हाल ही में ZEE5 पर आई एक वेब सीरीज का एक संगीत एलबम सुनने को मिला। खास बात ये कि इस एल्बम में दो ग़ज़लें भी थीं। वैसे तो आज के दौर में भी कम ही सही पर युवा कलाकार पुरानी ग़ज़लों को तो बखूबी निभा रहे हैं पर उनकी गायी नई ग़ज़लों के मिसरों में वो गहराई नहीं दिखती जो ग़ज़ल को सही मायने ग़ज़ल का रूतबा दिलाने के लिए बेहद जरूरी है।
दरअसल कविता तो ग़ज़ल की आत्मा है जिसके मूड को समझते हुए संगीतकार उसमें अपनी धुन का रंग भरता है और गायक उसके शब्दों के वज़न को समझते हुए अपनी अदाएगी के ज़रिए हर मिसरे के भावों को श्रोताओं के दिल में बैठा देता है। मुझे मुखबिर में शामिल ग़ज़लों को सुनते हुए ये लगा कि शायरी, धुन और गायिकी तीनों को इस तरह से पिरोया गया है कि उनका सम्मिलित प्रभाव एक समां बाँध देता है।
जब आप हमसे तो वो बेहतर हैं सुनेंगे तो आपको लगेगा कि आप एकदम से साठ सत्तर के दशक में पहुँच गए हैं जब बेगम अख्तर, मेहदी हसन और गुलाम अली जैसे गायकों की तूती बोलती थी और ग़ज़लें एक परम्परागत तरीके से गायी जाती थीं। ये ग़ज़ल भी उसी माहौल में रची बसी है क्यूँकि कहानी का काल खंड भी वही है। क्या निभाया है ग़ज़ल गायिकी के उस तौर तरीके को रोंकिनी ने और वैभव ने उन्हें मौका दिया है हर मिसरे में तंज़ की शक्ल में छुपी पीड़ा को अपनी शास्त्रीय अदाकारी से उभारने का।
ज़िंदगी में हमारा हुनर, हमारा व्यवहार कौशल अपने से दूर खड़े लोगों में भले ही खूबसूरत छवि गढ़ दे पर उसका क्या फायदा जब हम अपनी मिट्टी, अपने शहर और अपने करीबियों के मन को ही ना जीत पाएँ। ऐसे ही व्यक्तित्व के विरोधाभास को उभारा है वैभव मोदी ने अपने शब्दों में।
अभिषेक नेलवाल के संगीत निर्देशन में ग़ज़ल के मिसरों के बीच अभिनय रवांडे का बजाया हारमोनियम मन को लुभाता है। तो आइए सुनिए इस ग़जल को
इक आप हैं जिसके हैं उसी के ना हुए
परवाज़ को जिनके मिली आसमां की ये रज़ा
कुछ लोग हैं ऐसे जो ज़मीं के ना हुए
इक उम्र लग गयी कि कहें वो भी वाह वाह
वो हो गए कायल मगर खुशी से ना हुए
लेते हमारा नाम ये गलियाँ ये रास्ते
पर हम थे जिस शहर के वहीं के ना हुए
एल्बम की दूसरी ग़ज़ल का मिज़ाज थोड़ा नर्म और रूमानियत से भरा है। ज़ाहिर है यहाँ वाद्य यंत्रों का चुनाव भारतीय और पश्चिमी का मिश्रण है। मुखड़े के पहले गिटार की कानों में मिश्री भरती टुनटुनाहट है तो मिसरों के बीच ताली की थपथपाहट के साथ कभी बाँसुरी तो कभी तार वाद्यों की झंकार। रोंकिनी का गाना है तो फिर सरगम का सुरीला तड़का तो बीच बीच में रहेगा ही।
अभिषेक की मधुर धुन जहाँ मन को सहलाती है वहीं वैभव के मिसरे वास्तव में दिल को तसल्ली देते हुए एक उम्मीद सी जगाते हैं। तेरे सीने पे हर इक रात की सहर हो बस वाला शेर तो कमाल सा करता हुआ निकल जाता है। रोंकिनी की आवाज़ इस ग़ज़ल की जान है। क्या निभाया है उन्होंने दोनों ग़ज़लों के अलग अलग मूड को। इस बात को आप तब और महसूस करेंगे जब इसी ग़ज़ल को अभिषेक की आवाज़ में सुनेंगे।
