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मंगलवार, अगस्त 11, 2015

अज़ब पागल सी लड़की ..सुनिए आतिफ़ सईद की दो मशहूर नज़्में मेरी आवाज़ में.. (Ajab Pagal Si Ladki Aatif Saeed )

मोहब्बत एक ऐसा अहसास है, जो कभी बासी नहीं होता। काव्य, साहित्य, संगीत, सिनेमा सब तो इसकी कहानी, न जाने कितनी बार कह चुके हैं, पर फिर भी इसके बारे में कहते रहना इंसान की फ़ितरत है। ये इंसान की काबिलियत का सबूत है कि हर बार वो इस भावना को शब्दों के नए नवेले जाल  में बुनकर एक से बढ़कर एक सुंदर अभिव्यक्ति की रचना करता है।अब आतिफ़ सईद की इस पागल लड़की की ही बात ले लीजिए ना। है तो ये उनकी पागल लड़की पर इस नज़्म को पढ़ते वक़्त वो पागल लड़की कितनी अपनी सी लगने लगती है उनके शब्दों में..


अज़ब पागल सी लड़की ... इस मुखड़े से दो लोकप्रिय नज्में हैं और इन्हें इन दोनों नज़्मों को आतिफ़ सईद साहब ने लिखा है..। आतिफ़ पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से ताल्लुक रखते हैं। अड़तीस साल के है और नौजवानों में उनकी  नज़्में बड़े प्यार से पढ़ी जाती हैं क्यूँकि ख़्वाब और मोहब्बत से उनका करीबी रिश्ता रहा है। अपनी जुबाँ में वो अपनी शायरी को इन लफ़्जों में बाँधते हैं

"मेरे ख्वाब मेरा क़ीमती अहसास और मेरे होने की अलामत हैं। मैं उन में साँस लेता हूँ और उन्हें अपने अंदर धड़कता महसूस करता हूँ। मेरे लिए ख़्वाब अच्छे या बुरे नहीं बस ख़्वाब हैं जिनकी मुट्ठी में दर्द की आहट, आस का जुगनू और कभी सिर्फ मोहब्बत है। कभी ये आने वाले अच्छे मौसम की नवेद (शुभ समाचार) सुनाते हैं और कभी गई रुतों के मंज़र दिल के कैनवस पर पेंट करते हैं। कभी आँसू बन कर पलकों पर नारसाई (विफलता, लक्ष्य तक ना पहुँचना ) के दुख काढ़ते हैं और कभी मुस्कान बन कर होठों पर खिल उठते हैं। तो कभी खामोशी बन कर सारे वज़ूद पर फैल जाते हैं और कभी इतना शोर करते हैं कि कुछ सुनाई नहीं देता।
मेरी शायरी मेरे ख़्वाब और मेरे अंदर के मौसमों की दास्तान हैं जिस्में वस्ल के मेहरबान मौसमों की बारिशें भी हैं और हिज्र रुत की चिलचिलाती धूप भी, सूखे पत्तों पर लिखे जज़्बे भी हैं और गुलाबी मौसम के महकते गीत भी..."

आतिफ़ की शायरी की तीन किताबें तुम्हें मौसम बुलाते हैं, मुझे तन्हा नहीं करना और तुम्हें खोने से डरता हूँ छप चुकी हैं पर उनका नाम अगर हुआ तो अजब पागल की लड़की से जुड़ी इन दो नज़्मों की वज़ह से। ये नज़्में उन्होंने 2007 के आस पास लिखीं। पहले अजब पागल की लड़की थी.....  लिखा। तो चलिए मैं भी पहले आपको सुनाता हूँ उनकी ये नज़्म जिसमें किस्सा बस इतना है कि प्रेम में अपना पराया कुछ नहीं रह जाता लेकिन जिस मुलायमियत से आतिफ़ ने अपनी बात कही है कि इसे पढ़ते वक़्त बस लगता है कि उसी अहसास में डूबते उतराते रहें..
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अज़ब पागल सी लड़की थी....
मुझे हर रोज़ कहती थी
बताओ कुछ नया लिख़ा
कभी उससे जो कहता था
कि मैंने नज़्म लिखी है
मग़र उन्वान देना है..
बहुत बेताब होती थी


