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रविवार, सितंबर 02, 2018

अटल बिहारी बाजपेयी : क्या खोया, क्या पाया जग में... Kya Khoya Kya Paya Jag Mein

स्कूल के ज़माने से जब भी मुझसे पूछा जाता कि तुम्हारे सबसे प्रिय राजनेता कौन हैं तो हमेशा मेरा उत्तर अटल बिहारी बाजपेयी होता था। शायद उस वक़्त मेरी जितनी भी समझ थी वो मुझे यही कहती थी कि एक नेता को दूरदर्शी, मेहनती, कुशल वक्ता और लोगों से सहजता से घुलने वाला हँसमुख इंसान होना चाहिए। मोरारजी, इंदिरा, चरण सिंह, आडवाणी, नरसिम्हा राव, चंद्रशेखर जैसों की भीड़ में मुझे ये गुण सिर्फ अटल जी में ही नज़र आते थे।

मुझे लगता है कि अगर नब्बे के दशक की शुरुआत से बहुमत के साथ प्रधानमंत्री पद की जिम्मेवारी मिली होती तो उनके नेतृत्व में देश एक सही दिशा और दशा में अग्रसर होता। ख़ैर वो हो न सका और अपनी पहली पारी में कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में काम करने के बाद भी वो अपनी दूसरी पारी में पराजित हो गए। फिर तो ढलते स्वास्थ ने उन्हें राजनीतिक परिदृश्य से बाहर ही कर दिया और पिछले महीने वो इस लोक से ही विदा ले गए।

अटल जी एक राजनीतिज्ञ तो थे ही, विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरह ही उनके मन में एक कवि हृदय बसता था। प्रकृति से उनके प्रेम का आलम ये था कि प्रधानमंत्री के कार्य का दायित्व निर्वाह करते हुए भी वो साल में एक बार मनाली की यात्रा करना नहीं भूलते थे।
1977 की बात है जब इमंरजेसी के बाद हुए चुनाव में मोरारजी भाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। अटल जी उस ज़माने में देश के विदेश मंत्री थे। उन्हीं दिनों का एक रोचक प्रसंग है जो मैंने और शायद आपने भी कई बार पढ़ा हो। जब जब मैं ये किस्सा पढ़ता हूँ तो चेहरे पर मुस्कान के साथ बतौर इंसान अटल जी के प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ जाती है इसलिए इस पत्राचार को आज अपने ब्लॉग पर सँजो लिया है।

अटल जी ने तब एक कविता लिखी थी और अपने मातहत के जरिये उन्होंने उसे साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपने के लिए उसके तात्कालिक संपादक मनोहर श्याम जोशी को भेजा। जब बहुत दिनों तक जोशी जी की ओर से कोई जवाब नहीं आया तो अटल जी से रहा नहीं गया और उन्होंने एक कुंडली के माध्यम से बड़े मोहक अंदाज़ में जोशी जी से अपनी शिकायत दर्ज करवाई।
"प्रिय संपादक जी, जयराम जी की…समाचार यह है कि कुछ दिन पहले मैंने एक अदद गीत आपकी सेवा में रवाना किया था। पता नहीं आपको मिला या नहीं...नीका लगे तो छाप लें नहीं तो रद्दी की टोकरी में फेंक दें। इस सम्बंध में एक कुंडली लिखी है..
कैदी कवि लटके हुए, संपादक की मौज,
कविता 'हिंदुस्तान' में, मन है कांजी हौज,
मन है कांजी हौज, सब्र की सीमा टूटी,
तीखी हुई छपास, करे क्या टूटी-फूटी,
कह क़ैदी कविराय, कठिन कविता कर पाना,
लेकिन उससे कठिन, कहीं कविता छपवाना!"
मनोहर श्याम जोशी भी एक जाने माने लेखक व पत्रकार थे। बाजपेयी जी ने कविता के माध्यम से शिकायत की थी तो वो भला क्यूँ पीछे रहते। उन्होंने भी जवाब में एक कविता लिख मारी जिसका मजमूँ कुछ यूँ था।
"आदरणीय अटलजी महाराज,
आपकी शिकायती चिट्ठी मिली, इससे पहले कोई एक सज्जन टाइप की हुई एक कविता दस्ती दे गए थे कि अटलजी की है। न कोई खत, न कहीं दस्तखत...आपके पत्र से स्थिति स्पष्ट हुई और संबद्ध कविता पृष्ठ 15 पर प्रकाशित हुई। आपने एक कुंडली कही तो हमारा भी कवित्व जागा -  
कह जोशी कविराय नो जी अटल बिहारी,
बिना पत्र के कविवर,कविता मिली तिहारी,
कविता मिली तिहारी साइन किंतु न पाया,
हमें लगा चमचा कोई,ख़ुद ही लिख लाया,
कविता छपे आपकी यह तो बड़ा सरल है,
टाले से कब टले, नाम जब स्वयं अटल है।"
अटल जी की कविताओं को सबसे पहले जगजीत सिंह ने अपने एलबम संवेदना में जगह दी थी। इस एलबम में अटल जी की कविताओं का प्राक्कथन अमिताभ बच्चन की आवाज़ में था। बाद में लता मंगेशकर जी ने भी अटल जी की कविताओं को अपना स्वर दिया। मुझे जगजीत जी से ज्यादा लता की आवाज़ में अटल जी की कविताओं को सुनना पसंद है। तो आइए आज आपको सुनाएँ लता जी की आवाज़ में उनकी कविता क्या खोया क्या पाया जग में..

