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शनिवार, मार्च 15, 2014

वार्षिक संगीतमाला 2013 सरताज गीत : सपना रे सपना, है कोई अपना... (Sapna Re Sapna..Padmnabh Gaikawad)

वक़्त आ गया है वार्षिक संगीतमाला 2013 के सरताजी बिगुल के बजने का ! यहाँ गीत वो जिसमें लोरी की सी मिठास है, सपनों की दुनिया में झाँकते एक बाल मन की अद्भुत उड़ान है और एक ऐसी नई आवाज़ है जो उदासी की  चादर में आपको गोते लगाने को विवश कर देती है। बाल कलाकार पद्मनाभ गायकवाड़ के हिंदी फिल्मों के लिए गाए इस पहले गीत को लिखा है गुलज़ार साहब ने और धुन बनाई विशाल भारद्वाज ने। Zee सारेगामा लिटिल चैम्स मराठी में 2010 में अपनी गायिकी से प्रभावित करने वाले पद्मनाभ गायकवाड़ इतनी छोटी सी उम्र में इस गीत को जिस मासूमियत से निभाया है वो दिल को छू लेता है।

पद्मनाभ गायकवाड़

ये तीसरी बार है कि गुलज़ार और विशाल भारद्वाज की जोड़ी एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमालाओं में के सरताज़ गीत का खिताब अपने नाम कर रही है। अगर आपको याद हो तो वर्ष 2009 मैं फिल्म कमीने का गीत इक दिल से दोस्ती थी ये हुज़ूर भी कमीने और फिर 2010 में इश्क़िया का दिल तो बच्चा है जी ने ये गौरव हासिल किया था।

विशाल भारद्वाज सपनों की इस दुनिया में यात्रा की शुरुआत गायकवाड़ के गूँजते स्वर से करते हैं। गिटार और संभवतः पार्श्व में बजते पियानो से निकलकर पद्मनाभ की ऊँ ऊँ..जब आप तक पहुँचती है तो आप चौंक उठते हैं कि अरे ये गीत सामान्य गीतों से हटकर है। गुलज़ार के शब्दों को आवाज़ देने  में बड़े बड़े कलाकारों के पसीने छूट जाते हैं क्यूँकि उनका लिखा हर एक वाक्य भावनाओं की चाशनी में घुला होता है और उन जज़्बातों को स्वर देने, उनके अंदर की पीड़ा को बाहर निकालने के लिए उसमें डूबना पड़ता है जो इतनी छोटी उम्र में बिना किसी पूर्व अनुभव के पद्मनाभ ने कर के दिखाया है।


गुलज़ार को हम गुलज़ार प्रेमी यूँ ही अपना आराध्य नहीं मानते। ज़रा गीत के अंतरों पर गौर कीजिए सपनों की दुनिया में विचरते एक बच्चे के मन को कितनी खूबसूरती से पढ़ा हैं उन्होंने। गुलज़ार लिखते  हैं भूरे भूरे बादलों के भालू, लोरियाँ सुनाएँ ला रा रा रू...तारों के कंचों से रात भर  खेलेंगे सपनों में चंदा और तू। काले काले बादलों को भालू और तारों को कंचों का रूप देने की बात या तो कोई बालक सोच सकता है या फिर गुलज़ार !अजी रुकिये यहीं नहीं दूसरे अंतरे में भी उनकी लेखनी का कमाल बस मन को चमत्कृत कर जाता है। गाँव, चाँदनी और सपनों को उनकी कलम कुछ यूँ जोड़ती है पीले पीले केसरी है गाँव, गीली गीली चाँदनी की छाँव, बगुलों के जैसे रे, डूबे हुए हैं रे, पानी में सपनों के पाँव...उफ्फ

विशाल भारद्वाज का संगीत संयोजन सपनों की रहस्यमयी दुनिया में सफ़र कराने सा अहसास दिलाता है। पता नहीं जब जब इस गीत को सुनता हूँ आँखें नम हो जाती हैं। पर ये आँसू दुख के नहीं संगीत को इस रूप में अनुभव कर लेने के होते हैं।

सपना रे सपना, है कोई अपना
अँखियों में आ भर जा
अँखियों की डिबिया भर दे रे निदिया
जादू से जादू कर जा
सपना रे सपना, है कोई अपना
अँखियों में आ भर जा.....


भूरे भूरे बादलों के भालू
लोरियाँ सुनाएँ ला रा रा रू
तारों के कंचों से रात भर  खेलेंगे
सपनों में चंदा और तू
सपना रे सपना, है कोई अपना
अँखियों में आ भर जा


पीले पीले केसरी है गाँव
गीली गीली चाँदनी की छाँव
बगुलों के जैसे रे, डूबे हुए हैं रे
पानी में सपनों के पाँव
सपना रे सपना, है कोई अपना
अँखियों में आ भर जा....

वार्षिक संगीतमाला 2013 का ये सफ़र आज यहीं पूरा हुआ। आशा है मेरी तरह आप सब के लिए ये आनंददायक अनुभव रहा होगा । होली की असीम शुभकामनाओं के साथ...

मंगलवार, जुलाई 09, 2013

कैसे देखते हैं गुलज़ार 'बारिश' को अपनी नज़्मों में... (Barish aur Gulzar)

बारिश का मौसम हो तो औरों को कुछ हो ना हो शायरों को बहुत कुछ हो जाता है और अगर बात गुलज़ार की हो रही हो तब तो क्या कहने ! कुछ साल पहले बारिशों के मौसम में परवीन शाकिर पर बात करते हुए उनकी उससे जुड़ी नज़्मों की चर्चा हुई थी। कुछ दिनों पहले ही एक गुलज़ार प्रेमी मित्र ने  इस ब्लॉग पर कई दिनों से उनकी नज़्मों का ज़िक्र ना होने की बात कही थी। तो मैंने सोचा क्यूँ ना बारिश के इस मौसम को इस बार गुलज़ार साहब की आँखो से देखने का प्रयास किया जाए उनकी चार अलग अलग नज़्मों के माध्यम से..


 (1)

सच पूछिए तो कुछ घंटों की बारिश से हमारे शहरों और कस्बों का हाल बेहाल हो जाता है। नालियों का काम सड़के खुद सँभाल लेती हैं। कीचड़ पानी में रोज़ आते जाते कोफ्त होने लगती है। पर जब गुलज़ार जैसा शायर इन बातों को देखता है तो इसमें से भी मन को छू जाने वाली पंक्तियाँ का सृजन कर देता है। बारिश के मौसम में साइकिल को गड्ढ़े भर पानी में उतारते वक़्त अपना संतुलन ना खोने और कपड़े मैले हो जाने के ख़ौफ के आलावा तो मुआ कोई और ख़्याल मेरे मन में नहीं आया। पर गुलज़ार की साइकिल का पहिया पानी की कुल्लियाँ भी करता है और उनकी छतरी आकाश को टेक बनाकर बारिश की टपटपाहट का आनंद भी उठाती है।

बारिश आती है तो मेरे शहर को कुछ हो जाता है
टीन की छत, तर्पाल का छज्जा, पीपल, पत्ते, पर्नाला
सब बजने लगते हैं

तंग गली में जाते-जाते,
साइकल का पहिया पानी की कुल्लियाँ करता है
बारिश में कुछ लम्बे हो जाते हैं क़द भी लोगों के
जितने ऊपर हैं, उतने ही पैरों के नीचे पानी में
ऊपर वाला तैरता है तो नीचे वाला डूब के चलता है

ख़ुश्क था तो रस्ते में टिक टिक छतरी टेक के चलते थे
बारिश में आकाश पे छतरी टेक के टप टप चलते हैं !


 (2)
गुलज़ार की इस दूसरी नज़्म में बारिश काव्य का विषय नहीं बल्कि सिर्फ एक बिंब है । एक ऐसा बिंब जिसकी मदद से वो दिल के जख्मों को कुरेदते चलते हैं। गुलज़ार की इस भीगी नज़्म को पढ़ते हुए सच में इक अफ़सोस का अहसास मन में तारी होने लगता है...



मुझे अफ़सोस है सोनां....

कि मेरी नज़्म से हो कर गुज़रते वक्त बारिश में,
परेशानी हुई तुम को ...
बड़े बेवक्त आते हैं यहाँ सावन,
मेरी नज़्मों की गलियाँ यूँ ही अक्सर भीगी रहती हैं।
कई गड्ढों में पानी जमा रहता है,
अगर पाँव पड़े तो मोच आ जाने का ख़तरा है
मुझे अफ़सोस है लेकिन...

परेशानी हुई तुम को....
कि मेरी नज़्म में कुछ रौशनी कम है
गुज़रते वक्त दहलीज़ों के पत्थर भी नहीं दिखते
कि मेरे पैरों के नाखून कितनी बार टूटे हैं...
हुई मुद्दत कि चौराहे पे अब बिजली का खम्बा भी नहीं जलता
परेशानी हुई तुम को...
मुझे अफ़सोस है सचमुच!!

 (3)
यूँ तो गर्मी से जलते दिनों के बाद बारिश की फुहार मन और तन दोनों को शीतल करती है। पर जैसा कि आपने पिछली नज़्म में देखा गुलज़ार की नज़्में बारिश को याद कर हमेशा उदासी की चादर ओढ़ लिया करती हैं। याद है ना आपको फिल्म इजाजत के लिए गुलज़ार का लिखा वो नग्मा जिसमें वो कहते हैं "छोटी सी कहानी से ,बारिशों के पानी से, सारी वादी भर गई, ना जाने क्यूँ दिल भर गया ....ना जाने क्यूँ आँख भर गई...."

ऐसी ही एक नज़्म  है बस एक ही सुर में ..जिसमें गुलज़ार मूसलाधार बारिश की गिरती लड़ियों को अपने हृदय में रिसते जख़्म से एकाकार पाते हैं।  देखिए तो नज़्म की पहली पंक्ति लगातार हो रही वर्षा को कितनी खूबसूरती से परिभाषित करती है..

