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गुरुवार, अप्रैल 28, 2016

रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं... Rog Aise Bhi Gham E Yaar Se Lag Jate Hain...

अहमद फ़राज़ मेरे प्रिय शायरों में से एक रहे हैं। उन्हें पढ़ना या यूँ कहूँ कि बार बार पढ़ना मन को सुकून देता रहा है। शायरी की आड़ में उनकी चुहलबाजियाँ जहाँ मन को गुदगुदाती रही हैं वहीं उदासी के साये में उनके अशआर हमेशा मन को अपने सिराहने बैठे मिले हैं। इसी लिए गाहे बगाहे उनकी शायरी आपसे बाँटता रहा हूँ। आज जब उनकी एक ग़ज़ल रह रह कर होठों पर आ रही है उनसे जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा आपको बताना चाहता हूँ। बहुत पहले एक साक्षात्कार में उनके भाई मसूद क़ौसर से किसी ने पूछा कि फ़राज साहब का पहला शेर कौन सा था ?

उनके भाई साहब का कहना था कि बचपन में एक बार उनके वालिद़ पूरे घर भर के लिए कपड़े लाए। फ़राज़ को अपने कपड़ों से कहीं ज्यादा बड़े भाई के लिए लाए गए कपड़े पसंद आ गए और तभी उन्होंने अपनी पहली तुकबंदी इस शेर के माध्यम से व्यक्त की

लाए हैं सबके लिए कपड़े सेल से
लाए हैं हमारे लिए कंबल जेल से

फ़राज को अपनी शायरी सुनाने का बड़ा शौक़ था। पढ़ते तो थे पेशावर में लड़कों के कॉलेज में पर उनकी शायरी के चर्चे पास के गर्ल्स कोलेज में भी होते। पाकिस्तान रेडियो में नौकरी भी मिली तो वे काम से ज्यादा अपने सहकर्मियों को हर दिन अपना नया ताज़ा शेर सुनाना नहीं भूलते थे। पर उनकी प्रतिभा ऐसी थी कि घर हो या दफ़्तर, उन्हें बड़े प्यार से सुना जाता था। हिसाब और भूगोल जैसे विषयों में वे हमेशा कमज़ोर रहे पर रूमानी खयालातों पर तो मानो पी एच डी कर रखी थी उन्होंने। वक़्त के साथ फ़ैज़ और अली सरदार जाफ़री जैसे प्रगतिशील शायरों की शायरी का असर भी उन पर पड़ा और यही वज़ह थी कि पाकिस्तान में जिया उल हक़ के  समय उन्होंने सेना के शासन का पुरज़ोर विरोध भी किया।

आज आपसे उनकी जिस ग़ज़ल का जिक्र छेड़ रहा हूँ उसमें  रूमानियत भी है और दार्शनिकता का पुट भी।

कितने प्यारे अंदाज़ में वो कह जाते हैं कि शुरु शुरु में तो इश्क़ एक मीठा सा अहसास जगाता है पर एक बार जब वो अपनी जड़े दिल में जमा लेता है तो तमाम दर्द का सबब भी वही बन जाता है। दर्द भी ऐसा जनाब कि पल पल सहारा ढूँढे।


रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं

इश्क आगाज़1 में हलकी सी खलिश2 रखता है
बाद में सैकड़ों आज़ार3 से लग जाते हैं

फ़राज अपने अगले शेर में जीवन के एक कटु सत्य को प्रकट करते  हुए कहते हैं एक बार आपने अपने ज़मीर को वासना के हवाले छोड़ दिया तो फिर वो उसका दास बन कर ही रह जाता है।

पहले पहल हवस इक-आध दुकां खोलती है
फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते है

दुख में सुख को खोज लेना भी कोई फ़राज से सीखे। अपनी पीड़ा को हल्का करने का कितना शातिर तरीका खोज निकाला है उन्होंने.... :)

बेबसी भी कभी कुर्बत4 का सबब5 बनती है
रो न पायें तो गले यार के लग जाते हैं

किसी के दुख के प्रति सहानुभूति प्रकट करना एक बात है पर उसे अपनाना इतना आसान भी नहीं तभी तो फ़राज कहते हैं... 