क्या खोया, क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!

पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!

जन्म-मरण का अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
कौन जानता किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!


संवाद की जो गरिमा अटल जी की खासियत थी वो आज के माहौल में छिन्न भिन्न हो चुकी है। अटल जी को सच्ची श्रद्धांजलि तो यही होगी कि नेता उनकी तरह व्यक्तिगत आक्षेप लगाए बिना वाकपटुता और हास्य के पुट के साथ बहस करना सीख सकें।
सदन और उसके बाहर दिए गए उनके भाषण, उनके व्यक्तित्व का चुटीलापन और उनकी ओजपूर्ण वाणी में पढ़ी उनकी कविताएँ व्यक्तिगत रूप से हमेशा मेरी स्मृतियों का हिस्सा रहेंगी..शायद आपकी भी रहें। चलते चलते उनके इस जज्बे को सलाम..

मैं जी भर कर जिया, मैं मन से मरूँ
लौटकर आऊँगा कूच से क्यूँ डरूँ

मंगलवार, जुलाई 24, 2007

मैं, उत्तरांचल, जोशी जी और 'कसप'...आइए चलें इस पुस्तक यात्रा पर भाग : २

पिछली मुलाकात का किस्सा तो आप पढ़ चुके, बेबी और डीडी की अगली मुलाकात की कहानी सुनने के पहले शास्त्री जी के लिए क्या कहेंगे आप! पुत्री के पत्र बांचते-बाँचते उन्हें भी ये समझ आ रहा है कि शादी-विवाह के बीच का वो अल्प मेल-मिलाप, दोनों बच्चों के मन में एक दूसरे के लिए अनुरक्ति जगा चुका है। क्या इतना भर साक्षात प्रेम हो जाने के लिए पर्याप्त है? लेखक उनके मन से प्रश्न का जो उत्तर पाठकों के सामने निकाल के लाता है वो सचमुच ही अद्भुत है। आप भी गौर करिए...

"प्यार वह भार है जिससे मानस-पोत जीवन सागर में संतुलित गर्वोन्नत तिर पाता है। इस भार के लिए छोड़े गये स्थान की पूर्ति हम यथाशक्य अपने प्रति अपने प्यार से करते हैं किंतु कुछ स्थान फिर भी बच रहता है। इसे कैसे भी, किसी वस्तु, व्यक्ति या विचार के प्रति प्यार से भरा जाना जरूरी है, भरा जाता भी है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए हम किसी अज्ञात, अनाम तक से भी प्यार कर सकते हैं! "
उपन्यास में अगला मोड़ तब आता है, जब शादी के फिल्मांकन के लिए डीडी टैक्सी से अल्मोड़ा आता है। एक मामूली से सहायक डीडी के दोबारा इस रूप में लौटने से हुई कस्बाई हलचल पर चुटकी लेते हुए जोशी जी कहते हैं...