बस एक ही सुर में, एक ही लय पे
सुबह से देख
देख कैसे बरस रहा
है उदास पानी
फुहार के मलमली दुपट्टे से
उड़ रहे हैं
तमाम मौसम टपक रहा है

पलक-पलक रिस रही है ये
कायनात सारी
हर एक शय भीग-भीग कर
देख कैसी बोझल सी हो गयी है

दिमाग की गीली-गीली सोचों से
भीगी-भीगी उदास यादें
टपक रही हैं

थके-थके से बदन में
बस धीरे-धीरे साँसों का
गरम लोबान जल रहा है...


(4)

बारिश से जुड़ी गुलज़ार की नज्मों में ये मेरी पसंदीदा है और शायद आपकी हो। इंसान बरसों के बने बनाए रिश्ते से जब निकलता है तो उससे उपजी पीड़ा असहनीय होती है। टूटे हुए दिल का खालीपन काटने को दौड़ता है। गुलज़ार की ये नज़्म वैसे ही कठिन क्षणों को अपने शब्दों में आत्मसात कर लेती है। जब भी इसे सुनता हूँ मन इस नज़्म में व्यक्त भावनाओं से निकलना अस्वीकार कर देता है। गुलज़ार की आवाज़ में खुद महसूस कीजिए इस नज़्म की विकलता को..

किसी मौसम का झोंका था....
जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है
गए सावन में ये दीवारें यूँ सिली नहीं थी
न जाने इस दफा क्यूँ इनमे सीलन आ गयी है ,
दरारे पड़ गयी हैं
और सीलन इस तरह बहती है जैसे खुश्क रुखसारों पे गीले आँसू चलते हैं

ये बारिश गुनगुनाती थी इसी छत की मुंडेरों पर
ये घर की खिडकियों के काँच पर ऊँगली से लिख जाती थी संदेशे...
बिलखती रहती है बैठी हुई अब बंद रोशनदानो के पीछे
दुपहरें ऐसी लगती हैं बिना मुहरों के खाली खाने रखे हैं
न कोई खेलने वाला है बाज़ी और न कोई चाल चलता है
ना दिन होता है अब न रात होती है
सभी कुछ रुक गया है
वो क्या मौसम का झोंका था जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है


वैसे बारिश से जुड़ी गुलज़ार की लिखी और किन नज़्मों को आप पसंद करते हैं?

एक शाम मेरे नाम पर गुलज़ार की पसंदीदा नज़्में

रविवार, अप्रैल 07, 2013

रद्दी का अख़बार और गुलज़ार...

ज़रा बताइए तो अख़बार शब्द से आपके मन में कैसी भावनाएँ उठती हैं ? चाय की चुस्कियो् के साथ हर सुबह की आपकी ज़रूरत जिसके सानिध्य का आकर्षण कुछ मिनटों के साथ ही फीका पड़ जाता है। देश दुनिया से जोड़ने वाले काग़ज के इन टुकड़ों का भला कोई काव्यात्मक पहलू हो सकता है ....ये सोचते हुए भी अज़ीब सा अनुभव होता है।  पर गुलज़ार तो मामूली से मामूली वस्तुओं में भी अपनी कविता के लिए वो बिंब ढूँढ लेते है जो हमारे सामने रहकर भी हमारी सोच में नहीं आ पाती। नहीं समझे कोई बात नहीं ज़रा गुलज़ार की इस त्रिवेणी पर गौर कीजिए 

सामने आए मेरे, देखा मुझे, बात भी की
मुस्कुराये भी पुराने किसी रिश्ते के लिये 

कल का अखबार था बस देख लिया रख भी दिया..


पर रिश्तों के बासीपन से अलग पुराने पड़ते अख़बार का भी हमारी ज़िंदगी में एक अद्भुत मोल रहा है। ज़रा सोचिए तो बचपन से आज तक इस अख़बार को हम कैसे इस्तेमाल करते आ रहे हैं? नागपुर में रहने वाले विवेक राणाडे (Vivek Ranade) , जो प्रोफेशनल ग्राफिक डिजाइनर होने के साथ साथ एक कुशल फोटोग्राफर भी हैं ने इसी थीम को ध्यान में रखते हुए कई चित्र खींचे। वैसे तो ये चित्र अपने आप में एक कहानी कहते हैं पर जब गुलज़ार उस पर अपनी बारीक सोच का कलेवर चढ़ाते हैं तो विचारों की कई कड़ियाँ मन में उभरने लगती हैं। तो आइए देखते हैं कि विवेक और गुलज़ार ने साल के बारह महिनों के लिए अख़बार के किन रूपों को इस अनोखी काव्य चित्र श्रृंखला में सजाया है ?

ख़ुद तो पान खाने की आदत नहीं रहीं पर पान के बीड़े को अख़बार में लपेट  अतिथियों तक पहुँचाने का काम कई बार पल्ले पड़ा है ! इसीलिए तो गुलज़ार की इन पंक्तियों का मर्म समझ सकता हूँ जब वो कहते हैं...
 ख़बर तो आई थी कि होठ लाल थे उनके
'बनारसी' था कोई दाँतों में चबाया गया



वैसे क्या ये सही नहीं कि चूड़ियाँ भी सालों साल उन कलाइयों में सजने के पहले काग़ज के इन टुकड़ों की सोहबत में रह कर अपनी चमक बरक़रार रख पाती हैं !


ख़बर तो सबको थी कि चूड़ियाँ थी बाहों में
ना जाने क्या हुआ कुछ रात ही को टूट गयीं



मुबई की लोकल ट्रेनों में सफ़र करते हुए काग़ज़ के इन टुकड़ों में परोसे गए बड़ा पाव का ज़ायका बरबस याद आता है विवेक राणाडे की इस छवि को देखकर।

ये वादा था कोई भूखा नहीं रहेगा कहीं
वो वादा देखा है अख़बार में लपेटा हुआ


 

शायद ही कोई बचपन ऐसा होगा को जो बरसात में काग़ज़ की नावों और कक्षा के एक  कोने से दूसरे कोने में निशाना साध कर फेंके गए इन रॉकेटों से अछूता  रहा हो..पर इन राकेटों से बारूद नहीं शरारत भरा प्यार बरसता था। इसीलिए तो गुलज़ार कहते हैं

असली रॉकेट थे बारूद भरा था उनमें
ये तो बस ख़बरें हैं और अख़बारें हैं


सोचिए तो अगर ये काग़ज़ के पुलिंदे ही ना रहें तो गर्व से फूले इन बैगों, बटुओं और जूतों के सीने क्या अपना मुँह दिखाने लायक रह पाएँगे..
फली फूली रहें जेबें तेरी और तेरे बटवे
इन्हीं उम्मीद की ख़बरों से हम भरते रहेंगे



बड़ी काग़ज़ी दोस्ती है नोट के साथ वोट की..:)

ख़बर थी नोट के साथ कुछ वोट भी चले आए
सफेद कपड़ों में सुनते हैं 'ब्लैक मनी' भी थी


काँच की टूटी खिड़कियाँ कबसे अपने बदले जाने की इल्तिजा कर रही हैं। पर घर के मालिक का वो रसूख तो रहा नहीं..दरकती छतें, मटमैली होती दीवारों की ही बारी नहीं आती तो इस फूटे काँच की कौन कहे। उसे तो बस अब अख़बार के इस पैबंद का ही सहारा है। गुलज़ार इस चित्र को अलग पर बेहद मज़ेदार अंदाज़ में आँकते हैं..


ख़ुफिया मीटिंग की हवा भी ना निकलती बाहर
इक अख़बार ने झाँका तो ख़बर आई है


याद कीजिए बचपन में बनाए गए उन पंखों को जो हवा देते नहीं पर माँगते जरूर थे :)

हवा से चलती है लेकिन हवा नहीं देती
ख़बर के उड़ने से पहले भी ये ख़बर थी हमें




किताबों की जिल्द के लिए अक़्सर मोटे काग़जों की दरकार होती। सबसे पहले पिछले सालों के कैलेंडर की सेंधमारी होती। उनके चुकने पर पत्रिकाओं के रंगीन पृष्ठ निकाले जाते। पर तब श्वेत श्याम का ज़माना था। कॉपियों का नंबर आते आते अख़बार के पन्ने ही काम में आते...

इसी महिने में आज़ादी आई थी पढ़कर
कई किताबों ने अख़बार ही लपेट लिए


कई बार अख़बार के पुराने ठोंगो के अंदर की सामग्री चट कर जाने के बाद मेरी नज़रें अनायास ही उन पुरानी ख़बरों पर जा टिकती थीं। कभी कभी तो वो इतनी रोचक होतीं कि उन्हें पूरा पढ़कर ही खाली ठोंगे को ठिकाना लगाया जाता। वैसे क्या आपके साथ ऐसा नहीं हुआ ?

धूप में रखी थी मर्तबान के अंदर
अचार से ज़्यादा चटपटी ख़बर मिली



बचपन में माँ की नज़र बचा काग़ज़ में आग लगाना मेरा प्रिय शगल हुआ करता था। दीपावली में अख़बार को मचोड़ कर एक सिरे पर बम की सुतली और दूसरे सिरे पर आग लगाने का उपक्रम सालों साल रोमांच पैदा करता रहा। जितना छोटा अख़बार उतनी तेज दौड़ ! कई बार तो अख़बार की गिरहों में फँसा बम अचानक से फट पड़ता जब हम उसके जलने की उम्मीद छोड़ उसका मुआयना करने उसके पास पहुँचते। 

यूँ तो अख़बार जलने से ख़बरें जलती हैं पर कुछ ख़बरें तो दिल ही जला डालती हैं। उनका क्या !

