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शनिवार, दिसंबर 01, 2018

किसी गाँव में इक हसीना थी कोई..वो सावन का भीगा महीना थी कोई Jagjit's journey as music director !

प्रेम गीत और अर्थ के बाद अस्सी और नब्बे के दशक में जगजीत सिंह को करीब दर्जन भर फिल्मों के संगीत निर्देशन का मौका मिला। इस सिलसिले में उनकी गीतकार गुलज़ार के साथ संगीत निर्देशित  फिल्म सितम का जिक्र तो मैंने इस श्रृंखला की पिछली कड़ी में किया ही था। इसके आलावा उन्होंने बिल्लू बादशाह, कानून की आवाज़, जिस्म का रिश्ता, आज, आशियाना, यादों का बाजार और खुदाई में संगीत दिया। मुझे भरोसा है कि एक दो को छोड़ शायद ही आप सबने इनमें किसी फिल्म का नाम सुना हो।

जगजीत सिंह कभी भी मुख्यधारा के संगीतकार नहीं रहे। अस्सी के दशक में ग़ज़ल गायिकी में उनका सितारा जिस बुलंदी पर था उसमें फिल्म संगीत पर ज्यादा ध्यान देना मुमकिन भी नहीं था। अगर इनमें महेश भट्ट द्वारा निर्देशित फिल्में आज और आशियाना को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो उन्होंने जिस तरह की फिल्में कीं उन्हें देख के तो यही लगता है कि ये काम तब पैसों के लिए कम बल्कि अपने मित्रों का मन रखने के लिए उन्होंने ज़्यादा किया।


इन गुमनाम सी फिल्मों में भी कुछ गीत अपना अगर छोटा सा भी मुकाम बना पाए तो उसमें ज्यादातर में उनकी आवाज़ का हाथ रहा। आज ऐसे ही चार अलग अलग गीतों का का जिक्र आपसे करूँगा जिसमें दो को ख़ुद जगजीत ने अपनी आवाज़ से सँवारा था। ये तो नहीं कहूँगा कि ये गीत हर दृष्टि से अलहदा थे पर हाँ इतना तो हक़ बनता ही था इनका कि ये संगीत के सुधी श्रोताओं तक पहुँचते।

फिल्म "आज" में उस दौर के युवा अभिनेता कुमार गौरव और राजकिरण की मुख्य भूमिकाएँ थीं। आज के बड़े सितारे अक्षय कुमार ने भी इसी फिल्म में एक छोटी सी भूमिका से अपनी फिल्मी पारी की शुरुआत की थी। जगजीत ने इस फिल्म अपनी पुरानी रचना वो क़ाग़ज की कश्ती के आलावा तीन गीत रचे जिनमें घनशाम वासवानी, विनोद सहगल और जुनैद अख्तर के सम्मिलित स्वर में गाई मदन पाल की ग़ज़ल ज़िंंदगी के बदलते रंगों की तस्वीर को कुछ यूँ पेश करती है।

ज़िंंदगी रोज़ नए रंग में ढल जाती है, 
कभी दुश्मन तो कभी दोस्त नज़र आती है

कभी छा जाए बरस जाए घटा बेमौसम 
कभी एक बूँद को भी रुह तरस जाती है.... 


जगजीत मुखड़े के पहले अपने संगीत में भांति भांति के वाद्यों का इस्तेमाल करते हैं। बाकी का काम उनके शागिर्द रहे घनशाम और अशोक बखूबी कर जाते हैं।

इसी फिल्म में जगजीत का गाया गीत फिर आज मुझे तुमको इतना ही बताना है..हँसना ही जीवन है हँसते ही जाना है भी सुनना मन में आशा की ज्योति जला लेने जैसा लगता है।


आशियाना में जगजीत का रचा और गाया नग्मा आज भी हम सब की जुबाँ पर आज भी गाहे बगाहे आता ही रहता है। मदन पाल के लिखे इस गीत का मुखड़ा था हमसफ़र बन के हम, साथ हैं आज भी.... फिर भी है ये सफ़र अजनबी अजनबी। नजदीक रह कर भी दो इंसान मानसिक रूप से दूर हो जाएँ तो साथ साथ रहना भी कितना पीड़ादायक हो जाता है ये गीत उस दर्द की गवाही देता है। 


मजे की बात ये है कि इस गीत में मार्क जुबेर के साथ जगजीत सिंह फिल्मी पर्दे पर भी नज़र आए।

जगजीत सिंह से जुड़ी इस श्रृंखला का अंत मैं उस नज़्म से करना चाहूँगा जिसे गाया था दिलराज कौर ने। राजेश खन्ना और दीपिका पर फिल्मायी इस नज़्म की लय और दिलराज जी की सुरीली आवाज़ इसे बार बार सुनने को मजबूर करती है। सुदर्शन फाकिर के शब्द किस तरह मोहब्बत से महरूम एक लड़की का दर्द बयाँ करते हैं वो उनकी लिखी इन पंक्तियों में देखिए...

