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शनिवार, सितंबर 20, 2014

क्या हिंदी संचार माध्यमों द्वारा प्रयुक्त हिंदी में अंग्रेजी की मिलावट जायज़ है?

कुछ साल पहले तक कार्यालयी जीवन में हिंदी दिवस राजभाषा पखवाड़े के तहत कुछ पुरस्कार अर्जित करने का बस एक अच्छा अवसर हुआ करता था।  पर हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए राजभाषा पखवाड़ा मनाना मुझे अब बेतुका सा लगने लगा है। राजभाषा के नाम पर कार्यालयों में जो भाषा परोसी जाती है उससे अन्य आंचलिक भाषाओं को बोलने वालों के मन में उसके प्रति प्यार कैसे पनपेगा ये मेरी समझ के बाहर है। पर सरकारी क़ायदे कानून हैं वो तो चलेंगे ही उससे हिंदी का भला हो ना हो किसको फर्क पड़ता है। दरअसल भाषा का अस्तित्व उसकी ताकत उसे बोलने वाले तय करते हैं और जब तक ये प्रेम जनता में बरक़रार है तब तक इसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता। पिछले हफ्ते हिंदी दिवस पर हिंदी से जुड़े मसलों पर समाचार चैनल ABP News पर एक घंटे की परिचर्चा हुई जिसमें प्रसिद्ध गीतकार प्रसून जोशी नीलेश मिश्र, कवि कुमार विश्वास और पत्रकार पंकज पचौरी ने हिस्सा लिया। चर्चा में तमाम विषय उठाए गए पर जो मुद्दा मेरे दिल के सबसे करीब रहा वो था संचार माध्यमों द्वारा हिंदी वाक्यों में अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से उपयोग।

इस विषय पर मेरी राय प्रसून जी से मिलती जुलती है जिन्होंने कहा कि पारंपरिक भाषा में वैसे शब्द जिनकी उत्पत्ति दूसरे देशों में हुई है उन्हैं वैसे ही स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है। मिसाल के तौर पर ट्रेन, टेलीफोन, सिनेमा, क्रिकेट आदि शब्द हिंदी में ऐसे घुलमिल गए हैं कि उन्हें हिंदी शब्दकोश में अंगीकार करना ही श्रेयस्कर होगा पर इसका मतलब ये भी नहीं कि दूरभाष और चलचित्र का उपयोग ही बंद कर दिया जाए। नीलेश मिश्र ने ये तो कहा कि जहाँ तक सरल शब्द उपलब्ध हों वहाँ अंग्रेजी के शब्द की मिलावट बुरी भी नहीं है। उनके संपादित समाचार पत्र का नाम गाँव कनेक्शन है और रेडियो पर कहानी सुनाते समय उन्हें अवसाद जैसे शब्दों के लिए उन्हें डिप्रेशन कहना ज्यादा अच्छा लगता है। 

दरअसल दिक्कत ये है कि इन सरल और कठिन शब्दों की परिभाषा कौन तय करेगा? किसी भी भाषा में अगर आप कोई शब्द इस्तेमाल नहीं करेंगे तो वो देर सबेर अप्रचलित हो ही जाएगा। इसका मतलब तो ये हुआ कि हम धीरे धीरे इन शब्दों को मार कर पूरी भाषा का ही गला घोंट दें?  ऊपर नवभारत टाइम्स की सुर्खियाँ देखिए बार्डर पर आमने सामने। एशियन गेम्स आज से। 

मतलब सीमा और एशियाई खेल कहना इस अख़बार के लिए दुरुह हो गया। राजस्थान पत्रिका का युवा पृष्ठ कह रहा है - थीम बेस्ड होगा पेंटिंग कम्पटीशन। अब अगर ऐसे शीर्षक आते रहे तो चित्रकला और प्रतियोगिता जैसे सामान्य शब्दों को भी नीलेश मिश्र सरीखे लोग कठिन शब्दों की श्रेणी में ले आएँगे। नीलेश जी से मेरा सीधा सवाल ये है कि क्या अंग्रेजी के समाचार पत्र अपनी भाषा के कठिन शब्दों का सरल हिंदी शब्द में अनुवाद कर कभी अपने शीर्षक लिखेंगे? क्या TOI कभी लिखेगा   Armies in front of each other at SEEMA ? क्या एक सामान्य अंग्रेजीभाषी को ऐसा पढ़ना अच्छा लगेगा?

हिंदी और आंचलिक भाषाएँ रोज़गार के अवसर तो अब प्रदान करती नहीं। दसवीं तक छात्र इन्हें पढ़ लेते हैं फिर तो इनका साबका अपनी भाषा से रेडिओ, टीवी व समाचार के माध्यमों से पड़ता है। अगर ये माध्यम भी भाषा की शुद्धता नहीं बरतेंगे तब तो किसी भी भाषा का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। मुझे आज भी याद है कि पिताजी हिंदी के सही वाचन के लिए मुझे आकाशवाणी और बीबीसी की हिंदी सेवा नियमित सुनने की हिदायत देते थे। हर भाषा की एक गरिमा होती है। ये सही है समय के साथ भाषा में अन्य भाषाओं से शब्द जुड़ते चले जाते हैं पर इसका मतलब ये नहीं कि उनका इस तरह प्रयोग हो कि वे भाषा के कलेवर को ही बदल दें। ना ऐसी मिलावट मुझे अंग्रेजी के लिए बर्दाश्त होगी ना हिंदी के लिए।

कुमार विश्वास ने कहा कि उनकी कविता में शुद्ध हिंदी भी रहती है और सामान्य प्रचलित हिंदी भी। यानि वो भाषा को उसके हर रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनका अनुभव है कि दोनों तरह की कविताओं को युवाओं से उतना ही प्रेम मिलता है। सच तो ये है कि हमें अच्छी हिंदी को इस तरह प्रचारित प्रसारित करना है कि वो पूरी जनता की आवाज़ बने ना कि उसे हिंग्लिश जैसा बाजारू बना दिया जाए कि जिसे पढ़ते भी शर्म आए।

हिंदों से जुड़े अन्य विषयों पर भी सार्थक चर्चा चली पर वातावरण को हल्का फुल्का बनाया प्रसून जोशी, कुमार विश्वास और नीलेश मिश्र की कविताओं ने। नीलेश मिश्र ने अपनी कविता में मिश्रित भाषा का प्रयोग किया है पर जो शब्द अंग्रेजी से उन्होंने लिए हैं वो कविता की रवानी को बढ़ाते हैं। मुझे तो प्रसून, नीलेश और कुमार विश्वास की अलग अलग अंदाज़ों में लिखी तीनों कविताएँ पसंद आयीं। आशा है आपको भी आएँगी..

 

प्रसून जोशी की कविता लक्ष्य

लक्ष्य ढूंढ़ते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है
इस पल की गरिमा पर जिनका थोड़ा भी अधिकार नहीं है
इस क्षण की गोलाई देखो आसमान पर लुढ़क रही है,
नारंगी तरुणाई देखो दूर क्षितिज पर बिखर रही है.
पक्ष ढूँढते हैं वे जिनको जीवन ये स्वीकार नहीं हैं
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

नाप-नाप के पीने वालों जीवन का अपमान न करना
पल-पल लेखा-जोखा वालों गणित पे यूँ अभिमान न करना
नपे-तुले वे ही हैं जिनकी बाहों में संसार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

ज़िंदा डूबे-डूबे रहते मृत शरीर तैरा करते हैं
उथले-उथले छप-छप करते, गोताखोर सुखी रहते हैं
स्वप्न वही जो नींद उडा दे, वरना उसमे धार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

कहाँ पहुँचने की जल्दी है नृत्य भरो इस खालीपन में
किसे दिखाना तुम ही हो बस गीत रचो इस घायल मन में
पी लो बरस रहा है अमृत ये सावन लाचार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

कहीं तुम्हारी चिंताओं की गठरी पूँजी ना बन जाए
कहीं तुम्हारे माथे का बल शकल का हिस्सा न बन जाए
जिस मन में उत्सव होता है वहाँ कभी भी हार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

नीलेश मिश्र की कविता 'बकवास परस्ती'

चल सर से सर टकराते है
चल सड़क पे नोट लुटाते हैं
चल मोटे स्केच पेन से एक दिन हम चाँद पे पेड़ बनाते हैं
जो हँसना भूल गए उनको गुदगुदी जरा कराते हैं
चल लड़की छेड़ने वालों पे आज सीटी जरा बजाते हैं
इन बिगड़े अमीरजादों से चल भीख जरा मँगवाते हैं
पानी में दूध मिलाया क्यूँ चल भैंस से पूछ के आते हैं
नुक्कड़ पर ठेले वाले से चल मुफ्त समोसे खाते हैं
चल गीत बेतुके लिखते है और गीत बेसुरे गाते हैं
क्या करना अक्ल के पंडों का हमें ज्ञान कहाँ हथकंडों का
चल बेअक्ली फैलाते हैं चल बातें सस्ती करते हैं
चल बकवास परस्ती करते हैं, चल बकवास परस्ती करते हैं
 

चल तारों का 'बिजनेस' करके सूरज से 'रिच' हो जाते  हैं
उस पैसे से मंगल ग्रह पे एक 'प्राइमरी' स्कूल चलाते हैं
चल रेल की पटरी पे लेटे हम ट्रेन की सीटी बजाते हैं
चल इनकम टैक्स के अफसर से क्यूँ है 'इनकम' कम कहते हैं
चल किसी गरीब के बच्चे की सपनों की लंगोटी बुनते हैं
मुस्कान जरा फेंक आते हैं जहाँ गम हमेशा रहते हैं
चल डाल 'सुगर फ्री' की गोली मीठा पान बनाते हैं
जो हमको समझे समझदार उसका चेकअप कराते हैं
चल
'बोरिंग-बोरिंग' लोगों से बेमतलब मस्ती करते हैं
चल बकवास परस्ती
करते हैं चल बकवास परस्ती करते हैं।

पुनःश्च : हिंदी के प्रमुख समाचार चैनल ABP News ने गत रविवार हिंदी दिवस के अवसर पर कई और कार्यक्रम किए जिनमें से एक का विषय था कि हिंदी माध्यम से पढ़ कर आपने क्या परेशानियाँ झेलीं और उनसे जूझते हुए कैसे अलग अलग क्षेत्रों में अपना मुकाम बनाया। इस श्रंखला में साथी ब्लॉगर प्रवीण पांडे के आलावा संतोष मिश्र, अमित मित्तल,निखिल सचान के साथ मुझे भी अपनी बात रखने का मौका मिला। ये मेरे लिए अपनी तरह का पहला अनुभव था। वैसे आधे घंटे से चली इस बातचीत को कैसे संपादक पाँच मिनट में उसके मूल तत्त्व को रखते हुए पेश करते हैं इस कला से मेरा पहली बार परिचय हुआ।


साक्षात्कार के दौरान दिए जा रहे कैप्शन में दो तथ्यात्मक त्रुटियाँ रहीं। एक तो ब्लागिंग की शुरुआत जो मैंने 2005 में की को 1995 दिखाया गया और दूसरी IIT Roorkee से किए गए MTech को BTech बताया गया। आधे घंटे की बातचीत को पाँच मिनट में संपादित करने की वज़ह से बहुत सारी बातें उन संदर्भों के बिना आयीं जिनको ध्यान में रखकर वो कही गयी थीं। मसलन स्कूल की बातों को पूरे परिपेक्ष्य में समझने के लिए आपको मेरी ये पोस्ट पढ़नी होगी। नौकरी के सिलसिले में ये बताना शायद मुनासिब हो कि सेल की सामूहिक चर्चा में हिंदी के प्रयोग के पहले अंग्रेजी में दिए साक्षात्कारों की बदौलत मेरा चयन ONGC और NTPC में हो चुका था।

रविवार, अगस्त 18, 2013

'एक शाम मेरे नाम' ने जीता इंडीब्लॉगर 'Indian Blogger Awards 2013' में सर्वश्रेष्ठ हिंदी ब्लॉग का खिताब !