कुछ दिन भी सर्दियों के थे और बर्फ पड़ी थी
ऐसे में इक ख़बर मिली तो आग लग गई

साल के समापन का गुलज़ार का अंदाज़ निराला है
जैसी भी गुजरी मगर साल गया यार गया
Beach पर उड़ता हुआ वो अख़बार गया



इस कैलेंडर पर अपनी लिखावट से अक्षरों को नया रूप दिया है अच्युत रामचन्द्र पल्लव (Achyut Palav) ने। इस पूरे कैंलेंडर को पीडीएफ फार्मेट में आप यहाँ से डाउनलोड कर सकते हैं। 

पुनःश्च इस लेख का जिक्र  दैनिक हिंदुस्तान में भी


शनिवार, जनवरी 26, 2013

वार्षिक संगीतमाला 2012 पॉयदान # 15 :जिया रे जिया रे जिया जिया रे जिया रे...

वार्षिक संगीतमाला की पन्द्रहवीं पॉयदान पर पहली और इस साल की संगीतमाला में आख़िरी बार दाखिल हो रही है ए आर रहमान और गुलज़ार की जोड़ी। वैसे तो ये दोनों कलाकार मेरे प्रिय हैं पर मेरा ऐसा मानना है कि जितना अच्छा परिणाम रहमान जावेद अख़्तर के साथ  देते रहे हैं वो गुलज़ार के साथ उनकी जोड़ी में दिखाई नहीं देता । 'जब तक है जान' के गीत 'छल्ला' पर भले ही गुलज़ार फिल्मफेयर एवार्ड लेने में कामयाब रहे हों पर उनकी लेखनी के प्रेमियों को इस एलबम से जितनी उम्मीदें थी उस हिसाब से उन्होंने निराश ही किया। यही हाल रहमान का भी रहा। जब तक है जान में गुलज़ार ने एक गीत में लिखा

साँस में तेरी साँस मिली तो, मुझे साँस आई.. मुझे साँस आई
रूह ने छू ली जिस्म की खुशबू, तू जो पास आई..  तू जो पास आई

पढ़ने में तो भले ही ये पंक्तियाँ आपको प्रभावित करे पर जब रहमान ने इन बोलों को संगीतबद्ध किया तो सुन कर घुटन सी होने लगी यानि साँस आने के बजाए रुकने लगी। पर जिया रे जिया रे  के लिए रहमान ने जिन दो कलाकारों पर भरोसा किया उन्होंने द्रुत गति की रिदम के इस गीत के साथ पूरा न्याय किया। ये कलाकार थे टेलीविजन के चैनल वी के रियल्टी शो पॉपस्टार की विजेता नीति मोहन और नामी गिटारिस्ट चन्द्रेश कुड़वा। ये गीत फिल्म में बिंदास चरित्र अकीरा यानि अनुष्का शर्मा पर फिल्माया जाना था। नीति ने ये गीत खुली आवाज़ में स्वछंदता से पूरी तह आनंदित होकर गाया है जिसकी गीत के मूड को जरूरत थी। (वैसे नीति इस साल एक और चर्चित गीत गा चुकी हैं जो इस संगीतमाला का हिस्सा नहीं है। बताइए तो कौन सा गीत है वो ?)


चन्द्रेश गिटार पर अपनी उँगलियों की थिरकन शुरु से अंत तक बरक़रार रखते हैं। पार्श्व से दिया उनका सहयोग गीत के रूप को निखार देता है। रहमान इंटरल्यूड्स में गिटार के साथ बाँसुरी और ताली का अच्छा मिश्रण करते हैं।
 
गुलज़ार के बोल ज़िदगी के हर लमहे को पूरी तरह से जीने के लिए हमें उद्यत करते हैं। गीतकार ने कहना चाहा है कि अगर हम जीवन की छोटी छोटी खुशियों को चुनते रहें तो उसकी मिठास ज़ेहन में सालों रस घोलती रहती है। ज़िदगी के उतार चढ़ावों को खुशी खुशी स्वीकार कर हम ना केवल ख़ुद बल्कि अपने आसपास के लोगों को भी अच्छी मनःस्थिति में रख सकते हैं। जब भी ये गीत सुनता हूँ मन में एक खुशनुमा अहसास सा तारी होने लगता है। तो आइए सुनें इस गीत को



चली रे, चली रे...जुनूँ को लिए
कतरा, कतरा...लमहों को पीये
पिंजरे से उड़ा, दिल का शिकरा
खुदी से मैंने इश्क किया रे
जिया, जिया रे जिया रे

छोटे-छोटे लमहों को, तितली जैसे पकड़ो तो
हाथों में रंग रह जाता है, पंखों से जब छोडो तो
वक़्त चलता है, वक़्त का मगर रंग
उतरता है अकीरा
उड़ते-उड़ते फिर एक लमहा
मैंने पकड़ लिया रे
जिया रे जिया रे जिया जिया रे...

हलके-हलके पर्दों में, मुस्कुराना अच्छा लगता है
रौशनी जो देता हो तो, दिल जलाना अच्छा लगता है
एक पल सही, उम्र भर इसे
साथ रखना अकीरा
ज़िन्दगी से फिर एक वादा
मैंने कर लिया रे
जिया जिया रे जिया रे...

सोमवार, मई 28, 2012

मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ : क्या था गीता दत्त की उदासी का सबब ?

कनु दा से जुड़ी इस श्रृंखला की आख़िरी कड़ी में पेश है वो गीत जिसने उनके संगीत से मेरी पहली पहचान करवाई। अनुभव में यूँ तो गीता दत्त जी के तीनों नग्मे लाजवाब थे पर मुझे जाँ ना कहो मेरी जान.... की बात ही कुछ और है। रेडिओ से भी पहले मैंने ये गीत अपनी बड़ी दी से सुना था। गीता दत्त के दो नग्मे वो हमें हमेशा सुनाया करती थीं एक तो बाबूजी धीरे चलना... और दूसरा अनुभव फिल्म का ये गीत। तब गुलज़ार के बोलों को समझ सकने की उम्र नहीं थी पर कुछ तो था गीता जी की आवाज़ में जो मन को उदास कर जाता था।

आज जब इस गीत को सुनता हूँ तो विश्वास नहीं होता की गीता जी इस गीत को गाने के एक साल बाद ही चल बसी थीं। सच तो ये है कि जिस दर्द को वो अपनी आवाज़ में उड़ेल पायी थीं उसे सारा जीवन उन्होंने ख़ुद जिया था। इससे पहले कि मैं इस गीत की बात करूँ, उन परिस्थितियों का जिक्र करना जरूरी है जिनसे गुजरते हुए गीता दत्त ने इन गीतों को अपनी आवाज़ दी थी। महान कलाकार अक़्सर अपनी निजी ज़िंदगी में उतने संवेदनशील और सुलझे हुए नहीं होते जितने कि वो पर्दे की दुनिया में दिखते हैं।  गीता रॉय और गुरुदत्त भी ऐसे ही पेचीदे व्यक्तित्व के मालिक थे। एक जानी मानी गायिका से इस नए नवेले निर्देशक के प्रेम और फिर 1953 में विवाह की कथा तो आप सबको मालूम होगी। गुरुदत्त ने अपनी फिल्मों में जिस खूबसूरती से गीता दत्त की आवाज़ का इस्तेमाल किया उससे भी हम सभी वाकिफ़ हैं।


पर वो भी यही गुरुदत्त थे जिन्होंने शादी के बाद गीता पर अपनी बैनर की फिल्मों को छोड़ कर अन्य किसी फिल्म में गाने पर पाबंदी लगा दी। वो भी सिर्फ इस आरोप से बचने के लिए कि वो अपनी कमाई पर जीते हैं। हालात ये थे कि चोरी छुपे गीता अपने गीतों की रिकार्डिंग के लिए जाती और भागते दौड़ते शाम से पहले घर पर मौज़ूद होतीं ताकि गुरुदत्त को पता ना चल सके। गुरुदत्त को एकांतप्रियता पसंद थी। वो अपनी फिल्मों के निर्माण  में इतने डूब जाते कि उन्हें अपने परिवार को समय देने में भी दिक्कत होती। वहीं गीता को सबके साथ मिलने जुलने में ज्यादा आनंद आता। एक दूसरे से विपरीत स्वाभाव वाले कलाकारों का साथ रहना तब और मुश्किल हो गया जब गुरुदत्त की ज़िंदगी में वहीदा जी का आगमन हुआ। नतीजन पाँच सालों में ही उनका विवाह अंदर से बिखर गया। आगे के साल दोनों के लिए तकलीफ़देह रहे। काग़ज के फूल की असफलता ने जहाँ गुरुदत्त को अंदर से हिला दिया वहीं घरेलू तनाव से उत्पन्न मानसिक परेशानी का असर गीता दत्त की गायिकी पर पड़ने लगा। 1964 में गुरुदत्त ने आत्महत्या की तो गीता दत्त कुछ समय के लिए अपना मानसिक संतुलन खो बैठीं। जब सेहत सुधरी तो तीन बच्चों की परवरिश और कर्ज का पहाड़ उनके लिए गंभीर चुनौती बन गया। शराब में अपनी परेशानियों का हल ढूँढती गीता की गायिकी का सफ़र लड़खड़ाता सा साठ के दशक को पार कर गया।

इन्ही हालातों में कनु राय, गीता जी के पास फिल्म अनुभव के गीतों को गाने का प्रस्ताव ले के आए। बहुत से संगीतप्रेमियों को ये गलतफ़हमी है कि कनु दा गीता दत्त के भाई थे। (गीता जी के भाई का नाम मुकुल रॉय था)  दरअसल कनु दा और गीता जी में कोई रिश्तेदारी नहीं थी पर कनु उनकी शोख आवाज़ के मुरीद जरूर थे क्यूँकि अपने छोटे से फिल्मी कैरियर में उन्होंने लता जी की जगह गीता जी के साथ काम करना ज्यादा पसंद किया। गीता जी के जाने के बाद भी लता जी की जगह उन्होंने आशा जी से गाने गवाए। कनु दा के इस गीत में भी उनके अन्य गीतों की तरह न्यूनतम संगीत संयोजन है। जाइलोफोन (Xylophone) की तरंगों के साथ गुलज़ार के अर्थपूर्ण शब्दों को आत्मसात करती गीता जी की आवाज़ श्रोताओं को गीत के मूड से बाँध सा देती हैं।

 

गुलज़ार शब्दों के खिलाड़ी है। कोई भी पहली बार इस गीत के मुखड़े को सुन कर बोलेगा ये जाँ जाँ क्या लगा रखी है। पर ये तो गुलज़ार साहब हैं ना ! वो बिना आपके दिमाग पर बोझ डाले सीधे सीधे थोड़ी ही कुछ कह देंगे। कितनी खूबसूरती से जाँ (प्रियतम)और जाँ यानि (जान,जीवन) को एक साथ मुखड़े में पिरोया हैं उन्होंने। यानि गुलज़ार साहब यहाँ कहना ये चाह रहे हैं कि ऐसे संबोधन से क्या फ़ायदा जो शाश्वत नहीं है। जो लोग ऐसा कहते हैं वो तो अनजान हैं ..इस सत्य से। वैसे भी कौन स्वेच्छा से  इस शरीर को छोड़ कर जाना चाहता है। तो आइए सुनते हैं इस गीत को


मेरी जाँ, मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ
मेरी जाँ, मेरी जाँ
मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ
मेरी जाँ, मेरी जाँ

जाँ न कहो अनजान मुझे
जान कहाँ रहती है सदा
अनजाने, क्या जाने
जान के जाए कौन भला
मेरी जाँ
मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ ...

