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बुधवार, अगस्त 06, 2014

मदन मोहन की सांगीतिक प्रासंगिकता : लग जा गले .. सनम पुरी Lag Ja Gale .... Sanam Puri

मदन मोहन से जुड़ी पिछली पोस्ट में बात खत्म हुई थी इस प्रश्न पर कि क्या आज की पीढ़ी भी मदन मोहन के संगीत को उतना ही पसंद करती है? इस बात का सीधा जवाब देना मुश्किल है। मेरा मानना है कि हिंदी फिल्मों में ग़ज़लों के प्रणेता समझे जाने वाले मदन मोहन अगर आज हमारे बीच होते तो उनके द्वारा रचा संगीत भी अभी के माहौल में ढला होता। आज उन दो प्रसंगों का जिक्र करना चाहूँगा जो मदन मोहन के संगीत की सार्वकालिकता की ओर इंगित करते हैं।

मदन मोहन के संगीत में आने वाले कल को पहचानने की क्षमता थी वर्ना क्या कोई ऐसा संगीतकार है जिसकी धुनों को उसके मरने के तीस साल बाद किसी फिल्म में उसी रूप में इस्तेमाल कर लिया गया हो। 2004 में प्रदर्शित फिल्म वीर ज़ारा का संगीत तो याद है ना आपको। यश चोपड़ा विभाजन से जुड़ी इस प्रेम कथा के संगीत के लिए नामी गिरामी संगीतकारों के साथ बैठकें की। पर फिल्म के मूड के साथ उन धुनों का तालमेल नहीं बैठ सका। अपनी परेशानी का जिक्र एक बार वो मदन मोहन के पुत्र संजीव कोहली से कर बैठे। संजीव ने उन्हें बताया कि उनके पास पिता की संगीतबद्ध कुछ अनसुनी धुनें पड़ी हैं। अगर वे सुनना चाहें तो बताएँ। चोपड़ा साहब ने हामी भरी और संजीव तीस धुनों की पोटली लेकर उनके पास हाज़िर हो गए।


जैसे जैसे वो पोटली खुलती गई चोपड़ा साहब को फिल्म की परिस्थितियों के हिसाब से गीत और कव्वाली की धुनें मिलती चली गयीं। फिल्म के संगीत को आम जनता ने किस तरह हाथों हाथ लपका ये आप सबसे छुपा नहीं है। ये उदाहरण इस बात को सिद्ध करता है कि वक़्त से आगे के संगीत को परखने और उसमें अपनी मेलोडी रचने की काबिलियत मदन मोहन साहब में थी।

अब एक हाल फिलहाल की बात लेते हैं। अपनी धुनों में मदन मोहन जो मधुरता रचते थे उसके लिए इंटरल्यूड्स और मुखड़े के पहले किया गया संगीत संयोजन कई बार बेमानी हो जाता था। लता जी का गाया फिल्म 'वो कौन थी' का बेहद लोकप्रिय गीत लग जा गले .. तो आप सबने सुना होगा। हाल ही में मैंने इसी गीत को सनम बैंड के सनम पुरी को गाते सुना। मेलोडी वही पर गीत के साथ सिर्फ गिटार और ताल वाद्य का संयोजन। सच मानिए बहुत दिनों बाद एक रिमिक्स गीत में गीत की आत्मा को बचा हुआ पाया मैंने। सनम की आवाज़ का कंपन और इंटरल्यूड्स में उनकी गुनगुनाहट गीत में छुपी विकलता को हृदय तक ले जाती है



वैसे सनम पुरी अगर आपके लिए नया नाम हो तो ये बता दूँ कि मसकत में रहने वाले सनम ने विधिवत संगीत की शिक्षा तो ली नहीं। संगीत के क्षेत्र में आए भी तो परिवार वालों के कहने से। पाँच साल पहले SQS Supastars नाम का बैंड बनाया जिसका नाम कुछ दिनों पहले बदल के सनम हो गया। सनम बताते हैं कि लता जी के गाए इस गीत से उनके बैंड के हर सदस्य की भावनाएँ जुड़ी हैं और इसीलिए उन्होंने अपने इस प्यारे गीत को आज के युवा वर्ग के सामने एक नए अंदाज़ में लाने का ख्याल आया। तो आइए सुनते हैं सनम बैंड के इस गीत को।


लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो
शायद फिर इस जनम में मुलाक़ात हो न हो
लग जा गले  ...

हमको मिली हैं आज ये घड़ियाँ नसीब से
जी भर के देख लीजिये हमको क़रीब से
फिर आपके नसीब में ये बात हो न हो
शायद फिर इस जनम...लग जा गले..