वो कहती थी...
सुनो...
मैं इसे अच्छा सा इक उन्वान देती हूँ
वो मेरी नज़्म सुनती थी
और उसकी बोलती आँखें
किसी मिसरे, किसी तस्बीह पर यूँ मुस्कुराती थीं
मुझे लफ़्जों से किरणें फूटती महसूस होती थीं
वो फिर इस नज़्म को अच्छा सा उन्वान देती थी
और उसके आख़िरी मिसरे के नीचे
इक अदा-ए-बेनियाज़ी से
वो अपना नाम लिखती थी

मैं कहता था
सुनो....
ये नज़्म मेरी है
तो फिर तुमने अपने नाम से मनसूब कर ली है ?
मेरी ये बात सुनकर उसकी आँखें मुस्कुराती थीं

वो कहती थी
सुनो.....
सादा सा रिश्ता है
कि जैसे तुम मेरे हो
इस तरह ये नज़्म मेरी है

अज़ब पागल सी लड़की थी....


(उन्वान-शीर्षक, बेनियाज़ी-लापरवाही से, मिसरा - छंद का चरण)

पर आतिफ़ को असली मक़बूलियत  अजब पागल की लड़की है ...लिखने के बाद मिली। आतिफ़ बताते हैं कि इस नज़्म को लिखने के पहले उनके ज़ेहन में दो पंक्तियाँ ही थी मुझे तुम याद करते हो ?तुम्हें मैं याद आती हूँ ? आतिफ़ ने उस वक़्त के अपने हालातों को इन पंक्तियों से जोड़ा और ये  नज़्म तैयार हो गई। फिर उन्होंने इसे  अपने दोस्त को सुनवाया । उस मित्र ने उसे किसी अख़बार में दिया और वो वहाँ छप गई। धीरे धीरे नज़्म की लोकप्रियता बढ़ने लगी। पाकिस्तान के FM चैनलों पर ये पढ़ी जाने लगी। पर लोग अब तक इसके असली शायर से रूबरू नहीं हो पा रहे थे। इसका कारण था आतिफ़ की अपनी नज़्म पढ़ने में झिझक। ख़ैर वक़्त के साथ उन्होंने अपने आप को माइक के सामने पूरे विश्वास से बोलने के काबिल बनाया। ये नज़्म संवाद-प्रतिसंवाद की शैली में लिखी गई है, यानि पहले प्रेमिका के कभी ना ख़त्म होने वाले सवालों की फेरहिस्त है और फिर है, उसका जवाब...

इन दोनों नज़्म को पढ़ने में और उसे रिकार्ड करने में मुझे बहुत आनंद आया। कितनी सादगी के साथ अपने आपको अभिव्यक्त किया है उन्होंने.. उनके कथन में एक ईमानदारी है इसीलिए इसे पढ़ते वक़्त भावनाएँ खुद ब खुद दिल से निकल कर आती हैं। तो लीजिए सुनिए मेरी आवाज़ में उनकी इस नज़्म को..



अजब पागल सी लड़की है...
मुझे हर ख़त में लिखती है
मुझे तुम याद करते हो ?
तुम्हें मैं याद आती हूँ ?
मेरी बातें सताती हैं
मेरी नीदें जगाती हैं
मेरी आँखें रुलाती हैं....

दिसम्बर की सुनहरी धूप में, अब भी टहलते हो ?
किसी खामोश रस्ते से

कोई आवाज़ आती है?
ठहरती सर्द रातों में

तुम अब भी छत पे जाते हो ?
फ़लक के सब सितारों को

मेरी बातें सुनाते हो?

किताबों से तुम्हारे इश्क़ में कोई कमी आई?
वो मेरी याद की शिद्दत से आँखों में नमी आई?
अज़ब पागल सी लड़की है
मुझे हर ख़त में लिखती है...

