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शनिवार, मार्च 14, 2020

कोई धुन हो मैं तेरे गीत ही गाए जाऊँ Koyi Dhun Ho.. Runa Laila

रूना लैला एक ऐसी गायिका हैं कि जिनकी आवाज़ की तलब मुझे हमेशा कुछ कुछ अंतराल पर लगती रहती है। आज की पीढ़ी से जब भी मैं उनके गाए गीतों के बारे में पूछता हूँ तो ज्यादातर की जुबां पर दमादम मस्त कलंदर का ही नाम होता है। जहाँ तक मेरा सवाल है मुझे तो उनकी आवाज़ में हमेशा घरौंदा का उनका कालजयी गीत तुम्हें हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है ही ज़हन में रहता है।

वैसे क्या आपको पता है कि रूना जी ने बचपन में कला के जिस रूप का दामन थामा था वो संगीत नहीं बल्कि नृत्य था। संगीत तो उनकी बड़ी बहन दीना लैला सीखती थीं। पर उनकी देखा देखी उन्होंने भी शास्त्रीय संगीत में अपना गला आज़माना शुरु कर दिया। दीना को एक संगीत समारोह में गाना था पर उनका गला खराब हो गया और रूना ने उस बारह साल की छोटी उम्र में बहन की जगह कमान सँभाली। उनकी गायिकी इतनी सराही गयी कि उन्होंने संगीत सीखने पर गंभीरता से ध्यान देना शुरु किया। चौदह साल की उम्र में उन्होंने पहली बार पाकिस्तानी फिल्म में गाना गाया।


उबैद्दुलाह अलीम व  रूना लैला
साठ के दशक के अंतिम कुछ सालों से लेकर 1974 तक उन्होंने पाकिस्तानी फिल्मों और टीवी के लिए काम किया। फिल्मों के इतर रूना जी ने अपनी गायिकी के आरंभिक दौर में फ़ैज़ और उबैदुल्लाह अलीम की कुछ नायाब ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी थी। रंजिश ही सही के आलावा उनकी गाई कुछ ग़ज़लों को मैंने पहले भी सुनवाया है। फ़ैज़ का लिखा हुआ आए कुछ अब्र कुछ शराब आए.., सैफुद्दीन सैफ़ का गरचे सौ बार ग़म ए हिज्र से जां गुज़री है... उबैदुल्लाह अलीम की बना गुलाब तो काँटे चुभा गया इक शख़्स उनकी गायी मेरी कुछ प्रिय ग़ज़लों में एक है।  

अलीम साहब कमाल के शायर थे। वे भोपाल में जन्मे और फिर सियालकोट व कराची में पले बढ़े। उन्होंने रेडियो और टीवी जगत की विभिन्न संस्थाओं में साठ और सत्तर के दशक में अपना योगदान दिया। कुछ दिनों तो बसो मेरी आँखों में, अजीज इतना ही रखो कि जी सँभल जाए, कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी जैसी नायाब ग़ज़लों को लिखने वाले इस शायर और उनसे जुड़ी बातों को यहाँ बाँटा था मैंने। आज मैं आपको इन्हीं अलीम साहब की लिखी एक ग़ज़ल सुनवाने जा रहा हूँ जो उनके ग़ज़ल संग्रह के नाम से बने एलबम चाँद चेहरा सितारा आँखें का भी बाद में  हिस्सा बनी। रूना जी ने इसके शुरु के चार अशआर गाए हैं वो बेहद ही दिलकश हैं।


कोई धुन हो मैं तेरे गीत ही गाए जाऊँ
दर्द सीने मे उठे शोर मचाए जाऊँ

ख़्वाब बन कर तू बरसता रहे शबनम शबनम
और बस मैं इसी मौसम में नहाए जाऊँ

तेरे ही रंग उतरते चले जाएँ मुझ में
ख़ुद को लिक्खूँ तेरी तस्वीर बनाए जाऊँ

जिसको मिलना नहीं फिर उससे मोहब्बत कैसी
सोचता जाऊँ मगर दिल में बसाए जाऊँ

पीटीवी के इस श्वेत श्याम वीडियो में रूना जी ने इस ग़ज़ल को करीब 20-22 की उम्र में गाया होगा। इसके कुछ सालों बाद वो बांग्लादेश चली गयीं। यही वो समय था जब उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए भी गाने रिकार्ड किए। फिलहाल सुनिए इस ग़ज,ल को उनकी आवाज़ में..



