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गुरुवार, नवंबर 29, 2012

रातों के साये घने जब बोझ दिल पर बने..चोपिन से प्रेरित सलिल दा की यादगार धुन

सलिल दा संगीत निर्देशित और योगेश द्वारा लिखे दार्शनिकता लिए (यानि फिलासफिकल) गीतों की श्रृंखला का तीसरा नग्मा है फिल्म अन्नदाता का। सलिल दा के संगीत निर्देशित गीतों में इसे जटिलतम गीतों में से एक माना जाता है। अगर सलिल दा की धुनों को जलेबी की तरह घुमावदार माना जाता था तो ये गीत उस परिभाषा में सहज ही शामिल हो जाता है। पर इस गीत की बात करने के पहले सलिल दा को इस गीत की प्रेरणा देने वाले शख़्स के बारे में बताना जरूरी है।

सलिल दा ने ये धुन पोलैंड के संगीतकार फ्रेडेरिक चोपिन (Frédéric Chopin) की धुन से प्रेरित होकर बनाई थी। चोपिन एक माहिर पियानो वादक थे। बीस साल तक पोलैंड में रहने के बाद वो फ्रांस चले गए। यूरोप के विभिन्न देशों में किए उनके कॉन्सर्ट लोकप्रिय हुए। उनकी ज्यादातर धुनें सोलो पियानों पर हैं। आज भी पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के रसिया उनकी रोमांटिक धुनों को चाव से सुनते हैं।



सलिल दा ने चोपिन की धुन पर जो गीत रचा उसे गाने के लिए एक क़ाबिल गायिका की जरूरत थी। अगर इस गीत को गुनगुनाएँ तो आप तुरंत समझ जाएँगे कि इसे ढंग से गाना कितना कठिन है। मुखड़े के आखिर तक आते आते सुरों का चढ़ाव एक तरफ़ और उसके ठीक बाद बदली हुई लय में अंतरे की शुरुआत की बारीकियाँ दूसरी तरफ़। पर लता जी जब इसे गाती हैं तो सुनने पर लगता ही नहीं कि उन्हें इसे निभाने में कोई दिक्कत हुई होगी। ये बात उनकी महानता की परिचायक है। सलिल दा उनकी इस महानता से भली भांति वाक़िफ़ थे। उनकी पुत्री अंतरा ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था

"बाबा के लिए लता माँ सरस्वती का दूसरा रूप थीं। उनके लिए संगीत रचते समय वो इस चिंता से दूर रहते थे कि गीत किस सुर तक या कैसी ताल में चलेगा क्यूँकि उन्हें पूरा विश्वास था कि उसे लता बखूबी निभा लेंगी। मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि अन्नदाता के गीत रातों के साये.. में जो खूबसूरत संगीत संयोजन था उसके साथ लता जी ने पूरा न्याय किया है। बाबा ने लता जी की आवाज़ का अपने गीतों में जिस तरह इस्तेमाल किया वो क़ाबिलेतारीफ़ है।"

 योगेश का लिखा ये गीत हमें ज़िदगी में आने वाली मायूसियों से जूझने की प्रेरणा देता है। योगेश ने गीत के हर अंतरे में विकट परिस्थितियों में मन में आशा का दीपक जलाए रखने का जो संदेश दिया है वो किसी भी बुझे मन को जागृत करने का माद्दा रखता है। अंतरे की लय गीत की खूबसूरती में चार चाँद लगाती दिखती है। मिसाल के तौर पर एक अंतरे की लय के स्वरूप पर ज़रा गौर कीजिए
जब ज़िन्दगी.. किसी.. तरह.. बहलती नहीं..खामोशियों से भरी.. जब रात ढलती नहीं...तब मुस्कुराऊँ मैं..यह गीत गाऊँ मैं.. फिर भी ना डर..अगर.. बुझें.. दीये....सहर.. तो है.. तेरे.. लिये
है ना कमाल  ! तो चलिए सुनते हैं अन्नदाता फिल्म का ये गीत जिसे जया भादुड़ी पर फिल्माया गया था।

रातों के साये घने जब बोझ दिल पर बने
ना तो जले बाती, ना हो कोई साथी
फिर भी ना डर अगर बुझें दीये....सहर तो है तेरे लिये

जब भी मुझे कभी कोई जो ग़म घेरे
लगता है होंगे नहीं, सपने ये पूरे मेरे
कहता है दिल मुझको, माना हैं ग़म तुझको
फिर भी ना डर ... तेरे लिये

जब ना चमन खिले मेरा बहारों में
जब डूबने मैं लगूँ , रातों के मझधारों में
मायूस मन डोले, पर ये गगन बोले
फिर भी ना डर ... तेरे लिये

जब ज़िन्दगी किसी तरह बहलती नहीं
खामोशियों से भरी, जब रात ढलती नहीं
तब मुस्कुराऊँ मैं, यह गीत गाऊँ मैं
फिर भी ना डर ... तेरे लिये
रातों के साये घने ...



