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शनिवार, अप्रैल 28, 2018

मैथिली ठाकुर का गाया एक प्यारा लोक गीत : दूल्हा के आरती उतारूँ हे सखी Ram Vivah Geet by Maithili Thakur

शादी विवाह का समय है तो आइए आज बात करते हैं एक विवाह गीत की जिसे मैंने कुछ दिन पहले ही सुना। विवाह भी ऐसा वैसा नहीं बल्कि सियावर राजा रामचंद्र जी का तो मैंने सोचा कि आपको भी ये मधुर लोकगीत सुनाता चलूँ। पर गीत सुनने से पहले ये जानना नहीं चाहेंगे कि राम जी की ये बारात किस इलाके में गयी थी?

ये इलाका है मिथिलांचल का जो कि बिहार के उत्तर पूर्वी हिस्से में फैला हुआ है। यहाँ की जनभाषा मैथिली है।किंवदंती  है कि महाराजा जनक की उत्पत्ति उनके मृत पिता निमि की देह से हुई। इसीलिए जनक को मंथन से पैदा होने की वजह से ‘मिथिल’ और  विदेह होने के कारण ‘वैदेह’ कहा जाता है। इतिहास में ये इलाका विदेह और फिर बाद में मिथिला के रूप में जाना गया। मधुबनी और दरभंगा मिथिला के सांस्कृतिक केंद्र माने जाते हैं। जनकपुत्री वैदेही यानि सीता जी का जन्म भी इसी इलाके सीतामढ़ी जिले में माना जाता है। 

आज जिस गीत की ऊपर चर्चा  मैंने छेड़ी है उसे गाया है सत्रह वर्षीय मैथिली ठाकुर ने जो मधुबनी से ताल्लुक रखती हैं। 


मैथिली ने बचपन में अपने दादा जी से संगीत सीखा। पिता दिल्ली में संगीत के शिक्षक थे। जब मैथिली ग्यारह साल की थीं तो वो उन्हें दिल्ली ले आए और उन्हें संगीत की विधिवत शिक्षा देनी शुरु कर दी। इस दौरान मैथिली ने कई सारे रियालिटी शो में भाग लिया। पर किसी ना किसी चरण में वे बाहर होती गयीं। उनकी मेहनत ज़ारी रही और पिछले साल कलर्स टीवी के राइसिंग स्टार कार्यक्रम में वे प्रथम रनर्स अप तक पहुँची। इस कार्यक्रम में उनके प्रदर्शन को मोनाली ठाकुर और शंकर महादेवन जैसे नामी कलाकारों ने भी खूब सराहा। मैथिली ने इस कार्यक्रम में कई फिल्मी गीत गाए पर उनकी तमन्ना है कि वो अपने नाम के अनुरूप अपनी भाषा के लोकगीतों को पूरी दुनिया में फैलाएँ। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अपने इस उद्देश्य में वो कच्ची उम्र में ही वांछित सफलता अर्जित कर रही हैं।

तो बात हो रही थी मिथिलांचल की जहाँ का ये लोकगीत है। चूँकि सीता जी मिथिला से थीं तो यहाँ की शादियों में राम विवाह से जुड़े लोकगीत सदियों से गाए जाते रहे। जब मैंने इस गीत को सुना तो मुझे इसके बोल रामचरितमानस के बालकांड में लिखी चौपाइयों से प्रेरित लगे जिसे मेरी नानी मुझे बचपन में सुनाया करती थीं। उसी बालकांड की एक चौपाई याद आती है जिसमें राम के अद्भुत व्यक्तित्व का वर्णन है। चौपाई कुछ यूँ थी

पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥
सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥

(राम के शरीर पर पीला जनेऊ उनकी शोभा को बढ़ा रहा है। हाथ की जो अँगूठी है उसकी चमक दिल को चुरा लेने वाली है। ब्याह की जो साज सज्जा है वो बड़ी सुंदर लग रही है। श्री राम की छाती आभूषणों से सुसज्जित है।)

यहाँ लोकगीत में राम की आरती उतारने का प्रसंग है (जिसे आमतौर पर मिथिला की शादियों में आजकल द्वारपूजा के वक्त गाया जाता है)। जो स्त्रियाँ उन्हें देख रही हैं उनकी आँखें आनंद से भरी जा रही हैं। बाकी जैसा चौपाई में है वैसे ही शादी  के मंडप और श्रीराम की सुंदरता का बखान इस लोकगीत में भी है।

चारू दूल्हा के आरती उतारूँ हे सखी
चितचोरवा के आरती उतारूँ हे सखी
दुल्हिन श्री मिथिलेश कुमारी, दूल्हा दुलरुवा श्री अवध बिहारी
भरी भरी नैना निहारूँ हे सखी, आहे
भरी भरी नैना निहारूँ हे सखी
चितचोरवा के आरती उतारूँ हे सखी
चारू दूल्हा के आरती उतारूँ हे सखी
ब्याह विभूषण अंग अंग साजे
मणि मंडप मंगलमय राचे
तन मन धन न्योछारूँ हे सखी आहे
तन मन धन न्योछारूँ हे सखी
चितचोरवा के आरती उतारूँ हे सखी
चारू दूल्हा के आरती उतारूँ हे सखी
चितचोरवा के आरती उतारूँ हे सखी

मैथिली की आवाज़ तो मीठी है ही पर साथ ही साथ हारमोनियम पर उनकी थिरकती उँगलियाँ कमाल करती हैं। गीत की धुन और ॠषभ ठाकुर की तबले पर जोरदार संगत मैथिली की गायिकी को बेहतरीन अवलंब देते हैं। तो आइए सुनते हैं इस गीत को।



वैसे मैथिली ठाकुर की शास्त्रीय संगीत पर कितनी अच्छी पकड़ है इसका अंदाज़ा  आप मास्टर सलीम के साथ उनकी इस बेजोड़ संगत को सुन के समझ सकते हैं। मैंथिली अपनी माटी के लोकगीतों के साथ हर तरह के नग्मों को गाने में प्रवीणता हासिल करेंगी ऐसा मेरा विश्वास है।

रविवार, सितंबर 17, 2017

रस घोलता रवींद्र संगीत : तुमी रोबे नीरोबे Tomi Robe Nirobe

रवींद्र नाथ टैगोर एक कवि, उपन्यासकार, चिंतक तो थे ही, साथ ही एक गीतकार और संगीतकार भी थे। दो हजार से ज्यादा गीतों को लिखना और उनकी धुन तैयार करना इस बहुमुखी प्रतिभा वाले व्यक्तित्व का कमाल ही लगता है। उनके समस्त संगीत को रवींद्र संगीत के नाम से जाना जाता रहा है।  यूँ तो रवींद्र संगीत की जड़े बंगाल में रहीं पर बंगाल के लोगों ने इस गायन शैली को बिहार, झारखंड और ओड़ीसा तक पहुँचाने में मदद की। मुझे याद है कि बचपन में पटना का रवींद्र भवन सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था। रवींद्र संगीत को पहली बार सुनने का अवसर मुझे वहीं मिला।

रवींद्र संगीत की खासियत रही है कि इन गीतों में वाद्य यंत्रों का कम से कम इस्तेमाल रहा और ज्यादा महत्त्व बोलों और गायिकी को मिला। गुरुवर टैगोर नहीं चाहते थे कि उनकी धुन, उनके नोटेशेन्स के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ की जाए। यही वजह थी कि उनका गीत भले ही तमाम कलाकारों द्वारा क्यूँ ना गाया गया हो सब का गाने का अंदाज एक सा रहता है। पर हाल ही में मेरे एक बंगाली मित्र ने बताया कि विगत कुछ वर्षों से कॉपीराइट अवधि खत्म होने के बाद लोग उनके गीतों को अलग धुनों में पेश कर रहे हैं।



पिछले महीने मुझे टैगोर का रचा ऐसा ही एक गीत सुनने को मिला जिसे मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ नई पीढ़ी के दो उदीयमान गायकों की आवाज़ में जिसमें एक ने तो हाल ही में गायिकी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीता है तो दूसरा आज के युवाओं का चहेता है और पुराने से लेकर नए गानों को अपनी आवाज़ में ढालने में माहिर है।

इस गाने में जो बांग्ला प्रयुक्त हुई है वो बिल्कुल कठिन नहीं हैं क्यूँकि उसमें ज्यादा संस्कृत से आए शब्द हैं जो हिंदी में उतने ही प्रचलित हैं । फिर भी आप इस संवेदनशील गीत का लुत्फ उठा सकें इसलिए इसका अनुवाद करने की कोशिश की है मैंने।

तुमी रोबे नीरोबे हृदय ममो
निबिरो निभृतो पूर्णिमा निशीथीनी समो

ममो जीबनो जौबनों ममो अखिलो भुबनो
तुमी भोरिबे गौरबे निशीथीनी समो
तुमी रोबे नीरोबे हृदय ममो

जागिबे एकाकी तबो करूणो आखी
तबो अंचोल छाया मोरे रोहिबे ढाकी
ममो दुखो बेदनो ममो सफल स्वपनो
तुमी भोरिबे सौरभे निशीथीनी समो

तुम मेरे हृदय में चुपचाप यूँ ही प्रकाशमान रहोगी जैसे कि पूर्णिमा का चाँद अकेली गहरी रातों में चमकता है। मेरे इस जीवन,इस यौवन और मेरे संसार को तुम अपने गौरव से भर दोगी जैसे कोई रात रोशनी को पाकर चमक उठती है। उन एकाकी रातों में तुम्हारी उन करुणमयी आँखें का स्पर्श मुझे पुलकित करेगा। तुम्हारे आँचल की छाया मेरे सारे दुख, मेरी सारी वेदना को ढक लेगी। मेरे सपनों को तुम वैसे ही सुरभित करोगी जैसे कि कोई महकती हुई रात ।

जीवन में जरूरी नहीं कि हम उन्हीं से संबल प्राप्त करें जो हमारे साथ हों। दूर रहकर भी कुछ व्यक्तित्व मन में ऐसी छाप छोड़ देते हैं कि लगता ही नहीं कि वो हमसे कभी अलग हुए। ये गीत ऐसी ही कुछ भावनाएँ मन में छोड़ जाता है।

तो आइए सुनते हैं सबसे पहले इस गीत को इमोन चक्रवर्ती की आवाज़ में। 29 वर्षीय इस गायिका का नाम सुर्ख्रियों में तब गूँजा जब अपनी पहली ही फिल्म के लिए इन्हें सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायिका का वर्ष 2017 का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। हावड़ा जिले के छोटे से कस्बे में जन्मी इमोन इससे पहले टैगोर के लिखे गीतों को गाती रही हैं। उनकी आवाज़ में एक ठसक है, एक गहराई है जो इस गीत के हर शब्द और उसमें छुपे प्रेम और वेदना को एक साथ उभारती है।


यूँ तो इस गीत को हेमंत कुमार से लेकर शान तक ने आपनी आवाज़ दी है। पर ये सारे गायक बंगाल से ताल्लुक रखते हैं। पर इस फेरहिस्त में जब मैंने सनम पुरी का नाम देखा तो मैं अचंभित रह गया।  हँसी तो फँसी, गोरी तेरे प्यार में, हमशक्ल जैसी फिल्मों में कुछ गीत गुनगुनाने वाले सनम मुख्यतः अपने बैंड के लिए जाने जाते हैं जो नए पुराने गानों को एक अलग अंदाज़ में पिछले कुछ सालों से पेश करता रहा है। यू ट्यूब में सनम का चैनल लाखों लोगों द्वारा सुना जाता है। उन्होंने इस बांग्ला गीत को जिस तरह डूब कर गाया है, बांग्ला उच्चारण को हू बहू पकड़ा है वो निश्चय ही काबिलेतारीफ़ है।

शुक्रवार, अप्रैल 14, 2017

बता मेरे यार सुदामा रै, भाई घणे दिना में आया Bata Mere Yaar Sudama Re...

