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शनिवार, अक्टूबर 07, 2017

मैंने इक किताब लिखी है... सज्जाद अली Tera Naam by Sajjad Ali

सज्जाद अली की आवाज़ से पहली बार मैं फिल्म बोल के गीत दिल परेशां है रात भारी है से परिचित हुआ था और तबसे मैं उनकी आवाज़ का शैदाई हूँ। यूँ तो उन्होंने हर तरह के गीत लिखे हैं पर उदासी भरे गीतों में उनकी गायिकी का कमाल देखते ही बनता है। कुछ ही महीने पहले मैंने आपको उनकी आवाज़ में आफ़ताब मुज़्तर की लिखी ग़ज़ल हर जुल्म येरा याद है भूला तो नहीं हूँ सुनवाई थी। ये उनकी आवाज़ का ही असर है कि संगीतप्रेमियों को तो इसका हर  शेर दिल में नासूर सा बन कर रह रह कर टीसता है। तुम नाराज हो में मामूली से शब्द को भी अपनी गायकी से वे श्रोताओं  के दिल के करीब ले आते हैं। यही वज़ह है कि संगीतकार ए आर रहमान तक उनकी प्रतिभा का लोहा मानते हैं।


ऍसा ही जादू वो एक बार फिर जगाने में सफल रहे हैं कोक स्टूडियो के नए सीजन 10 में। फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार उनके लफ़्ज़ रूमानियत की चाशनी में घुले हैं और उदासी की बजाए गीत की मधुरता और संगीत का रिदम मन को खुश कर देता है। अपने इस गीत के बारे में वो कहते हैं
"बहुत साल पहले मैंने एक रोमांटिक गाना बनाया था जिसके बोल थे मैंने इक किताब लिखी है, उस किताब के पहले सफ़े पे तेरा नाम लिखा है। बस इतना ही लिखा था। कुछ महीने पहले  कोक स्टूडियो के लिए इस गाने को पूरा लिखना था। पर जब मैं लिखने बैठा तो ये गाना काग़ज़ पर इस तरह उतरता गया कि ये एक हम्द (भगवान की स्तुति में गाया जाने वाला गीत) बन गयी।"
बहरहाल मुझे तो ये गीत अभी भी प्रेम में डूबे हुए आशिक़ का ही नज़र आता है जिसके दिलो दिमाग पर बस एक ही चेहरा है, एक ही आवाज़ है, एक ही अस्तित्व है और वो है अपनी माशूका का। सज्जाद की आवाज़ की चंचलता मन को लुभाती है वहीं गीत की धुन झूमने पर मजबूर कर देती है।

पर अगर आप सज्जाद का नज़रिया देखें तो किताब के पन्ने ज़िंदगी के अलग अलग मोड़ पर परवरदिगार को खोजने परखने और अपने उत्तरों को पाने की कोशिश का पर्याय बन जाते हैं।

सज्जाद इस गीत के संगीतकार भी हैं। इस गीत को उन्होंने जब पहली बार लिखा था तभी एक धुन उनके दिमाग में थी। उनकी कोशिश यही थी कि जो रिदम उन्होंने गीत के लिए सोची थी उसी में चीजें आती जाएँ और अपनी जगह उसी रिदम में बनाती जाएँ। गीत में गिटार, वायलिन और ताल वाद्यों की धनक के साथ बाँसुरी का अच्छा मिश्रण है। तो सुनिए एक बार ये गीत feel good का अहसास देर तक तारी रहेगा...

मैंने इक किताब लिखी है
उस किताब के पहले सफ़े पर 
तेरा नाम तेरा नाम तेरा नाम लिखा है तेरा नाम

दूसरे सफ़े पे  मैंने
सीधी साधी बातें लिखीं
लिखी हुई बातों से भी आती है आवाज़
मैंने जो आवाज़ सुनी है
उस आवाज़ के पहले सुरों में
तेरा नाम तेरा नाम तेरा नाम सुना है तेरा नाम

तीसरा सफ़ा क्या लिखा
कहकशाएँ खुलने लगीं
सदियों पुराने सभी राज खुल गए
मुझ पे क़ायनात खुली है
क़ायनात के पहले सिरे पर 
तेरा नाम तेरा नाम तेरा नाम खुला है तेरा नाम


वैसे आपको बता दूँ कि सज्जाद पचास की उम्र पार कर चुके हैं फिर भी उनकी आवाज़ की शोखी जस की तस है। कोक स्टूडियो में इस बार उन्होंने अपनी बेटी ज़ाव अली के साथ भी एक नज़्म गाई है। ख़ैर उसकी बात तो फिर कभी फिलहाल अपने "उस" के नाम की मदहोशी में मेरी तरह आप भी डूबिए...

गुरुवार, जून 16, 2016

हिज्रे यारां ना सता बेवज़ह, बन गया तू क्यूँ वज़ह, बेवज़ह Bewajah

नबील शौक़त अली को क्या आप जानते हैं? मैं तो बिल्कुल नहीं जानता था। आपको याद है रियालटी शो के उस दौर में हर चैनल  चार पाँच  साल पहले गीत संगीत की प्रतियोगिता को अलग अलग रूप रंग से सजा रहा था। कलर्स ने सोचा कि जिस तरह क्रिकेट के मैदान पर भारत पाकिस्तान का आमना सामना लोगों को उत्साहित कर देता है वैसे ही संगीत की सरज़मीं पर दोनों मुल्क के कलाकार जब भिड़ेंगे तो शो का हिट होना पक्का है। कार्यक्रम का नाम रखा गया सुर क्षेत्र।  पर संगीत जब युद्ध की ताल ठोकने का सबब बन जाए तो फिर वो संगीत कैसा? लिहाज़ा कार्यक्रम के प्रोमो में हीमेश रेशमिया व आतिफ़ असलम का नाटकीय अंदाज़ में रणभेरी बजाना मुझे ख़ल गया और आशा, आबिदा व रूना लैला जैसे दिग्गज जूरी के रहते भी मैं इस कार्यक्रम को देखने की हिम्मत नहीं जुटा सका। 



यही वज़ह थी कि नबील शौक़त अली जिन्होंने कार्यक्रम में हो रही ड्रामेबाजी के बीच इस ख़िताब को अपने नाम कर लिया, की आवाज़ से मैं अनजाना ही रह गया। लाहौर में जन्मे 27 वर्षीय नबील को संगीत का शौक़ बचपन से था। घर में संगीत का माहौल था। पिता हारमोनियम में प्रवीण थे तो बड़े भाई गायिकी में । गायिकी का चस्का नबील को टीवी शो में किस्मत आज़माने के लिए प्रेरित कर गया। पाकिस्तानी टीवी के कुछ रियालिटो शो को जीतने के बाद उन्होंने सुर क्षेत्र में हिस्सा ले के अपनी विजय का सिलसिला ज़ारी रखा। पर उनकी आवाज़ को सुनने का मौक़ा मुझे तब मिला जब कुछ  ही दिन पहले एक मित्र ने कोक स्टूडियो के आठवें सत्र की इस प्रस्तुति को साझा किया। यकीन मानिये एक ही बार सुनकर मन इस गीत से बँध सा गया।

इस गीत को गाने के साथ साथ नबील ने इसे संगीतबद्ध भी किया है। गीतकार बाबर शौक़त हाशमी के बोल सहज पर दिल को छू लेने वाले हैं। पर जिस तरह अपनी गायिकी और संगीत रचना से उन्होंने इस ग़ज़ल में चार चाँद लगाए हैं उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। गिटार और ड्रम्स तो कोक स्टूडियो की हर प्रस्तुति का अहम हिस्सा होते हैं पर इंटरल्यूड्स में कानों में शहद की मिठास भरती बाँसुरी और दिल को बहलाते तबले की थाप मन को सुकून से भर देती है !