सलिल दा से जुड़ी इस श्रृंखला में यहीं विराम लेते हैं। वैसे सलिल योगेश की जोड़ी के दार्शनिकता लिए गीतों में उन गीतों की चर्चा रह ही गई जिसमें सलिल दा के पसंदीदा गायक मुकेश ने अपनी आवाज़ दी थी। पर वो सिलसिला फिर कभी ..पर चलते चलते क्या आप नहीं जानना चाहेंगे कि सलिल दा अपने संगीत को किस तरह आँकते थे? प्रसिद्ध फिल्म पत्रकार राजू भारतन से हुई बातचीत में एक बार उन्होंने कहा था

 "फुटबॉल के खेल को ही देखिए। सारे नियम हैं वहाँ! फ्री किक, थ्रो इन, आफ साइड, पेनाल्टी... पर फिर भी एक खिलाड़ी है पेले जो इन नियमों के भीतर रहते हुए कुछ ऐसा कर दिखाता है कि लगता है वो कुछ ऐसा कर गया जो इस खेल में होना एक अनूठी बात है। मैं भी संगीत का वही पेले हूँ।"

सलिल दा और योगेश इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

शुक्रवार, नवंबर 23, 2012

सलिल, योगेश व मन्ना डे : ज़िंदगी कैसी है पहेली, हाए...

सलिल दा और योगेश रचित फिलासफिकल गीतों की इस श्रृंखला में पिछली पोस्ट में बात हो रही थी गीत ना जाने क्यूँ होता है ये ज़िंदगी के साथ....... की। और हाँ इस गीत को गाते वक़्त इसके पहले अंतरे के बाद भटक कर मैं जा पहुँचा था एक दूसरे गीत की इस पंक्ति कभी देखो मन नहीं जागे पीछे पीछे सपनों के भागे पर। शायद दोनों गीतों की कुछ पंक्तियाँ एक जैसे मीटर में हों। ख़ैर आनंद का ये गीत ज़िदगी की इस पहेली के सच को चंद शब्दों में इस खूबसूरती से उभारता है कि मन इस गीत को सुनकर अंदर तक भींग जाता है। सलिल दा की मेलोडी, मन्ना डे की दिल तक पहुँचती आवाज़ और योगेश के सहज पर मन को चोट करते शब्द इस गीत का जादू हृदय से कभी उतरने नहीं देते। 

पिछली पोस्ट में आपको बताया था कि किस तरह सलिल दा पश्चिमी शास्त्रीय संगीत से प्रभावित थे। आनंद के इस गीत का आरंभ ऐसे ही संगीत संयोजन से होता है। साथ ही मन्ना डे की आवाज़ के पीछे वही कोरस पार्श्व में लहराता हुआ चलता है जो सलिल दा के गीतों का एक ट्रेडमार्क था। पर उस कोरस पर सलिल दा ने जिस तरह भारतीय मेलोडी की परत चढ़ाई है वो काबिले तारीफ़ है। सलिल दा अक्सर कहा करते थे..
"Music will always be dismantling and recreating itself, and assuming new forms in reaction to the times. To fail to do so would be to become fossilized. But in my push to go forward I must never forget that my heritage is also my inspiration.
"यानि संगीत हमेशा अपने आप को बँधे बँधाए ढांचे से तोड़ता और पुनर्जीवित करता चलेगा। इस प्रक्रिया में उसका स्वरूप समय की माँग के अनुरूप बदलेगा। अगर वक़्त की ये आहट कोई नहीं समझ सकेगा तो वो अतीत की गर्द में समा जाएगा। पर वक़्त के साथ आगे चलते वक़्त हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारी विरासत भी हमारी प्रेरणास्रोत है।"
सलिल दा के गीतों में मेहनतकशों का लोक संगीत है तो दूसरी ओर मोजार्ट की सिम्फोनी भी। सलिल मोजार्ट के संगीत से इस क़दर प्रभावित थे कि वो अपने आपको रिबार्न मोजार्ट (Reborn Mozart) कहा करते। पर उनकी सफलता का राज ये रहा कि इस सिम्फोनी को उन्होंने भारतीय रंग में ढाला।  हाल ही में सलिल दा की पुत्री अंतरा चौधरी ने विविधभारती में दिये अपने साक्षात्कार में कहा था
"बाबा प्रील्यूड और इंटरल्यूड को गीत के बोलों के साथ जोड़ कर अपने संगीत की रचना करते थे। जब भी कोई बाबा का गाना गाता है तो वो प्रील्यूड और इंटरल्यूड को गुनगुनाए बिना मुखड़े व अंतरे तक पहुँच ही नहीं पाएगा।"
कहने का मतलब ये कि सलिल दा के लिए प्रील्यूड और इंटरल्यूड गीत के अतरंग हिस्से हुआ करते थे। अंतरा की बात को मन्ना डे के गाए इस गीत को सुनकर बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। पर इस गीत में सपनों के पीछे भागते मन का चित्र अंकित करने वाले गीतकार योगेश के योगदान को भी हमें भूलना नहीं चाहिए। अच्छे कवि को अपनी बात कहने के लिए शब्दों का महाजाल रचने की आवश्यकता नहीं होती। योगेश कितनी खूबसूरती से जीवन के यथार्थ को एक पंक्ति में यूँ समेट लेते हैं ...एक दिन सपनों का राही चला जाए सपनों के आगे कहाँ. भई वाह।