पिछले कुछ वर्षों में हरियाणा अक्सर गलत कारणों से ज्यादा में चर्चा में रहा है। भ्रूण हत्या की बात हो  या  खाप पंचायत के अमानवीय फैसले, जाटों का मनमाना उपद्रव या जगतविदित हरियाणवी अक्खड़पन ये सभी मुद्दे ही मीडिया में सुर्खियाँ बटोरते रहे हैं। । पर विगत कुछ महीनों से इस राज्य के कुछ सकरात्मक पहलू भी हमारे सामने आए हैं जिनकी वजह से यहाँ की छवि को एक नई रौशनी में देख कर पूरा देश प्रभावित हुआ है। इसका पहला श्रेय तो यहाँ के पहलवानों, खासकर महिला पहलवानों को जाता है जिन्होंने ना केवल ओलंपिक, एशियाई व कॉमनवेल्थ खेलों में पदक जीत कर देश का नाम रोशन किया बल्कि अपनी इस सफलता से बॉलीवुड के निर्माता निर्देशकों को हरियाणवी ग्रामीण संस्कृति के प्रति आकृष्ट किया।

नतीजा ये हुआ कि वही बोली जो हमें थोड़ी रूखी लगती थी उसमें हमें गाँव का सोंधापन आने लगा। हरियाणवी जुमले हमारी जुबां पर चढ़ गए। हाल ही में आई फिल्म दंगल इस भाषा और परिवेश को हमारे और करीब ले आई। ये सब हो ही रहा था कि कुछ स्कूली छात्राओं द्वारा गाया एक हरियाणवी भजन यू ट्यूब पर इस क़दर लोकप्रिय हुआ कि कुछ हफ्तों में वो पूरे देश में करोड़ लोगों द्वारा देखा और सराहा गया।


कृष्ण सुदामा की मित्रता की कहानियाँ तो हम बचपन से पढ़ते आए हैं। पर रोहतक के खिल्लौड़ गाँव से ताल्लुक रखने वाली विधि ने कृष्ण सुदामा  संवाद के उन किस्सों को फिर से पुनर्जीवित कर दिया है।  मुख्य गायिका विधि  भजन के इस रूप में सामने आने की कहानी अपने एक साक्षात्कार में बड़े भोलेपन से कुछ यूँ बयाँ करती हैं
"मेरी मम्मी को गाणा पसंद था। वो जाती थी सत्संग में गाणे। तो फिर मम्मी ने मुझे सिखाया। फिर मैंने अपने म्यूजिक टीचर को बताया तो सर को भी अच्छा लगा। हमने स्कूल में गाया तो सबको अच्छा लगा।  सर ने कहा इसको नया म्यूजिक देते हैं। फिर सर ने तैयार करा के इसे यू ट्यूब पर डलवा दिया और ये प्रसिद्ध हो गया। ये जितनी भी मेहनत है हमारे सर की है। उनके सामने हमारी मेहनत तो कुछ भी नहीं है।"

सोमेश जांगड़ा
सही मायने में विधि की आवाज़ को हम तक पहुँचाने में संगीत शिक्षक सोमेश जांगड़ा का सबसे बड़ा हाथ है। सोमेश कहते हैं कि विधि की आवाज़ में जो टोन है वो बिल्कुल लोकगायिकी के अनुरूप है। जब इस गीत को एक नए रूप में प्रस्तुत करने का विचार उनके मन में आया तो उन्होंने दो हफ्तों में इसे फिर से संगीतबद्ध किया। दो दिन में इस भजन की डबिंग हुई। बाकी समय कोरस और गायिकी को अलग रिकार्ड कर मिक्स करने में लगा। एक बार जब यू ट्यूब में ये अपलोड हुआ तो लोग इतने प्रभावित हुए कि हरियाणा के कार्यक्रमों में इन बच्चियों को बुलाया जाने लगा। अलग अलग जगहों पर लाइव परफारमेंस के दौरान वीडियो रिकार्डिग हुई जो इंटरनेट पर साझा होती चली गयी।

 सोमेश का मानना है कि इस भजन के इतने सराहे जाने की तीन वज़हें हैं। पहली तो ये भजन, जिसकी शब्द रचना बिल्कुल एक लोक गीत जैसी है। दूसरे विधि जिसकी आवाज़ में लोक गायिका की सभी खूबियाँ मौज़ूद हैं और तीसरी बात इसका संगीत जिसमें हारमोनियम के साथ लोक वाद्यों का ऐसा समावेश किया गया है जो हरियाणवी मिट्टी में रचा बसा सा लगता है। ये तीनों मिलकर मन में ऐसा सुकून जगाते हैं कि मन कृष्ण द्वारा बालसखा सुदामा के साथ दिखाए अपनत्व से श्रद्धा से भर उठता है।


बता मेरे यार सुदामा रै, भाई घणे दिना में आया

बालक था रे जब आया करता, रोज खेल के जाया करता
हुई कै तकरार सुदामा रै, भाई घणे दिना में आया

मन्ने सुना दे कुटुंब कहाणी, क्यों कर पड़ गयी ठोकर खानी
टोटे की मार सुदामा रै, भाई घणे दिना में आया

सब बच्चों का हाल सुना दे, मिसराणी  की बात बता दे
रे क्यूँ गया हार सुदामा रै, भाई घणे दिना में आया

चाहिए था रे तन्ने पहलम आना, इतना दुःख नहीं पड़ता ठाणा
क्यों भूला प्यार सुदामा रै, भाई घणे दिना में आया

इब भी आगया ठीक बखत पे, आज बैठ जा म्रेरे तखत पै
जिगरी यार सुदामा रै, भाई घणे दिना में आया

आजा भगत छाती पे लाल्यूँ, , इब बता तन्ने कड़े  बिठा लूँ
करूँ साहूकार सुदामा रै, भाई घणे दिना में आया
 (घणे दिनों : बहुत दिनों में, टोटा : गरीबी, बखत :वक़्त,  ठाणा :उठाना,  कड़े : किधर ,छाती पे लाल्यूँ  :छाती से लगा लूँ , इब  :अब, )

इस भजन की अपार सफलता से दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हो गयीं।  भारतीय संगीत से पश्चिमी संगीत के सम्मिश्रण यानि फ्यूजन के इस दौर में भी हमारी देशी संस्कृति में इतना कुछ है कि जिसे अगर ढंग से परोसा जाए तो देश के संगीतप्रेमी उसे सर आँखों पर बिठाते हैं। दूसरी बात ये कि इतनी बड़ी आबादी वाले देश में हुनर हर जगह बिखरा है। जरूरत है तो इक सहारे की और एक माध्यम की। सफलता की ऐसी कहानियाँ इंटरनेट जैसे सशक्त माध्यम से आगे भी दोहराई जाएँगी मुझे इसका पूरा भरोसा है।

शुक्रवार, नवंबर 04, 2016

पहिले पहिल हम कइलीं, छठी मइया व्रत तोहार : शारदा सिन्हा का गाया मधुर छठ गीत Pahele Pahil Hum Kaili

चार दिन चलने वाले छठ पर्व का शुभांरभ हो चुका है और छठ के आगमन के पहले ही छठ मइया के पारम्परिक गीतों से बिहार, झारखंड, नेपाल के तराई और पूर्वी उत्तरप्रदेश के इलाके गुंजायमान हैं। बचपन में पटना में रहते हुए इस पर्व को अपने चारों ओर मनते हुए एक बाहरी दर्शक के तौर पर देखा है। सारे पर्व त्योहारों में मुझे यही एक पर्व ऐसा दिखता है जिसमें आस्था की पवित्रता किसी दिखावे से ज्यादा प्रगाढ़ता से दिखाई देती है।
कामकाजी बहू की भूमिका में Kristine Zedek
छठ के गीत बिहार के सबसे लोकप्रिय लोकगीतों में अपना स्थान रखते हैं। एक ही मूल धुन में गाए जाने वाले आस्था के इन सरल गीतों में एक करुणा है, एक मिठास है, जिससे हर कोई जुड़ता चला जाता है। यूँ तो छठ के गीतों को अनुराधा पोडवाल से लेकर कल्पना पोटवारी और देवी जैसे कलाकारों ने अपनी आवाज़ दी है पर छठ गीतों में जान फूँकने में लोक गायिका व पद्मश्री से सम्मानित शारदा सिन्हा का अभूतपूर्व योगदान है।
शारदा सिन्हा Sharda Sinha
उत्तर बिहार में जन्मी 63 वर्षीय शारदा सिन्हा ने संगीत की आरंभिक शिक्षा रघु झा, सीताराम हरि डांडेकर और पन्ना देवी से ली थी। शारदा जी की आवाज़ में जो ठसक है वो लोक गीतों के सोंधेपन को सहज ही श्रोताओं के करीब ले आती है। बिहार की आंचलिक भाषाओं भोजपुरी, मगही व मैथिली तीनों में उनके कई एलबम बाजार में आते रहे हैं। हिंदी फिल्मों में भी उनकी आवाज़ का इस्तेमाल किया गया है और कई बार ये गीत खासे लोकप्रिय भी रहे हैं। मैंने प्यार किया काकहे तोसे सजना, ये तोहरी सजनियापग पग लिये जाऊँ, तोहरी बलइयाँहम आपके हैं कौन का बाबुल जो तुमने सिखाया, जो तुमसे पाया और हाल फिलहाल में गैंग आफ वासीपुर 2  में तार बिजली से पतले हमारे पिया ने खूब धूम मचाई थी। पर छठ के मौके पर आज मैं आपसे उनके उस छठ गीत की बात करने जा रहा हूँ जो पिछले हफ्ते यू ट्यूब पर रिलीज़ किया गया है और खूब पसंद भी किया जा रहा है।

पर इससे पहले कि इस गीत की बात करूँ इस पर्व की जटिलताओं से आपका परिचय करा दूँ। सूर्य की अराधना में चार दिन चलने वाले इस पर्व की शुरुआत दीपावली के ठीक चार दिन बाद से होती है। पर्व का पहला दिन नहाए खाए कहलाता है यानि इस दिन व्रती नहा धो और पूजा कर चावल और लौकी मिश्रित चना दाल का भोजन करता है। पर्व के दौरान शुद्धता का विशेष ख्याल रखा जाता है। व्रती बाकी लोगों से अलग सोता है। अगली शाम रत रोटी व गुड़ की खीर के भोजन से टूटता है और इसे खरना कहा जाता है। इसे मिट्टी की चूल्हे और आम की लकड़ी में पकाया जाता है। इसके बाद का निर्जला व्रत 36 घंटे का होता है। दीपावली के छठे दिन यानि इस त्योहार के तीसरे दिन डूबते हुए सूरज को अर्घ्य दिया जाता है और फिर अगली सुबह उगते हुए सूर्य को। इस अर्घ्य के बाद ही व्रती अपना व्रत तोड़ पाता है।
छठ के दौरान पूजा की तैयारी 
त्योहार में नारियल, केले के घौद, ईख  का चढ़ावा चढ़ता है, इसलिए छठ के हर गीत में आप इसका जिक्र जरूर पाएँगे। ये व्रत इतना कठिन है कि इसे लगातार कर पाना कामकाजी महिला तो छोड़िए घर में रहने वाली महिला के लिए आसान नहीं है। पर पूरा परिवार घुल मिलकर ये पर्व मनाता है तो व्रतियों में वो शक्ति आ ही जाती है। एकल परिवारों में छठ मनाने की घटती परंपरा को ध्यान में रखते हुए शारदा जी ने एक खूबसूरत गीत रचा है जिसके बोल हैं हृदय मोहन झा के और संगीत है आदित्य देव  का। गीत के बोल कुछ यूँ हैं