इस ग़ज़ल के कुछ अशआर और भी थे तो मैंने सोचा कि क्यूँ ना आपको ये पूरी ग़ज़ल इसे लिखनेवाले शायर की आवाज़ में भी सुना दूँ।


अब तू उस की हुई जिस पे मुझे प्यार आता है
ज़िंदगी आ तुझे सीने से लगाए जाऊँ

यही चेहरे मिरे होने की गवाही देंगे
हर नए हर्फ़ में जाँ अपनी समाए जाऊँ

जान तो चीज़ है क्या रिश्ता-ए-जाँ से आगे
कोई आवाज़ दिए जाए मैं आए जाऊँ

शायद इस राह पे कुछ और भी राही आएँ
धूप में चलता रहूँ साए बिछाए जाऊँ

अहल-ए-दिल होंगे तो समझेंगे सुख़न को मेरे
बज़्म में आ ही गया हूँ तो सुनाए जाऊँ



रूना जी पिछले दिसंबर में गुलाबी गेंद से खेले गए भारत बांग्लादेश टेस्ट मैच में अतिथि के रूप में कोलकाता आई थीं। बतौर संगीतकार उन्होंने पिछले दिसंबर में ही एक एलबम रिलीज़ किया है जिसका नाम है Legends Forever । इस एलबम के सारे गीत बांग्ला में हैं पर अन्य नामी कलाकारों के साथ उन्होंने इस एलबम  में हरिहरण और आशा जी की आवाज़ का इस्तेमाल किया है। 

जब उनसे इस भारत यात्रा के दौरान पूछा गया कि पुराने और अभी के संगीत में क्या फर्क आया है तो उन्होंने कहा कि 
पहले हम एक गीत गाने के पहले वादकों के साथ रियाज़ करते थे। एक गलती हुई तो सब कुछ शुरु से करना पड़ता था। रिकार्डिंग के पहले भी घंटों और कई बार दिनों तक रियाज़ चलता था और इसका असर ये होता था कि गीत की आत्मा मन में बस जाती थी। आज तो हालत ये है कि आप स्टूडियो जाते हैं, वहीं गाना सुनते हैं और रिकार्ड कर लेते हैं। टेक्नॉलजी ने सब कुछ पहले से आसान बना दिया है और हमें थोड़ा आलसी।
रूना जी के इस कथन से शायद ही आज कोई संगीतप्रेमी असहमत होगा। वे  इसी तरह संगीत के क्षेत्र में आने वाले सालों में भी सक्रियता बनाए रखेंगी ऐसी उम्मीद है।

शुक्रवार, नवंबर 18, 2011

सैफुद्दीन सैफ़, रूना लैला : गरचे सौ बार ग़म ए हिज्र से जां गुज़री है...

रूना लैला की आवाज़ और ग़ज़ल गायिकी का मैं शुरु से मुरीद रहा हूँ। बहुत दिनों से रूना लैला की आवाज़ ज़ेहन की वादियों में कौंध रही थी। उनकी आवाज़ में कुछ ऐसा सुनने का जी चाह रहा था जो बहुत दिनों से ना सुना हो। कुछ दिन पहले एक मित्र की बदौलत जब उनकी ये पुरानी ग़ज़ल सुनने को मिली तब जाकर दिल की ये इच्छा पूर्ण हुई। ग़जल का मतला था

गरचे सौ बार ग़म- ए -हिज्र से जां गुज़री है
फिर भी जो दिल पे गुज़रनी थी, कहाँ गुज़री है


और दूसरा शेर तो मन को लाजवाब कर गया था

आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम ए आलम
आप गुज़रे हैं तो इक मौज- ए -रवां गुज़री है


आगे की ग़ज़ल कुछ यूँ थी
होश में आए तो बतलाए तेरा दीवाना
दिन गुज़ारा है कहाँ रात कहाँ गुज़री है

हश्र के बाद भी दीवाने तेरे पूछते हैं
वह क़यामत जो गुज़रनी थी, कहाँ गुज़री है




पर रूना जी की गाई ग़ज़ल में मकता ना होने से शायर का नाम नहीं मिल रहा था। बहरहाल खोजबीन के बाद पता चला कि ये सैफुद्दीन सैफ़ साहब की रचना है। सोचा आज इस ग़ज़ल के बहाने सैफ़ साहब और उनकी शायरी से मुलाकात कराता चलूँ।

सन 1922 में अमृतसर में जन्मे सैफ़ पंजाब के लोकप्रिय शायर थे और विभाजन के बाद सरहद पार चले गए।  पचास और साठ के दशक में वे पाकिस्तानी फिल्म उद्योग से बतौर गीतकार और पटकथा लेखक जुड़े रहे। इस दौर में उनके लिखे गीतों को इतने दशकों बाद भी लोग बड़े चाव से गाते हैं। सैफ़ साहब की शायरी मूलतः इश्क़िया शायरी ही रही। मिसाल के तौर पर उनकी एक चर्चित ग़ज़ल राह आसान हो गई होगी के इन अशआरों को देखें..