परसों शाम को  भारतीय ब्लॉगरों के सबसे बड़े समूह  इंडीब्लॉगर ने अपने द्वारा संचालित The Indian Blogger Award 2013 की घोषणा की। अपने ब्लॉग पाठकों को बताते हुए अत्यंत हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ कि जो प्रेम आप पिछले सात वर्ष से इस ब्लॉग को देते रहे हैं उसी प्यार की बदौलत 'एक शाम मेरे नाम' को हिंदी के सर्वश्रष्ठ ब्लॉग के पुरस्कार से नवाज़ा गया है। 



वैसे आप जरूर जानना चाहेंगे कि इंडीब्लॉगर पुरस्कारों में चुनाव का मापदंड क्या था ? इंडीब्लॉगर ने इस पुरस्कार के लिए विभिन्न श्रेणियों की घोषणा की थी। किसी ब्लॉग के लिए उसकी विषयवस्तु पर 34%, मौलिकता पर 32 % अपने पाठकों से विचार विमर्श पर 18 % और ब्लॉग को इस्तेमाल करने की सहूलियत पर 16 % अंक रखे गए थे। विभिन्न श्रेणियों में बँटे ब्लॉगों के मूल्यांकन करने के लिए अपनी अपनी विधा में महारत हासिल कर चुके इन सोलह जूरी मेम्बरान को रखा गया था। इनमें से कुछ को तो आप चेहरे से पहचानते होंगे । वैसे बाकियों के बारे में जानना हो तो यहाँ देखें। 


हिंदी ब्लागिंग के नारद युग से आज तक इसके उतार चढ़ाव का साक्षी रहा हूँ। पिछले कुछ सालों में अंग्रेजी ब्लॉगरों के साथ भी एक मंच पर भाग लेने का मौका मिला है। वैसे तो हिंदी ब्लॉगिंग ने मुझे कई अभिन्न ब्लॉगर मित्र दिए हैं पर जब पूरे हिंदी ब्लॉगर समुदाय के सामूहिक क्रियाकलापों पर नज़र दौड़ाता हूँ तो निराशा ही हाथ लगती है। ब्लॉगिंग के शुरुआती दिनों में मैंने कई ब्लॉगर मीट्स में हिस्सा लिया जहाँ भी गया वहाँ के ब्लॉगरों से मिलने की कोशिश की और सच बहुत मजा भी आया। मुंबई और दिल्ली में ब्लागरों के सानिध्य में बिताई गई वो रातें आज भी दिलो दिमाग में नक़्श हैं। पर वक़्त के साथ हिंदी ब्लागिंग के तथाकथित महामहिमों ने ऐसा माहौल रच दिया कि ब्लागिंग सम्मेलन और पुरस्कार समारोह  एक दूसरे को नीचा दिखाने के अखाड़े बन गए और नतीजन मैं अपने आपको ऐसे क्रियाकलापों से दूर करता गया। इससे उलट जब भी मैंने अंग्रेजी ब्लॉगरों के साथ किसी कार्यक्रम में हिस्सा लिया माहौल को खुला और बेहद प्रोफेशनल पाया।

हिंदी ब्लॉगिंग के प्रति मेरी आस्था शुरु से रही है और इस पुरस्कार ने उस आस्था को और मजबूत किया है। हिंदी ब्लॉगर अक्सर इस समस्या का जिक्र करते हैं कि उनके ज्यादातर पाठक हिंदी ब्लॉगर हैं। पर जहाँ तक 'एक शाम मेरे नाम' का सवाल है, इस ब्लॉग के अधिकांश पाठक हिंदी संगीत और साहित्य में रुचि रखने वाले वे पाठक हैं जिनका ब्लॉगिंग से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है।  इसीलिए ये पुरस्कार मैं सबसे पहले उन पाठकों को समर्पित करना चाहता हूँ जो हिंदी ब्लागिंग का हिस्सा ना रह कर भी बतौर ई मेल सब्सक्राइबर, फेसबुक पेज और नेटवर्क ब्लॉग के ज़रिए मेरा उत्साहवर्धन करते रहे। यकीन मानिए आप ही मेरी सच्ची शक्ति हैं, क्यूँकि मैं जानता हूँ कि आप यहाँ किसी प्रत्याशा से नहीं आते। आप यहाँ तभी आएँगे जब मैं आपको आपकी दौड़ती भागती ज़िंदगी में सुकून के कुछ पल मुहैया करा सकूँ। सच मानिए मेरी कोशिश यही रहती है कि मुझे संगीत और साहित्य से जुड़ा कुछ भी अच्छा दिखे तो उसे मैं आपको अपने तरीके से उन्हें विश्लेषित कर पेश कर सकूँ ।

'एक शाम मेरे नाम' के पाठकों की पसंद अलग अलग है कुछ लोग इसे नए संगीत के बारे में ख़बर रखने के लिए पढ़ते हैं तो कुछ को शायर और शायरी से जुड़ी प्रविष्टियों को पढ़ने में ज्यादा आनंद आता है। कुछ मुझसे पुस्तकों की चर्चा बड़े अंतराल करने की शिकायत करते हैं तो कुछ संगीत के स्वर्णिम युग के अज़ीम फ़नकारों के बारे में लिखने की दरख़ास्त करते हैं। यूँ तो मेरी कोशिश रहती है कि इन सारे विषयो के सामंजस्य बैठा कर चलूँ पर कभी समयाभाव और कभी उस विषय पर नया कुछ ना कह पाने की स्थिति में मैं उस पर कुछ लिख नहीं पाता।

इंडीब्लॉगर के आलावा मैं एक बार उन सभी प्रशंसकों का धन्यवाद देना चाहता हूँ जिन्होंने  नामंकन प्रक्रिया के दौरान इस ब्लॉग की अनुशंसा की और साथ ही अपने विचार भी दिए कि ये उन्हें ये ब्लॉग क्यूँ पसंद है? फेसबुक पर आपने जो शुभकामना संदेश लिखे हैं उनसे मै अभिभूत हूँ और आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आगे भी आपकी आशाओं पर ख़रा उतरने की कोशिश करता रहूँगा। बस यूँ ही आपका साथ मिलता रहे तो ये शामें यूँ ही गुलज़ार होती रहेंगी। वैसे 'गुलज़ार' होने की बात से याद आया कि आज इस हरदिलअजीज़ शायर का 79 वाँ जन्मदिन है। तो चलते चलते उनकी ये प्यारी सी ग़ज़ल आपके सुपुर्द करता चलूँ।

कहीं तो गर्द उड़े ,या कहीं गुबार दिखे
कहीं से आता हुआ कोई शहसवार दिखे

खफा थी शाख से शायद, के जब हवा गुजरी
ज़मीन पे गिरते हुए फूल बेशुमार दिखे

रवाँ हैं फिर भी रुके है वहीं पे सदियों से
बड़े उदास दिखे जब भी आबशार दिखे

कभी तो चौंक के देखें कोई हमारी तरफ
किसी की आँख में हम को भी इंतज़ार दिखे

कोई तिलिस्मी सिफत थी जो इस हुजूम में वों
हुए जो आँख से ओझल तो बार बार दिखे

शनिवार, मार्च 26, 2011

'एक शाम मेरे नाम' ने पूरे किए अपने पाँच साल..!

आज मेरे इस ब्लॉग का पाँचवा जन्मदिन है। विगत पाँच सालों से ब्लॉगिंग को अपनी ज़िंदगी का अहम हिस्सा बनाया है। इस बात का संतोष है कि अब तक जो कुछ लिखा या प्रस्तुत किया है उसमें मुझे खुद भी आनंद आता रहे। अगर पाँच सालों में बिना किसी विराम के ये निरंतरता इस चिट्ठे पर बनी रही है तो इसके पीछे इसी जज़्बे का हाथ है।


इस मौके पर इस चिट्ठे के तमाम पाठकों, ई मेल सब्सक्राइबरों, फालोवर्स और नेटवर्क ब्लॉग से जुड़े जाने अनजाने लोगों का शुक्रगुजार हूँ जिन्होंने इस चिट्ठे पर अपनी आस्था बनाई हुई है। आपकी मदद से ही अब तक इन 480 पोस्ट और तीन लाख पेज लोड्स का  ये सफ़र पूरा हुआ है।



और चिट्ठे के हिंदी और रोमन हिंदी संस्करणों की सब्सक्राइबर संख्या बारह सौ पार कर गई है।

इन पाँच सालों में हिंदी ब्लॉग जगत के उतार चढ़ावों का भी साक्षी रहा हूँ। हिंदी चिट्ठों के संकलको की सहायता से छोटे परिवार को आगे बढ़ते देखा है। संकलक लोकप्रिय हुए। फिर आलोचना के शिकार बने। नए संकलकों ने उनकी जगह ली और एक दिन वे भी उसी हस्र का शिकार हुए जैसे कि उनके पूर्ववर्ती। एक चर्चा मंच था फिर कई हुए। होने ही थे क्यूँकि ब्लॉगिंग कोई ऐसी विधा नहीं है जो कुछ क्षत्रपों द्वारा नियंत्रित और संचालित होती रहे। दुर्भाग्यवश हिंदी में चिट्ठा लिखने वालों में ये प्रवृति इसके शुरुआती दिनों से ही हावी रही। आज भी हिंदी में चिट्ठे लिखने वालों का एक बड़ा वर्ग अपनी लेखनी का इस्तेमाल इसलिए करता है कि उसकी रियासत कुछ और फैले। जब कई रियासतें फैलेंगी तो उनमें पारस्परिक संघर्ष तो होगा ही।

ख़ैर खुशी की बात ये है कि इस उठापटक के बावजूद भी सैकड़ों ऐसे चिट्ठे हैं जो चुपचाप ही सही पर रोचक और स्तरीय सामग्री नेट के हिंदी कोष में जमा करते जा रहे हैं। लोग इस बात को भी समझ चुके हैं कि जैसे जैसे ब्लॉगों की संख्या बढ़ती जाएगी संकलक अपनी उपयोगिता खोते जाएँगे। वैसे भी सोशल नेटवर्किंग के युग में संकलकों से कही ज्यादा आसानी से आप फेसबुक और ट्विटर के ज़रिए अपने पाठकों तक पहुँच सकते हैं। यही वज़ह है कि हिंदी ब्लॉगिंग से जुड़े तमाम लोग इन माध्यमों को तेजी से अपना रहे हैं।

चलते चलते एक बार फिर पिछले साल कही अपनी बात को दोहराना चाहूँगा कि

अपने अनुभवों से इतना कह सकता हूँ कि जैसे जैसे आप अपने विषय वस्तु यानि कान्टेंट में विस्तार करते जाते हैं, कुल पाठकों की संख्या में तो वृद्धि होती है पर उसमें एग्रगेटर से आनेवाले पाठकों का हिस्सा कम होता जाता है। इसलिए सनसनी या बिना मतलब के पचड़ों में पड़ने के बजाए अपने मन की बात कहें और पूरी मेहनत के साथ कहें।

उम्मीद करता हूँ कि संगीत और साहित्य का ये सफ़र आपके स्नेह से इस साल भी खुशनुमा रहेगा...

गुरुवार, मई 06, 2010

पटना, मौर्य लोक और मिलना गौतम राजरिशी से : भाग 2

पिछली दफ़ा आपने पढ़ा गौतम से पटना में हुई मुलाकात का पहला भाग। आज बात को वहीं से आगे बढ़ाते हैं जहाँ से वो पिछली बार खत्म हुई थी...


वो पुणे चले गए पर प्रेम का जज़्बा भी बना रहा। बस मुलाकात की जगह बदल गई.. शहर बदल गया...पर एक कठिन पर रोमांचकारी जीने की ख्वाहिश रखने वाले गौतम को अपनी निजी जिंदगी की प्रेरणा को हक़ीकत में तब्दील करने में भी उतने ही कठिन मानसिक संघर्ष से होकर गुजरना पड़ा। घर वाले उनके प्रेम पर विवाह की मुहर लगाने के लिए तैयार नहीं थे वही गौतम भी ठान चुके थे कि दिल एक बार दिया तो वो उसी का हो गया। इसीलिए मोहब्बत के हसीन पलों की याद दिलाने के साथ जब गौतम विरह की वेला का खाका खींचते हैं तो उनकी कलम ग़ज़ब का प्रभाव छोड़ती है..

