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सोमवार, जनवरी 21, 2013

वार्षिक संगीतमाला 2012 पॉयदान # 17 : आओ यारों आओ तुमको राह बताऊँ दिल्ली की...

हिंदी सिनेमा में बाल फिल्मों का दायरा बड़ा सीमित रहा है। हर साल रिलीज़ होने वाली फिल्मों में उनका हिस्सा पाँच फीसदी से भी कम रहता है और उसमें भी कई फिल्में बनने के बाद भी उन बच्चों की पहुँच के बाहर रहती हैं जिनके लिए वो बनाई गयी हैं। कार्टून चरित्रों को टीवी पर देखने के लिए बच्चे कितना लालायित रहते हैं ये तो जगज़ाहिर है और यही वज़ह है कि आज डिस्नी चरित्र हों या जापानी डोरेमोन या शिंगचाँग, बच्चों की पहली पसंद बने हुए हैं। हिंदी चरित्रों में 'छोटा भीम' ने विदेशी चरित्रों के बच्चों के मन पर किए गए एकाधिकार को तोड़ा जरूर है पर जातक कथाओं, पंचतंत्र और तमाम राजा रानियों की कहानियों से भरी हमारी सांस्कृतिक धरोहर के लिए इस क्षेत्र में हिंदी फिल्मों और टेलीविजन को कुछ नया करने की गुंजाइश बहुत है। 

पिछले साल जंगल के चरित्रों को लेकर एक फिल्म बनी नाम था दिल्ली सफ़ारी । संयोग से पिछले महिने जब इसे टीवी पर दिखाया गया तो मैंने भी इस फिल्म को देखा और पर्यावरण को बचाने का संदेश देता हुआ इसी फिल्म का एक गीत आज विराजमान है वार्षिक संगीतमाला की सत्रहवीं पॉयदान पर।

विकास के नाम पर जंगलों की अंधाधु्ध कटाई को विषय को लेकर बनाई गयी इस फिल्म में ये गीत तब आता है जब जंगल के जानवर अपने घटते रिहाइशी इलाके के ख़िलाफ़ दिल्ली की संसद में अपनी आवाज़ बुलंद करने का फ़ैसला लेते हैं। दिल्ली की इस लंबी राह पर चलते चलते वो भटक जाते हैं पर रास्ते में पूछताछ करते हुए जो उन्हें बताया जाता है वो व्यक्त होता है इस गीत के माध्यम से।

इस गीत को लिखा है समीर ने और धुन बनाई है शंकर अहसान लॉय ने। हम किस तरह अपने आस पास की प्रकृति को नष्ट कर रहे हैं इसे गीत के हर अंतरे में बड़ी खूबी से चित्रित किया गया है। गीत को आगे बढ़ाने का ढंग मज़ेदार है। पहले गायक उस स्थिति का बयान करते हैं जिस हालत में हमारी ये भारत भूमि पहले थी। फिर एक कोरस उभरता है नहीं भाई नहीं, नहीं भाई नहीं, नहीं भाई नहीं, नहीं भाई नहीं। फिर आज की स्थिति बताई जाती है। बच्चों को अपने आस पास के वातावरण को बचाए रखने के प्रति सजग रखने के लिए ये सुरीला अंदाज़ बेहद प्रभावशाली बन पड़ा है।

इस गीत को गाया है मँहगाई डायन खावत जात है.. को गाने वाले रघुवीर यादव ने। जिस तरह किसी नाटक में कोई सूत्रधार गा गा कर कहानी को आगे बढ़ाता है वैसे ही रघुवीर यहाँ दिल्ली के रास्ते का बखान करते जंगली जानवारों को आगे का रास्ता दिखाते हैं। इंसानों पर समीर के मारक व्यंग्यों के साथ रघुवीर की आवाज़ खूब फबती है। गीत की शुरुआत से अंत तक शंकर अहसॉन लाय घड़े जैसे ताल वाद्यों के साथ एक द्रुत लय रचते हैं जिसे सुनते सुनते रघुवीर के साथ सुर में सुर मिलानी की इच्छा बलवती हो जाती है।

