारत चीन युद्ध के परिपेक्ष्य में चेतन आनंद द्वारा बनाई गई थी जो इस तरह की पहली फिल्म थी। युद्ध की असफलता से आहत भारतीय जनमानस पर इस फिल्म ने एक मरहम का काम किया था। फिल्म तो सराही गई ही इसमें दिया मदनमोहन का संगीत बेहद चर्चित रहा।



वैसे तो सारा गीत ही प्रेम रस से सराबोर है पर गीत का मुखड़ा दिल में ऍसी तासीर छोड़ता है जिसे लफ़्जों से बयाँ कर पाना मुश्किल है।

ज़रा सी आहट होती है तो दिल सोचता है, कहीं ये वो तो नहीं...

इसे कितनी ही दफा गुनगुनाते रहें मन नहीं भरता...दो महान कलाकारों मदनमोहन और लता की जोड़ी की अद्भुत सौगात है ये गीत..

इस गीत को आप यू ट्यूब पर भी देख सकते हैं

ज़रा सी आहट होती है तो दिल सोचता है
कहीं ये वो तो नहीं, कहीं ये वो तो नहीं
ज़रा सी आहट होती है ...

छुप के सीने में कोई जैसे सदा देता है
शाम से पहले दिया दिल का जला देता है
है उसी की ये सदा, है उसी की ये अदा
कहीं ये वो तो नहीं ...

शक्ल फिरती है निगाहों में वो ही प्यारी सी
मेरी नस-नस में मचलने लगी चिंगारी सी
छू गई जिस्म मेरा किसके दामन की हवा
कहीं ये वो तो नहीं ...

आशा है इस गीत को सुन कर आपका मूड रूमानी हो गया होगा। तो क्यूँ ना चलते चलते जानिसार अख़्तर की एक गज़ल भी पढ़ाता चलूँ जिसके भाव बहुत कुछ इस गीत से मिलते जुलते हैं... और जब भी ये गीत सुनता हूँ ये ग़ज़ल खुद ब खुद मन के झरोखों से निकल कर सामने आ जाती है..

आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो
साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो


जब शाख कोई हाथ लगाते ही चमन में
शरमाए, लचक जाए तो लगता है कि तुम हो


रस्ते के धुंधलके में किसी मोड़ पे कुछ दूर
इक लौ सी चमक जाए तो लगता है कि तुम हो


ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर
नदिया कोई बल खाए तो लगता है कि तुम हो


जब रात गए कोई किरण मेरे बराबर
चुप चाप से सो जाए तो लगता है कि तुम हो



तो बताएँ कैसी लगी ये ग़ज़ल और गीत आपको ?

मंगलवार, दिसंबर 19, 2006

चराग दिल का जलाओ, बहुत अँधेरा है...

ये आफिस के दौरे मेरे इस चिट्ठे की गाड़ी पर बीच - बीच में ब्रेक लगा देते हैं । आज फिर से हाजिर हूँ इस गीत के साथ...
याद है ना, पिछली बार की शाम
मजाज के जीवन की उदासी ले के आई थी । आज मामला वैसा तो नहीं पर उससे खास जुदा भी नहीं ।
देखिये ना, जनाब मजरूह सुलतानपुरी अँधेरे के बीच खड़े होकर आवाजें लगा रहे हैं , उस हमसफर के लिये जो ना जाने कहाँ गुम हो गया है !
और तो और शायर के हृदय में छाई इस कालिमा को हटाने में ना सितारों की फौज काम आ रही है ना ही बहारों की खूबसूरती..
अब तो सच्चे दिल से लगाई इस पुकार का ही सहारा है.....शायद पहुँच जाए उन तक...




चराग दिल का जलाओ, बहुत अँधेरा है
कहीं से लौट के आओ बहुत अँधेऽऽरा है

कहाँ से लाऊँ, वो रंगत गई बहाऽरों की
तुम्हारे साथ गई रोशनी नजाऽरों की
मुझे भी पास बुलाओ बहुत अँधेऽऽरा है
चराग दिल का जलाओ, बहुत अँधेरा है

सितारों तुमसे, अँधेरे कहाँ सँभलते हैं
उन्हीं के नक्शे कदम से चराग जलते हैं
उन्हीं को ढ़ूंढ़ के लाओ बहुत अँधेरा है
चराग दिल का जलाओ, बहुत अँधेरा है


अब आप सोच रहें होंगे कि इस गीत की याद मुझे अचानक कहाँ से आ गई । सो हुआ ये कि मेरे
रोमन हिन्दी ब्लॉग के एक पाठक ने भेंट स्वरूप मुझे ये गीत भेजा । यूँ तो चिराग के बाकी गीत मेरे सुने हुए थे पर ये गीत मैंने पहली बार, उस अनजान मित्र के जरिये ही सुना।
एक बार फिर शुक्रिया दोस्त इस प्यारे गीत को मुझ तक पहुँचाने के लिए । अब मुझे कोई गीत अच्छा लगे और वो आप सब के पास ना पहुँचे ये कभी हुआ है भला ? इस गीत को सुनने के लिये यहाँ
क्लिक कीजिए ।

चलचित्र चिराग (१९६९) के लिये ये गीत मोहम्मद रफी की आवाज में रिकार्ड किया गया था। धुन बनाई थी मदन मोहन साहब ने ।
 

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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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