एक सवेरा इक तन्हा तकिये पर आँखें मलता है
मीलों दूर कहीं इक छत पर सूनी शाम टहलती है

यादें तेरी, तेरी बातें साथ हैं मेरे हर पल यूँ
इस दूरी से लेकिन अब तो इक-इक साँस बिखरती है

चांद को मुंडेर से "राधा" लगाये टकटकी
इश्क के बीमार को दिखता है कोई दाग क्या


एक तो काम की कठिन परिस्थितियाँ और दूसरी ओर मन का तनाव, गौतम के स्वास्थ पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा। इन पंक्तियों पर गौर करें क्या ये उन दिनों के गौतम का मन नहीं टटोलतीं

कटी रात सारी तेरी करवटों में
कि ये सिलवटों की निशानी कहे है


"रिवाजों से हट कर नहीं चल सकोगे"
कि जड़ ये मेरी ख़ानदानी कहे है


आखिर बेटे की हालत और हठ को देखकर उनके परिवारवालों को उनकी इच्छा के आगे झुकना पड़ा। इस रज़ामंदी में गौतम के कुछ मित्रों ने भी महत्त्वपूर्ण किरदार निभाया। गौतम कहते हैं को वो दौर उनके लिए बेहद कठिन था और खुशी की बात ये है कि इतना सब होने के बाद आज के दिन 'घर की ये बहू' सबकी चहेती बन गई है।


(चित्र साभार)


मेरा मानना है कि ज़िदगी के इस कठिन अनुभव ने गौतम की शायरी पर महत्त्वपूर्ण असर डाला है। पर गौतम की शायरी में इश्क़, विरह के आलावा भी कुछ और रंग बराबर उभरे हैं और इनमें से एक अहम हिस्सा है, सिपाही के रूप में जिंदगी से बटोरा उनका अनुभव। उनके लिखे इन अशआरों पर गौर कीजिए आप मेरी बात खुद ब खुद समझ जाएँगे

लिखती हैं क्या किस्से कलाई की खनकती चूडि़याँ
सीमाओं पे जाती हैं जो उन चिट्ठियों से पूछ लो

होती है गहरी नींद क्या, क्या रस है अब के आम में
छुट्टी में घर आई हरी इन वर्दियों से पूछ लो

जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या


कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मज़ा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली

बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्‍र की ‘गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली


चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से


मुट्ठियाँ भीचे हुये कितने दशक बीतेंगे और
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से

गौतम को ब्लागिंग शुरु किए हुए डेढ़ साल से ऊपर हो गया है। सच बताऊँ तो जब पिछले साल के शुरु में पहली बार जब उनके चिट्ठे पर पहुँचा था तो उनका लिखा मुझे खास प्रभावित नहीं कर पाया था। पर पिछले एक साल में उनकी ग़ज़लों में और निखार आया है। गौतम का कहना है कि इसमें गुरु सुबीर जी का महती योगदान है।

मुझे लगता है कि छोटी बहरों की ग़ज़लों में गौतम और पैनापन ला सकते हैं। गौतम ने हाल ही में उपन्यास के किरदारों को अपनी ग़ज़ल के अशआरों में बड़ी खूबसूरती से पिरोया था। मुझे उनकी ये पेशकश बेहद नायाब लगी थी। उनकी इस ग़ज़ल के इन अशआरों पर गौर कीजिए कमाल का असर डालते हैं


जल चुकी है फ़स्‍ल सारी पूछती अब आग क्या
राख पर पसरा है "होरी", सोचता निज भाग क्या

ड्योढ़ी पर बैठी निहारे शह्‍र से आती सड़क
"बन्तो" की आँखों में सब है, जोग क्या बैराग क्या


क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
पूछता रिक्शा लिये, ‘चलना है मोतीबाग क्या’


गौतम से बातों का ये क्रम इतनी तन्मयता से चल रहा था कि कब दिन के बारह बज गए हमें पता ही नहीं चला। हमें लगा कि अब कहीं चल कर कम से कम चाय कॉफी पीनी चाहिए।

थोड़ी दूर पर एक दुकान मिली। हमे अपने लिए जगह बनाई और बातों का क्रम फिर चल पड़ा। गौतम से मैंने कश्मीर के ज़मीनी हालातों के बारे में पूछा। गौतम विस्तार से वहाँ के हालातों और सेना के किरदार के बारे में बताने लगे। बातों ही बातों में ये भी पता चला कि गौतम एक्शन पैक्ड कंप्यूटर गेम्स खेलने में उतनी ही दिलचस्पी रकते हैं जितनी हथियार चलाने में। उनके चिट्ठे को पढ़ने वालों को ये तो पता है ही कि वे कॉमिक्स पढ़ने के कितने शौकीन रहे हैं। फिर ब्लॉग जगत के कुछ किरदारों, दिल्ली में हिंद युग्म के समारोह में शिरकत, अनुराग से श्रीनगर में मुलाकात, आदि प्रसंगों से जुड़ी बातचीत ज़ारी रही।


इतनी देर में हम तीन बार कॉफी पी चुके थे और दुकान वाला हमारी बतकूचन से परेशान हो गया था। उसकी चेहरे की झल्लाहट को पढ़ते हुए हम वहाँ से भी निकल गए।

वैसे भी हमने बातें करते करते आराम से चार घंटे का समय बिता लिया था। दिन के दो बज रहे थे। गौतम को भी अपनी 'प्रेरणा' जो अब 'हक़ीकत' बन गई हैं, को 'मोना' में सिनेमा दिखाना था । वैलेंटाइन डे के दिन किए गए उनके इस वादे में बिना कोई और बाधा उत्पन्न किए हम दोनों ने एक दूसरे से विदा ली।

तो चलते-चलते उनके लिखे कुछ और अशआरों से रूबरू कराना चाहूँगा जो मुझे बेहद पसंद हैं..

खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली

दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली


बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं

तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं


कुछ नए चेहरों से मुलाकात दिल्ली में भी हुई पर उसका ब्योरा फिर कभी।

सोमवार, मई 03, 2010

पटना, मौर्य लोक और मिलना गौतम राजरिशी से : भाग 1

वक्त आ गया है अपनी पिछली से पिछली पोस्ट में किए अपने वायदे को पूरा करने का यानि गौतम राजरिशी से पटना में हुई मुलाकात का लेखा जोखा प्रस्तुत करने का। लखनऊ से पटना तो दस फरवरी की शाम को मैं आ गया। गौतम भी वहाँ चौदह को ट्रेन से पहुँचने वाले थे। चौदह की रात को मुझे वापस राँची आना था। पर गौतम चौदह की बजाए तेरह को ही राँची आ गए और शाम को फोन पर बातचीत के बाद तय हुआ कि अगली सुबह पटना के मौर्य लोक में मुलाकात की जाए। डाक बँगला रोड के पास बना मौर्य लोक किसी अन्य राजधानी के शॉपिंग मॉल की तरह भव्य तो नहीं पर शहर की चहल पहल का मुख्य केंद्र जरूर है।


दस बजे मिलने का वक़्त तय था पर मैं घर से इसके बीस मिनट पहले ही निकल सका। निकलने के बाद ख्याल आया ये कोई सिविलियन मीट तो है नहीं, एक फौजी से मिलने जा रहा हूँ वक़्त का ध्यान रखना चाहिए था। गौतम जरूर वक़्त के मुताबिक दस बजे पहुँच चुके होंगे। करीब पंद्रह बीस मिनट बाद मौर्य लोक के परिसर में कदम रखे तो दूर से ही गौतम मोबाइल पर बात करते दिखे। जैसी की आशा थी वो दस बजे से पहले ही वहाँ पहुँच चुके थे। पता चला की वो दिल की बात वाले अनुराग को शादी की सालगिरह की शुभकामनाएँ दे रहे थे। शादी की सालगिरह और वो भी वैलेंटाइन डे के दिन..मन ही मन सोचा खूब दिन ढूँढ कर ब्याह रचाया अनुराग ने।

कहने को वो वैलेंटाइन डे था पर मौर्य लोक में कोई रौनक दिख नहीं रही थी। दिखती भी कैसे? रविवार होने की वज़ह से सारी दुकानें बंद थीं। हम घूमते टहलते बैठ कर बातें करने की जगह तलाशने लगे। परिसर के अंदर ही चाउमिन की दुकान के सामने कुछ खाली कुर्सियाँ दिखाई दीं। सोचा चाय का आर्डर देकर गप्पे हाँकने का काम शुरु किया जाए। पता चला वहाँ चाय कॉफी का कोई इंतज़ाम नहीं है। अब बैठ गए थे तो सोचा बैठे ही रहा जाए। वहीं से बातों का सिलसिला शुरु हुआ। मैंने गौतम को अपनी कॉलेज की जिंदगी व फरीदाबाद में अपनी नौकरी के संस्मरणों और किस्सों के बारे में बताया।

फिर जो बात मेरे मन में घूम रही थी उसी को प्रश्न बना कर मैंने दाग दिया। कविताएँ /ग़जलें उनकी जिंदगी में पहले आईं या फिर सेना में काम करने का जज़्बा? (वैसे मुझे बाद में पता चला कि मेरा मूल प्रश्न ही गलत था :)। इन दो बातों के बीच में गौतम की जिंदगी में और भी बहुत कुछ आया जिसने उनके इन दोनों पहलुओं को निखारने में मदद की।)


जिस तरह मुझमें गीत संगीत व साहित्य में रुचि अंकुरित करने का श्रेय मैं अपनी बड़ी बहन और माँ को देता हूँ वैसे ही गौतम को ग़ज़लों और कविताओं में रुचि जाग्रत करने में उनके पिता का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। गौतम ने बताया कि किस तरह उनके पिता मँहदी हसन और गुलाम अली की ग़ज़लों को सुनवाकर उनका भावार्थ बताते थे। संयुक्त परिवार में पले बढ़े गौतम को किताबें पढ़ने का शौक भी लड़कपन से हो गया और शायद हाईस्कूल के आस पास ही उन्होंने अपनी पहली कविता भी लिखी।

जैसा कि एक आम उत्तर भारतीय और खासकर बिहार जैसे राज्य में होता रहा है मैट्रिक के बाद इंजीनियर डॉक्टर बनाने वाले के लिए माता पिता बच्चों को कोचिंग के लिए राज्य की राजधानी भेज देते हैं। गौतम को भी इसी वज़ह से पटना भेज दिया गया। अब डाक्टर पिता को अपने होनहार पुत्र को पटना भेजते समय उसकी काव्यात्मकता के बारे में जानकारी थी या नही ये तो पता नहीं, पर पुत्र ने पटना की धरती पर उतरते और कोचिंग का माहौल देखने समझने के बाद शीघ्र ही ये निर्णय ले लिया यह भूमि ही उसके काव्य की कर्म भूमि होगी..

आप समझ ही गए होंगे कि हमारे 'कवि' को उसकी 'प्रेरणा' मिल गई थी। पर उस प्रेरणा को अभी भी इस बात पर पर्याप्त संदेह था कि उसे सच्चा कवि मिला है या रोड साइड रोमियो :)। पर कवि अपने कावित्य कौशल से प्रेरणा को समझाने बुझाने में लगा रहा। शायद वो पंक्तियाँ कुछ इस तरह की रही हों जिसे आप व मैं पहले भी पढ़ चुके हैं

तुम हमें चाहो न चाहो, ये तुम्हारी मर्ज़ी
हमने साँसों को किया नाम तुम्हारे यूँ तो

ये अलग बात है तू हो नहीं पाया मेरा
हूँ युगों से तुझे आँखों में उतारे यूँ तो

'प्रेरणा' ने गौतम को पूरी तरह अनुमोदित तो नहीं किया पर उनकी लेखनी को एक संवेदनशील पाठक जरूर मिल गया। गौतम इतने से ही खुश थे। अपनी पाठिका को प्रेमिका की मंजिल तक पहुँचाने में उनकी लेखनी उनका अवश्य साथ देगी, ऐसा उनका भरोसा था। लिहाज़ा गौतम की शायरी में इश्क़ का ख़ुमार चढ़ता रहा। बहुत कुछ उनके इन खूबसूरत अशआरों की तरह

हर लम्हा इस मन में इक तस्वीर यही तो सजती है
तू बैठी है सीढ़ी पर, छज्जे से धूप उतरती है

एक हवा अक्सर कंधे को छूती रहती "तू" बनकर
तेरी गंध लिये बारिश भी जब-तब आन बरसती है

हमने देखा है अक्सर हर पेड़ की ऊँची फुनगी पर
हिलती शाख तेरी नजरों से हमको देखा करती है

अब बताइए भला ऐसे अशआरों को पढ़ और महसूस कर किसका हृदय नहीं पिघलेगा सो 'प्रेरणा' का भी पिघला। पर इधर गौतम ने एक और गुल खिलाया। इंजीनियरिंग से ज्यादा दिलचस्पी उन्हें एक रोमंचकारी ज़िंदगी जीने में थी। माता पिता को खुश रखने के लिए इंजीनियरिंग का पर्चा भरा पर साथ ही NDA में दाखिला के लिए भी परीक्षा दी। IIT की परीक्षा में रैंक नीचे आई,पर उसके बारे में घर पर बिना बताए NDA में दाखिला ले लिया। वो पुणे चले गए पर प्रेम का जज़्बा भी बना रहा। बस मुलाकात की जगह बदल गई.. शहर बदल गया...