किसी गाँव में इक हसीना थी कोई
वो सावन का भीगा महीना थी कोई 
जवानी भी उस पर बड़ी मेहरबां थी
मोहब्बत ज़मीं है तो वो आसमां थी 
वो अब तक है जिन्दा वो अब तक जवां है
किताबे मोहब्बत की वो दास्तां  है
उसे देखकर मोम होते थे पत्थर 
मगर हमसे पूछो न उसका मुकद्दर 
न घर की बहू वो बनाई गई थी 
अलग उसकी महफ़िल सजाई गई थी 
वो गाँव के लड़कों को चाहत सिखाती 
सबक वो मोहब्बत का उनको पढ़ाती

मगर वक़्त कोई नया रंग लाया 
न पूछो कहानी में क्या मोड़ आया 
हुआ प्यार उसको किसी नौजवां से 
नतीजा न पूछो हमारी जुबां से 
मोहब्बत की राहों पे जिस दिन चली वो
ज़माने की नज़रों में मुजरिम बनी वो 
नसीबों  में उसके मोहब्बत नहीं थी 
मोहब्बत की उसको इजाज़त नहीं थी 

ज़माने ने आखिर उसे जब सजा दी 
हसीना ने अपनी ये जां तक लुटा  दी 
वही आसमां है वही ये जमीं है 
जवां  वो हसीना कही भी नहीं है 
मगर रुहे उल्फत की मंजिल जुदा है 
मोहब्बत की दुनिया का अपना खुदा है 


वो अब तक है ..महीना थी कोई


दिलराज कौर की आवाज़ से मेरी मुलाकात उनकी गायी ग़ज़ल इतनी मुद्दत बाद मिले हो.. से हुई थी। इसके आलावा उनकी आवाज़ में इक्का दुक्का गीत सुनता रहा हूँ। इतनी प्यारी आवाज़ से हमारा राब्ता नब्बे के दशक में छूट सा गया। दिलराज़ इस नज़्म में भी नाममात्र के वाद्य यंत्रों के बावज़ूद अपनी आवाज़ का दिल पर गहरा असर छोड़ती हैं।

नब्बे के दशक में पुत्र की असमय मौत ने जगजीत को हिला कर रख दिया। वे ग़ज़लों और फिल्मी दुनिया से दूर होते चले गए। ग़ज़लों से तो उन्होंने दुबारा नाता जोड़ा पर फिल्मों में उन्होंने बतौर संगीतकार उसके बाद नाममात्र का काम किया।

चार भागों तक चली इस श्रृंखला का आज यहीं समापन होता है। कैसी लगी आपको जगजीत जी से जुड़ी ये श्रृंखला। अपनी राय देना ना भूलिएगा।

शनिवार, अक्टूबर 27, 2018

कैसा रहा बतौर संगीतकार जगजीत सिंह का फिल्मी सफ़र? : ज़ख़्म जो आप की इनायत है Zakhm jo aapki inayat hai

जगजीत सिंह से जुड़ी इन कड़ियों में आपसे बात हो रही थी ऐसी हिंदी फिल्मों की जिनके संगीतकार की भूमिका निभाई जगजीत सिंह नेप्रेम गीत की शानदार सफलता के बाद अगले ही साल 1982 में एक और फिल्म जगजीत की झोली में आई और वो थी अर्थ। जगजीत सिंह ने जितनी भी फिल्मों का संगीत निर्देशन किया उसमें सबसे अधिक सफल यही फिल्म रही। फिल्म महेश भट्ट की थी और फिल्म का कथानक पति पत्नी व प्रेमिका के टूटते जुड़ते रिश्तों पर आधारित था। जगजीत ने कहानी की परिस्थितियों को कैफ़ी आज़मी की लिखी ग़ज़लों और नज़्मों में ऍसा ढाला कि फिल्म का हर एक गीत यादगार बन गया। झुकी झुकी सी नज़र और तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो और तू नहीं तो ज़िदगी में और क्या रह जाएगा..तो क्या आम क्या खास सबके दिलों में छा गया। अपनी बात करूँ तो उन दिनों एकाकी पलों में इस फिल्म की नज़्म कोई ये कैसे बताया कि वो तन्हा क्यूँ है आँखों में नमी पैदा कर देती थी। 


जगजीत जी के सम्मान में हुए एक कार्यक्रम में फिल्म की नायिका शबाना आज़मी ने अर्थ के संगीत को याद करते हुए कहा था कि "मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ कि अर्थ के तीन गाने मेरे ऊपर फिल्माए गए थे। उन्होंने संगीत के साथ शब्दों में दर्द को इस तरह पिरोया था कि मेरे पास करने लायक कुछ रह नहीं गया था।"

फिल्म साथ साथ में भी जगजीत व चित्रा की गायिकी सराही गयी पर इस फिल्म का संगीत जगजीत ने नहीं बल्कि उनके मित्र कुलदीप सिंह ने दिया था। जगजीत जी को अर्थ की सफलता के बाद फिल्म संगीत रचने के जितने मौके मिलने चाहिए थे उतने नही मिले। शायद इसकी वज़ह जगजीत का अपने निजी एलबमों को ज्यादा तवज्जोह देना भी रहा हो। उन्हें जो मौके मिले भी वो छोटे बैनर या लीक से हटकर बनी फिल्मों के लिए मिले। 