पास आइये कि हम नहीं आएंगे बार-बार
बाहें गले में डाल के हम रो लें ज़ार-ज़ार
आँखों से फिर ये प्यार कि बरसात हो न हो
शायद फिर इस जनम...लग जा गले..


गीत में उनके भाई समर पुरी गिटार पर हैं, वेंकी ने बॉस गिटार सँभाला है जबकि केशव धनराज उनकी संगत कर रहे हैं पेरू से आए ताल वाद्य Cajon पर


जब लता जी रॉयल अलबर्ट हॉल में Wren Orchestra के साथ एक कार्यक्रम कर रही थीं तो कार्यक्रम में शामिल होने वाले गीतों के नोट्स लिख के भेजे गए। जो दो गीत उन्हें सबसे पसंद आए उनमें लग जा गले  भी था। आर्केस्ट्रा प्रमुख का कहना था कि वो धुनों की मेलोडी और उनके साथ किए नए तरह के संगीत संयोजन से चकित हैं। 

आशा है संगीतकार मदन मोहन से जुड़ी ये तीन कड़ियाँ आपको पसंद आयी होंगी। एक शाम मेरे नाम पर उनकी यादों का सफ़र आगे भी समय समय पर चलता रहेगा।

शनिवार, जुलाई 26, 2014

मदन मोहन के संगीत में रची बसी वो शाम : आप को प्यार छुपाने की बुरी आदत है... Aap ko pyar chhupane ki buri aadat hai

पिछले हफ्ते की बात है। दफ़्तर के काम से रविवार की शाम पाँच बजे दिल्ली पहुँचा। पता चला पास ही मैक्स मुलर मार्ग पर स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में संगीतकार मदनमोहन की स्मृति में संगीत के कार्यक्रम का आयोजन हो रहा है। कार्यक्रम साढ़े छः बजे शुरु होना था पर दस मिनट की देरी से जब हम  पहुँचे तो वहाँ तिल धरने की जगह नहीं थी। श्रोताओं में ज्यादातर चालीस के ऊपर वाले ही बहुमत में थे पर पुराने गीतों की महफिल में ऐसा होना लाज़िमी था। कुछ मशहूर हस्तियाँ जैसे शोभना नारायण भी दर्शक दीर्घा में नज़र आयीं।


उद्घोषकों ने मदनमोहन के संगीतबद्ध गीतों के बीच बगदाद में जन्मे इस संगीतकार की ज़िंदगी के छुए अनछुए पहलुओं से हमारा परिचय कराया। मुंबई की आरंभिक पढ़ाई, देहरादून के बोर्डिंग स्कूल में रहना, पिता के आग्रह पर सेना में नौकरी करना, उनका कोपभाजन बनते हुए भी फिल्मी दुनिया में अपने बलबूते पर संगीतकार की हैसियत से पाँव जमाना, लता के साथ उनके अद्भुत तालमेल, फिल्मी ग़ज़लों को लयबद्ध करने में उनकी महारत, उनका साहबों वाला रोबीला व्यक्तित्व,  हुनर के हिसाब से उनको लोकप्रियता ना मिलने का ग़म और शराब में डूबी उनकी ज़िदगी के कुछ आख़िरी साल ..उन ढाई घंटों में उनका पूरा जीवन वृत आँखों के सामने घूम गया।

पर इन सबके बीच उनके कुछ मशहूर और कुछ कम बज़े गीतों को सुनने का अवसर भी मिला। ऐसे कार्यक्रमों में कितना भी चाहें आपके सारे पसंदीदा नग्मों की बारी तो नहीं आ पाती। फिर भी 'ना हम बेवफ़ा है ना तुम बेवफ़ा हो...', 'लग जा गले से हसीं रात हो ना हो...', 'तुम्हारी जुल्फों के साये में शाम कर दूँगा..', 'झुमका गिरा रे...' जैसे सदाबहार नग्मों को सुनने का अवसर मिला तो वहीं 'इक हसीं शाम को दिल मेरा खो गया...',  'तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है...', 'नैनों में बदरा छाए...', 'ज़रा सी आहट होती है....', 'कोई शिकवा भी नहीं कोई भी शिकायत भी नहीं...' जैसे गीतों को live सुन पाने की ख़्वाहिश..ख़्वाहिश ही रह गयी।