कतरनें ग़म की जो गलियों में उडी फिरती है
घर में ले आओ तो अम्बार से लग जाते है

और इस शेर की तो बात ही क्या ! पूरी ग़ज़ल का हासिल है ये। वक्त बीतता है, उम्र बढ़ती है और साथ साथ बढ़ता है हमारे अनुभवों का ख़जाना। भावनाएँ हमें  रिश्तों में उलझाती हैं, प्रेम करना सिखाती हैं और उन्हें फिर तोड़ना भी। उम्र की इस रफ़्तार  में सिर्फ चेहरे की सलवटें ही हमें परेशान नहीं करतीं। दामन पर पड़े दागों को भी दिल में सहेजना पड़ता है। .. ढोना पड़ता है।

दाग़ दामन के हों, दिल के हों या चेहरे के फ़राज़
कुछ निशाँ उम्र की रफ़्तार से लग जाते हैं

रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं
इश्क आगाज़* में हलकी सी खलिश* रखता है
बाद में सैकड़ों आज़ार* से लग जाते हैं
पहले पहल हवस इक-आध दुकां खोलती है
फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते है
बेबसी भी कभी कुर्बत* का सबब* बनती है
रो न पायें तो गले यार के लग जाते हैं
कतरनें ग़म की जो गलियों में उडी फिरती है
घर में ले आओ तो अम्बार से लग जाते है
दाग़ दामन के हों, दिल के हों या चेहरे के फ़राज़
कुछ निशाँ उम्र की रफ़्तार से लग जाते हैं
1.शुरुआत  2.बेचैनी  3.दर्द  4.नज़दीकी   5. कारण

फ़राज की इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ में पढ़ने की कोशिश की है। सुनने के लिए नीचे के बटन पर क्लिक करें..


और अगर फ़राज के रंग में और रँगना चाहते हैं तो इन्हें पढ़ें..

एक शाम मेरे नाम पर अहमद फ़राज़

शनिवार, जनवरी 14, 2012

अहमद फ़राज़ की कल्पनाओं की उड़ान : सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं !

आज अगर अहमद फ़राज़ हमारे साथ होते तो हम सब उनका 81 वाँ जन्मदिन मना रहे होते। फ़राज़ भले नहीं रहे पर उनकी शायरी के तेवर हमेशा याद आते रहे हैं। फ़राज़ को याद करते हुए उनकी एक लंबी पर  बेहद मशहूर ग़ज़ल याद आ रही है जिसे मुशायरों में वो बड़ा रस ले ले के सुनाया करते थे। ग़ज़ल का उन्वान था सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं.....

इस ग़ज़ल में जिस शिद्दत से शायर ने अपनी महबूबा की शान में क़सीदे काढ़े हैं उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। फ़राज़ के सारे अशआरों को पढ़कर तो ये लगता है कि उन्होंने इस ग़ज़ल को गढ़ते हुए कल्पनाओं के पंख बड़ी दूर तक फैलाए। नतीज़न ख्वाबे गुल परेशाँ हैं में लिखी इस ग़ज़ल के छपने के दशकों बाद आज भी नौजवान अपनी माशूक़ाओं की खूबसूरती बयाँ करने के लिए फ़राज़ के इन अशआरों का सहारा लेते हैं।


तो आइए एक बार फिर गौर करें कि फ़राज ने आख़िर ऐसा क्या लिखा था इस ग़ज़ल में। कोशिश की है कि जो शब्द आपको कठिन लगें उनके माएने साथ ही दे दूँ ताकि फ़राज़ साहब के इस अंदाज़ का का आप पुरा लुत्फ़ उठा सकें...

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बर्बाद कर के देखते हैं
तंगहाल लोगों से सहानुभूति

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
 नाज़ करने योग्य आँख

सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
दिलचस्पी, चमत्कार

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं
 आकाश के झरोखे

सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं
 क़यामत,हिरणी

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं
काली लंबी जुल्फ़ें

सुना है उसकी स्याह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं
 काली आंखें, सुरमा बेचने वाले

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी
जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं
शीशे की तरह ,मस्तक

सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं
सँभावनाओं के जंगल में विचरती कल्पना की आँखें. कोण

सुना है उसके बदन के तराश ऐसी हैं
के फूल अपनी कबाएँ कतर के देखते हैं
पत्तियाँ

वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
( वो हुस्न की ऊँचाई पर तो है मगर इसका मतलब ये नहीं कि उसकी इच्छाएँ मर गयी हैं। हम तो अभी भी उस पेड़ पर कलियों और फलों के आने का आसरा लगाए बैठे हैं।)

बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं
 इच्छा रखने वाले

सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
(सुना है उसके शयनागार यानि सोने के कमरे से सटी हुई हैं स्वर्ग की दीवारें। तभी तो वहाँ रहने वाले भी इस परी के जलवे वहीं से देखा करते हैं।)

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं
( समय का पहिया उसकी परिक्रमा करता है)

किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं
 बग़ैर वस्त्रों के

कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
अतिश्योक्ति, स्वपन की आजमाइश

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

 तो देर किस बात की अहमद फ़राज का अंदाज़ उन्हीं की जबानी क्यूँ ना सुना जाए ?