1983 में शत्रुघ्न सिन्हा ने एक फिल्म कालका बनाई जिसमें अपनी गायिकी और संगीत के ज़रिए जगजीत ने शास्त्रीयता का एक अलग ही रूप दिखाया। अगर आपको अर्धशास्त्रीय संगीत पसंद है तो जगजीत के रचे "कैसे कैसे रंग दिखाए कारी रतिया", "तराना" और "बिदेशिया" को सुनना ना भूलिएगा। 

इसी साल उन्होंने निर्वाण का भी संगीत दिया। इसका एक गीत चित्रा सिंह ने गाया है जिसके संगीत में आपको जगजीत के चिरपरिचित ग़ज़ल वाले संगीत की छाया तक नहीं मिलेगी। राही मासूम रज़ा के लिखे इस गीत का मुखड़ा था "रातें थीं सूनी सूनी, दिन थे उदास मेरे..तुम मिल गए तो जागे सोए हुए सवेरे "। बाद में इसे जगजीत ने अपने एलबम Rare Moments में शामिल कर लिया। 

एक साल बाद उन्हें एक और फिल्म मिली जिसका नाम था रावण। इसी फिल्म के लिए उन्होंने अपनी मशहूर ग़ज़ल "हम तो यूँ अपनी ज़िंदगी से मिले अजनबी जैसे अजनबी से मिले....." रची थी जो आप सबने सुनी ही होगी। 

निर्वाण,रावण और उसके बाद संगीत निर्देशित तुम लौट आओ के गीत तो ज्यादा चर्चित नहीं रहे पर ये इतनी छोटे बजट की फिल्में थी कि इनके संगीत तक आम जनता की कभी पहुँच ही नहीं हुई। पर इन फिल्मों के कुछ गीत निश्चय ही श्रवणीय थे। आज इन्हीं फिल्मों में से "तुम लौट आओ" का एक प्यारा सा नग्मा आपको सुनवाने जा रहा हूँ जिसे लिखा था सुदर्शन फ़ाकिर साहब ने और जिसका शुमार जगजीत चित्रा के कम सुने गीतों में होता है।

फिल्म में नायक विदेश जाने की तमन्ना में अपने प्यार और उससे अंकुरित बीज को प्रेमिका के गर्भ में छोड़ कर जाने को तत्पर हो जाता है। सुदर्शन जी ने प्रेम में टूटी और दिग्भ्रमित नायिका की बात को बड़ी खूबी से इन लफ़्ज़ों में बयाँ किया है रात सपना बहार का देखा, दिन हुआ तो ग़ुबार सा देखा..बेवफ़ा वक़्त बेज़ुबाँ निकला, बेज़ुबानी को नाम क्या दें हम। वहीं नायक इसे अपनी नहीं बल्कि जवानी की भूल बताकर जीवन में आगे बढ़ने को लालायित है। गीत के तीनों अंतरे इस परिस्थिति की दास्तान को बखूबी श्रोताओं के समक्ष रख देते हैं। 


ज़ख़्म जो आप की इनायत है, इस निशानी को नाम क्या दें हम
प्यार दीवार बन के रह गया है, इस कहानी को नाम क्या दें हम

आप इल्ज़ाम धर गये हम पर, एक एहसान कर गये हम पर
आप की ये भी मेहरबानी है, मेहरबानी को नाम क्या दें हम

आपको यूँ ही ज़िन्दगी समझा, धूप को हमने चाँदनी समझा
भूल ही भूल जिस की आदत है, इस जवानी को नाम क्या दें हम

रात सपना बहार का देखा, दिन हुआ तो ग़ुबार सा देखा
बेवफ़ा वक़्त बेज़ुबाँ निकला, बेज़ुबानी को नाम क्या दें हम



ग़ज़ल के बारे में लिखते हुए जगजीत का गाया ये अंतरा गुनगुनाने का मन हुआ तो उसे यहाँ शेयर कर रहा हूँ..




मुझे आशा है कि इस आलेख में उल्लेख किए गए कुछ गीत आपके लिए भी अनसुने होंगे। फिलहाल तो इजाज़त दीजिए। फिर लौटूँगा जगजीत जी की  संगीत निर्देशित कुछ और फिल्मों के साथ।

गुरुवार, अक्टूबर 31, 2013

न मोहब्बत न दोस्ती के लिए, वक्त रुकता नहीं किसी के लिए : आख़िर क्या था सुदर्शन फ़ाकिर का दर्दे दिल ?