अगले अंतरों में गुलज़ार एकाकी दिल की व्यथा और उसके प्रेम की पाराकाष्ठा को व्यक्त करते नज़र आते हैं। साथ ही अंत में सुनाई देती है गीता जी की खनकती हँसी जो उनके वास्तविक जीवन से कितनी विलग थी।

सूखे सावन बरस गए
कितनी बार इन आँखों से
दो बूँदें ना बरसे
इन भीगी पलकों से
मेरी जाँ
मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ   ...

होंठ झुके जब होंठों पर
साँस उलझी हो साँसों में
दो जुड़वाँ होंठों की
बात कहो आँखों से
मेरी जाँ
मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ   ...


गीता दत्त और कनु रॉय ने जो प्रशंसा अनुभव के गीतों से बटोरी उसका ज्यादा फ़ायदा वे दोनों ही नहीं उठा सके। अनुभव के बाद भी गीता जी ने फिल्म रात की उलझन ,ज्वाला व मिडनाइट जैसी फिल्मों में कुछ एकल व युगल गीत गाए पर 1972 में गीता जी के लीवर ने जवाब दे दिया और उनकी आवाज़ हमेशा हमेशा के लिए फिल्मी पर्दे से खो गई।

वहीं कनु रॉय भी बासु दा की छत्रछाया से आगे ना बढ़ सके। दुबली पतली काठी और साँवली छवि वाला ये संगीतकार जीवन भर अंतरमुखी रहा। उनके साथ काम करने वाले भी उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कम ही जानते थे। इतना जरूर है कि वे अविवाहित ही रहे। आभाव की ज़िंदगी ने उनका कभी साथ ना छोड़ा। उसकी कहानी (1966) से अनुभव, आविष्कार, गृहप्रवेश, श्यामला से चलता उनका फिल्मी सफ़र  स्पर्श (1984) के संगीत से खत्म हुआ। पर जो मेलोडी उन्होंने मन्ना डे और गीता दत्त की आवाज़ों के सहारे रची उसे शायद ही संगीतप्रेमी कभी भूल पाएँ। 

 कनु दा से जुड़ी इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ 

गुरुवार, मई 17, 2012

मेरा दिल जो मेरा होता...क्या था कनु दा का गीत के मीटर को बताने का अंदाज़ ?

कनु रॉय से जुड़ी इस श्रृंखला में पिछली पोस्ट में हम बातें कर रहे थे उनके व्यक्तित्व के कुछ अछूते पहलुओं के बारे में गुलज़ार की यादों के माध्यम से। पिछले दो गीतों में आपने सुना कनु दा, कपिल और मन्ना डे की तिकड़ी को। पर आज  इस तिकड़ी से मन्ना डे और कपिल कुमार रुखसत हो रहे हैं और उनकी जगह आ रहे हैं गुलज़ार और गीता दत्त।

कनु दा ने गीता दत्त से चार गीत गवाए। ये गीत खासे लोकप्रिय भी हुए।  इनमें से दो को लिखा था गुलज़ार ने। उनमें से एक गीत था मेरा दिल जो मेरा होता। सच ही तो है ये दिल धड़कता तो इस शरीर के अंदर है पर इसकी चाल को काबू में रखना कब किसी के लिए संभव हो पाया है। गुलज़ार ने इसी बात को अपने गीत में ढालने की कोशिश की है।



पहले अंतरे में गुलज़ार अपनी काव्यात्मकता से मन को प्रसन्न कर देते हैं। जरा गौर कीजिए इन पंक्तियों को सूरज को मसल कर मैं, चन्दन की तरह मलती...सोने का बदन ले कर कुन्दन की तरह जलती। इन्हें सुनकर तो स्वर्णिम आभा लिया हुआ सूरज भी शर्म से लाल हो जाए। गुलज़ार तो जब तब हमें अपनी कोरी कल्पनाओं से अचंभित करते रहते हैं। पर कनु दा के संगीत निर्देशन में काम करते हुए एक बार गुलज़ार भी अचरज में पड़ गए। इसी सिलसिले में कनु दा के बारे में अपने एक संस्मरण में वो कहते हैं..
"गीत का मीटर बताने के लिए अक्सर संगीतकार कच्चे गीतों या डम्मी लिरिक्स का प्रयोग करते रहे हैं। और वो बड़ी मज़ेदार पंक्तियाँ हुआ करती थीं जिनमें से कई को तो मैंने अब तक सहेज कर रखा हुआ है। जैसे कुछ संगीतकार मेरी जान मेरी जान या कुछ जानेमन जानेमन की तरन्नुम में गीत का मीटर बतलाते थे। कुछ डा डा डा डा ...तो कुछ ला ला ला ला... या रा रा रा रा....। पर कनु का मीटर को बताने का तरीका सबसे अलग था। वो अपनी हर संगीत रचना का मीटर ती टा ती ती, ती टा ती ती.. कह के समझाते थे। उनका ये तरीका थोड़ा अज़ीब पर मज़ेदार लगता था।  अपने इस ती टा ती ती को उन्होंने अंत तक नहीं छोड़ा।"
कनु दा ने अपने अन्य गीतों की तरह फिल्म अनुभव के इस गीत में भी कम से कम वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया है। संगीत सुनने का आनंद तब दूना हो जाता है गीता जी की आवाज़ के साथ प्रथम अंतरे की हर पंक्ति के बाद सितार की धुन लहराती सी  गीत के साथ साथ चलती है। तो आइए सुनें इस गीत को..

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मेरा दिल जो मेरा होता
पलकों पे पकड़ लेती
होंठों पे उठा लेती
हाथों मे. खुदा होता
मेरा दिल   ...

सूरज को मसल कर मैं
चन्दन की तरह मलती
सोने का बदन ले कर
कुन्दन की तरह जलती
इस गोरे से चेहरे पर
आइना फ़िदा होता
मेरा दिल   ...

बरसा है कहीं पर तो
आकाश समन्दर में
इक बूँद है चंदा की
उतरी न समन्दर में
दो हाथों की ओट मिली
गिर पड़ता तो क्या होता
हाथों में खुदा होता
मेरा दिल   ...

बासु भट्टाचार्य के गीतों को फिल्माने का एक अलग अंदाज था। गीतों के दौरान वो फ्लैशबैक को ऐसे दिखाते थे मानो स्क्रीन पर लहरें उठ रही हों और उन्हीं में से पुरानी यादें अनायास ही प्रकट हो जाती हों।  ये गीत  अभिनेत्री तनुजा पर फिल्माया गया था।



अगली प्रविष्टि में बात करेंगे कनु दा, गुलज़ार और गीता दत्त के सबसे ज्यादा सराहे जाने वाले नग्मे के बारे में..
 कनु दा से जुड़ी इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ 

गुरुवार, अप्रैल 12, 2012

जब भी ये दिल उदास होता है : जब गीत का मुखड़ा बना एक ग़ज़ल का मतला !

कुछ गीतों का कैनवास फिल्मों की परिधियों से कहीं दूर फैला होता है। वे कहीं भी सुने जाएँ, कभी भी गुने जाएँ वे अपने इर्द गिर्द ख़ुद वही माहौल बना देते हैं। इसीलिए परिस्थितिजन्य गीतों की तुलना में ये गीत कभी बूढ़े नहीं होते। गुलज़ार का फिल्म सीमा के लिए लिखा ये नग्मा एक ऐसा ही गीत है। ना जाने कितने करोड़ एकाकी हृदयों को इस गीत की भावनाएँ उन उदास लमहों में सुकून पहुँचा चुकी होंगी। कम से कम अगर अपनी बात करूँ तो सिर्फ और सिर्फ इस गीत का मुखड़ा लगातार गुनगुनाते हुए कितने दिन कितनी शामें यूँ ही बीती हैं उसका हिसाब नहीं।

कहते हैं प्रेम के रासायन को पूरी तरह शब्दों में बाँध पाना असंभव है। पर शब्दों के जादूगर गुलज़ार गीत के पहले अंतरे में लगभग यही करते दिखते हैं। होठ का चुपचाप बोलना, आँखों की आवाज़ और दिल से निकलती आहों में साँसों की तपन को महसूस करते हुए भी शायद हम कभी उन्हें शब्दों का जामा पहनाने की सोच भी नहीं पाते, अगर गुलज़ार ने इसे ना लिखा होता।

गुलज़ार के लिखे गीतों में से बहुत कम को मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ मिली है।  पर मौसम, स्वयंवर, बीवी और मकान, देवता , कशिश और कोशिश जैसी फिल्मों में गुलज़ार के लिखे गिने चुने जो गीत रफ़ी साहब को गाने को मिले उन सारे गीतों पर अकेला ये गीत भारी पड़ता है। सीमा 1971  में प्रदर्शित हुई पर कुछ खास चली नहीं पर ये गीत खूब चला। मुझे हमेशा ये लगता रहा है कि रफ़ी की आवाज़ और गुलज़ार के लाजवाब बोलों की तुलना में शंकर जयकिशन का संगीत फीका रहा। संगीतकार शंकर की बदौलत गायिका शारदा भी इस गीत का हिस्सा बन सकीं। आप अंतरों के बीच उनके आलाप और कहीं कहीं मुखड़े में उनकी आवाज़ सुन सकते हैं।


जब भी ये दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है


होठ चुपचाप बोलते हों जब
साँस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आँखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में साँस जलती हो, 

ठंडी आहों में साँस जलती हो
जब भी ये दिल ...