एक शाम मेरे नाम पर अहमद फ़राज़

शुक्रवार, जनवरी 14, 2011

अहमद फ़राज़ साहब के जन्मदिन पर कुछ पसंदीदा ग़ज़लें : मेरी और फिर उनकी आवाज़ में...

आज अहमद फ़राज़ का जन्मदिन है और मेरा भी, हर साल इस मौके पर उन्हें याद करने का मुझे एक और बहाना मिल जाता है। गोकि मेरी यादों से वो वैसे भी नहीं जाते। पिछली बार उनके जन्मदिन पर मैंने किशोर फ़राज़ की जिंदगी का एक वाक़या आप सबके साथ साझा लिया था। आज इस मौके पर फ़राज़ की उनकी तीन बेहद मशहूर ग़ज़लों को आपके सामने पेश कर रहा हूँ। दो अपनी आवाज़ में और एक खुद फ़राज साहब की गहरी आवाज़ में

तो आइए आज की इस महफिल का आगाज़ करते हैं उनकी किताब जानाँ जानाँ की इस ग़ज़ल से...


बरसों के बाद देखा इक शख़्स दिलरुबा सा
अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा

अबरू1 खिंचे खिंचे से आँखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहजा थका थका सा

अल्फ़ाज़ थे कि जुगनू आवाज़ के सफ़र में
बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा

ख़्वाबों में ख़्वाब उस के यादों में याद उस की
नींदों में घुल गया हो जैसे कि रतजगा सा

पहले भी लोग आये कितने ही ज़िन्दगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा

अगली मुहब्बतों ने वो नामुरादियाँ2 दीं
ताज़ा रफ़ाक़तों3 से दिल था डरा डरा सा

कुछ ये के मुद्दतों से हम भी नहीं थे रोये
कुछ ज़हर में बुझा था अहबाब4 का दिलासा

फिर यूँ हुआ के सावन आँखों में आ बसे थे
फिर यूँ हुआ के जैसे दिल भी था आबला5 सा
अब सच कहें तो यारो हम को ख़बर नहीं थी
बन जायेगा क़यामत इक वाक़या ज़रा सा

तेवर थे बेरुख़ी के अंदाज़ दोस्ती के
वो अजनबी था लेकिन लगता था आश्ना सा

हम दश्त थे के दरिया हम ज़हर थे के अमृत
नाहक़ था ज़ोम6 हम को जब वो नहीं था प्यासा

हम ने भी उस को देखा कल शाम इत्तेफ़ाक़न
अपना भी हाल है अब लोगो फ़राज़ का सा!

1.भृकुटि, 2.असफलता, 3.दोस्ती, 4.दोस्त, 5.छाला 6.घमंड
*******************************************************************************
और उनकी लिखी ये ग़ज़ल है उनके संकलन दर्द आशोब से..

दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों
मर जाइये जो ऐसे में तन्हाइयाँ भी हों

आँखों की सुर्ख़ लहर है मौज-ए-सुपरदगी1
ये क्या ज़रूर है के अब अंगड़ाइयाँ भी हों

हर हुस्न-ए-सादा लौह2 न दिल में उतर सका
कुछ तो मिज़ाज-ए-यार में गहराइयाँ भी हों

दुनिया के तज़करे3 तो तबियत ही ले बुझे
बात उस की हो तो फिर सुख़न आराइयाँ4 भी हों

पहले पहल का इश्क़ अभी याद है "फ़राज़"
दिल ख़ुद ये चाहता है के रुस्वाइयाँ5 भी हों

1.अपने को सौंपने की इच्छा,  2. सादा दिल,  3. किस्से, 4. बात बनाने की कला, 5. बदनामियाँ
*******************************************************************************
और जब आवाज़ भी खुद फ़राज़ की हो तो फिर क्या कहने

दुख फ़साना नहीं के तुझसे कहें
दिल भी माना नहीं के तुझसे कहें

आज तक अपनी बेकली का सबब
ख़ुद भी जाना नहीं के तुझसे कहें

एक तू हर्फ़ आश्ना था मगर
अब ज़माना नहीं के तुझसे कहें

बे-तरह दिल है और तुझसे
दोस्ताना नहीं के तुझसे कहें

क़ासिद ! हम फ़क़ीर लोगों का
एक ठिकाना नहीं के तुझसे कहें

ऐ ख़ुदा दर्द-ए-दिल है बख़्शिश-ए-दोस्त
आब-ओ-दाना नहीं के तुझसे कहें

अब तो अपना भी उस गली में ’फ़राज’
आना जाना नहीं के तुझसे कहें
*******************************************************************************फ़राज़ साहब के अपने पसंदीदा शेर आप सब भी सुनाते चलें तो आज का ये मुबारक दिन और भी मुबारक हो जाएगा।

गुरुवार, जनवरी 14, 2010

जन्मदिन विशेष : कैसे शुरु हुआ इस महान शायर की शायरी का सफ़र ?