डीडी की सारे घर में चर्चा है। नगर में चर्चा है। डीडी सुन रहा है क्योंकि इस नगर में जो भी कहा जाता है, सबको सुनाकर कहा जाता है। पीठ पीछे भी कहा जाता है तो किसी ऍसे भरोसे के व्यक्ति से जो 'किसी से ना कहना' के गूढ़ार्थ जानता है, 'यहाँ से जाते ही सब से कह देना।'
इस उपन्यास का एक दूसरा मजबूत पक्ष है, जोशी जी की साफगोई और उनका बेबाक लेखन। नायक और नायिका के वीच के अंतरंग क्षणौं को जिस तरह उन्होंने विवेचन किया है वो प्रशंसनीय है। मात्र भदेस के डर से वो अपनी लेखनी के प्रवाह पर रोक नहीं लगाते और इस क्रम में पाठक के मन में जो बिंब उभरता है वो इतना वास्तविक होता है कि मन की गहराइयों को छूता सा निकलता है। अब यही प्रकरण देखें जहाँ नायक नायिका के बीच का संवाद एक स्लेट पर हो रहा है..

" नायिका जानना चाहती है कि नायक को साना हुआ नीबू कैसा लगता है? नायक को बिल्कुल अच्छा नहीं लगता, बहुत खट्टी चीजें वो खा नही पाता।
नायिका जानना चाहती है कि खट मिट्ठी चीजें कैसी लगती हैं उसे? वे अच्छी लगती हैं नायक को ।
नायिका जानना चाहती है कि बेबी कैसी ठहरी, खट्टी या खट मिट्ठी?

नायक का उत्तर आप जानते ही हैं. सच तो ये है कि मेरे सुधी पाठक यह सब जानते हैं।.....हर प्रेमी जानता है कि प्रतिपक्ष क्या चाह रहा है, किंतु जानकर भी न जानने का विधान है।..गड़बड़जाला निर्बाध जारी है।
नायक के 'खट‍ मिट्ठी' लिखने पर नायिका ने लिख दिया है जब चखा नहीं, फिर कैसे मालूम?
और नायक उसका पेंसिलवाला हाथ पकड़ लेता है और अपने ओठ उसके ओठों की ओर बढ़ाने लगता है....

...जॉनसन एण्ड मास्टर्स प्रभृति अर्वाचीन मनीषी इन सबकी अपनी प्रयोगशालाओं में नाप जोख करके पोथे लिख चुके हैं। ...किंतु फिर भी मुझे सम्भ्रम होता है कि बात यहीं समाप्त नहीं होती। आर्डेनेलिन नोरादेनेलिन आदि रासायनों, रक्तचाप वृद्धि, हृत्कंप वृद्धि आदि लक्षणों से अधिक भी कुछ होता है इन क्षणों में।

मुँह का सूखना भय का लक्षण है, माना। ....पर सामाजिक मर्यादा के उल्लंघन के भय से परे यहाँ कौन सा भय है? कौन सी है वह उच्चतर मर्यादा जिसे तोड़ने की भयमिश्रित चुनौती उपस्थित है यहाँ इस दयनीय होटल के इस तंग दुर्गंधयुक्त कक्ष के गंदे फर्श पर पड़े एक होलडॉल पर चिपटी दो युवा देहों के मध्य? "

जोशी जी के उपन्यास के नायक-नायिका आम मध्यमवर्गीय भीरू मन रखने वाले नहीं हैं। उनमें एक तरह का जुनून है,समाज से मुकाबला करने का ज़ज़्बा है। शादी दूसरी जगह तय होने के बाद भी इसीलिए नायिका मन ही मन निश्चिंत है कि अगर उसका ब्याह होगा तो डीडी के साथ। घर से दूर गणानाथ मंदिर में सहेलियों के साथ जाते वक्त वो डीडी को बुलाना नहीं भूलती। और ये नायक का पागलपन ही है कि उस बुलावे के आगे पीछे का ना सोचते हुए भागते दौड़ते भी वो वहाँ पहुँच जाता है। पर क्या ये जुनून उसके प्यार का मार्ग खोल पाता है। इसका उत्तर तो हाँ भी है और नहीं भी। नायिका की नज़रों में अपने इस कृत्य की वजह से चढ़ जाता है पर समाज उसे पुनः दुत्कार ही वापस भेजता है।