पहिले पहिल हम कइलीं , छठी मइया व्रत तोहार
करिह क्षमा छठी मइया, भूल-चूक गलती हमार
गोदी के बलकवा के दीह, छठी मइया ममता-दुलार
पिया के सनेहिया बनइह, मइया
दीह सुख-सार.
नारियल-केरवा घउदवा, साजल नदिया किनार.
सुनिहा अरज छठी मइया, बढ़े कुल-परिवार.
घाट सजेवली मनोहर, मइया तोरा भगती अपार.
लिहिना अरगिया हे मइया, दीहीं आशीष हजार.
पहिले पहिल हम
कइलीं , छठी मइया व्रत तोहार
करिहा क्षमा छठी मइया, भूल-चूक गलती हमार


वैसे तो भोजपुरी हिंदी से काफी मिलती जुलती है पर जो लोग इस भाषा से परिचित नहीं है उन्हें इस गीत के मायने बता देता हूँ

छठी मैया मैं पहली बार आपकी उपासना में व्रत कर रही हूँ। अगर कोई भूल हो जाए तो मुझे माफ कर देना। ये जो मेरी गोद में नन्हा-मुन्हा खेल रहा है, माँ तुम उसे अपनी ममता देना। माँ तुम्हारे आशीर्वाद से पति का मेरे प्रति स्नेह और मेरे जीवन की खुशियाँ बनी रहें। तुम्हारी आराधना के लिए नारियल व केले के घौद को सूप में सुंदरता से सजाकर मैं नदी घाट किनारे आ चुकी हूँ। मेर विनती सुनना मैया और मेरे घर परिवार को फलने फूलने का आशीष देना। (यहाँ छठी मैया से तात्पर्य सूर्य की पत्नी उषा से है।)

वीडियो में एक जगह घर की बहू इस बात को कहती है कि घर में जो छठ मनाने की परंपरा है उसे मैं खत्म नहीं होने दूँगी। अच्छा होता कि पति पत्नी दोनों मिलकर यही बात कहते क्यूँकि छठ एक ऐसा पर्व है जिसे पुरुष भी करते हैं। आख़िर परंपरा तो पूरे परिवार के लिए हैं ना,  तो उसके निर्वहन की जिम्मेवारी भी पूरे परिवार की है।



इस वीडियो में नज़र आए हैं भोजपुरी फिल्मों के नायक क्रांति प्रकाश झा और दक्षिण भारतीय फिल्मों और टीवी पर नज़र आने वाली अभिनेत्री क्रिस्टीन जेडक। संगीतकार आदित्य देव का गीत में बाँसुरी का प्रयोग मन को सोहता है। तो बताइए कैसा लगा आपको ये छठ गीत ?

गुरुवार, मई 15, 2014

दानेह पे दानेह दानना.... एक मस्ती भरा बलूची लोकगीत ! Daanah pe Daanah by Akhtar Chanal Zahri

लोकगीतों और लोकगायकों की सबसे बड़ी खासियत होती है कि उनके गाने का लहज़ा और रिदम कुछ इस तरह का होता है कि बिना भाषाई ज्ञान रखते हुए भी आप उस संगीत रचना से बँध कर रह जाते हैं। आज एक ऐसे ही गीत से आपको रूबरू करा रहा हूँ जिसकी भाषा बलूची है। इसे गाया है बलूची लोकगायक अख़्तर चानल ज़ाहरी  ने। बलूची रेडियो स्टेशन से पहली बार चार दशकों पहले अपनी प्रतिभा का परिचय देने वाले 60 वर्षीय ज़ाहरी पूरे विश्व में बलूची लोकसंगीत के लिए जाना हुआ नाम हैं। अपनी मिट्टी के संगीत के बारे में ज़ाहरी कहते हैं
"जिस जगह से मैं आता हूँ वहाँ बच्चे सिर्फ दो बातें जानते हैं गाना और रोना। संगीत से हमारा राब्ता बचपन से ही हो जाता है। बचपन में एक गड़ेरिए के रूप में अपनी भेड़ों को चराते हुए मैं जो नग्मे गुनगुनाता था वो मुझे आज तक याद हैं। मुझे तो ये लगता है कि हर जानवर, खेत खलिहान, फूल और यहाँ तक कि घास का एक क़तरा भी संगीत की धनात्मक उर्जा को महसूस कर सकता है।"
आज जिस बलूची गीत की बात मैं करने जा रहा हूँ उसे ज़ाहरी के साथ गाया था पाकिस्तानी गायिका कोमल रिज़वी ने।  बहुमुखी प्रतिभा वाली 33 वर्षीय कोमल गायिकी के आलावा गीतकार और टीवी होस्ट के रूप में भी पाकिस्तान में एक चर्चित नाम हैं। जिस तरह बलूचिस्तान के दक्षिणी इलाके के साथ सिंध की सीमाएँ सटती हुई चलती हैं उसी को देखते हुए कोक स्टूडियो की इस प्रस्तुति में बलूची गीत का सिंध के सबसे लोकप्रिय लोकगीत ओ यार मेरी..दमादम मस्त कलंदर के साथ फ्यूज़न किया है। फ्यूजन तो अपनी जगह है पर इस गीत का असली आनंद ज़ाहरी और कोमल रिज़वी द्वारा गाए बलूची हिस्से को सुन कर आता है।


गीत की भाषा ब्राह्वी है जो प्राचीन बलूचिस्तान की प्रमुख स्थानीय भाषा थी। ज़ाहिरी इस गीत के बारे में बताते हैं कि क्वेटा में जब वो एक दर्जी की दुकान में बैठे थे तो उन्होंने एक फकीर को दानेह पे दानेह दानना गाते सुना। इसी मुखड़े से उन्होंने बलूचिस्तान से जुड़े अपने इस गीत को विकसित किया। गीत के मुखड़े दानेह पे दानेह दानना का अर्थ है कि संसार के अथाह दानों में से एक दाना मेरा भी है। ज़ाहरी  के इस गीत में एक गड़ेरिया अपने बच्चों को बलूचिस्तान की नदियों, शहरों व प्राचीन गौरवमयी इतिहास और दंत कथाओं से परिचय कराता है। गीत के बीच बीच में जानवरों को हाँकने के लिए प्रचलित बोलियों का इस्तेमाल किया गया है ताकि लगता रहे कि ये एक चरवाहे का गीत है।


पर इस गीत का लोकगीत की सबसे मजबूत पक्ष इसकी रिदम और ज़ाहरी की जोरदार आवाज़ है जिसका प्रयोग वो अपने मुल्क की तारीफ़ करते हुए इस मस्ती से करते हैं कि मन झूम उठता है। कोमल ज़ाहरी के साथ वही मस्ती अपनी गायिकी में भी ले आती हैं। गीत के दूसरा हिस्सा मुझे उतना प्रभावित नहीं करता क्यूँकि दमादम मस्त कलंदर को इतनी बार सुन चुका हूँ कि उसे यहाँ सुनने में कुछ खास नयापन नहीं लगता।

इसलिए अगर आप सिर्फ बलूची हिस्से को सुनना चाहें तो नीचे की आडियो लिंक पर क्लिक करें।

मंगलवार, अप्रैल 29, 2014

आमाय भाशाइली रे ..क्या था गंगा आए कहाँ से..का प्रेरणास्रोत ? Aamay Bhashaili Ray..Ganga Aaye Kahan Se

कुछ दिनों पहले कोक स्टूडियो के सीजन 6 के कुछ गीतों से गुजर रहा था तो अचानक ही  बाँग्ला शीर्षक वाले  इस नग्मे पर नज़र पड़ी। मन में उत्सुकता हुई कि कोक स्टूडियो में बांग्ला गीत कब से संगीतबद्ध होने लगे। आलमगीर की गाई पहली कुछ पंक्तियाँ कान में गयीं तो लगा कि अरे इससे मिलता जुलता कौन सा हिंदी गीत मैंने सुना है? ख़ैर दिमाग को ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी और तुरंत फिल्म काबुलीवाला के लिए सलिल चौधरी द्वारा संगीतबद्ध और गुलज़ार द्वारा लिखा वो गीत याद आ गया  गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे..लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे....

जब इस ब्लॉग पर सचिन देव बर्मन के गाए गीतों की श्रंखला चली थी तो उसमें माँझी और भाटियाली  गीतों पर मैंने विस्तार से चर्चा की थी। बाँग्लादेश के लोक संगीत को कविता में ढालने वाले कवि जसिमुद्दीन की रचनाओं और धुनों से प्रेरित होकर सचिन दा ने बहुतेरे गीतों की रचना की। जब मैंने आमाय भाशाइली रे. सुना तो सलिल दा को भी उनसे प्रेरित पाया।  वैसे पाकिस्तान के पॉप संगीत के कर्णधारों में से एक आलमगीर ने कवि जसिमुद्दीन के लिखे जिस गीत को अपनी आवाज़ से सँवारा है उसे सलिल दा काबुलीवाले के प्रदर्शित होने से भी पहले बंगाली फिल्म में मन्ना डे से गवा चुके थे।


ख़ैर मन्ना डे तो मन्ना डे हैं ही पर पन्द्रह साल की आयु में अपना मुल्क बाँग्लादेश छोड़कर कराची में बसने वाले आलमगीर ने भी इस गीत को इतने दिल से गाया है कि मात्र दो मिनटों में ही वो इसमें प्राण से फूँकते नज़र आते हैं। इस गीत की लय ऐसी है कि अगर आपका बाँग्ला ज्ञान शून्य भी हो तो भी आप अपने आप को इसमें डूबता उतराता पाते हैं। कोक स्टूडिओ की इस प्रस्तुति में खास बात ये है कि इस लोकगीत में संगीत सर्बियन बैंड का है जो कि गीत के साथ ही बहता सा प्रतीत होता है।

तो आइए देखें इस लोकगीत में कवि जसिमुद्दीन हमसे क्या कह रहे हैं

आमाय भाशाइली रे आमाय डूबाइली रे
अकूल दोरियर बूझी कूल नाई रे


मैं भटकता जा रहा हूँ..मुझे कोई डुबाए जा रहा है इस अथाह जलराशि में जिसका ना तो कोई आदि है ना अंत

चाहे आँधी आए रे चाहे मेघा छाए रे
हमें तो उस पार ले के जाना माँझी रे

कूल नाई कीनर नाई, नाई को दोरियर पाड़ी
साबधाने चलइओ माँझी आमार भंग तोरी रे
अकूल दोरियर बूझी कूल नाइ रे


इस नदी की तो ना कोई सीमा है ना ही कोई किनारा नज़र आता है। माँझी मेरी इस टूटी नैया को सावधानी पूर्वक चलाना ताकि हम सकुशल अपने ठिकाने पहुँचें।

दरअसल कवि सांकेतिक रूप से ये कहना चाहते हैं कि ये जीवन संघर्ष से भरा है। लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जोख़िमों का सामना निर्भय और एकाग्र चित्त होकर करना पड़ेगा वर्ना इस झंझावत में डूबना निश्चित ही है।

काबुलीवाला में  गुलज़ार ने  गंगा की इस प्रकृति को उभारा है कि उसमें चाहे जितनी भी भिन्न प्रकृति की चीज़ें मिलें वो बिना उनमें भेद किए हुए उन्हें एक ही रंग में समाहित किए हुए चलती है। गीत के अंतरों में आप देखेंगे कि किस तरह गंगा के इस गुण को गुलज़ार प्रकृति और संसार के अन्य रूपकों में ढूँढते हैं?

गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे
आए कहाँ से, जाए कहाँ रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे

रात कारी दिन उजियारा मिल गए दोनों साए
साँझ ने देखो रंग रूप के कैसे भेद मिटाए रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

काँच कोई माटी कोई रंग बिरंगे प्याले
प्यास लगे तो एक बराबर जिस में पानी डाले रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे
आए कहाँ से, जाए कहाँ रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे

नाम कोई बोली कोई लाखों रूप और चहरे
खोल के देखो प्यार की आँखें सब तेरे सब मेरे रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

 

सोमवार, नवंबर 25, 2013

नी मै जाणा जोगी दे नाल : क्या आप भी इस जोगी के साथ नहीं जाना चाहेंगे ? 'Jogi' by Fariha Pervez

लोकगीतों में उस माटी की खुशबू होती है जिनमें वो पनप कर गाए और गुनगुनाए जाते हैं। पर भारत, पाकिस्तान, बाँग्लादेश की सांस्कृतिक विरासत ऐसी है कि हमारा संगीत आपस में यूँ घुल मिल जाता है कि उसे सुनते वक़्त भाषा और सरहदों की दीवारें आड़े नहीं आतीं। कुछ दिन पहले सूफी संत बुल्ले शाह का लिखा सूफ़ियत के रंग में रँगा ये पंजाबी लोकगीत नी मै जाणा जोगी दे नाल ... सुन रहा था और एक बार सुनते ही रिप्ले बटन दब गया और तब तक दबता रहा जब तक मन जोगीमय नहीं हो गया।


कोक स्टूडियो के छठे सत्र में इस गीत को अपनी आवाज़ से सँवारा है पाकिस्तानी गायिका फारिहा परवेज़ ने। टीवी पर सूत्रधार और धारावाहिकों में अभिनय करते हुए फारिहा ने 1995 में शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा लेनी शुरु की। 1996 से लेकर आज तक उनके सात एलबम आ चुके हैं और बेहद मकबूल भी रहे हैं। फारिहा सज्जाद अली और आशा भोसले को अपना प्रेरणास्रोत मानती हैं।

नी मै जाणा जोगी दे नाल
कन्नी मुंदड़ा पाके, मत्थे तिलक लगा के
नी मै जाणा जोगी दे नाल

ऐ जोगी मेरे मन विच बसया, ऐ जोगी  मेरा जूड़ा कसया
सच आख्याँ मैं कसम कुराने, जोगी मेरा दीन ईमाने

जोगी मेरे नाल नाल, मैं जोगी दे नाल नाल
जोगी मेरे नाल नाल, मैं जोगी दे नाल नाल

जोगी दे नाल नाल, जोगी दे नाल नाल
कोई किस दे नाल, कोई किस दे नाल ते
मैं जोगी दे नाल नाल...

जदोंदी मैं जोगी दी होई, मैं विच मैं ना रह गई कोई
जोगी मेरे नाल नाल, मैं जोगी दे नाल नाल
सा मा गा मा गा रे गा रे गा सा...सा मा गा मा पा ....

नायिका कहती हैं मुझे तो अब अपने जोगी के साथ ही जाना है। कानों में बड़े से झुमके पहन और माथे पे तिलक लगा कर मैं अपने जोगी को रिझाऊँगी। और क्यूँ ना करूँ  मैं ऐसा ? आख़िर ये जोगी मेरे मन में जो बस गया है। मेरा जूड़ा मेरे जोगी ने ही बनाया है। सच, पवित्र कुरान की कसम खा कर कहती हूँ ये जोगी मेरा दीन-ईमान बन गया है। अब तो जोगी मेरे साथ है और मैं जोगी के साथ हूँ । वैसे इसमें विचित्र लगने वाली बात क्या है ? इस दुनिया में कोई किसी के साथ है तो कोई किसी और के साथ। मैंने जोगी को अपना सहचर मान लिया है और जबसे ऐसा हुआ है मेरा कुछ अपना अक़्स नहीं रहा।

जोगी नाल जाणा..जोगी नाल जाणा.. जोगी नाल जाणा.
नी मै जाणा जाणा जाणा , नी मै जाणा जोगी दे नाल

सिर पे टोपी ते नीयत खोटी, लैणा की टोपी सिर तर के ?
तस्बीह फिरी पर दिल ना फिरया, लैणा की तस्बीह हथ फड़ के ?
चिल्ले कीते पर रब ना मिलया, लैणा की चिलेयाँ विच वड़ के ?

बुल्लेया झाग बिना दुध नयीं कढ़दा, काम लाल होवे कढ़ कढ़ के
जोगी दे नाम नाल नाल, नी मै जाणा जोगी दे नाल
कन्नी मुंदड़ा पाके, मत्थे तिलक लगा के
नी मै जाणा जोगी दे नाल....

तुम्हें इस जोगन की भक्ति सही नहीं लगती ? तुम सर पर टोपी रखते हो पर दूसरों के प्रति तुम्हारे विचारों में शुद्धता नहीं है। फिर ऐसी टोपी किस काम की? तुम्हारे दोनों हाथ प्रार्थना के लिए उठे हुए हैं पर उसके शब्द दिल में नहीं उतर रहे। फिर ऐसी पूजा का अर्थ ही क्या है? तुम सारे रीति रिवाज़ों का नियमपूर्वक अनुसरण करते हो पर तुमने कभी भगवान को नहीं पाया। फिर ऐसे रीति रिवाज़ों का क्या फायदा ? इसीलिए बुल्ले शाह कहते है कि जैसे बिना जोरन के दूध से दही नहीं बनता वैसे ही बिना सच्ची भक्ति के भगवान नहीं मिलते। सो मैं तो चली अपने जोगी की शरण में..


नुसरत फतेह अली खाँ की इस कव्वाली को रोहेल हयात ने फाहिदा की आवाज़ का इस्तेमाल कर एक गीत की शक़्ल देनी चाही है जिसमें एक ओर तो सबर्यिन बैंड द्वारा पश्चिमी वाद्य यंत्रों (Trumpet, Saxophone, Violin etc.) से बजाई जाती हुई मधुर धुन है तो दूसरी ओर पंजाब की धरती में बने इस गीत की पहचान बनाता सामूहिक रूप से किया गया ढोल वादन भी है। मुअज्जम अली खाँ की दिलकश सरगम गीत की अदाएगी में निखार ले आती है। फाहिदा परवेज़ की गायिकी और कोरस जोगी की भक्ति में मुझे तो झूमने पर मजबूर कर देता है> देखें आप इस गीत से आनंदित हो पाते हैं या नहीं ?..

सोमवार, जुलाई 16, 2012

कावा वा नागारेते डोको डोको इकू नो- हाना.. दिल को छूता जापानी लोकगीत

जापान के इस दक्षिण पश्चिमी भाग आए हुए लगभग तीन हफ्ते हो चुके हैं। भोजन को छोड़ दें अब तक इस देश में रहना एक बेहद सुखद अनुभव रहा है। इतनी बातें हैं बताने को यहाँ के बारे में पर उन सबको सिलसिलेवार ढंग से रखने के लिए वक़्त नहीं है। अपनी इस व्यस्तता के बीच अगर आज आपसे मुख़ातिब हो पाया हूँ तो अपनी जापानी मैम के कारण। हम यहाँ आए तो उर्जा संरक्षण तकनीक के बारे में जानने के लिए हैं पर उसके साथ हमारी सहूलियत के लिए काम भर की जापानी भाषा भी सिखाई जा रही है। वैसे आप सहज कल्पना कर सकते हैं कि इस उम्र में वर्णमाला व १,२,३,४ पढ़ना कैसा लग सकता है। पर ये जो जापानी मैम है ना वो हमें सारी गिनती गिनवा के ही दम लेती हैं। इनकी क्लास देर रात को लगती है पर मजाल है जो हमें पहले छोड़ दें। सो वो हँस हँस कर बोलती हैं और हम तोते की तरह रटते हैं। पिछली क्लास में दाएँ बाएँ वाले दिशा ज्ञान को समझाने के लिए पूरी क्लॉस को ही ट्रेन बनाकर छुक छुक गाड़ी वाला खेल खिला दिया। पर उनकी बताई टूटी फूटी जापानी से ही हम यहाँ की सड़कों पर अपरिचितों के चेहरों पर मुस्कुराहट या कई बार तो हँसी के फव्वारे ले आते हैं।

हमारी मैम हमें हर कक्षा के बाद हमें एक जापानी गीत सुनाती है। ऐसा ही एक गीत था हाना जो पहली बार सुनकर ही हम सबको खूब पसंद आया। जापानी में हाना का मतलब होता है 'फूल'। हाना एक लोकगीत है जिसकी उत्पत्ति जापान के सुदूर दक्षिण के द्वीप समूह ओकीनावा (Okinava) में हुई । इसलिए इस गीत की धुन पश्चिमी रंग में रँगे आज के जापानी पॉप से सर्वथा अलग है और एक भारतीय मन को सहज ही अपनी ओर खींच लेती है। अपने मन को फूलों की तरह खिलाने की बात करता ये गीत रिमी नात्सुकावा (Rimi Natsukawa) की आवाज़ में बेहतरीन लगता है। रिमी के बारे में तो आप यहाँ जान सकते है्। इस गीत के बोलों का मैंने हिंदी में भावानुवाद करने की कोशिश की है। पर बिना अर्थ समझे भी रिमी की गायिकी दिल को छू जाती है। वो कहते हैं ना संगीत की कोई सरहदें नहीं होती।

तो आइए सुनते हैं ये गीत

Kawa wa nagarete doko doko iku no
Hito mo nagarete doko doko iku no
Sonna nagare ga tsuku koro niwa
Hana toshite hana toshite sakassete aguetai
Nakinasai Warainasai
Itsuno hi ka itsu no hi ka hana wo sakasoyo

सोचो तो ये नदी कहाँ जाती है ? या यूँ कहूँ कि हमारा नदी की तरह बहता जीवन ही आखिर हमें कहाँ ले जाता है ? जब तक वो नदी अपने गन्तव्य तक नहीं पहुँच जाती उसे फूलों की तरह खिलने दो। इस जीवन में हँसना भी है और रोना भी पर अपने हृदय को हमेशा फूलों की तरह खिलाकर रखो।
Namida nagarete doko doko iku no
Ai mo nagarete doko doko iku no
Sonna nagare wo kono uti ni
Hana toshite hana toshite Mukaette aguetai
Nakinasai Warainasai
Itsuno hi ka itsu no hi ka hana wo sakasoyo

ये आँसू बह कर कहाँ जाते हैं? प्यार का बहाव हमें कहाँ ले जाता है? मैं इस बहाव को अपने दिल में समा लेना चाहती हूँ। फूलों की तरह खिलकर उनका स्वागत करना चाहती हूँ। इस जीवन में हँसना भी है और रोना भी पर अपने हृदय को हमेशा फूलों की तरह खिलाकर रखो।

Hana wa hana toshite warai mono dekiru
Hito wa hito toshite namida mo nagassu
sorega shizen no utananossa
kokoro no naka ni kokoro no naka ni hana wo sakasoyo
Nakinasai Warainasai
itsu itsu mademo itsu itsu mademo
hana wo tsukamoyo
Nakinasai Warainasai
itsu itsu mademo itsu itsu mademo
hana wo tsukamoyo
Nakinasai Warainasai
Itsuno hi ka itsuno hi ka hana wo tsukamoyo


एक फूल, फूल की तरह हँस सकता है। एक आदमी, आदमी की तरह रो सकता है। सुख और दुख तो प्रकृति के दिए हुए जीवन के सत्य हैं। बस अगर हमारा मन पुष्पित रहे और जीवन की हर परिस्थिति में अपने अंदर के इस फूल को हम अपने से अलग ना होने दें इससे अच्छा और क्या हो सकता है।

तो अगली पोस्ट तक सारे मित्रों को देवामाता यानि see you later..

गुरुवार, जून 23, 2011

क्या कहता है जएब और हानीया (Zeb and Haniya) का गाया ये लोकप्रिय अफ़गानी लोकगीत ?

