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रविवार, फ़रवरी 26, 2023

गुल खिले चाँद रात याद आई.. नूरजहाँ की आवाज़ में शहज़ाद जालंधरी का कलाम

बहुत ऐसे शायर रहे जिनकी कोई एक ग़ज़ल किसी मशहूर फ़नकार ने गाई और वो बरसों तक उसी ग़ज़ल की वज़ह से जाने जाते रहे। शहज़ाद जालंधरी साहब की ये ग़ज़ल नूरजहाँ जी ने गाई और इसकी शोहरत इसी बात से है कि इस ग़ज़ल को आज भी नए गायक उसी तरह गुनगुना रहे हैं और श्रोताओं की वाहवाही लूट रहे हैं। कल जब प्रतिभा सिंह बघेल की आवाज़ में सालों बाद इस ग़ज़ल का एक टुकड़ा सुना तो पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं जब हम इसे नूरजहाँ और आशा जी की आवाज़ में सुना करते थे।


जो प्यार के लम्हे होते हैं वो बड़े छोटे होते हैं। उनको पकड़ के रखना आसान नहीं होता खासकर तब जब वो शख़्स ही आपकी ज़िंदगी से निकल जाए। ऐसे में रह जाती हैं तो सिर्फ यादें और प्रकृति के वो रूप जो आपके प्रेम के साक्षी रहे थे। शहज़ाद जालंधरी साहब कभी फूलों, कभी चाँदनी रात तो कभी सावन की घटाओं के बीच की उन मुलाकातों को इस ग़ज़ल के जरिये एक बार फिर से महसूस करते हैं। कितनी प्यारी लगती थी वो दुनिया जब उनकी महफिल से लौट कर आते थे और अब तो जो बचा है सिर्फ यादें हैं आँसुओं के सैलाब में तैरती हुई...

गुल खिले चाँद रात याद आई
आपकी बात, बात याद आईगुल खिले चाँद रात याद आई
एक कहानी की हो गई तकमील*एक कहानी की हो गई तकमीलएक सावन की रात याद आईआपकी बात, बात याद आईगुल खिले चाँद रात याद आई
* अंत
अश्क आँखों में फिर उमड़ आए
अश्क आँखों में फिर उमड़ आएकोई माज़ी, की बात याद आईआपकी बात, बात याद आईगुल खिले चाँद रात याद आई
उनकी महफ़िल से लौट कर शहज़ादउनकी महफ़िल से लौट कर शहज़ादरौनक-ए-कायनात** याद आईआपकी बात, बात याद आई
** ब्रह्मांड

एक अलग तरह की आवाज़ का होना फिल्मी या गैर फिल्मी पार्श्व गायन में हमेशा से एक वरदान सा रहा है। मुकेश, तलत महमूद मन्ना डे, हेमंत कुमार, सचिन देव बर्मन, रफ़ी, किशोर कुमार, लता मंगेशकर, गीता दत्त, आशा भोसले इन सभी नामी गायकों की आवाज़ अपने तरह की थी और इसीलिए अब तक ये हमारे हृदय में राज कर रहे हैं। ग़ज़ल गायकों में वही मुकाम मेहदी हसन, गुलाम अली, जगजीत सिंह, बेगम अख्तर और नूरजहाँ का रहा। नूरजहाँ की आवाज़ में ठसक के साथ एक कशिश थी जो ग़ज़ल के सारे दर्द को अपनी गायकी में समेट लेती थी। इस ग़ज़ल को सुनते ही हुए आप ऐसा ही महसूस करेंगे। उनकी गायिकी को मंटो साहब ने कुछ यूं बयां किया था
मैं उसकी शक्ल-सूरत, अदाकारी का नहीं, आवाज़ का शैदाई था. इतनी साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ आवाज़, मुर्कियां इतनी वाज़िह1, खरज2 इतना हमवार3, पंचम इतना नोकीला! मैंने सोचा अगर ये चाहे तो घंटों एक सुर पर खड़ी रह सकती है, वैसे ही जैसे बाज़ीगर तने रस्से पर बग़ैर किसी लग़्ज़िश4  के खड़े रहते हैं.’
1. स्पष्ट , 2. नीचे के सुर, 3 . बराबर, 4. भूल    

