सैफुद्दीन सैफ़ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सैफुद्दीन सैफ़ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, नवंबर 22, 2011

सैफुद्दिन सैफ़ : जाने क्या क्या ख्याल करता हूँ, जब तेरे शहर से गुज़रता हूँ..सुने ये नज़्म मेरी आवाज़ में

पिछली पोस्ट में आपसे वादा किया था सैफुद्दिन सैफ़ की एक प्यारी सी नज़्म लेकर हाज़िर होने के लिए। ये तो आपको बता ही चुका हूँ कि सैफ़ साहब की शायरी में बारहा उस शहर का जिक्र आता है जहाँ उनकी प्रेमिका उन्हे छोड़ कर चली गई। सैफ़ मोहब्बत में मिली इस नाकामी से किस हद तक हिल गए थे ये उनके उस वक़्त की शायरी से साफ पता चलता है। 

उनके इस प्रेम प्रसंग के बारे में ये किस्सा मशहूर है कि उन्होंने एक ग़ज़ल लिखी जिसका मतला था क़रार लूटने वाले तू प्यार को तरसे। तब सैफ़ अमृतसर के मेयो कॉलेज में पढ़ते थे। अपनी इस ग़ज़ल को दिखाने के लिए जब वे अपने शिक्षक फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के पास गए तो फ़ैज़ ने उनसे मुस्कुराते हुए कहा कि बरख़ुरदार महबूबा को कभी बददुआ नहीं देते। बाद में पाकिस्तानी फिल्म 'सात लाख' में मुनीर हुसैन ने इस ग़ज़ल को जब अपनी आवाज़ दी तो ये काफी लोकप्रिय हुई।

पर हम बात कर रहे थे सैफ़ साहब की प्रेमिका के उस शहर की जिस पर उनकी लेखनी बार बार चली। इस सिलसिले में उन्होंने एक बेहद लंबी नज़्म लिखी। नज़्म का नाम था जब तेरे शहर से गुजरता हूँ...। सैफ़ साहब अमृतसर के मुशायरों में इस नज़्म को हमेशा पढ़ते और श्रोताओं से वाहवाही लूटा करते थे। दरअसल ये नज़्म सैफ़ साहब के विरह में जलते दिल की कशमकश और पीड़ा को पाठकों के सामने ले आती है। फिल्म वादा में इस नज़्म के कुछ टुकड़े प्रयुक्त हुए। बाद में सलमान अल्वी,शाज़िया मंज़ूर और चंदन दास और तमाम अन्य गायकों ने अलग अलग अंदाज़ों में इसे अपनी आवाज़ दी। पर टुकड़ों में इस नज़्म को सुनने से बेहतर है इसे पूरा ख़ुद से पढ़ना। अंतरजाल पर भी ये नज़्म पूरी एक जगह लिखी हुई नहीं मिलती। फिर भी मैंने काफी खोज बीन के बाद इसके सारे हिस्से एक साथ किए हैं। हो सकता है फिर भी कुछ पंक्तियाँ छूटी हों। ऍसा होने पर जरूर इंगित कीजिएगा।

सैफुद्दीन सैफ़ की इस नज़्म को अपनी आवाज़ में पढ़ने और उनमें छिपे भावों में डूबने की कोशिश की है...




किस तरह रोकता हूँ अश्क़ों को
किस तरह दिल पे जब्र* करता हूँ
आज भी कारज़ार- ए -हस्ती ** में
जब तेरे शहर से गुजरता हूँ
*  काबू     ** दुनिया की इस जद्दोजहद


दिल भी करता है याद छुप के तुझे
नाम लेती नहीं ज़ुबाँ तेरा
इस क़दर भी नहीं मालूम मुझे
किस मोहल्ले में है मकाँ तेरा
कौन सी शाख- ए -गुल पे रक़्शां है
रक़्स- ए -फिरदौस* आशयाँ तेरा
जाने किन वादियों में ठहरा है
ग़ैरत- ए -हुस्न कारवाँ तेरा
किस से पूछूँगा मैं ख़बर तेरी
कौन बतलाएगा निशान तेरा
तेरी रुसवाइयों से डरता हूँ
जब तेरे शहर से गुजरता हूँ
*नृत्य करती वाटिका