अस्सी के दशक की शुरुआत में जगजीत सिंह ने अपनी ग़ज़ल एलबमों के आलावा कई फिल्मों में अपनी आवाज़ दी। अर्थ, साथ-साथ और प्रेम गीत में गाए नग्मे भला किस संगीत प्रेमी के दिलोदिमाग में नक़्श नहीं है? 1985 में ही एक गुमनाम सी फिल्म आई थी 'फिर आएगी बरसात'। अनजान कलाकारों के बीच अनुराधा पटेल ही फिल्म में एक जाना हुआ नाम था। ख़ैर इस फिल्म को तो अब कोई याद नहीं करता सिवाए इसमें गाई जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल की वज़हसे जिसका संगीत दिया था कुलदीप सिंह ने। कुलदीप सिंह को मूलतः फिल्म साथ -साथ के संगीत के लिए जाना जाता है और आज उनकी पहचान नवोदित ग़जल गायक जसविंदर सिंह के पिता के रूप में है। पर आज इस ग़ज़ल की याद मुझे इसके शायर सुदर्शन फाकिर की वज़ह से आयी है। पाँच साल पहले जब फ़ाकिर गुजरे तो मैंने उनकी पसंदीदा ग़ज़लों के गुलदस्ते को आपके समक्ष श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत किया था


कुछ ही दिन पहले अपने एक मित्र के यहाँ रवी्द्र कालिया की कृति ग़ालिब छूटी शराब  के पन्ने पलट रहा था कि उसमें फ़ाकिर जसे जुड़े संस्मरण पढ़ कर सहसा उनकी इस ग़ज़ल का ख्याल आ गया। न मोहब्बत न दोस्ती के लिए... उस दिन से मेरी पसंदीदा ग़ज़ल रही है जब मैंने इसे पहली बार सुना था। कितनी सादगी से फाकिर के बोलों और जगजीत की नौजवान आवाज़ से ये ग़ज़ल बेहद अपनी सी हो गई थी। इसका हर मिसरा अपने दिल से फूटता महसूस होता था। तब क्या जानते थे कि फ़ाकिर जिंदगी के दर्शन को जिस खूबी से इन अशआरों में पिरो गए हैं, ख़ुद उन्होंने ने क्या दर्द सहे होंगे ऍसी ग़ज़लों को लिखने के लिए


 

न मोहब्बत न दोस्ती के लिए
वक्त रुकता नहीं किसी के लिए


दिल को अपने सज़ा न दे यूँ ही
इस ज़माने की बेरुखी के लिए

कल जवानी का हश्र क्या होगा
सोच ले आज दो घड़ी के लिए

हर कोई प्यार ढूंढता है यहाँ
अपनी तनहा सी ज़िन्दगी के लिए

वक्त के साथ साथ चलता रहे
यही बेहतर है आदमी के लिए



कोई ग़ज़ल किसी शायर के लिए क्या माएने रखती है ये जानना हर ग़ज़ल प्रेमी श्रोता की फ़ितरत में होता है। जब मैंने कालिया जी की किताब से फ़ाकिर से जुड़ा ये संस्मरण पढ़ा तो लगा कि शायद ये ग़ज़ल भी उन्होंने ऍसे ही मानसिक हालातों में लिखी होगी जिसका ज़िक्र कालिया जी यूँ करते हैं।
"फाकिर का कमरा एक मुसाफिरखाने की तरह था। सुदर्शन फाकिर इश्‍क में नाकाम होकर सदा के लिए फीरोजपुर छोड़कर जालंधर चला आया था और उसने एम0ए0 (राजनीति शास्‍त्र) में दाखिला ले लिया था। जालंधर आकर वह फकीरों की तरह रहने लगा। उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी और शायरों का लिबास पहन लिया था। उसका कमरा भी देखने लायक था। एक बड़ा हालनुमा कमरा था, उसमें फर्नीचर के नाम पर सिर्फ दरी बिछी हुई थी। बीच-बीच में कई जगह दरी सिगरेट से जली हुई थी। अलग-अलग आकार की शराब की खाली बोतलें पूरे कमरे में बिखरी पड़ी थीं, पूरा कमरा जैसे ऐशट्रे में तब्‍दील हो गया था। फाकिर का कोई शागिर्द हफ्‍ते में एकाध बार झाड़ू लगा देता था। कमरे के ठीक नीचे एक ढाबा था। कोई भी घंटी बजाकर कुछ भी मंगवा सकता था। देखते-देखते फ़ाकिर का यह दौलतखाना पंजाब के उर्दू, हिन्‍दी और पंजाबी लेखकों का मरकज़ बन गया। अगर कोई काफी हाउस में न मिलता तो यहाँ अवश्‍य मिल जाता। दिन भर चाय के दौर चलते और मूँगफली का नाश्‍ता। अव्‍वल तो फ़ाकिर को एकांत नहीं मिलता था, मिलता तो ‘दीवाने गालिब' में रखे अपनी प्रेमिका के विवाह के निमंत्रण को टकटकी लगाकर घूरता रहता। इस एक पत्र ने उसकी ज़िन्‍दगी का रुख पलट दिया था।"

इसे पढ़ने के बाद आप इस ग़ज़ल को फिर सुनें। क्या आपको सुदर्शन के दर्द की गिरहों का सिरा नहीं मिलता?


