इस विषय पर मेरी राय प्रसून जी से मिलती जुलती है जिन्होंने कहा कि पारंपरिक भाषा में वैसे शब्द जिनकी उत्पत्ति दूसरे देशों में हुई है उन्हैं वैसे ही स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है। मिसाल के तौर पर ट्रेन, टेलीफोन, सिनेमा, क्रिकेट आदि शब्द हिंदी में ऐसे घुलमिल गए हैं कि उन्हें हिंदी शब्दकोश में अंगीकार करना ही श्रेयस्कर होगा पर इसका मतलब ये भी नहीं कि दूरभाष और चलचित्र का उपयोग ही बंद कर दिया जाए। नीलेश मिश्र ने ये तो कहा कि जहाँ तक सरल शब्द उपलब्ध हों वहाँ अंग्रेजी के शब्द की मिलावट बुरी भी नहीं है। उनके संपादित समाचार पत्र का नाम गाँव कनेक्शन है और रेडियो पर कहानी सुनाते समय उन्हें अवसाद जैसे शब्दों के लिए उन्हें डिप्रेशन कहना ज्यादा अच्छा लगता है।
हिंदी और आंचलिक भाषाएँ रोज़गार के अवसर तो अब प्रदान करती नहीं। दसवीं तक छात्र इन्हें पढ़ लेते हैं फिर तो इनका साबका अपनी भाषा से रेडिओ, टीवी व समाचार के माध्यमों से पड़ता है। अगर ये माध्यम भी भाषा की शुद्धता नहीं बरतेंगे तब तो किसी भी भाषा का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। मुझे आज भी याद है कि पिताजी हिंदी के सही वाचन के लिए मुझे आकाशवाणी और बीबीसी की हिंदी सेवा नियमित सुनने की हिदायत देते थे। हर भाषा की एक गरिमा होती है। ये सही है समय के साथ भाषा में अन्य भाषाओं से शब्द जुड़ते चले जाते हैं पर इसका मतलब ये नहीं कि उनका इस तरह प्रयोग हो कि वे भाषा के कलेवर को ही बदल दें। ना ऐसी मिलावट मुझे अंग्रेजी के लिए बर्दाश्त होगी ना हिंदी के लिए।
कुमार विश्वास ने कहा कि उनकी कविता में शुद्ध हिंदी भी रहती है और सामान्य प्रचलित हिंदी भी। यानि वो भाषा को उसके हर रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनका अनुभव है कि दोनों तरह की कविताओं को युवाओं से उतना ही प्रेम मिलता है। सच तो ये है कि हमें अच्छी हिंदी को इस तरह प्रचारित प्रसारित करना है कि वो पूरी जनता की आवाज़ बने ना कि उसे हिंग्लिश जैसा बाजारू बना दिया जाए कि जिसे पढ़ते भी शर्म आए।
हिंदों से जुड़े अन्य विषयों पर भी सार्थक चर्चा चली पर वातावरण को हल्का फुल्का बनाया प्रसून जोशी, कुमार विश्वास और नीलेश मिश्र की कविताओं ने। नीलेश मिश्र ने अपनी कविता में मिश्रित भाषा का प्रयोग किया है पर जो शब्द अंग्रेजी से उन्होंने लिए हैं वो कविता की रवानी को बढ़ाते हैं। मुझे तो प्रसून, नीलेश और कुमार विश्वास की अलग अलग अंदाज़ों में लिखी तीनों कविताएँ पसंद आयीं। आशा है आपको भी आएँगी..
प्रसून जोशी की कविता लक्ष्य
इस पल की गरिमा पर जिनका थोड़ा भी अधिकार नहीं है
इस क्षण की गोलाई देखो आसमान पर लुढ़क रही है,
नारंगी तरुणाई देखो दूर क्षितिज पर बिखर रही है.
पक्ष ढूँढते हैं वे जिनको जीवन ये स्वीकार नहीं हैं
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है
नाप-नाप के पीने वालों जीवन का अपमान न करना
पल-पल लेखा-जोखा वालों गणित पे यूँ अभिमान न करना
नपे-तुले वे ही हैं जिनकी बाहों में संसार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है
ज़िंदा डूबे-डूबे रहते मृत शरीर तैरा करते हैं
उथले-उथले छप-छप करते, गोताखोर सुखी रहते हैं
स्वप्न वही जो नींद उडा दे, वरना उसमे धार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है
कहाँ पहुँचने की जल्दी है नृत्य भरो इस खालीपन में
किसे दिखाना तुम ही हो बस गीत रचो इस घायल मन में
पी लो बरस रहा है अमृत ये सावन लाचार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है
कहीं तुम्हारी चिंताओं की गठरी पूँजी ना बन जाए
कहीं तुम्हारे माथे का बल शकल का हिस्सा न बन जाए
जिस मन में उत्सव होता है वहाँ कभी भी हार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है
नीलेश मिश्र की कविता 'बकवास परस्ती'
चल सड़क पे नोट लुटाते हैं
चल मोटे स्केच पेन से एक दिन हम चाँद पे पेड़ बनाते हैं
जो हँसना भूल गए उनको गुदगुदी जरा कराते हैं
चल लड़की छेड़ने वालों पे आज सीटी जरा बजाते हैं
इन बिगड़े अमीरजादों से चल भीख जरा मँगवाते हैं
पानी में दूध मिलाया क्यूँ चल भैंस से पूछ के आते हैं
नुक्कड़ पर ठेले वाले से चल मुफ्त समोसे खाते हैं
चल गीत बेतुके लिखते है और गीत बेसुरे गाते हैं
क्या करना अक्ल के पंडों का हमें ज्ञान कहाँ हथकंडों का
चल बेअक्ली फैलाते हैं चल बातें सस्ती करते हैं
चल बकवास परस्ती करते हैं, चल बकवास परस्ती करते हैं
चल तारों का 'बिजनेस' करके सूरज से 'रिच' हो जाते हैं
उस पैसे से मंगल ग्रह पे एक 'प्राइमरी' स्कूल चलाते हैं
चल रेल की पटरी पे लेटे हम ट्रेन की सीटी बजाते हैं
चल इनकम टैक्स के अफसर से क्यूँ है 'इनकम' कम कहते हैंचल किसी गरीब के बच्चे की सपनों की लंगोटी बुनते हैं
मुस्कान जरा फेंक आते हैं जहाँ गम हमेशा रहते हैं
चल डाल 'सुगर फ्री' की गोली मीठा पान बनाते हैं
जो हमको समझे समझदार उसका चेकअप कराते हैं
चल 'बोरिंग-बोरिंग' लोगों से बेमतलब मस्ती करते हैं
चल बकवास परस्ती करते हैं चल बकवास परस्ती करते हैं।
पुनःश्च : हिंदी के प्रमुख समाचार चैनल ABP News ने गत रविवार हिंदी दिवस के अवसर पर कई और कार्यक्रम किए जिनमें से एक का विषय था कि हिंदी माध्यम से पढ़ कर आपने क्या परेशानियाँ झेलीं और उनसे जूझते हुए कैसे अलग अलग क्षेत्रों में अपना मुकाम बनाया। इस श्रंखला में साथी ब्लॉगर प्रवीण पांडे के आलावा संतोष मिश्र, अमित मित्तल,निखिल सचान के साथ मुझे भी अपनी बात रखने का मौका मिला। ये मेरे लिए अपनी तरह का पहला अनुभव था। वैसे आधे घंटे से चली इस बातचीत को कैसे संपादक पाँच मिनट में उसके मूल तत्त्व को रखते हुए पेश करते हैं इस कला से मेरा पहली बार परिचय हुआ।