किसी को याद करने की कोई वज़ह नहीं होती खासकर जब वो शख्स आपको प्यारा लगने लगे। फिर  तो वक़्त बेवक़्त ही वो आपके दिल के किवाड़ों में दस्तक देने लगता है। रिश्ता बना..वक़्त के हाथों बिगड़ गया। दिमाग ने सारी दीवारें खींच दीं और इस अहसास से अपने आप को संतुष्ट कर लिया कि लो मैंने तुम्हें भुला दिया। नादान था वो जो मोहब्बत को इन सींखचों में बाँधने की सोच बैठा। 

अब वो कहाँ जानता था कि कुछ भी करो , कितने भी व्यस्त रहो. अनायास ही ये दिल सींखचों के बीच उड़ता हुआ उन यादों के भँवर में डूब सा जाता है।  वो भी बिना किसी वज़ह के। 

तो आइए आज बेवज़ह ही सुने शौक़त आज़मी की इन भावनाओं को शौक़त अली की आवाज़ में.. :)


हिज्रे यारां ना सता बेवज़ह
बन गया तू क्यूँ वज़ह, बेवज़ह

दिल से कह वक़्त रुक जा पागल
चल पड़ा  करने ये वफ़ा बेवज़ह

मैं उसे भूल चुका भूल चुका
बात ऐ दिल ना बढ़ा बेवज़ह

नाम लेने का इरादा भी ना था
चल पड़ा जिक्र तेरा बेवज़ह

उनसे मिलने की वज़ह कोई नहीं
ढूँढता क्यूँ है वज़ह बेवज़ह



गुरुवार, अप्रैल 23, 2015

कहूँ दोस्त से दोस्त की बात क्या.. क्या.. आबिदा परवीन Kahoon Dost se Dost Ki Baat Kya Kya : Abida Parveen

कल आबिदा परवीन जी को सुन रहा था। बाबा ज़हीन साहब ताजी का लिखा कलाम गा रही थीं "कहूँ दोस्त से दोस्त की बात क्या.. क्या.." । ग़ज़ल तो मतले के बाद किसी और रंग में रंग गयी पर इस मिसरे ने माज़ी के उन लमहों की याद ताजा कर दी जब जब इस शब्द की परिभाषा पर कोई ख़रा उतरा था। बचपन के दोस्तों की खासियत या फिर एक सीमा कह लीजिए कि वो जीवन के जिस कालखंड में हमसे मिले बस उसी के अंदर की छवि को मन में समाए हम जीवन भर उन्हें स्नेह से याद कर लिया करते हैं। ख़ुदा ना खास्ता उनसे आज मिलना हो जाए तो खुशी तो होगी पर शायद ही आप उनसे उस सहजता से बात कर पाएँ क्यूँकि उनके बदले व्यक्तित्व में शायद ही वो अंश बचा हो जिसकी वज़ह से वो कभी आपके खास थे। शायद यही बदलाव वो मुझमें भी महसूस करें।

मुझे याद है कि बचपन में एक छोटी बच्ची से इसलिए दोस्ती थी क्यूँकि वो अपने घर के सारे खिलौनों से मुझे खेलने देती थी। दूसरी से पाँचवी कक्षा तक राब्ता बस उन्हीं बच्चों से था जो रिक्शे में साथ आया जाया करते थे। हाईस्कूल के दोस्तों में दो तीन से ही संपर्क रह पाया है। बाकी सब कहाँ है पता नहीं। पर उनका ख्याल रह रह कर ज़हन में आता रहता है। ये नहीं कि वे मेरे बड़े जिगरी दोस्त थे पर बस इतना भर जान लेना कि वो कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं मन को बड़ा संतोष देता है।

हॉस्टल और वो भी कॉलेज हॉस्टल के दोस्तों की बात जुदा है। वो जब भी मिलें जितने सालों के बाद मिले उनसे गप्प लड़ाना उन बेफिक्र पलों को फिर से कुछ देर के लिए ही सही पा लेना होता है। वो पढ़ाई का तनाव, साझा क्रश, फालतू की शैतानियाँ, नौकरी पाने की जद्दोज़हद कितना कुछ तो हमेशा रहता है फिर से उन स्मृतियों में गोते लगाने के लिए।

ये तो हुई गुजरे वक़्त की बातें। आज तो अंतरजाल पर हजारों किमी दूर बैठे किसी शख्स को आप चुटकियों में दोस्त बना लेते हैं। पर दोस्तों की इसभारी भीड़ में अगर कोई ये पूछे कि इनमें से कितनों के साथ आपके मन के तार जुड़े हैं? कौन हैं वो जो बिना बोले आपकी मन की भावनाओं को समझ लेते हैं? अपनी हताशा अपनी पीड़ा को किसके सामने बिना झिझक के बाँट सकते हैं आप? तो लगभग एक सा ही जवाब सुनने को मिलेगा।

हममें से हर किसी के लिए ये संख्या उँगलिओं पे गिनी जा सकती है। ऐसे दोस्तों के बारे में जितनी भी बात की जाए कम है। दरअसल हम अपने चारों ओर अपना अक्स ढूँढने की जुगत में रहते हैं। जानते हैं जो शख़्स हमारी तरह का होगा उसे उतनी ही मेरी भावनाओं की कद्र होगी। पर इस दोस्ती में गर प्रेम का रंग मिल जाए तो ? तो फिर मन की भावनाएँ कुछ वैसी ही हो जाती हैं जो बाबा ज़हीन साहब ताजी इस कलाम में व्यक्त कर रहे हैं।


बाबा के लिए तो वो दोस्त अराध्य सा हो जाता है, वो उसे जब चाहे देख लेते हैं जब चाहें बातें कर लेते हैं और यहाँ तक कि उस के जलवों की कल्पना कर मन ही मन उल्लासित भी होते रहते हैं। सूफ़ियत के चश्मे से देखें तो इन पंक्तियों में छलकता प्रेम ईश्वर से है पर सभी को ऊपरवाला तो नहीं मिल सकता ना, हाँ इक अच्छा दोस्त जरूर मिल सकता है जो मन के तारों को जोड़ते जोड़ते हृदय की गहराइयों तक पहुँच जाए। तो आइए गौर करें बाबा की लिखी इन पंक्तियों पर

कहूँ दोस्त से दोस्त की बात क्या.. क्या..
रही दुश्मनों से मुलाकात क्या क्या

आख़िर मैं उस दोस्त के बारे में क्या कहूँ जिसने मेरे दिल को अपना घर बना लिया है। अब उससे ये भी तो नहीं कहा जा सकता कि उसका ख्याल दिल में रहते हुए किसी रकीब से मिलने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता।

वो इश्वे वो ग़मज़े वो नग्मे वो जलवे
तलब कर रहे हैं हम आफात क्या क्या
कहूँ दोस्त से दोस्त की बात क्या.. क्या..

ओह उनकी वो कातिल निगाहें ,वो नाज़ , वो नखरे, उनके होठों पर थिरकते गीत  व उनकी अदाएँ ...देखिए हम सब जानते हुए भी इन क़यामतों के तलबगार बन बैठे हैं।

जहाँ मुझ को आया ख्याल...आ गए वो
दिखाई हैं दिल ने करामात क्या क्या
कहूँ दोस्त से दोस्त की बात क्या.. क्या..

अब तो  ये हालत है कि उनके बारे में कभी कुछ सोचूँ तो जनाब एक दम से सामने ही दिखने लगते हैं अगर ये शुरुआत है तो पता नहीं ये दिल आगे कौन कौन से चमत्कार दिखाने वाला है

न थी गुफ्तगू दरमियाँ भी उनसे
पस ए पर्दा ए दिल हुई बात क्या क्या
कहूँ दोस्त से दोस्त की बात क्या.. क्या.

अब देखिए ना, पर्दे की ओट में दिलों ने जो प्यार भरी  गुफ्तगू की उसे आमने सामने बात ना हो पाने के मलाल को मिटा दिया

आबिदा जी की गायिकी हमेशा से बेमिसाल रही है। इस गीत में जिस तरह से उन्होंने 'कहूँ',  'क्या क्या' या 'गुफ्तगू' जैसे टुकड़ों को अलग अलग तरीके से भावनाओं  डूब कर दोहराया है कि मन सुन कर गदगद हो जाता है। अगर आपने कोक स्टूडियो के सीजन सात में उनकी ये प्रस्तुति नहीं देखी तो जरूर देखिए..