कोक स्टूडिओ ये नाम सुना है आपने। अगर आप फिल्म संगीत के इतर लोक संगीत व फ्यूजन में रुचि रखते हैं और अंतरजाल पर सक्रिय हैं तो जरूर सुना होगा। वैसे भी संगीत का ये कार्यक्रम ब्राजील और पाकिस्तान का विचरण करते हुए पिछले शुक्रवार से MTV India का भी हिस्सा हो गया है। हालांकि इसके भारतीय संस्करण की पहली कड़ी उतनी असरदार नहीं रही जितनी की सामान्यतः कोक स्टूडिओ पाकिस्तान की प्रस्तुति रहा करती है। पर भारत में इस तरह के कार्यक्रम को किसी संगीत चैनल और वो भी MTV की ये पहल निश्चय ही सही दिशा में उठाया एक कदम है।

ख़ैर आज मैं आपको एक ऐसे लोकगीत से रूबरू करा रहा हूँ जिसे सत्तर के दशक में अफगानिस्तान में रचा गया। पश्तू भाषा में रचे इस गीत को गाया है जएब (Zeb) ने और उनके साथ में हैं हानीया। जएब और हानीया (Zeb and Haniya) 


पाकिस्तान की पैदाइश पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम पश्तून इलाके से है। पाकिस्तान में इन दो चचेरी बहनों ने पहला लड़कियों का बैंड बनाया। जएब गाती हैं और हानीया गिटार वादक हैं। पाकिस्तान में इस बैंड का एक गीत 'चुप' बेहद चर्चित रहा था।

इस अफ़गानी लोकगीत की भाषा अफगानिस्तान में बोली जाने वाली फ़ारसी है जिसे 'दरी' भी कहा जाता है। गीत की शुरुआत में जो वाद्य यंत्र बजता है वो किसी भी संगीतप्रेमी श्रोता के मन के तार झंकृत कर सकता है। इस वाद्य यंत्र का नाम है रूबाब। रुबाब अफ़गानिस्तान के दो राष्ट्रीय वाद्य यंत्रों में से एक है और अफ़गानी शास्त्रीय संगीत में इसकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। गीत का शुरुआती एक मिनट इसकी तान में खो सा जाता है और फिर पीछे से उभरता है जएब का मधुर स्वर।  

पिछले साल मेरी एक मित्र ने मुझे जब कोक स्टूडिओ पाकिस्तान के कार्यक्रम में प्रसारित इस गीत के बारे में बताया तो मुझे उत्सुकता हुई कि आख़िर रुबाब की मधुर धुन के आलावा गायिका ने इस गीत में क्या कहना चाहा है? तो आइए गीत का आनंद लें इसमें व्यक्त भावनाओं के साथ


पैमोना बेदेह के खुमार असतम
मन आशिक ए चश्मे मस्ते यार असतम
बेदेह बेदेह के खुमार असतम
पैमोना बेदेह के खुमार असतम

साकी शराब का प्याला ले आओ । आज मैं इस जाम की खुमारी में अपने आप को डुबो लेना चाहता हूँ। तुम्हारी नशीली आँखें मुझे तुम्हारा दीवाना बना रही हैं। लाओ लाओ कि इसकी ख़ुमारी मैं मैं अपने आप को खो देना चाहता हूँ।

चश्मत के बाहू ए खुतन मेमोनाए
रूयात बा गुलाब हाय चमन मेमोनाए
गुल रोब ए कुनैद वरक़ वरक़ बू ए कुनैद
बा लाला ए ज़ार ए बे वतन मींयारात
पैमोना बेदेह के खुमार.... असतम

क्या तुम्हे पता है कि तुम्हारी आँखें मेरे दिल के बगीचे में रोशनी भर देती हैं। तुम्हारा चेहरा मेरे दिल के बाग के सभी गुलाबों को खिला देता है। सच पूछो तो तुम्हारा ये चेहरा मेरे दिल की बगिया में रंग भरता है, उनकी पंखुड़ियों में सुगंध का संचार करता है।

अज ओमादान ए तगार खबर में दास्तान
पेश ए कदमात कोचा रा गुल में कोश्ताम
गुल में कोश्तम गुल ए गुलाब में कोश्ताम
खाक़ ए कदमात पद ए दम ए वादाश्ताम
पैमोना बेदेह के खुमार.... असतम
सोचता हूँ जब तुम्हारे पवित्र कदमों की आहट इस हृदय को सुनाई देगी, तब मैं तुम्हारे रास्ते में दिल के इन फूलों को कालीन की तरह बिछा दूँगा। चारों ओर फूल बिछे होंगे..गुलाब के फूल और उन फूलों के बीच पड़ती तुम्हारे चरणों की धूल में मैं खुद को न्योछावर कर दूँगा।

तो प्रेम में रससिक्ता इस गीत को सुना आपने। आपको क्या लगा कि ये किसी प्रेमिका के लिए एक प्रेमी के हृदय का क्रंदन है। ज़ाहिर सी बात है शाब्दिक तौर पर ये गीत तो हमसे यही कहता है और यही सही भी है ।

पर ये बताना जरूरी है कि ये गीत वास्तव में एक सूफी गीत से प्रेरित हैं । दरअसल मूल गीत जिसमें कई छंद हैं को मशहूर सूफ़ी कवि उमर ख़्य्याम ने ग्यारहवीं शताब्दी में लिखा था। दरअसल सूफी संतों ने अपने लिखे गीतों में शराब और साक़ी को रूपकों की तरह इस्तेमाल किया है। मजे की बात ये है कि इन संतों ने कभी मदिरा को हाथ भी नहीं लगाया।

सूफी विचारधारा में भक्त और भगवान का संबंध एक आशिक का होता है जिसे ऊपरवाले की नज़र ए इनायत का बेसब्री से इंतज़ार होता है। साक़ी सौंदर्य का वो प्रतिमान है जो उसे ईश्वर के प्रेम में डूबने को उद्यत करती है। सूफी साहित्य में कहीं कहीं इस साक़ी को अलौकिक दाता की संज्ञा दी गई है जो हम सभी को ज़िदगी रूपी मदिरा का पान कराती है।

कोक स्टूडिओ के कार्यक्रम में आप जएब और हानीया को देख सकते हैं साथ में बजते रुबाब के साथ...


एक शाम मेरे नाम पर लोकगीतों की बहार

गुरुवार, अक्टूबर 28, 2010

अलिफ़ अल्लाह चंबे दी बूटी...दम गुटकूँ दम गुटकूँ :आरिफ़ लोहार का शानदार 'जुगनी' लोकगीत

पंजाबी लोकगीतों का अपना एक समृद्ध इतिहास रहा है। बुल्लेशाह का सूफी गीत हो या हीर और सोहणी महीवाल के प्रेम या विरह में डूबे गीत, सब अपना जादू जगाते रहे हैं। आज आपके सामने पंजाब की एक ऐसे ही एक लोकगीत श्रेणी से परिचय कराने जा रहा हूँ जिसे 'जुगनी' के नाम से जाना जाता है। बरसात की अंधकारमयी रातों में चमकते जुगनू तो हम सब ने देखे हैं। पर जुगनू की भार्या इस जुगनी को देखने या पहचानने का हुनर तो शायद ही हम में से किसी के पास होगा।

पंजाबी लोकगीतों में यही जुगनी एक मासूम पर्यवेक्षक का काम करती है। इन गीतों में जुगनी के इस बिंब से हँसी ठिठोला भी होता है .कटाक्ष भी होते हैं, तो कभी आस पास के परिवेश का दुख इसके मुँह से फूट पड़ता है। पर जुगनी से जुड़े अधिकांश गीत मूलतः एक अध्यात्मिक सोच को आगे बढ़ाते हैं। ये सोच कभी अपने आस पास के संसार को समझने की होती है तो कभी मानव से भगवान के रिश्ता को टटोलने की क़वायद।

वैसे क्या आप ये नहीं जानना चाहेंगे कि जुगनी लोकगीत कैसे रचती है? अब जुगनी का क्या है उड़ कर गली मोहल्ले, स्कूल या बाजार कहीं भी पहुँच सकती है और इन जगहों पर वो जो देखती है उसे ही तीन या चार अंतरों में कह देती है। ठेठ पंजाबी शैली में गाए इन गीतों को आम जन बड़ी आसानी से अपनी ज़िंदगी से जोड़ लेते हैं।

जुगनी से जुड़े लोकगीतों को अपनी गायिकी से सरहद के दोनों ओर के कलाकार लोगों तक पहुँचाते रहे हैं। कुछ साल पहले रब्बी शेरगिल का ऐसा ही एक गीत बेहद चर्चित रहा था। रब्बी के आलावा गुरुदास मान और आशा सिंह मस्ताना ने भी श्रोताओं को कई जुगनी गीत दिए हैं।

सरहद पार यानि अगर पाकिस्तान की बात की जाए तो जुगनी ही क्या पंजाबी लोकगीतों की हर विधा को पूरे मुल्क में मशहूर करने में सबसे पहला नाम आलम लोहार का आता है। आलम लोहार ने साठ और सत्तर के दशक में जुगनी गीतों की एक अलग पहचान बना दी। आलम जब जुगनी गाते थे तो एक अद्भुत वाद्य यंत्र उनके हाथों में रहता था। ये वाद्य यंत्र था चिमटा,! जी हाँ आलम लोहार ने ही इन गीतों के साथ साथ चिमटे के टकराने से निकलने वाली ध्वनि का बीट्स की तरह इस्तेमाल किया। फ्यूजन के इस युग में भी उनके पुत्र आरिफ़ लोहार अपने पिता द्वारा शुरु की गई इस गौरवशाली परंपरा का वहन कर रहे हैं। हाँ लोहे के उस पुराने चिमटे के स्वरूप में जरूर थोड़ा बदलाव हुआ है।



पिछले हफ्ते ही मुझे आरिफ़ लोहार का गाया एक जुगनी लोकगीत सुनने को मिला। ये लोकगीत उन्होंने इस साल पाकिस्तान में कोक स्टूडिओ ( Coke Studio ) के तीसरे सत्र के दौरान गया था। अगर आप ये सोच रहे हों कि ये कोक स्टूडिओ क्या बला है तो ये बताना मुनासिब रहेगा कि कोक स्टूडिओ पाकिस्तान में कोला कंपनी कोक की सहायता से स्थापित किया गया एक सांगीतिक मंच है जो देश के विभिन्न हिस्सों में पनपते परंपरागत संगीत को बढ़ावा देता है। इस मंच पर देश के नामी व नवोदित गायक लाइव रिकार्डिंग के तहत अपनी प्रतिभा को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करते हैं।

पहली बार इस जुगनी को सुनते ही आरिफ़ लोहार की गायिकी का मैं शैदाई हो गया। गीत की भावनाओं के अनुरूप ही उनके चेहरे के भाव बदलते हैं। आरिफ लोहार का शब्दों का उच्चारण इतना स्पष्ट है कि गीत को कोई शब्द आपके ज़ेहन से भटकने की जुर्रत नहीं कर पाता। गीत में वो तो डूबते ही हैं सुनने वालों को भी अपने साथ बहा ले जाते हैं। लोहार की बेमिसाल गायिकी के साथ साथ फ्यूजन और कोरस का जिस तरह से इस गीत में प्रयोग हुआ है कि सुनने के साथ हाथ पाँव थिरकने लगते हैं। इस गीत में उनका साथ दिया पाकिस्तान की युवा मॉडल और अब गायिका मीशा शफ़ी ने। जिस तरह हम माता शेरोवाली के भजन गाते समय माता की जयजयकार करते हैं उसी तरह मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि चाहे आपको पंजाबी आती हो या नहीं गीत को सुनने के साथ साथ आप कोरस में उठ रहे जुगनी जी के सुर में सुर मिलाना अवश्य चाहेंगे।






पर इस गीत का पूर्ण आनंद उठाने के लिए पहले ये जानते हैं कि इस गीत में आख़िर जुगनी ने कहना क्या चाहा है ....

