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गुरुवार, फ़रवरी 04, 2016

वार्षिक संगीतमाला 2015 पायदान #10 क्या अर्थ है इन जलते दीयों का? Jalte Diye

वार्षिक संगीतमाला में वक्त आ गया है साल के मेरे पसंदीदा प्रथम दस गीतों से रूबरू होने का। आठ फिल्मों से लिये इन नग्मों में से कुछ में शास्त्रीयता की बहार है, तो कही शब्दों की खूबसूरत बयार। कहीं गायिकी ऐसी जो गीत के बोलों और संगीत को एक अलग धरातल पर ही ले जाए या कोई धुन ऐसी जो मन से गुम होने का नाम ही ना ले। 

प्रथम दस गीतों की पहली सीढ़ी यानि दसवीं पायदान पर नग्मा वो जिसकी धुन बनाई हीमेश रेशमिया ने, बोल लिखे इरशाद क़ामिल ने और अपनी आवाज़ें दी विनीत सिंह, अन्वेशा, हर्षदीप कौर व शादाब साबरी। इतने गायकों के योगदान से आपको भ्रम हो सकता है कि ये एक समूह गीत हो पर वास्तव में ये युगल गीत है जिसके अंतरों में कोरस का अच्छा इस्तेमाल हुआ है। अगर ये गीत प्रथम दस में अपना स्थान बना पाया है तो उसकी वज़ह है एक अच्छी धुन के साथ इन चारों गायकों की मधुर गायिकी ! खुशी होती है ये देखकर कि इनमें से तीन कलाकार विनीत सिंह, अन्वेषा व हर्षदीप रियालटी शो में अच्छा करने के बाद इस मुकाम तक पहुँचे हैं। हीमेश ने इन्हें जो मौका दिया है इसके लिए वो भी बधाई के उतने ही हक़दार हैं।


गीत शुरु होता है ग़ज़ल के माहौल से। हर्षदीप को पूरे गीत में दो पंक्तियाँ ही गाने को मिली हैं पर उन सहज बोलों को मन की भावनाओं के जोर से उन्होंने इतना प्रभावी बनाया कि बस मूड बन जाता है।

आज अगर मिलन की रात होती
जाने क्या बात होती, तो क्या बात होती


हीमेश गीत की ताल यानि टेम्पो को अचानक ही बदल देते हैं धिन धिन धिन तक तक तक तक धिन धिन धा धा ताल से जो हीमेश के अनुसार कम प्रयुक्त होने वाला ताल है। हर्षदीप जहाँ से गीत को छोड़ती हैं अन्वेशा  वही से उसे पकड़ लेती हैं। जहाँ अन्वेशा श्रेया का छोटा अवतार लगती हैं वहीं विनीत को जिसने पहले गाते ना सुना हो उसे तो यही संशय हो जाए कि अरे कहीं सोनू निगम तो नहीं गा रहा इस गाने को। गीत के बोल कैसे अस्तित्व में आए उसकी भी एक अलग दास्तान है। जहाँ शूटिंग चल रही थी वहीं बगल के घर में बिजली गुल थी। एक स्त्री बड़े मनोयोग से दीये में खाना बना रही थी मानो दीये की रोशनी उसे मन में उजाला फैला रही हो। निर्देशक सूरज बड़जात्या ने मन में आए इसी विचार को इरशाद कामिल से गीत की शक़्ल में ढालने की जिम्मेदारी दी।

गीतकार इरशाद कामिल गीत के बारे में कहते हैं

"यहाँ दीयों की बात नहीं हो रही। वो तो बस एक रूपक है। दीये में आग होती है पर वो ख़ुद आग नहीं है। वो तो प्रतीक है एक तरह के उत्सव का, रोशनी का, गर्माहट का। मुझे तो इस प्रतीक का इस्तेमाल बस एक नए व नाज़ुक तरीके से इस तरह करना था कि जो फिल्म के चरित्र दिल में महसूस कर रहे हें वो शब्दों में व्यक्त हो जाए।"

इसीलिए मुखड़े में उन्होंने लिखा सुनते हैं जब प्यार हो तो दीये जल उठते हैं..। पर चरित्रों को मनोदशा आख़िर यहाँ है क्या? अब देखिए पिछली पॉयदान पर रॉय के गीत में नायक इस असमंजस में था कि नायिका उसे भी उतना चाहती है या नहीं। पर यहाँ मामला कुछ उल्टा है। नायिका तो यहाँ दिलो जान से अपने प्रेम का इज़हार कर रही है पर नायक इस उधेड़बुन  मे है कि वो उसे पसंद तो करता है पर उससे प्यार तो शायद ही करता है। इसलिए तो क़ामिल साहब उससे  कहलवा रहे हैं मेरा नहीं है वो दीया जो जल रहा है मेरे लिए... । 

ख़ैर ये फिल्म तो मैंने नहीं देखी पर इस गाने की मधुरता व गायिकी की वज़ह से इसे बार बार सुनने का मन जरूर करता है। तो आइए एक बार फिर सुनते हैं आपके साथ...

  

आज अगर मिलन की रात होती
जाने क्या बात होती, तो क्या बात होती

सुनते हैं जब प्यार हो तो
दीये जल उठते हैं
तन में, मन में और नयन में
दीये जल उठते हैं
आजा पिया आजा, आजा पिया आजा हो
आजा पिया आजा, तेरे ही तेरे लिए जलते
दीये
बितानी तेरे साए में साए में
जिंदगानी बिताई तेरे साए में साए में

कभी कभी, कभी कभी ऐसे दीयों से
लग है जाती आग भी
धुले धुले से आंचलों पे
लग है जाते दाग भी
हैं वीरानों में बदलते
देखे मन के बाग़ भी

सपनों में श्रृंगार हो तो
दीये जल उठते हैं
ख्वाहिशों के और शर्म के
दीये जल उठते हैं

आजा पिया आजा... ... तेरे साए में साए में

मेरा नहीं, मेरा नहीं है वो दीया जो
जल रहा है मेरे लिए
मेरी तरफ क्यूँ ये उजाले आए हैं
इनको रोकिये
यूँ बेगानी रौशनी में, कब तलक कोई जिए

साँसों में झंकार हो तो, दीये जल उठते हैं
झाँझरों में कंगनों में, दीये जल उठते हैं
आजा पिया, हम्म जलते दिए...
साए में, साए तेरे.. साए में, साए तेरे
साए में, साए तेरे.. साए में, साए तेरे 


   

वार्षिक संगीतमाला 2015

 

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