आँख में तैरती हैं तसवीरें
तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए
आईना देखता है जब मुझको
एक मासूम सा सवाल लिए

एक मासूम सा सवाल लिए
जब भी ये दिल ...

कोई वादा नहीं किया लेकिन
क्यों तेरा इंतजार रहता है
बेवजह जब क़रार मिल जाए
दिल बड़ा बेकरार रहता है
दिल बड़ा बेकरार रहता है
जब भी ये दिल ...

इस गीत को फिल्माया गया था कबीर बेदी और सिमी ग्रेवाल की जोड़ी पर। देखिए तो कितने बदले बदले से लग रहे हैं इस गीत में ये कलाकार।


पर अगर आप ये सोच रहे हों कि मुझे गुलज़ार के इस गीत की अचानक क्यूँ याद आ गई तो आपका प्रश्न ज़ायज है। वैसे तो किसी गीत के ज़हन में अनायास उभरने का कई बार कोई कारण नहीं होता। पर कल जब मैं गुलजार की एक किताब के पन्ने उलट रहा था तो उनकी एक ग़ज़ल पर नज़रे अटक गयीं। ग़ज़ल का मतला वही था जो इस गीत का मुखड़ा है.। तो आप समझ सकते हैं ना कि जितना प्यार हम सबको इस मुखड़े से है उतना ही दिलअज़ीज ये गुलज़ार साहब को भी है तभी तो उन्होंने इसी पर एक ग़ज़ल भी कह डाली।

जब भी ये दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है

गो बरसती नहीं सदा आँखें
अब्र तो बारह मास होता  है


छाल पेड़ों की सख़्त है लेकिन
नीचे नाख़ून के माँस होता है

जख्म कहते हैं दिल का गहना है
दर्द दिल का लिबास होता है

डस ही लेता है सब को इश्क़ कभी
साँप मौका-शनास होता है


सिर्फ उतना करम किया कीजै
आपको जितना रास होता है

जिन अशआरों को bold किया है वो दिल के ज्यादा करीब हैं। वैसे इश्क़ की तुलना सर्प दंश से करने के ख़याल के बारे में आपका क्या ख़याल है ?

रविवार, मार्च 11, 2012

बस एक चुप सी लगी है... नहीं उदास नहीं !

होली का हंगामा थम चुका है। सप्ताहांत की इन छुट्टियों के बाद एक अज़ीब सी शान्ति का अहसास तारी है। ये सन्नाटा उदासी का सबब नहीं। मन तो माहौल में बहती खामोशी में ही रमना चाहता है। वैसे भी उत्साह और उमंग की पराकाष्ठा के बाद कौन सा मन सुकून के दो पल नहीं चाहेगा। ऐसे पलों में जब गुलज़ार के लिखे और हेमंत दा के गाए इस गीत का साथ आपके पास हो तो समझिए बस परम आनंद है।

वैसे तो गुलज़ार और हेमंत दा का नाम जब भी एक साथ आता है तो सबसे पहले याद फिल्म ख़ामोशी की ही आती है। वो शाम कुछ अज़ीब थी, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो और तुम्हारा इंतज़ार है पुकार लो जैसे संवेदनशील गीतों को भला कौन भूल सकता है ? पर आज जिस फिल्म के गीत की बात मैं कर रहा हूँ वो गीत है फिल्म 'सन्नाटा 'से जो कि फिल्म 'ख़ामोशी' के तीन साल पहले यानि 1966 में प्रदर्शित हुई थी।

ये एक छोटा सा नग्मा है। गुलज़ार ने अंतरों में ज्यादा शब्द खर्च नहीं किए, ना ही उनके भावों में जटिलता है। जैसा कि गुलज़ार प्रेमी जानते हैं कि गुलज़ारिश गीत एकबारगी में ही पकड़ में आ जाते हैं। पर पहली बार जब मैंने इस गीत को सुना था तो कम से कम मैं तो अंदाज़ नहीं ही लगा पाया था कि इसे गुलज़ार ने लिखा है।

पर इस गीत में कुछ तो ऐसा है कि एक बार सुन कर ही आप इसके हो के रह जाते हैं। एक तो गुजरते जीवन के प्रति संतोष का भाव मन को सुकून पहुँचाता है तो दूसरी ओर जिस भावपूर्ण अंदाज़ में हेंमंत दा गीत को निबाहते हैं कि अन्तरमन तक गदगद हो जाता है। हेमंत दा ने गीत में संगीत नाममात्र का रखा है। उनके स्वर को संगत देता घड़ा और हारमोनियम पूरे गीत में पार्श्व में बजता रहा है।

वैसे ये तो बताइए मुझे इस गीत का कौन सा अंतरा सबसे प्रिय लगता है? हाँ जी वही जिसमें गुलज़ार सहर, रात और दोपहर के बदले शाम को चुनने की बात करते हैं। आख़िर इस चिट्ठे का नाम एक शाम मेरे नाम यूँ ही तो नहीं पड़ा ना :) !


बस एक चुप सी लगी है नहीं उदास नहीं
कहीं पे साँस रुकी है नहीं उदास नहीं
बस एक चुप सी लगी है

कोई अनोखी नहीं ऐसी ज़िंदगी लेकिन
खूब न हो..
मिली जो खूब मिली है.
नहीं उदास नहीं
बस एक चुप सी लगी है ...

सहर भी ये रात भी
दुपहर भी मिली लेकिन
हमीं ने शाम चुनी,
हमीं ने....शाम चुनी है
नहीं उदास नहीं
बस एक चुप सी लगी है ...

वो दास्ताँ जो हमने कही भी
हमने लिखी
आज वो ...खुद से सुनी है
नहीं उदास नहीं
बस एक चुप सी लगी है

यूँ तो ये गीत मुझे हेमंत दा की आवाज़ में ही सुनना पसंद है पर इस गीत को हेमंत दा ने लता जी से भी गवाया है। इस वर्जन में हेमंद दा ने संगीत थोड़ा भिन्न रखा है। तो चलते चलते लता जी को भी सुन लीजिए..

सोमवार, फ़रवरी 13, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 - पॉयदान संख्या 6 : इक ज़रा चेहरा उधर कीजै इनायत होगी, आप को देख के बड़ी देर से मेरी साँस रुकी ..

भावनाएँ तो सबके मन में होती हैं और उनकों अभिव्यक्त करने के लिए जरूरी भाषा भी । पर फिर भी दिल के दरवाजों में बंद उन एहसासों को व्यक्त करना हमारे लिए दुरूह हो जाता है। पर ये शायर, उफ्फ बार बार उन्हीं शब्दों से तरह तरह से खेलते हुए कमाल के भाव रच जाते हैं। ऐसे लफ़्ज़ जो ना जाने दिल कबसे किसी को कहने को आतुर था। दोस्तों यकीन मानिए वार्षिक संगीतमाला की छठी पॉयदान के गीत में भी कुछ ऐसे जज़्बात हैं जो शायद हम सब ने अपने किसी ख़ास के लिए ज़िंदगी के किसी मोड़ पर सोचे होंगे।
और इन जज़्बों में डूबा अगर ऐसा कोई गीत गुलज़ार ने लिखा हो और आवाज़ संगीतकार विशाल भारद्वाज की हो तो वो गीत किस तरह दिल की तमाम तहों को पार करता हुआ अन्तरमन में पहुँचेगा, वो इन विभूतियों को पसंद करने वालों से बेहतर और कौन समझ सकता है?

गीतकार संगीतकार जोड़ी का नाम सुनकर तो आप समझ ही गए होंगे कि ये गीत फिल्म सात ख़ून माफ़ का है। पर इससे पहले कि इस गीत की बात करूँ, आप सबको ये बताना दिलचस्प रहेगा कि ये गीत कैसे बना। ये बात तबकी है जब फिल्म  'सात ख़ून माफ़' की शूटिंग हैदराबाद में शुरु हो चुकी थी पर अब तक इसके गीतों पर काम शुरु भी नहीं हो पाया था। हैदराबाद की ऐसी ही एक शाम को ज़ामों के दौर के बीच गुलज़ार ने विशाल को अपनी एक नज़्म का टुकड़ा सुनाया और कहा अब इसे ही आगे डेवलप करो। नज़्म कुछ यूँ थी...


गैर लड़की से कहे कोई मुनासिब तो नही
इक शायर को मगर इतना सा हक़ है
पास जाए और अदब से कह दे
इक ज़रा चेहरा उधर कीजै इनायत होगी
आप को देख के बड़ी देर से मेरी साँस रुकी है


विशाल ने जब ये नज़्म सुनी तो उनका दिल धक्क सा रह गया। उन्हें गुलज़ार की ये सोच कि किसी लड़की की खूबसूरती इस क़दर लगे कि कोई जा कर कहे कि मोहतरमा अपना चेहरा उधर घुमा लें नहीं तो ये साँस जो आपको देखकर रुक गई है हमेशा के लिए रुक जाएगी बहुत ही प्यारी लगी। और विशाल ने आख़िर को दो पंक्तियों को लेते हुए मुखड़ा तैयार किया। विशाल से एक रेडियो इंटरव्यू में गीत के अज़ीब से लगने वाले मुखड़े के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा..
"हाँ मुझे मालूम है कि इस गीत को सुननेवाले मुखड़े में प्रयुक्त शब्द बेकराँ को बेकरार समझेंगे पर वो शब्द गीत के मुखड़े को खूबसूरत बना देता है। दरअसल बेकराँ का मतलब है बिना छोर का.."
बेकराँ हैं बेकरम आँखें बंद कीजै ना
डूबने लगे हैं हम
साँस लेने दीजै ना लिल्लाह

(भई अब तो अपनी आँखे बँद कर लो ! बिना छोर की इन खूबसूरत आँखों की गहराई मैं मैं डूबने लगा हूँ। अब क्या तुम मेरी जान लोगी ?) है ना कितना प्यारा ख़याल !