फिर पलट निगाह नहीं आई
तुझ पे कुरबान हो गई होगी


तेरी जुल्फ़ों को छेड़ती है सबा
खुद परेशान हो गई होगी


सैफ़ साहब की इस ग़ज़ल के चंद शेरों को पढ़कर आप उनके रूमानियत भरे हृदय को समझ सकते हैं
अभी ना जाओ कि तारों का दिल धड़कता है
तमाम रात पड़ी है ज़रा ठहर जाओ

फिर इसके बाद ना हम तुमको रोकेंगे
लबों पे साँस अड़ी है जरा ठहर जाओ


सैफ़ की शायरी जहाँ मोहब्बत से ओतप्रोत थी वहीं उसमें विरह वेदना के स्वर भी थे। जब वे अपनी दर्द में डूबी इन ग़ज़लों को पूरी तरन्नुम के साथ पढ़ते थे तो लोग झूम उठते थे। कॉलेज के दिनों से ही युवाओं में उनकी लोकप्रियता चरम पर थी। शायर शौकत रिज़वी का कहना है कि सैफ़ की ग़ज़लों का ये दर्द उनकी नाकाम मोहब्बत के चलते पैदा हुआ। अपने दिल की तड़प को शब्दों में वे अक्सर बाँधते रहे.. वे अपने पहले प्रेम को कभी भुला ना सके और इसीलिए उन्होंने लिखा

तुम्हारे बाद ख़ुदा जाने क्या हुआ दिल को
किसी से रब्त बढ़ाने का हौसला ना हुआ

फिल्म जगत से जुड़े रहने के साथ साथ वो अपनी कविताएँ लिखते रहे। पचास के दशक के आरंभ में उनकी ग़ज़लें और नज़्में उनके संग्रह ख़ाम - ए- काकुल में प्रकाशित हुईं। वैसे ये बता दूँ कि  ख़ाम ए काकुल का अर्थ होता है प्रियतमा की जुल्फों के खूबसूरत घेरे या लटें। किताब अपने समय में खूब बिकी। इसी संग्रह में उनकी एक नज़्म है जिसे महदी हसन साहब ने अपनी आवाज़ दी है। नज़्म की चंद पंक्तियाँ शायर के दिल के हालात को कुछ यूँ बयां कर देती हैं..

रात की बेसकूँ खामोशी में
रो रहा हूँ कि सो नहीं सकता
राहतों के महल बनाता है
दिल जो आबाद हो नहीं सकता..


सैफ़ साहब की महबूबा उनसे अलग हुई पर उसकी यादें उन्हें उसके नए शहर के बारे में सोचने और लिखने को मज़बूर करती रहीं। काव्य समीक्षक डा. अफ़जल मिर्ज़ा का मानना है कि जिस तरह सैफुद्दीन सैफ़ ने अपनी प्रेमिका के शहर को आधार बनाकर अपने हृदय की पीड़ा इज़हार किया उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। सैफ़ अपनी एक नज़्म मैं तेरा शहर छोड़ जाऊँगा में लिखते हैं

इस से पहले कि तेरी चश्म - ए - करम मज़ारत की निगाह बन जाए
प्यार ढल जाए मेरे अश्क़ों में, आरज़ू इक आह बन जाए
मुझ पर आ जाए इश्क़ का इलज़ाम  और तू बेगुनाह बन जाए
मैं तेरा शहर छोड़ जाऊँगा......

इस से पहले कि सादगी तेरी लब - ए - खामोश को गिला कह दे
तेरी मजबूरियाँ ना देख सके और दिल तुझको बेवफ़ा कह दे
जाने मैं बेरुखी में क्या पूछूँ, जाने तू बेरुखी से क्या कह दे
मैं तेरा शहर छोड़ जाऊँगा..


वैसे इस नज़्म को पढ़कर साफ लगता है आनंद बख्शी का फिल्म नज़राना का लिखा गीत इसी नज़्म से प्रेरित था। वैसे सैफ़ साहब की एक और नज़्म है प्यारी सी जिसमें    शहर का जिक्र है। पर वो नज़्म सुनाऊँगा आपको अगली पोस्ट में !

गुरुवार, अगस्त 19, 2010

बना गुलाब तो काँटे चुभा गया इक शख़्स.... रूना लैला / उबैद्दुलाह अलीम


आज की ये पोस्ट है पाकिस्तान के मशहूर शायर उबैद्दुलाह अलीम की एक बेहतरीन ग़ज़ल के बारे में, जिसे रूना जी ने अपनी दिलकश आवाज़ से एक अलग ही ऊँचाई तक उठाया है। तो पहले जिक्र इस ग़ज़ल का और बाद में अलीम शाह की कुछ और चुनिंदा ग़ज़लों के माध्यम से रूबरू होइएगा इस शायर से...