शुक्रवार, सितंबर 26, 2014

तुम नाराज़ हो... मेरे कितने पास हो Tum Naraz Ho Sajjad Ali Coke Studio

ज़िदगी में बनते बिगड़ते रिश्तों को तो आपने जरूर करीब से देखा होगा। कुछ रिश्ते तो भगवान ऊपर से ही मुकर्रर कर के भेजता है, और कुछ हम स्वेच्छा से बनाते हैं। नए रिश्तों के पनपने के उस दौर में साथ जिए लमहे अक्सर खास से हो जाते हैं। दिल के लॉकर में हिफाजत से पड़े उन क्षणों को मन का ये कबूतर जब तब फुदक फुदक के देख आता है। आख़िर इन पलों को इतनी अहमियत क्यूँ? क्यूँकि जिंदगी के इन्हीं पलों में आपका दिल अंदरुनी चक्रवातों में फँसा रहता है। इन चक्रवातों में फँसने की पीड़ा और और उनसे निकलने का सुख मिला जुला कर जीवन की वो अनमोल निधि बन जाते हैं जिसमें निहित खट्टे मीठे अहसासों को आप बार बार याद करना चाहते हैं।

जब आप किसी को पसंद करने लगते हैं तो मन ही मन ये भी तो चाहते हैं ना कि उसे भी आपका साथ उतना ही प्यारा लगे। अब ये प्यारा लगना इतना आसान भी तो नहीं । चंद मुलाकातों में भला कोई किसी को क्या जान पाता है? आप ने उन्हें संदेश भेजा और जवाब नहीं आया और आप इधर उधेड़बुन में खो गए कि हे राम मैंने कुछ उल्टा पुल्टा तो नहीं लिख दिया। बड़ी मुश्किल से उपहार खरीदा पर भेजने के बाद उनका धन्यवाद भरा जवाब नहीं आया फिर वहीं चिंता। हँसी मजाक में खिंचाई कर दी उस वक़्त तो जम कर हँसे पर शाम अकेले में सोचने बैठे तो ये ख्याल दौड़ने लगा कि यार कहीं उसने बुरा तो नहीं मान लिया। लबेलुबाब ये कि आप किसी हालत में अपने पल्लवित होते रिश्ते में नाराजगी का अंश मात्र भी देखना नही चाहते। जगजीत सिंह की ग़ज़ल का वो मतला तो याद है ना आपको 

आप से गिला आप की क़सम 
सोचते रहें कर न सके हम।

पर आपके सोचने से क्या होता है? गलतियाँ फिर भी हो जाती हैं । कभी जाने में तो कभी अनजाने में। किसी से शिकायत तो तभी होती है जनाब जब वो शख़्स आपसे उम्मीदें रखता हो और किसी से उम्मीदें तब ही रखी जाती हैं जब आप दिल से उस व्यक्ति का सम्मान करते हों। इसीलिए रिश्तों में शिकवे और शिकायते हों तो समझिए कि मामला दुरुस्त है शायद इसीलिए तो इस गीत में कहा गया है
कोई शिकवा भी नहीं कोई शिकायत भी नहीं
और तुम्हें वो हमसे पहली सी मोहब्बत भी नहीं



बहरहाल दोस्ती या प्रेम में नारजगी पर मैंने इतनी सारी बातें की। इसके पीछे कोक स्टूडियो के सीजन 7 में सज्जाद अली का गाया ये नग्मा है जिसे मैंने हाल में सुना और जो मन में कुछ ऐसे ही भावों को जन्म देता है। सज्जाद अली पाकिस्तान के मशहूर पॉप गायकों में से एक है। इनकी अलग सी आवाज़ को पहली बार फिल्म बोल के गीत 'दिन परेशाँ है रात भारी है जिंदगी है कि तब भी ज़ारी है ' में सुना था और सुनकर मेरी आँखें नम हो उठी थीं। उनकी आवाज़ में कुछ तो है ऐसा जो दर्द और बेचैनी जेसे भावों को सहज उभार देता है।

इस गीत को सज्जाद ने सबसे पहले अपने एलबम लव लेटर्स में गाया था। पर कोक स्टूडियो में बड़ी खूबसूरती से इस गीत का संगीत संयोजन बदला गया। शुरुआत का वायलिन और गीत के अंत में सज्ज़ाद की अद्भुत आवाज़ के साथ लहराती बाँसुरी सुन कोई भी नाराज हृदय पिघल उठेगा। गीत के बोल तो साधारण ही हैं पर सज्जाद की आवाज़ और संगीत संयोजन पूरे गीत को श्रवणीय बना देता है।

छोड़ो भी गिला, हुआ जो हुआ
लहरों की जुबाँ को ज़रा समझो
समझो क्या कहती है हवा
तुम नाराज़ हो मेरे कितने पास हो
नाजुक नाजुक सी, प्यारी प्यारी सी
मेरे जीने की आस हो

गुरुवार, मई 15, 2014

दानेह पे दानेह दानना.... एक मस्ती भरा बलूची लोकगीत ! Daanah pe Daanah by Akhtar Chanal Zahri

लोकगीतों और लोकगायकों की सबसे बड़ी खासियत होती है कि उनके गाने का लहज़ा और रिदम कुछ इस तरह का होता है कि बिना भाषाई ज्ञान रखते हुए भी आप उस संगीत रचना से बँध कर रह जाते हैं। आज एक ऐसे ही गीत से आपको रूबरू करा रहा हूँ जिसकी भाषा बलूची है। इसे गाया है बलूची लोकगायक अख़्तर चानल ज़ाहरी  ने। बलूची रेडियो स्टेशन से पहली बार चार दशकों पहले अपनी प्रतिभा का परिचय देने वाले 60 वर्षीय ज़ाहरी पूरे विश्व में बलूची लोकसंगीत के लिए जाना हुआ नाम हैं। अपनी मिट्टी के संगीत के बारे में ज़ाहरी कहते हैं
"जिस जगह से मैं आता हूँ वहाँ बच्चे सिर्फ दो बातें जानते हैं गाना और रोना। संगीत से हमारा राब्ता बचपन से ही हो जाता है। बचपन में एक गड़ेरिए के रूप में अपनी भेड़ों को चराते हुए मैं जो नग्मे गुनगुनाता था वो मुझे आज तक याद हैं। मुझे तो ये लगता है कि हर जानवर, खेत खलिहान, फूल और यहाँ तक कि घास का एक क़तरा भी संगीत की धनात्मक उर्जा को महसूस कर सकता है।"
आज जिस बलूची गीत की बात मैं करने जा रहा हूँ उसे ज़ाहरी के साथ गाया था पाकिस्तानी गायिका कोमल रिज़वी ने।  बहुमुखी प्रतिभा वाली 33 वर्षीय कोमल गायिकी के आलावा गीतकार और टीवी होस्ट के रूप में भी पाकिस्तान में एक चर्चित नाम हैं। जिस तरह बलूचिस्तान के दक्षिणी इलाके के साथ सिंध की सीमाएँ सटती हुई चलती हैं उसी को देखते हुए कोक स्टूडियो की इस प्रस्तुति में बलूची गीत का सिंध के सबसे लोकप्रिय लोकगीत ओ यार मेरी..दमादम मस्त कलंदर के साथ फ्यूज़न किया है। फ्यूजन तो अपनी जगह है पर इस गीत का असली आनंद ज़ाहरी और कोमल रिज़वी द्वारा गाए बलूची हिस्से को सुन कर आता है।


गीत की भाषा ब्राह्वी है जो प्राचीन बलूचिस्तान की प्रमुख स्थानीय भाषा थी। ज़ाहिरी इस गीत के बारे में बताते हैं कि क्वेटा में जब वो एक दर्जी की दुकान में बैठे थे तो उन्होंने एक फकीर को दानेह पे दानेह दानना गाते सुना। इसी मुखड़े से उन्होंने बलूचिस्तान से जुड़े अपने इस गीत को विकसित किया। गीत के मुखड़े दानेह पे दानेह दानना का अर्थ है कि संसार के अथाह दानों में से एक दाना मेरा भी है। ज़ाहरी  के इस गीत में एक गड़ेरिया अपने बच्चों को बलूचिस्तान की नदियों, शहरों व प्राचीन गौरवमयी इतिहास और दंत कथाओं से परिचय कराता है। गीत के बीच बीच में जानवरों को हाँकने के लिए प्रचलित बोलियों का इस्तेमाल किया गया है ताकि लगता रहे कि ये एक चरवाहे का गीत है।