ये मार और दुत्कार नायक के मन को हिला देती है। शायद इसके पीछे उसका दुखद पारिवारिक इतिहास रहा है। पर बेबी....., क्या वो अपनी बदनामी और अपने कृत्य से किंचित मात्र भी ग्लानि महसूस कर रही है। नहीं जी हमारी बेबी अलग मिट्टी की ठहरी। जोशी जी ने उसके चरित्र को अपने लेखन कौशल से बखूबी उभारा है। इन्हीं पंक्तियों को लें जब नायक द्वारा अपने पत्र में पूरे प्रकरण पर क्षोभ का अनुभव करने पर वो लिखती है...

"तुझे मुझसे सादी करनी थी कि मेरे घरवालों से? मुझसे करनी थी तो मैं कह रही हो गई सादी। मेरी सादी के मामले में मुझसे ज्यादा कह सकने वाला कौन हो सकने वाला हुआ? मैंने अपनी दादी की सादी वाला घाघरा-आँगड़ा पहनकर माँग में गणानाथ का सिंदूर भरकर अपने इजा-बाबू, ददाओं-बोज्यूओं सारे रिश्तेदारों के सामने कह दिया उसी दिन गरजकर : मेरी हो गई उस लाटे से सादी। कोई उस पर हाथ झन उठाना। कोई उसे गाली झन देना। तब उन्होंने कहा ठहरा : बच्चों का खेल समझ रखा सादी? अब तू भी वही पूछ रहा ठहरा।

तेरे लिए गणानाथ क्या हुआ? तू वहाँ क्यों आया ठहरा? यह तू जान। मेरे लिए मंदिर ठहरा वह। उसी मंदिर में मुझे भक्ति करने का सा जैसा मन होनेवाला ठहरा। मैं गई ठहरी वहाँ सादी से पहले पूजा करने। मैंने तुझे बुलाया हुआ यह सोचकर कि जो तू भी वहाँ पहुँच गया इतने कम समय में तो तू ही होगा वो लाटा जिसके लिए मैं पैदा हो रही। "
नायिका ने तो अंततः माता पिता को राजी कर ही लिया पर बात इतने से ही खत्म नहीं होती। नायक अपने अपमान की तिलमिलाहट को भुला नहीं पाया है और अपने को कुछ लायक बना पाने के लिए अमेरिका में मिल रही छात्रवृति का लाभ उठाकर अपनी प्रतिभा का सही मूल्य अर्जित करना चाहता है, चाहे इसके लिए विवाह में थोड़ा विलंब ही क्यूँ ना आ जाए। नायिका के लिए ये स्वीकार्य नहीं है। उसे समझ नहीं आता कि जिसके लिए उसने समाज की बदनामी सही, भाई बंधुओं को कुपित किया, उसके लिए अपनी प्रियतमा के साथ तत्काल शादी कर एक साथ पढ़ाई पूरी करने के बजाए अमेरिका जाना ज्यादा जरूरी क्यूँ है? सच, इस प्रश्न को खड़ा कर लेखक ने एक बेहद महत्त्वपूर्ण विषय हम पाठकों के सामने रखा है जिस पर विचार करते समय मन उलझ सा जाता है...

"प्रेम जब ये चाहने लगे कि मैं अपने प्रिय को एक नए आकार में ढाल लूँ, प्रेम जब ये कल्पना करने लगे कि वह जो मेरा प्रिय है, मिट्टी का बना है ओर मैं उसे मनचाही आकृति दे सकता हूँ...अलग अलग कोणों से मिट्टी सने हाथों वाले किसी क्षण परम संतोष को प्राप्त हो सकता हूँ, तब प्रेम, प्रेम रह जाता है कि नहीं, इस पर शास्त्रार्थ की परम संभावना है।"
 नायक के अमेरिका जाने के पहले नायिका से किया गया वार्त्तालाप इस उपन्यास की धरोहर है। या यूँ कहे कि आम मुम्बईया फिल्म का क्लाइमेक्स है। पर मैं उसकी कोई झलक पेश नहीं करने जा रहा। पर जैसा कि वास्तविक जिंदगी में होता है कहानी उस क्लाइमेक्स के आगे भी चलती रहती है। मैं आपको ये भी नहीं बताना चाहता कि देवीदत्त तिवारी किस तरह अमेरिका में एक अच्छा दिग्दर्शक और बेबी उर्फ मैत्रेयी एक अल्हड़ कन्या से विदुषी बन बैठी।