वैसे आनंद के पहले योगेश बतौर गीतकार बहुत जानामाना नाम नहीं थे। उनकी माली हालत ऐसी थी कि अपने खुद के लिखे गीतों को सुनने के लिए उन्हें सविता चौधरी के पास जाना पड़ता था। योगेश सविता जी को तब से जानते थे जब उनकी शादी सलिल दा से नहीं हुई थी। सविता ने ही गीतकार के लिए योगेश का नाम सलिल दा को सुझाया था। सलिल दा तब तक अपना ज्यादातर काम शैलेंद्र के साथ किया करते थे। शैलेंद्र की मृत्यु के बाद उन्हें एक नए गीतकार की तलाश थी। जब पहली बार सलिल दा ने योगेश को आधे घंटे में एक गीत लिखने को दिया तो योगेश से कुछ लिखा ही नहीं गया। निराश मन से योगेश घर के बाहर निकल आए। मजे की बात ये रही कि बस स्टॉप तक पहुँचते ही उनके मन में एक गीत शक्ल लेने लगा। जब वापस आ कर उन्होंने सलिल दा का वो गीत सुनाया तो सलिल दा ने तुरंत अपनी पत्नी को बुलाकर कहा कि इसने तो बहुत अच्छा लिखा है।

गीत सुनते वक़्त आपने ध्यान दिया होगा कि किस तरह मन्ना डे ऊँचे सुरों में  एक दिन सपनों का राही तक पहुँचते हैं और उस के बाद  नीचे के सुरों में  चला जाए.... सपनों के.... आगे कहाँ गाते हुए हमारे दिल को वास्तविकता के बिल्कुल करीब ले आते हैं। ये प्रतिभा होती है एक अच्छे संगीतकार की जो शब्दों की लय को इस तरह रचता है कि सुनने वाले पर उसका अधिकतम असर हो। तो आइए सुनते हैं इस गीत को सलिल दा के अनूठे संगीत संयोजन के साथ


ज़िंदगी कैसी है पहेली, हाए
कभी तो हँसाए
कभी ये रुलाए
ज़िंदगी ...

कभी देखो मन नहीं जागे
पीछे पीछे सपनों के भागे
एक दिन सपनों का राही
चला जाए सपनों के आगे कहाँ
ज़िंदगी ...

जिन्होने सजाए यहाँ मेले
सुख-दुख संग-संग झेले
वही चुनकर ख़ामोशी
यूँ चले जाए अकेले कहाँ
ज़िंदगी ...