तो सुनिए इस ग़ज़ल को मलिका ए तरन्नुम नूरजहाँ जी की आवाज़ में


इस ग़ज़ल को आज की तारीख़ में तमाम नए पुराने गायकों ने गाया है पर मुझे वो वर्सन ज्यादा पसंद आते हैं जो बिना किसी वाद्य यंत्र के साथ गाए जाएँ। शहज़ाद जालंधरी साहब के मिसरों के साथ नज़र हुसैन जी ने ग़ज़ल की जो धुन रची वो अपने आप में इतनी अर्थपूर्ण और मधुर है कि आपको किसी संगीत की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती। नूरजहाँ तो ग़ज़लों की मलिका थीं ही, आशा जी ने भी इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ की मिठास देकर एक अलग ही जामा पहनाया है। 



वो एलबम था कशिश जो अस्सी के दशक में HMV ने रिलीज़ किया था। इसमें अधिकतर वो ग़ज़लें थीं जो पहले नूरजहाँ जी ने भी गायी हुई थीं। ज़ाहिर है हर गायक अपनी अदाएगी में एक अलग रंग भरता है। इस ग़ज़ल के साथ साथ इसी एलबम में शामिल नीयत ए शौक़ भी काफी मशहूर हुई थी जिसके पहले मैंने आपको यहाँ रूबरू कराया भी था


अगर आप ग़ज़ल के शैदाई हैं और एक ही पंक्ति को अलग अलग अंदाज़ में सुनने की इच्छा रखते हों तो आप धुरंधर शास्त्रीय गायक राहुल देशपांडे का ये वर्सन जरूर सुनें। "अश्क़ आँखों में फिर उमड़ आए" में अपनी आवाज़ की लर्जिश से उन्होंने जो दर्द अता किया है वो सुनने लायक है। प्रतिभा सिंह वघेल का गाया इस ग़ज़ल का एक टुकड़ा मैंने इस ब्लॉग के फेसबुक पेज पर यहाँ साझा किया ही है।


नूरजहाँ की गाई मेरे पसंदीदा नज़्में, गीत व ग़ज़लें


वैसे नूरजहां का गाया आपका पसंदीदा गीत कौन सा है?

शुक्रवार, जुलाई 27, 2018

जब नूरजहाँ की दिलकश आवाज़ का साथ मिला नासिर काज़मी की ग़ज़लों को.. Nasir Kazmi and Noor Jehan

पिछले हफ्ते आपको मैंने नूरजहाँ का गाया एक गीत सुनवाया था और ये वादा भी किया था कि उन्हीं की आवाज़ में मकबूल शायर नासिर काज़मी साहब की कुछ ग़ज़लों को आपके सामने लाऊँगा। नासिर साहब की पैदाइश पंजाब के अंबाला की थी। आजादी के बाद वो लाहौर जाकर बस गए। फिर पहले कुछ साल पत्रकारिता और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादन का काम किया। बाद में वो रेडियो पाकिस्तान से भी जुड़े।

यूँ तो नासिर साहब की लिखी ग़ज़लों को लगभग हर बड़े फ़नकार ने गाया है पर मेरा उनकी शायरी से प्रथम परिचय गुलाम अली की वज़ह से अस्सी के दशक में हुआ। ये वो जमाना था जब कैसेट्स की जगह बाजार में एल पी रिकार्ड बिका करते थे। तब पैनासोनिक के टेपरिकार्डर भी नेपाल से मँगाये जाते थे। हमारे भी एक रिश्तेदार नेपाल से सटे बिहार के मोतिहारी जिले से ताल्लुक रखते थे। काम के सिलसिले में उनका नेपाल में आना जाना लगा रहता था। उन्हीं से कहकर हमारे घर में तब कुछ कैसेट्स मँगवाए गए थे। इनमें ज्यादातर कैसेट्स भारत और पाकिस्तानी कलाकारों द्वारा लंदन के रॉयल अलबर्ट हॉल में किये गए कार्यक्रमों के थे।