क्या अपनी-अपनी जिंदगी की राहें अलग करने के बाद वो खुश रह पाए? क्या उनका प्रेम अतीत की तहों में दब कर रह गया? क्या वो दुबारा मिल पाए? ये सब ऍसे प्रश्न है जो इस किताब को पढ़ कर ही आप जान पाएँगे।

मूल प्रश्न तो वही है कि नायक या नायिका ने जो निर्णय लिया, क्या वो सही था? क्या एक दूसरे की बात मान कर वो ज्ञान की ऊंचाईयों को प्राप्त कर पाते? क्या व्यक्ति निजी महत्त्वाकांक्षाओं को दरकिनार कर जिंदगी भर प्रेम में डूबा रह सकता है?
ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके सीधे सपाट उत्तर दे पाना मुश्किल है। पर इस उपन्यास की सार्थकता भी इसी बात में निहित है कि ये प्रेम के मनोविज्ञान के बारे में पाठकों को सोचने को विवश करता है। अगर आपने ये उपन्यास पढ़ा है तो ये जरूर बताएँ कि आप क्या सोचते हैं इस बारे में?

शनिवार, जुलाई 21, 2007

मैं, उत्तरांचल, जोशी जी और 'कसप'..आइए चलें इस पुस्तक यात्रा पर - भाग: १

मेरा उत्तरांचल से क्या संबंध है? कुछ ख़ास नहीं। बस इतना भर कि रुड़की में मैं डेढ़ वर्ष रहा हूँ और प्रवीण सिंह खेतवाल जो मेरे यात्रा विवरणों में आपको हमेशा दिखाई पड़ते हैं और मेरे अभिन्न मित्र हैं, खुद कुमाऊँ से हैं। खेतवाल जी की शान में एक बात ये भी कहने योग्य है कि उनका महेंद्र सिंह धोनी के घर, जो कि हमारे आफिस के पास है, आना जाना है। कार्यालय में हम सभी मन में ये आस लगाएँ हैं कि कभी ना कभी वो साक्षात हमें धोनी से मिलवा पाएँगे।


पर रुड़की का मेरा प्रवास हो या खेतवाल जी का सानिध्य, कोई मुझे उत्तरांचल की मिट्टी के इतने पास नहीं ले गया जितना वो शख़्स जिससे मैं कभी नहीं मिला और ना ही मिल पाऊँगा। जी हाँ, मैं मनोहर श्याम जोशी जी की बात कर रहा हूँ, जिनकी किताब क्याप की चर्चा कुछ दिनों पहले मैंने इसी चिट्ठे पर की थी। आज आपके समक्ष जोशी जी के एक अलग तरह के उपन्यास 'कसप' की चर्चा करूँगा। अलग इसलिए कि जोशी जी अपने व्यंग्यात्मक लेखन कौशल के लिए ज़रा ज्यादा जाने जाते हैं और ये कथा है गाँव के एक अनाथ, साहित्य सिनेमा प्रेमी, मूडियल लड़के देवीदत्त तिवारी यानि डीडी और शास्त्रियों की सिरचढ़ी, खिलन्दड़ और दबंग लड़की बेबी के प्रेम की। किताब में इस बात का जिक्र है कि जोशी जी ने ये उपन्यास अपनी पत्नी भगवती के लिए लिखा और वो भी मात्र ४० दिनों में। विचित्र शीर्षक रखने की परंपरा (कुरु कुरु स्वाहा, कसप, क्याप) को कायम रखने के आरोप को ख़ारिज करते हुए लेखक कहते हैं..