और क्या बदला गौतम की जिंदगी में ये जानते हैं इस मुलाकात की अगली किश्त में...



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शनिवार, अप्रैल 24, 2010

लखनऊ डॉयरी : रेल का उलटफेर, ब्लॉगरों की साजिश और एक छोटी सी मुलाकात...

बात फरवरी की है। लखनऊ में एक रिश्तेदार की शादी में जाना था। शादी का दिन चूंकि बहुत पहले से तय था लिहाज़ा मैंने दो महिने पूर्व ही रिजर्वेशन करवा रखा था। पर चाहे कितनी भी तैयारी आप क्यूँ ना कर लें जब तक ऊपरवाले के यहाँ से अर्जी पास ना हो, हम जैसे तुच्छ मानवों द्वारा बनाई गई योजनाएँ धरी की धरी रह जाती हैं। ज्योंही फरवरी का दूसरा हफ्ता शुरु हुआ झारखंड में नक्सलियों ने बहत्तर घंटे के बंद का ऐलान कर दिया। अक्सर ऐसे अवसरों पर सबसे पहले रद्द होने वाली ट्रेन वही होती है जिसमें मैंने आरक्षण करवाया था। तीन दिन पहले से ही राम का सुमिरन करते रहे कि भगवन इतने पहले से बनाए कार्यक्रम का यूँ ना बंटाढ़ार करो। पर भगवन का दिल ना पसीजना था, ना पसीजा।

यात्रा के एक दिन पहले तक बंद के बावज़ूद बाकी की ट्रेने दूसरे मार्ग से चलती रहीं। 8 फरवरी की शाम को मुझे प्रस्थान करना था। आठ की सुबह बिस्तर से चिपके पड़े ही थे कि एक सहकर्मी का फोन आ गया। उधर से सूचना दी गई कि भई सुबह के अखबार में मेरी ट्रेन के रद्द होने की खबर है। नींद तो ये सुनते ही काफ़ूर हो गई। भागते दौड़ते स्टेशन पहुँचे। शीघ्रता से टिकट रद्द कराया। संयोग से नक्सलियों के बंद की वज़ह से दूसरी ट्रेन में जगह मिल गई और मेरा लखनऊ जाने का कार्यक्रम बर्बाद होते होते बच गया।

राँची में हल्की-हल्की ठंड ज़ारी थी। गर्म कपड़े किस अनुपात में रखे जाएँ इसके लिए लखनऊ में कंचन से फोन पर मौसम का हाल पूछा गया। रिपोर्ट दी गई कि आसमान साफ है। दिन में अपने आप को जवान समझने वाले लोग हॉफ स्वेटर भी नहीं पहन रहे हैं। मैंने मन ही मन विचार किया शादी का मामला है स्वेटर ना भी ले जाएँ पर कोट ले चलना ठीक रहेगा। वैसे भी ब्लॉगरों का क्या भरोसा एक दूसरे को परेशान करने के लिए आए दिन नए नए जुगाड़ सोचते हैं।:) और देखिए मेरी शंका निर्मूल साबित नहीं हुई। सुबह गाड़ी से जैसे ही कानपुर स्टेशन पहुँचा साफ आसमान और सुनहरी धूप के बजाए बाहर झमाझम बारिश हो रही थी। बारिश से बचते बचाते स्टेशन के शेड में पहुँच कर फोन घुमाया तो उधर से स्पष्टीकरण आया कि आपसे फोन पर बात होने के बाद ही बादलों ने अपना रंग बदल लिया !

खैर मैं एक के घंटे के अंदर लखनऊ की ओर निकल लिया। गंगा पुल पर गाड़ियों का जाम लगा था। लिहाज़ा डाइवर ने गाड़ी रोक दी। पर रुकी कार के अंदर भी हिलने डुलने का अहसास हुआ। घर पर रहते हुए तो भूकंप के झटके तो पहले भी महसूस कर चुका हूँ पर यूँ सफ़र में और वो भी पुल पर... ड्राइवर से पूछा कि भई माज़रा क्या है? बताया गया कि ये पुल तो गाड़ियों के वज़न से यूँ ही हिलता डुलता है। खैर ज्यादा देर तक हिलना डुलना नहीं पड़ा और करीब बारह बजे तक मैं लखनऊ पहुँच गया।

कंचन ने बताया था कि अगले दिन यानि दस फरवरी को गौतम राजरिशी साहब भी लखनऊ तशरीफ़ ला रहे हैं। पर उनके साथ मिलने का कार्यक्रम वहाँ पहुँच कर बातचीत के बाद तय होना था। पर लखनऊ की धरती पर पहुँचते ही मेरे मोबाइल की हृदय गति मंद पड़ गई। सिगनल कुछ सेकेंड के लिए आकर घंटों गायब हो जाता। चार बजे दूसरे मोबाइल से कंचन से संपर्क हो पाया। पता चला कि गौतम अगले दिन ग्यारह बजे स्टेशन पर पधार रहे हैं। मेरे पास उनसे मिलने के लिए तीन घंटे का ही समय पास था क्यूँकि अगले दिन तीन बजे लखनऊ से पटना निकलना था।

रात को शादी और अगली सुबह विदाई निपटाकर कर अगली सुबह मैं स्टेशन जाने को तैयार हो गया। कंचन ने कहा कि वो स्टेशन साढ़े दस तक पहुँच जाएँगी। मुझे भी वहाँ ग्यारह बजे तक आने का आदेश मिला। दस पचास पर मैं जब स्टेशन पहुँचा तो देखा ना हमारी 'होस्ट' का पता है और ना ही उस गाड़ी का जो तथाकथित रूप से मात्र दस मिनट में आने वाली थी। पता चला कंचन जी अपने कुनबे के साथ स्टेशन से अभी भी तीन चार किमी की दूरी पर हैं। पूछताछ के कांउटर पर जैसे ही मैंने पूछा कि दिल्ली से आने वाली शताब्दी की प्लेटफार्म एनाउंसमेंट क्यूँ नहीं हो रही, काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने आँखें तरेरते हुए कहा कि भई आप भी अज़ीब बात करते हैं। गाड़ी के आने का समय बारह के बाद है तो अभी से क्या उद्घोषणा करें। करीब पन्द्रह बीस मिनट बाद कंचन जी के दर्शन हुए तो हमने सवाल दागा कि भई ये किस साजिश के तहत मुझे गुमराह किया गया? जवाब मिला कि ये टाइमिंग तो वीर जी ने ही बताई थी। मैंने मन ही मन सोचा ओह तो इस साजिश में 'वीर जी' भी शामिल हैं :)।


अगले डेढ़ घंटे का समय कंचन, अवधेश व विज़ू से बात चीत करते बीता। इन लोगों से मेरी ये दूसरी मुलाकात थी। बीच बीच में गौतम को फोन कर उनकी गाड़ी की स्थिति की जानकारी भी ली जा रही थी। गौतम के बारे में ब्लॉग के आलावा कंचन से ही सुना था। जानने की उत्सुकता थी कि सेना में काम करने का जज़्बा और साथ ही ग़ज़ल कहने का शौक उन्हें एक साथ कैसे हो गया? यह रहस्य उस दिन तो नहीं पर एक हफ्ते बाद खुला। फोन पर पहली बातचीत में यही कहा कि दर्शनार्थियों की भीड़ स्टेशन पर आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रही है जल्द ही ट्रेन को अपने कमांड में लेकर लखनऊ पहुँचे। पर भारतीय रेल पर किसका बस चला है? स्टेशन पर रेल के लगते लगते बारह चालीस हो गए। गौतम को वहाँ से लखनऊ कैंट में अपने मित्र के यहाँ जाना था। अब बस हमारे पास इतना ही समय था कि गाड़ी में साथ साथ कैंट तक जाएँ और फिर वहाँ से विदा ले लें।

किया भी यही। थोड़ी बहुत बातें हुईं। घर जाकर जल्दी जल्दी चाय पी गई, आनन-फानन में फोटो खींचे गए और मैंने कंचन और गौतम से विदा ली। इसी दौरान ये पता चला कि तीन चार दिन बाद गौतम भी पटना आ रहे हैं और वहाँ मुलाकात का फिर से कार्यक्रम बनाया जा सकता है। संयोग से वो कार्यक्रम बना भी और हमने करीब तीन चार घंटे साथ बिताए। क्या किया हमने उन तीन चार घंटों में ये जानिएगा अगली पोस्ट में...




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शुक्रवार, अप्रैल 16, 2010

आइए भ्रमण करें संवेदना के संसार में : एक मुलाकात रंजना जी के साथ!

बात पिछली चौदह जनवरी यानि तीन महिने पहले की है। दोपहर का समय रहा होगा कि अचानक ही मोबाइल की घंटी घनघना उठी। नंबर जाना हुआ ना था सो मैंने सोचा जरूर किसी साथी चिट्ठाकार का ही फोन होगा जिसने जन्मदिन की मुबारकबाद देने के लिए फोन किया हो। फोन कनेक्ट हुआ तो उधर से एक महिला स्वर उभरा कि मनीष जी कैसे हैं?

अक्सर ऐसी कॉल्स में (जहाँ आप जानते हों कि सामनेवाला है तो जान पहचान का पर पकड़ में नहीं आ रहा) बातों का रुख ऐसा रखना पड़ता है हाँ ठीक हूँ, आप कैसी हैं और कैसा चल रहा है सब कुछ वैगेरह वैगेरह। बातों के इन आवरण में आवाज़ के लहज़े पर ध्यान देते हुए याददाश्त की गाड़ी फुल स्पीड पर दौड़ानी होती है ताकि जब तक बंदा हमारा हाल भाँपते हुए पूछे कि पहचान रहे हो या यूँ ही गपिया रहे हो तब तक हम सही जवाब के साथ तैयार हो जाएँ। पहचानने में पहली दिक्कत ये थी कि सामने वाला हमें बर्थडे विश भी नहीं कर रहा था। दूसरी विकट समस्या ये थी कि गर कहीं गलती से अंतरजालीय जान पहचान वाली दूसरी मित्रों का नाम मुँह से निकला तो सामनेवाले से खिंचाई की पूरी गारंटी है

पर एक मिनट की बात के पहले ही मैं समझ चुका था कि हो ना हो ये संवेदना संसार वाली रंजना जी हैं। दरअसल वो अपने बिजनेस के सिलसिले में राँची और वो भी हमारे कार्यालय के समीप आने वाली थीं और इसी की सूचना देने के लिए उन्होंने मुझे फोन किया था। इससे पहले रंजना जी से मेरी मुलाकात राँची ब्लॉगर मीट के दौरान हुई थी। मीट के बाद सारे पत्रकार तो चले गये थे पर बाकी सारे लोगों ने कॉवेरी में साथ बैठकर चाय पी थी। उस मीट में तो नहीं पर उसके बाद मुझे पता चला कि मेरे एक सहकर्मी रंजना जी को पारिवारिक रूप से जानते हैं और उनकी कंपनी सेल के राँची स्थित कुछ उपक्रमों का कम्प्यूटर मेंटेनेंस का काम देखती है।

उस दिन फोन पे बात के कुछ ही दिनों बाद मेरे कार्यालय में उनका अपने व्यवसाय के सिलसिले में आना हुआ। दो ढाई घंटे चली उस मुलाकात में बहुत सारी बातें हुईं। दरअसल अगर आप संवेदना संसार में रंजना जी को पढ़ेंगे तो आपके सामने उनकी परिमार्जित हिंदी लेखन शैली और अद्भुत तर्कशीलता देख कर टीचर प्रोफेसर टाइप वाली छवि उभरेगी। पर इसके विपरीत प्रकट में वो काफी मिलनसार और हँसमुख प्रवृति की महिला हैं।