तो आइए गीत के बोलों को पढ़ते हुए सुनिए ये शानदार गीत
धड़क धड़क धड़क धड़क..,धड़क धड़क धड़क धड़क..
आओ यारों आओ तुमको राह बताऊँ दिल्ली की
जाओ यहाँ से सीधा जाओ, हिम्मत रखो मत घबराओ
हरियाली का डेरा होगा, जंगल यहाँ घनेरा होगा

नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं.....
हरे भरे इस जंगल की इंसानों ने मारी रेड़
काट दिया सारे जंगल को छोड़ दिया इक सूखा पेड़

वहाँ से फिर तुम आगे जाना, हुआ जो उसपे ना पछताना
बहती हुई लहरों का जहाँ, मिलेगी तुमको नदी वहाँ

नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं
अरे नदी जहाँ पर कल बहती थी आज वहाँ पर नाला है
मत पूछो इंसानों ने हाल उसका क्या कर डाला है

थोड़ी दूरी तुम तय करना, बस इंसानों से तुम डरना
खेतों की दुनिया सुनसान वहाँ पे होगा रेगिस्तान

नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं
खो गई बंजारों की टोली रहे ना वो मस्ताने हीर
खेतों की वो सुंदर हील गई हाइवे में तब्दील

सबकी दुआ रंग लाएगी संसद वहाँ से दिख जाएगी
संसद में खामोश ना रहना, इंसानों से बस ये कहना

सुनो सुनो वहशी इंसानों सुनो सुनो वहशी इंसानों
अब तो इसका कहना मानो
क़ुदरत ये कहती है हर दम, हमसे तुम हो और तुमसे हम
हमको अगर मिटाओगे तो ख़ुद भी मिट जाओगे।



तो आपसे ये गुजारिश है कि इस गीत को ख़ुद तो सुने ही पर अपने बच्चों को जरूर सुनवाएँ । बहुत बार हमारी और आपकी कही बात से ज्यादा असर ये गीत डाल सकते हैं ...

मंगलवार, फ़रवरी 22, 2011

वार्षिक संगीतमाला 2010 - पॉयदान संख्या 10 : रूसा भात, माटी धान हमारी जान है..मँहगाई डायन खायत जात है...

वक़्त आ गया है वार्षिक संगीतमाला के अंतिम दस में प्रवेश करने का और यहाँ वो गीत है जो इस साल का सबसे प्रासंगिक गीत साबित हुआ है। जी हाँ सही पहचाना आपने ये गीत या यूं कहें कि ये लोकगीत है सखी सैयाँ तो खूबई कमात हैं, मँहगाई डायन खायत जात है..। मँहगाई तो साल दर साल सत्ताधारी दलों की सरकारों का नासूर बनती रही है। पर जब ये बुंदेलखंडी लोकगीत पीपली लाइव के लिए रिकार्ड किया गया तो पेट्रोल से ले के खाद्यान्नों की कीमतें निरंतर बढ़ती जा रही थीं।

गीत के मूल लेखक गया प्रसाद प्रजापति व गीतकार स्वानंद किरकिरे की तारीफ़ करनी होगी की चंद पंक्तियों में उन्होंने मँहगाई के चलते देश के आम नागरिकों और विशेषकर किसानों को हो रही परेशानियों को इस तरह छुआ कि ये गीत पूरे देश की आवाज़ बन गया। गीत के पहले अंतरे में जहाँ वो बढ़ती मँहगाई से हो रही गरीबों की दुर्दशा का चित्रण करते हैं

हर महिना उछले पेट्रोल
डीजल का उछला है रोल
शक्कर भाई के का बोल
रूसा भात, माटी धान हमारी जान है
मँहगाई डायन खायत जात है.