अलिफ़ अल्लाह चंबे दी बूटी.
ते मेरे मुर्शिद मन विच लाइ हू

हो नफी उस बात दा पाणी दे के
हर रगे हरजाई हू
हो जुग जुग जीवे मेरा मुर्शिद सोणा
हत्ते जिस ऐ बूटी लाइ हो

मेरे साई ने मेरे हृदय में प्रेम का पुष्प अंकुरित किया है। साई की भक्ति से मेरे आचरण में जो विनम्रता और दया आई है उससे मन का ये फूल और खिल उठा है। मेरा साई, मेरी हर साँस, हर धड़कन में विद्यमान है। मुझमें प्राण भरने वाले साई तुम युगों युगों तक यूँ ही बने रहो।


पीर मेरिआ जुगनी जी
ऐ वे अल्लाह वालियाँ दी जुगनी जी,ऐ वे अल्लाह वालियाँ दी जुगनी जी
ऐ वे नबी पाक दी जुगनी जी, ऐ वे नबी पाक दी जुगनी जी
ऐ वे मौला अली वाली जुगनी जी,ऐ वे मौला अली वाली जुगनी जी
ऐ वे मेरे पीर दी जुगनी जी, ऐ वे मेरे पीर दी जुगनी जी
ऐ वे सारे सबद दी जुगनी जी, ऐ वे सारे सबद दी जुगनी जी
ओ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ....गुटकूँ गुटकूँ
पढ़े साईं ते कलमा नबी दा, पढ़े साई पीर मेरया


मेरे साथ मेरा मार्गदर्शक है मेरा संत है , मेरी आत्मा, भगवन और उनके दूतों के विचारों से पवित्र है। भगवन जब भी मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूँ मेरा हृदय एक आनंद से धड़कने लगता है। उल्लास के इन क्षणों में मैं ख़ुद ब ख़ुद तेरे नाम का मैं कलमा पढ़ने लगता हूँ।


जुगनी तार खाईं विच थाल
छड्ड दुनिया दे जंजाल
कुछ नी निभणा बंदया नाल
राक्खी सबद सिध अमाल

ऐ वे अल्लाह .... जुगनी जी


मेरे साई कहते हैं कि तुम्हारे पास जो भी है उसे बाँटना सीखो। मोह माया जैसे दुनिया के जंजालों से दूर रहो। जीवन में ऍसा कुछ भी ऍसा नहीं है जो तुम्हें दूसरों से मिलेगा और जिसे तुम मृत्यु के बाद तुम अपने साथ ले जा सकोगे। इसलिए ऐ अल्लाह के बंदे अपने कर्मों और भावनाओं की पवित्रता बनाए रखो।

जुगनी दिग पई विच रोई
ओथ्थे रो रो कमली होई
ओद्दी वाथ नइ लैंदा कोई
ते कलमे बिना नइ मिलदी तोई

ऐ वे अल्लाह .... जुगनी जी
ओ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ....गुटकूँ गुटकूँ


अब इस जुगनी को ही देखो। लोभ मोह के जाल से ऐसी आसक्त हुई कि पाप की गहराइयों में जा फँसी। अब लगातार रोए जा रही है। पर अब उसे पूछनेवाला कोई नहीं है। इस बात को गाँठ बाँध कर सुन लो बिना सृष्टिकर्ता का ध्यान किए तुम्हें कभी शांति या मोक्ष नहीं मिल सकता।

हो वंगा चढ़ा लो कुड़ियों
मेरे दाता दे दरबार धियाँ
वंगा चढ़ा लो कुड़ियों
मेरे दाता दे दरबार धियाँ


हो ना कर तीया खैड़ पियारी
माँ दैंदियाँ गालड़ियाँ
दिन दिन ढली जवानी जाँदी
जूँ सोना पुठिया लरियाँ
औरत मरद शहजादे सोणे
ओ मोती ओ ला लड़ियाँ
सिर दा सरफाँ कर ना जैड़े
पीर प्रेम प्या लड़ियाँ
ओ दाता के दे दरबार चाखो
पावन खैड़ सवा लड़ियाँ

लड़कियों वो वाली चूड़ियाँ पहन लो जो तुम्हें साई के दरबार से मिली थीं। और हाँ अपने यौवन का इतना गुमान ना करना कि तुम्हें अपनी माताओं की डाँट फटकार सुनने को मिल जाए। जैसे जैसे दिन बीतते हैं ये यौवन और बाहरी सुंदरता और फीकी पड़ती जाती है। इस संसार में कोई वस्तु हमेशा के लिए नहीं है। इस सोने को ही लो कितना चमकता है पर एक बार भट्टी के अंदर जाते ही पिघलकर साँचे के रूप में अपने आप को गढ़ लेता है। सच बात तो ये है कि इस दुनिया के वे सारे मर्द और औरत उन माणिकों और मोतियों की तरह सुंदर हैं जो अपनों से ज्यादा दूसरों के लिए सोचते और त्याग करते हैं। ऐसे ही लोग सच्चे तौर पर पूरी मानवता से प्यार करते हैं। इसलिए सच्चे मन से साई का नमन करो वो तुम्हारी झोली खुशियों से भर देंगे।

हो वंगा चढ़ा ला कुड़ियों
मेरे दाता दे दरबार धियाँ
हो वंगा चढ़ा ला कुड़ियों
मेरे दाता दे दरबार धियाँ

दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ..करे साईं
पढ़े साई ते कलमा नबी दा, पढ़े साई पीर मेरया
ऐ वे मेरे पीर दी जुगनी जी....

एक शाम मेरे नाम पर लोकगीतों की बहार

मंगलवार, सितंबर 22, 2009

जब ग्यारह वर्षीय बालक हेमंत बृजवासी ने भाव विभोर किया आशा ताई को..

नवरात्र शुरु हो गए हैं और कल ईद सोल्लास मनाई जा चुकी है। पर्व त्योहारों के इस मस्ती भरे दौर में ब्लॉग पर भी मस्ती का रंग चढ़ना लाज़िमी है ना। आज जो मूड मन में तारी है उसका पूरा श्रेय जाता है मथुरा के ग्यारह वर्षीय बालक हेमंत बृजवासी को। हफ्ते भर से हेमंत की आवाज़ कानों में गूँज रही है। ग्यारह सितंबर की उस यादगार रात को जी टीवी के लिटिल चैम्पस (Zee TV Little Champs) पर खुद आशा ताई पधारी थीं। पूरे कार्यक्रम में लड़कियों को आशा जी और लड़कों को पंचम के गाने गाने थे। अब पंचम की भारी आवाज़ और उनकी उर्जात्मक शैली को दस बारह साल के बच्चों द्वारा निभा पाना टेढ़ी खीर थी। फिर भी सब प्रतिभागियों ने अच्छा प्रयास किया, पर ज़माने को दिखाना है फिल्म में पंचम द्वारा गाए गीत दिल लेना खेल है दिलदार का, भूले से नाम ना लो प्यार का... की हेमंत द्वारा प्रस्तुति इतनी दमदार थी कि आशा ताई तक को कहना पड़ गया कि "आपने तो बर्मन साहब से भी बेहतर तरीके से इस गीत को निभाया"।

पूरे कार्यक्रम में एक और बात कमाल की थी वो थी गायकों को जबरदस्त सपोर्ट ‍‍देता हुआ मनभावन आरकेस्ट्रा। वैसे भी जी टीवी के संगीत कार्यक्रमों में कई सालों से मँजे हुए साज़कारों को बजाते देखता रहा हूँ और पंचम की धुनों में तो इनकी विशेष भूमिका हमेशा ही रहा करती थी। पंचम के संगीतबद्ध गीतों का पार्श्व संगीत उनकी अनूठी शैली की गवाही देता है। दरअसल तरह तरह की आवाज़ों को पारंपरिक और गैर पारंपरिक वाद्य यंत्रो से निकालने में राहुल देव बर्मन का कोई सानी नहीं था।


तो लौटें अपने इस सुरीले बालक की ओर। हेमंत की दमदार प्रस्तुति यादगार तब बन गई जब उसने गीत के बाद आशा जी को बुल्लेशाह के लिखे सूफ़ियत में रँगे पंजाबी लोकगीत का वो टुकड़ा सुनाया।

चरखा दे मिट्टा दियाँ दूरियाँ...........
हो..मैं कटि जावाँ तेरी होर पिया दूरियाँ
गद सखरी रा गद सखरी रा ...
गद.. सख...रीरा..
गद सखरी रा वरण दिए कुड़िए...........
मैं पैया और सिपहयिए


सच मानिए हेमंत ने उन चंद पंक्तियों में ली गई हरक़तों ने ऐसा समा बाँधा कि हजारों दर्शकों के साथ-साथ आशा जी की भी आँखें गीली हो गईं और वे कह उठीं

हेमंत अगर सबसे बड़ी कला कोई मानी जाती है तो वो कला है संगीत कला। संगीत कला भगवान के नज़दीक होती है। और तुम्हारा जो गाना है वो भगवान के बहुत नज़दीक है।

नौ साल की आयु से अपने पिता और गुरु हुकुमचंद बृजवासी से संगीत सीखना शुरु करने वाले हेमंत को शास्त्रीय और सूफ़ीयाना नग्मे गाने में महारत हासिल है। मात्र दो साल संगीत की शिक्षा लेने के बाद ये बालक गीतों में अपनी और से जोड़ी हुई विविधताओं का इस तरह समावेश करता है मानों गीत से खेल रहा है। हेमंत की आवाज़ और उच्चारण एक शीशे की तरह साफ और स्पष्ट है पर उसके साथ दिक्कत यही है कि वो अपनी शैली के गीतों से अलग तरीके के गीतों में वो कमाल नहीं दिखला पाता। पर शायद आज के युग में इसकी जरूरत भी नहीं है। हर गाने के पहले अपनी जिह्वा को बाँके बिहारी लाल की जयकार से पवित्र कराने वाला ये बालक नुसरत और आशा जी को अपना आदर्श मानता है। गीत संगीत के आलावा क्रिकेट भी खेलता है और मौका मिले तो शाहरुख और करीना की फिल्में देखना भी पसंद करता है।

तो अगर आपने उस दिन इस प्रसारण का आनंद नहीं लिया तो अब ले लीजिए..






वैसे इस सूफ़ी लोकगीत को पूरा सुनने की इच्छा आप के मन में भी हो रही होगी। दरअसल इस लोकगीत को सबसे पहले लोकप्रिय बनाया था सूफ़ी के बादशाह नुसरत फतेह अली खाँ साहब ने और फिर इस गीत को नई बुलंदियों पर ले गए थे जालंधर के पंजाबी पुत्तर सलीम शाहजादा। बादशाह और शहज़ादे द्वारा इस लोकगीत की प्रस्तुति को आप तक पहुँचाने की शीघ्र ही कोशिश करूँगा।

बुधवार, अगस्त 05, 2009

आँखों को नम करता पंजाबी लोकगीत 'छल्ला' रब्बी की रुहानी आवाज़ में..

कुछ गीत ऍसे होते हैं जिनकी भावनाएँ भाषा की दीवारों को लाँघती किस तरह हमारे ज़हन में समा जाती हैं ये हमें पता ही नहीं लगता। बात पिछले दिसंबर की है मैं हर साल की तरह ही अपनी वार्षिक संगीतमालाओं के लिए साल के श्रेष्ठ २५ गीतों का चुनाव कर रहा था और तभी मैंने इस पंजाबी लोकगीत को पहली बार सुना और बिना शब्द के अर्थ जाने ही इसे सुन कर मन भारी हो गया। आखिर रब्बी शेरगिल जब गाते हैं तो उनकी आवाज़ और हमारे दिल के बीच शब्दों का ये पुल ना भी रहे तो भी फर्क नहीं पड़ता।
मैंने इस गीत को अपने प्रथम पाँच गीतों में डाल भी दिया पर बाद में इसे अपनी सूची से इसलिए हटाना पड़ा क्योंकि इस गीत के बोल और अर्थ मुझे तब उपलब्ध नहीं हो पाए थे। फिर कुछ दिन पहले सावन के इस मौसम ने 'छल्ले ' की याद फिर से दिला दी। तो फिर मैं चल पड़ा अपनी उसी तलाश में और फिर इस छल्ले की गुत्थी सुलझती गई...