उसी में एक कैसेट था गुलाम अली साहब का था जिसमें अकबर इलाहाबादी की हंगामा हैं क्यूँ बरपा, मोहसीन नकवी की इतनी मुद्दत बाद मिले हो और आवारगी के साथ नासिर काज़मी साहब की मशहूर ग़ज़ल दिल में इक लहर सी उठी है अभी..कोई ताज़ा हवा चली है अभी.... भी शामिल थी। गुलाम अली ने अपने खास अंदाज़ में इस ग़ज़ल को यूँ गाया था मानो आवाज़ में लहरे उठ रही हों। छोटी बहर की ग़ज़लों में नासिर साहब को कमाल हासिल था। उनकी इस ग़ज़ल के चंद शेर जो मुझे बेहद पसंद आए थे वो थे

कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी
और ये चोट भी नई है अभी

भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी

सो गये लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी

अस्सी के दशक में ही गुलाब अली साहब ने आशा जी के साथ मिल कर एलबम किया। एलबम का नाम था मेराज ए ग़ज़ल। एलबम की बारह ग़ज़लों में एक तिहाई पर नासिर काज़मी का नाम था। उस एलबम में नासिर साहब की जो ग़ज़ल सबसे ज्यादा बजी उसका मतला कुछ यूँ था गए दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो...अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो।  बड़ी बहर की इस ग़ज़ल में नासिर साहब ने जो शेर लिखे थे वो वाहवाही के हक़दार थे। अब देखिये एक ही ग़ज़ल में दो ऐसे शेर थे जो ख़्याल में एक दूसरे से बिल्कुल जुदा हैं। 

पहले शेर में आलम ये है कि नासिर साहब को ग़म और खुशी दोनों में अपने हमदम की यादें बेचैन करती थीं । बाग का हर फूल उसकी खुशबू की गवाही देता था। कानों में सुनाई देने वाला हर गीत मानो ऐसा लगता कि उसी के लिए लिखा गया हो।

ख़ुशी की रुत हो कि ग़म का मौसम नज़र उसे ढूँढती है हर दम
वो बू-ए-गुल था कि नग़मा-ए-जान मेरे तो दिल में उतर गया वो

वहीं एक अलग ही रंग सामने आ जाता है दूसरे शेर में जब वही प्रियतम यादों से उतरने लगता है। अब तो ना उसकी यादें परेशान करती हैं और ना ही उन उदास सावन की रुतों में उसका इंतज़ार खलता है। हाँ एक हल्की सी कसक दिल में उठती है जब उसका जिक्र आता है पर ये कसक अब कोई पीड़ा नहीं देती। कष्ट हो तो कैसे उसके दिए जख्म भर जो चुके हैं।

न अब वो यादों का चढ़ता दरिया न फ़ुर्सतों की उदास बरखा
यूँ ही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था भर गया वो

नासिर साहब को घुड़सवारी और शिकार तो भाते  थे ही उन्हें घूमने का भी बड़ा शौक था। गाँवों में विचरना, नदी के किनारे टहलना, पेड़ों और पंक्षियों को निहारना और पहाड़ों में वक़्त बिताना उन्हें खासा पसंद था। वे कहा करते थे कि यही वो वक़्त होता था जब वो प्रकृति के करीब होते और कविता हृदय में आकार लेती। प्रकृति के बदलते रूपों पर मनुष्य की कभी पकड़ तो रही नहीं पर उन गुजरते खूबसूरत लमहों को शब्दों के जाल में तो बाँधा जा ही सकता था। नासिर साहब ने इन्हीं पलों को क़ैद करने के लिए कविता लिखनी शुरु की।

ख़ैर हम बातें कर रहे थे उनकी ग़ज़लों की। नासिर साहब की लिखी एक ग़ज़ल जो उदासी के लमहों में हमेशा मेरे साथ होती थी वो थी दिल धड़कने का सबब याद आया .. वो तेरी याद थी अब याद आया। इसे  पहली बार मैंने पंकज उधास की आवाज़ में सुना था और तभी से इसका मतला जुबाँ पर चढ़  गया  था। बाद में इसे जब नूरजहाँ की दिलकश आवाज़ में सुना तो इस ग़ज़ल का दर्द और उभर आया। 