अच्छा लगता है जब ये पता लगता है कि आप अपना जन्मदिन किसी ऐसी विभूति के साथ शेयर करते हों जिसे आप दिल से पसंद करते हों और फिर वो व्यक्ति एक बेहतरीन शायर हो तो बात ही क्या! पिछले साल जब वो महान शायर इस दुनिया से चला गया तो उन्हें अपनी श्रृद्धांजलि देने के लिए एक पोस्ट लिखी थी। इस बात का इल्म भी तभी हुआ और उसी वक़्त मैंने ये सोचा था कि अपने जन्म दिवस पर उन्हें जरूर याद करूँगा।

जी हाँ वो शायर हैं सैयद अहमद शाह वल्द अहमद 'फ़राज़' जिनका आज जन्मदिन है।:)

इश्क़िया शायरी के बेताज बादशाह रहे फ़राज़ को शेर ओ शायरी से इश्क़ कैसे हुआ, ये भी एक मज़ेदार किस्सा है। इस किस्से का पता मुझे डा. साजिद अहमद के 'अहा जिंदगी' में लिखे गए लेख से हुआ। इस प्रसंग का उल्लेख डा. साजिद कुछ यूँ करते हैं


वह लड़की बहुत देर से उसकी ओर देख रही थी, "मैंने तुमसे कुछ पूछा था। इतनी देर हो गई तुम कुछ बोलते क्यूँ नहीं।"

"बोल तो रहा हूँ किताब के बहुत से शेर याद हैं।"

गजब ख़ुदा का। अभी बोले हो। इससे पहले कब बताया कि तुम्हें शेर आते हैं? उस लड़की ने चहकते हुए कहा,"एक तो मुसीबत ये है कि तुम बोलते बहुत कम हो। बिल्कुल लड़कियों की तरह शर्माते हो। खुद से बातें करते हो और समझते हो, दूसरों से बोल रहे हो।"

"मुझे शेर क्यूँ नहीं आते होंगे। मेरे वालिद तो खुद शायर हैं। उनके पास कई शायर आते हैं। एक दूसरे को शेर भी सुनाते हैं।"

"अच्छा मान लिया कि तुम्हें शेर आते हैं अब ये बताओ बैतबाजी जानते हो? " "मैं तु्म्हें बताती हूँ, वह एकदम उसकी उस्तादनी बन गई। देखो एक शेर पढ़ा जाता है। यह शेर जिस लफ्ज़ पर खत्म होता है, उस लफ्ज़ के आखिरी हर्फ से जवाब देना होता है यानि दूसरा शेर उसी हर्फ से शुरु होना चाहिए। उस लड़की ने उसे विभिन्न उदाहरणों से समझाया और वो प्रकटतः समझ गया कि बैतबाजी क्या होती है। बल्कि ये खेल तो उसे बेहद आसान लगा।

"आओ उधर चलकर बैठते हैं। मैं तुम्हें इस खेल के कुछ और उसूल सिखाती हूँ।" वह अब उसकी विद्वता से प्रभावित हो चुका था। चुपचाप उठा और उसके साथ चलता हुआ कमरे से दूर,बरामदों में आकर बैठ गया। उस लड़की ने एक शेर पढ़ा, जो 'न' पर खत्म हो रहा था। अब लड़के को एक ऐसा ही शेर पढ़ना था जो 'न' से शुरु हो रहा था। उसने कुछ देर सोचा, और एक शेर तलाश कर लिया। यह शेर 'ब' पर खत्म होता था। लड़की ने फोरन 'ब' से शुरु होने वाला शेर पढ़ दिया। यह सिलसिला चार पाँच शेरों तक चला ही था कि लड़के को शिकस्त माननी पड़ी। उसे स्वीकार करना पड़ा कि शेर याद होना एक बात है और मौके पर उसका याद आ जाना दूसरी बात है। लड़की विजय की हँसी हँस रही थी और लड़के की मर्दाना गैरत पेंचो ताब खा रही थी

यह लड़का सैयद अहमद शाह था और लड़की उसके वालिद के दोस्त की बेटी। उस रोज़ वो लड़की रुखसत हुई, तो अहमद शाह कुछ बुझा बुझा सा दिखाई दे रहा था। उसे शिद्दत से अहसास हो रहा था कि वह बैतबाज़ी में उस लड़की से मात खा गया है। वह एक दृढ़ता से उठा और घर में रखी हुई पिता की किताबों का जायज़ा लेने लगा। अहमद शाह ने कभी उन्हें हाथ नहीं लगाया था, लेकिन आज उसे उसकी मासूम जरूरत उसे उस दस्तरख्वान तक ले आई थी। उसने हाथ बढ़ाया. पहले एक फूल तोड़ा फिर दूसरा.....