हाल- ए -दिल भी ना कह सका गर्चे
तू रही मुद्दतों करीब मेरे
कुछ तेरी अज़मतों* का डर भी था
कुछ ख़यालात भी थे अजीब मेरे
आख़िरकार वो घड़ी आ ही गई
यारवर हो गए रक़ीब मेरे
तू मुझे छोड़ कर चली भी गई
ख़ैर किस्मत मेरी, नसीब मेरे
अब मैं क्यूँ तुझ को याद करता हूँ
जब तेरे शहर से गुज़रता हूँ
* बड़प्पन

वो ज़माना तेरी मोहब्बत का
इक भूली हुई कहानी है
तेरे कूचे में उम्र भर ना गए
सारी दुनिया की ख़ाक छानी है
लज़्जत- ए -वस्ल* हो कि ग़म- ए -फ़िराक़**
जो भी है तेरी मेहरबानी है
किस तमन्ना से तुझको चाहा था
किस मोहब्बत से हार मानी है
अपनी किस्मत पे नाज़ करता हूँ
जब तेरे शहर से गुज़रता हूँ
* मिलन की खुशी,  ** वियोग का ग़म

कोई पुरसा*- ए -हाल हो तो कहूँ
कैसी आँधी चली है तेरे बाद
दिन गुजारा है किस तरह मैंने
रात कैसे ढली है तेरे बाद
शमा- ए -उम्मीद सरसर- ए -ग़म** में
किस बहाने जली है तेरे बाद
 जिस में कोई मकीं ना रहता हो
दिल वो सूनी गली है तेरे बाद
रोज़ जीता हूँ , रोज़ मरता हूँ
जब तेरे शहर से गुजरता हूँ
* शोकाकुल,  ** ग़म की आँधी

तुझ से कोई गिला नहीं मुझको
मैं तुझे बेवफ़ा नहीं कहता
तेरा मिलना ख़्वाब- ओ -खयाल हुआ
फिर भी ना आशना नहीं कहता
वो जो कहता था मुझको दीवाना
मैं उस को भी बुरा नहीं कहता
वर्ना इक बे- नवा मोहब्बत में
दिल के लुटने पे क्या नहीं करता
मैं तो मुश्किल से आह भरता हूँ
जब तेरे शहर से गुजरता हूँ
* दरिद्र

अश्क़ पलकों पे आ नहीं सकते
दिल में तेरी आबरू है अब भी
तुझ से है रौशन क़ायनात* मेरी
तेरे जलवे हैं चार सू अब भी
अपने ग़म- ए- खाना तख़य्युल** में
तुझ से होती है गुफ़्तगू अब भी
तुझ को वीराना- ए -तस्सवुर*** में
देख लेता हूँ रूबरू अब भी
अब भी मैं तुझसे प्यार करता हूँ
जब तेरे शहर से गुज़रता हूँ
* संसार,  ** विचार करना, ***याद करना

आज भी उस मुक़ाम पर हूँ जहाँ
रसनो दार* की बुलंदी है
मेरे अशआर की लताफ़त** में
तेरे क़िरदार की बुलंदी है
तेरी मजबूरियों की अज़मत है
मेरे इसरार ***की बुलंदी है
सब तेरे दर्द की इनायत हैं
सब तेरे प्यार की बुलंदी है
तेरे ग़म से निबाह करता हूँ
जब तेरे शहर से गुज़रता हूँ..
* सूली का फंदा,  ** उत्तमता, ***हठ,आग्रह
आज भी कारज़ार- ए -हस्ती में
तू अगर इक बार मिल जाए
किसी महफिल में सामना हो जाए
या सर- ए -रहगुज़र मिल जाए
इक नज़र देख ले मोहब्बत से
इक लमहे का प्यार मिल जाए
आरजुओं को चैन आ जाए
हसरतों को क़रार मिल जाए
जाने क्या क्या ख्याल करता हूँ
जब तेरे शहर से गुज़रता हूँ..