पर इस गीत का लोकगीत की सबसे मजबूत पक्ष इसकी रिदम और ज़ाहरी की जोरदार आवाज़ है जिसका प्रयोग वो अपने मुल्क की तारीफ़ करते हुए इस मस्ती से करते हैं कि मन झूम उठता है। कोमल ज़ाहरी के साथ वही मस्ती अपनी गायिकी में भी ले आती हैं। गीत के दूसरा हिस्सा मुझे उतना प्रभावित नहीं करता क्यूँकि दमादम मस्त कलंदर को इतनी बार सुन चुका हूँ कि उसे यहाँ सुनने में कुछ खास नयापन नहीं लगता।

इसलिए अगर आप सिर्फ बलूची हिस्से को सुनना चाहें तो नीचे की आडियो लिंक पर क्लिक करें।

मंगलवार, अप्रैल 29, 2014

आमाय भाशाइली रे ..क्या था गंगा आए कहाँ से..का प्रेरणास्रोत ? Aamay Bhashaili Ray..Ganga Aaye Kahan Se

कुछ दिनों पहले कोक स्टूडियो के सीजन 6 के कुछ गीतों से गुजर रहा था तो अचानक ही  बाँग्ला शीर्षक वाले  इस नग्मे पर नज़र पड़ी। मन में उत्सुकता हुई कि कोक स्टूडियो में बांग्ला गीत कब से संगीतबद्ध होने लगे। आलमगीर की गाई पहली कुछ पंक्तियाँ कान में गयीं तो लगा कि अरे इससे मिलता जुलता कौन सा हिंदी गीत मैंने सुना है? ख़ैर दिमाग को ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी और तुरंत फिल्म काबुलीवाला के लिए सलिल चौधरी द्वारा संगीतबद्ध और गुलज़ार द्वारा लिखा वो गीत याद आ गया  गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे..लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे....

जब इस ब्लॉग पर सचिन देव बर्मन के गाए गीतों की श्रंखला चली थी तो उसमें माँझी और भाटियाली  गीतों पर मैंने विस्तार से चर्चा की थी। बाँग्लादेश के लोक संगीत को कविता में ढालने वाले कवि जसिमुद्दीन की रचनाओं और धुनों से प्रेरित होकर सचिन दा ने बहुतेरे गीतों की रचना की। जब मैंने आमाय भाशाइली रे. सुना तो सलिल दा को भी उनसे प्रेरित पाया।  वैसे पाकिस्तान के पॉप संगीत के कर्णधारों में से एक आलमगीर ने कवि जसिमुद्दीन के लिखे जिस गीत को अपनी आवाज़ से सँवारा है उसे सलिल दा काबुलीवाले के प्रदर्शित होने से भी पहले बंगाली फिल्म में मन्ना डे से गवा चुके थे।


ख़ैर मन्ना डे तो मन्ना डे हैं ही पर पन्द्रह साल की आयु में अपना मुल्क बाँग्लादेश छोड़कर कराची में बसने वाले आलमगीर ने भी इस गीत को इतने दिल से गाया है कि मात्र दो मिनटों में ही वो इसमें प्राण से फूँकते नज़र आते हैं। इस गीत की लय ऐसी है कि अगर आपका बाँग्ला ज्ञान शून्य भी हो तो भी आप अपने आप को इसमें डूबता उतराता पाते हैं। कोक स्टूडिओ की इस प्रस्तुति में खास बात ये है कि इस लोकगीत में संगीत सर्बियन बैंड का है जो कि गीत के साथ ही बहता सा प्रतीत होता है।

तो आइए देखें इस लोकगीत में कवि जसिमुद्दीन हमसे क्या कह रहे हैं

आमाय भाशाइली रे आमाय डूबाइली रे
अकूल दोरियर बूझी कूल नाई रे


मैं भटकता जा रहा हूँ..मुझे कोई डुबाए जा रहा है इस अथाह जलराशि में जिसका ना तो कोई आदि है ना अंत

चाहे आँधी आए रे चाहे मेघा छाए रे
हमें तो उस पार ले के जाना माँझी रे

कूल नाई कीनर नाई, नाई को दोरियर पाड़ी
साबधाने चलइओ माँझी आमार भंग तोरी रे
अकूल दोरियर बूझी कूल नाइ रे


इस नदी की तो ना कोई सीमा है ना ही कोई किनारा नज़र आता है। माँझी मेरी इस टूटी नैया को सावधानी पूर्वक चलाना ताकि हम सकुशल अपने ठिकाने पहुँचें।

दरअसल कवि सांकेतिक रूप से ये कहना चाहते हैं कि ये जीवन संघर्ष से भरा है। लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जोख़िमों का सामना निर्भय और एकाग्र चित्त होकर करना पड़ेगा वर्ना इस झंझावत में डूबना निश्चित ही है।

काबुलीवाला में  गुलज़ार ने  गंगा की इस प्रकृति को उभारा है कि उसमें चाहे जितनी भी भिन्न प्रकृति की चीज़ें मिलें वो बिना उनमें भेद किए हुए उन्हें एक ही रंग में समाहित किए हुए चलती है। गीत के अंतरों में आप देखेंगे कि किस तरह गंगा के इस गुण को गुलज़ार प्रकृति और संसार के अन्य रूपकों में ढूँढते हैं?

गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे
आए कहाँ से, जाए कहाँ रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे

रात कारी दिन उजियारा मिल गए दोनों साए
साँझ ने देखो रंग रूप के कैसे भेद मिटाए रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

काँच कोई माटी कोई रंग बिरंगे प्याले
प्यास लगे तो एक बराबर जिस में पानी डाले रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे
आए कहाँ से, जाए कहाँ रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे

नाम कोई बोली कोई लाखों रूप और चहरे
खोल के देखो प्यार की आँखें सब तेरे सब मेरे रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

 

सोमवार, नवंबर 25, 2013

नी मै जाणा जोगी दे नाल : क्या आप भी इस जोगी के साथ नहीं जाना चाहेंगे ? 'Jogi' by Fariha Pervez

लोकगीतों में उस माटी की खुशबू होती है जिनमें वो पनप कर गाए और गुनगुनाए जाते हैं। पर भारत, पाकिस्तान, बाँग्लादेश की सांस्कृतिक विरासत ऐसी है कि हमारा संगीत आपस में यूँ घुल मिल जाता है कि उसे सुनते वक़्त भाषा और सरहदों की दीवारें आड़े नहीं आतीं। कुछ दिन पहले सूफी संत बुल्ले शाह का लिखा सूफ़ियत के रंग में रँगा ये पंजाबी लोकगीत नी मै जाणा जोगी दे नाल ... सुन रहा था और एक बार सुनते ही रिप्ले बटन दब गया और तब तक दबता रहा जब तक मन जोगीमय नहीं हो गया।


कोक स्टूडियो के छठे सत्र में इस गीत को अपनी आवाज़ से सँवारा है पाकिस्तानी गायिका फारिहा परवेज़ ने। टीवी पर सूत्रधार और धारावाहिकों में अभिनय करते हुए फारिहा ने 1995 में शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा लेनी शुरु की। 1996 से लेकर आज तक उनके सात एलबम आ चुके हैं और बेहद मकबूल भी रहे हैं। फारिहा सज्जाद अली और आशा भोसले को अपना प्रेरणास्रोत मानती हैं।

नी मै जाणा जोगी दे नाल
कन्नी मुंदड़ा पाके, मत्थे तिलक लगा के
नी मै जाणा जोगी दे नाल

ऐ जोगी मेरे मन विच बसया, ऐ जोगी  मेरा जूड़ा कसया
सच आख्याँ मैं कसम कुराने, जोगी मेरा दीन ईमाने

जोगी मेरे नाल नाल, मैं जोगी दे नाल नाल
जोगी मेरे नाल नाल, मैं जोगी दे नाल नाल

जोगी दे नाल नाल, जोगी दे नाल नाल
कोई किस दे नाल, कोई किस दे नाल ते
मैं जोगी दे नाल नाल...