ये तो थी अहमद 'फ़राज़' की शेर-ओ-शायरी में आरंभिक दिलचस्पी की वज़ह। पर इतनी तैयारी के बावजूद फ़राज़ अगली बार उसी लड़की से बैतबाजी में फिर मात खा बैठे। नतीज़ा ये हुआ कि वो दिलो जान से शेरो-शायरी के पन्ने पढ़ते और कंठस्थ करते गए। रदीफ, काफ़िया और ग़ज़ल के व्याकरण के तमाम नियम उनके अवचेतन मन में समाते चले गए और एक दिन वो आया कि बैतबाजी खेलते समय जब वो अँटके तो उन्होंने अपना ही एक शेर बना डाला और आखिरकार उस दिन बड़ी मुश्किलों के बाद उन्हें बैतबाजी में पहली फतह मिली। बैतबाजी में अपने शेर रचने का ये सिलसिला जो शुरु हुआ वो फिर कभी नहीं थमा। अब वो रोजमर्रा के अनुभवों को शेर की शक्ल में ढालने लगे। अहमद फ़राज़ ने अपनी शायरी को आगे जिस मुकाम तक पहुँचाया वो तो उर्दू शायरी में रुचि रखने वाले भली भांति जानते हैं।


तो ये थी अहमद फ़राज़ के शेर ओ शायरी से इश्क़ के पीछे की कहानी। चलते चलते फ़राज़ के चंद पसंदीदा शेर आपसे बाँटना चाहूँगा जो शायद पहले आपने ना पढ़े हों

मेरी खुशी के लमहे मुख़्तसर हैं इस क़दर फ़राज़
गुजर जाते हैं मेरे मुस्कुराने के पहले


बहुत अज़ीब हैं मोहब्बत की बंदिशें फ़राज़
ना उस ने क़ैद में रखा ना हम फ़रार हुए

अब मिलेंगे उसे तो खूब रुलाएँगे फ़राज़
सुना है उन्हें रोते हुए लिपट जाने की आदत है


तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तेरी दुहाई न दूँ
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी तुझे दिखाई न दूँ

तेरे बदन में धड़कने लगा हूँ दिल की तरह
ये और बात के अब भी तुझे सुनाई न दूँ

अहमद फ़राज़ भले ही हमारे बीच आज नहीं हों पर यही उम्मीद है कि उनकी शायरी हमारे और आने वाली पीढ़ियों के ज़ेहन से कभी नहीं दूर हो पाएगी।

शुक्रवार, सितंबर 18, 2009

भले दिनों की बात है, भली सी एक शक्ल थी... प्रेम के बदलते स्वरूप को उभारती फ़राज़ की एक नज़्म

अहमद फ़राज़ साहब पाकिस्तान के मशहूर शायर थे। भारत में भी हमेशा से ही उन्हें बड़े चाव से पढ़ा जाता रहा है और जाता रहेगा। भला इनकी लिखी गजल रंजिश ही सही.. किस गजल प्रेमी ने नहीं सुनी होगी। आज उनकी ही एक नज्म पेशे खिदमत है जो कुछ साल पहले सरहद पार के एक मित्र के सौजन्य से पढ़ने को मिली थी।

प्रेम का शाश्वत स्वरूप हमेशा से बहस का विषय रहा है। पर फिर भी इस पर विश्वास करने वाले तो यही कहते रहेंगे कि सच्चा प्रेम अजर अमर होता है।मिसाल के तौर पर प्रसिद्ध अमरीकी कवयित्री एमिली डिकिन्सन (Emily Dickinson) इस सूक्ति पर गौर करें..