जवाब उस को लिखता हूँ...मेरी मशरूफ़ियत देखो...
सुबह से शाम आफिस में
चराग़-ए-उम्र जलता हूँ
फिर उस के बाद दुनिया की..
कई मजबूरियाँ पांव में बेड़ी डाल रखती हैं
मुझे बेफ़िक्र चाहत से भरे सपने नहीं दिखते
टहलने, जागने, रोने की मोहलत ही नहीं मिलती
सितारों से मिले अर्सा हुआ.... नाराज़ हों शायद
किताबों से शग़फ़ मेरा अब वैसे ही क़ायम है
फ़र्क इतना पड़ा है अब उन्हें अर्से में पढ़ता हूँ

तुम्हें किस ने कहा पगली, तुम्हें मैं याद करता हूँ?
कि मैं ख़ुद को भुलाने की मुसलसल जुस्तजू में हूँ
तुम्हें ना याद आने की मुसलसल जुस्तजू में हूँ
मग़र ये जुस्तजू मेरी बहुत नाकाम रहती है
मेरे दिन रात में अब भी तुम्हारी शाम रहती है
मेरे लफ़्जों कि हर माला तुम्हारे नाम रहती है
पुरानी बात है जो लोग अक्सर गुनगुनाते हैं
उन्हें हम याद करते हैं जिन्हें हम भूल जाते हैं

अज़ब पागल सी लड़की हो
मेरी मशरूफ़ियत देखो...
तुम्हें दिल से भुलाऊँ तो तुम्हारी याद आए ना
तुम्हें दिल से भुलाने की मुझे फुर्सत नहीं मिलती
और इस मशरूफ़ जीवन में
तुम्हारे ख़त का इक जुमला
"तुम्हें मैं याद आती हूँ?"
मेरी चाहत की शिद्दत में कमी होने नहीं देता
बहुत रातें जगाता है, मुझे सोने नहीं देता
सो अगली बार अपने ख़त में ये जुमला नहीं लिखना


अजब पागल सी लड़की है
मुझे फिर भी ये लिखती है...मुझे तुम याद करते हो ?
तुम्हें मैं याद आती हूँ ?

(फ़लक-आकाश, शग़फ़-रिश्ता, मसरूफ- व्यस्त, मुसलसल-लगातार)


तो कैसी लगी आतिफ सईद की लिखी ये नज़्में ! अपने विचारों से जरूर अवगत कराइएगा।।

रविवार, जुलाई 20, 2008

सुनो जानां चले आओ तुम्हें मौसम बुलाते हैं : आतिफ़ सईद की एक खूबसूरत नज़्म Suno Jana Chale Aao

पिछले साल अगस्त महिने में मैंने एक नज़्म पोस्ट की थी जिसका शीर्षक था अज़ब पागल सी लड़की है....। उसे किसने लिखा ये उस वक़्त नहीं पता था। आज मै जब इस नज़्म को पढ़ रहा था तो पता चला कि इसके लेखक वहीं हैं जिन्होंने अज़ब पागल सी लड़की है.... लिखी थी। जी हाँ, इन दोनों नज़्मों को लिखा है पाकिस्तान के नौजवान शायर आतिफ़ सईद साहब ने। आतिफ़ साहब का अपना एक जाल पृष्ठ भी है जिसका लाभ आप तभी उठा सकते हैं जब आप उर्दू लिपि के जानकार हों। आज उनकी जो नज़्म आप के साथ बाँट रहा हूँ वो यकीं है कि आपके लिए नई होगी।



ये नज़्म उन्होंने अपनी नई किताब 'तुम्हें मौसम बुलाते हैं' के उन्वान में लिखी है। नज़्म प्यार के हसस जज़्बातों से लबरेज़ है। अपने प्रेम और मौसम की बदलती रुतों को आपस में बेहद बेहतरीन तरीके से गुँथा है शायर ने। विश्वास नहीं होता तो खुद ही पढ़कर देखिए ना..  


मेरे अंदर बहुत दिन से
कि जैसे जंग जारी है
अज़ब बेइख्तियारी है

मैं ना चाहूँ मगर फिर भी, तुम्हारी सोच रहती है
हर इक मौसम की दस्तक से तुम्हारा अक़्स बनता है
कभी बारिश, तुम्हारे शबनमी लहजे में ढलती है
कभी शर्मा के ये रातें
तुम्हारे सर्द होठों का, दहकता लम्स लगती हैं
कभी पतझड़.तुम्हारे पाँवों से रौंदे हुए पत्तों की आवाज़ें सुनाता है

कभी मौसम गुलाबों का
तुम्हारी मुस्कुराहट के सारे मंज़र जगाता है
मुझे बेहद सताता है