जदोंदी मैं जोगी दी होई, मैं विच मैं ना रह गई कोई
जोगी मेरे नाल नाल, मैं जोगी दे नाल नाल
सा मा गा मा गा रे गा रे गा सा...सा मा गा मा पा ....

नायिका कहती हैं मुझे तो अब अपने जोगी के साथ ही जाना है। कानों में बड़े से झुमके पहन और माथे पे तिलक लगा कर मैं अपने जोगी को रिझाऊँगी। और क्यूँ ना करूँ  मैं ऐसा ? आख़िर ये जोगी मेरे मन में जो बस गया है। मेरा जूड़ा मेरे जोगी ने ही बनाया है। सच, पवित्र कुरान की कसम खा कर कहती हूँ ये जोगी मेरा दीन-ईमान बन गया है। अब तो जोगी मेरे साथ है और मैं जोगी के साथ हूँ । वैसे इसमें विचित्र लगने वाली बात क्या है ? इस दुनिया में कोई किसी के साथ है तो कोई किसी और के साथ। मैंने जोगी को अपना सहचर मान लिया है और जबसे ऐसा हुआ है मेरा कुछ अपना अक़्स नहीं रहा।

जोगी नाल जाणा..जोगी नाल जाणा.. जोगी नाल जाणा.
नी मै जाणा जाणा जाणा , नी मै जाणा जोगी दे नाल

सिर पे टोपी ते नीयत खोटी, लैणा की टोपी सिर तर के ?
तस्बीह फिरी पर दिल ना फिरया, लैणा की तस्बीह हथ फड़ के ?
चिल्ले कीते पर रब ना मिलया, लैणा की चिलेयाँ विच वड़ के ?

बुल्लेया झाग बिना दुध नयीं कढ़दा, काम लाल होवे कढ़ कढ़ के
जोगी दे नाम नाल नाल, नी मै जाणा जोगी दे नाल
कन्नी मुंदड़ा पाके, मत्थे तिलक लगा के
नी मै जाणा जोगी दे नाल....

तुम्हें इस जोगन की भक्ति सही नहीं लगती ? तुम सर पर टोपी रखते हो पर दूसरों के प्रति तुम्हारे विचारों में शुद्धता नहीं है। फिर ऐसी टोपी किस काम की? तुम्हारे दोनों हाथ प्रार्थना के लिए उठे हुए हैं पर उसके शब्द दिल में नहीं उतर रहे। फिर ऐसी पूजा का अर्थ ही क्या है? तुम सारे रीति रिवाज़ों का नियमपूर्वक अनुसरण करते हो पर तुमने कभी भगवान को नहीं पाया। फिर ऐसे रीति रिवाज़ों का क्या फायदा ? इसीलिए बुल्ले शाह कहते है कि जैसे बिना जोरन के दूध से दही नहीं बनता वैसे ही बिना सच्ची भक्ति के भगवान नहीं मिलते। सो मैं तो चली अपने जोगी की शरण में..


नुसरत फतेह अली खाँ की इस कव्वाली को रोहेल हयात ने फाहिदा की आवाज़ का इस्तेमाल कर एक गीत की शक़्ल देनी चाही है जिसमें एक ओर तो सबर्यिन बैंड द्वारा पश्चिमी वाद्य यंत्रों (Trumpet, Saxophone, Violin etc.) से बजाई जाती हुई मधुर धुन है तो दूसरी ओर पंजाब की धरती में बने इस गीत की पहचान बनाता सामूहिक रूप से किया गया ढोल वादन भी है। मुअज्जम अली खाँ की दिलकश सरगम गीत की अदाएगी में निखार ले आती है। फाहिदा परवेज़ की गायिकी और कोरस जोगी की भक्ति में मुझे तो झूमने पर मजबूर कर देता है> देखें आप इस गीत से आनंदित हो पाते हैं या नहीं ?..

सोमवार, नवंबर 18, 2013

बेनाम सी ख़्वाहिशें, आवाज़ ना मिले..बंदिशें क्यूँ ख़्वाब पे..परवाज़ ना मिले (Benaam si khwahishein...)

पापोन यानि 'अंगराग महंता' की आवाज़ से मेरा परिचय बर्फी में उनके गाए लाजवाब गीतों से हुआ था। आपको तो मालूम ही है कि एक शाम मेरे नाम पर साल 2012 की वार्षिक संगीतमाला में सरताज गीत का खिताब पापोन के गाए गीत क्यूँ ना हम तुम... को मिला था। उस गीत के बारे में लिखते हुए बहुमुखी प्रतिभा संपन्न पापोन के बारे में बहुत कुछ पढ़ा और जाना । पर बतौर संगीतकार उन्हें सुनने का मौका पिछले महिने MTV के कार्यक्रम कोक स्टूडियो में मिला।

पापोन यूँ तो उत्तर पूर्व के लोक गीतों और पश्चिमी संगीत को अपनी गायिकी में समेटते रहे हैं। पर इस कार्यक्रम के दौरान पिंकी पूनावाला की लिखी एक दिलकश नज़्म के मिज़ाज को समझते हुए जिस तरह उन्होंने संगीतबद्ध किया उसे सुनने के बाद बतौर कलाकार उनके लिए मेरे दिल में इज़्ज़त और भी बढ़ गयी। पापोन ने इस गीत को गवाया है अन्वेशा दत्ता गुप्ता (Anwesha Dutta Gupta) से। 


ये वही अन्वेशा है जिन्होंने अपनी सुरीली आवाज़ से कुछ साल पहले अमूल स्टार वॉयस आफ इंडिया में अपनी गायिकी के झंडे गाड़े थे। 19 साल की अन्वेशा ने चार साल की छोटी उम्र से ही हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेनी शुरु कर दी थी। इतनी छोटी उम्र में उन्होंने अपनी आवाज़ में जो परिपक्वता हासिल की है वो आप इस गीत को सुन कर महसूस कर सकते हैं। ग़ज़ल और नज़्मों को गाने के लिए उसके भावों को परखने की जिस क्षमता और ठहराव की जरूरत होती है वो अन्वेशा की गायिकी में सहज ही नज़र आता है। नज़्म के बोल जहाँ मीटर से अलग होते हैं उसमें बड़ी खूबसूरती से अन्वेशा अपनी अदाएगी से भरती हैं। मिसाल के तौर पर दूसरे अंतरे में उनका क्यूँ ना जाए..आ जा को गाने का अंदाज़ मन को मोह लेता है।

इस नज़्म को लिखा है नवोदित गीतकार पिंकी पूनावाला ने। अक्सर हमारी चाहतें ज़मीनी हक़ीकत से मेल नहीं खाती। फिर भी हम अपने सपनों की उड़ान को रुकने नहीं देना चाहते, ये जानते हुए भी को वो शायद कभी पूरे ना हों। पिंकी दिल की इन्हीं भावनाओं को रूपकों के माध्यम से नज़्म के अंतरों में उतारती हैं। वैसे आज के इस भौतिकतावादी समाज में पिंकी भावनाओं की ये मुलायमित कहाँ से ढूँढं पाती हैं? पिंकी का इस बारे में नज़रिया कुछ यूँ है...
"मुझे अपनी काल्पनिक दुनिया में रहना पसंद है। मेरी उस दुनिया में सुंदरता है, प्यार है, सहानुभूति है, खुशी है। इस संसार का सच मुझे कोई प्रेरणा नहीं दे पाता। अपनी काल्पनिक दुनिया से मुझे जो  प्रेरणा और शक्ति मिलती है उसी से मैं वास्तविक दुनिया के सच को बदलना चाहती हूँ।"
कोक स्टूडिओ जैसे कार्यक्रमों की एक ख़ासियत है कि आप यहाँ आवाज़ के साथ तरह तरह के साज़ों को बजता देख सकते हैं। पापोन ने इस नज़्म के इंटरल्यूड्स में सरोद और दुदुक (Duduk) का इस्तेमाल किया है। सरोद पर प्रीतम घोषाल और दुदुक पर निर्मलया डे की थिरकती ऊँगलियों से उत्पन्न रागिनी मन को सुकून पहुँचाती हैं। बाँसुरी की तरह दिखता दुदुन आरमेनिया का प्राचीन वाद्य यंत्र माना जाता है। इसके अग्र भाग की अलग बनावट की वज़ह से ये क्लारिनेट जैसा स्वर देता है।

तो आइए सुनते हैं अन्वेशा की आवाज़ में ये प्यारा सा नग्मा...


