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बुधवार, जुलाई 27, 2011

'घर अकेला हो गया' : क्या है मुन्नवर राना का दुख ?

मुन्नवर राना की किताब 'घर अकेला हो गया' को पढ़ते वक्त कुछ सहज प्रश्न हर पाठक के दिमाग में उठ सकते हैं?  पिछली प्रविष्टि में आपने देखा कि किस तरह 'घर अकेला हो गया' के तमाम शेर आज की सियासत और नेताओं के लिए तल्खियों से भरे हैं। मुन्न्वर जी के हृदय की ये तल्खियाँ सिर्फ सियासत और नेताओं तक ही सीमित नहीं है। मसलन आख़िर शायर के दुखों का कारण क्या है?  ये दुख उनकी आज की जिंदगी से जुड़े हैं?

मुन्नवर की आज की जिंदगी की रूपरेखा पुस्तक में जनाब वाली आसी साहब कुछ यूँ देते हैं..
लोगों को उसकी ज़िंदगी में बड़ी चमक दिखाई देती है। कलकत्ते और दिल्ली से पूरे मुल्क में फैला हुआ उसका कारोबार, हवाई जहाजों, रेल के एयर कंडिश्नड डिब्बों और चमकती हुई कारों में उसका सफ़र, सितारों वाले होटलों में उसका क़याम, उसका सुखी घर संसार, जहाँ उसकी जीवन संगिनी, हँसती हुई गुड़ियों जैसी बच्चियाँ और किलकारियाँ भरते हुए फूल जैसे मासूम और चाँद जेसे प्यार बेटे के आलावा ज़िंदगी को आराम-ओ -असाइश से गुज़ारने के लिए नए से नया और अच्छे से अच्छा सामान मौजूद है, लेकिन उसका सबसे बड़ा दुख गाँव से नाता टूट जाने का है। वह और ऐसे बहुत से दुख उसे सताते हैं।

बहुत ज़माना हुआ, गौतम ने इन्हीं दुखों से छुटकारा पाने के लिए संसार को त्याग दिया था, लेकिन मुनचनवर राना का दुख यह है कि वह रात के अँधेरे में चुप कर कहीं ना जा सका, वह संसार को त्याग नहीं सका, शायद यही वज़ह है कि उसने शायरी के दामन में पनाह ढूँढ ली और अपने दुखों को इस तरह हिफ़ाज़त से रखा जैसे औरतें अपने गहने सँभाल कर रखती हैं।

वाली साहब की बात कितनी सही है उसका अंदाज़ा आप इस किताब को पढ़ कर लगा सकते हैं।  देश में गाँव से शहरों की ओर होता पलायन, गाँवों और शहरों में लोगों के नैतिक मूल्यों में होता अवमूल्यन भी शायर को चिंतित करता है और ये चिंता उनके कई अशआरों में मुखर हो उठती है.....

सज़ा कितनी बड़ी है गाँव से बाहर निकलने की
मैं मिट्टी गूँथता था अब डबलरोटी बनाता हूँ

मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी
जला कर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ

मुन्नवर जी भले ही आज एक अच्छे खासे कारोबार के मालिक हैं पर ये अमीरी उन्होंने गरीबी और बदहाली की जिंदगी से संघर्ष कर पाई है। आपको जानकर हैरानी होगी  कि मुन्नवर राना के पिता एक ट्रक चालक थे। पिता  को कई बार काफी दिनों के लिए बाहर रहना पड़ता और उनके लौटने तक पूरा परिवार खाने को भी मोहताज हो जाया करता था।  मुन्नवर ने गरीब और अमीर तबके के जीवन को करीब से देखा है। आज अमीरों  के बीच उनका उठना बैठना है फिर भी वो इनकी जिंदगी के खोखलेपन व मुखीटों के अंदर के चरित्र से वाकिफ़ हैं।