."आपकी तरह मैं भी चौंकाने वाले साहित्य का विरोधी हूँ। बल्कि मुझे तो समस्त ऐसे साहित्य से आपत्ति है जो मात्र यही या वही करने की कसम खाए हुए हों। पर इस कथा के जो भी सूझे मुझे विचित्र शीर्षक सूझे। कदाचित इसलिए कि इस सीधी-सादी कहानी के पात्र सीधा-सपाट सोचने में असमर्थ रहे।"
सही ही कह रहे हैं जोशी जी पूरे उपन्यास में नायक-नायिका की खट्टी-मीठी प्रेम कथा पढ़ कर भी ये निर्णय करना मुश्किल हो जाता है कि जिसने जो किया क्या वो सही था? और उतना सोचने के बाद जवाब यही निकल कर आता है कि कसप !(कुमाऊँनी में कसप का मतलब है क्या जाने ! )

हमारी आंचलिक भाषाएँ कितनी मीठी है ये कसप जैसे उपन्यासों को पढ़ कर महसूस होता है। जोशी जी ने कुमाऊँनी हिंदी का जो स्वरूप पाठकों के समक्ष रखा है वो निश्चय ही मोहक हे। इससे पहले ऐसा ही रस फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यासों को पढ़ने में आया करता था। जोशी जी ने कुमाऊँनी समाज की जो झांकी अपनी इस कथा में दिखाई है, उसे पाठकों के हृदय तक पहुँचाने का श्रेय बहुत कुछ उनके द्वारा प्रयुक्त की गई भाषा का है। पूरे उपन्यास में जोशी जी सूत्रधार की भूमिका निभाते दिखते हैं। प्रेम कथा तब प्रारंभ होती है जब हमारे नायक-नायिका यानि डीडी और बेबी पहली बार शादी के एक आयोजन में मिलते हैं। अब ये मत समझ लीजिएगा कि ये मुलाकात नैनीताल के मनभावन तालों के किनारे किसी हसीन शाम में हुई होगी। अब जोशी जी क्या करें बेचारे ! खुद कहते हैं...
"यदि प्रथम साक्षात्कार की बेला में कथानायक अस्थायी शौच में बैठा है तो मैं किसी भी साहित्यिक चमत्कार से उसे ताल पर तैरती किसी नाव पर तो नहीं बैठा सकता।"

बिलकुल सही और इसीलिए नायक, नायिका से पहली मुलाकात में चाँद सितारों की बात ना कर उस मारगाँठ (पैजामे में लगी दोहरी गाँठ) का ज़िक्र करता है जो अस्थायी शौच में उसे देखकर हड़बड़ाकर उठने से लगी थी।

ख़ैर, जोशी जी की नोक-झोंक के ताने बाने में बढ़ती प्रेम कथा को थोड़ी देर के लिए विराम देते हैं। अपने उपन्यास में जब-तब वो अपने सरस अंदाज़ में उत्तरांचल के समाज की जो झलकियाँ दिखाते हैं, वो कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अब यही देखिए एक नव आगुंतक के परिचय लिए जाने का कुमाऊँनी तरीका.....

"'कौन हुए' का सपाट सा जवाब परिष्कृत नागर समाज में सर्वथा अपर्याप्त माना जाता है। यह बदतमीजी की हद है कि आप कह दें कि मैं डीडी हुआ। आपको कहना होगा, न कहिएगा तो कहलवा दिया जाएगा, मैं डीडी हुआ दुर्गादत्त तिवारी, बगड़गाँव का, मेरे पिताजी मथुरादत्त तो बहुत पहले गुजर गए थे, उन्हें आप क्या जानते होंगे, बट परहैप्स यू माइट भी नोइंग बी.डी तिवारी,वह मेरे एक अंकल ठहरे.....वे मेरे दूसरे अंकल ठहरे।
उम्मीद करनी होगी कि इतने भर से जिज्ञासु समझ जाएगा। ना समझा तो आपको ननिहाल की वंशावली बतानी होगी।
किस्सागोई की कुमाऊँ में यशस्वी परंपरा है। ठंड और आभाव में पलते लोगों का नीरस श्रम साध्य जीवन किस्सों के सहारे ही कटता आया है। काथ, क्वीड, सौल-कठौल जाने कितने शब्द हैं उनके पास अलग अलग तरह की किस्सागोई के लिए! यही नहीं, उन्हें किस्सा सुनानेवाले को 'ऐसा जो थोड़ी''ऐसा जो क्या'कहकर टोकने की और फिर किस्सा अपने ढ़ंग से सुनाने की साहित्यिक जिद भी है।"
वैसे लोगों की किसी भी अजनबी के लिए उत्सुकता , भारत के हर छोटे गाँव या कस्बे का अभिन्न अंग है जहाँ अभी भी महानगरीय बयार नहीं बही है। वापस प्रेम कथा पर चलें तो हमारा नायक विवाह के आयोजन में नायिका के साथ खिलंदड़ी कर अपने संभावित साले से दुत्कार झेलने के बाद मायानगरी मुंबई का रुख कर चुका है जहाँ वो किसी व्यवसायिक दिग्दर्शक का सहायक है। अब वहाँ पहुँचकर नायक, नायिका को पत्र लिखने की सोचता है। पर ये तथाकथित प्रेम पत्र, दिल का मज़मूं बयां करने के बज़ाए नायक के सारे साहित्यिक और फिलासिफिकल ज्ञान बघारते नज़र आते हैं। अब बेबी उन्हें पढ़ कर करे भी तो क्या, आधे से ज्यादा सिर के ऊपर से गुजर जाने वाला ठहरा। पहला ही पत्र पढ़कर कह बैठी...