चलते चलते इस गीत से जुड़ा एक और किस्सा आपसे बाँटता चलूँ । आनंद के गीतों को लिखने के लिए लिए हृषिकेश दा ने गुलज़ार और सलिल दा ने योगेश को कह रखा था। पर दोनों ने ये बात एक दूसरे को नहीं बताई थी। लिहाजा एक ही परिस्थिति के लिए गुलज़ार ने ना जिया लागे ना लिखा और योगेश ने ना ना रो अखियाँ  लिखा। गीत तो गुलज़ार का ही रखा गया पर हृषिकेश दा ने योगेश की मेहनत को ध्यान में रखकर पारिश्रमिक के रूप में एक चेक दिया। योगेश ने कहा जब उनका गीत फिल्म में है ही नहीं तो फिर काहे के पैसे। इस समस्या के सुलझाव के लिए ज़िंदगी कैसी है पहेली को ..मूल स्क्रिप्ट में जोड़ा गया। वैसे आनंद के लिए योगेश ने मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने बुने भी लिखा।

सलिल दा से जुड़ी श्रृंखला का अगला गीत जीवन में आए दुखों से लड़ने की प्रेरणा देता है। इस बेहद कठिन गीत को एक बार फिर आवाज़ दी थी लता जी ने। बताइए तो कौन से गीत की बात मैं कर रहा हूँ?

सलिल दा और योगेश इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

सोमवार, नवंबर 19, 2012

सलिल चौधरी,योगेश व लता : न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...

आज सलिल चौधरी यानि सलिल दा का जन्मदिन है। पर यकीन मानिए ये इत्तिफ़ाक़ ही है कि उनके जन्मदिन पर उनसे जुड़ी ये श्रृंखला शुरु कर रहा हूँ। दरअसल हुआ यूँ कि बहुत दिनों से मैं सलिल दा द्वारा संगीत निर्देशित इस गीत के बारे में लिखना चाह रहा था। कल जब ये गीत गुनगुना रहा था तो अंतरे तक पहुँचने के बाद उसी लय में एक दूसरे गीत की पंक्तियाँ जुबाँ पर आ गयीं। मुझे लगा हो ना हो वो भी सलिल दा का गीत रहा होगा और वास्तव में वो उनका ही गीत निकला। इसी खोजबीन में ये भी नज़र में आ गया कि आज से करीब अस्सी साल पहले यह विलक्षण प्रतिभा वाला संगीत निर्देशक जो बहुमुखी प्रतिभा का धनी था, इस धरती पर आया था।

मेरी इस श्रृंखला का उद्देश्य सलिल दा के उन गीतों को आपके समक्ष रखना है जिसमें उन्होंने गीतकार योगेश गौड़ के साथ मिलकर जीवन की फिलॉसफी को इस तरह उतारा कि उनके बोल और धुनें समय के थपेड़ों के बीच रह रह कर ज़ेहन में आती रहीं और शायद जीवन पर्यन्त आती रहेंगी। यही तो खूबी है इन नग्मों कि ये वक़्त के साथ आपके दिल में अपना एक अलग वज़ूद बना लेते हैं। गीत का ख्याल आते वक़्त उस फिल्म से कहीं ज्यादा वो भावनाएँ आपके इर्द गिर्द घूम रही होती हैं जो गीत के बोलों में अंतरनिहित हैं।

अब फिल्म छोटी सी बात के इस गीत को ही देखिए। इस गीत के मुखड़े के सच को ना जाने कितने लोगों ने जीवन में महसूस किया होगा...

न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ
अचानक ये मन
किसी के जाने के बाद, करे फिर उसकी याद
छोटी छोटी सी बात, न जाने क्यूँ

कितनी सहजता से लिख गए ये सब योगेश ! पर मुंबई में आने से पहले तो योगेश को ये भी नहीं पता था कि उन्हें एक गीतकार बनना है पर जो काम उन्होंने सलिल दा के साथ किया वो उन्हें आज भी देश के अव्वल गीतकारों में स्थान दिलाने के लिए काफी है। पिता की मृत्यु के बाद योगेश नौकरी की तलाश में लखनऊ से मुंबई आए। पर वो ये सोचकर नहीं आए थे कि काम फिल्म जगत में करना है। उनके चचेरे भाई व्रजेंद्र गौड़ (जो एक पटकथा लेखक थे) ने उन्हें फिल्मों में काम करने की सलाह तो दी पर काम दिलवाने में कोई मदद नहीं की। नाराज़ योगेश ने अपने नाम के आगे से गौड़ टाइटल हटा लिया ताकि लोग ये ना समझें कि उन्हें फिल्म उद्योग में अपने भाई की वज़ह से काम मिला है। बचपन से ही उन्हें कोई भी पढ़ी गई कविता जल्द ही याद हो जाया करती थी इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यूँ ना अब कविता लिखने का भी प्रयास किया जाए और इस तरह वो गीतकार बन गए।