वहीं दूसरे अंतरे में वे अप्रत्याशित बदलते मौसमों की वज़हों से हो रही फसलों की तबाही और किसानों पर आए संकट को भी बखूबी व्यक्त करते हैं...

सोयाबीन का हाल बेहाल
गरमी से पिचके हैं गाल
गिर गए पत्ते, पक गए बाल
और मक्का जी भी खाए गए मात हैं
मँहगाई डायन खायत जात है.

संगीतकार राम संपत ने इस गीत में बस ये ध्यान रखा कि गाँव की चौपालों या कीर्तन मंडलियों के साथ जिस तरह का संगीत बजता है उससे तनिक भी छेड़ छाड़ ना की जाए। इसलिए आपको गीत के साथ सिर्फ ढोलक, झाल, मजीरे और हारमोनियम का स्वर सुनाई देता है। बिलकुल वैसा ही जैसा आपने अपने गली मोहल्ले में सुना होगा।

पर मुझे गीत के असली हीरो लगते हैं चरित्र अभिनेता रघुवीर यादव। रघुबीर यादव ने जिस अंदाज़ में इस गीत को अपनी आवाज़ दी है उससे लोगों को यही लगेगा कि कोई मँजा हुआ लोकगायक गा रहा है। वैसे दिलचस्प बात ये कि इस गीत को रात में खुले आसमान के नीचे रिकार्ड किया गया था। गीत में कुछ विविधताएँ रघुवीर जी ने खुद जोड़ी थीं और गीत बिना किसी रीटेक के ही ओके कर लिया गया था।

आपको ये जानकर हैरानी होगी कि फिल्म मैसी साब और टीवी धारावाहिक मुँगेरी लाल के हसीन सपने से अपने कैरियर के आरंभिक दिनों में चर्चा में आया ये शख़्स वास्तव में जबलपुर के एक किसान परिवार से ताल्लुक रखता है। और तो और पन्द्रह साल की उम्र में जब रघुवीर अपने गाँव को छोड़कर निकले थे तो अभिनेता बनने नहीं बल्कि एक गायक के रूप में अपना कैरियर बनाने के लिए।

पर भाग्य को कछ और मंजूर था। रोज़ी रोटी के जुगाड़ में पहले उन्होंने एक पारसी थिएटर कंपनी में छः सालों तक काम किया। फिर तीन साल नेशनल स्कूल और ड्रामा में और अध्ययन करने के बाद वो एक दशक तक वहाँ पढ़ाते रहे। फिर फिल्मों में काम मिलना शुरु हुआ तो गायक बनने का ख़्वाब, ख़्वाब ही रह गया। पर आज भी उन्हें संगीत से प्यार है क्यूँकि अच्छा संगीत उन्हें मन की शांति देता है। एक कलहपूर्ण दामपत्य जीवन की वज़ह से कोर्ट,कचहरी और यहाँ तक कि जेल की हवा खा चुकने वाले रघुवीर यादव को पीपली लाइव में अभिनय के आलावा गायिकी के लिए जो वाहवाही मिल रही है वो उन जैसे गुणी कलाकार के लिए आगे भी सफलता की राह खोलेगी ऐसी मेरी मनोकामना है।

आइए फिलहाल तो सुनते हैं ये गीत।





चलते चलते गीत से जुड़े दो रोचक तथ्य और। फिल्म वैसे तो एक काल्पनिक गाँव पीपली की कहानी कहती है पर इस इस गीत के साथ जो गायन मंडली है वो मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के पास स्थित गाँव बदवाई से ताल्लुक रखती है। वहीं इस फिल्म की शूटिंग भी हुई। फिल्म की लोकप्रियता बढ़ने पर इस गाँव के लोगों ने फिल्म के निर्माता आमिर से अस्पताल, विद्यालय, सड़क की माँग नहीं की बल्कि एक अभिनय सिखाने वाले संस्थान खोलने की पेशकश की। शायद गायन मंडली को बतौर पारिश्रमिक मिले छः लाख रुपए इसकी वज़ह रहे हों।
 

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