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शनिवार, मार्च 14, 2020

कोई धुन हो मैं तेरे गीत ही गाए जाऊँ Koyi Dhun Ho.. Runa Laila

रूना लैला एक ऐसी गायिका हैं कि जिनकी आवाज़ की तलब मुझे हमेशा कुछ कुछ अंतराल पर लगती रहती है। आज की पीढ़ी से जब भी मैं उनके गाए गीतों के बारे में पूछता हूँ तो ज्यादातर की जुबां पर दमादम मस्त कलंदर का ही नाम होता है। जहाँ तक मेरा सवाल है मुझे तो उनकी आवाज़ में हमेशा घरौंदा का उनका कालजयी गीत तुम्हें हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है ही ज़हन में रहता है।

वैसे क्या आपको पता है कि रूना जी ने बचपन में कला के जिस रूप का दामन थामा था वो संगीत नहीं बल्कि नृत्य था। संगीत तो उनकी बड़ी बहन दीना लैला सीखती थीं। पर उनकी देखा देखी उन्होंने भी शास्त्रीय संगीत में अपना गला आज़माना शुरु कर दिया। दीना को एक संगीत समारोह में गाना था पर उनका गला खराब हो गया और रूना ने उस बारह साल की छोटी उम्र में बहन की जगह कमान सँभाली। उनकी गायिकी इतनी सराही गयी कि उन्होंने संगीत सीखने पर गंभीरता से ध्यान देना शुरु किया। चौदह साल की उम्र में उन्होंने पहली बार पाकिस्तानी फिल्म में गाना गाया।


उबैद्दुलाह अलीम व  रूना लैला
साठ के दशक के अंतिम कुछ सालों से लेकर 1974 तक उन्होंने पाकिस्तानी फिल्मों और टीवी के लिए काम किया। फिल्मों के इतर रूना जी ने अपनी गायिकी के आरंभिक दौर में फ़ैज़ और उबैदुल्लाह अलीम की कुछ नायाब ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी थी। रंजिश ही सही के आलावा उनकी गाई कुछ ग़ज़लों को मैंने पहले भी सुनवाया है। फ़ैज़ का लिखा हुआ आए कुछ अब्र कुछ शराब आए.., सैफुद्दीन सैफ़ का गरचे सौ बार ग़म ए हिज्र से जां गुज़री है... उबैदुल्लाह अलीम की बना गुलाब तो काँटे चुभा गया इक शख़्स उनकी गायी मेरी कुछ प्रिय ग़ज़लों में एक है।  

अलीम साहब कमाल के शायर थे। वे भोपाल में जन्मे और फिर सियालकोट व कराची में पले बढ़े। उन्होंने रेडियो और टीवी जगत की विभिन्न संस्थाओं में साठ और सत्तर के दशक में अपना योगदान दिया। कुछ दिनों तो बसो मेरी आँखों में, अजीज इतना ही रखो कि जी सँभल जाए, कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी जैसी नायाब ग़ज़लों को लिखने वाले इस शायर और उनसे जुड़ी बातों को यहाँ बाँटा था मैंने। आज मैं आपको इन्हीं अलीम साहब की लिखी एक ग़ज़ल सुनवाने जा रहा हूँ जो उनके ग़ज़ल संग्रह के नाम से बने एलबम चाँद चेहरा सितारा आँखें का भी बाद में  हिस्सा बनी। रूना जी ने इसके शुरु के चार अशआर गाए हैं वो बेहद ही दिलकश हैं।


कोई धुन हो मैं तेरे गीत ही गाए जाऊँ
दर्द सीने मे उठे शोर मचाए जाऊँ

ख़्वाब बन कर तू बरसता रहे शबनम शबनम
और बस मैं इसी मौसम में नहाए जाऊँ

तेरे ही रंग उतरते चले जाएँ मुझ में
ख़ुद को लिक्खूँ तेरी तस्वीर बनाए जाऊँ

जिसको मिलना नहीं फिर उससे मोहब्बत कैसी
सोचता जाऊँ मगर दिल में बसाए जाऊँ

पीटीवी के इस श्वेत श्याम वीडियो में रूना जी ने इस ग़ज़ल को करीब 20-22 की उम्र में गाया होगा। इसके कुछ सालों बाद वो बांग्लादेश चली गयीं। यही वो समय था जब उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए भी गाने रिकार्ड किए। फिलहाल सुनिए इस ग़ज,ल को उनकी आवाज़ में..