योगेश सलिल के सानिध्य में कैसे आए ये किस्सा तो आगे की कड़ियों में आप से बाँटूगा पर योगेश सलिल चौधरी के बारे में क्या राय रखते हैं ये यहाँ बताना आवश्यक है। कुछ वर्षों पहले दिए गए अपने साक्षात्कर में उन्होंने कहा था
"सलिल दा मेरे प्रिय संगीतकार थे। पहली मुलाकात में वे मुझे अंतरमुखी से लगे, पर धीरे धीरे जब वे खुलने लगे तब उनके साथ काम करने का आनंद बढ़ गया। वो शायद एकमात्र ऐसे बंगाली संगीतकार थे जिन्हें हिंदी के बोलों की अच्छी समझ थी। ऐसा संभवतः इसलिए था कि सलिल दा खुद एक लेखक और कवि थे। पढ़ने लिखने का उनका शौक़ इस क़दर था कि उन्हें लगभग हर विषय के बारे में अच्छी जानकारी थी। सब लोग कहते थे कि उनकी धुनें जलेबी की तरह घुमावदार और जटिल हुआ करती थीं पर मुझे उनके साथ गीत लिखने में कभी ऐसी दिक्कत नहीं हुई।"
वहीं स्वर साम्राज्ञी लता जी ने अपनी एक CD में सलिल दा के बारे में कहा था कि
" मैंने ऐसे तो करीब सौ संगीत निर्देशकों से ज्यादा के साथ काम किया है। पर उनमें से दस ही ऐसे रहें होंगे जिन्हें संगीत और सिनेमा दोनों की समझ थी और उन दसों में सलिल दा सबसे अग्रणी थे। उनकी मेलोडी कुछ अलग तरह की होती थी जिसे गाना कठिन होता था। कई बार वो अपनी धुन को सही ढंग से विकसित करने के लिए कई दिनों तक ना खाते थे और ना सोते थे। "
सलिल के संगीत निर्देशित गीतों की एक खास बात ये थी कि वो गीत के इंटरल्यूड्स में कोरस का इस्तेमाल काफी करते थे। इंटरल्यूड्स में संगीत संयोजन पश्चिमी शास्त्रीय संगीत का असर लिए होता था। इसकी भी एक वज़ह थी। सलिल दा का बचपन आसाम के चाय बागानों में बीता था। उनके पिता डॉक्टर थे और उन्हें अपने पूर्ववर्ती आयरिश मूल के डॉक्टर से पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के तमाम ग्रामोफोन रिकार्ड मिले थे। सलिल ने तभी से मोजार्ट, बीथोवन और चोपिन जैसे संगीतज्ञों को सुनना शुरु कर दिया था और उनसे बेहद प्रभावित हुए थे। बाद में अपनी धुनों में भी वे पश्चिमी सिम्फोनी का प्रयोग करते रहे।

इस गीत में भी ये बातें देखने को मिलती हैं। सलिल दा ने जिस अनूठे तरीके से इस गीत की लय को बुना था उसके साथ न्याय करने के लिए लता से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था। 

योगेश गीत के दोनों अंतरों में एक बार फिर किसी अज़ीज के साथ बिताए पलों को बेकली से याद करते हैं। वैसे भी पुरानी बातें, किसी के साथ बिताए वो हसीं लमहे किसी की यादों से दूर जा सकते हैं क्या..तो आइए आनंद उठाते हैं इस गीत का जिसे फिल्माया गया था विद्या सिन्हा व अमोल पालेकर पर 

 
वो अनजान पल
ढल गये कल, आज वो
रंग बदल बदल, मन को मचल मचल
रहें हैं छल न जाने क्यूँ, वो अनजान पल
तेरे बिना मेरे नैनों मे
टूटे रे हाय रे सपनों के महल
न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...

वही है डगर
वही है सफ़र, है नहीं
साथ मेरे मगर,अब मेरा हमसफ़र
ढूँढे नज़र न जाने क्यूँ, वही है डगर
कहाँ गईं शामें मदभरी
वो मेरे, मेरे वो दिन गये किधर
न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...