इन्हीं गीतों के बीच  एक युगल गीत भी पेश किया गया जिसे कई सालों बाद अचानक और सीधे आर्केस्ट्रा के साथ मंच से सुनने में काफी आनंद आया। एक हल्की सी छेड़छाड़ और चंचलता लिए इस गीत को 1965 में आई फिल्म "नीला आकाश" में मोहम्मद रफ़ी और आशा ताई ने गाया था। इस गीत को लिखा था राजा मेहदी अली खाँ ने। मदनमोहन और राजा साहब की संगत ने हिंदी फिल्म संगीत को कितने अनमोल मोती दिए वो तो आप सब जानते ही हैं। राजा साहब से जुड़े इस लेख में आपको पहले ही उनके बारे में विस्तार से बता चुका हूँ। उसी लेख में इस बात का भी जिक्र हुआ था कि किस तरह उन्होंने हिंदी फिल्मी गीतों में 'आप' शब्द का प्रचलन बढ़ाया। आज जिस गीत की बात मैं आपसे करने जा रहा हूँ वो भी इसी श्रेणी का गीत है।

देखिए तो इस खूबसूरती से राजा साहब ने गीत की पंक्तियाँ गढ़ी हैं कि हर अगली पंक्ति पिछली पंक्ति का माकूल जवाब सा लगती है।
आप को प्यार छुपाने की बुरी आदत है
आप को प्यार जताने की बुरी आदत है

आपने सीखा है क्या दिल के लगाने के सिवा,
आप को आता है क्या नाज दिखाने के सिवा,
और हमें नाज उठाने की बुरी आदत है

किसलिए आपने शरमा के झुका ली आँखें,
इसलिए आप से घबरा के बचा ली आँखें,
आपको तीर चलाने की बुरी आदत है

हो चुकी देर बस अब जाइएगा, जाइएगा,
बंदा परवर ज़रा थोड़ा-सा क़रीब आइएगा,
आपको पास न आने की बुरी आदत है


तो आइए सुनते हैं राग देस पर आधारित इस मधुर युगल गीत को

 


वैसे तो सर्वव्यापी धारणा रही है लड़कों में अपने प्यार का इज़हार करने का उतावलापन रहता है, वहीं लड़कियाँ शर्म ओ हया से बँधी उसे स्वीकार करने में झिझकती रही हैं। पर वक़्त के साथ क्या आप ऐसा महसूस नहीं  करते कि मामला इतना स्टीरियोटाइप भी नहीं रह गया है। पहल दोनों ओर से हो रही है। सोच रहा हूँ कि अगर आज गीतकार को ये परिस्थिति दी जाए तो वो क्या लिखेगा। है आपके पास कोई कोरी कल्पना ?

शनिवार, मई 15, 2010

गीतकार राजा मेंहदी अली खाँ और उनका लिखा ये प्यारा नग्मा ' इक हसीन शाम को..'

राजा मेंहदी अली खाँ, जब भी ये नाम सुना तो लगा भला इतने रईस खानदान के चराग़ को गीत लिखने का शौक कैसे हो गया? गोकि ऍसा भी नहीं कि हमारे राजे महाराजे इस हुनर से महरूम रहे हों। तुरंत ही जनाब वाज़िद अली शाह का ख्याल ज़ेहन में उभरता है। पर उनकी मिल्कियत दिल्ली और अवध तक फैली हुई थी पर राजा साहब को क्या सूझी कि वो अपने बाप दादाओं की जमीदारी छोड़कर मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा बन बैठे?
राजा साहब के बारे में जानने की इच्छा बहुत दिनों तक बनी रही पर उनके अनमोल गीतों और संगीतकार मदनमोहन के साथ उनकी अनुपम जोड़ी के किस्सों के आलावा कुछ ज्यादा हाथ नहीं लगा।

कुछ दिनों पहले फिल्म 'दुल्हन एक रात की' का अपना एक पसंदीदा नग्मा गुनगुना रहा था कि याद आया कि अरे ये गीत भी तो राजा साहब का ही लिखा हुआ है। राजा साहब के बारे में मेरा पुराना कौतुहल, फिर जाग उठा। इस बार उन पर लिखे कुछ लेख हाथ लगे। पता चला कि राजा साहब, अविभाजित भारत के करमाबाद की पैदाइश हैं। पिता बचपन में ही गुजर गाए और माता हेबे जी के संरक्षण में मेंहदी अली खाँ पले बढ़े। माँ अपने ज़माने उर्दू की क़ाबिल शायरा के रूप में जानी गयीं। चालिस के दशक में जब वो आकाशवाणी दिल्ली में काम कर रहे थे तो मुंबई से उन्हें सदात हसन मंटो का बुलावा आ गया। मंटों ने तब हिंदी फिल्मों में काम करना शुरु किया था।