पर इतना सहज भी नहीं है समझना प्रेम के इस डायनमिक्स को। आज के इस युग में जब रिश्ते पल में बनते और बिगड़ते हैं तो उससे क्या ये नतीज़ा निकाल लेना चाहिए कि इन रिश्तों में प्रेम हरगिज़ नहीं है। या इसकी वज़ह है कि प्रेम का बीज प्रस्फुटित होने के बाद भी आज की भागमभाग, ऊपर की सीढ़ियाँ तक जल्दी पहुँचने की बेसब्री और इन सब के पीछे हम सब में बढ़ता अहम, इसे फलते फूलते पौधे के रूप में तब्दील होने से पहले ही रोक देता है।

दरअसल बड़ा मुश्किल है ये फैसला कर पाना कि प्रेम को निजी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक बेड़ी की तरह समझा जाए या नहीं? पर एक बात तो पक्की है ये हम सबको पता होता है कि इन बेड़ियों को तोड़ देने के बाद हम जितना पाते गए हैं अंदर ही अंदर दिल में एक खोखलापन भी भरता गया है।

अहमद फ़राज़ ने अपनी इस नज़्म में इस सवाल का उत्तर तो नहीं दिया पर ये जरूर है कि ज़िंदगी के किसी मुकाम तक एक शख़्स से मिलने और बिछुड़ने की इस सीधी‍- सच्ची दास्तान को किस्सागोई के अंदाज़ में वो इस तरह कह गए हैं कि नज़्म पढ़ते पढ़ते दिल में उतरती सी चली जाती है।


भले दिनों की बात है,
भली सी एक शक्ल थी
न ये कि हुस्न-ए-ताम हो
न देखने में आम सी

ना ये कि वो चले तो
कहकशां सी रहगुजर लगे
मगर वो साथ हो तो फिर
भला भला सफर लगे

कहकशां - आकाश-गंगा

कोई भी रुत हो उसकी छाब
फज़ां का रंगो रूप थी
वो गर्मियों की छाँव थी
वो सर्दियों की धूप थी

छाब-छवि

ना ऍसी खुश लिबासियाँ
कि सादगी गिला करे
न इतनी बेतक़ल्लुफ़ी
कि आईना हया करे

ना मुद्दतों जुदा रहे
ना साथ सुबह-ओ-शाम हो
ना रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद
ना ये कि इज़्न-आम हो

ना आशिकी जुनून की
कि जिंदगी अज़ाब हो
न इस कदर कठोरपन
कि दोस्ती खराब हो
अजाब - कष्टप्रद

सुना है एक उम्र है
मुआमलात-ए-दिल की भी
विसाल-ए-जां फिज़ा तो क्या
फिराक़-ए-जां गुसल की भी

मुआमलात - मामला, विसाल - मिलन, फिराक़ - वियोग

सो एक रोज़ क्या हुआ
वफ़ा पे बहस छिड़ गयी
मैं इश्क को अमर कहूँ
वो मेरी ज़िद से चिढ़ गयी

मैं इश्क का असीर था
वो इश्क़ को क़फ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को
बदतरज़ हवस कहे
असीर - बन्दी, कफस - पिंजड़ा

शज़र, हजर नहीं के हम
हमेशा पा-बे-गुल रहें
ना डोर हैं कि रस्सियाँ
गले में मुस्तकिल रहें

शजर - टहनी, पेड़, हजर - पत्थर, पा - पैर
गुल - फूल, मुस्तकिल -मजबूती से डाला हुआ


मैं कोई पेटिंग नहीं
कि एक फ्रेम में रहूँ
वही जो मन का मीत हो
उसी के प्रेम में रहूँ

तुम्हारी सोच जो भी हो
मैं इस मिज़ाज़ की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है
ये बात आज की नहीं

ना उस को मुझ पे मान था
ना मुझ को उस पे जाम ही
जो अहद ही कोई ना हो
तो क्या ग़म-ए-शिक़स्तगी
अहद - प्रतिज्ञा, शिक़स्त- हार

सो अपना अपना रास्ता
हँसी खुशी बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी
मैं अपनी राह चल दिया

भली सी एक शक्ल थी
भली सी उस की दोस्ती
अब उस की याद रात दिन
नहीं मगर कभी-कभी...


ये कभी-कभी वाली बात इस बात को पुरजोर अंदाज में रखती है कि यादें दब सकती हैं, स्याह पड़ सकती हैं पर मरती नहीं ।

बुधवार, अगस्त 27, 2008

अहमद फ़राज़ (1931 - 2008) : इक शायर अलहदा सा जिसकी कलम अमानत थी आम लोगों की...