नासिर काज़मी की ग़ज़लों की खासियत उनका सरल लहजा है़। पर इस सरल लहजे में गहरी बात कहने का जो हुनर उनके पास था वो आप इन अशआरों में ख़ुद ही महसूस कर सकते हैं। जब किसी की याद बुरी तरह सताए तो बस इस ग़ज़ल के साथ अपने को बहा दीजिए, आँसुओं के साथ साथ दिल का खारापन भी जाता रहेगा।

दिल धड़कने का सबब याद आया 
वो तेरी याद थी अब याद आया 

आज मुश्किल था सम्भलना ऐ दोस्त 
तू मुसीबत में अजब याद आया 

दिन गुज़ारा था बड़ी मुश्किल से 
फिर तेरा वादा-ए-शब याद आया 

तेरा भूला हुआ पैमान-ए-वफ़ा 
मर रहेंगे अगर अब याद आया 

फिर कई लोग नज़र से गुज़रे 
फिर कोई शहर-ए-तरब याद आया 

हाल-ए-दिल हम भी सुनाते लेकिन 
जब वो रुख़सत हुए तब याद आया

बैठ कर साया-ए-गुल में "नासिर"
हम बहुत रोये वो जब याद आया 


यूँ तो इस ग़ज़ल को नूरजहाँ के आलावा गुलाम अली, जगजीत सिंह, आशा भोसले और पंकज उधास ने भी  गाया है पर जो असर नूरजहाँ की आवाज़ का है वो और कहीं नहीं मिलता।


नासिर साहब की लिखी और नूरजहाँ की गाई एक और मशहूर ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद है। ये ग़ज़ल है नीयत-ए-शौक़ भर न जाये कही.....  तू भी दिल से उतर न जाये कहीं । दरअसल हम जिसे चाहते हैं उसे कोसते भी हैं तो कभी उसकी चिंता में घुलते रहते  हैं। ऐसे ही विपरीत मनोभावों को नासिर ने इस ग़ज़ल में जगह दी है। मतले में अपने प्रिय से जी भर जाने की बात करते हैं और फिर ये आरजू भी व्यक्त कर देते हैं कि प्रियतम जब लौट कर आए तो उन्हें छोड़ कर ना जाए। 


नीयत-ए-शौक़ भर न जाये कहीं 
तू भी दिल से उतर न जाये कहीं 

आज देखा है तुझे देर के बाद 
आज का दिन गुज़र न जाये कहीं 

न मिला कर उदास लोगों से 
हुस्न तेरा बिखर न जाये कहीं 

आरज़ू है के तू यहाँ आये 
और फिर उम्र भर न जाये कहीं 

आओ कुछ देर रो ही लें "नासिर"
फिर ये दरिया उतर न जाये कहीं


नासिर साहब की लिखी कोई और ग़ज़ल जो आपको पसंद हो तो बताएँ। मुझे जानकर खुशी होगी।

सोमवार, जुलाई 09, 2018

जो न मिल सके वही बेवफा, ये बड़ी अजीब सी बात है Jo Na Mil Sake Wahi Bewafa

पिछले हफ्ते मशहूर शायर नासिर काज़मी की कुछ ग़ज़लें तलाश कर रहा था कि भटकते भटकते इस गीत पर जा कर मेरे कानों की सुई अटक गयी। इक प्यारा सा दर्द था इस गीत में जो एकदम से दिल में उतरता चला गया। पहली बार सुना था ये नग्मा तो उत्सुकता हुई पता करने कि इसे किसने  लिखा है? कुछ जाल पृष्ठों पर गीतकार ख़्वाजा परवेज़ का नाम देखा। बाद में ये जानकारी हाथ लगी कि मलिका ए तरन्नुम नूरजहाँ के गाए सैकड़ों गीतों में ख़्वाजा परवेज़ ही गीतकार रहे हैं।