भगवान ने हमें जो जिंदगी बख्शी है उसकी एक डोर तो ऊपरवाला अपने पास रखता ही है पर उसी डोर का एक सिरा वो हमें भी थमा कर जाता है। पर हम इस डोर को पकड़ने के लिए कब इच्छुक रहे हैं ? बचपन में ये डोर माता पिता के पास रहती है पर जवानी मे जब हम इस डोर को पकड़ने के काबिल हो भी जाते हैं तो इसे किसी और के हाथ में दे के ज़िंदगी उसके इख़्तियार में दे देते हैं। आलम ये होता है कि मैं मैं नहीं रह कर वो हो जाते हैं। बकौल मीर

दिखाई दिये यूँ कि बेख़ुद किया
मुझे आप से ही जुदा कर चले

लीजिए अपना वज़ूद यूँ भुला दिया कि अपने आप से ही ख़ुद को जुदा पाया। पर ये बेइख़्तियारी का आलम तो तभी तक सुकून देता है जब आपकी ये डोर एक सच्चे प्रेमी के हाथ रहती है। पर आप कहेंगे सच्चा प्रेमी वो भी आज के दौर में क्यूँ मजाक कर रहे हैं जनाब ? सही है आपको मजाक लग रहा है क्यूँकि वक़्त के थपेड़ों ने आप को समझदार बना दिया है। पर इस दौर में क्या.. हर दौर में खामख्याली पालने वाले लोग रहे हैं और रहेंगे। यहाँ तक कि कल तक समझदार लगने वाले लोगों को भी मैंने अपने जीवन के इस डोर को ऐसे शख्सों के हाथ में सोंपते देखा है जो कि कभी भी उस ऐतबार के लायक नहीं थे। नतीज़ा वही जो इस ग़ज़ल में उबैद्दुलाह अलीम फरमा रहे हैं कि

बना गुलाब तो काँटे चुभा गया इक शख़्स
हुआ चराग तो घर ही जला गया इक शख़्स

अलीम साहब की ग़ज़लों में ये ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद है। इसका हर इक शेर दिल में उतरता सा महसूस होता है, खासकर तब जब आप इसे रूना लैला की आवाज़ में सुन रहे होते हैं। अपनी ग़ज़ल गायिकी से जो असर रूना जी पैदा करती हैं वो उनकी समकालीन भारतीय ग़ज़ल गायिकाओं में मुझे तो नज़र नहीं आता। कुछ दिनों से ये ग़ज़ल जुबाँ से उतरने का नाम ही नहीं ले रही है। तो आप भी सुनिए ना..



बना गुलाब तो काँटे चुभा गया इक शख़्स
हुआ चराग तो घर ही जला गया इक शख़्स


तमाम रंग मेरे और सारे ख़्वाब मेरे

फ़साना थे कि फ़साना बना गया इक शख़्स


मै किस हवा में उडूँ किस फ़ज़ा में लहराऊँ

दुखों के जाल हर इक सू बिछा गया इक शख़्स


मोहब्बतें भी अजब उसकी नफरतें भी कमाल

मेरी ही तरह का मुझ में समा गया इक शख़्स


रूना जी ने उबैद्दुलाह अलीम की इस ग़ज़ल के कुछ अशआर नहीं गाए हैं।

वो माहताब था मरहम बदस्त आया था

मगर कुछ और सिवा दिल दुखा गया इक शख़्स 


मोहब्बतों ने किसी की भुला रखा था उसे
मिले वो जख्म कि फिर याद आ गया इक शख़्स

खुला ये राज़ कि आईनाखाना है दुनिया
और उसमें मुझ को तमाशा बना गया इक शख़्स


मुझे यकीं है कि आप में से अधिकांश ने उबैद्दुलाह अलीम साहब का नाम नहीं सुना होगा पर विभिन्न ग़ज़ल गायकों द्वारा उनके द्वारा लिखी गई ग़ज़लें जरूर सुनी होंगी। मसलन गुलाम अली की वो छोटे बहर की प्यारी सी ग़ज़ल याद है आपको

कुछ दिन तो बसो मेरी आँखों में
फिर ख़्वाब अगर हो जाओ तो क्या


कोई रंग तो दो मेरे चेहरे को

फिर ज़ख्म अगर महकाओ तो क्या


जब हम ही न महके फिर साहब

तुम बाद-ए-सबा कहलाओ तो क्या


एक आईना था,सो टूट गया

अब खुद से अगर शरमाओ तो क्या


ऐसी ही उनकी एक हल्की फुल्की ग़ज़ल और है जिसे गुनगुनाने में बड़ा आनंद आता है
तेरे प्यार में रुसवा होकर जाएँ कहाँ दीवाने लोग
जाने क्या क्या पूछ रहे हैं यह जाने पहचाने लोग


जैसे तुम्हें हमने चाहा है कौन भला यूँ चाहेगा

माना और बहुत आएँगे तुमसे प्यार जताने लोग


और उनकी इस ग़ज़ल के प्रशंसकों की भी कमी नहीं है। चंद शेर मुलाहजा फरमाएँ ..