सोमवार, अगस्त 09, 2010

जगजीत सिंह की ग़ज़ल गायिकी का सफ़र भाग 7 : उनकी दस बेशकीमती नज़्मों के साथ !

जगजीत सिंह पर आधारित इस श्रृंखला में बात हो रही थी उनकी गाई दस सबसे बेहतरीन नज़्मों की। पिछली पोस्ट में मैंने इनमें से पाँच नज़्मों के बारे में आपसे बात की। आज बारी है बाकी की नज़्मों की। पिछली बार की नज़्मों में जहाँ एक आशिक का दर्द रह रह कर बाहर आ रहा था वहीं आज की नज़्मों में इसके आलावा आपको एक फिलासफिकल सोच भी मिलेगी। इन नज़्मों ने मुझे और निसंदेह आपको भी बारहा अपनी अब तक की गुजारी हुई जिंदगी के बारे में सोचने पर मज़बूर किया होगा। तो आज की इस कड़ी की शुरुआत करते हैं निदा फ़ाज़ली की लिखी इस नज़्म से


आपको याद होगा अस्सी की शुरुआत में एक कंपनी कलर टीवी के उत्पाद को ला कर बाजार में तेजी से उभरी थी। ये कंपनी थी 'वेस्टन'। इसी कंपनी ने 1994 में जगजीत का एक एलबम निकाला था जिसका नाम था 'Insight'। इस एलबम की खासियत थी कि इसमें सिर्फ निदा साहब की कृतियों को शामिल किया गया था। दोहों व ग़ज़लो से सजे इस एलबम में निदा जी की दो एक नज़्में भी थीं। उन्ही नज़्मों में से एक में जिंदगी के निचोड़ को चंद शब्दों मे जिस सलीके से निदा ज़ी ने बाँधा था कि एक बार सुनकर ही मन विचलित सा हो गया था।

जगजीत का संगीत संयोजन भी अच्छा था। नज़्म की शुरुआत गिटार (वादक : अरशद अहमद) और साथ में वॉयलिन (वादक : दीपक पंडित) की सम्मिलित धुन से होती है। जैसे जैसे ये नज़्म आगे बढ़ती है जगजीत नज़्म की भावनाओं के साथ नज़्म का टेंपो बदलते हैं और जब जगजीत नज़्म के आखिर में नहीं दुबारा ये खेल होगा... तीन बार दोहराते हैं तो शायर की बात आपके मस्तिष्क से होती हुई दिल में अच्छी तरह से समा चुकी होती है। तो गौर कीजिए निदा फ़ाज़ली के शब्दों और जगजीत जी की गायिकी की सम्मिलित जादूगरी पर...


ये ज़िन्दगी..

ये ज़िन्दगी..तुम्हारी आवाज़ में ग़ले से निकल रही है
तुम्हारे लफ़्ज़ों में ढल रही है
ये ज़िन्दगी.. ये ज़िन्दगी ..ये ज़िन्दगी
जाने कितनी सदियों से
यूँ ही शक्लें, बदल रही है
ये ज़िन्दगी.. ये ज़िन्दगी ..
बदलती शक्लों, बदलते जिस्मों
चलता-फिरता ये इक शरारा
जो इस घड़ी नाम है तुम्हारा
इसी से सारी चहल-पहल है
इसी से रोशन है हर नज़ारा
सितारे तोड़ो या घर बसाओ
क़लम उठाओ या सर झुकाओ
तुम्हारी आँखों की रोशनी तक
है खेल सारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा

जहाँ निदा फाज़ली ने जीवन को अपनी दार्शनिकता भरी नज़्म में बाँधा वही मज़ाज लखनवी ने अपनी जिंदगी की हताशा और निराशा को अपनी मशहूर नज़्म 'आवारा' में ज्यों का त्यों चित्रित किया है और फिर जगजीत ने मजाज़ के उसी दर्द को बखूबी कहकशाँ में गाई अपनी इस नज़्म में क़ैद किया है। इस नज़्म की ताकत का अंदाज़ा इसी बात से लगता है कि मन इसे सुनकर ही नहीं पर इसे पढ़ने से ही गमगीन हो जाता है...


शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

रास्ते में रुक के दम ले लूँ, मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फितरत नहीं
और कोई हमनवाँ मिल जाये, ये किस्मत नहीं

ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?




वैसे जगजीत ने मज़ाज साहब की इस नज़्म के कुछ ही हिस्से गाए हैं पर पूरी नज़्म और इसके पीछे मज़ाज़ की जिंदगी की कहानी आप यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं।


मेरे इस संकलन की तीसरी नज़्म है एलबम 'फेस टू फेस (Face to Face)' की जिसकी कैसेट मैंने 1993 में खरीदी थी। इस एलबम में एक नज़्म थी सबीर दत्त साहब की। यह वही दत्त साहब हैं जिनकी रचना 'इक बरहामन ने कहा है कि ये साल अच्छा है........' उन दिनों बेहद मशहूर हुई थी। हाल ही में मुझे इस चिट्ठे की एक पाठिका ने मेल कर ये सवाल पूछा कि ये नज़्म क्या एक ईसाई गीत है?
सच कहूँ तो इस प्रश्न को पढ़ने के पहले तक ये ख्याल कभी मेरे ज़ेहन में नहीं उभरा था कि इस नज़्म को ऐसा कहा जा सकता है।