जैसा कि मैंने शुरुआत में कहा था कि इस गीत का अंतरा गुनगुनाते एक दूसरे गीत के अंतरे में भटक गया। जिंदगी की ऊँच नीच को परिभाषित करता वो गीत सलिल दा और योगेश की जोड़ी द्वारा बनाया एक बेहद संजीदा गीत है। तो आप भी सोचिए मैं किस गीत की बातें कर रहा हूँ। अगली पोस्ट में सलिल दा और योगेश से जुड़ी कुछ और दिलचस्प बातों के साथ चर्चा होगी उस गीत की..

सलिल दा और योगेश इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

शुक्रवार, अगस्त 31, 2007

यादें किशोर दा की : किशोर के सहगायक और उनके युगल गीत - भाग : ६

पिछली पोस्ट में वादा था चौथी और तीसरी पायदानों के गीतों को पेश करने का। तो हुजूर, तीसरी पायदान पर तो रिमझिमाता सावन है और चौथी पर एक हक़ीकत जो सपना सा हो जाने का अहसास देने लगी है। पर एक और खासियत है चौथे क्रमांक के इस गीत में..ये एक युगल गीत है।
अब तक की कड़ियाँ किशोर के एकल गीतों पर ही मैंने केंद्रित रखीं थी। पर एक भी युगल गीत ना रहे तो कुछ अटपटा सा लगता है। किशोर के युगल गीतों की चर्चा करने से पहले कुछ बातें किशोर दा की, जो जुड़ी हैं उनके सहगायकों से।
आखिर क्या सोचते थे किशोर, अपने समकालीनों के बारे में ?

लड़कपन से ही किशोर के. एल. सहगल के दीवाने थे। बचपन मे वे अपनी पॉकेटमनी से सहगल साहब के रिकार्ड खरीदा करते थे। सही मायने में वो उनको अपना गुरु मानते थे।जब उन्होंने खुद बतौर गायक काफी ख्याति अर्जित कर ली तो एक संगीत कंपनी ने उनके सामने सहगल के गीतों को गाने का प्रस्ताव रखा। किशोर ने साफ इनकार कर दिया। उनका कहना था....

" मैं उनके गीतों को और बेहतर गाने की कोशिश क्यूँ करूँ ? कृपया उन्हें हमारी यादों में बने रहने दें। उनके गाये गीत, उनके ही रहने दें। मुझे ये किसी एक शख्स से भी नहीं सुनना कि किशोर ने सहगल से भी अच्छा इस गीत को गाया। "

सहगल का विशाल छायाचित्र हमेशा उनके घर के पोर्टिको की शोभा बढ़ाता रहा। और उसी तसवीर के बगल में रफी साहब की तसवीर भी लगी रहती थी। किशोर, रफी की काबिलियत को समझते थे और उसका सम्मान करते थे। सत्तर के दशक में जब किशोर दा की तूती बोल रही थी, तो उनके एक प्रशंसक ने कह दिया....

"किशोर दा , आपने तो रफी की छुट्टी कर दी।..."

उस व्यक्ति को प्रत्त्युत्तर एक चाँटे के रूप में मिला। किशोर और रफी के फैन आपस में एक दूसरे की कितनी खिंचाई कर लें, वास्तविक जिंदगी में कभी इन महान गायकों के बीच आपसी सद्भाव की दीवार नहीं टूटी।



किशोर और लता जी के युगल गीत काफी चर्चित रहे हैं। इतने सालों के बाद आज भी 'आँधी', 'घर', 'हीरा पन्ना', 'सिलसिला' और 'देवता' जैसी फिल्मों के गीत को सुनने वालों की तादाद में कमी नहीं आई है।

किशोर, लता को अपना सीनियर मानते थे और इसीलिए किसी गीत के लिए उन्हें जितना पैसा मिलता वो उससे एक रुपया कम लेते।

और लता जी, साथ शो करतीं तो तारीफ़ों के पुल बाँध देतीं। हमेशा किशोर को किशोर दा कह कर संबोधित करतीं। ये अलग बात थी कि उम्र में किशोर लता से मात्र एक महिना चौबीस दिन ही बड़े थे।



किशोर और आशा जी को पंचम की धुनों में सुनने का आनंद ही अलग है। अपने एक साक्षात्कार में आशा जी ने कहा था कि

"किशोर एक जन्मजात गायक थे जो गाते समय आवाज़ में नित नई विविधता लाने में माहिर थे। इसीलिए उनके साथ युगल गीत गाने में मुझे और सजग होना पड़ता था, गायिकी में उनकी हरकतों को पकड़ने के लिए।"

किशोर दा भी मानते थे कि उनके चुलबुले अंदाज को कोई मिला सकता है तो वो थीं आशा। इसीलिए कहा करते