इससे पहले हम रब्बी शेरगिल के एलबम अवेंगी जा नहीं (Avengi Ja Nahin) यानि 'आओगी या नहीं' के इस गीत की चर्चा करें ये समझना जरूरी है कि पंजाबी लोकगीत का ये लोकप्रिय रूप 'छल्ला' कब गाया जाता है?

जैसा नाम से स्पष्ट है 'छल्ला लोकगीत' के केंद्र में वो अगूँठी होती है जो प्रेमिका को अपने प्रियतम से मिली होती है। पर जब उसका प्रेमी दूर देश चला जाता है तो वो अपने दिल का हाल किससे बताए ? हाँ जी आपने सही पहचाना ! और किससे ? उसी छल्ले से जो उसके साजन की दी गई एकमात्र निशानी है। यानि 'छल्ला लोकगीत' छल्ले से कही जाने वाली एक विरहणी की आपबीती है। छल्ले को कई पंजाबी गायकों ने समय समय पर पंजाबी फिल्मों और एलबमों में गाया गया है। इस तरह के जितने भी गीत हैं उनमें रेशमा, इनायत अली, गुरुदास मान और शौकत अली के वर्सन काफी मशहूर हुए। पर मुझे तो रब्बी का गाया हुआ ये छल्ला लोकगीत सबसे ज्यादा पसंद है। तो आइए देखें क्या कह रहे हैं रब्बी अपने इस 'छल्ले' में..


ये अगूँठी अब मेरे वश में नहीं रही ! देखिए ना ये मेरी बात ही नहीं सुनती है। अब तो लगता है ये मुझसे ज्यादा मेरी माँ की सुनने लगी है। पता नहीं इस पर किसने जादू टोना कर दिया है।

छल्ला वस नहीं ओ मेरे हे
छल्ला वस नहीं ओ मेरे हे
छल्ला वस नहीं ओ मेरे
छल्ला वस नहीं ओ मेरे
छल्ला वस मेरी माँ दे
घल्ले गीताँ जाँगे
वे गल सुन छलया
हाए कीताँ किस इस ते टूना

मुझे तो ये छल्ला नलकूप से निकलती हुई उस धार की तरह लगता है जो ना जाने किस ओर बह जाए। वैसे मेरा प्यार भी तो तेरी कोई खबर ना आने की वज़ह से इस धारा समान ही हो गया है जिसकी दशा और दिशा का अब तो मुझे भी ज्ञान नहीं।
ओ मेरे प्रेम के प्रतीक छल्ले मेरी बात सुन ! क्या तू नहीं जानता कि अब इस प्यार से भरे मेरे कोमल हृदय में इक काँटा उग गया है जो रह रह कर मुझे टीस रहा है।

ओए छल्ला बंबी दा पाणी हीं
छल्ला बंबी दा पाणी हीं
छल्ला बंबी दा पाणी
कित्थे बह जे ना जाणी
असन ख़बर को ना जाणी
वे गल सुन छलया, वे गल सुन छलया
तेरी बेरी इक उगया ऍ कंडा

आज अपने इस गुँथी लंबी चोटी को देखा तो इसी में मुझे तू नज़र आया और उसी स्वप्निल सी अवस्था में मैंने तुझे चूम लिया। मैं जानती हूँ कि मेरी चाहतें अंधी हो गई हैं पर मैंने वही किया जो मेरे हृदय ने मुझे करने को कहा। क्या मैंने कुछ गलत किया ? अगर ऍसा है तो छल्ले तू मुझे जो सजा देना चाहता है दे ले।

छल्ला गुत इक लम्मी हीं
छल्ला गुत इक लम्मी हीं
छल्ला गुत इक लम्मी
असाँ सुपने सी चुम्मी
होइ नीयत सी अन्नी
असाँ दिल दी सी मन्नी
वे गल सुन छलया
हूँ दे लै जेहड़ी देनी ऐ सज़ा
कभी कभी तो लगता है कि छल्ले तू उस अकेले खड़े पीपल के पेड़ की तरह है जिसके ऊपर तो भगवान का वास है और जो नीचे इस विशाल धरती को भी सँभाले हुए है। तू सोच रहा होगा ये कैसी समानता है? है ना छल्ले ! उस पीपल के पेड़ की तरह तू भी तो नहीं जानता कि इस धरती रूपी मेरे दिल में प्यार की जड़े कितनी गहराई तक समाई हुई हैं।

ओए छल्ला बोड़िक कल्ला हा
छल्ला बोड़िक कल्ला हा
छल्ला बोड़िक कल्ला
उँदे फड़ जाए पल्ला
थल्ले धरत उते अल्लाह
वे गल सुन छलया, वे गल सुन छलया
अरे जाँदी अ किन्नी दुंघियाँ जड़ाँ
इस गल दा ओस खुद नूँ नहीं पता

छल्ले मेरा दिल भटक रहा है। मन में शंकाएँ उत्पन्न हो रही हैं। मुझे तो तू आजकल वैसी अमिया के जैसा लगने लगा है जो कभी नहीं पकीं। लगता है मुझे साधु संतों के पास जाना पड़ेगा जो मेरा ये उन्मत चित्त शांत कर सकें। अब तो दिल को सुकूं देने का एक ही रास्ता बचा है उन बीते लमहों को याद करने का जो तूने और मैंने एक साथ बिताए थे...

छल्ला वस नहीं मेरे
छल्ला वस मेरी माँ दे
छल्ला वस मेरी .... दे
छल्ला अम्बियाँ कचियाँ
मत्ता दे कोई सचियाँ
लै ये लेखे जो बचियाँ
वो तैरी मेरियाँ घड़ियाँ
वे गल सुन छलया

छल्ला बोड़िक कल्ला
उँदे फड़ जाए पल्ला
थल्ले धरत उते अल्लाह
वे गल सुन छलया, वे गल सुन छलया,
वे गल सुन छलया, वे गल सुन छलया...

(मेरा पंजाबी का ज्ञान सीमित है। पंजाबी शब्दों के अर्थ ढूँढ कर इस लोकगीत में छुपी भावनाओं को अपनी सोच के हिसाब से समझने की कोशिश की है। अगर लफ्जों को लिखने में त्रुटि रह गई हो तो कृपया इंगित करें।)


रब्बी की गायिकी हमेशा की तरह बेमिसाल है। उनके इस गीत में वाद्य यंत्रों का प्रयोग सीमित किंतु मारक है। शुरु के दो अंतरे के बाद जिस तरह से उन्होंने गीत का स्केल बदला है वो सुनने लायक है। ऊँचे सुरों के माध्यम से वो प्रेमिका की उदासी, बेकली और अकेलेपन को उस ऊँचाई पर ले जाते हैं कि श्रोता की आँखें अश्रुसिक्त हुए बिना नहीं रह पातीं। कम से कम मेरा तो यही अनुभव रहा है बाकी आप खुद इसे सुन कर देखें...



एक शाम मेरे नाम पर रब्बी शेरगिल

मंगलवार, जुलाई 15, 2008

आइए झांकें उत्तरप्रदेश के लोक गीतों की गौरवशाली परंपरा में : नन्ही नन्ही बुँदिया रे, सावन का मेरा झूलना...

'एक शाम मेरे नाम' पर पिछले हफ्ते आपने भोजपुरी, असमी और बंगाली लोकगीतों को सुना। आज बारी है उत्तर प्रदेश की। यूँ तो मैं शुरु से बिहार और झारखंड में रहा हूँ, पर शादी विवाहों में जब जब अपने ददिहाल 'बलिया' और ननिहाल 'कानपुर' में जाना हुआ तो उस वक़्त पूर्वांचल और सेन्ट्रल यूपी के कई लोकगीत सुनने को मिले।

उत्तरप्रदेश के लोक गीतों का अपना ही एक इतिहास है। शायद ही ऍसा कोई अवसर या विषय हो जिस पर इस प्रदेश में लोकगीत ना गाए जाते हो। चाहे वो बच्चे का जन्म हो या प्रेमियों का बिछुड़ना, शादी हो या बिदाई, नई ॠतु का स्वागत हो या खेत में हल जोतने का समय सभी अवसरों के लिए गीत मुकर्रर हैं और इनका नामाकरण भी अलग अलग है, जैसे सोहर, ब्याह, बन्ना बन्नी, कोहबर, बिदाई, ॠतु गीत, सावन, चैती आदि। आपको याद होगा कि IIT Mumbai में जब हम सब ने गीत संगीत की महफिल जमाई थी तो हमारे साथी चिट्ठाकार अनिल रघुराज ने चैती गाकर हम सबको सुनाया था। उसका वीडिओ आप यूनुस के ब्लॉग पर यहाँ देख सकते हैं।
उत्तरप्रदेश के लोक गीतों के बारे में अपनी किताब 'Folk Songs of Uttar Pradesh' में लेखिका निशा सहाय लिखती हैं....

"...राज्य के लोकगीतों को मुख्यतः तीन श्रेणी में बाँटा जा सकता है

  • ॠतु विशेष के आने पर गाए जाने वाले गीत
  • किसी खास अवसर पर गाए जाने वाले गीत
  • और कभी कभी गाए जाने वाले गीत

कुछ गीत केवल महिलाओं द्वारा गाए जाते हैं तो कुछ केवल मर्दों द्वारा। इसी तरह कुछ गीत सिर्फ समूह में गाए जाते हैं जब कि कुछ सोलो। समूह गान में रिदम पर ज्यादा जोर होता है जिसे लाने के लिए अक्सर चिमटा और मजीरा जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। इसके आलावा इन गीतों में बाँसुरी, शंख, रबाब, एकतारा, सारंगी ओर ढोलक का इस्तेमाल भी होता है। वैसे तो ये गीत ज्यादातर लोक धुनों पर ही रचित होते हैं पर कई बार इनकी गायिकी बहुत कुछ शास्त्रीय रागों जैसे पीलू, बहार, दुर्गा और ख़माज से मिलती जुलती है......."

आषाढ खत्म होने वाला है और सावन आने वाला है तो क्यूँ ना आज सुने जाएँ वे लोकगीत जो अक्सर सावन के महिने में गाए जाते हैं।

प्रस्तुत गीत में प्रसंग ये है कि नायिका को सावन की मस्त बयारें अपने पीहर में जाने को आतुर कर रही हैं। वो अपनी माँ को संदेशा भिजवाती है कि कोई आ के उसे पीहर ले जाए पर माँ पिता की बढ़ती उम्र और भाई के छोटे होने की बात कह कर उसकी बात टाल जाती है। नायिका ससुराल में किस तरह अपना सावन मनाती है ये बात आगे कही जाती है।

अम्मा मेरे बाबा को भेजो री
कि सावन आया कि सावन आया कि सावन आया
अरे बेटी तेरा, अरे बेटी तेरा, अरे बेटी तेरा,
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री
कि सावन आया कि सावन आया कि सावन आया

अम्मा मेरे भैया को भेजो री
अरे बेटी तेरा, अरे बेटी तेरा, अरे बेटी तेरा,
बेटी तेरा भैया तो बाला री
कि सावन आया कि सावन आया कि सावन आया
अम्मा मेरे भैया को भेजो री
*************************************
नन्ही नन्ही बुँदिया रे, सावन का मेरा झूलना,
हरी हरी मेंहदी रे ,सावन का मेरा झूलना
हरी हरी चुनरी रे ,सावन का मेरा झूलना

पर इन गीतों के मनोविज्ञान में झांकें तो ये पाते हैं कि घर से दूर पर वहाँ की यादों के करीब एक नवविवाहिता को अपनी खुशियों और गम को व्यक्त करने के लिए सावन के ये गीत ही माध्यम बन पाते थे। मेरी जब इन गीतों के बारे में कंचन चौहान से बात हुई तो उन्होंने बताया कि

"उनकी माँ की शादी जुलाई १९५३ मे हुई थी और वो बताती हैं कि वे उन दिनों यही गीत गा के बहुत रोती थी...! और शायद उन्होने भी ये गीत अपनी माँ से ही सुना होगा, कहने का आशय ये है कि बड़ी पुरानी धरोहरे हैं ये कही हम अपने आगे बढ़ने की होड़ मे इन्हें खो न दे...! .."