बातचीत की शुरुआत हमने अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमियों के आदान प्रदान से की। रंजना जी ने बताया कि पिताजी की नौकरी ऐसी थी कि बचपन दूर दराज़ के इलाकों में बीता। धीरे धीरे पढ़ने लिखने में रुचि जगी। जो विषय उन्हें पसंद आता उसमें गहराई तक जाने में ही उन्हें संतोष मिलता। पर इसका नतीजा ये होता की परीक्षा में मन लायक प्रश्न आ जाता तो उसके उत्तर में रंजना जी इतनी कापियाँ भरती चली जातीं कि कई बार बाकी प्रश्नों के उत्तर छूट जाते। पर जितने प्रश्न भी उन्होंने किए होते उसी में परीक्षक इतना प्रसन्न हो जाता कि उन्हें कुल मिलाकर अच्छे मार्क्स ही मिलते।

पढ़ने लिखने के साथ रंजना जी को संगीत में भी काफी रुचि है और उन्होंने कई दिनों तक संगीत सीखा भी। मैंने भी अपने संगीत प्रेम से जुड़ी कई बातें साझा कीं। रंजना जी ने बताया कि लिखने पढ़ने के सिलसिले को बीच में जो विराम लगा वो अब ब्लॉगिंग की दुनिया में आने के बाद से फिर चालू हुआ है। उनसे बातें कर के मुझे लगा ब्लॉगिंग के बारे में मेरी और उनकी सोच एक सी है। बाद में मैंने उनके ब्लॉग पर भी इस सोच को प्रतिध्वनित पाया। ब्लागिंग में हुए अपने अनुभवों और इस माध्यम से अपनी अपेक्षाओं को रंजना जी समय समय पर अपने लेखों में शब्द देती रही हैं। अपनी ब्लागिंग के शुरुआती दौर में उन्होंने लिखा

यदि हम समकालीन हिन्दी ब्लोगिंग को देखेंगे तो परिणाम काफ़ी उत्साहजनक हैं.अब प्रतिक्रिया सांख्यिकी पर न जायें,अधिकांश लोग हैं जो केवल पढने में अभिरुचि रखते हैं,टिप्पणियां देने में नही.इस से रचना या रचनाकार विशेष का महत्व कम नही हो जाता.और पाठक बेवकूफ भी नही होता उसे ठीक पता है कि रचना और रचनाकार का बौद्धिक/साहित्यिक स्तर क्या है.और उसी अनुसार अपना पाठ्य चयन कर लेता है.कुछ ब्लाग/विषय सनसनीखेज सामग्रियां परोस उबलते पानी के बुलबुले से क्षणिक प्रसिद्धि भले पा जायें पर इससे सम्मानजनक स्तर नही पा सकते. दीर्घजीवी नही हो सकते......... मेरा मत है कि लेखन को सर्वोच्च दायित्व मानकर व्यक्ति समाज देश और दुनिया के लिए जो लिखेगा या लिखा जाता है,लेखन निसंदेह नैसर्गिक साहित्य ही है और रचनाकार साहित्यकार.बिना विवाद में फंसे अपने धर्म का सतत पालन ही हमारा कर्तव्य होना चाहिए,तभी हम आंशिक रूप से अपनी मातृभाषा के क़र्ज़ का एकांश मोल चुका पाएंगे.
वहीं फरवरी 2009 में हुई राँची ब्लॉगर मीट के अनुभव के बाद उन्होंने लिखा

आज ब्लाग अभिव्यक्ति को व्यक्तिगत डायरी के परिष्कृति परिवर्धित रूप में देखा जा रहा है, परन्तु यह डायरी के उस रूप में नही रह जाना चाहिए जिसमे सोने उठने खाने पीने या ऐसे ही महत्वहीन बातों को लिखा जाय और महत्वहीन बातों को जो पाठकों के लिए भी कूड़े कचड़े से अधिक न हो प्रकाशित किया जाय. इस अनुपम बहुमूल्य तकनीकी माध्यम का उपयोग यदि हम सृजनात्मक /रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए करें तो इसकी गरिमा निःसंदेह बनी रहेगी और कालांतर में गरिमामय महत्वपूर्ण स्थान पाकर ही रहेगी. केवल अपने पाठन हेतु निजी डायरी में हम चाहे जो भी लिख सकते हैं,परन्तु जब हम सामग्री को सार्वजानिक स्थल पर सर्वसुलभ कराते हैं, तो हमारा परम कर्तव्य बनता है कि वैयक्तिकता से बहुत ऊपर उठकर हम उन्ही बातों को प्रकाशित करें जिसमे सर्वजन हिताय या कम से कम अन्य को रुचने योग्य कुछ तो गंभीर भी हो.

रंजना जी के ईमानदार सरोकार आज की हिंदी ब्लॉगिंग के परिपेक्ष्य में कितने प्रासंगिक है ये सिर्फ ब्लॉगवाणी की सबसे ज्यादा पसंदीदा या पढ़े जाने वाली पोस्ट की फेरहिस्त को पढ़कर ही लगाया जा सकता है। आजकल लिखी जा रही सामग्री को देखकर उन्हें इस बात का अफ़सोस होता है उनके अपने शहर में उससे कही ज्यादा प्रतिभावान लेखक कंप्यूटर ना जानने की वज़ह से इस माध्यम तक नहीं आ पा रहे हैं। रंजना जी ऐसे लोगों के निःशुल्क कंप्यूटर प्रशिक्षण के बारे में गंभीरता से विचार कर रही हैं।

अपने चिट्ठे पर रंजना जी कहानियाँ भी लिखती हैं और कभी कभी कविताएँ भी। पौराणिक कथाओं से आध्यात्मिक चिंतन, गंभीर लेखन से नुकीले व्यंग्य बाण तक इनकी लेखनी से निकलते रहते है। मैंने उनसे उनकी शुद्ध पर थोड़ी क्लिष्ट हिंदी की शैली के बारे में पूछा तो रंजना जी का जवाब था कि हिंदी के इस रूप को आगे तक की पीढ़ियों तक पहुँचाने की जिम्मेवारी भी किसी को तो लेनी चाहिए और मैं वही करने का प्रयास कर रही हूँ।

रंजना जी के दो प्यारे बच्चे हैं। उनकी बेटी से हम सभी ब्लॉगर मीट के दौरान मिल चुके हैं। बेटे की तस्वीर तो उनके ब्लॉग पर मौजूद है ही। रही बात पतिदेव की तो उनके बारे में मेरे कुछ कहने से अच्छा ये रहेगा कि आप उनके बारे में उन्हीं की लिखी ये पंक्तियाँ पढ़ लें...




"नयनों में पलते स्वप्न तुम्ही,तुमसे ही आदि अंत मेरा.
जीवन पथ के संरक्षक तुम,निष्कंटक करते पंथ सदा .
तुमने जो ओज भरा मुझमे, दुष्कर ही नही कोई कर्म बचा.
जितने भी नेह के नाते हैं,तुममे हर रूप को है पाया.
आरम्भ तुम्ही अवसान भी तुम,प्रिय तुमसे है सौभाग्य मेरा..
"

तो ये था लेखा जोखा रंजना जी से मेरी मुलाकात का... अगली पोस्ट में लें चलेंगे आपको लखनऊ ये बताने के लिए किस तरह आपके इस नाचीज़ को दो साथी चिट्ठाकारों की आपसी मिलीभगत से परेशान किया गया !



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बुधवार, अप्रैल 07, 2010

'एक शाम मेरे नाम' ने पूरे किए अपने चार साल और दो लाख पेजलोड्स !

लगभग दस दिन पहले यानि २६ मार्च को एक शाम मेरे नाम के हिंदी संस्करण ने अपने चार साल पूरे कर लिये। साथ ही पिछले हफ्ते ही इस चिट्ठे के दो लाख पेजलोड्स भी पूरे हो गए।



अगर आप स्टैटकांउटर द्वारा दिए गए आंकड़ों पर ध्यान देंगे तो पाएँगे कि प्रथम दो सालों तक ब्लॉग पर हिट्स मिलने का सिलसिला बड़ी मंथर गति से हुआ था पर उत्तरोत्तर ये बढ़ता गया।


पिछले साल औसतन महिनावार हिट्स (Average Monthly Hits) 6500 रहीं यानि पिछले साल प्रतिदिन औसतन दो सौ से ज्यादा हिट्स इस ब्लॉग को मिलती रहीं। इस आँकड़े को आप नीचे के चार्ट में देख सकते हैं।


अब तक इस चिट्ठे पर चार सौ दस (410) पोस्ट लिखी गई हैं यानि प्रति पोस्ट 490 की औसत से पढ़ी गई हैं। पिछले साल ये आँकड़ा 350 पेजलोड्स प्रति पोस्ट था। इस ब्लॉग के हिंदी और रोमन हिंदी संस्करणों की सब्सक्राइबर संख्या में भी इज़ाफा हुआ है और ये संख्या पिछले साल के 450 से बढ़कर 825 तक जा पहुँची है।


वहीं रोमन हिंदी ब्लॉग Ek Shaam Mere Naam पर हिट्स की संख्या लगभग पहले जैसी ही है।

अपने अनुभवों से इतना कह सकता हूँ कि जैसे जैसे आप अपने विषय वस्तु यानि कान्टेंट में विस्तार करते जाते हैं, कुल पाठकों की संख्या में तो वृद्धि होती है पर उसमें एग्रगेटर से आनेवाले पाठकों का हिस्सा कम होता जाता है। इसलिए सनसनी या बिना मतलब के पचड़ों में पड़ने के बजाए अपने मन की बात कहें और पूरी मेहनत के साथ कहें। इस बात का भी अंदाजा लगाएँ कि पाठकों को हमारे लेखन का कौन सा अंदाज़ ज्यादा भाता है। इससे आपको अपने मजबूत पक्ष और कमियों का अंदाज़ा मिलेगा। सच पूछिए तो खुद एक परिपक्व ब्लॉग लेखक को इस बात की सबसे ज्यादा समझ होती है कि उसके द्वारा परोसी सामग्री कितनी बेहतर या बेकार है।

पिछले एक साल में पाठकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए 'एक शाम मेरे नाम' के स्वरूप में मैंने काफी बदलाव किए थे। ऊपर मेनू बार की जगह को गज़ल, मनभावन गीत, वार्षिक संगीतमाला, कविता, पुस्तक चर्चा, ब्लागिंग और अपनी बात के अलग अलग खंडों में बाँटना उसी का एक हिस्सा था। ग़जलों और मनभावन गीत मेन टैब क्लिक करने से आप सीधे उन पृष्ठों पर पहुँचते हैं जहाँ इस ब्लॉग पर पेश गीतों और ग़ज़लों की लिंकित सूची दी हुई है। हाँ, लाइफलॉगर के बंद हो जाने से पुराने पृष्ठों में कई जगह आडिओ फाइल गायब हो गई हैं। पिछले कुछ दिनों में मैंने ऐसी कई पोस्टों को दुरुस्त किया है, पर इस कार्य को पूर्ण होने में अभी और समय लगेगा। वेसे पाठकों से गुजारिश है कि जब भी ऐसी कोई पोस्ट सामने आए, उसकी तरफ मेरा ध्यान दिलाएँ।

हिंदी फिल्म संगीत से जुड़े अपने खास पसंदीदा कलाकार या शायर से जुड़े लेखों तक पहुँचने के लिए ग़जल और गीत के मुख्य मेनू बार में सब मेनू दिए गए हैं। मसलन अगर आप सिर्फ गुलज़ार से जुड़ी पोस्ट देखना चाहते हैं तो टैग क्लाउड में ढूँढने के बजाए सीधे मनभावन गीत -- गीतकार -- गुलज़ार पर क्लिक कर सकते हैं।

कभी कभी 'मुसाफ़िर हूँ यारों' और 'एक शाम मेरे नाम' पर एक साथ निरंतरता बनाए रखना मुश्किल हो जाता है पर फिर आपका स्नेह व साथ मुझे बीच बीच में होती थकान से उबारता है। ब्लागिंग के इस नए साल में मेरा ये प्रयास होगा कि कुछ अच्छा आपके सामने लिख और परोस सकूँ। एक बार फिर इस चिट्ठे को इस मुकाम तक पहुँचाने के लिए आप सभी जाने अनजाने पाठकों का हार्दिक आभार!

सोमवार, मार्च 30, 2009

' एक शाम मेरे नाम' ने पूरे किए अपने तीन साल !