अजीज़ इतना ही रखो कि जी संभल जाये
अब इस क़दर भी ना चाहो कि दम निकल जाये

मोहब्बतों में अजब है दिलों का धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाये


उनकी ग़ज़ल कुछ इश्क था कुछ मज़बूरी थी.... को जहाँ फरीदा ख़ानम जी ने अपनी आवाज़ दी थी वहीं चाँद चेहरा सितारा
आँखें को हबीब वली मोहम्मद ने गाया था।

1939 में भोपाल में जन्में अलीम का शुमार आज़ाद पाकिस्तान के बुद्धिजीवी शायरों में होता है। कराची से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे साठ के दशक में कराची के दूरदर्शन केंद्र से जुड़े रहे। उनकी शायरी के दो संग्रह 'चाँद चेहरा सितारा आँखें' और 'वीरान सराय का दीया' नाम से प्रकाशित हुए हैं।

उबैद्दुलाह अलीम अहमदिया संप्रदाय से ताल्लुक रखते थे। पाकिस्तान में ये एक अल्पसंख्यक समुदाय है जिसकी आबादी करीब 40 लाख बताई जाती है। वहाँ इस संप्रदाय को गैर मुस्लिम करार दिया गया है और यहाँ तक कि उनके पवित्र स्थलों को मस्ज़िद कहने पर भी पाबंदी है। अगर आपको याद हो तो इसी साल मई में लाहौर के जिन धार्मिक स्थलों पर बम विस्फोट हुए थे (जिसमे करीब 80 लोग मारे गए थे) वो अहमदी संप्रदाय के पूजा स्थल ही थे। ख़ैर आप सोच रहे होंगे कि ग़ज़लों के जिक्र करते करते मैं इन बातों का उल्लेख आप से क्यूँ करने लगा? दरअसल उबैद्दुलाह की शायरी में अहमदियों के साथ हो रहे कत्ले आम का जिक्र बार बार मिलता रहा है। अलीम जी की इस ग़ज़ल के इन अशआरों पर गौर करें..

मैं किसके नाम लिखूँ जो आलम गुज़र रहे हैं
मेरे शहर जल रहे हैं, मेरे लोग मर रहे हैं

कोई और तो नहीं है पस-ए-खंजर-आजमाई
हमीं क़त्ल हो रहे हैं, हमीं क़त्ल कर रहे हैं



अलीम १९९८ में हृदय गति रुक जाने से इस दुनिया को छोड़ चले गए। पर उन्हें अपने लोगों पर हो रहे जुल्मों सितम का दर्द हमेशा सालता रहा। उनके दिल का दर्द उनकी इस मशहूर ग़ज़ल में साफ दिखाई देता है।

कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी सो मैंने जीवन वार दिया
मैं कैसा ज़िंदा आदमी था इक शख़्स ने मुझको मार दिया



मैं खुली हुई इक सच्चाई, मुझे जानने वाले जानते हैं
मैंने किन लोगों से नफरत की और किन लोगों को प्यार दिया

मैं रोता हूँ और आसमान से तारे टूटता देखता हूँ
उन लोगों पर जिन लोगों ने मेरे लोगों को आज़ार* दिया

*दुख

मेरे बच्चों को अल्लाह रखे इन ताज़ा हवा के झोकों ने
मैं खुश्क पेड़ खिज़ां का था, मुझे कैसा बर्ग-ओ-बार दिया


आशा है अपने लोगों के लिए जिस चैनो सुकूँ की कामना करते हुए वो इस ज़हाँ से रुखसत हुए वो उनके समुदाय को निकट भविष्य में जरूर नसीब होगा।

बुधवार, अक्टूबर 21, 2009

आए कुछ अब्र कुछ शराब आए: फ़ैज़ के क़लाम पर रूना लैला का खनकता स्वर

दीपावली एक ऐसा त्योहार है जिसकी गहमागहमी में ब्लॉग की ओर भी रुख करने को जी नहीं चाहता। साल के इन दिनों में पुरानी स्मृतियों से गुजरना अच्छा लगता है। आप कहेंगे दीपावली से पुरानी स्मृतियों का क्या लेना देना? दरअसल जब भी घर की साफ सफाई में अपने आप को लगाता हूँ, कुछ पुराने ख़तों, तसवीरों,काग़ज़ातों और उनसे जुड़ी यादों से अपने आप को घिरा पाता हूँ। दीप से लेकर पटाखे जलाने तक में अपने बच्चे के साथ खुद भी बच्चा बनने की ख़्वाहिश रहती है मेरी। फिर भला एक बार नेट से दूर जाने पर ब्लॉग की बात भी क्यूँ याद आए?