कल दिन में याहू के मेल बॉक्स में जब कई स्पैम्स के बीच ये मेसज दिखाई दी कि फ़राज़ नही रहे तो दिल धक से रह गया। एकबारगी तो लगा कि हो सकता है कि ये खबर गलत हो। पर गूगल सर्च में जब पाकिस्तानी अखबार 'जंग' की जानिब से इस खबर की पुष्टि हुई तो मन अनमना सा हो गया। बरबस उनकी ये पंक्तियाँ याद आ गईं अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तों कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तों फ़राज़ कई बीमारियों से लगातार जूझ रहे थे और उनकी हालत जुलाई के पहले हफ्ते में अमरीका जाने पर और बिगड़ गई थी और सोमवार की रात, इस्लामाबाद में बिताई उनकी आखिरी रात साबित हुई। फ़राज़ की शायरी से मेरा परिचय पहले पहल मेहदी हसन और गुलाम अली की ग़ज़लों से ही हुआ था। पर अहमद फ़राज में मेरी दिलचस्पी तब और बढ़ी जब नब्बे के दशक में उनके दिल्ली आगमन पर टाइम्स आफ इंडिया (The Times of India) में उनका एक इंटरव्यू पढ़ा। उस इंटरव्यू में फ़राज से पूछा गया कि क्या शायरी बिना खुद के अनुभवों कर लिखी जा सकती है? फ़राज ने उत्तर दिया नहीं, सच्ची शायरी तभी निकलती है जब दिल की हदों से कोई बात महसूस की जा सके। उन्होंने उसी साक्षात्कार में बताया था कि रंजिश ही सही... उन्होंने एक मोहतरमा के लिए लिखी थी। पर जिसके लिए ये लिखी गई थी उसके बाद उनसे उनका मिलना नहीं हो सका। सालों बाद अपने एक कॉमन फ्रेंड से जब उनकी मुलाकात हुई तो उसने उन्हें बताया कि वो तो फक्र से कहती फिरती है कि फराज़ ने ये ग़ज़ल मेरे लिए लिखी है। फ़राज के सहपाठी और पत्रकार इफ्तिखार अली का कहना है कि कॉलेज के ज़माने से फ़राज एक आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे। शुरु से उनका झुकाव कविता की ओर था। वे अक्सर छात्रों को अपने इर्द-गिर्द जमा कर लेते और अपनी रूमानी कविताएँ सुनाया करते। पेशावर में उस वक़्त लड़के और लड़कियों को कॉलेज में मिलने जुलने की रिवायत नहीं थी। पर फ़राज की कविताएँ जाने कैसे छात्राओं तक पहुँच ही गईं। फिर तो दर्जनों की शक्ल में चाहने वालियों के हस्तलिखित पत्र उन्हें मिलने लगे। अमीर घरों की लड़कियाँ अपने नौकरों के हाथों ख़त भिजवाया करतीं तो बाकी खुद बस स्टॉप पर ही ख़तों की डिलिवरी कर देतीं। प्रेम को जिस शिद्दत से उन्होंने अपनी शायरी का विषय बनाया उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। जिस खूबसूरती से वो शब्दों को अशआर में वो मोतियों की तरह पिरोते थे वो उनके इन अशआर पर गौर करने से आप खुद ही समझ जाएँगे ************************************ दुख फ़साना नहीं के तुझसे कहें दिल भी माना नहीं के तुझसे कहें आज तक अपनी बेकली का सबब ख़ुद भी जाना नहीं के तुझसे कहें ************************************ क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे दिल वो बेमेहर कि रोने के बहाने माँगे अपना ये हाल के जी हार चुके लुट भी चुके और मोहब्बत वही अन्दाज़ पुराने माँगे ************************************ बरसों के बाद देखा इक शख़्स दिलरुबा सा अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा अल्फ़ाज़ थे के जुग्नू आवाज़ के सफ़र में बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा ख़्वाबों में ख़्वाब उस के यादों में याद उस की नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा तेवर थे बेरुख़ी के अंदाज़ दोस्ती के वो अजनबी था लेकिन लगता था आशना सा ************************************ अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ************************************ मशहूर पत्रकार खालिद हसन उनके बारे में लिखते हैं कि फ़राज़ हमेशा से तानाशाहों के विरुद्ध और लोकतंत्र के हिमायती रहे। जनरल जिया का विरोध करने की वज़ह से उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ा और कुछ सालों के लिए वे निर्वासित भी हुए। इस बात को जानकर आपको हैरानी जरूर होगी पर फ़राज किशोरावस्था में कश्मीर के १९४७ -१९४८ के युद्ध में स्वेच्छा से सम्मिलित हुए थे। पाकिस्तानी शासकों से उनकी कभी बनी नहीं और उन्होंने हमेशा वही किया और लिखा जिसकी उनके दिल ने गवाही दी। शायद ही इस ज़माने में भारतीय उप महाद्वीप में उनके जितनी शोहरत किसी और शायर को मिली। उन्हें बड़े चाव से पढ़ा जाता रहा और सुना जाता रहा। जनरल जिया की हुकूमत के खिलाफ उनकी नज़्म महसूर (Mahasara) (चारों ओर से घिरा हुआ ) काफी लोकप्रिय हुई थी। सुनिए उन्हीं की आवाज़ में ये नज़्म फ़राज़ की ये पंक्तियाँ उनकी कलम, उनके आदर्श, उनकी शख्सियत की कहानी कहती हैं मेरा कलम नहीं तजवीज़1 उस मुबल्लिस की जो बन्दिगी का भी हरदम हिसाब रखता है मेरा कलम नहीं मीज़ान2 ऍसे आदिल3 की जो अपने चेहरे पर दोहरा नकाब रखता है मेरा कलम तो अमानत है मेरे लोगों की मेरा कलम तो अदालत मेरे ज़मीर की है इसीलिए तो जो लिखा शफा-ए-जां से लिखा ज़बीं4 तो लोच कमान का जुबां तीर की है मैं कट गिरूँ कि सलामत रहूँ यक़ीन है मुझे कि ये हिसार5-ए-सितम कोई तो गिराएगा 1. सम्मति, राय, 2.तराजू, 3.न्याय करने वाला, 4. मस्तक, 5. गढ़, किला और चलते-चलते अहमद फ़राज़ की लिखी चंद पंक्तियाँ अपनी श्रृद्धांजलि के तौर पर इस महान शायर के लिए अर्पित करना चाहूँगा वो गया था साथ ही ले गया, सभी रंग उतार के शहर का कोई शख्स था मेरे शहर में किसी दूर पार के शहर का चलो कोई दिल तो उदास था, चलो कोई आँख तो नम रही चलो कोई दर तो खुला रहा शबे इंतजार के शहर का किसी और देश की ओर को सुना है फराज़ चला गया सभी दुख समेत के शहर के सभी कर्ज उतार के शहर का ...