इसमें कोई शक़ नहीं हरियाणा के नामी शायर सबीर दत्त साहब ने इस नज़्म में भगवन जीसस की ज़िंदगी की घटनाओं को लिया है पर वो यहाँ सिर्फ एक प्रतीक, एक बिंब के रूप में इस्तेमाल हुआ है। दरअसल सबीर जी की ये नज़्म आज के दौर के इस बेईमान और भ्रष्ट समाज का आईना है। भगवन जीसस के रूपक का इस्तेमाल करते हुए वे ये बताना चाहते हैं कि जीवन में सत्य और ईमानदारी की राह पर चलने वालों को हर तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। नज़्म के अंत में हमारे समाज पर बतौर कटाक्ष करते हुए सबीर लोगों को सच ना बोलने की सलाह दे डालते हैं। जगजीत जी की इस नज़्म का संगीत संयोजन भी अपनी तरह का है। इस नज़्म में समूह स्वर का इस्तेमाल भी बेहद प्रभावी ढंग से किया गया है।



सच्ची बात कही थी मैंने
लोगों ने सूली पे चढाया

मुझ को ज़हर का जाम पिलाया

फिर भी उन को चैन न आया

सच्ची बात कही थी मैंने


ले के जहाँ भी, वक्त गया है

ज़ुल्म मिला है, ज़ुल्म सहा है

सच का ये इनाम मिला है

सच्ची बात कही थी मैंने


सब से बेहतर कभी न बनना

जग के रहबर कभी न बनना

पीर पयाम्बर कभी न बनना


चुप रह कर ही वक्त गुजारो

सच कहने पे जान मत वारो

कुछ तो सीखो मुझ से यारो

सच्ची बात कही थी मैंने...


और अगर इन सब नज़्मों को सुनने के बाद आपका मन कुछ भारी हो गया हो तो क्यूँ ना बचपन की यादों को ताज़ा कर आपके मूड को बदला जाए। सुदर्शन फ़ाक़िर साहब ने क्या उम्दा नज़्म लिखी थी हम सबके मासूम बचपन को केंद्र में रखकर। जब भी इस नज़्म को सुनता हूँ उनकी लेखनी को सलाम करने को जी चाहता है।

जगजीत साहब जब भी कान्सर्ट्स में चिर परिचित धुन के साथ इस नज़्म का आगाज़ करते थे पूरा माहौल तालियों से गूँज उठता था। वैसे तो बाद के एलबमों में इस नज़्म का संगीत थोड़ा बदल गया व चित्रा जी की आवाज़ की जगह सिर्फ जगजीत का सोलो ही सुनने को मिलता रहा पर आज यहाँ मैं उसी पुराने वर्सन को आपके सामने प्रस्तुत करना चाहूँगा



ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मग़र मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी

मोहल्ले की सबसे निशानी पुरानी,
वो बुढ़िया जिसे बच्चे कहते थे नानी,
वो नानी की बातों में परियों का डेरा,
वो चेहरे की झुर्रियों में सदियों का फेरा,
भुलाए नहीं भूल सकता है कोई,
वो छोटी-सी रातें वो लम्बी कहानी

कड़ी धूप में अपने घर से निकलना
वो चिड़िया, वो बुलबुल, वो तितली पकड़ना,
वो गुड़िया की शादी पे लड़ना-झगड़ना,
वो झूलों से गिरना, वो गिर के सँभलना,
वो पीतल के छल्लों के प्यारे-से तोहफ़े,
वो टूटी हुई चूड़ियों की निशानी।

कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जाना
घरौंदे बनाना,बना के मिटाना,
वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी
वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी,
न दुनिया का ग़म था, न रिश्तों का बंधन,
बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िन्दगानी


सच सुदर्शन जी उस ज़िंदगी का भी अपना ही एक मजा था..


दस नज़्मों के इस संकलन का समापन मैं जावेद अख्तर की लिखी इस नज़्म से करना चाहूँगा जिसे जगजीत जी ने अपने एलबम सिलसिले का हिस्सा बनाया था। ये एलबम 1998 में आई थी पर जावेद साहब ने इस नज़्म में उन अहसासात को अपने शब्द दे दिए हैं जिनसे यक़ीनन हम सभी कभी ना कभी जरूर गुजर चुके हैं या गुजरेंगे। इस माएने में ये नज़्म समय की सीमाओं से परे है और इसी वज़ह से आज की इन पाँच नज़्मों में सबसे ज्यादा प्रिय है। जगजीत साहब ने अपने रुहानी स्वर से इसे हमेशा हमेशा के लिए अज़र अमर कर दिया है।






मैं भूल जाऊँ तुम्हें मैं भूल जाऊँ तुम्हें अब यही मुनासिब है
मगर भूलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं


यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ

कमबख़्त

भुला सका न ये वो सिलसिला जो था ही नहीं

वो इक ख़याल
जो आवाज़ तक गया ही नहीं
वो एक बात
जो मैं कह नहीं सका तुम से
वो एक रब्त

जो हम में कभी रहा ही नहीं

मुझे है याद वो सब
जो कभी हुआ ही नहीं
अगर ये हाल है दिल का तो कोई समझाए

तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ

कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं...