पर अब तो दीपावली भी खत्म हो गई है। और शुक्र की बात है कि इस बार की दीपावली बिना किसी मानव निर्मित हादसे के बिना ही गुजर गई। पर मन अभी भी अनमना सा है। क्यूँ है ये अनमनापन पता नहीं। शायद छुट्टियों से लौट कर फिर दैनिक दिनचर्या से बँधने की खीज़ है या मन में अटका कोई बिना बात का फ़ितूर। दीपावली के पहले फ़ैज़ के एक क़लाम को ढूँढ कर रखा था तबियत से सुनने के लिए और आज वही कर भी रहा हूँ ...


और जब फैज़ की ग़ज़ल के कुछ अशआरों को रूना लैला की खनकती आवाज़ का सहारा हो तो ग़जल की तासीर ही कुछ और हो जाती है




आए कुछ अब्र1 कुछ शराब आए
उसके बाद आए जो अज़ाब2 आए

1-बादल, 2-मुसीबत

बाम-ए-मीना3 से महताब4 उतरे
दस्त-ए-साकी5 में आफ़ताब6 आए

3 - स्वर्ग की छत, 4- चाँदनी, 5 - साकी के हाथों में, 6 - सूर्य किरणें

हर रग-ए-ख़ूँ में फिर चरागाँ हो
सामने फिर वो बेनक़ाब आए


कर रहा था ग़म-ए-ज़हाँ का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आए


ना गई तेरे ग़म की सरदारी7
दिल में यूं रोज इनकिलाब आए

7 - तांडव, आतंक

इस तरह अपनी खामोशी गूँजी
गोया हर सिमत8 से जवाब आए

8 - तरफ़

‘फ़ैज़’ थी राह सर-बसर मंज़िल
हम जहाँ पहुँचे क़ामयाब आए



ऐसी आवाज़..ऍसी कम्पोजीशन को सुने अब अर्सा बीत गया। वैसे पिछले महिने रूना जी म्यूजिक टुडे के विभिन्न अवसरों में गाए जाने वाले पंजाबी गीतों के इस एलबम के लिए दस साल बाद भारत की यात्रा पर आईं थीं। रूना जी ने उस दौरान दिए गए एक साक्षात्कार में बताया
मैंने जब गाना शुरु किया तो मैं बारह साल की भी नहीं थी। उस ज़माने की फिल्में परिवारोन्मुख सामाजिक परिवेश से जुड़ी होती थीं। ऍसा नहीं कि आज की फिल्में ऍसी नहीं हैं पर आजकल ध्यान स्टंट और सुंदर स्थलों पर की जाने वाली शूटिंग पर कहीं ज़्यादा है। उस ज़माने की बात करूँ तो संगीत बेहद अहम हिस्सा हुआ करता था फिल्मों का। उस वक़्त लोग संगीत सुनने के लिए फिल्म देखते थे। संगीत रिकार्डिंग एक सामाजिक उत्सव लगता था जहाँ सब अपने किरदारों को बिना थोड़ी सी गलती के निभाना अपना कर्तव्य समझते थे। आज तो स्टूडिओ में आए पूछा गाना क्या है, अलग अलग पंक्तियाँ या कभी कभी तो शब्द गा दिए और हो गया जी गीत तैयार। ये बेहद आसान है पर मुझे लगता है कि ऍसा करते वक़्त उन भावनाओं को खो देते हैं जो पूरे गीत को एक साथ गाने में आती हैं।
बिल्कुल वाज़िब फर्माया रूना लैला जी ने ! वैसे मुझे तो लगता है कि आज भी लोग अच्छे संगीत की वज़ह से सिनेमा देखने जाना चाहते हैं। पर वैसा संगीत देने के लिए जिस मेहनत की जरूरत है उस मापदंड को साल में चार पाँच फिल्में ही पूरी तरह पैदा कर पाती हैं। अगर हमारे रूना लैला जैसे शैदाइयों की खुशकिस्मती रही तो हिंदी फिल्म जगत में भी रूना की आवाज़ को सुनने का मौका एक बार फिर मिल पाएगा।

गुरुवार, मार्च 27, 2008

सुनिए रूना लैला को : तुम्हें हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है मुझे प्यार तुम से नहीं है नहीं है..