कभी पलकें तुम्हारी धूप ओढ़े जिस्म ओ जान पर शाम करती हैं
कभी आँखें, मेरे लिखे हुए मिसरों को अपने नाम करती हैं
मैं खुश हूं या उदासी के किसी मौसम से लिपटा हूँ
कोई महफ़िल हो तनहाई में या महफ़िल में तनहा हूँ
या अपनी ही लगाई आग में बुझ-बुझ कर जलता हूँ

मुझे महसूस होता है
मेरे अंदर बहुत दिन से
कि जैसे जंग ज़ारी है
अज़ब बेइख्तियारी है

और इस बेइख्तियारी में
मेरे जज़्बे, मेरे अलफाज़ मुझ से रूठ जाते हैं
मैं कुछ भी कह नहीं सकता, मैं कुछ भी लिख नहीं सकता
उदासी ओढ़ लेता हूँ
और इन लमहों की मुठ्ठी में
तुम्हारी याद के जुगनू कहीं जब जगमगाते हैं
ये बीते वक़्त के साये
मेरी बेख्वाब आँखों में, कई दीपक जलाते हैं
मुझे महसूस होता है
मुझे तुम को बताना है
कि रुत बदले तो पंछी भी घरों को लौट आते हैं
सुनो जानां चले आओ तुम्हें मौसम बुलाते हैं....


उनकी इस प्यारी नज़्म को आवाज़ देने की कोशिश की है सुनिएगा..



अगर आपको ये नज़्म पसंद आई तो यकीनन आप इन्हें भी पढ़ना पसंद करेंगे...

बुधवार, अगस्त 08, 2007

अज़ब पागल सी लड़की थी...

मोहब्बत एक ऐसा अहसास है, जो कभी बासी नहीं होता। काव्य, साहित्य, संगीत, सिनेमा सब तो इसकी कहानी, न जाने कितनी बार कह चुके हैं, पर फिर भी इसके बारे में कहते रहना इंसान की फ़ितरत है। ये इंसान की काबिलियत का सबूत है कि हर बार वो इस भावना को शब्दों के नए नवेले जाल बुनकर एक से बढ़कर एक सुंदर अभिव्यक्ति की रचना करता है।

अज़ब पागल सी लड़की थी.. इस मुखड़े से दो लोकप्रिय नज्में हैं और इन्हें इन दोनों नज़्मों को आतिफ़ सईद साहब ने लिखा है..। खैर, आज पढ़ें इसका वो स्वरूप जहाँ गुज्ररे दिनों की बातों को शिद्दत से याद किया जा रहा है...

अज़ब पागल सी लड़की थी....

मुझे हर रोज़ कहती थी
बताओ कुछ नया लिख़ा
कभी उससे जो कहता था
कि मैंने नज़्म लिखी है
मग़र उन्वान देना है..
बहुत बेताब होती थी


वो कहती थी...
सुनो...
मैं इसे अच्छा सा इक उन्वान देती हूँ
वो मेरी नज़्म सुनती थी
और उसकी बोलती आँखें
किसी मिसरे, किसी तस्बीह पर यूँ मुस्कुराती थीं
मुझे लफ़्जों से किरणें फूटती महसूस होती थीं
वो फिर इस नज़्म को अच्छा सा उन्वान देती थी
और उसके आख़िरी मिसरे के नीचे
इक अदा-ए-बेनियाज़ी से
वो अपना नाम लिखती थी

मैं कहता था
सुनो....
ये नज़्म मेरी है
तो फिर तुमने अपने नाम से मनसूब कर ली है ?
मेरी ये बात सुनकर उसकी आँखें मुस्कुराती थीं

वो कहती थी
सुनो.....
सादा सा रिश्ता है
कि जैसे तुम मेरे हो
इस तरह ये नज़्म मेरी है

अज़ब पागल सी लड़की थी....

(उन्वान-शीर्षक, बेनियाज़ी-लापरवाही से, मिसरा - छंद का चरण)

पुनःश्व बहुत दिनों बाद आज इस नज़्म का आडिओ हाथ लगा तो सोचा जनाब आतिफ़ सईद की ख़ुद की आवाज़ को आप तक पहुँचाना निहायत जरूरी है...



यहाँ तो जिस मोहतरमा को याद किया गया वो तो शायर के स्मृति पटल को रह रह कर गुदगुदाती है पर ये जो दूसरी पागल कन्या है वो तो आए दिन शायर को परेशान किए रहती है। उसकी कहानी अगली पोस्ट में.....
 

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