"She is my match at mike. "

चौथी पायदान के इस गीत को चुनते वक्त कई और गीत मेरे ज़ेहन में आए। सबसे पहले बात 'आँधी' के गीतों की की। इस फिल्म में यू् तो इस मोड़ से जाते हैं.....तुम आ गए हो....और तेरे बिना जिंदगी में कोई शिकवा... जैसे बेहतरीन गीत हैं। पर इन गीतों को जब सुनता हूँ तो मुझे लता, गुलज़ार और पंचम दा ही मन में छाए से लगते हैं। किशोर ने यकीनी तौर पर अपने अंतरे बखूबी गाए हैं पर इन विभूतियों के सामने वो थोड़े पीछे चले जाते हैं।

पर उन्हीं लता पर वो गुलज़ार और पंचम द्वारा रचित 'घर' के इस गीत पर भारी पड़ते हैं। क्या बोल लिखे गुलज़ार ने और कितनी खूबसूरती से उन्हें निभाया किशोर और लता ने... आप भी आनंद उठाएँ


आप की आँखों में कुछ महके हुए से राज़ है
आपसे भी खूबसूरत आपके अंदाज़ हैं

लब हिले तो मोगरे के फूल खिलते हैं कहीं
आप की आँखों में क्या साहिल भी मिलते हैं कहीं
आप की खामोशियाँ भी आप की आवाज़ हैं

आप की आँखों में कुछ महके हुए से राज़ है
आप से भी खूबसूरत आपके अंदाज़ हैं
आप की आँखों में कुछ महके हुए से राज़ है

आप की बातों में फिर कोई शरारत तो नहीं
बेवजह तारीफ़ करना आप की आदत तो नहीं
आप की बदमाशियों के ये नये अंदाज़ हैं


ना.. ना.. ये गीत नहीं मेरी चौथी पायदान पर और ना ही 'हीरा पन्ना' का ये गीत जो पता नहीं कितने छोटे से मेरे दिल के क़रीब रहा है। कुछ तो है इसकी लय में जो इसे गुनगुनाते वक्त बचपन में भी मेरी आँखें नम कर देता था।
प्यारी सी ज़ीनत और सदाबहार देव आनंद पर फिल्माए हुए इस गीत को आप यहाँ देख सकते हैं।

पन्ना की तमन्ना है कि हीरा मुझे मिल जाये
चाहे मेरी जान जाये चाहे मेरा दिल जाये
हो ... पन्ना की तमन्ना है कि हीरा मुझे मिल जाये
चाहे मेरी जान जाये चाहे मेरा दिल जाये

हीरा तो पहले ही किसी और का हो चुका
किसी की, मदभरी, आँखों में खो चुका
यादों की बस से धूल बन चुका दिल का फूल

सीने पे मैं रख दूँ जो हाथ फिर खिल जाये
चाहे मेरी जान जाये चाहे मेरा दिल जाये
हो ... पन्ना की तमन्ना है कि हीरा मुझे मिल जाये
चाहे मेरी जान जाये चाहे मेरा दिल जाये
.....

गीत संख्या ४ : कभी कभी सपना लगता है...

ऊपर के गीत कई मायनों में इस गीत से बेहतर होंगे पर 'रतनदीप' फिल्म का ये गीत जो किशोर ने आशा के साथ मिलकर गाया है, मुझे बेहद पसंद है।
विशेषकर इसका मुखड़ा जिसे गुनगुनाते-गुनगुनाते मूड ही बदल जाता है। अपने जमाने में गुलज़ार और पंचम की जोड़ी के संगीत से रची ये फिल्म फ्लॉप हुई थी और उसका खामियाज़ा इस गीत को भी भुगतना पड़ा था। क़रीब दो साल पहले मैंने इस गीत के बारे में यहाँ लिखा था

ख्वाब और हक़ीकत के फ़ासले कभी कभी मिट जाते हैं..
कभी कोई हक़ीकत ख़्वाब सी लगने लगती है..
तो कभी कोई ख़्वाब हक़ीकत की शक्ल इख्तियार करने लगता है..
समझ नहीं आता कि किस पर यक़ीन करें
जो आँखों के सामने है...
या फिर उस सपने पर जो दूर होते हुए भी अपना सा लगने लगा है....


इस गीत को पहलें झेंले मेरी आवाज़ में :)
Kabhie Kabhie Sapn...