मैंने फल देख के इंसान को पहचाना है
जो बहुत मीठे हों अंदर से सड़े होते हैं


लबों पर मुस्कुराहट दिल में बेज़ारी निकलती है
बड़े लोगों में ही अक्सर ये बीमारी निकलती है

वहीं अपनी जड़ों को उनकी शायरी कभी नहीं भूलती। मुन्न्वर की लेखनी की धार इन अशआरों में स्पष्ट दिखती है।

मैंने देखा है जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं
कद में छोटे हों मगर लोग बड़े होते हैं।

भटकती है हवस दिन रात सोने की दुकानों में
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है


सो जाते हैं फुटपाथ पे अखबार बिछा कर
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते


मुन्नवर साहब की हर किताब में आप माँ से जुड़े अशआरों को प्रचुरता से पाएँगे। गुफ़तगू पत्रिका को हाल ही में दिए गए साक्षात्कार में जब उनसे इसकी वज़ह पूछी गई तो मुन्नवर साहब का जवाब था
घर के कठिन हालातों को देखकर माँ हर वक्त  बैठी दुआएँ ही माँगती रहती थी। मुझे बचपन में नींद में चलने की बीमारी थी। इसी वजह से माँ रातभर जागती थी, वो डरती थीं कि कहीं रात में चलते हुए कुएँ में जाकर न गिर जाऊँ। मैंने माँ को हमेशा दुआ माँगते ही देखा है इसीलिए उनका किरदार मेरे जेहन में घूमता रहता है और शायरी का विषय बनता है।
घर अकेला हो गया में भी ऍसे कई शेर हैं कुछ की बानगी देखिए

जब भी कश्ती मेरे सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ बन कर मेरे ख़्वाब में आ जाती है।

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिंदी मुस्कुराती है

मुन्नवर माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो, इतनी नमी अच्छी नहीं होती


पूरी किताब में कई जगह आज के हालातों के मद्दे नज़र राना साहब के अशआरों की शक़्ल में किए गए चुटीले व्यंग्य मन को मोह लेते हैं।
कलम सोने का रखने में कोई बुराई नहीं लेकिन
कोई तहरीर भी निकले तो दरबारी निकलती है


मुँह का मजा बदलने के लिए सुनते हैं वो ग़ज़ल
टेबुल के दालमोठ की सूरत हूँ इन दिनों

हर शख़्स देखने लगा शक़ की निगाह से
मैं पाँच सौ के नोट की सूरत हूँ इन दिनों


कुल मिलाकर अगर आप ग़ज़ल को प्रेम काव्य ना मानकर एक ऐसा माध्यम मानते हैं जिसके द्वारा शायर समाज से जुड़े सरोकारों को सामने लाए तो ये किताब आपके लिए है। चलते चलते इस किताब के शीर्षक के नाम मुन्नवर राना साहब का ये शेर सुनते जाइए

ऐसा लगता है कि जैसे ख़त्म मेला हो गया
उड़ गई आँगन से चिड़िया घर अकेला हो गया

पुस्तक के बारे में
घर अकेला हो गया
मूल्य : 125 रुपये मात्र
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन

गुरुवार, जुलाई 21, 2011

मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती : मुन्नवर राना की किताब 'घर अकेला हो गया'

करीब साल डेढ़ साल पहले मुन्नवर राना की एक किताब खरीदी थी। नाम था 'घर अकेला हो गया'। पिछले साल से मैं इस किताब में राना जी की लिखी 112 ग़ज़लों को टुकड़ों में पढ़ता आया हूँ। शायरी की किताबों के साथ एक बात जो मैंने महसूस की है वो ये कि अगर आप उसका पूरा लुत्फ़ उठाना चाहते हैं तो एक बार में ना पढ़ें। हर ग़ज़ल का अपना एक मूड होता है जो शायद पहले की ग़ज़ल से बिल्कुल ना मेल खाता हो। इसलिए पढ़ते समय मन में उठते विचारों पे निरंतरता नहीं आ पाती। एक ग़ज़ल आपको कुछ सोचने पर मज़बूर करती है तो दूसरे को पढ़ते ही पहले वाले विचार एकदम से गड्डमगड हो जाते हैं।