इस ग़ज़ल के कुछ अशआर और भी थे तो मैंने सोचा कि क्यूँ ना आपको ये पूरी ग़ज़ल इसे लिखनेवाले शायर की आवाज़ में भी सुना दूँ।


अब तू उस की हुई जिस पे मुझे प्यार आता है
ज़िंदगी आ तुझे सीने से लगाए जाऊँ

यही चेहरे मिरे होने की गवाही देंगे
हर नए हर्फ़ में जाँ अपनी समाए जाऊँ

जान तो चीज़ है क्या रिश्ता-ए-जाँ से आगे
कोई आवाज़ दिए जाए मैं आए जाऊँ

शायद इस राह पे कुछ और भी राही आएँ
धूप में चलता रहूँ साए बिछाए जाऊँ

अहल-ए-दिल होंगे तो समझेंगे सुख़न को मेरे
बज़्म में आ ही गया हूँ तो सुनाए जाऊँ



रूना जी पिछले दिसंबर में गुलाबी गेंद से खेले गए भारत बांग्लादेश टेस्ट मैच में अतिथि के रूप में कोलकाता आई थीं। बतौर संगीतकार उन्होंने पिछले दिसंबर में ही एक एलबम रिलीज़ किया है जिसका नाम है Legends Forever । इस एलबम के सारे गीत बांग्ला में हैं पर अन्य नामी कलाकारों के साथ उन्होंने इस एलबम  में हरिहरण और आशा जी की आवाज़ का इस्तेमाल किया है। 

जब उनसे इस भारत यात्रा के दौरान पूछा गया कि पुराने और अभी के संगीत में क्या फर्क आया है तो उन्होंने कहा कि 
पहले हम एक गीत गाने के पहले वादकों के साथ रियाज़ करते थे। एक गलती हुई तो सब कुछ शुरु से करना पड़ता था। रिकार्डिंग के पहले भी घंटों और कई बार दिनों तक रियाज़ चलता था और इसका असर ये होता था कि गीत की आत्मा मन में बस जाती थी। आज तो हालत ये है कि आप स्टूडियो जाते हैं, वहीं गाना सुनते हैं और रिकार्ड कर लेते हैं। टेक्नॉलजी ने सब कुछ पहले से आसान बना दिया है और हमें थोड़ा आलसी।
रूना जी के इस कथन से शायद ही आज कोई संगीतप्रेमी असहमत होगा। वे  इसी तरह संगीत के क्षेत्र में आने वाले सालों में भी सक्रियता बनाए रखेंगी ऐसी उम्मीद है।

गुरुवार, अगस्त 19, 2010

बना गुलाब तो काँटे चुभा गया इक शख़्स.... रूना लैला / उबैद्दुलाह अलीम


आज की ये पोस्ट है पाकिस्तान के मशहूर शायर उबैद्दुलाह अलीम की एक बेहतरीन ग़ज़ल के बारे में, जिसे रूना जी ने अपनी दिलकश आवाज़ से एक अलग ही ऊँचाई तक उठाया है। तो पहले जिक्र इस ग़ज़ल का और बाद में अलीम शाह की कुछ और चुनिंदा ग़ज़लों के माध्यम से रूबरू होइएगा इस शायर से...