और फिर आनंद उठाएँ आशा किशोर के युगल स्वरों में
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कभी कभी सपना लगता है
कभी ये सब अपना लगता है
तुम समझा दो, मन को क्या समझाऊँ

मुझे अगर बाहों में भर लो, शायद तुमको चैन मिले
चैन तो उस दिन खोया मैंने, जिस दिन तुमसे नैन मिले
फिर भी ये अच्छा लगता है, मगर अभी सपना लगता है
तुम समझा दो, मन को क्या समझाऊँ

कभी कभी सपना लगता है......

चेहरे पे है, और एक चेहरा, कैसे उसे हटाउँ
मेरा सच गर तुम अपना लो, जनम जनम तरसाऊँ
ऐसे सब अच्छा लगता है, सब का सब सपना लगता है
तुम समझा दो, मन को क्या समझाऊँ

कभी कभी सपना लगता है.....


गीत संख्या-३ : रिमझिम गिरे सावन, सुलग सुलग जाए मन....

अग़र पिछले गीत ने आपके मन को बोझिल कर दिया हो तो इस गीत की सावनी पुकार सुनकर आपके दिल का पपीहा अपना मौन तोड़ देगा। ये गीत भी स्कूल के ज़माने से ही मेरा प्रिय रहा है। मुझे उस वक्त ये गलतफ़हमी थी कि हो ना हो इसके बोल भी गुलज़ार ने लिखे होंगे पर बहुत बाद में पता चला कि इसके गीतकार तो योगेश गौड़ साहब हैं जो मेरे और यूनुस भाई के भी चहेते हैं।

वैसे भी कल सावन की पूर्णिमा थी और आज से भादो का महिना शुरु हो रहा है पर रिम झिम तो अभी भी जोरों पर है। तो सावन को क्यूँ ना विदाई दें इस प्यारे से गीत को गुनगुनाकर।
rimjhim gire sawan...

रिम-झिम गिरे सावन, सुलग सुलग जाए मन
भीगे आज इस मौसम में, लगी कैसी ये अगन
रिम-झिम गिरे सावन, सुलग सुलग जाए मन
भीगे आज इस मौसम में, लगी कैसी ये अगन

रिम-झिम गिरे सावन ...

जब घुंघरुओं सी, बजती हैं बूंदे,
अरमाँ हमारे, पलके न मूंदे
कैसे देखे सपने नयन, सुलग सुलग जाए मन
भीगे आज इस मौसम में, लगी कैसी ये अगन
रिम-झिम गिरे सावन ...

महफ़िल में कैसे कह दें किसी से,
दिल बंध रहा है किस अजनबी से
हाय करे अब क्या जतन, सुलग सुलग जाए मन
भीगे आज इस मौसम में, लगी कैसी ये अगन
रिम-झिम गिरे सावन ...


गीतों के बोल अक्षरमाला से
अमिताभ और मौसमी चटर्जी पर फिल्माए इस गीत को आप यहाँ देख सकते हैं।



इस श्रृंखला के अगले भाग में आपके साथ बाटूँगा किशोर की पारिवारिक जिंदगी के पहलू कुछ अनमोल चित्रों के साथ........

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ


  1. यादें किशोर दा कीः जिन्होंने मुझे गुनगुनाना सिखाया..दुनिया ओ दुनिया
  2. यादें किशोर दा कीः पचास और सत्तर के बीच का वो कठिन दौर... कुछ तो लोग कहेंगे
  3. यादें किशोर दा कीः सत्तर का मधुर संगीत. ...मेरा जीवन कोरा कागज़

  4. यादें किशोर दा की: कुछ दिलचस्प किस्से उनकी अजीबोगरीब शख्सियत के !.. एक चतुर नार बड़ी होशियार

  5. यादें किशोर दा कीः पंचम, गुलज़ार और किशोर क्या बात है ! लगता है 'फिर वही रात है'

  6. यादें किशोर दा की : किशोर के सहगायक और उनके युगल गीत...कभी कभी सपना लगता है

  7. यादें किशोर दा की : ये दर्द भरा अफ़साना, सुन ले अनजान ज़माना

  8. यादें किशोर दा की : क्या था उनका असली रूप साथियों एवम् पत्नी लीना चंद्रावरकर की नज़र में

  9. यादें किशोर दा की: वो कल भी पास-पास थे, वो आज भी करीब हैं ..समापन किश्त
 

मेरी पसंदीदा किताबें...

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Freedom at Midnight
Aapka Bunti
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