बेनाम सी ख़्वाहिशें, आवाज़ ना मिले
बंदिशें क्यूँ ख़्वाब पे..परवाज़ ना मिले
जाने है पर माने दिल ना तू ना मेरे लिए
बेबसी ये पुकार रही है आ साजन मेरे

चाँद तेरी रोशनी आफ़ताब से है मगर
चाह के भी ना मिले है दोनों की नज़र
आसमाँ ये मेरा जाने दोनों कब हैं मिले
दूरियाँ दिन रात की हैं, तय ना हो फासले

पतझड़ जाए, बरखा आए हो बहार
मौसम बदलते रहे
दिल के नगर जो बसी सर्द हवाएँ
क्यूँ ना जाएँ
आ जा आ भी जा मौसम कटे ना बिरहा के
 (परवाज़ :उड़ान,  आफ़ताब :  सूरज)

तो इन बिना नाम की ख़्वाहिशों की सदा आपके दिल तक पहुँची क्या?

गुरुवार, अगस्त 29, 2013

सोना महापात्रा @ MTV Coke Studio : 'दम दम अंदर' और 'मैं तो पिया से नैना लड़ा आई रे...'

कोक स्टूडिओ (Coke Studio) का भारतीय संस्करण अपने तीसरे साल मे है। विगत दो सालों में अपने अग्रज पाकिस्तानी कोक स्टूडिओ की तुलना में ये फीका ही रहा है। पर अपने शैशव काल से बाहर निकलता हुआ ये कार्यक्रम हर साल कुछ ऐसी प्रस्तुतियाँ जरूर दे जाता है जिससे इसके भविष्य के प्रति और उम्मीद जगती है। इस बार मुझे अपनी चहेती पार्श्व गायिका सोना महापात्रा को इस कार्यक्रम में सुनने का बेसब्री से इंतज़ार था। मुझे हमेशा से लगता रहा है कि सोना की आवाज़ की गुणवत्ता बेमिसाल है और उनकी गायिकी की विस्तृत सीमाओं का हिंदी फिल्म जगत सही ढंग से इस्तेमाल नहीं कर पाया है। संगीतकार राम संपत जिनसे सोना परिणय सूत्र में बँध चुकी हैं इस मामले में अपवाद जरूर हैं पर सोना को अपने हुनर के मुताबिक अन्य संगीतकारों का साथ मिलता रहे तो मेरे जैसे संगीतप्रेमी को ज्यादा खुशी होगी।

 MTV के इस कार्यक्रम में राम संपत ने सोना की आवाज़ का दो बार इस्तेमाल किया और दोनों बार नतीजा शानदार रहा। तो आइए सुनते हैं आज इन दोनों गीतों को ।

पहले गीत में ईश भक्ति का रंग सर चढ़कर बोलता है। गीत की शुरुआत होती है सामंथा एडवर्ड्स की गाई इन पंक्तियों से, जिसमें दुख और सुख दोनों परिस्थितियों में ईश्वर की अनुकंपा से गदगद भक्त के प्रेम को व्यक्त किया गया है। 

When I am weak,
You give me strength,
You give me hope,
When I am down,
In the face of darkness,
You are my guide,
You are my love,
My love divine.
Help me forgive,
When I am hurt,
Help me believe,
When I am lost,
In times of trouble,
You ease my weary mind,
You are my love,
My love divine.

सामंथा, राम सम्पत के शब्दों को पूरे हृदय से आत्मसात करती दिखती हैं। मुंबई की ये बहुमुखी प्रतिभा पश्चिमी जॉज़ संगीत के साथ साथ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में समान रूप से दक्ष हैं। पिछले दो दशकों में वो एक संगीत शिक्षक, संयोजक और गायिका की विविध भूमिकाओं को भली भांति निभाती आयी हैं। सामंथा की गायिकी और राम संपत के खूबसूरत इंटरल्यूड् से स्थिर हुए मन को बदलती रिदम के साथ सोना की आवाज़ नई उमंग का संचार करती है। गीतकार मुन्ना धीमन अपने  शब्दों की लौ से  भक्त को तरंगित अवस्था में ले आते हैं।




दम दम अंदर बोले यार
हरदम अंदर बोले यार
यार में मैं बोलूँ ना बोलूँ
मेरे अंदर बोले यार

घर के अंदर बोले यार
घर के बाहर बोले यार
छत के ऊपर नाचे यार
मंदिर मस्जिद बोले यार

हम ने यार दी नौकरी कर ली
कर ली प्यार दी नौकरी कर ली
उसके द्वार पर जा बैठे हैं
वो खोले ना खोले द्वार
लौ लागी ऐसी लौ लागी
फिरती हूँ मैं भागी भागी
मैं तुलने को राजी राजी
कोई तराजू तौले यार...

When I am weak...

हिंदी और अंग्रेजी शब्दों के मेल कर से बना ये गीत अपने बेहतरीन संगीत संयोजन दिल को सुकून पहुँचाता है।

इसी कार्यक्रम के अंत में सोना महापात्रा  ने अमीर ख़ुसरो साहब की लिखी एक और रचना को पेश किया जिसे खुसरो साहब ने अपने गुरु निजामुद्दिन औलिया के लिए लिखा था। सोना की आवाज़ में जो उर्जा है वो अमीर खुसरों की भावनाओं और गीत के चुलबुलेपन से पूरा न्याय करती दिखती है..

मैं तो पिया से नैना लड़ा आई रे
घर नारी कँवारी कहे सो कहे
मैं तो पिया से नैना लड़ा आई रे
सोहनी सुरतिया मोहनी मुरतिया..
मैं तो हृदय के पीछे समा आई रे..
मैं तो पिया से..
खुसरो निज़ाम के बली बली जैये
मैं तो अनमोल चेली कहा आई रे

सोना इस गीत के बारे में कहती हैं
इस गीत में गिनती गिन कर ऊपर के सुरों तक पहुँचने के बजाए मैंने पूरी तरह गीत के उन्माद में अपने आप को झोंक दिया। अगर मैं ऐसा नहीं करती तो शायद गीत की भावनाओं से मेरा तारतम्य टूट जाता। 
दोनों ही गीतों में कोरस का राम संपत ने बड़ा प्यारा इस्तेमाल किया है।



तो बताइए सोना महापात्रा की गायिकी से सजी जनमाष्टमी की ये भक्तिमय सुबह आपको कैसी लगी?

एक शाम मेरे नाम पर सोना महापात्रा

गुरुवार, जून 23, 2011

क्या कहता है जएब और हानीया (Zeb and Haniya) का गाया ये लोकप्रिय अफ़गानी लोकगीत ?

कोक स्टूडिओ ये नाम सुना है आपने। अगर आप फिल्म संगीत के इतर लोक संगीत व फ्यूजन में रुचि रखते हैं और अंतरजाल पर सक्रिय हैं तो जरूर सुना होगा। वैसे भी संगीत का ये कार्यक्रम ब्राजील और पाकिस्तान का विचरण करते हुए पिछले शुक्रवार से MTV India का भी हिस्सा हो गया है। हालांकि इसके भारतीय संस्करण की पहली कड़ी उतनी असरदार नहीं रही जितनी की सामान्यतः कोक स्टूडिओ पाकिस्तान की प्रस्तुति रहा करती है। पर भारत में इस तरह के कार्यक्रम को किसी संगीत चैनल और वो भी MTV की ये पहल निश्चय ही सही दिशा में उठाया एक कदम है।

ख़ैर आज मैं आपको एक ऐसे लोकगीत से रूबरू करा रहा हूँ जिसे सत्तर के दशक में अफगानिस्तान में रचा गया। पश्तू भाषा में रचे इस गीत को गाया है जएब (Zeb) ने और उनके साथ में हैं हानीया। जएब और हानीया (Zeb and Haniya) 