भगवान ने हमें जो जिंदगी बख्शी है उसकी एक डोर तो ऊपरवाला अपने पास रखता ही है पर उसी डोर का एक सिरा वो हमें भी थमा कर जाता है। पर हम इस डोर को पकड़ने के लिए कब इच्छुक रहे हैं ? बचपन में ये डोर माता पिता के पास रहती है पर जवानी मे जब हम इस डोर को पकड़ने के काबिल हो भी जाते हैं तो इसे किसी और के हाथ में दे के ज़िंदगी उसके इख़्तियार में दे देते हैं। आलम ये होता है कि मैं मैं नहीं रह कर वो हो जाते हैं। बकौल मीर

दिखाई दिये यूँ कि बेख़ुद किया
मुझे आप से ही जुदा कर चले

लीजिए अपना वज़ूद यूँ भुला दिया कि अपने आप से ही ख़ुद को जुदा पाया। पर ये बेइख़्तियारी का आलम तो तभी तक सुकून देता है जब आपकी ये डोर एक सच्चे प्रेमी के हाथ रहती है। पर आप कहेंगे सच्चा प्रेमी वो भी आज के दौर में क्यूँ मजाक कर रहे हैं जनाब ? सही है आपको मजाक लग रहा है क्यूँकि वक़्त के थपेड़ों ने आप को समझदार बना दिया है। पर इस दौर में क्या.. हर दौर में खामख्याली पालने वाले लोग रहे हैं और रहेंगे। यहाँ तक कि कल तक समझदार लगने वाले लोगों को भी मैंने अपने जीवन के इस डोर को ऐसे शख्सों के हाथ में सोंपते देखा है जो कि कभी भी उस ऐतबार के लायक नहीं थे। नतीज़ा वही जो इस ग़ज़ल में उबैद्दुलाह अलीम फरमा रहे हैं कि

बना गुलाब तो काँटे चुभा गया इक शख़्स
हुआ चराग तो घर ही जला गया इक शख़्स

अलीम साहब की ग़ज़लों में ये ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद है। इसका हर इक शेर दिल में उतरता सा महसूस होता है, खासकर तब जब आप इसे रूना लैला की आवाज़ में सुन रहे होते हैं। अपनी ग़ज़ल गायिकी से जो असर रूना जी पैदा करती हैं वो उनकी समकालीन भारतीय ग़ज़ल गायिकाओं में मुझे तो नज़र नहीं आता। कुछ दिनों से ये ग़ज़ल जुबाँ से उतरने का नाम ही नहीं ले रही है। तो आप भी सुनिए ना..



बना गुलाब तो काँटे चुभा गया इक शख़्स
हुआ चराग तो घर ही जला गया इक शख़्स


तमाम रंग मेरे और सारे ख़्वाब मेरे

फ़साना थे कि फ़साना बना गया इक शख़्स


मै किस हवा में उडूँ किस फ़ज़ा में लहराऊँ

दुखों के जाल हर इक सू बिछा गया इक शख़्स


मोहब्बतें भी अजब उसकी नफरतें भी कमाल

मेरी ही तरह का मुझ में समा गया इक शख़्स


रूना जी ने उबैद्दुलाह अलीम की इस ग़ज़ल के कुछ अशआर नहीं गाए हैं।

वो माहताब था मरहम बदस्त आया था

मगर कुछ और सिवा दिल दुखा गया इक शख़्स 


मोहब्बतों ने किसी की भुला रखा था उसे
मिले वो जख्म कि फिर याद आ गया इक शख़्स

खुला ये राज़ कि आईनाखाना है दुनिया
और उसमें मुझ को तमाशा बना गया इक शख़्स


मुझे यकीं है कि आप में से अधिकांश ने उबैद्दुलाह अलीम साहब का नाम नहीं सुना होगा पर विभिन्न ग़ज़ल गायकों द्वारा उनके द्वारा लिखी गई ग़ज़लें जरूर सुनी होंगी। मसलन गुलाम अली की वो छोटे बहर की प्यारी सी ग़ज़ल याद है आपको

कुछ दिन तो बसो मेरी आँखों में
फिर ख़्वाब अगर हो जाओ तो क्या


कोई रंग तो दो मेरे चेहरे को

फिर ज़ख्म अगर महकाओ तो क्या


जब हम ही न महके फिर साहब

तुम बाद-ए-सबा कहलाओ तो क्या


एक आईना था,सो टूट गया

अब खुद से अगर शरमाओ तो क्या


ऐसी ही उनकी एक हल्की फुल्की ग़ज़ल और है जिसे गुनगुनाने में बड़ा आनंद आता है
तेरे प्यार में रुसवा होकर जाएँ कहाँ दीवाने लोग
जाने क्या क्या पूछ रहे हैं यह जाने पहचाने लोग


जैसे तुम्हें हमने चाहा है कौन भला यूँ चाहेगा

माना और बहुत आएँगे तुमसे प्यार जताने लोग


और उनकी इस ग़ज़ल के प्रशंसकों की भी कमी नहीं है। चंद शेर मुलाहजा फरमाएँ ..