तो जनाब जगजीत की गाई मेरी दस पसंदीदा नज़्में तो ये थीं
  • बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी..
  • बहुत दिनों की बात है...
  • तेरे खुशबू मे बसे ख़त मैं जलाता कैसे..
  • कोई ये कैसे बताए, कि वो तनहा क्यों है..
  • अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?
  • ये ज़िन्दगी जाने कितनी सदियों से यूँ ही शक्लें, बदल रही है...
  • सच्ची बात कही थी मैंने..
  • ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो
  • ऐ गमे दिल क्या करूँ ऐ वहशते दिल क्या करूँ...
  • तुझे भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
जानना चाहूँगा कि इनमें से या इनके इतर जगजीत की गाई किस नज़्म को आपने अपने दिल में बसाया है?

इस श्रृंखला में अब तक
  1. जगजीत सिंह : वो याद आए जनाब बरसों में...
  2. Visions (विज़न्स) भाग I : एक कमी थी ताज महल में, हमने तेरी तस्वीर लगा दी !
  3. Visions (विज़न्स) भाग II :कौन आया रास्ते आईनेखाने हो गए?
  4. Forget Me Not (फॉरगेट मी नॉट) : जगजीत और जनाब कुँवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' की शायरी
  5. जगजीत का आरंभिक दौर, The Unforgettables (दि अनफॉरगेटेबल्स) और अमीर मीनाई की वो यादगार ग़ज़ल ...
  6. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 1
  7. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 2
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शुक्रवार, फ़रवरी 22, 2008

सुदर्शन फ़ाकिर सहज शब्दों में गहरी बात कहने वाला बेमिसाल शायर :मेरी श्रृद्धांजलि

कल यूनुस के चिट्ठे पर सुदर्शन फ़ाकिर के ना रहने की खबर पढ़ कर कलेजा धक से रह गया। सुदर्शन उन शायरों में से थे जिसने मेरे जैसे आम संगीत प्रेमी को ग़ज़ल से जोड़ा। उर्दू की ज्यादा जानकारी ना रखने वालों को भी गज़लों की ओर मुखातिब करने में उनका योगदान कोई भुला नहीं सकता। पिछले एक साल से उन पर आधारित एक श्रृंखला शुरु करने की मेरी मंशा थी पर ये पता ना था कि मैं अपनी ये इच्छा पूरी करूँ उससे पहले ही ये महान शायर दुनिया से रुखसत हो जाएगा।

सुदर्शन साहब ने अपने जीवन का एक अहम हिस्सा पंजाब के शहर जालंधर में बिताया। जालंधर के डी ए वी कॉलेज से राजनीति शास्त्र और अंग्रेजी में परास्नातक की डिग्री प्राप्त करने वाले फ़ाकिर ७३ साल की उम्र में एक लंबी बीमारी के बाद गत सोमवार को अपना शहर छोड़ गए। युवावस्था से फ़ाकिर को रंगमंच और शायरी का शौक था। कॉलेज के जमाने में मोहन राकेश का लिखा नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' का उन्होंने निर्देशन किया और वो जनता द्वारा काफी सराहा भी गया। कुछ दिनों तक उन्होंने रेडिओ जालंधर में काम किया और फिर मुंबई चले आए।

अस्सी के दशक में जगजीत-चित्रा की जोड़ी को जो सफलता मिली उसमें सुदर्शन फा़किर की लिखी नायाब ग़ज़लों का एक अहम हिस्सा था। वो कागज़ की कश्ती.. इश्क़ ने गैरते जज़्बात..और पत्‍थर के ख़ुदा पत्‍थर के सनम पत्‍थर के ही इंसां पाए हैं... का जिक्र तो यूनुस अपनी पोस्ट में कर ही चुके हैं । सुदर्शन साहब की जो नज़्में और ग़ज़लें मेरे दिल के बेहद करीब रहीं हैं उनका एक छोटा सा गुलदस्ता मैं अपनी इस प्रविष्टि के माध्यम से श्रृद्धांजलि स्वरूप उन्हें अर्पित करना चाहता हूँ....