बात सत्तर के दशक के उत्तरार्ध की है जब गर्मी की तपती दुपहरी में हमारा परिवार दो रिक्शों में सवार होकर पटना के 'वैशाली सिनेमा हाल' मे अमोल पालेकर और जरीना बहाव की फिल्म 'घरौंदा' देखने गया था। सभी को फिल्म बहुत पसंद आई थी। भला कौन सा मध्यमवर्गीय परिवार एक बड़े मकान का सपना नहीं देखता । इसलिए जब फिल्म में इन सपनों को बनते बनते टूटता दिखाया गया तो वो ठेस कलाकारों के माध्यम से सहज ही हम दर्शकों के दिल में उतर ही गई थी। उस वक्त जो गीत सिनेमा हाल के बाहर तक हमारे साथ आया वो था दो दीवाने शहर में...रात को और दोपहर में इक आबोदाना ढूंढते हैं.. गायक ने 'आबोदाना' की जगह मकान क्यों नहीं कहा, ये प्रश्न बहुत दिनों तक बालमन को मथता रहा था। अब आबोदाना यानी भोजन पानी का रहस्य तो बहुत बाद में जाकर उदघाटित हुआ।

दिन बीतते गए और जब कॉलेज के समय गीत सुनने की नई-नई लत लगी तो कैसेट्स की नियमित खरीददारी शुरु हुई। पहली बार तभी ध्यान गया कि अरे इस घरौंदा के कुछ गीत तो गुलज़ार ने लिखे हैं और ये भी पता चला कि १९७७ में दो दीवाने शहर में.... के लिए गुलज़ार फिल्मफेयर एवार्ड से सम्मानित हुए थे। सारे गीत बार बार सुने गए और इस बार जो गीत दिल में बैठ सा गया वो रूना लैला जी का गाया ये गीत था। पर इस गीत यानी 'तुम्हें हो ना हो....' को नक़्श लायलपुरी  (Naqsh Lyallpuri) ने लिखा था। क्या कमाल के लफ़्ज दिये थे नक़्श साहब ने।

दिल और दिमाग की कशमकश को बिल्कुल सीधे बोलों से मन में उतार दिया था उन्होंने.. ....अब दिमाग अपने अहम का शिकार होकर लाख मना करता रहे कि वो प्रेम से कोसों दूर है पर बेचैन दिल की हरकतें खुद बा खुद गवाही दे जाती हैं।

इस गीत को संगीतबद्ध किया था जयदेव ने। गौर करें की इस गीत में धुन के रूप में सीटी का कितना सुंदर इस्तेमाल हुआ है। इस गीत की भावनाएँ, गीत में आते ठहरावों और फिर अनायास बढती तीव्रता से और मुखर हो कर सामने आती है। जहाँ ठहराव दिल में आते प्रश्नों को रेखांकित करते हैं वहीं गति दिल में प्रेम के उमड़ते प्रवाह का प्रतीक बन जाती है। इस गीत को फिल्म में एक बार पूरे और दूसरी बार आंशिक रूप में इस्तेमाल किया गया है। तो पहले सुनिए पूरा गीत



तुम्हें हो ना हो, मुझको तो, इतना यकीं है
मुझे प्यार, तुम से, नहीं है, नहीं है



मुझे प्यार, तुम से, नहीं है, नहीं है

मगर मैंने ये राज अब तक ना जाना
कि क्यूँ, प्यारी लगती हैं, बातें तुम्हारीं
मैं क्यूँ तुमसे मिलने का ढूँढू बहाना
कभी मैंने चाहा, तुम्हे् छू के देखूँ
कभी मैंने चाहा तुम्हें पास लाना
मगर फिर भी...
मगर फिर भी इस बात का तो यकीं है.
मुझे प्यार, तुम से, नहीं है, नहीं है

फिर भी जो तुम.. दूर.. रहते हो.. मुझसे
तो रहते हैं दिल पे उदासी के साये
कोई, ख्वाब ऊँचे, मकानों से झांके
कोई ख्वाब बैठा रहे सर झुकाए
कभी दिल की राहों.. में फैले अँधेरा..
कभी दूर तक रोशनी मुस्कुराए
मगर फिर भी...
मगर फिर भी इस बात का तो यकीं है.
मुझे प्यार तुम से नहीं है, नहीं है

तुम्हें हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है
मुझे प्यार तुम से नहीं है, नहीं है
तुम्हें हो ना हो मुझको तो इतना यकीं है



जैसा मैंने पिछली पोस्ट में भी कहा कि रूना लैला का हिंदी फिल्मों में गाया ये मेरा सबसे प्रिय गीत है। रूना जी की आवाज गीत के उतार चढ़ाव को बड़ी खूबसूरती से प्रकट करती चलती है। जब नायक सपनों के टूटने से उपजी खीज से मोदी को सफलता (कहानी का एक पात्र) की सीढ़ी बनाने की बात करता है तो नायिका को लगने लगता है कि मैंने सच,ऍसे शख्स से प्रेम नहीं किया था और गीत के दूसरे रूप में यहीं भावना उभरती है। रूना जी की आवाज की गहराई यहाँ आँखों को नम कर देती है..

आप बताएँ ये गीत आपको कैसा लगता है?