जिन्होंने ख़्वाजा परवेज़ का नाम पहली बार सुना है उनको बता दूँ कि ख़्वाजा परवेज़ का वास्तविक नाम गुलाम मोहिउद्दीन था और उनकी पैदाइश पंजाब के अमृतसर जिले में हुई थी। परवेज़ साहब का नाम पाकिस्तान के अग्रणी गीतकारों में लिया जाता है। अपने चार दशकों के फिल्मी जीवन में उन्होंने पंजाबी और उर्दू में करीब आठ हजार से ऊपर गीत लिखे। वे एक संगीतकार भी थे। उनके लिखे तमाम गीतों को नूरजहाँ के आलावा मेहदी हसन, नैयरा नूर, रूना लैला जैसे अज़ीम फनकारों ने अपनी आवाज़ दी। मेहदी हसन का गाया गीत जब कोई प्यार से बुलाएगा.. तुमको एक शख़्स याद आएगा  भी ख़्वाजा परवेज़ का ही लिखा है।



परवेज़ साहब ने इस गीत किसी के ज़िदगी में आकर चले जाने के बाद की मनःस्थितियों को सहज शब्दों में बड़ी बारीकी से पकड़ा है। ऐसे किसी शख़्स को एकदम से भूल कहाँ पाते हैं। वो नज़रों से ओझल तो रहता है पर उसके साथ बिताए लमहों की गर्माहट दिल को रौशन करती रहती है। ये रोशनी रह रह कर हमारा मन पुलकित करती रहती है और इस दौरान हम इस बात को भी भूल जाते हैं कि वो इंसान अब हमारे साथ नहीं है। इसीलिए परवेज़ लिखते हैं..

मेरी जुस्तज़ू को खबर नहीं, न वो दिन रहे न वो रात है
जो चला गया मुझे छोड़ कर वही आज तक मेरे साथ है

जब हम आपनी ख्यालों की दुनिया से बाहर निकलते हैं तो अपने अकेलेपन का अहसास  दिल में इक हूक सी उठा देता  है और मन में दर्द का सैलाब उमड़ पड़ता है। एक साथ कई शिकायतें सर उठाने लगती हैं पर फिर भी उसके अस्तित्व का तिलिस्म टूटता नहीं। देखिए गीतकार की कलम क्या खूब चली है इन भावों को व्यक्त करने में.

करे प्यार लब पे गिला न हो, ये किसी किसी का नसीब है
ये करम है उसका ज़फा नहीं, वो जुदा भी रह के करीब है
वो ही आँख है मेरे रूबरू, उसी हाथ में मेरा हाथ है
जो चला गया मुझे छोड़ कर वही आज तक मेरे साथ है

नूरजहाँ ने तो अपनी आवाज़ से परवेज़ जी के इस गीत को यादगार बनाया ही है। पर उनकी आवाज़ में जो ठसक है उसे सुनकर ऐसा लगता है कि किसी महीन मुलायम सी आवाज़ में ये गीत और जमता। हालांकि इंटरनेट पर मैंने कई अन्य गायकों को भी इस गीत पर अपना गला आज़माते सुना पर उनमें नूरजहाँ का वर्सन ही सबसे शानदार लगा। उम्मीद है कि किसी भारतीय कलाकार की आवाज़ से भी ये गीत निखरेगा। गीत का संगीत भी बेहद मधुर है। तबले की संगत तो खास तौर पर कानों को लुभाती है।  तो आइए सुनते हैं ये प्यारा सा नग्मा।


जो न मिल सके वही बेवफा, ये बड़ी अजीब सी बात है
जो चला गया मुझे छोड़ कर वही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा ...

जो किसी नज़र से अता हुई वही रौशनी है ख्याल में
वो न आ सके रहूँ मुंतज़र, ये खलिश कहाँ थी विसाल में
मेरी जुस्तज़ू को खबर नहीं, न वो दिन रहे न वो रात है
जो चला गया मुझे छोड़ कर वही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा ...

करे प्यार लब पे गिला न हो, ये किसी किसी का नसीब है
ये करम है उसका ज़फा नहीं, वो जुदा भी रह के करीब है
वो ही आँख है मेरे रूबरू, उसी हाथ में मेरा हाथ है
जो चला गया मुझे छोड़ कर वही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा ..

मेरा नाम तक जो न ले सका, जो मुझे क़रार न दे सका
जिसे इख़्तियार तो था मगर, मुझे अपना प्यार न दे सका
वही शख्स मेरी तलाश है, वही दर्द मेरी हयात है
जो चला गया मुझे छोड़ कर वही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा...