पाकिस्तान की पैदाइश पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम पश्तून इलाके से है। पाकिस्तान में इन दो चचेरी बहनों ने पहला लड़कियों का बैंड बनाया। जएब गाती हैं और हानीया गिटार वादक हैं। पाकिस्तान में इस बैंड का एक गीत 'चुप' बेहद चर्चित रहा था।

इस अफ़गानी लोकगीत की भाषा अफगानिस्तान में बोली जाने वाली फ़ारसी है जिसे 'दरी' भी कहा जाता है। गीत की शुरुआत में जो वाद्य यंत्र बजता है वो किसी भी संगीतप्रेमी श्रोता के मन के तार झंकृत कर सकता है। इस वाद्य यंत्र का नाम है रूबाब। रुबाब अफ़गानिस्तान के दो राष्ट्रीय वाद्य यंत्रों में से एक है और अफ़गानी शास्त्रीय संगीत में इसकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। गीत का शुरुआती एक मिनट इसकी तान में खो सा जाता है और फिर पीछे से उभरता है जएब का मधुर स्वर।  

पिछले साल मेरी एक मित्र ने मुझे जब कोक स्टूडिओ पाकिस्तान के कार्यक्रम में प्रसारित इस गीत के बारे में बताया तो मुझे उत्सुकता हुई कि आख़िर रुबाब की मधुर धुन के आलावा गायिका ने इस गीत में क्या कहना चाहा है? तो आइए गीत का आनंद लें इसमें व्यक्त भावनाओं के साथ


पैमोना बेदेह के खुमार असतम
मन आशिक ए चश्मे मस्ते यार असतम
बेदेह बेदेह के खुमार असतम
पैमोना बेदेह के खुमार असतम

साकी शराब का प्याला ले आओ । आज मैं इस जाम की खुमारी में अपने आप को डुबो लेना चाहता हूँ। तुम्हारी नशीली आँखें मुझे तुम्हारा दीवाना बना रही हैं। लाओ लाओ कि इसकी ख़ुमारी मैं मैं अपने आप को खो देना चाहता हूँ।

चश्मत के बाहू ए खुतन मेमोनाए
रूयात बा गुलाब हाय चमन मेमोनाए
गुल रोब ए कुनैद वरक़ वरक़ बू ए कुनैद
बा लाला ए ज़ार ए बे वतन मींयारात
पैमोना बेदेह के खुमार.... असतम

क्या तुम्हे पता है कि तुम्हारी आँखें मेरे दिल के बगीचे में रोशनी भर देती हैं। तुम्हारा चेहरा मेरे दिल के बाग के सभी गुलाबों को खिला देता है। सच पूछो तो तुम्हारा ये चेहरा मेरे दिल की बगिया में रंग भरता है, उनकी पंखुड़ियों में सुगंध का संचार करता है।

अज ओमादान ए तगार खबर में दास्तान
पेश ए कदमात कोचा रा गुल में कोश्ताम
गुल में कोश्तम गुल ए गुलाब में कोश्ताम
खाक़ ए कदमात पद ए दम ए वादाश्ताम
पैमोना बेदेह के खुमार.... असतम
सोचता हूँ जब तुम्हारे पवित्र कदमों की आहट इस हृदय को सुनाई देगी, तब मैं तुम्हारे रास्ते में दिल के इन फूलों को कालीन की तरह बिछा दूँगा। चारों ओर फूल बिछे होंगे..गुलाब के फूल और उन फूलों के बीच पड़ती तुम्हारे चरणों की धूल में मैं खुद को न्योछावर कर दूँगा।

तो प्रेम में रससिक्ता इस गीत को सुना आपने। आपको क्या लगा कि ये किसी प्रेमिका के लिए एक प्रेमी के हृदय का क्रंदन है। ज़ाहिर सी बात है शाब्दिक तौर पर ये गीत तो हमसे यही कहता है और यही सही भी है ।

पर ये बताना जरूरी है कि ये गीत वास्तव में एक सूफी गीत से प्रेरित हैं । दरअसल मूल गीत जिसमें कई छंद हैं को मशहूर सूफ़ी कवि उमर ख़्य्याम ने ग्यारहवीं शताब्दी में लिखा था। दरअसल सूफी संतों ने अपने लिखे गीतों में शराब और साक़ी को रूपकों की तरह इस्तेमाल किया है। मजे की बात ये है कि इन संतों ने कभी मदिरा को हाथ भी नहीं लगाया।

सूफी विचारधारा में भक्त और भगवान का संबंध एक आशिक का होता है जिसे ऊपरवाले की नज़र ए इनायत का बेसब्री से इंतज़ार होता है। साक़ी सौंदर्य का वो प्रतिमान है जो उसे ईश्वर के प्रेम में डूबने को उद्यत करती है। सूफी साहित्य में कहीं कहीं इस साक़ी को अलौकिक दाता की संज्ञा दी गई है जो हम सभी को ज़िदगी रूपी मदिरा का पान कराती है।

कोक स्टूडिओ के कार्यक्रम में आप जएब और हानीया को देख सकते हैं साथ में बजते रुबाब के साथ...


एक शाम मेरे नाम पर लोकगीतों की बहार

गुरुवार, अक्टूबर 28, 2010

अलिफ़ अल्लाह चंबे दी बूटी...दम गुटकूँ दम गुटकूँ :आरिफ़ लोहार का शानदार 'जुगनी' लोकगीत

पंजाबी लोकगीतों का अपना एक समृद्ध इतिहास रहा है। बुल्लेशाह का सूफी गीत हो या हीर और सोहणी महीवाल के प्रेम या विरह में डूबे गीत, सब अपना जादू जगाते रहे हैं। आज आपके सामने पंजाब की एक ऐसे ही एक लोकगीत श्रेणी से परिचय कराने जा रहा हूँ जिसे 'जुगनी' के नाम से जाना जाता है। बरसात की अंधकारमयी रातों में चमकते जुगनू तो हम सब ने देखे हैं। पर जुगनू की भार्या इस जुगनी को देखने या पहचानने का हुनर तो शायद ही हम में से किसी के पास होगा।

पंजाबी लोकगीतों में यही जुगनी एक मासूम पर्यवेक्षक का काम करती है। इन गीतों में जुगनी के इस बिंब से हँसी ठिठोला भी होता है .कटाक्ष भी होते हैं, तो कभी आस पास के परिवेश का दुख इसके मुँह से फूट पड़ता है। पर जुगनी से जुड़े अधिकांश गीत मूलतः एक अध्यात्मिक सोच को आगे बढ़ाते हैं। ये सोच कभी अपने आस पास के संसार को समझने की होती है तो कभी मानव से भगवान के रिश्ता को टटोलने की क़वायद।

वैसे क्या आप ये नहीं जानना चाहेंगे कि जुगनी लोकगीत कैसे रचती है? अब जुगनी का क्या है उड़ कर गली मोहल्ले, स्कूल या बाजार कहीं भी पहुँच सकती है और इन जगहों पर वो जो देखती है उसे ही तीन या चार अंतरों में कह देती है। ठेठ पंजाबी शैली में गाए इन गीतों को आम जन बड़ी आसानी से अपनी ज़िंदगी से जोड़ लेते हैं।

जुगनी से जुड़े लोकगीतों को अपनी गायिकी से सरहद के दोनों ओर के कलाकार लोगों तक पहुँचाते रहे हैं। कुछ साल पहले रब्बी शेरगिल का ऐसा ही एक गीत बेहद चर्चित रहा था। रब्बी के आलावा गुरुदास मान और आशा सिंह मस्ताना ने भी श्रोताओं को कई जुगनी गीत दिए हैं।

सरहद पार यानि अगर पाकिस्तान की बात की जाए तो जुगनी ही क्या पंजाबी लोकगीतों की हर विधा को पूरे मुल्क में मशहूर करने में सबसे पहला नाम आलम लोहार का आता है। आलम लोहार ने साठ और सत्तर के दशक में जुगनी गीतों की एक अलग पहचान बना दी। आलम जब जुगनी गाते थे तो एक अद्भुत वाद्य यंत्र उनके हाथों में रहता था। ये वाद्य यंत्र था चिमटा,! जी हाँ आलम लोहार ने ही इन गीतों के साथ साथ चिमटे के टकराने से निकलने वाली ध्वनि का बीट्स की तरह इस्तेमाल किया। फ्यूजन के इस युग में भी उनके पुत्र आरिफ़ लोहार अपने पिता द्वारा शुरु की गई इस गौरवशाली परंपरा का वहन कर रहे हैं। हाँ लोहे के उस पुराने चिमटे के स्वरूप में जरूर थोड़ा बदलाव हुआ है।