गुलज़ार पहले अंतरे में अपनी प्रेयसी को देख वक़्त के ठहरने की बात करते हैं और दूसरे में बीती रात के उन अतरंग क्षणों को याद कर शरमा उठते हैं। विशाल भारद्वाज ने अपनी फिल्मों में बतौर गायक गुलज़ार के लिखे वैसे गीत चुने हैं जिनमें खूबसूरत कविता हो, गहरे अर्थपूर्ण बोल हों जो गायिकी में एक ठहराव माँगते हों। चाहे वो फिल्म ओंकारा का ओ साथी रे दिन डूबे ना हो या फिर फिल्म कमीने का इक दिल से दोस्ती थी या फिर इस गीत की बात हो, ये साम्यता साफ़ झलकती है।  

बारिश की गिरती बूँदों की आवाज़ से गीत शुरु होता एक ऐसे संगीत के साथ जो कोई रहस्य खोलता सा प्रतीत होता है। ये एक ऐसा गीत है जिसकी सारी खूबियाँ आपको एक बार सुनकर नज़र नहीं आ सकती। यही वज़ह है जितनी दफ़े इसे सुना है उतनी आसक्ति इस गीत के प्रति बढ़ी है। तो आइए सुनें इस बेहद रूमानी नग्में को जो कल के प्रेम पर्व के लिए तमाम 'एक शाम मेरे नाम' के पाठकों के लिए मेरी तरफ़ से छोटा सा तोहफा है..
बेकराँ हैं बेकरम आँखें बंद कीजै ना
डूबने लगे हैं हम
साँस लेने दीजै ना लिल्लाह
इक ज़रा चेहरा उधर कीजै इनायत होगी
आप को देख के बड़ी देर से मेरी साँस रुकी है
बेकराँ है बेकरम...

इक ज़रा देखिए तो आपके पाँव तले
कुछ तो अटका है कहीं
वक़्त से कहिए चले
उड़ती उड़ती सी नज़र
मुझको छू जाए अगर
एक तसलीम को हर बार मेरी आँख झुकी
आपको देख के...

आँख कुछ लाल सी है
रात जागे तो नहीं
रात जब बिजली गयी
डर के भागे तो नहीं
क्या लगा होठ तले
जैसे कोई चोट चले
जाने क्या सोचकर इस बार मेरी आँख झुकी
आप को देख के बड़ी देर से मेरी साँस रुकी है
बेकराँ है बेकरम...

फिल्म में ये गीत फिल्माया गया है इरफ़ान खाँ और प्रियंका चोपड़ा पर । इरफ़ान का किरदार एक शायर का है। गीत के पहले वो एक शेर पढ़ते हैं

इस बार तो यूँ होगा थोड़ा सा सुकूँ होगा
ना दिल में कसक होगी, ना सर पर जुनूँ होगा

बुधवार, फ़रवरी 01, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 : पॉयदान संख्या 10 - मनवा आगे भागे रे. बाँधूँ... सौ-सौ तागे रे !

दोस्तों एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला में वक़्त आ पहुँचा है शुरुआती दस सीढ़ियों पर कदम रखने का ! दसवीं पॉयदान पर गीत वो जिसे लिखा गुलज़ार ने, धुन बनाई राजा नारायण देव और संजय दास ने और जिसे गाया एक बार फिर से श्रेया घोषाल ने। जी हाँ ये गीत है फिल्म कशमकश से। आपको याद होगा कि इसी फिल्म का एक और संवेदनशील गीत तेरी सीमाएँ कोई नहीं है निचली पॉयदान पर बज चुका है। जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया था ये फिल्म गुरुवर रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास नौका डूबी पर आधारित है।

रितुपर्णा घोष द्वारा निर्देशित फिल्म को जब सुभाष घई साहब ने गोआ के फिल्म फेस्टिवल में देखा तो उन्हें लगा कि ये फिल्म तो हिंदी में भी बनानी चाहिए। उन्होंने तभी रितुपर्णा से इस बाबत बात की। रितुपर्णा तो राजी हो गए पर फिल्म को हिंदी में बनाने के पहले इसके गीतों को अनुदित करने के लिए घई साहब को बस एक नाम सूझ रहा था और वो नाम था 'गुलज़ार' का।

गुलज़ार साहब ने फिल्म देखते ही अपनी हामी भरी और कहा कि ये रितुपर्णा की बनाई अब तक की सबसे बेहतरीन फिल्म है। रवींद्र संगीत पर आधारित फिल्म का संगीत पहले ही राजा व संजय द्वारा रचा जा चुका था। गुलज़ार और सुभाष घई द्वारा गीतों को अनुदित करने के पीछे धारणा ये थी कि गुरुवर द्वारा शब्द प्रयोग और भावों से छेड़ छाड़ ना की जाए।


बंगाली फिल्मों से अपनी पहचान बनाने वाले युवा संगीतकार राजा नारायण देव और संजय दास खुद ही अच्छे गिटार व कीबोर्ड प्लेयर है। वांयलिन, पिआनो, बैंजो, सेलो और डुकडुक जैसे वाद्यों का वे अपने संगीतबद्ध गीतों में बखूबी इस्तेमाल करते हैं पर उनका ये भी मानना है कि किसी फिल्म के संगीत का निर्धारण उसकी पटकथा करती है ना कि उनकी व्यक्तिगत पसंद। शायद यही वज़ह है कि कशमकश के ज्यादातर गीतों में संगीत पृष्ठभूमि में ही रहा है ताकि शब्दों की प्रभावोत्पादकता में कोई कमी ना आए।

अब टैगोर ने मूल रूप से तो लिखा था खेलाघर बाँधते लेगेची.आमार मोन भीतरे.. यानि अपने मन के अंदर मैंने एक घर बना लिया अपने ख्वाबों से खेलने के लिए और देखिए गुलज़ार ने इस गीत का भावानुवाद कर हिंदी में कितना खूबसूरत मुखड़ा लिखा है मेरी समझ से ये चंद पंक्तियाँ गीत की जान हैं जो गीत सुनने के बाद भी बहुत समय तक ज़ेहन में बनी रहती हैं। आप भी गौर फ़रमाइए

मनवा आगे भागे रे
बाँधूँ सौ-सौ तागे रे

ख्वाबों से खेल रहा है
सोए जागे रे..
चंचल मन को पकड़ने कि कितनी जुगतें पर वो भला कब पकड़ में आने वाला है.. श्रेया का गीत के मुखड़े के पहले का आलाप, फिर मुखड़े की अदाएगी सुनते ही गीत की मधुरता से मन झूमने लगता है। अंतरों में भी गीत की मिठास में कोई कमी नहीं आती। ऐसा लगता है कि गीत का मिज़ाज मानो उनकी आवाज़ में रच बस गया है। तो आइए सुनते हैं श्रेया के स्वर में ये मधुर गीत... 

डारी पे बोले कोयलिया
कौन रस घोले कोयलिया
सारी रात अपने सपनों में
सोए जागे रे

दिन गया जैसे रूठा-रूठा
शाम है अंजानी,
पुराने पल जी रहा है
आँखें पानी-पानी
वो जो था था कि नहीं था
आए तो बताएगा
सपनों से वो उतरेगा
ऐसा लागे रे


और ये है गीत का बँगला संस्करण....

शुक्रवार, जनवरी 13, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 - पॉयदान संख्या 18 : तेरी सीमाएँ..जब गुलज़ार और श्रेया ने घोला उदासी का रंग..

रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास नौका डूबी से प्रेरित हिंदी और बंगाली फिल्म जगत में कई बार फिल्में बन चुकी हैं। इसी सिलसिले को इस बार और आगे बढ़ाया रितुपर्णा घोष ने। बंगाली में ये फिल्म पिछले साल जनवरी महिने में आई। पर हिंदी के दर्शकों के लिए मई महिने में कशमकश के नाम से प्रदर्शित हुई। फिल्म का बँगला रूप तो दर्शकों द्वारा खूब सराहा गया पर हिंदी में ये फिल्म कब आई और कब गई इसका पता ही नहीं चला।

ऐसे में इस फिल्म का संगीत आप तक पहुँचा होगा इसमें मुझे शक है। फिल्म के गीतों को गुलज़ार ने लिखा है और संगीतबद्ध किया है राजा नारायण देव और संजय दास ने। राजा साहब के इतने भारी भरकम नाम से ये ना समझ लीजिएगा कि उम्र में भी वो इतने ही दीर्घ होंगे। कोलकाता में रहने वाले राजा ने 1998 में अर्थशास्त्र से स्नातक की डिग्री ली है। इन युवा संगीतकारों ने इस पीरियड फिल्म के गीतों की प्रकृति के हिसाब से ऐसा संगीत दिया हैं जिसमें मधुरता के साथ एक तरह का ठहराव है। गीत के अर्थपूर्ण बोलों पर उनका संगीत हावी नहीं होता बल्कि पार्श्व से शब्दों के बहाव को सिर्फ दिशा प्रदान करता है।

फिल्म के बँगला संस्करण में लिखे गीत ख़ुद टैगोर के रचित हैं। ऍसा लगता है कि गुलज़ार ने टैगोर के शब्दों से हिंदी अनुवाद करते समय उसमें अपनी शैली के अनुरूप ज्यादा बदलाव नहीं किया । इस तरह के गीतों की धुन बनाना और उसे गाना आसान नहीं। गीत वियोग में डूबी नायिका का आत्मालाप है और श्रेया घोषाल ने उन भावनाओं को अपनी आवाज़ में बखूबी ढाला है।  गीत में जो उदासी का रंग है वो एक बार में आपके दिल तक नहीं पहुँचता। ये गीत मेरे लिए वैसे गीतों में है जो धीरे धीरे दिल में जगह बनाते हैं। तो आईए सुनते हैं श्रेया को इस गीत में।

तेरी सीमाएँ कोई नहीं है
बहते जाना बहते जाना है
दर्द ही दर्द है
सहते रहना सहते जाना है

तेरे होते दर्द नहीं था
दिन का चेहरा ज़र्द नहीं था
तुझसे रूठ के मरते रहना
मरते रहना है...
तेरी सीमाएँ कोई नहीं है...