नूरजहाँ की आवाज़ का साथ अभी कुछ दिन और रहेगा। अभी तो आपने उनकी आवाज़ में ये गीत सुना। आपकी कुछ शामों को नासिर काज़मी जी की लिखी ग़ज़लों से सुरीला बनाने का मेरा इरादा है।

गुरुवार, मई 01, 2008

सब जग सोए, हम जागें, तारों से करें बातें... चाँदनी रातें.. नूरजहाँ और शमसा कँवल की आवाज में आईए सुनें ये रात्रि गीत

मैं रात का प्राणी हूँ और आप में से बहुतेरे और भी होंगे। मैंने सुबह उगते सूरज की लाली तो बिरले ही देखी है पर रात्रि की बेला में चाँद तारों के साम्राज्य को बिना किसी उद्देश्य के घंटों अपलक निहारा है। इसलिए जब कोई गीत रात की बातें करता हे तो उसमें खयालात दिल पर पुरज़ोर असर करते हैं। 
 तो आज हो जाए इक रात्रि गीत वो भी ऍसी रात जब चाँद अपनी स्निग्ध चाँदनी के प्रकाश से सारी धरती को प्रकाशमान कर रहा हो। इस उजाले में जब दूर तक दिखती पंगडंडियों में किसी के आने की आस हो और दिल में हल्का हल्का प्यार का सुरूर हो तो कौन सा गीत गाना चाहेंगे आप यही ना.. 

चाँदनी रातें ..चाँदनी रातें ..सब जग सोए, हम जागें तारों से करे बातें, चाँदनी रातें ..चाँदनी रातें .. 

इस गीत में एक मीठी सी शिकायत है पर जब आप इसे गाते हैं तो सीधे सहज पर मन को छूने वाले शब्दों की मस्ती में डूब जाते हैं। सबसे पहले इस गीत को गाया था सुर की मलिका नूरजहाँ ने ! रिकार्डिंग पुरानी है इसलिए आवाज़ की गुणवत्ता वैसी नहीं है। नूरज़हाँ शुरुआत एक क़ता से करती हैं और फिर शुरु होता है ये प्यारा सा नग्मा 

इक हूक सी दिल में उठती है। 
इक दर्द सा दिल में होता है। 
हम रातों को उठ कर रोते हैं 
जब सारा आलम सोता है 
चाँदनी रातें ..चाँदनी रातें .. 
सब जग सोए, हम जागें 
तारों से करे बातें 
चाँदनी रातें ..चाँदनी रातें .. 
तकते तकते टूटी जाए आस पिया ना आए रे, तकते तकते 
शाम सवेरे, दर्द अनोखे उठे जिया घबराए रे, शाम सवेरे 
रातों ने मेरी नींद लूट ली, दिन के चैन चुराए 
दुखिया आँखें ढ़ूँढ रही है, कहे प्यार की बातें 
चाँदनी रातें ..चाँदनी रातें .. 

 पिछली रात में हम उठ उठ के चुपके चुपके रोए रे, पिछली रात में 
सुख की नींद में गीत हमारे देश पराए सोए रे सुख की नींद में 
दिल की धड़कनें तुझे पुकारें आ जा बालम आई बहारें 
बैठ के तनहाई में कर लें सुख दुख की दो बातें 
चाँदनी रातें ..चाँदनी रातें .. 

पर इस गीत को सबसे पहले मैंने शमसा कँवल की आवाज़ में सुना था जो आज के युवाओं मे भी ख़ासा लोकप्रिय है। ये गीत पार्टनर्स इन राइम का हिस्सा था जहाँ इसके संगीत को पुनः संयोजित किया था हरदीप और प्रेम की जोड़ी ने। शमसा कँवल ने भी इस गीत को उतनी ही खूबसरती से गाया है। फ़र्क सिर्फ इतना है कि संगीत संयोजन थोड़ा लाउड होने की वज़ह से कभी उनकी आवाज, पार्श्व संगीत में दब सी जाती है। तो आइए सुनें समसा कँवल की आवाज़ में ये नग्मा

मंगलवार, नवंबर 13, 2007

हमारी साँसों में आज तक वो हिना की ख़ुशबू महक रही है....सुनिए नूरजहाँ और मेहदी हसन की आवाज़ में ये गज़ल़