पिछले हफ्ते ही मुझे आरिफ़ लोहार का गाया एक जुगनी लोकगीत सुनने को मिला। ये लोकगीत उन्होंने इस साल पाकिस्तान में कोक स्टूडिओ ( Coke Studio ) के तीसरे सत्र के दौरान गया था। अगर आप ये सोच रहे हों कि ये कोक स्टूडिओ क्या बला है तो ये बताना मुनासिब रहेगा कि कोक स्टूडिओ पाकिस्तान में कोला कंपनी कोक की सहायता से स्थापित किया गया एक सांगीतिक मंच है जो देश के विभिन्न हिस्सों में पनपते परंपरागत संगीत को बढ़ावा देता है। इस मंच पर देश के नामी व नवोदित गायक लाइव रिकार्डिंग के तहत अपनी प्रतिभा को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करते हैं।

पहली बार इस जुगनी को सुनते ही आरिफ़ लोहार की गायिकी का मैं शैदाई हो गया। गीत की भावनाओं के अनुरूप ही उनके चेहरे के भाव बदलते हैं। आरिफ लोहार का शब्दों का उच्चारण इतना स्पष्ट है कि गीत को कोई शब्द आपके ज़ेहन से भटकने की जुर्रत नहीं कर पाता। गीत में वो तो डूबते ही हैं सुनने वालों को भी अपने साथ बहा ले जाते हैं। लोहार की बेमिसाल गायिकी के साथ साथ फ्यूजन और कोरस का जिस तरह से इस गीत में प्रयोग हुआ है कि सुनने के साथ हाथ पाँव थिरकने लगते हैं। इस गीत में उनका साथ दिया पाकिस्तान की युवा मॉडल और अब गायिका मीशा शफ़ी ने। जिस तरह हम माता शेरोवाली के भजन गाते समय माता की जयजयकार करते हैं उसी तरह मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि चाहे आपको पंजाबी आती हो या नहीं गीत को सुनने के साथ साथ आप कोरस में उठ रहे जुगनी जी के सुर में सुर मिलाना अवश्य चाहेंगे।






पर इस गीत का पूर्ण आनंद उठाने के लिए पहले ये जानते हैं कि इस गीत में आख़िर जुगनी ने कहना क्या चाहा है ....

अलिफ़ अल्लाह चंबे दी बूटी.
ते मेरे मुर्शिद मन विच लाइ हू

हो नफी उस बात दा पाणी दे के
हर रगे हरजाई हू
हो जुग जुग जीवे मेरा मुर्शिद सोणा
हत्ते जिस ऐ बूटी लाइ हो

मेरे साई ने मेरे हृदय में प्रेम का पुष्प अंकुरित किया है। साई की भक्ति से मेरे आचरण में जो विनम्रता और दया आई है उससे मन का ये फूल और खिल उठा है। मेरा साई, मेरी हर साँस, हर धड़कन में विद्यमान है। मुझमें प्राण भरने वाले साई तुम युगों युगों तक यूँ ही बने रहो।


पीर मेरिआ जुगनी जी
ऐ वे अल्लाह वालियाँ दी जुगनी जी,ऐ वे अल्लाह वालियाँ दी जुगनी जी
ऐ वे नबी पाक दी जुगनी जी, ऐ वे नबी पाक दी जुगनी जी
ऐ वे मौला अली वाली जुगनी जी,ऐ वे मौला अली वाली जुगनी जी
ऐ वे मेरे पीर दी जुगनी जी, ऐ वे मेरे पीर दी जुगनी जी
ऐ वे सारे सबद दी जुगनी जी, ऐ वे सारे सबद दी जुगनी जी
ओ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ....गुटकूँ गुटकूँ
पढ़े साईं ते कलमा नबी दा, पढ़े साई पीर मेरया


मेरे साथ मेरा मार्गदर्शक है मेरा संत है , मेरी आत्मा, भगवन और उनके दूतों के विचारों से पवित्र है। भगवन जब भी मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूँ मेरा हृदय एक आनंद से धड़कने लगता है। उल्लास के इन क्षणों में मैं ख़ुद ब ख़ुद तेरे नाम का मैं कलमा पढ़ने लगता हूँ।


जुगनी तार खाईं विच थाल
छड्ड दुनिया दे जंजाल
कुछ नी निभणा बंदया नाल
राक्खी सबद सिध अमाल

ऐ वे अल्लाह .... जुगनी जी


मेरे साई कहते हैं कि तुम्हारे पास जो भी है उसे बाँटना सीखो। मोह माया जैसे दुनिया के जंजालों से दूर रहो। जीवन में ऍसा कुछ भी ऍसा नहीं है जो तुम्हें दूसरों से मिलेगा और जिसे तुम मृत्यु के बाद तुम अपने साथ ले जा सकोगे। इसलिए ऐ अल्लाह के बंदे अपने कर्मों और भावनाओं की पवित्रता बनाए रखो।

जुगनी दिग पई विच रोई
ओथ्थे रो रो कमली होई
ओद्दी वाथ नइ लैंदा कोई
ते कलमे बिना नइ मिलदी तोई

ऐ वे अल्लाह .... जुगनी जी
ओ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ....गुटकूँ गुटकूँ


अब इस जुगनी को ही देखो। लोभ मोह के जाल से ऐसी आसक्त हुई कि पाप की गहराइयों में जा फँसी। अब लगातार रोए जा रही है। पर अब उसे पूछनेवाला कोई नहीं है। इस बात को गाँठ बाँध कर सुन लो बिना सृष्टिकर्ता का ध्यान किए तुम्हें कभी शांति या मोक्ष नहीं मिल सकता।

हो वंगा चढ़ा लो कुड़ियों
मेरे दाता दे दरबार धियाँ
वंगा चढ़ा लो कुड़ियों
मेरे दाता दे दरबार धियाँ


हो ना कर तीया खैड़ पियारी
माँ दैंदियाँ गालड़ियाँ
दिन दिन ढली जवानी जाँदी
जूँ सोना पुठिया लरियाँ
औरत मरद शहजादे सोणे
ओ मोती ओ ला लड़ियाँ
सिर दा सरफाँ कर ना जैड़े
पीर प्रेम प्या लड़ियाँ
ओ दाता के दे दरबार चाखो
पावन खैड़ सवा लड़ियाँ

लड़कियों वो वाली चूड़ियाँ पहन लो जो तुम्हें साई के दरबार से मिली थीं। और हाँ अपने यौवन का इतना गुमान ना करना कि तुम्हें अपनी माताओं की डाँट फटकार सुनने को मिल जाए। जैसे जैसे दिन बीतते हैं ये यौवन और बाहरी सुंदरता और फीकी पड़ती जाती है। इस संसार में कोई वस्तु हमेशा के लिए नहीं है। इस सोने को ही लो कितना चमकता है पर एक बार भट्टी के अंदर जाते ही पिघलकर साँचे के रूप में अपने आप को गढ़ लेता है। सच बात तो ये है कि इस दुनिया के वे सारे मर्द और औरत उन माणिकों और मोतियों की तरह सुंदर हैं जो अपनों से ज्यादा दूसरों के लिए सोचते और त्याग करते हैं। ऐसे ही लोग सच्चे तौर पर पूरी मानवता से प्यार करते हैं। इसलिए सच्चे मन से साई का नमन करो वो तुम्हारी झोली खुशियों से भर देंगे।

हो वंगा चढ़ा ला कुड़ियों
मेरे दाता दे दरबार धियाँ
हो वंगा चढ़ा ला कुड़ियों
मेरे दाता दे दरबार धियाँ

दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ दम गुटकूँ..करे साईं
पढ़े साई ते कलमा नबी दा, पढ़े साई पीर मेरया
ऐ वे मेरे पीर दी जुगनी जी....

एक शाम मेरे नाम पर लोकगीतों की बहार
 

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