बुधवार, मार्च 26, 2008

आइए सुनें रूना लैला को: दिल की हालत को कोई क्या जाने, या तो हम जाने या ख़ुदा जाने..


पिछले दो हफ्तों से मियादी बुखार यानि Typhoid से संघर्ष करने के बाद अब लग रहा है कि शीघ्र ही इसके चुंगल से निकल पाऊँगा। इस वज़ह से होली तो फीकी रही ही, ब्लागिंग पर भी विराम लग गया। दवाओं की जितनी मात्रा पिछले दो हफ्तों में गटकनी पड़ी उतनी पिछले दो तीन सालों में नहीं खाईं थीं। खैर अब बुखार काबू में है, पर एंटीबॉयटिक्स के हेवी डोज ने शरीर का बाजा बजा दिया है तो अभी भी डॉक्टरी सलाह अनुसार विश्राम कर रहा हूँ।


तो आज बात रूना लैला जी की क्योंकि आज इनकी ही एक गैर फिल्मी उदास नज़्म आपको सुनवा रहा हूँ जो मैंने नब्बे के दशक में सुनी थी। आपको तो पता ही होगा की रूना लैला बाँगलादेश से हैं। बेहद छोटी उम्र से उन्होंने उस्ताद हबीबद्दीन खाँ से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेनी शुरु की। मात्र छः साल की आयु में उन्होंने बतौर गायक अपना जनता के सामने अपना पहला कार्यक्रम दिया।

१२ साल की उम्र में उनके गीत पाकिस्तानी फिल्म 'जुगनू' में शामिल हुए। पर ये मौका भी उन्हें अचानक हाथ लगा। गाने के लिए चुनाव उनकी बड़ी बहन दीना का हुआ था पर जिस दिन उन्हें गाना था उनका गला खराब हो गया और रूना को उनकी जगह गाने को कहा गया। नन्ही रूना को उस वक़्त तानपूरा भी पकड़ने नहीं आता था सो तिरछा ना रख कर सीधा रख कर रूना ने एक 'खयाल' गाया जो लोगों को बेहद पसंद आया। उसके बाद तो उनका कैरियर ग्राफ ऊपर ही चलता गया।

रूना बाँगलादेश, पाकिस्तान और भारत में समान रूप से लोकप्रिय हुईं। खासकर 'दमा दम मस्त कलंदर' की लोकप्रियता के बाद रूना लैला हिंदुस्तान के कोने कोने में जानी जाने लगीं थी। पाँच हजार से अधिक गीत गाने वालीं रूना, १७ भाषाओं का ज्ञान रखती हैं। कई हिंदी फिल्मों में अपनी आवाज़ दे चुकी हैं जिनमें घरौंदा फिल्म के लिए गाए उनके गीत तो मुझे बेहद प्रिय हैं। आज भी रूना विश्व के कोने कोने में अपने स्टेज शो करती रहती हैं।

मुझे रूना जी की आवाज़ हमेशा से पसंद है। और जब जब दिल में मायूसी और बेचैनी का पुट ज्यादा हो जाता हैं तो उनकी इस नज़्म को सुनना अच्छा लगता है।

ये कैसा ऐ निखरते बादलों तुम पर शबाब आया
कोई ईमान खो बैठा, कोई ईमान ले आया
फरिश्तों की इबादत से बताओ दुश्मनी क्यों है
किसी के वास्ते कोई तड़प कर जान दे आया

दिल की हालत को कोई क्या जाने
दिल की हालत को कोई क्या जाने
या तो हम जाने या ख़ुदा जाने

सुबह के साथ हैं हसीं किरणें
रात सज जाए चाँद तारों से
सुबह के साथ हैं हसीं किरणें
रात सज जाए चाँद तारों से
एक हम हैं कि क्या मुकद्दर है
कोई रिश्ता नहीं बहारों से
काश दे दें हाए ~ ~ ~
काश दे दें सुकून वीराने
दिल की हालत को कोई क्या जाने
या तो हम जाने या ख़ुदा जाने

क्या सितम है कि मोतिया बूँदें
कच्चे जख्मों को गुदगुदाती हैं
इन घटाओं का क्या करे कोई
जो सदा खून ही रुलाती हैं
अब कहाँ जाएँ हाए ~ ~ ~
अब कहाँ जाएँ दिल को बहलाने


दिल की हालत को कोई क्या जाने
या तो हम जाने या ख़ुदा जाने


इस नज्म को संगीतबद्ध किया था मशहूर संगीतकार स्वर्गीय ओ. पी. नैयर ने और इसे लिखा था नूर देवासी साहब ने। ये नज्म एलबम 'लव्स आफ रूना लैला' में है जिसे आप यहाँ से खरीद सकते हैं.







अगली पोस्ट मे रूना जी का गाया मेरा मनपसंद गीत आपके सामने होगा।
 

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