लेकिन..
ऐ साक़िन- ए -खुर्रम ख्याल
याद है वो दौर कैफ़- ओ -कम कि नहीं
क्या तेरे दिल पे भी गुजरा है
मेरी महरूमियों का ग़म कि नहीं
और इस कारज़ार ए हस्ती में
फिर कभी मिल सकेंगे कि नहीं
डरते डरते सवाल करता हूँ
जब तेरे शहर से गुजरता हूँ

पता नहीं मेरी आवाज़ में ये नज़्म आपके दिल के जज़्बों को झकझोर पायी या नहीं पर आप इस नज़्म को विभिन्न कलाकारों द्वारा गाए वीडिओ की लिंक आप इस ब्लॉग के फेसबुक पेज पर सुन सकते हैं। और हाँ ये बताना तो भूल ही गया था कि पोस्ट में इस्तेमाल हुए चित्र के चित्रकार हैं लिओनिद अफ्रेमोव...

शुक्रवार, नवंबर 18, 2011

सैफुद्दीन सैफ़, रूना लैला : गरचे सौ बार ग़म ए हिज्र से जां गुज़री है...

रूना लैला की आवाज़ और ग़ज़ल गायिकी का मैं शुरु से मुरीद रहा हूँ। बहुत दिनों से रूना लैला की आवाज़ ज़ेहन की वादियों में कौंध रही थी। उनकी आवाज़ में कुछ ऐसा सुनने का जी चाह रहा था जो बहुत दिनों से ना सुना हो। कुछ दिन पहले एक मित्र की बदौलत जब उनकी ये पुरानी ग़ज़ल सुनने को मिली तब जाकर दिल की ये इच्छा पूर्ण हुई। ग़जल का मतला था

गरचे सौ बार ग़म- ए -हिज्र से जां गुज़री है
फिर भी जो दिल पे गुज़रनी थी, कहाँ गुज़री है


और दूसरा शेर तो मन को लाजवाब कर गया था

आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम ए आलम
आप गुज़रे हैं तो इक मौज- ए -रवां गुज़री है


आगे की ग़ज़ल कुछ यूँ थी
होश में आए तो बतलाए तेरा दीवाना
दिन गुज़ारा है कहाँ रात कहाँ गुज़री है

हश्र के बाद भी दीवाने तेरे पूछते हैं
वह क़यामत जो गुज़रनी थी, कहाँ गुज़री है




पर रूना जी की गाई ग़ज़ल में मकता ना होने से शायर का नाम नहीं मिल रहा था। बहरहाल खोजबीन के बाद पता चला कि ये सैफुद्दीन सैफ़ साहब की रचना है। सोचा आज इस ग़ज़ल के बहाने सैफ़ साहब और उनकी शायरी से मुलाकात कराता चलूँ।

सन 1922 में अमृतसर में जन्मे सैफ़ पंजाब के लोकप्रिय शायर थे और विभाजन के बाद सरहद पार चले गए।  पचास और साठ के दशक में वे पाकिस्तानी फिल्म उद्योग से बतौर गीतकार और पटकथा लेखक जुड़े रहे। इस दौर में उनके लिखे गीतों को इतने दशकों बाद भी लोग बड़े चाव से गाते हैं। सैफ़ साहब की शायरी मूलतः इश्क़िया शायरी ही रही। मिसाल के तौर पर उनकी एक चर्चित ग़ज़ल राह आसान हो गई होगी के इन अशआरों को देखें..