अजीज़ इतना ही रखो कि जी संभल जाये
अब इस क़दर भी ना चाहो कि दम निकल जाये

मोहब्बतों में अजब है दिलों का धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाये


उनकी ग़ज़ल कुछ इश्क था कुछ मज़बूरी थी.... को जहाँ फरीदा ख़ानम जी ने अपनी आवाज़ दी थी वहीं चाँद चेहरा सितारा
आँखें को हबीब वली मोहम्मद ने गाया था।

1939 में भोपाल में जन्में अलीम का शुमार आज़ाद पाकिस्तान के बुद्धिजीवी शायरों में होता है। कराची से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे साठ के दशक में कराची के दूरदर्शन केंद्र से जुड़े रहे। उनकी शायरी के दो संग्रह 'चाँद चेहरा सितारा आँखें' और 'वीरान सराय का दीया' नाम से प्रकाशित हुए हैं।

उबैद्दुलाह अलीम अहमदिया संप्रदाय से ताल्लुक रखते थे। पाकिस्तान में ये एक अल्पसंख्यक समुदाय है जिसकी आबादी करीब 40 लाख बताई जाती है। वहाँ इस संप्रदाय को गैर मुस्लिम करार दिया गया है और यहाँ तक कि उनके पवित्र स्थलों को मस्ज़िद कहने पर भी पाबंदी है। अगर आपको याद हो तो इसी साल मई में लाहौर के जिन धार्मिक स्थलों पर बम विस्फोट हुए थे (जिसमे करीब 80 लोग मारे गए थे) वो अहमदी संप्रदाय के पूजा स्थल ही थे। ख़ैर आप सोच रहे होंगे कि ग़ज़लों के जिक्र करते करते मैं इन बातों का उल्लेख आप से क्यूँ करने लगा? दरअसल उबैद्दुलाह की शायरी में अहमदियों के साथ हो रहे कत्ले आम का जिक्र बार बार मिलता रहा है। अलीम जी की इस ग़ज़ल के इन अशआरों पर गौर करें..

मैं किसके नाम लिखूँ जो आलम गुज़र रहे हैं
मेरे शहर जल रहे हैं, मेरे लोग मर रहे हैं

कोई और तो नहीं है पस-ए-खंजर-आजमाई
हमीं क़त्ल हो रहे हैं, हमीं क़त्ल कर रहे हैं



अलीम १९९८ में हृदय गति रुक जाने से इस दुनिया को छोड़ चले गए। पर उन्हें अपने लोगों पर हो रहे जुल्मों सितम का दर्द हमेशा सालता रहा। उनके दिल का दर्द उनकी इस मशहूर ग़ज़ल में साफ दिखाई देता है।

कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी सो मैंने जीवन वार दिया
मैं कैसा ज़िंदा आदमी था इक शख़्स ने मुझको मार दिया



मैं खुली हुई इक सच्चाई, मुझे जानने वाले जानते हैं
मैंने किन लोगों से नफरत की और किन लोगों को प्यार दिया

मैं रोता हूँ और आसमान से तारे टूटता देखता हूँ
उन लोगों पर जिन लोगों ने मेरे लोगों को आज़ार* दिया

*दुख

मेरे बच्चों को अल्लाह रखे इन ताज़ा हवा के झोकों ने
मैं खुश्क पेड़ खिज़ां का था, मुझे कैसा बर्ग-ओ-बार दिया


आशा है अपने लोगों के लिए जिस चैनो सुकूँ की कामना करते हुए वो इस ज़हाँ से रुखसत हुए वो उनके समुदाय को निकट भविष्य में जरूर नसीब होगा।
 

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