अब जबकि इतने लंबे समय के बाद ये किताब निबटाई जा चुकी है तो सोचा आज इसके शायर और इस पुस्तक के बारे में कुछ बातें हो जाएँ।

नवंबर 1952 में रायबरेली में जन्मे मुन्नवर राना का पूरा नाम 'सैयद मुन्नवर अली राना' है। साठ की उम्र के पास पहुँचते इस शायर के दर्जन भर से ज्यादा ग़ज़ल संग्रह छप चुके हैं और ये उनकी बढ़ती लोकप्रियता का सबूत हैं। मुन्नवर साहब ने अपनी शायरी में जिस भाषा का प्रयोग किया है उसे समझने के लिए आपको उर्दू का प्रकांड पंडित होने की आवश्यकता नहीं। इस मामले में मैं उनककी शायरी को बशीर बद्र की शायरी के करीब पाता हूँ। पर जब बात ग़ज़ल में व्यक्त किए गए मसायलों की आती है तो ये समानता ख़त्म हो जाती है।

मुन्नवर राना की शायरी उनके दिल में देश की सियासत के प्रति उनकी नफ़रत का इज़हार बार बार करती है। मुन्नवर का मानना है कि राजनीति में पैठ रखने वाले पत्थरदिल हैं जो देश की जनता से कुत्तों सा व्यवहार करते हैं।

मसलन इन अशआरों को देखिए..

सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है
कभी देखा है पत्थर पे भी कोई बेल लगती है।

या फिर...
हुकूमत मुँह भराई के हुनर से खूब वाक़िफ है
ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा डाल देती है।

राजनीति में सर्वविदित भ्रष्टाचार को भी शायर आड़े हाथों लेते हुए लिखते हैं..
वो शायर हों कि आलिम हों कि ताजिर या लुटेरे हों
सियासत वो जुआ है जिसमें सब पैसे लगाते हैं

मुनासिब है कि पहले तुम आदमखोर बन जाओ
कहीं संसद में खाने पीने कोई चावल दाल जाता है

दंगों में नेताओं की भूमिका से मुन्नवर आहत रहे हैं। इनका ये दर्द और आक्रोश इन मिसरों में साफ़ झलकता है

अगर दंगाइयों पर तेरा बस नहीं चलता
तो सुन ले ऐ हुकूमत हम तुम्हें नामर्द कहते हैं

मज़हबी मजदूर सब बैठे हैं इनको काम दो
एक इमारत शहर में काफी पुरानी और है
खामोशी कब चीख़ बन जाए किसे मालूम हैं
जुल्म कर लो जब तलक ये बेज़बानी और है

अपनी कौम को शक़ की निगाह से देखे जाने का उनमें रोष है उसका अंदाजा आप उनके इस शेर से लगा सकते हैं....
बस इतनी सी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आईएसआई लिक्खा है

मकबूल शायर वाली आसी साहब इस पुस्तक की भूमिका में कहते हैं कि मुनव्वर राना एक दुखी आत्मा का नाम है। मुन्नवर के दुखों का कारण क्या है?  मुन्नवर की ये तल्खियाँ क्या सिर्फ सियासत, मज़हबी जुनून और नेताओं तक ही सीमित हैं? क्या ये दुख उनकी निजी जिंदगी से जुड़े हैं इन सवालों पर बात करेंगे इस पुस्तक चर्चा के अगले भाग में। फिलहाल तो अपने मिज़ाज के बारे में उनकी कलम ख़ुद क्या कहती है वो पढ़ लें....
मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती
 मैं एक दिन बेख्याली में कहीं सच बोल बैठा था
मैं कोशिश कर चुका हूँ, मुँह की कड़वाहट नहीं जाती


पुस्तक के बारे में
नाम :घर अकेला हो गया
मूल्य  :१२५ रुपये मात्र
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
 

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