पिछला हफ्ता अंतरजाल यानि 'नेट' से दूर रहा। जाने के पहले सोचा था कि नूरजहाँ की गाई ये ग़ज़ल आपको सुनवाता चलूँगा पर पटना में दीपावली की गहमागहमी में नेट कैफे की ओर रुख करने का दिल ना हुआ। वैसे तो नूरजहाँ ने तमाम बेहतरीन ग़ज़लों को अपनी गायिकी से संवारा है पर उनकी गाई ग़ज़लों में तीन मेरी बेहद पसंदीदा रही हैं। उनमें से एक फ़ैज़ की लिखी मशहूर नज़्म "....मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब ना माँग....." इस चिट्ठे पर आप पहले सुन ही चुके हैं। अगर ना सुनी हो तो यहाँ देखें।


तो आज ज़िक्र उन तीन ग़ज़लों में इस दूसरी ग़ज़ल का। ये ग़ज़ल मैंने पहली बार १९९५-९६ में एक कैसेट में सुनी थी और तभी से ये मेरे मन में रच बस गई थी। लफ़्जों की रुमानियत का कमाल कहें या नूरजहाँ की गहरी आवाज़ का सुरूर कि इस ग़ज़ल को सुनते ही मन पुलकित हो गया था। इस ग़जल की बंदिश 'राग काफी' पर आधारित है जो अर्धरात्रि में गाया जाने वाला राग है। वैसे भी महबूब के खयालों में खोए हुए गहरी अँधेरी रात में बिस्तर पर लेटे-लेटे जब आप इस ग़ज़ल को सुनेंगे तो यक़ीन मानिए आपके होठों पर शरारत भरी एक मुस्कुराहट तैर जाएगी।



हमारी साँसों में आज तक वो हिना की ख़ुशबू महक रही है
लबों पे नग्मे मचल रहे हैं, नज़र से मस्ती झलक रही है

वो मेरे नजदीक आते आते हया से इक दिन सिमट गए थे
मेरे ख़यालों में आज तक वो बदन की डाली लचक रही है

सदा जो दिल से निकल रही है वो शेर-ओ-नग्मों में ढल रही है
कि दिल के आंगन में जैसे कोई ग़ज़ल की झांझर झनक रही है

तड़प मेरे बेकरार दिल की, कभी तो उन पे असर करेगी
कभी तो वो भी जलेंगे इसमें जो आग दिल में दहक रही है


इस ग़जल को किसने लिखा ये मुझे पता नहीं पर हाल ही मुझे पता चला कि इस ग़ज़ल का एक हिस्सा और है जिसे जनाब मेहदी हसन ने अपनी आवाज़ दी है। वैसे तो दोनों ही हिस्से सुनने में अच्छे लगते हैं पर ये जरूर है कि नूरजहाँ की गायिकी का अंदाज कुछ ज्यादा असरदार लगता है।

शायद इस की एक वज़ह ये भी हैं कि जहाँ इस ग़ज़ल के पहले हिस्से में महकते प्यार की ताज़गी है तो वहीं दूसरे हिस्से में आशिक के बुझे हुए दिल का यथार्थ के सामने आत्मसमर्पण।

तो मेहदी हसन साहब को भी सुनते चलें,इसी ग़ज़ल के एक दूसरे रूप में जहाँ एक मायूसी है..एक पीड़ा है और कई अनसुलझे सवाल हैं...


हमारी साँसों में आज तक वो हिना की ख़ुशबू महक रही है
लबों पे नग्मे मचल रहे हैं, नज़र से मस्ती झलक रही है

कभी जो थे प्यार की ज़मानत वो हाथ हैं गैरो की अमानत
जो कसमें खाते थे चाहतों की, उन्हीं की नीयत बहक रही है

किसी से कोई गिला नहीं है नसीब ही में वफ़ा नहीं है
जहाँ कहीं था हिना को खिलना, हिना वहीं पे महक रही है

वो जिन की ख़ातिर ग़ज़ल कही थी, वो जिन की खातिर लिखे थे नग्मे
उन्हीं के आगे सवाल बनकर ग़ज़ल की झांझर झनक रही है

 

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