बात १९९४ की है जब इनकी ये ग़ज़ल सुनी थी और इसका नशा वर्षों दिल में छाया रहता था । आज भी जब इनकी ये ग़ज़ल गुनगुनाता हूँ तो वही मस्ती मन में समा जाती है।



चराग़-ओ-आफ़ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
शबाब की नक़ाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी

मुझे पिला रहे थे वो कि ख़ुद ही शम्मा बुझ गयी
गिलास ग़ुम शराब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी

लिखा था जिस किताब में, कि इश्क़ तो हराम है
हुई वही किताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी

लबों से लब जो मिल गये, लबों से लब जो सिल गये
सवाल ग़ुम जवाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी


जगजीत जी ने इस ग़ज़ल को गाया भी बड़ी खूबसूरती से है।
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फ़ाकिर ने कुछ फिल्मों के लिए गीत भी लिखे। फिल्म यलगार के संवाद लेखन भी उन्होंने किया। NCC कैम्पस में गाया जाने वाला समूह गान उन्हीं का रचा हुआ है। पर असली शोहरत उन्हें अपनी ग़ज़लों से ही मिली। सीधे सहज शब्दों से गहरी बात कहने का हुनर उनके पास था। अब इन्हीं शेरों पर गौर करें मरी मरी सी जिंदगी को ढ़ोने की मजबूरी पर क्या तंज कसे हैं उन्होंने बिना किसी कठिन शब्द का सहारा लिए हुए


किसी रंजिश को हवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
मुझ को एहसास दिला दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी

मेरे रुकने से मेरी साँसे भी रुक जायेंगी
फ़ासले और बढ़ा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी

ज़हर पीने की तो आदत थी ज़मानेवालो
अब कोई और दवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी

चलती राहों में यूँ ही आँख लगी है 'फ़ाकिर'
भीड़ लोगों की हटा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी


आइए सुने इस ग़ज़ल को चित्रा सिंह की आवाज़ में
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सुदर्शन फ़ाकिर ने ना केवल अपनी ग़जलों से कमाल पैदा किया बल्कि कई खूबसूरत नज़्में भी लिखीं। उनकी ये नज़्म मुझे सरहद पार के एक मित्र से करीब दस वर्षों पहले पढ़ने को मिली और ये तभी से मेरी प्रिय नज़्मों में एक है।

ये शीशे ये सपने ये रिश्ते ये धागे
किसे क्या ख़बर है कहाँ टूट जायें
मुहब्बत के दरिया में तिनके वफ़ा के
न जाने ये किस मोड़ पर डूब जायें

अजब दिल की बस्ती अजब दिल की वादी
हर एक मोड़ मौसम नई ख़्वाहिशों का
लगाये हैं हम ने भी सपनों के पौधे
मगर क्या भरोसा यहाँ बारिशों का

मुरादों की मंज़िल के सपनों में खोये
मुहब्बत की राहों पे हम चल पड़े थे
ज़रा दूर चल के जब आँखें खुली तो
कड़ी धूप में हम अकेले खड़े थे

जिन्हें दिल से चाहा जिन्हें दिल से पूजा
नज़र आ रहे हैं वही अजनबी से
रवायत है शायद ये सदियों पुरानी
शिकायत नहीं है कोई ज़िन्दगी से


फ़ाकिर की एक और खूबसूरत ग़ज़ल है शायद मैं ज़िन्दगी की सहर जिसे गुनगुनाना मुझे बेहद प्रिय है..


शायद मैं ज़िन्दगी की सहर ले के आ गया
क़ातिल को आज अपने ही घर लेके आ गया

ता-उम्र ढूँढता रहा मंज़िल मैं इश्क़ की
अंजाम ये कि गर्द-ए-सफ़र लेके आ गया

नश्तर है मेरे हाथ में, कांधों पे मैक़दा
लो मैं इलाज-ए-दर्द-ए-जिगर लेके आ गया

"फ़ाकिर" सनमकदे में न आता मैं लौटकर
इक ज़ख़्म भर गया था इधर लेके आ गया


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फ़ाकिर के बारे में उनके मित्र कहते हैं कि वो अपने आत्मसम्मान पर कभी आंच नहीं आने देते थे। छोटी छोटी बातों पर वे कभी समझौता नहीं करते थे। फ़ाकिर ने अपनी शायरी में जिंदगी और समाज के अनेक पहलुओं को छुआ चाहे वो बचपन की यादें हो, युवावस्था के स्वप्निल दिन, समाज की असंवेदनशीलता हो या बढ़ती सांप्रदायिकता। मिसाल के तौर पर उनकी ये ग़ज़ल देखें..

आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है
ज़ख़्म हर सर पे हर इक हाथ में पत्थर क्यूँ है

जब हक़ीक़त है के हर ज़र्रे में तू रहता है
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यूँ है

अपना अंजाम तो मालूम है सब को फिर भी
अपनी नज़रों में हर इन्सान सिकंदर क्यूँ है

ज़िन्दगी जीने के क़ाबिल ही नहीं अब "फ़ाकिर"
वर्ना हर आँख में अश्कों का समंदर क्यूँ है

फ़ाकिर आज हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी भाषाई क्लिष्टता से मुक्त सीधे दिल तक पहुँचने वाली शायरी हमेशा हमारे साथ रहेगी।

सुदर्शन साहब की ग़जलों का संग्रह आप कविताकोश में पढ़ सकते हैं
(सुदर्शन फ़ाकिर के बारे में व्यक्तिगत जानकारी पंजाब के अंग्रेजी अखबार 'दि ट्रिब्यून' से साभार)
 

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