पिछले हफ्ते एक शाम मेरे नाम के हिंदी संस्करण ने अपने तीन साल पूरे कर लिये। वैसे जब ब्लागिंग के बारे में मुझे आज से चार साल पहले पता चला तब हिंदी का टंकण ज्ञान नहीं था पर ये विधा मुझे इतनी अच्छी लगी कि मैंने रोमन में ही हिंदी लिखकर अपना पहला ब्लॉग अप्रैल २००५ में बनाया । फिर साथियों द्वारा दिये तकनीकी ज्ञान से मार्च २००६ के आखिर में अपने इस हिंदी चिट्ठे की शुरुआत भी कर दी। हाँ ये जरूर है कि जितना रोमांच इस चिट्ठे की पहली वर्षगाँठ मनाने का था उतना उसके बाद नहीं रहा। शायद पहले के बाद दसवीं वर्षगांठ ही वो रोमांचक अनुभव रहे।



पिछले तीन सालों में जिन विषयों को मैंने अपने लेखन का विषय बनाया था, उनमें से एक सफ़रनामा अब मेरे नए यात्रा चिट्ठे मुसाफ़िर हूँ यारों पर चला गया है। विषय की एकरूपता को ध्यान में रखते हुए अब इस चिट्ठे पर सिर्फ गीत ग़ज़ल, कविताओं, किताबों की बातें ही हुआ करेंगी। अब तक के लेखन में मेरी ये कोशिश रही हे कि जिस विषय पर लिखूँ उसे इस तरह आपके सामने पेश करूँ जिससे उस विषय पर मेरे नज़रिए के आलावा कुछ नई जानकारी आप तक पहुँचे। इस में मैं कहाँ तक सफल हुआ हूँ ये तो आप ही बता सकते हैं। वैसे आंकड़ों की बात करूँ तो इस साल नई बात ये हुई कि इस जनवरी में इस चिट्ठे ने एक लाख पेजलोड्स का मुकाम पूरा किया । पिछले तीन सालों में इस चिट्ठे पर ३२० पोस्ट लिखी गई हैं और उन पर अब तक १११७६२ पेज लोड्स यानि प्रति पोस्ट ३५० की औसत से पढ़ी गई है।

ये आँकड़ा इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि ये हम चिट्ठाकारों को इंगित करता है कि एग्रीगेटर की नज़रों से गुजरने के बाद विषय वस्तु के आधार पर कितने लोग उस पोस्ट तक पहुँचे। इस चिट्ठे के चौथे साल में इस औसत को बरकरार रख पाया या इसमें वृद्धि कर पाया तो अपना प्रयास सार्थक समझूँगा।

पाठकों की सुविधा के लिए एक जगह लिंक सहित गीतों , ग़जलों, कविताओं की लिंकित सूची तो बना ही दी थी। अब इस क्रम में पुस्तकों, चिट्ठाकारी और अपने अन्य लेखों की सूची बनाने और पुरानी सूचियाँ अपडेट करने का काम चलता रहेगा। इस चिट्ठे को ई-मेल से प्राप्त करने वाले पाठकों मुझे मेल के द्वारा अपने सुझाव या प्रतिक्रियाएँ भेज सकते हैं। आशा है चौथे साल में भी आपका स्नेह और आशीर्वाद इस चिट्ठे के साथ बना रहेगा।

रविवार, मार्च 01, 2009

जब सेल (SAIL) ने मिलाया दो चिट्ठाकारों को : एक मुलाकात ' पारुल ' के साथ भाग - २

पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कैसे नेट पर पारुल जी से मेरा परिचय हुआ और सेल परिवार का सदस्य होना किस तरह हमारी मुलाकात का सबब बना। अब आगे पढ़ें...

...खाने के साथ बातें ब्लागिंग की ओर मुड़ गईं । कुमार साहब ने शायद मेरे आने से पहले मुसाफ़िर हूँ यारों की मेरी हाल की पोस्ट पढ़ी थी इसलिए पूछ बैठे कि क्या मेरा घर सासाराम में है? मैंने कहा नहीं वो तो बचपन में वहाँ कुछ दिन रहना हुआ था इसलिए वहाँ से जुड़ी यादों के बारे में लिखा था। पारुल जी ने इसी बीच मुझे सूचना दी कि प्रत्यक्षा जी से उनकी बात हुई है और उन्होंने मुझे 'हैलो' कहा है। प्रत्यक्षा जी के उत्कृष्ट लेखन की बात चली। हाल ही में उनकी एक कहानी 'आहा जिंदगी' में नज़र आई तो काफी अच्छा लगा। मुझे झारखंड की मिट्टी से जुड़े उनके सजीव शब्दचित्र याद आ गए जिसमें यहाँ की बोली और संस्कृति को उन्होंने बखूबी उतारा था।
बात लेखकों की हो रही थी तो ये प्रश्न आया कि बतौर पाठक हम किसी लेखक की कृति में उसके जीवन को क्यूँ ढूँढते हैं ? क्या ये सही नहीं कि किसी लेखक की सबसे अच्छी कृतियाँ कहीं ना कहीं उसके अपने अनुभवों से निकली होती हैं। इस संदर्भ में मैंने अहमद फराज़ की ग़ज़ल रंजिश ही सही.. का हवाला दिया और उसके पीछे फ़राज़ की प्रेरणा की कथा सुनाई।

फिर बातें गुलज़ार, मुक्त छंद की कविताओं और हिंदी किताबों से होती हुईं गाँधीजी पर लिखी गई हाल की प्रविष्टियों तक जा पहुँची। कुमार साहब खुद तो ब्लागिंग के लिए समय नहीं निकाल पाते पर ब्लॉग्स नियमित रूप से पढ़ते हैं। भगवान ऐसी पुण्यात्माओं की संख्या में सतत वृद्धि करे! :)
गाँधीजी के बारे में हम दोनों के विचारों में एकरूपता थी। उनके व्यक्तित्व में अच्छाइयों के साथ कमियाँ भी थीं पर देश के लिए उनके निजी जीवन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण उनका सामाजिक और राजनीतिक जीवन रहा। इस संबंध में Freedom at Midnight का जिक्र हुआ जो कुमार साहब और मेरी बेहद प्रिय पुस्तक रही है और जिसने गाँधी के बारे में हमारी धारणाओं को एक नई दिशा दी है।

बात चिट्ठाकारों की होने लगीं। अफ़लातून की बोकारा यात्रा की बात हुई और कुमार साहब ने उन्हें अपनी राजनीतिक विचारधारा के प्रति समर्पित पाया। मैंने भी उन्हें बताया कि कैसे सपरिवार बनारस में उनके घर पर धावा बोला था। दरअसल चिट्ठाकारों की आभासी दुनिया कई बार वास्तविक जिंदगी से मिल जाती है और हाल ही में इससे जुड़ा एक मज़ेदार किस्सा हाथ लगा जो मैंने वहाँ शेयर किया। सोचा इस प्रकरण से पैदा हुए हल्के फुल्के क्षणों को आपसे भी बाँटता चलूँ :)
अब कुछ दिन पहले शुकुल जी नैनीताल ट्रेनिंग पर गए थे। उनके ट्रेनिंग प्रोग्राम के एक फैकलटी जो कविता शायरी में दिलचस्पी रखते हैं को मेरे किसी लेख की लिंक मिली। उन्हें उत्सुकता हुई कि ये कौन सी विधा है जिसमें लोग अपने आप को इस तरह व्यक्त कर रहे हैं। उन्हें बताया गया कि ये ब्लागिंग है श्रीमान। तुरंत उनका माथा ठनका बोले अरे तब तो ये बड़ी खतरनाक चीज है भाई हमारी क्लास में भी एक 'अनूप शुक्ल' था। दिन में कक्षा में उँघता था और सुना है रात में यही ब्लागिंग वागिंग किया करता था।:)

पारुल जी ने कहा कि उनके रिजर्व रहने वाले स्वाभाव को ब्लॉगिंग ने बहुत हद तक बदला है। उनका मानना है कि अब वो पहले से अधिक बात करने लगीं हैं। पारुल ने बात आगे बढ़ाई तो फौलोवर्स की प्रकृति, टिप्पणी के प्रकार, चिट्ठाकारों का वर्गीकरण, तथाकथित आत्ममुग्ध लोगों की जमात, ई-मेल में आते अनचाहे संदेशों की परेशानी, मूल पोस्ट से बिलकुल मेल ना खाती टिप्पणियाँ तरह तरह के मुद्दे गपशप का हिस्सा बनते गए। हम दोनों इस बात पर एक मत थे कि विवादों से दूर रहकर अगर हम अपनी रचनात्मकता को बनाए रखने में पूरा ध्यान लगाएँ, तो वही सही मायने में व्यक्तिगत तौर पर और सारे हिंदी चिट्ठाजगत के लिए बेहतर रहेगा। कुमार साहब इस दौरान शांति से हमारी बातचीत सुनते रहे।

बात फिर संगीत की ओर बढ़ी तो उन्होंने बताया कि डा.मृदुल कीर्ति के लिए हाल ही में जाकर उन्होंने कानपुर में पतांजलियोग के काव्यानुवाद की रिकार्डिंग की है। सुन कर बड़ी खुशी हुई। आशा है डा.कीर्ति जल्द ही इसे बड़े पैमाने पर रिलीज भी करेंगी। वैसे पारुल जी की अद्भुत गायन प्रतिभा से तो हम सभी शुरुआत से ही क़ायल हैं और अगर इस पोस्ट को पढ़ने वालो् में से कोई उनकी आवाज़ से अपरिचित है तो उनके लिए राँची की ब्लागर मीट में गाया एक छोटा सा टुकड़ा पेश है।


अगर आप ये समझ बैठे हों कि पारुल के पूरे परिवार की गीत संगीत से रुचि है तो आपने विल्कुल सही समझा है :) कुमार साहब भी गाने में अभिरुचि रखते हैं और बच्चे भी गाना सुनने में अभी से रुचि लेने लगे हैं। कहते हैं कि अगर लंबी ड्राइव पर जाना हो और ये युगल जोड़ी पीछे बैठी हो तो फिर म्यूजिक सिस्टम की जरूरत नहीं। पूरे रास्ते ये नान स्टॉप अपने गायन से आपका मनोरंजन करते रहेंगे। अब उस रात तो गपशप में ही इतना समय निकल गया कि मैं इस जोड़ी से कोई गीत नहीं सुन सका। वैसे भी रात के बारह बज चुके थे। कुमार जी को रात दो बजे अपने संयंत्र का एक चक्कर लगाना था और बीच बीच में वो फोन लगाकर कार्यस्थल में हो रही गतिविधियों की जानकारी ले रहे थे। सो मध्य रात्रि के आस पास मैं वापस अपने गेस्ट हाउस की ओर रवाना हो गया।

जब मैं रात सवा बारह बजे बोकारो निवास पहुँचा तो सारे गेट बंद हो चुके थे। ड्यूटी पर तैनात पहरेदार हमारे भद्र पुरुष होने पर शंका प्रकट करने लगा। अब हम कैसे बताते कि सेल के कर्मचारी होने के साथ हम ब्लॉगर भी हैं और अभी अपने दायित्वों का निर्वाह कर लौटे हैं। अंततः कुमार साहब की सिफारिश के बाद मुझे अंदर घुसने की इज़ाजत मिली और फिर मुलाकात का वादा ले कर हम विदा हुए ।



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शनिवार, फ़रवरी 28, 2009

जब सेल (SAIL) ने मिलाया दो चिट्ठाकारों को : एक मुलाकात ' पारुल ' के साथ भाग - १

हिंदी चिट्ठा जगत की दुनिया में जब भी किसी चिट्ठाकार से मिला हूँ, अपने संस्मरणों को आपके साथ साझा किया है। इसी कड़ी में आज की ये पोस्ट समर्पित है साथी चिट्ठाकार कवयित्री ,गायिका और गुलज़ार प्रेमी पारुल जी और उनके श्रीमान और हमारे सहकर्मी कुमार साहब को।