मैं आधी अधूरी बैठी किनारे
नदिया नदिया आँसू आँसू रोना
बातों पे रोना नैनों की जबानी
रात दिन कहते रहना है
आग अंदर की कोई ना देखे
पलक झपकते तुम जो देखो
तुझको पाना तुझको छूना
मुक्ति का पाना है
तेरी सीमाएँ कोई नहीं है



वैसे श्रेया, गुलज़ार और राजा संजय की इस तिकड़ी के बारे में कुछ और बातें भी करनी है आपसे। पर फिलहाल उस चर्चा को स्थगित रखना होगा अंतिम दस गानों की फेरहिस्त तक पहुँवने तक क्यूँकि वहाँ इस फिल्म का एक और मधुर गीत हमारी प्रतीक्षा में है।

रविवार, अगस्त 14, 2011

पूछे जो कोई मेरी निशानी रंग हिना लिखना, गोरे बदन पे उँगली से मेरा नाम अदा लिखना

छः साल पहले यानि 2005 में कश्मीर समस्या की पृष्ठभूमि पर एक फिल्म बनी थी नाम था 'यहाँ'! फिल्म ज्यादा भले ही ना चली हो पर इसके गीत आज भी संगीतप्रेमी श्रोताओं के दिल में बसे हुए हैं,खासकर इसका ये रोमांटिक नग्मा। गुलज़ार ने अपनी लेखनी से ना जाने कितने प्रेम गीतों को जन्म दिया है पर उनकी लेखनी का कमाल है कि हर बार प्यार के ये रंग बदले बदले अल्फ़ाज़ों के द्वारा मन में एक अलग सी क़ैफ़ियत छोड़ते है।
'यहाँ' फिल्म का ये गीत सुनकर दिल सुकून सा पा लेता है। श्रेया घोषाल की स्निग्ध आवाज़ और पार्श्व में शान्तनु मोएत्रा के बहते संगीत पर गुलज़ार के बोल गज़ब का असर करते हैं। गुलज़ार गीत के मुखड़े से ही रूमानियत का जादू जगाते चलते हैं। नायिका का ये कहना कि यूँ तो मेरी रंगत हिना से मिलती जुलती है पर जब तुम्हारा स्पर्श मुझे मिलता है मेरी हर बात एक अदा बन जाती है,अन्तरमन को गुदगुदा जाता है..

फिल्म यहाँ की कहानी एक कश्मीरी लड़की और फ़ौज के एक अफ़सर के बीच आतंकवाद के साए में पलते प्रेम की कहानी है। ज़ाहिर है प्रेमी युगल आशावान हैं कि आज नहीं तो कल ये हालात बदलेंगे ही...गुलज़ार पहले अंतरे में यही रेखांकित करना चाहते हैं

पूछे जो कोई मेरी निशानी
पूछे जो कोई मेरी निशानी
रंग हिना लिखना
गोरे बदन पे
उँगली से मेरा
नाम अदा लिखना
कभी कभी आस पास चाँद रहता है
कभी कभी आस पास शाम रहती है..

झेलम में बह लेंगे..
वादी के मौसम भी
इक दिन तो बदलेंगे
कभी कभी आस पास चाँद रहता है
कभी कभी आस पास शाम रहती है..

गीत के दूसरा और तीसरे अंतरे में श्रोता अपने आप को प्रकृति से जुड़े गुलज़ार के चिर परिचित मोहक रूपकों से घिरा पाते हैं। शाम की फैली चादर, चाँद की निर्मल चाँदनी, गिरती बर्फ , फैलती धुंध, बदलते रंग और जलती लकड़ियों की आँच सब कुछ तो है जो जवाँ दिलों को एक दूसरे से अलग होने नहीं देती.. । गुलज़ार की लेखनी एक अलग ही धरातल पर तब जाती दिखती है जब वो कहते हैं..शामें बुझाने आती हैं रातें, रातें बुझाने, तुम आ गए हो.। ये सब पढ़ सुन कर बस एक आह सी ही निकलती है...

आऊँ तो सुबह
जाऊँ तो मेरा नाम सबा लिखना
बर्फ पड़े तो बर्फ पे मेरा नाम दुआ लिखना
ज़रा ज़रा आग वाग पास रहती है
ज़रा ज़रा कांगड़ी का आँच रहती है
कभी कभी आस पास चाँद रहता है
कभी कभी आस पास शाम रहती है..

जब तुम हँसते हो
दिन हो जाता है
तुम गले लगो तो
दिन सो जाता है
डोली उठाये आएगा दिन तो
पास बिठा लेना
कल जो मिले तो
माथे पे मेरे सूरज उगा देना
ज़रा ज़रा आस पास धुंध रहेगी
ज़रा ज़रा आस पास रंग रहेंगे

पूछे जो कोई मेरी निशानी...शाम रहती है..
इस गीत में श्रेया का साथ दिया है शान ने। श्रेया इस गीत को अपने गाए सर्वप्रिय गीतों में से एक मानती हैं। इस गीत के बारे में अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि
इस गीत में ऐसा कुछ है जो मुझे अपनी ओर खींचता है। वे इसके शब्द नहीं हैं, ना ही मेरी गायिकी और ना ही इसका संगीत पर इन तीनों के समन्वय से बनी इस गीत की पूर्णता ही मुझे इस गीत को बार बार सुनने को मजबूर करती है।

श्रेया के मुताबिक इस फिल्म के संगीतकार शान्तनु मोएत्रा एक ऐसे संगीतकार हैं जिनका संगीत संयोजन इस तरह का होता है कि वो गीत में वाद्य यंत्रों का नाहक इस्तेमाल नहीं करते। श्रेया का कहना बिल्कुल सही है।शांतनु की इस विशिष्ट शैली को हम उनकी बाद की फिल्मों परिणिता, खोया खोया चाँद और एकलव्य दि रॉयल गार्ड जैसी फिल्मों में भी देखते आए हैं।

यहाँ फिल्म अभिनेत्री मिनीषा लांबा की पहली फिल्म थी। फिल्म में उनका अभिनय और फिल्म का छायांकन चर्चा का विषय रहे थे। इस गीत के वीडिओ में आप फिल्म की इन दोनों खूबियों का सुबूत सहज पा लेंगे....
चलते चलते जरा याद कीजिए की विगत बीस सालों (1990 -2010) में गुलज़ार के लिखे रूमानी नग्मों में आपको सबसे ज्यादा कौन पसंद हैं? अपनी पसंद बताइएगा। फिलहाल मेरी पसंद तो ये रही..

मंगलवार, अप्रैल 19, 2011

पंचम और उनकी 'मादल' तरंग जिससे बना एक कर्णप्रिय नग्मा : तेरे बिना जिया जाए ना...

पंचम दा एक ऐसे संगीतकार थे जो संगीत संयोजन में नित नए प्रयोग किया करते थे। वैसे तो पंचम, किशोर और गुलज़ार की तिकड़ी के जाने कितने ही गीत सत्तर के दशक के मेरे सर्वप्रिय गीतों में रहे हैं पर उनके कुछ गीत ऐसे हैं जो उनमें प्रयुक्त धुनों और तालों की वज़ह से यादों से कभी दूर नहीं होते। आज 1978 में बनी फिल्म 'घर' का ऐसा ही गीत याद आ रहा है जिसका मुखड़ा और साथ में बजते 'मादल' की अनूठी ताल और उसके साथ स्पैनिश गिटार का अद्भुत संयोजन गीत को एक अलग ही पहचान देता था। ये गीत था स्वर कोकिला लता मंगेशकर का गाया नग्मा तेरे बिना जिया जाए ना...। तो इससे पहले कि मैं आप को ये बताऊँ कि पंचम दा ने इस गीत में नया क्या किया था, ये जान लेना जरूरी होगा कि आखिर मादल वाद्य यंत्र है क्या?

मादल भारत के अन्य पारंपरिक ताल वाद्यों की तरह ही दिखता है पर है ये नेपाल की भूमि में पनपा वाद्य यंत्र, जिसका वहाँ के पहाड़ी लोग लोक गीतों में प्रयोग करते थे। भारत के उत्तर पूर्वी इलाकों और उत्तर बंगाल में भी इसका प्रयोग होता रहा। ढोलक और पखावज की तरह ही मादल को दोनों तरफ से बजाया जाता है पर इनकी तुलना में मादल छोटा और हल्का होता है। इसके बड़े वाले छोर से नीचे के सुर निकलते हैं जबकि छोटे वाले छोर से ऊपर के।

पंचम को इस नेपाली वाद्य यंत्र से परिचित कराने का श्रेय नेपाल के मादल वादक रंजीत गाजमेर को जाता है जिन्हें पंचम 'कांचाभाई' भी कहते थे। पंचम दा को इस वाद्य यंत्र से कितना लगाव था ये इसी बात से स्पष्ट है कि उन्होंने कांचाभाई को अपनी आर्केस्ट्रा का स्थायी सदस्य बना दिया था।

विविध भारती पर पंचम की संगीत यात्रा वाले कार्यक्रम में आशा व गुलज़ार जी से इस गीत में किए गए अपने प्रयोग के बारे में बात करते हुए पंचम ने कहा था..