मंगलवार, दिसंबर 11, 2007

ये आलम शौक़ का देखा न जाए , वो बुत है या ख़ुदा देखा न जाए

अहमद फ़राज पाकिस्तान के मशहूर और मक़बूल शायरों में से एक हैं जिन्हें भारत में भी उतने ही चाव से पढ़ा जाता है। आज पेश है उनकी लिखी एक ग़ज़ल जिसे फ़राज ने खुद भी अपनी पसंदीदा माना है। इसे मैंने पहली बार १९८७ में सुना था और एक बार सुनकर ही इसकी खूबसूरती मन को भा गई थी। ऊपर से गुलाम अली की गायिकी और हर शेर के बाद की तबले की मधुर थाप पर मन वाह-वाह कर उठा था। पर जिस कैसेट में ये ग़ज़ल थी उसमें इसके कुल चार ही शेर थे। बहुत दिनों से पूरी ग़ज़ल की तलाश में था, वो आज भटकते भटकते इंटरनेट पर मिली। लीजिए अब आप भी इसका लुत्फ उठाइए।



ये आलम शौक़ का देखा न जाये
वो बुत है या ख़ुदा देखा न जाये

ये किन नज़रों से तुमने आज देखा
कि तेरा देखना देखा न जाये


हमेशा के लिये मुझसे बिछड़ जा
ये मंज़र बारहा देखा न जाये


ग़लत है जो सुना पर आज़मा कर
तुझे ऐ बा-वफ़ा देखा न जाये

यही तो आशनां बनते हैं आखिर
कोई ना आशनां देखा ना जाए

ये महरूमी नहीं पस-ए-वफ़ा है
कोई तेरे सिवा देखा न जाये

'फ़राज़' अपने सिवा है कौन तेरा
तुझे तुझसे जुदा देखा न जाये


वैसे गुलाम अली साहब के आलावा पाकिस्तानी गायिका ताहिरा सैयद ने भी इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ दी है जिसे अर्सा पहले एक पाक फीचर फिल्म में भी शामिल किया गया था। ये वही ताहिरा सैयद हैं जिनकी गाई एक बेहतरीन ग़ज़ल "बादबां खुलने के पहले का इशारा देखना" मैंने परवीन शाकिर वाली पोस्ट में पेश की थी।



इन दोनों रूपों में मुझे तो गुलाम अली वाला वर्सन हमेशा से ज्यादा रुचिकर लगा। अब आप बताएँ आपकी राय क्या है?

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गुलाम अली की गाई ग़ज़ल हमने हसरतों के दाग से संबंधित मेरी पिछली प्रविष्टि आप यहाँ देख सकते हैं।
 

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