पारुल जी से मेरी आभासी जान पहचान सोशल नेटवर्किंग साइट आरकुट (Orkut) के माध्यम से हुई थी। दरअसल वहाँ गुलज़ार प्रेमियों के फोरम में बारहा जाना होता था और वहीं पारुल की बेहतरीन गुलजारिश कविताएँ पहली बार पढ़ने को मिलती रहतीं थीं। कुछ महिनों बाद मन हुआ कि देखें कि आरकुट पर मेरी प्रिय लेखिका आशापूर्णा देवी के प्रशंसकों की क्या फेरहिस्त है। संयोग था कि इस बार पहले पृष्ठ पर पारुल की प्रोफाइल आई और एक नई बात ये पता चली कि फिलहाल वो झारखंड में रहती हैं। उनके बारे में उत्सुकता बढ़ी, फिर कुछ स्क्रैपों का आदान प्रदान हुआ और इन्होंने मुझे अपनी मित्र सूची में शामिल कर लिया। तब 'परिचर्चा' के काव्य मंच का भार मेरे कंधों पर था और हमारी कोशिश थी कि अधिक से अधिक हिंदी में लिखने वाले स्तरीय कवियों को उस मंच से जोड़ें। पारुल को भी वहाँ आने का आमंत्रण दिया पर शायद समयाभाव के कारण वो वहाँ भाग नहीं ले सकीं। ये बात २००६ के उतरार्ध की थी उसके बाद उनसे कुछ खास संपर्क नहीं रहा। पर अगस्त २००७ में जब उन्होंने अपना चिट्ठा शुरु किया तब जाकर उनसे पहली बार नेट पर बात हुई ।

जैसे ही उन्होंने अपने शहर का नाम बोकारो बताया तो मुझे लगा कि कहीं इनके पतिदेव मेरी तरह सेल (SAIL) के कार्मिक तो नहीं। मेरा अनुमान सही निकला और खुशी हुई कि तब तो जरूर कभी ना कभी उनसे मिलना हो पाएगा क्योंकि कार्यालय के दौरों पर अक्सर मुझे अपने इस्पात संयंत्रों का दौरा करना पड़ता है। पर पिछले साल बोकारो के दौरे कम ही लगे और जब लगे भी तो एक ही दिन में वापस भी आ जाना था। इसलिए भेंट करने का मौका हाथ नहीं आया।. पर इस साल फरवरी के प्रारंभ में तीन दिनों के लिए बोकारो जाने का कार्यक्रम बना तो लगा कि इस बार उनसे मुलाकात की जा सकती है। पारुल जी को पहले ही दिन जाकर सूचना दे दी कि मैं बोकारो में आ गया हूँ। अब दिक्कत ये थी कि मेरा काम हर दिन छः बजे शाम को खत्म होता था और उसी वक़्त से उनकी आर्ट आफ लीविंग (Art of Living) की कक्षाएँ शुरु होती थीं।

अगली सुबह जब कार्यालय की ओर निकल रहा था तो उनका फोन आया। पारुल जी ने पूछा रात में आने में तकलीफ़ तो नहीं है ? मैंने मन ही मन सोचा हमारे जैसे गप्पियों को काहे की तकलीफ, जिनको होनी है वो तो मिलने के बाद समझ ही जाएँगी :)। प्रकट में मैंने कहा कि ना जी ना कॉलेज के ज़माने से निशाचरी रहे हैं और अब तो मुई इस ब्लॉगिंग की वज़ह से हर रात ही अपनी सुबह होती है और असली सुबह के दर्शन तो कभी कभार होते हैं।

रात के नौ बजे पारुल जी के पतिदेव कार लेकर बोकारो निवास के पास हाज़िर थे। साथ में पारुल जी का मासूम सा छोटा बेटा भी था। पारुल जी का घर कार से बस मिनटों के रास्ते पर था। घर के सामने की छोटी सी खूबसूरत बगिया पार कर हम घर में घुसे और बातों का सिलसिला शुरु हो गया। वैसे भी मंदी के इस ज़माने में जब भी किसी प्लांट वाले से मिलते हैं तो पहला सवाल उत्पादन और विक्रय आदेशों के आज के हालात के बारे में जरूर होता है। मैंने कुमार साहब से कहा कि एक ब्लॉगर ने ये खबर पेश की है सेल वाले अपनी गोल्डन जुबली के दौरान अपने कर्मचारियों को एक टन सोना दे रहे हैं और देखिए तुरंत वहाँ टिप्पणी भी आ गई कि देखो ये लोग मंदी के ज़माने में क्या चाँदी काट रहे हैं। अब उन्हें क्या पता सेल के इस विशाल परिवार में ये प्रति कर्मचारी ८ ग्राम के बराबर होती है। वैसे अभी तक हमने उस का भी मुँह नहीं देखा।

बातचीत अभी दस मिनट हुई थी कि पारुल ने कहा कि पहले भोजन कर लेते हैं हम सब ने तुरंत चाउमिन और पनीर चिली पर हाथ साफ किया। अब ब्लॉगरी मन का क्या कहें, इधर नए नए पिता बने यूनुस ने कुछ दिनों पहले आभा जी की तहरी का भोग लगाने के पहले विभिन्न कोणों से तसवीर छपवा कर हम सब का जी जलाया था। खाने से पहले खयाल आया लगे हाथ हम भी पारुल की चाउमिन का बोर्ड लगाकर तसवीर छाप देते हैं फिर वो समझेंगे कि ऍसा करने से दूसरों पर क्या बीतती है। पर पारुल जी ठहरी संकोची प्राणी। पहले से ही चेता रखा था कि कैमरे का प्रयोग मत करना तो हम यूनुस से बदला लेने की आस मन में ही दबा के रह गए।



पुनःश्च इस पोस्ट में चाउमिन वाली बात पर पारुल जी ने प्रतिक्रिया स्वरूप ये चित्र भेजा है । देखें और आनंद लें




खाने के साथ बातें ब्लागिंग की ओर मुड़ गईं । अगले दो तीन घंटे हमने चिट्ठाजगत से जुड़े लोगों के बारे में गपशप में बिताये। किसके बारे में क्या बातें हुईं ये पढ़िए यहाँ इस अगले भाग में....

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गुरुवार, फ़रवरी 26, 2009

राँची ब्लागर्स मीट 22 फरवरी 2009 : जो देखा, जो कहा-सुना और जो महसूस किया..

पिछले एक हफ़्ते से घर परिवार में शादी के समारोह की वज़ह से राँची के बाहर रहा। बीच में एक दिन कोलकाता से राँची हिंदी ब्लॉगर मीट (Ranchi Hindi Blogger's Meet) में भाग लेने आया और उसी दिन शाम को फिर पटना रवाना होना पड़ा। आज वापस आया और प्रतिभागियों की रपट पढ़ी। कुछ सकरात्मक, कुछ व्यंग्यात्मक तो कुछ नकरात्मक! सच कहूँ तो अपनी अनुभूतियों को इन सबके बीच पा रहा हूँ।

शैलेश ने जब इस ब्लॉगर मीट का सुझाव दिया था तो हमारे मन में यही था कि सारे ब्लॉगर बंधु मिलकर ही इसका प्रायोजन करेंगे। पर शैलेश का ख्याल था कि प्रायोजक मिलने से कार्यक्रम के संचालन में सुविधा होगी तो क्यूँ ना इस बारे में कुछ प्रयास कर के देखा जाए। फिर अपने परिश्रमी व्यक्तित्व के अनुरूप उसने सभी प्रतिभागियों से ई -मेल से संपर्क किया और डा. भारती कश्यप जी ने आगे आकर आयोजन का जिम्मा लिया।


आयोजन की सबसे बड़ी सफलता राँची और इसके आस पास की जगहों से आए ब्लॉगरों का मिल पाना था। कम से कम पिछले एक साल में जो पत्रकार बंधु और अन्य लोग चिट्ठाकारी से जुड़े हैं उनसे मिलने के लिए हमें एक बढ़िया मंच मिला जिसके लिए शैलेश और भारती जी के हम सभी आभारी हैं।

इस कार्यक्रम की रूपरेखा को बनाने के पहले शैलेश, मीत और मैंने मिलकर जो विचार विमर्श किया था उसके तहत हम इस निर्णय पर पहुँचे थे कि कार्यक्रम के मूलतः तीन हिस्से रहेंगे

  1. पहले हिस्से में हिंदी टाइपिंग और ब्लॉगिंग से जुड़ी जानकारी उपलब्ध कराई जाएगी
  2. दूसरे हिस्से में हिंदी ब्लॉगिंग के विकास से जुड़े घटनाक्रमों के साथ हिंदी ब्लागिंग के मजबूत सामूहिक खंभों की बात की जाएगी।
  3. और फिर समय के हिसाब से सारे ब्लॉगर ब्लागिंग से जुड़े अपने अनुभव साझा करेंगे और फिर मुख्य अतिथियों से उनके विचार सुने जाएँगे।

पहले हिस्से का बीड़ा शैलेश के कंधों पर था और उन्होंने ये बखूबी उठाया। उन्होंने अपनी बात यूनीकोड से शुरु की और फिर हिंदी टाइपिग के औज़ारों से बारे में विस्तार से बताया जो निश्चय ही उपस्थित प्रतिभागियों के लिए उपयोगी रही होगी। शैलेश हिंदी में ब्लॉग बनाने का डेमो भी दिखाने वाले थे पर समयाभाव की वज़ह से उन्हें अपना प्रेजेन्टेशन बीच में ही रोकना पड़ा।

दूसरे हिस्से के बारे में शिव जी को बोलना है ऍसा शैलेश और मीत ने बताया था पर शिव जी ही को इसके बारे में अनिभिज्ञता थी तो वो जिम्मा घनश्याम जी ने मुझे सौंपा। दरअसल हिंदी ब्लागिंग की नींव साझा प्रयासों की बुनियाद पर पड़ी है और इसीलिए मैंने जीतू भाई, अनूप शुक्ल और अन्य साथियों के अथक प्रयासों का जिक्र किया जिसकी वज़ह से नारद जैसा एग्रगेटर बना। हिंदी चिट्ठों को एकसूत्र में पिरोने वाले एग्रग्रेटरों की इस परंपरा को आगे चलकर ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत ने और परिष्कृत और संशोधित ढंग से बढ़ाया। पत्रकारों को चिट्ठाकारी की ओर उन्मुख करने में अविनाश और उनके सामूहिक चिट्ठे मोहल्ला का ज़िक्र भी हुआ।



हिंदी ब्लागिंग में नए प्रवेशार्थियों से मैंने लेखन में विषय वस्तु पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की बात कही। एग्रगेटर से जुड़ना ब्लागिंग के शुरुआती दौर में आपकी पहचान बढ़ाता है और शुरुआती ट्रॉफिक भी लाता है पर इस संख्या मे अधिकाधिक बढ़ोत्री सर्च इंजन से पहुँचने वाले पाठक ही ला सकते हैं। इसलिए एक सफल ब्लॉग लेखक का काम अपनी प्रभावी विषयवस्तु के बल पर इन पाठकों का ध्यान आकर्षित करना है। इसी संदर्भ में हिट काउंटर और ई-मेल सब्सक्रिप्शन जैसे टूल्स के महत्त्व के बारे में भी मैंने विस्तार से चर्चा की।

इसी बीच घनश्याम जी ने भी अपने अनुभवों को हम सब से साझा किया। उन्होंने बताया कि हरिवंश जी पर लिखे लेखों को चिट्ठे पर प्रकाशित करने के बाद खुद हरिवंश जी ने उन्हें फोन किया और उन्हें पत्रकारिता से जुड़ी अन्य हस्तियों के बारे में लिखने के लिए प्रेरित किया। भोजनकाल के दौरान कई ऐसे लोगों से मुलाकात हुई जो हिंदी में चिट्ठा बनाने में उत्सुक थे। इस दौरान राजीव उर्फ भूतनाथ जी को भी मैंने खोज निकाला और उनका सभी से परिचय कराया। राँचीहल्ला से जुड़े नदीम अख्तर और मोनिका गुप्ता से भी भोजन के दौरान परिचय हुआ।



भोजन के पश्चात राँचीहल्ला के संचालक और पत्रकार नदीम अख्तर ने सामूहिक ब्लॉग की विस्तृत संभावनाओं पर चर्चा की। संगीता पुरी ने अपने चिट्ठे के माध्यम से ज्योतिष को विज्ञान के करीब लाने की बात कही। रंजना सिंह ने कहा कि अगर हिंदी में विविध विषयों पर सुरुचिपूर्ण लेखन से अपनी भावी पीढ़ी को हम कुछ दे पाए तो ये एक बड़ी बात होगी। फिर प्रभात गोपाल झा, अभिषेक मिश्र और लवली कुमारी ने अपने चिट्ठों के बारे में हमें बताया। घड़ी की सुइयाँ दो से आगे की ओर खिसक रही थीं और कार्यक्रम में कुछ सरसता की कमी महसूस हो ही रही थी कि श्यामल सुमन ने अपनी एक बेहतरीन ग़ज़ल पेश की जिसे सुनकर सब वाह-वाह कर उठे। कुछ शेरों की बानगी देखिए ...