इस गीत के आगे की पंक्तियाँ कंचन की माताजी ने अपनी स्मृति के आधार पर भेजा है।

एक सुख देखा मैने मईया के राज में,
सखियों के संग अपने, गुड़ियों का मेरा खेलना

एक सुख देखा मैने भाभी के राज में,
गोद में भतीजा रे, गलियों का मेरा घूमना

एक दुख देखा मैने सासू के राज में,
आधी आधी रातियाँ रे चक्की का मेरा पीसना

एक दुख देखा मैने जिठनी के राज में,
आधी आधी रतियाँ रे चूल्हे का मेरा फूँकना

इस गीत को गाया है लखनऊ की गायिका मालिनी अवस्थी ने। मालिनी जी ने जुनूँ कुछ कर दिखाने का कार्यक्रम में में उत्तरप्रदेश के हर तरह के लोकगीतों को अपनी आवाज़ दी है। कल्पना की तरह वो भी एक बेहद प्रतिभाशाली कलाकार हैं। तो आइए देखें उनकी गायिकी के जलवे..



बुधवार, जुलाई 09, 2008

नंगे हैं पाँव पर, धूप और छांव पर, दौड़ाते हैं डोला, हे डोला, हे डोला... : सुनिए कल्पना और भूपेन हजारिका के स्वर में ये मर्मस्पर्शी लोकगीत

पिछली दो पोस्टों में आपने लोक गीतों में अंतरनिहित मस्ती और मासूमियत के रंगों से सराबोर पाया। पर आज जो लोक गीत मैं आपके सामने लाया हूँ वो अपने साथ मजदूर कहारों का दर्द समेटे हुए है। जुनूँ कुछ कर दिखाने में अब तक गाए लोकगीतों में मुझे ये सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति लगी।

इस लोकगीत में संदर्भ आज का नहीं है। अब तो ना वे राजा महराजा रहे , ना डोली पालकी का ज़माना रहा। पर कहारों की जिस बदहाल अवस्था का जिक्र इस लोकगीत में हुआ है उससे आज के श्रमिकों की हालत चाहे वो ईंट भट्टे में झोंके हुए हों, या आलीशान अट्टालिकाएँ बनाने में, कतई भिन्न नहीं है। अमीर और गरीब के बीच की खाई दिनों दिन बढ़ती ही गई है। और आज भी असंगठित क्षेत्र में श्रम का दोहन निर्बाध ज़ारी है।

यही कारण है कि एक बार सुनने में ही ये गीत सीधा दिल को छूता है। वैसे भी गायिका कल्पना जब हैय्या ना हैय्या ना हैय्या ना हैय्या की तान छेड़ती हैं तो ऍसा प्रतीत होता है कि पालकी के हिचकोले से कहारों के कंधों पर बढ़ता घटता भार उनकी स्वरलहरी में एकाकार हो गया हो। कल्पना की आवाज़ अगर में एक दर्द भी है और एक धनात्मक उर्जा भी जो आपको झकझोरे हुए बिना नहीं रह पाती

तो आइए सुने सबसे पहले कल्पना की आवाज़ में ये मर्मस्पर्शी गीत..



हे डोला हे डोला, हे डोला, हे डोला
हे आघे बाघे रास्तों से कान्धे लिये जाते हैं राजा महाराजाओं का डोला,
हे डोला, हे डोला, हे डोला
हे देहा जलाइके, पसीना बहाइके दौड़ाते हैं डोला
हे डोला, हे डोला, हे डोला

हे हैय्या ना हैय्या ना हैय्या ना हैय्या
हे हैय्या ना हैय्या ना हैय्या ना हैय्या
पालकी से लहराता, गालों को सहलाता
रेशम का हल्का पीला सा
किरणों की झिलमिल में
बरमा के मखमल में
आसन विराजा हो राजा



कैसन गुजरा एक साल गुजरा
देखा नहीं तन पे धागा
नंगे हैं पाँव पर धूप और छांव पर
दौड़ाते हैं डोला, हे डोला हे डोला हे डोला

सदियों से घूमते हैं
पालकी हिलोड़े पे है
देह मेरा गिरा ओ गिरा ओ गिरा
जागो जागो देखो कभी मोरे धन वाले राजा
कौड़ियों के दाम कोई मारा हे मारा

चोटियाँ पहाड़ की, सामने हैं अपने
पाँव मिला लो कहारों...
कान्धे से जो फिसला ह नीचे जा गिरेगा
ह राजाओं का आसन न्यारा
नीचे जो गिरेगा डोला
हे राजा महाराजाओ का डोला
हे डोला हे डोला हे डोला हे डोला......


और अगर यू ट्यूब पर आप कल्पना की live performance देखना चाहते हों तो यहाँ देखें...

मूलरूप से ये कहार गीत बंगाली में है जिसे सर्वप्रथम असम के जाने माने गायक और संगीतकार भूपेन हजारिका ने अपने एलबम 'आमि एक जाजाबर ' (मैं एक यायावर) में गाया था। ये गीत हिंदी में उसका अनुवाद मात्र है। शायद इसलिए कल्पना ने इसे गीत के अंत में बंगाली गीत के हिस्से को भी अपनी आवाज़ दी है ताकि इस गीत की जन्मभूमि का अंदाजा लग जाए। भूपेन दा का ये एलबम आप यहाँ से खरीद सकते हैं। पर अभी सुनिए इस गीत को दिया उनका निर्मल, बहता स्वर



आज जब नई पीढ़ी हमारी मिट्टी से उपजे लोकगीतों से कटती जा रही है, 'जुनूँ कुछ कर दिखाने का' लोकगीतों को एक मंच देने का प्रयास अत्यंत सराहनीय है और साथ ही कल्पना और मालिनी जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों के गायन को भी बढ़ावा देने की उतनी ही जरूरत है ताकि लोकसंगीत का प्रवाह, हर संगीतप्रेमी जन के मन में हो।

शनिवार, जुलाई 05, 2008

असमी, झारखंडी और हिंदी लोकगीतों की अद्भुत छौंक : दैया री दैया चढ़ गयो पापी बिछुआ

लोकगीतों में मिट्टी की सोंधी खुशबू होती है और साथ में होता है एक ऍसा भोलापन जिसे नज़रअंदाज कर पाना मुश्किल है। पिछली दफ़े आपने सुना कल्पना का गाया हुआ एक मस्त भोजपुरी गीत।

मस्ती का रंग आज भी है पर आज के इस गीत में परिवेश है असम और उत्तर पूर्व का पर साथ ही इस गीत के तार झारखंडी गीतों की शैली से भी मिलते हैं। । अगर अलग-अलग क्षेत्रों में गाए जाने वाले लोकगीतों को एक ही गीत में पिरो कर सुनाया जाए तो वो छौंक अपना एक अलग आनंद देती है और आज के इस गीत में कुछ ऐसी ही बात है। जैसा कि मैंने आपको बताया था कि कल्पना मूलतः असम की हैं और अपनी जुबां में गाना भी बेहद पसंद करती हैं। तो तैयार हैं ना असम के बागानों से उठते इस बिहू गीत को सुनने के लिए आप। बिहू गीत वसंत के आगमन और असमी नव वर्ष के स्वागत के उपलक्ष्य में गाए जाते हैं। इस बिहू गीत में सुनें कल्पना की आवाज़ में चमेली की कहानी





आखम देखर बाकी सारे सूवाली
झूमोर तोमोर नासे कारो धे माली
हे लक्ष्मी ना हई मोरे नाम चामेली
वीरपुर ला बेटी मुर नाम चामेली

छोटो छोटो छोकड़ी
बड़ो बड़ो टोकरी
नरम सकाच पाता तोले टोक टोक
जवान बोदा राखी दे करे लक लक
छोटो छोटो पोउ खाना करे धक धक
कि भांति सोए हमर साहेली
मन राख मोर नाम चामेली

हे पाकदा आसिले कुनबा मुलका
एसि आमि बिहू गाबो जानूँ


और यहाँ से आगे गीत ने जो लय पकड़ी है वो बहुत कुछ झारखंड के उत्सवों पर गाए जाने वाले लोक गीतों की तरह है । यहाँ बताना मुनासिब होगा कि ऐसे गीतों को गाते वक़्त आदिवासी बालाएँ सफेद लाल पाड़ की साड़ी पहन, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले बड़ी खूबसूरती से आगे पीछे की ओर थिरकती चलती हैं। गीत की लय ऍसी होती हे कि सुनने वाले का मन खुद ब खुद झूम जाता है जैसा कि कल्पना को सुन कर यहाँ झूम उठा

हे हाहे हो सोरिम गयो मैना तुमा रेनू पुखुरी
तुमा रेनू पुखुरी
पार मैनू खोरी गोइ साला
हे घामे घूमम गोये
मैना तुमा रेनू हरिर
तुमा रेनू हरिर
माखी हइनू सूमा दिम लाला


(शब्दों को चूंकि सुन कर लिखा है और इस भाषा की समझ ना के बराबर है इसलिए ऊपर के बोलों में गलती होने की पूरी गुंजाइश है।)

यहाँ कल्पना वापस आ जाती हैं इस लोकप्रिय लोकगीत पर..

हो बिछुआ हाए रे
पीपल छैयाँ बैठी पल भर
हो भर के गगरिया
हाए रे हाए रे हाए रे
दैया री दैया चढ़ गयो पापी बिछुआ
हाय हाय रे मर गई कोई उतारो बिछुआ
देखो रे पापी बिछुआ

मंतर झूठा और बैद भी झूठा
पिया घर आ रे , हाँ रे, हाँ रे, हाँ रे
देखो रे देखो रे कहाँ उतर गयो बिछुआ
सैयाँ को देख कर जाने किधर गयो बिछुआ
देखो रे पापी बिछुआ

दैया...................... बिछुआ




पिछली पोस्ट पर कल्पना द्वारा भोजपुरी कैसेट्स में गाए सस्ते गीतों की बात उठी थी जिस पर की गई कंचन की टिप्पणी वस्तुस्थिति का खुलासा करती है। दरअसल प्रतिभाशाली गायकों को जब तक आप अपना हुनर दिखाने के लिए सही मंच नहीं प्रदान करेंगे वो बाजार की अर्थव्यवस्था के अनुरूप शासित होते रहेंगे। अपनी टिप्पणी में कंचन कहती हैं..

"...समस्या कहे या असलियत ये है कि रेस्टोरेंट वो परोस रहे हैं जो हम खाना चाह रहे हैं.... अब समझ में नही आ रहा कि बाज़ारवाद के इस युग में गलती उपभोक्ता को दे या दुकानदार को ! भोजपुरी लोकगीतों को वही श्रोता सुन रहे हैं जो, बिलकुल नीचे तबके के हैं,..! पूरे दिन मेहनत कर के अनुराग जी के शब्दों मे जब वो अपनी सारी मेहनत का पसीना एक गिलास शराब बना कर पी जाता है, तब उसे जगजीत सिंह की गज़ल नही, ये कल्पना और गुड्दू रंगीला जैसे लोगो के गाने ही सुनने होते हैं जो उसकी झोपड़ी के २५० रु० के लोकल वाकमैन पर २५ रु के कैसेट से मनोरंजन करा देता है..! और जब कल्पना जैसे लोगो को सुनने वाला वही सुनना चाह रहा है तो वो, मजबूरी है उनकी कि वही सुनाए..!

अगली पोस्ट में कल्पना के गाए एक और लोकगीत की चर्चा होगी जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि लोकगीत मस्ती के रंगों को ही हम तक नहीं पहुँचाते पर कई बार आम जनों का दर्द भी भी श्रोताओं तक संप्रेषित करते हैं।
 

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