पर राजा साहब ने आते ही अपनी शायरी के जलवे दिखाने शुरु कर दिये ऐसा भी नहीं था। आपको जानकर हैरानी होगी कि राजा साहब की फिल्म उद्योग में शुरुआत बतौर पटकथा लेखक के हुई। और तो और उन्होंने एक फिल्म के लिए छोटा सा रोल भी किया। पर पटकथालेखन और अभिनय उन्हें ज्यादा रास नहीं आया। 1947 की फिल्म दो भाई में राजा साहब को पहली बार गीत लिखने का मौका मिला । इस फिल्म का गीत "मेरा सुंदर सपना टूट गया..." बेहद चर्चित रहा। विभाजन और दंगों की आग में जल रहे देश में डटे रहने का फ़ैसला भी राजा साहब के भारत के प्रति प्रेम को दर्शाता है। और फिर फिल्म शहीद (1950) में देशप्रेम से ओतप्रोत उनके लिखे उस गीत को भला कौन भूल सकता है 'वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हो'.. '

पचास का दशक राजा मेंहदी अली खाँ के उत्कर्ष का दशक था। दशक की शुरुआत में संगीतकार मदनमोहन के साथ फिल्म 'मदहोश' में उनकी जो सफल जोड़ी बनी वो 'अनपढ़', 'मेरा साया', 'वो कौन थी', 'नीला आकाश', 'दुल्हन एक रात की' आदि फिल्मों में और पोषित पल्लवित होती गई।

राजा मेंहदी अली खाँ के लिखे गीतों पर नज़र रखने वाले फिल्म समीक्षकों का मानना है कि राजा ने ही फिल्मी गीतों में 'आप' शब्द का प्रचलन बढ़ाया। मसलन उनके लिखे इन गीतों को याद करें... 'आप की नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे...' या 'जो हमने दास्ताँ अपनी सुनाई आप क्यूँ रोए ' , 'आपने अपना बनाया मेहरबानी आपकी...'। मदन मोहन के आलावा राजा साहब ने ओ पी नैयर व सी रामचंद्र के संगीत निर्देशन में भी बेहतरीन नग्मे दिये। वैसे क्या आपको पता है कि 'मेरे पिया गए रंगून वहाँ से किया है टेलीफून.. ' भी राजा साहब का ही लिखा हुआ गीत है।

साठ के दशक के मध्य में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ 'अनीता' और 'जाल' जैसी फिल्में उनके फिल्मी सफ़र की आखिरी फिल्में थी। जुलाई 1996 में राजा साहब इस दुनिया से कूच कर गए। पर उनके रचे गीतों से आज भी वे हमारे मन में समाए हैं। आज की ये पोस्ट उस गीत के जिक्र बिना अधूरी रह जाएगी जिसकी वज़ह से राजा साहब की याद पुनः मन में आ गई।

फिल्म 'दुल्हन एक रात की' फिल्म का ये गीत मुझे बेहद पसंद है और क्यूँ ना हो 'शामों' से मेरे लगाव की बात क्या आप सब से छिपी हे। और फिर जहाँ गीत में ऐसी ही किसी शाम को अपने हमसफ़र की यादों में गोता लगाने का जिक्र हो तो वो गीत क्या दिलअज़ीज नहीं बन जाएगा ?

मदनमोहन द्वारा मुखड़े की आरंभिक धुन कमाल की है। यही कारण हे कि इस गीत के मुखड़े को गुनगुनाना मेरा प्रिय शगल रहा है। आज सोचा मोहम्मद रफ़ी साहब की मखमली आवाज़ में गाए पूरे गीत को गुनगुनाने की कोशिश करूँ। रफ़ी साहब ने जिस मस्ती से इस गीत को गाया है कि सुन कर ही मन झूम उठता है और होठ थिरकने लगते हैं।


इक हसीन.. शा..म को दिल मेरा... खो गया
पहले अपना, हुआ करता था, अब किसी का... हो गया

मुद्दतों से.., आ..रजू थी, जिंदगी में.. कोई आए
सूनी सूनी, जिंदगी में. कोई शमा.. झिलमिलाए
वो जो आए तो रौशन ज़माना हो गया
इक हसीन.. शा..म को दिल मेरा... खो गया

मेरे दिल के, कारवाँ को ले चला है.. आज कोई
शबनमी सी. जिसकी आँखें, थोड़ी जागी.. थोड़ी सोई
उनको देखा तो मौसम सुहाना हो गया
इक हसीन.. शा..म को दिल मेरा... खो गया
पहले अपना, हुआ करता था, अब किसी का... हो गया

मुझे झेल लिया है ! ठीक है जनाब अब रफ़ी की आवाज़ में भी इस गीत को सुनवाए देते हैं। वैसे फिल्म में इस गीत को फिल्माया गया था धर्मेंद्र व नूतन पर..


 

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