ये बड़ी मजेदार चीज़ है। जिस सुर में गाने की पंक्ति खत्म होती हो, उसी सुर में... उसी सुर का तबला बजे। जैसे हमारे यहाँ तबला तरंग है तो हम लोगों ने कोशिश की कि उसे मादल तरंग में बजाया जाए...
यानि जिस तरह तबला तरंग में एक साथ कई तबलों को अलग अलग सुरों में लगा कर एक साथ बजाया जाता है वैसा ही यहाँ मादल के साथ किया गया। मादल तरंग को देखना चाहते हों तो यहाँ देख सकते हैं।



पंचम ने इस गीत के आरंभिक तीस सेकेंड में जो गिटार की धुन पेश की है उसे जब भी मैं सुनता हूँ इसे बार बार सुनने का दिल करता है और फिर गीत के पचासवें सेकेंड के बाद से पंचम की मादल पर की गई कलाकारी (जिसका ऊपर जिक्र किया गया) सुनने को मिलती है और मन पंचम को उनकी बेमिसाल प्रतिभा के लिए दाद दिये बिना नहीं मानता। गीत सुनने के बाद भी गीत का मुखड़ा और पंचम की धुन घंटों दिलो दिमाग पर अपना असर बनाए रखती है। ऊपर की रिकार्डिंग में आपने लता के साथ किशोर को भी एक अलग तरीके से गाते सुना। आइए अब सुनते हैं लता जी द्वारा गाया ये नग्मा।



तेरे बिना जिया जाए ना
बिन तेरे तेरे बिन साजना
साँस में साँस आए ना
तेरे बिना ...

जब भी ख़यालों में तू आए
मेरे बदन से खुशबू आए
महके बदन में रहा न जाए
रहा जाए ना, तेरे बिना ...

रेशमी रातें रोज़

न होंगी
ये सौगातें रोज़ न होंगी
ज़िंदगी तुझ बिन रास न आए
रास आए ना, तेरे बिना ...


चलते चलते पंचम और उनके मादल प्रेम से जुड़ा एक और किस्सा बताता चलूँ। 1974 में एक फिल्म आई थी 'अजनबी'। पंचम को उसके गीत रिकार्ड करने थे। पर हुआ यूँ कि ठीक उसी वक़्त फिल्म जगत में साज़कारों की हड़ताल हो गई। इंटरल्यूड्स में संगीत संयोजन में आर्केस्ट्रा का होना तब एक आम बात थी। अब गाना तो रिकार्ड होना था तो किया क्या जाए। पर पंचम तो आखिर पंचम थे। उन्होंने एक रास्ता ढूँढ निकाला। पंचम ने गीत के अंतरे में बजते मादल के रिदम यानि ताल को इंटरल्यूड्स में भी बरकरार रखा और साथ में जोड़ दी ट्रेन की आवाज़ और गाना हो गया सुपर हिट। आप समझ रहे हैं ना किस गीत की बात हो रही है? जी हाँ ये गीत था लता व किशोर की युगल आवाज़ में गाया नग्मा हम दोनों दो प्रेमी दुनिया छोड़ चले...

गुरुवार, मार्च 17, 2011

वार्षिक संगीतमाला 2010 - सरताज गीत पर बह रही है गुलज़ार विशाल व राहत की त्रिवेणी...

तो भाइयों एवम बहनों वार्षिक संगीतमाला के ढाई महिने के सफ़र के बाद वक़्त आ गया है सरताजी बिगुल बजाने का। यहाँ संगीतकार व गीतकार की वही जोड़ी है जिसने पिछले साल भी मिलकर सरताज गीत का खिताब जीता था। वैसे तो पहली पाँच पॉयदानों के गीत अपने आप में कमाल हैं पर पहली पॉयदन का ये गीत हर लिहाज़ में अलहदा है। बाकी पॉयदानों के गीतों को ऊपर नीचे के क्रम में सजाने में मुझे काफी मशक्क़त करनी पड़ी थी। पर पहली सीढ़ी पर विराजमान इश्क़िया फिल्म का ये गीत कभी अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ। इस गीत के बोलों का असर देखिए कि साल पूरा हुआ नहीं कि गीत के मुखड़े को लेकर एक नई फिल्म रिलीज़ भी हो गई।


जी हाँ इस साल एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला का सरताज बनने का गौरव हासिल किया है गुलज़ार के लिखे, विशाल भारद्वाज द्वारा संगीतबद्ध और राहत फतेह अली खाँ द्वारा गाए गीत दिल तो बच्चा है जी ने..। इस गीत के बारे में नसीर भाई (जिन पर ये गाना फिल्माया गया है)की टिप्पणी दिलचस्प है. नसीर कहते हैं..
"गाने का काम है फिल्म में मूड को क्रिएट करना। जो जज़्बात उस वक़्त हावी हैं फिल्म में, उसको रेखांकित (underline) करना। मुझे नहीं मालूम था कि ये गाना फिल्म में बैकग्राउंड में होगा कि मैं इसे गाऊँगा। एक तरह से ये अच्छा ही हुआ कि मैंने गाया नहीं क्यूँकि इससे उससे उस आदमी (किरदार) के दिल के ख़्यालात और ज़ाहिर हुए।"

गुलज़ार के बारे में नसीर कहते हैं 
"आदमी उतना ही जवान या बूढ़ा होता है जितना आप उसे होने देते हैं और गुलज़ार भाई दिल से नौजवान हैं। बहुत कुछ ऐसा है गुलज़ार में जो आदमी उनसे अपेक्षा नहीं कर सकता और यही एक सच्चे कलाकार की निशानी है।"

सच, कौन नहीं जानता कि प्यार करने की कोई उम्र नहीं होती। और ये भी कि प्रेम में पड़ जाने के बाद हमारा मस्तिष्क मन का दास हो जाता है। पर उन सर्वविदित अहसासों को गुलज़ार इतनी नफ़ासत से गीत की पंक्तियों में उतारते हैं कि सुनकर मन ठगा सा रह जाता है।

गुलज़ार की कलाकारी इसी बात में निहित हैं कि वो हमारे आस पास घटित होने वाली छोटी से छोटी बात को बड़ी सफाई से पकड़ते हैं । अब इसी गीत में प्रेम के मनोविज्ञान को जिस तरह उन्होंने समझा है उसकी उम्मीद सिर्फ गुलज़ार से ही की जा सकती है। अब गीत की इस पंक्ति को लें

हाए जोर करें, कितना शोर करें
बेवजा बातों पे ऐं वे गौर करें

बताइए इस 'ऐ वे' की अनुभूति तो हम सब ने की है। किसी की बेवजह की बकवास को भी मंत्रमुग्ध होते हुए सुना है। बोल क्या रहा है वो सुन नहीं रहे पर उसकी आवाज़ और अदाएँ ही दिल को लुभा रही हैं और मन खुश.. बहुत खुश.. हुआ जा रहा है। पर क्या कभी सोचा था कि कोई गीतकार प्रेम में होने वाले इन सहज से अहसासों को गीत में ढालेगा?

गुलज़ार की किसी जज़्बे को देखने और महसूस करने की अद्भुत क्षमता तो है ही पर साथ ही उनके बिंब भी बड़े प्रभावशाली होते हैं।मुखड़े में ढलती उम्र का अहसास दिलाने के लिए उनका कहना दाँत से रेशमी डोर कटती.. नहीं...मन को लाजवाब कर देता है।

संगीतकार विशाल भारद्वाज ने इस गीत का संगीत एक रेट्रो की फील देता है। ऐसा लगता है कि आप साठ के दशक का गाना सुन रहे हैं। वाद्य यंत्रों के नाम पर कहीं हल्का सा गिटार तो कहीं ताली को संगत देता हुआ हारमोनियम सुनाई दे जाता है। राहत फतेह अली खाँ को अक्सर संगीतकार वैसे गीत देते हैं जिसमें सूफ़ियत के साथ ऊँचे सुरों के साथ खेलने की राहत की महारत इस्तेमाल हो। पर वहीं विशाल ने इससे ठीक उलट सी परिस्थिति वाले (झिझकते शर्माते फुसफुसाते से गीत में) में राहत का इस्तेमाल किया और क्या खूब किया। तो आइए पहले सुनें और गुनें ये गीत



ऐसी उलझी नज़र उनसे हटती नहीं...
दाँत से रेशमी डोर कटती.. नहीं...
उम्र कब की बरस के सुफेद हो गयी
कारी बदरी जवानी की छटती नहीं


वर्ना यह धड़कन बढ़ने लगी है
चेहरे की रंगत उड़ने लगी है
डर लगता है तन्हा सोने में जी

दिल तो बच्चा है जी...थोड़ा कच्चा है जी

किसको पता था पहलु में रखा
दिल ऐसा पाजी भी होगा
हम तो हमेशा समझते थे कोई
हम जैसा हाजी ही होगा

हाय जोर करें, कितना शोर करें
बेवजा बातों पे ऐं वे गौर करें

दिल सा कोई कमीना नहीं..

कोई तो रोके , कोई तो टोके
इस उम्र में अब खाओगे धोखे
डर लगता है इश्क़ करने में जी


दिल तो बच्चा है जी
ऐसी उदासी बैठी है दिल पे
हँसने से घबरा रहे हैं
सारी जवानी कतरा के काटी
बीड़ी में टकरा गए हैं

दिल धड़कता है तो ऐसे लगता है वोह
आ रहा है यहीं देखता ही ना हो
प्रेम कि मारें कटार रे

तौबा ये लम्हे कटते नहीं क्यूँ
आँखें से मेरी हटते नहीं क्यूँ
डर लगता है तुझसे कहने में जी

दिल तो बच्चा है जी,थोड़ा कच्चा है जी

पर गीत को पूरी तरह महसूस करना है इस गीत का वीडिओ भी देखिए। गीत का फिल्मांकन बड़ी खूबसूरती से किया गया है। नसीर मुँह से कुछ नहीं बोलते पर उनकी आँखें और चेहरे के भाव ही सब कुछ कह जाते हैं..




इसी के साथ वार्षिक संगीतमाला का ये सालाना आयोजन यहीं समाप्त होता है। जो साथी इस सफ़र में साथ बने रहे उनका बहुत आभार।  

आप सब की होली रंगारंग बीते इन्हीं शुभकामनाओं के साथ..
 

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