दुख ही दुख जीवन का सच है, लोग कहते हैं यही।
दुख में भी सुख की झलक को, ढ़ूँढ़ना अच्छा लगा।।

हैं अधिक तन चूर थककर, खुशबू से तर कुछ बदन।
इत्र से बेहतर पसीना, सूँघना अच्छा लगा।।


कब हमारे, चाँदनी के बीच बदली आ गयी।
कुछ पलों तक चाँद का भी, रूठना अच्छा लगा।।

फिर आई पारुल की बारी और हम सब की फरमाइश पर उन्होंने अपनी चिरपरिचित खूबसूरत आवाज़ में पहले एक ग़ज़ल और फिर एक गीत गाकर सुनाया। उनका गाया गीत तो मैं अगली पोस्ट में सुनवाउँगा पर मीत जी ने इस अवसर पर जो ग़ज़ल पेश की वो पेश-ए-खिदमत है.



क़ायदे से सम्मानित अतिथियों को ब्लॉगरों की बातें सुनने के बाद ब्लागिंग के बारे में अपनी सोच ज़ाहिर करनी चाहिए थी पर हुआ इसका उल्टा। कार्यक्रम की शुरुआत राँची के वरिष्ठ पत्रकार एवम मुख्य अतिथि बलबीर दत्त (जो राँची एक्सप्रेस के प्रधान संपादक हैं) ने करते हुए चिट्ठे को डॉयरी लेखन की परंपरा को आगे बढ़ाने वाला बताया और ये भी कहा कि यहाँ वो बात भी की जा सकती है जो पेशेगत प्रतिबद्धताओं की वज़ह से नहीं की जा सकती। खैर यहाँ तक तो ठीक रहा लेकिन जब दैनिक आज के संपादक ने चिट्ठाकारी को संपादक के नाम पत्र का अंतरजालीय एक्सटेंशन बताया तो बात बिल्कुल हजम नहीं हुई। अगर भिन्न भिन्न विषयों पर लिखने बाले चिट्ठाकारों की बातों को सुनने में इन लोगों ने कुछ समय और लगाया गया होता तो ब्लागिंग के बारे में उनकी सोच का दायरा जरूर बढ़ता। ब्लागिंग मीट को राँची के सभी अखबारों प्रभात खबर, राँची एक्सप्रेस, हिदुस्तान, टाइम्स आफ इंडिया और टेलीग्राफ ने कवर किया पर शायद ही इनमें से कोई हिंदी ब्लागिंग की संभावनाओं, इसके विस्तार पर ढ़ंग से चर्चा कर सका। खैर चूंकि ये सम्मेलन अपने आप में हिंदी ब्लागिंग के प्रति पहली पहल है, हमें इन बिंदुओं से सीख लेते हुए आगे का मुकाम तय करना होगा।



(बाएँ से मैं यानि मनीष,शिव जी, रंजना जी व उनकी बेटी, शैलेश,संगीता पुरी जी,श्यामल सुमन और राजीव)

चाय की चुस्कियाँ लेने के बाद जब साँयकाल में हमने एक दूसरे से विदा ली तो इस बात का संतोष सब के चेहरे पर था कि इस अपनी तरह के पहले आयोजन की वज़ह से हम सब एक दूसरे से रूबरू हो पाए।



कार्यक्रम की आयोजिका डा. भारती कश्यप



प्रभात भाई की ताकीद थी कि मेरा हँसता मुस्कुराता फोटो जरूर होना चाहिए तो लीजिए हो गई आपकी ख्वाहिश पूरी :)


शैलेश और मीत

चाय तो खत्म हो गई पर बातें ज़ारी रहीं। शिव और रंजना जी


शुक्रवार, फ़रवरी 20, 2009

आइए चलें २२ फरवरी को राँची, पूर्वी भारत के हिंदी चिट्ठाकारों के सम्मेलन में शिरकत करने..

पिछले तीन वर्षों में चिट्ठाकारिता यानि ब्लागिंग की बदौलत मेरा राँची, बनारस, दिल्ली, मुंबई, लखनऊ और बोकारो में चिट्ठाकारों से मिलना जुलना होता रहा है। दो साल पहले जब दिल्ली में हिन्द युग्म के नियंत्रक शैलेश से पहली बार मुलाकात हुई थी तो ये बात हुई थी कि हिंदी चिट्ठाकारों के बीच ऍसी मुलाक़ात छोटे शहरों में भी होनी चाहिए। पर उस वक़्त राँची क्या झारखंड में हिंदी ब्लागिंग करने वाले साथी नहीं थे। जो यहाँ के थे भी वो झारखंड से निकल कर देश के अलग अलग हिस्सों में रहते हुए ब्लॉगिंग कर रहे थे, इसलिए यहाँ कोई ब्लॉगर मीट कराने की सोचना दूर की कौड़ी थी।
पिछले एक डेढ़ वर्ष में स्थिति बदली जरूर है। देश के इस पूर्वी इलाके में बिहार, झारखंड से लेकर बंगाल तक ऍसे हिंदी ब्लॉगरों की संख्या में इज़ाफ़ा आया है जिन्होंने हिंदी ब्लॉग जगत में सकारात्मक उपस्थिति दर्ज कराई है। आज जहाँ शिव कुमार मिश्रा के व्यंग्यात्मक लेखन को चाव से पढ़ा जाता है तो वहीं बोकारो की संगीता पुरी ने गत्यात्मक ज्योतिष जैसा नया विषय चुनकर चिट्ठाकारिता के नए आयाम प्रस्तुत किए हैं। जमशेदपुर की रंजना सिंह साहित्यिक लेखन के साथ आध्यात्मिकता की बाते कर रही हैं तो लवली कंप्यूटर ज्ञान से लेकर भुजंग ज्ञान तक बाँट रही हैं। बोकारो की पारुल और कोलकाता के मीत जहाँ अपनी कविताओं के साथ पॉडकास्टिंग की विधा से अपनी सुरीली आवाज़ को आपके पास पहुँचा रहे हैं वहीं राँची के पत्रकारों ने भी अब राँची हल्ला के नाम से सामुदायिक चिट्ठा खोल दिया है जो हिंदी ब्लागिंग में रुचि रखने वालों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। और अंत में अपनी बात करूँ तो आपका ये नाचीज बंदा अच्छे संगीत और साहित्य को इस चिट्ठे के माध्यम से आप तक पहुँचाने के लिए पिछले तीन सालों से कटिबद्ध है और अब हिंदी ब्लागिंग में यात्रा लेखन को समर्पित नए चिट्ठे मुसाफ़िर हूँ यारों का आगाज़ कर चुका है।

इसलिए जब शैलेश ने २२ फरवरी राँची में इस क्षेत्र के सभी ब्लागरों की मीट (Hindi Blogger's Meet at Ranchi ) बुलाने की योजना का खुलासा किया तो मुझे बेहद खुशी हुई। भिन्न भिन्न तबकों और पेशों से जुड़े लोगों का एक जगह मिलना निश्चय ही हिंदी ब्लागिंग के प्रति आम जनों की रुचि को बढ़ाएगा। हम सभी एक मंच से ब्लागिंग के प्रति अपने रचनात्मक अनुभवों को साझा करने का प्रयास करेंगे। इस कार्यक्रम का संयोजन कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार घनश्याम श्रीवास्तव (09798765568) और कश्यप मेमोरियल आई हास्पिटल, राँची की निदेशिका डा. भारती कश्यप ने कार्यक्रम के आयोजन का जिम्मा लिया है। आशा है पूर्वी भारत में रहने वाले तमाम हिंदी ब्लॉगर इस मीट में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराकर इस आयोजन को सफल बनाएँगे। कार्यक्रम की रूपरेखा माननीय अतिथियों और प्रतिभागियों के बारे में आप यहाँ भी देख सकते हैं



स्थान : कश्यप आई मेमोरियल हॉस्पिटल , सभागार कक्ष, राँची
तिथि : 22.2.2009
समय : ग्यारह बजे से
यहाँ पहुँचने के लिए इस नक़्शे का प्रयोग करें...



तो कर दीजिए आने की तैयारियाँ शुरु राँची में आपका स्वागत है !

मंगलवार, जनवरी 20, 2009

'एक शाम मेरे नाम' ने पूरे किए एक लाख (100000) पेजलोड्स : आभार सभी पाठकों का !

पिछले हफ्ते एक शाम मेरे नाम ने अपने एक लाख (100000) पेज लोड्स पूरे किये। इस ब्लॉग के रोमन हिंदी संस्करण ने दिसंबर २००७ में जब ये मुकाम हासिल किया था तब मैंने रोमन हिंदी ब्लागिंग में अपने तजुर्बे को अपनी इस पोस्ट में आप सब के साथ बाँटा था। जब हिंदी ब्लागिंग शुरु की थी तो स्टैटकाउंटर (Statcounter) कॉनफिगर करते समय नहीं सोचा था कि कभी इसकी डिजिट संख्या को पाँच से छः करने की जरूरत पड़ सकती है। पर आज जब मैं ये होता देख रहा हूँ तो मन में एक संतोष का अनुभव हो रहा है।


अप्रैल 2006 में जब हिंदी ब्लागिंग शुरु की थी तब पहले नौ महिनों में ये संख्या ५००० के करीब थी में थी जैसा कि आप नीचे के ग्राफ से देख सकते हैं। विगत दो वर्षों में ये संख्या उत्तरोत्तर बढ़ी है और ऍसा संभव हुआ है हिंदी ब्लागिंग के विस्तार और सर्च इंजनों की उपलब्धता की वज़ह से।


जहाँ हिंदी चिट्ठे की पाठक संख्या में वृद्धि हुई है वहीं मेरा रोमन हिंदी चिट्ठा में पिछले दो सालों के आँकड़ों में कोई खास फर्क नहीं आया है। पर आज भी रोमन हिंदी संस्करण Ek Shaam Mere Naam को पढ़ने वालों की संख्या (१८६००० पेज लोड्स और १२५००० यूनिक विजिटर) इस चिट्ठे से कहीं ज्यादा है और वो भी तब जब कि इसके अधिकांश पाठक सर्च इंजन से ही वहाँ पहुँचते हैं। ये बात जरूर है कि दोनों चिट्ठों की पेजलोड्स संख्या के अंतर में निरंतर कमी आ रही है। इसकी वज़ह ये है कि अब लोग हिंदी के सर्च इंजनों का भी इस्तेमाल करने लगे हैं।

पर एक बात में हिंदी संस्करण अपने रोमन हिंदी संस्करण से आगे निकला है तो वो है सब्सक्राइबर संख्या। गौर करने की बात है कि मैंने हिंदी ब्लॉग पर ये सुविधा रोमन हिंदी संस्करण से काफी बाद में शुरु की थी। आज के दिन में हिंदी और रोमन संस्करण को मिलाकर करीब ४५० सब्सक्राइबर हैं जो कि एक एकल हिंदी चिट्ठे के लिए आपार हर्ष की बात है। पिछले साल मैंने इस चिट्ठे पर विषयों की एकरूपता बनाए रखने के लिए अपने यात्रा वृत्तांतों को मुसाफ़िर हूँ यारों पर प्रस्तुत करना शुरु कर दिया है जो आप में से कईयों के लिए सुविधाजनक रहा होगा।


पिछले तीन चार सालों से ब्लागिंग से जुड़ी मेरी प्रतिबद्धता इसीलिए रही है क्यूँकि इसने ना केवल मुझे अपनी रुचियों से जुड़े रहने का मौका दिया है बल्कि उन्हें अपने पाठको से (जिनका एक बड़ा हिस्सा ब्लागिंग जगत के बाहर से आता है) बाँटकर मैंने उनका स्नेह भी अर्जित किया है । आशा है कि आने वाले वर्षों में भी आप सभी ये स्नेह बनाए रखेंगे ताकि संगीत और साहित्य जो इस चिट्ठे के दो मजबूत आधार स्तंभ हैं के माध्यम से आपसे विचारों का आदान प्रदान चलता रहे।

 

मेरी पसंदीदा किताबें...

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Five Point Someone: What Not to Do at IIT
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Jharokhe
Mailaa Aanchal
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मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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