"बाब्बा हो, जाने कैसे लिख देते होंगे लोग इतना जड़ कंजड़ ! कहाँ से सूझता होगा इन्हें? बरेली से बंबई तक जाने के बारे में ही पाँच कागज़ रँग रखे।....और लिख भी इस डीडी ने ऐसी हिंदी रखी जिसमें से आधा मेरी समझ में नहीं आती। नेत्र निर्वाण क्या ठहरा बाबू ?"

तेर ख्वारन च्यूड चेली !(ओ तेरे सिर पर चिउरे बच्ची...ऐसी आशीर्वादवत गालियाँ कुमाऊंनी विशेषता हैं।)...इधर दिखा यह कैसी नेत्र निर्वाण रामायण लिख रखी है उस छोरे ने.."
सो पत्र व्यवहार का एकतरफा सिलसिला जो प्रेमी युगलों के बीच शुरु हुआ, वो वास्तव में डीडी और शास्त्रीजी के संवाद में बदल गया। पत्र का साहित्यिक और वैचारिक मर्म खुद पिता पुत्री को समझाने में लग गए, आख़िर शास्त्री जो ठहरे। धीरे-धीरे ही सही बेबी की बुद्धि खुली और लिख ही डाली उसने अपनी पहली पाती....

"तू बहुत पडा लिखा है। तेरी बुद्धी बड़ी है। मैं मूरख हूँ। अब मैं सोच रही होसियार बनूँ करके। तेरा पत्र समझ सकूँ करके। मुसकिल ही हुआ पर कोसीस करनी ठहरी। मैंने बाबू से कहा है मुझे पडाओ।....हम कुछ करना चाहें, तो कर ही सकनेवाले हुए, नहीं? वैसे अभी हुई मैं पूरी भ्यास (फूहड़)। किसी भी बात का सीप (शऊर) नहीं हुआ। सूई में धागा भी नहीं डाल सकने वाली हुई। लेकिन बनूँगी। मन में ठान लेने की बात हुई। ठान लूँ करके सोच रही।"
भाषा की सीमाएँ भावनाओं के संप्रेषण में कभी बाधा नहीं बनती ये कितनी सहजता से साबित कर दिया जोशी जी ने। आश्चर्य नहीं कि हमारा नायक इस पत्र को बार-बार चूमे जा रहा है और इस सरल सहज पत्र को उच्च कोटि के प्रेम पत्र में शुमार कर रहा है।

जोशी जी के इस उपन्यास की ख़ासियत ये भी है कि वो नायक या नायिका या हर चरित्र के किसी भी कृत्य के पश्चात बड़े ही रोचक अंदाज में उसका विश्लेषण करते हैं। पाठकों के मन में उस वक़्त चल रही भावनाओं और भीतरी द्वंद्व को समझते हुए अपनी त्वरित प्रतिक्रिया भी दे डालते हैं जिससे पढ़ने का आनंद और बढ़ जाता है।

डीडी और बेबी की अगली भेंट एक दूसरे वैवाहिक आयोजन में होती है... कैसा रूप लेती है ये कथा ये जानते हैं इस चर्चा के अगले भाग में..
 

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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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