वार्षिक संगीतमाला की अगली पायदान पर जो गीत या यूँ कहो कि जो ग़ज़ल है वो ज्यादा उम्मीद है कि आपने नहीं सुनी होगी। अब सुनेंगे भी तो कैसे पिछले साल अगस्त में जानिसार सिनेमा के पर्दे पर कब आई और कब चली गई पता ही नहीं चला। एक ज़माना होता था जब मुजफ्फर अली की फिल्मों का लोग बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करते थे। एक तो उनके गंभीर कथानक के लिए लिए व दूसरे उनके बेमिसाल संगीत के लिए। गमन और उमराव जान का दिलकश संगीत आज भी लोगों के दिलो दिमाग में उसी तरह बसा हुआ है।
उमराव जान के बाद आगमन, ख़िजां व जूनी जैसी फिल्में उन्होंने बनाई जरूर पर इनमें से ज्यादातर प्रदर्शित नहीं हो पायीं। इसलिए दो दशकों के बाद उनका जांनिसार के साथ फिल्म निर्माण में उतरना संगीतप्रेमियों के लिए अच्छी ख़बर जरूर था। फिल्म तो ख़ैर ज्यादा सराही नहीं गई पर इसका संगीत आज के दौर में एक अलग सी महक लिए हुए जरूर था।
1877 के समय अवध के एक राजकुमार और उनके ही दरबार में क्रांतिकारी विचार रखने वाली नृत्यांगना के बीच बढ़ते प्रेम को दिखाने के लिए मुजफ्फर अली ने वाज़िद अली शाह की इस ग़ज़ल को चुना। संगीत रचने की जिम्मेदारी पाकिस्तान के सूफी गायकव शास्त्रीय संगीत के मर्मज्ञ शफ़क़त अली खाँ को सौंपी। शफ़क़त उम्र से तो मात्र 44 साल के हैं पर शास्त्रीय संगीत की ख्याल परंपरा के उज्ज्वल स्तंभ माने जाते हैं।
तो आइए देखें वाज़िद अली शाह ने इस ग़ज़ल में कहना क्या चाहा है।
ग़ज़ल के मतले में वाज़िद अली शाह महबूब से दूर रहते हुए अपने जज़्बातों को शब्द देते हुए कहते हें कि काश चम्पा सदृश उस गौर वर्णी की चेहरे की रंगत सामने आ जाती। ये हवा ज़रा उसकी खुशबुओं को हमारे पास ले आती।
चम्पई रंग यार आ जाए
चम्पई रंग यार आ जाए
निख़ते खुश गवार आ जाए
निख़ते खुश गवार आ जाए
चम्पई रंग यार आ जाए
अब उनके हुस्न की क्या तारीफ़ करें हम! वो तो शीशे को एक नज़र देख क्या लें.. आइना उनके प्रतिबिंब के घमंड से ही इतराने लगे
वो हसीं देख ले जो आइना
वो हसीं देख ले जो आइना
आइने पर गुबार आ जाए
आइने पर गुबार आ जाए
चम्पई रंग ....
तुम्हारे बिना मेरी ज़िंदगी उस खाली शीशे की तरह है जो बिना जाम के बेरंग सा दिखता है इसीलिए मेरी साकी इस गिलास को जाम से खाली होने मत दो..
खाली शीशे को क्या करूँ साकी
खाली शीशे को क्या करूँ साकी
जाम भी बार बार आ जाए
जाम भी बार बार आ जाए
चम्पई रंग....
वाज़िद अली शाह अख़्तर के उपनाम से ग़ज़लें कहा करते थे। सो मक़ते में वो कहते हैं कि उनकी प्रेयसी की आँखों की रवानी कुछ ऐसी है जिसे देख के दिल में नशे सी ख़ुमारी आ जाती है।
उनकी आँखों को देख कर अख्तर
उनकी आँखों को देख कर अख्तर
नशा बे-इख्तियार आ जाए
नशा बे-इख्तियार आ जाए
चम्पई रंग ....
इस गीत को संगीतकार शफक़त अली खाँ के साथ श्रेया घोषाल ने गाया है। श्रेया घोषाल रूमानी गीतों को तो अपनी मिश्री जैसी आवाज़ का रस घोलती ही रहती हैं पर एक ग़ज़ल को जिस ठहराव की आवश्यकता होती है उसको भी समझते हुए उन्होंने इसे अपनी आवाज़ में ढाला है। शफक़त इस ग़ज़ल में श्रेया की अपेक्षा थोड़े फीके रहे हैं पर उनका संगीत संयोजन वाज़िद अली शाह के रूमानियत भरे बोलों के साथ दिल में सुकून जरूर पहुँचाता है।
वार्षिक संगीतमाला 2015