फिर पलट निगाह नहीं आई
तुझ पे कुरबान हो गई होगी


तेरी जुल्फ़ों को छेड़ती है सबा
खुद परेशान हो गई होगी


सैफ़ साहब की इस ग़ज़ल के चंद शेरों को पढ़कर आप उनके रूमानियत भरे हृदय को समझ सकते हैं
अभी ना जाओ कि तारों का दिल धड़कता है
तमाम रात पड़ी है ज़रा ठहर जाओ

फिर इसके बाद ना हम तुमको रोकेंगे
लबों पे साँस अड़ी है जरा ठहर जाओ


सैफ़ की शायरी जहाँ मोहब्बत से ओतप्रोत थी वहीं उसमें विरह वेदना के स्वर भी थे। जब वे अपनी दर्द में डूबी इन ग़ज़लों को पूरी तरन्नुम के साथ पढ़ते थे तो लोग झूम उठते थे। कॉलेज के दिनों से ही युवाओं में उनकी लोकप्रियता चरम पर थी। शायर शौकत रिज़वी का कहना है कि सैफ़ की ग़ज़लों का ये दर्द उनकी नाकाम मोहब्बत के चलते पैदा हुआ। अपने दिल की तड़प को शब्दों में वे अक्सर बाँधते रहे.. वे अपने पहले प्रेम को कभी भुला ना सके और इसीलिए उन्होंने लिखा

तुम्हारे बाद ख़ुदा जाने क्या हुआ दिल को
किसी से रब्त बढ़ाने का हौसला ना हुआ

फिल्म जगत से जुड़े रहने के साथ साथ वो अपनी कविताएँ लिखते रहे। पचास के दशक के आरंभ में उनकी ग़ज़लें और नज़्में उनके संग्रह ख़ाम - ए- काकुल में प्रकाशित हुईं। वैसे ये बता दूँ कि  ख़ाम ए काकुल का अर्थ होता है प्रियतमा की जुल्फों के खूबसूरत घेरे या लटें। किताब अपने समय में खूब बिकी। इसी संग्रह में उनकी एक नज़्म है जिसे महदी हसन साहब ने अपनी आवाज़ दी है। नज़्म की चंद पंक्तियाँ शायर के दिल के हालात को कुछ यूँ बयां कर देती हैं..

रात की बेसकूँ खामोशी में
रो रहा हूँ कि सो नहीं सकता
राहतों के महल बनाता है
दिल जो आबाद हो नहीं सकता..


सैफ़ साहब की महबूबा उनसे अलग हुई पर उसकी यादें उन्हें उसके नए शहर के बारे में सोचने और लिखने को मज़बूर करती रहीं। काव्य समीक्षक डा. अफ़जल मिर्ज़ा का मानना है कि जिस तरह सैफुद्दीन सैफ़ ने अपनी प्रेमिका के शहर को आधार बनाकर अपने हृदय की पीड़ा इज़हार किया उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। सैफ़ अपनी एक नज़्म मैं तेरा शहर छोड़ जाऊँगा में लिखते हैं

इस से पहले कि तेरी चश्म - ए - करम मज़ारत की निगाह बन जाए
प्यार ढल जाए मेरे अश्क़ों में, आरज़ू इक आह बन जाए
मुझ पर आ जाए इश्क़ का इलज़ाम  और तू बेगुनाह बन जाए
मैं तेरा शहर छोड़ जाऊँगा......

इस से पहले कि सादगी तेरी लब - ए - खामोश को गिला कह दे
तेरी मजबूरियाँ ना देख सके और दिल तुझको बेवफ़ा कह दे
जाने मैं बेरुखी में क्या पूछूँ, जाने तू बेरुखी से क्या कह दे
मैं तेरा शहर छोड़ जाऊँगा..


वैसे इस नज़्म को पढ़कर साफ लगता है आनंद बख्शी का फिल्म नज़राना का लिखा गीत इसी नज़्म से प्रेरित था। वैसे सैफ़ साहब की एक और नज़्म है प्यारी सी जिसमें    शहर का जिक्र है। पर वो नज़्म सुनाऊँगा आपको अगली पोस्ट में !
 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
Aapka Bunti
Madhushala
कसप Kasap
Great Expectations
उर्दू की आख़िरी किताब
Shatranj Ke Khiladi
Bakul Katha
Raag Darbari
English, August: An Indian Story
Five Point Someone: What Not to Do at IIT
Mitro Marjani
Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


Manish Kumar's favorite books »

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie