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मंगलवार, फ़रवरी 16, 2021

वार्षिक संगीतमाला 2020 : गीत # 9 तारे गिन, तारे गिन सोए बिन, सारे गिन Taare Ginn...

हिंदी फिल्मों में ए आर रहमान का संगीत आजकल साल में इक्का दुक्का फिल्मों में ही सुनाई देता है। रहमान भी मुंबई वालों की इस बेरुखी पर यदा कदा टिप्पणी करते रहे हैं। तमाशा और मोहनजोदड़ो के बाद पिछले पाँच सालों में उनको कोई बड़े बैनर की  फिल्म मिली भी नहीं है। दिल बेचारा पर भी शायद लोगों का इतना ध्यान नहीं जाता अगर सुशांत वाली अनहोनी नहीं हुई होती। फिल्म रिलीज़ होने के पहले रहमान ने सुशांत की याद में एक संगीतमय पेशकश रखी थी जिसमें एलबम के सारे गायक व गायिकाओं ने हिस्सा भी लिया था। रहमान के इस एलबम में उदासी से लेकर उमंग सब तरह के गीतों का समावेश था। इस  फिल्म के दो गीत इस साल की गीतमाला में अपनी जगह बना पाए जिनमें पहला तारे गिन संगीतमाला की  नवीं पायदान पर आसीन है। 


इस गीत की सबसे खास बात इसका मुखड़ा है। कितने प्यारे बोल लिखे हैं अमिताभ भट्टाचार्य ने। इश्क़ का कीड़ा जब लगता है तो मन की हालत क्या हो जाती है वो इन बोलों में बड़ी खूबी से उभर कर आया है। जहाँ तक तारे गिनने की बात है तो एकाकी जीवन में अपने हमसफ़र की जुस्तज़ू करते हुए जिसने भी खुली छत पर तारों की झिलमिल लड़ियों को देखते हुए रात बिताई हो वे इस गीत से ख़ुद को बड़ी आसानी से जोड़ पाएँगे। 

जब से हुआ है अच्छा सा लगता है
दिल हो गया फिर से बच्चा सा लगता है 
इश्क़ रगों में जो बहता रहे जाके 
कानों में चुपके से कहता रहे 
तारे गिन, तारे गिन सोए बिन, सारे गिन 
एक हसीं मज़ा है ये, मज़ा है या सज़ा है ये 

अंतरे में भी अमिताभ एक प्रेम में डूबे हृदय को अपनी लेखनी से टटोलने में सफल हुए हैं।

रोको इसे जितना, महसूस हो ये उतना 
दर्द ज़रा सा है थोड़ा दवा सा है 
इसमें है जो तैरा वो ही तो डूबा है 
धोखा ज़रा सा है थोड़ा वफ़ा सा है 
ये वादा है या इरादा है 
कभी ये ज़्यादा है कभी ये आधा है 
तारे गिन, तारे गिन सोए बिन, सारे गिन 

श्रेया घोषाल और मोहित चौहान पहले भी रहमान के चहेते गायक रहे हैं और इस युगल जोड़ी ने अपनी बेहतरीन गायिकी से रहमान के विश्वास को बनाए रखने की पुरज़ोर कोशिश की है। 

रहमान अपने गीतों में हमेशा कुछ नया करने की कोशिश करते रहते हैं। यहाँ उन्होंने श्रेया की आवाज़ को अलग ट्रैक पर रिकार्ड कर मोहित की आवाज़ पर सुपरइम्पोज़ किया है।  पर रहमान के इस नए प्रयोग की वज़ह से अंतरे में गीत के बोल (खासकर श्रेया वाले) उतनी सफाई से नहीं समझ आते। अंत में रहमान स्केल बदलकर गीत का समापन करते हैं।

मुझे इस गीत का पहले दो मिनटों  का हिस्सा बहुत भाता है और मन करता है कि आगे जाए बिना उसी हिस्से को रिपीट मोड में सुनते रहें। काश रहमान इस गीत की वही सहजता अंतरे में भी बनाए रहते ! गीत का आडियो वर्जन एक मिनट ज्यादा लंबा है और इस वर्जन के के आख़िर में वॉयलिन का एक खूबसूरत टुकड़ा भी है जिसे संजय ललवानी ने बजाया है। तो आइए सुनते हैं इस गीत का वही रूप...


वार्षिक संगीतमाला 2020


बुधवार, जनवरी 23, 2019

वार्षिक संगीतमाला 2018 पायदान # 7 : नीलाद्रि कुमार की अद्भुत संगीत रचना हाफिज़ हाफिज़ Hafiz Hafiz

जैसा कि मैंने आपसे पहले भी कहा था कि संगीतमाला के शुरुआती दर्जन भर गीतों में एक तिहाई गीत ऐसे हैं जो टीवी या रेडियो पर पिछले साल बेहद कम बजे पर मेरे दिल के बेहद करीब रहे। तू ही अहम को तो आपने ग्यारहवीं पायदान पर सुना ही। आज की पायदान पर जो गीत बज रहा है वो भी एक ऐसा ही गीत है जिसे आपने पहले शायद ही सुना हो। फिल्म लैला मजनूँ के इस गीत को आवाज़ दी है मोहित चौहान ने और धुन बनाई है नीलाद्रि कुमार ने। मैं अक्सर गीतों को पहले देखता नहीं सिर्फ सुनता हूँ, पर जैसे जैसे मैंने लैला मजनूँ में नीलाद्रि कुमार के रचे गीतों को सुनना शुरु किया तो पहले इसके गीतों और उसके बाद इस फिल्म को देखने की इच्छा बढ़ती चली गयी। 


आशिकी, तड़प और पागलपन का जो सम्मिलित  चित्र उन्होंने संगीत से एक पेंटिंग सरीखा इस गीत  में उकेरा है, उसका असर शब्दों में व्यक्त कर मैं कम नहीं करना चाहता। जो बात मैंने हाफिज़ हाफिज़ के संगीत में महसूस की वही भावना जब उनके साक्षात्कार में दिखी तो मुझे लगा कि उनकी बात कम से कम मुझ तक पहुँची है।

"हाफिज़ हाफिज़ का संगीत रचना मेरे लिए सबसे कठिन था। फिल्म में गीत से जुड़े निर्देश बार बार बदलते रहे। मुझे इस गीत में कहानी के उस मोड़ की बात करनी थी जब मजनूँ की शख्सियत आशिक से एक पागल में बदल जाती है। ये गीत कहानी को आगे बढ़ाता है। मेरा ऐसा मानना है कि फिल्म के गीत एक धागे के समान हैं जो उसके सिरों को जोड़े रखते हैं। संगीत संयोजन में एक निरंतरता जरूरी है। अगर आप फिल्म ना भी देख रहे हों तो आपको आभास हो जाना चाहिए कि वहाँ क्या चल रहा होगा। संगीत के मायने होने चाहिए। मेरे लिए इसे रचना एक कहानी कहने जैसा है।"
नीलाद्रि कुमार
नीलाद्रि के इस गीत की शुरुआत की सवा मिनट की धुन को दर्जनों बार सुनते हुए मैंने अपनी आँखें गीली की हैं। क्यूँ की हैं मुझे ख़ुद भी पता नहीं! अजीब सी कशिश है उनके जिटार या इलेक्ट्रिक सितार आधारित इस धुन में जिसे सुन मन उदासियों के रंग में रँग जाता है । बाद में जब  वीडियो देखा तो पाया कि गीत का प्रील्यूड वहाँ से शुरु होता है जब फिल्म में मजनूँ को पहला पत्थर लगता है। 

गीत में कश्मीरी दर्शन का पुट भरने के लिए शुरुआत में वहाँ के एक लोकप्रिय गीत की पंक्तियाँ ली गयी हैं 

हुकुस बुकुस तेली वान चेकुस
मोह बतुक लोगम डेग
श्वास खिच खिच वांगमय
भरुामन दारस पोयुन चुक
तेकिस तक्या बाने त्युक

जिनका अर्थ है मैं कौन हूँ, तुम कौन हो और कौन है ये हमें बनानेवाला जो हम दोनों में व्याप्त है? अभी तो मेरा शरीर भौतिक सुखों और मोह माया की खुराक़ से लिप्त है। जिस दिन मैं आंतरिक शुद्धि की उस अवस्था में पहुँचूँगा उस दिन मेरी हर साँस पवित्र होगी, मेरा मन दिव्य प्रेम के सागर में डुबकियाँ लगाएगा और चंदन की सुगंध की तरह मेरा अस्तित्व पूरी सृष्टि में फैल जाएगा।

मोहित चौहान
इरशाद कामिल के लिखे अगले दो अंतरे समाज से लताड़े दुत्कारे मजनूँ के हालात और मानसिक अवस्था का मार्मिक चित्रण करते हैं। दर्द जब एक हद से गुजर जाए तो फिर वो इंसान को कुछ और ही बना देता है इसलिए कामिल लिखते हैं हर दर्द मिटा हर फर्क मिटा मैं और हुआ । जिटारकी सम्मोहक धुन इस गीत के पहले मिनट के आस पास बजती है और फिर साढ़े चार मिनट बाद उसकी वही धुन फिर उभरती है जब मजनूँ का पागलपन अपने चरम पर होता है।

मोहित चौहान भले ही आजकल कम सुनाई देते हों पर इम्तियाज अली की फिल्मों से वो जब वी मेट के ज़माने से ही जुड़े हुए हैं। इस गीत में इश्क़ के जुनून उसके पागलपन को उन्होंने अपनी आवाज़ में उभारने की पुरज़ोर कोशिश की है। मेरी गुजारिश है कि आप इस गीत को पहले सुनें और फिर देखें तभी आप नीलाद्रि कुमार की कही इस बात का मर्म समझ सकते हैं...

"मैं अपनी रचनाओं में किसी खास तरह की आवाज़ पैदा करने का प्रयत्न नहीं करता। मेरे लिए संगीत ऐसा होना चाहिए जो एक दृश्य आँखों के सामने ला दे, बिना कहानी सामने हुए भी उसके अंदर की भावना जाग्रत कर दे। चूँकि मैं एक वादक हूँ मेरे पास बोलों की सहूलियत नहीं होती अपना संदेश श्रोताओं तक पहुँचाने के लिए। शब्दों का ना होना हमारे काम को कठिन बनाता है पर कभी कभी उनकी उपस्थिति एक मनोभाव को धुन के ज़रिए प्रकट करने में मुश्किलें पैदा करती है। ऐसी ही परिस्थितियों में इरशाद कामिल जैसे गीतकार मदद करते हैं।" 

कोई फिक्र नहीं है, कोई गर्ज़ नहीं
बस इश्क़ हुआ है, कोई मर्ज़ नहीं
मुझे फिकर नहीं है, मुझे अकल नहीं
मैं असल में तू हूँ, तेरी नक़ल नहीं
कोई फिक्र नहीं...

जग में जग सा होकर रह तू
(जग में जग सा होकर रह तू)
सुनता रह बस कुछ ना कह तू
(सुनता रह बस कुछ ना कह तू)
बातें पत्थर ताने तोहमत
(बातें पत्थर ताने तोहमत)
हो हमसा होकर हँस के सह तू
(हमसा होकर हँस के सह तू)

शोर उठा घनघोर उठा फिर गौर हुआ
हर दर्द मिटा हर फर्क मिटा मैं और हुआ
कोई बात नई करामात नई कायनात नई
इक आग लगी कुछ खाक हुआ कुछ पाक हुआ

बदल गया भला क्यों जहां तेरा
यहाँ वहाँ घनघोर से घिरा
खतम हुआ अकल का सफर तेरा
सँभल ज़रा सुनसान राज़ का
ज़हर भरा आदमी भटक रहा
भाग कहाँ निकलेगा ये बता
कोई फिक्र नहीं है...


प्यार के पवित्र एहसास में डूबे एक इंसान को एक पागल और वहशी क़रार देना वैसा ही है जैसा क़ुरान याद रखने वाले हाफिज़ को काफिर की पहचान  दे देना। इसी लिए इरशाद कामिल गीत का अंत कुछ यूँ करते हैं..

हाफिज़ हाफिज़ हो गया हाफिज़...
काफ़िर काफ़िर बन गया काफ़िर...

ये गीत मेरे ज़हन में धीरे धीरे चढ़ा और इतना चढ़ा कि प्रथम दस में अपनी जगह बना गया। धीरे धीरे ही सही शायद आप पर भी असर करे..




वार्षिक संगीतमाला 2018  
1. मेरे होना आहिस्ता आहिस्ता 
2जब तक जहां में सुबह शाम है तब तक मेरे नाम तू
3.  ऐ वतन, वतन मेरे, आबाद रहे तू
4.  आज से तेरी, सारी गलियाँ मेरी हो गयी
5.  मनवा रुआँसा, बेकल हवा सा 
6.  तेरा चाव लागा जैसे कोई घाव लागा
7.  नीलाद्रि कुमार की अद्भुत संगीत रचना हाफिज़ हाफिज़ 
8.  एक दिल है, एक जान है 
9 . मुड़ के ना देखो दिलबरो
10. पानियों सा... जब कुमार ने रचा हिंदी का नया व्याकरण !
11 . तू ही अहम, तू ही वहम
12. पहली बार है जी, पहली बार है जी
13. सरफिरी सी बात है तेरी
14. तेरे नाम की कोई धड़क है ना
15. तेरा यार हूँ मैं
16. मैं अपने ही मन का हौसला हूँ..है सोया जहां, पर मैं जगा हूँ 
17. बहुत दुखा रे, बहुत दुखा मन हाथ तोरा जब छूटा
18. खोल दे ना मुझे आजाद कर
19. ओ मेरी लैला लैला ख़्वाब तू है पहला
20. मैनू इश्क़ तेरा लै डूबा  
21. जिया में मोरे पिया समाए 
24. वो हवा हो गए देखते देखते
25.  इतनी सुहानी बना हो ना पुरानी तेरी दास्तां

मंगलवार, जनवरी 28, 2014

वार्षिक संगीतमाला 2013 पायदान संख्या 13 : तेरे मेरे बीच में क्या है .. ( Tere Mere Beech Mein Kya Hai..)

हिंदी फिल्म संगीत में नायक नायिका की आपसी बातचीत को गीतों में ढालने की रिवायत पुरानी रही है। इस कोटि में एक और गीत शामिल हो गया है वार्षिक संगीतमाला की तेरहवीं सीढ़ी पर। इसे लिखा पटकथा लेखक व गीतकार जयदीप साहनी ने, धुन बनाई सचिन ज़िगर ने और अपनी बेहतरीन आवाज़ से इसमें जान फूँकी मोहित चौहान और सुनिधि चौहान ने। झीनी रे झीनी के बारे में बात करते हुए मैंने आपको बताया था कि संगीतकार सचिन ज़िगर के लिए ये साल बेहतरीन रहा है। शुद्ध देशी रोमांस की पटकथा और चरित्र चित्रण भले ही मुझे पसंद ना आया हो पर इस फिल्म का संगीत दिल के करीब रहा।

अब इसी गीत के आरंभिक संगीत पर गौर करें।  रिक्शे के हार्न, नुक्कड़ में खेलते बच्चों की आवाज़ों के साथ गिटार और ट्रामबोन्स का मेल आपको एक बार में ही गीत के मस्ती भरे मूड में ले आता है। नायक और नायिका की नोंक झोंक को जयदीप अपने शब्दों में बड़ें प्यार अंदाज़ में विकसित करते हैं। गीत में इस्तेमाल किए गए उनके कुछ रूपक 'चद्दर खद्दर की,अरमान हैं रेशम के...'  या 'अरमान खुले हैं , जिद्दी बुलबुलें हैं ..' मन को सोहते हैं।

ये नोंक झोंक सजीव लगे इसके लिए जरूरी था कि मोहित और सुनिधि की गायिकी का गठजोड़ शानदार हो और गीत सुनने के बाद आप तुरंत इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि इन दोनों ने इस गीत की अदाएगी में कोई कसर नहीं छोड़ी है। सचिन जिगर का मिली मिली है ,ज़रा खिली खिली है के बाद एकार्डियन, गिटार और ट्रामबोन्स का सम्मिलित संगीत संयोजन आप को थिरकने पर मजबूर कर देता है।

तो आइए थोड़ा झूमते हैं सचिन जिगर की इस बेहतरीन संगीत रचना के साथ..


ऐ सुन, सुन ले ना सुन मेरा कहना तू
हो गफ़लत में ..गफ़लत में ना रहना तू
हम्म जो दिन तेरे दिल के होंगे, तो होगी मेरी रैना..
तू अभी भी सोच समझ ले , कि फिर ये ना कहना
कि तेरे मेरे बीच में क्या है
ये तेरे मेरे बीच में क्या है
हम्म चद्दर..
हो चद्दर खद्दर की,अरमान हैं रेशम के
हो चद्दर खद्दर की,अरमान हैं रेशम के
मिली मिली है ,ज़रा खिली खिली है
फाइनली चली है मेरी लव लाइफ
मिली मिली है ,ज़रा खिली खिली है
literally silly है मेरी लव लाइफ

हो तेरे तेरे मेरे मेरे
तेरे मेरे तेरे  बीच में
ये तेरे मेरे बीच में
तेरे तेरे ..तेरे मेरे तेरे बीच में
तेरे मेरे बीच में, कभी जो राज़ हो कोई
धूप में छिपी-छिपी, कहीं जो रात हो कोई

हो तेरे मेरे बीच में, कभी जो बात हो कोई
जीत में छिपी-छिपी, कहीं पे मात हो कोई
पूछूँगा हौले से, हौले से ही जानूँगा
जानूँगा मैं हौले से, तेरा हर अरमान
अहां… अरमान खुले हैं , जिद्दी बुलबुलें हैं
अरमान खुले हैं, जिद्दी बुलबुलें हैं
मिली मिली है ,ज़रा खिली खिली है ..लव लाइफ
हे सुन ....

जो नींद तूने छीन ली तो, तो मैं भी लूँगा चैना
तू अभी भी सोच समझ ले , तो फिर ये ना कहना
कि तेरे मेरे बीच में क्या है ...क्या है ?
तुम्हें पता तो है क्या है
कि तेरे मेरे बीच में क्या है
बातें...लम्बी बातें हैं छोटी सी रातें हैं
लम्बी लम्बी बातें हैं, छोटी सी रातें हैं
मिली मिली है ...


वैसे ज़रा बताइए तो आपको आपसी गपशप में बढ़ते ऐसे कौन से गीत सबसे ज्यादा गुदगुदाते हैं?

गुरुवार, अगस्त 01, 2013

कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफ़े : क्या आप 'शर्मा जी' जैसा बनना नहीं चाहेंगे?

पिछले हफ्ते टीवी पर तनु वेड्स मनु दोबारा देखी। फिल्म तो ख़ैर दोबारा देखने पर भी उतनी ही मजेदार लगी जितनी पहली बार लगी थी पर 'शर्मा जी (माधवन)' का चरित्र इस बार दिल में कुछ और गहरे बैठ गया। कितनी दुत्कार, कितनी झिड़कियाँ सहते रहे पर हिम्मत नहीं हारी उन्होंने।  कोशिश करते रहे, नाकामयाबी हाथ लगी तो उसे ही समय का तकाज़ा मान कर ना केवल स्वीकार कर लिया पर अपने रकीब की सहायता करने को भी तैयार हो गए। मन के अंदर हाहाकार मचता रहा पर प्रकट रूप में अपने आप को विचलित ना होने दिया। पर शर्मा जी एकदम से दूध के धुले भी नहीं हैं वक़्त आया तो कलम देने से कन्नी काट गए।  आखिर शर्मा जी इंसान ही थे, धर्मराज युधिष्ठिर तक अश्वथामा का इतिहास भूगोल बताए बगैर उसे दुनिया जहान से टपका गए थे। अब इतना तो बनता है ना 'इसक' में ।


दिक्कत यही है कि आज कल की ज़िदगी में 'शर्मा जी' जैसे चरित्र मिलते कहाँ हैं? आज की पीढ़ी प्यार में या परीक्षा में नकारे जाने को खुशी खुशी स्वीकार करने को तैयार दिखती ही नहीं है। अब आज के अख़बार की सुर्खियाँ देखिए। प्रेम में निराशा क्या हाथ लगी  चल दिए हाथ में कुल्हाड़ी लेकर वो भी जे एन यू जैसे भद्र कॉलेज में। इंतज़ाम भी तिहरा था। कुल्हाड़ी से काम ना बना तो पिस्तौल और छुरी तो है ही।

आजकल हो क्या रहा है इस समाज को? जब मर्जी आई एसिड फेका, वो भी नहीं तो अगवा कर लिया। क्या इसे प्रेम कहेंगे ? इस समाज को जरूरत है शर्मा जी जैसी सोच की। उनके जैसे संस्कार की। नहीं तो वक़्त दूर नहीं जब प्रेम कोमल भावनाओं का प्रतीक ना रह कर घिन्न और वहशत का पर्यायी बन जाएगा।

दरअसल 'शर्मा जी' का जिक्र छेड़ने के पीछे  मेरा एक और प्रयोजन था। आपको तनु वेड्स मनु के उस खूबसूरत गीत को सुनवाने का जिसे मेरे पसंदीदा गीतकार राजशेखर ने लिखा था। लिखा क्या था 'शर्मा जी' के दिल के मनोभावों को हू बहू काग़ज़ पर उतार दिया था।

संगीतकार कृष्णा जिन्हें 'क्रस्ना' के नाम से भी जाना जाता है और राजशेखर की जोड़ी के बारे में तो आपको यहाँ बता ही चुका हूँ। सनद रहे कि ये वही राजशेखर हैं जो आजकल फिल्म 'इसक' में ऐनिया ओनिया रहे हैं यानि सब एन्ने ओन्ने कर रहे हैं। 

गीत में क्रस्ना बाँसुरी का इंटरल्यूड्स में बेहतरीन इस्तेमाल करते हैं। मोहित चौहान रूमानी गीतों को निभाने में वैसे ही माहिर माने जाते हैं पर यहाँ तो एकतरफा प्रेम के दर्द को भी वो बड़े सलीके से अपनी आवाज़ में उतार लेते हैं। 


कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफ़े
वैसे तो तेरी ना में भी मैंने ढूँढ़ ली अपनी ख़ुशी
तू जो गर हाँ कहे तो बात होगी और ही
दिल ही रखने को कभी, ऊपर-ऊपर से सही, कह दे ना हाँ
कह दे ना हाँ, यूँ ही
कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफ़े

कितने दफ़े हैराँ हुआ मैं ये सोचके
उठती हैं इबादत की ख़ुशबुएँ क्यूँ मेरे इश्क़ से
जैसे ही मेरे होंठ ये छू लेते हैं तेरे नाम को
लगे कि सजदा किया कहके तुझे शबद के बोल दो
ये ख़ुदाई छोड़ के फिर आजा तू ज़मीं पे
और जा ना कहीं, तू साथ रह जा मेरे
कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफ़े

कितने दफ़े मुझको लगा, तेरे साथ उड़ते हुए
आसमानी दुकानों से ढूँढ़ के पिघला दूँ मैं चाँद ये
तुम्हारे इन कानों में पहना भी दूँ बूँदे बना
फिर ये मैं सोच लूँ समझेगी तू, जो मैं न कह सका
पर डरता हूँ अभी, न ये तू पूछे कहीं, क्यूँ लाए हो ये
क्यूँ लाए हो ये, यूँ ही
कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफ़े

वैसे भी ये गीत उन सबको अच्छा लगेगा जिनमें शर्मा जी के चरित्र का अक़्स है। मुझमें तो है और आपमें?

मंगलवार, जनवरी 08, 2013

वार्षिक संगीतमाला 2012 पॉयदान # 21 : आला आला मतवाला बर्फी !

वार्षिक संगीतमाला की पिछली तीन सीढ़ियों को चढ़कर हम आ पहुँचे हैं बाइसवीं पॉयदान पर जहाँ पर इस साल की सफलतम फिल्मों से एक फिल्म 'बर्फी' का गीत है। वैसे जिन्होंने बर्फी फिल्म के सारे गीत सुने हैं उन्हें ये अनुमान लगाने में कोई कठिनाई नहीं होगी कि इस संगीतमाला में बर्फी के गीत कई बार बजेंगे।  आज जिस गीत की चर्चा हो रही है वो है बर्फी का शीर्षक गीत। वैसे तो इस गीत के दो वर्सन हैं एक खुद गीतकार स्वानंद किरकिरे का गाया हुआ और दूसरा मोहित चौहान की आवाज़ में।



स्वानंद को इस गीत के ज़रिये फिल्म की शुरुआत में ही बर्फी का चरित्र बयाँ कर देना था। हम अक्सर किसी गूँगे बहरे के बारे में सोचते हैं तो मन में दया की भावना उपजती है। पर इस फिल्म में इस तरह के चरित्र को इतने खुशनुमा तरीके से दिखाया गया है कि अब किसी मूक बधिर की बात होने पर अपने ज़ेहन में हमें बर्फी का हँसता मुस्कुराता ज़िदादिल चेहरा उभरेगा ना कि करुणा के कोई भाव।

पिछली पोस्ट में संगीतकार स्नेहा खानवलकर की एक बात मैंने उद्धृत की थी कि  अगर निर्देशक एक फिल्म में कहानी के परिवेश और चरित्र को अपनी सूझबूझ से गढ़ सकता है तो मैं भी अपने संगीत के साथ वही करने का प्रयास करती हूँ। और यही बात इस गीत में बर्फी का चरित्र गढ़ते स्वानंद बखूबी करते दिखाई पड़ते हैं। मुखड़े में बर्फी से हमारा परिचय वो कुछ यूँ कराते हैं..

आँखों ही आँखो करे बातें
गुपचुप गुपचुप गुपचुप गुप
खुस फुस खुस फुस खुस
आँखों ही आँखों में करे बातें
गुपचुप गुपचुप गुपचुप गुप
खुस फुस खुस फुस खुस
ओ ओ ये..
ख़्वाबों की नदी में खाए गोते
गुड गुड गुड गुड गुड गुड होए
बुड बुड बुड बुड बुड बुड.
आला आला मतवाला बर्फी
पाँव पड़ा मोटा छाला बर्फी
रातों का है यह उजाला बर्फी
गुमसुम गुमसुम ही मचाये यह तो उत्पात
खुर खुर खुर खुर ख़ुराफ़ातें करे नॉन-स्टॉप

आपको इससे पता चल जाता है कि जिस शख़्स की बात हो रही है भले ही वो बोल सुन नहीं सकता पर है बला का शरारती। पर ये तो बर्फी की शख़्सियत का मात्र एक पहलू है। गीत के दूसरे अंतरे में स्वानंद हमें बर्फी के चरित्र के दूसरे पहलुओं से रूबरू कराते हैं। धनात्मक उर्जा से भरपूर बर्फी दूसरों के दुखों के प्रति संवेदनशील है। आत्मविश्वास से भरा वो किसी से भी खुद को कमतर नहीं मानता। उसके लिए ज़िंदगी एक नग्मा है जिसे वो अपनी धड़कनों की तान के साथ गुनगुनाता चाहता है। पर जहाँ बर्फी मासूम है वहीं इतना नासमझ भी नहीं कि इस टेढ़ी दुनिया की चालें ना समझ सके।

कभी न रुकता रे, कभी न थमता रे
ग़म जो दिखा उसे खुशियों की ठोकर मारे
पलकों की हरमुनिया, नैनो की गा रे सारे
धड़कन की रिदम पे ये गाता जाए गाने प्यारे
भोला न समझो यह चालू खिलाडी है बड़ा बड़ा हे.. हे
सूरज ये बुझा देगा, मारेगा फूँक ऐसी
टॉप तलैया, पीपल छैय्या
हर कूचे की ऐसी तैसी हे..

स्वानंद ने गीत के मूड को हल्का फुल्का बनाए रखने के लिए खुस फुस ,खुर खुर, गुड गुड, बुड बुड जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है। हँसी हँसी में वो मरफी मुन्ने की कहानी कहते हुए उसके जीवन की त्रासदी भी बयाँ कर देते हैं।

बर्फी जब अम्मा जी की कोख में था सोया
अम्माँ ने मर्फी का रेडियो मँगाया
मर्फी मुन्ना जैसा लल्ला अम्मा का था सपना
मुन्ना जब हौले-हौले दुनिया में आया
बाबा ने चेलों वाला स्टेशन
रेडियो आन हुआ अम्मा ऑफ हुई
टूटा हर सपना...
ओह ओ ये..
मुन्ना म्यूट ही आंसू बहाए ओ..
ओ ओ ये मुन्ना झुनझुना सुन भी न पाए
झुन झुन झुन झुन....

कहना ना होगा कि प्रीतम द्वारा संगीबद्ध और मोहित द्वारा गाए इस गीत के असली हीरो स्वानंद हैं । जब जब ये गीत हमारे कानों से गुजरेगा बर्फी के व्यक्तित्व के अलग अलग बिंब हमारी आँखों के सामने होंगे। तो आइए सुनें ये हँसता मुस्कुराता गीत...


बुधवार, जनवरी 02, 2013

वार्षिक संगीतमाला 2012 पॉयदान # 25 : दिल ये बेक़रार क्यूँ है ?

नए साल का स्वागत तो आपने इन झूमने झुमाने वाले गीतों से कर लिया होगा। तो मेहरबान और कद्रदान, वर्ष 2012 की वार्षिक संगीतमाला को लेकर आपका ये संगीत मित्र उपस्थित है। वर्ष 2005 से आरंभ होने वाली ये संगीतमाला अपने आठवें साल में है। हर साल ये मौका होता है साल भर में रिलीज हुई फिल्मों में से कुछ सुने अनसुने मोतियों को छाँट कर उनसे जुड़े कलाकारों को आपसे रूबरू कराने का। एक साल में लगभग सौ के करीब फिल्में के करीब पाँच सौ गानों में पच्चीस बेहतरीन गीतों को चुनना और उन्हें अपनी पसंद के क्रम में क्रमबद्ध करना मेरे लिए साल के अंत में एक बड़ी चुनौती बन जाता है। दिसंबर के सारे रविवार और छुट्टियाँ इसी क़वायद में चली जाती हैं पर इसी बहाने जो नया चुनने और गुनने को मिलता है उसे आपके सम्मुख लाने की खुशी इस मेहनत को सार्थक कर देती है।


तो चलिए आरंभ करते हैं ये सिलसिला। वार्षिक संगीतमाला 2012 की 25 वीं पॉयदान पर  गीत है फिल्म Players का जो पिछले साल जनवरी महिने में रिलीज हुई थी। इस गीत को गाया था मोहित चौहान और श्रेया घोषाल ने। अब जहाँ मोहित और श्रेया एक साथ हों गीत का मूड तो रोमानियत से भरा होगा ना। वैसे भी संगीतकार प्रीतम अपने गीतों में मेलोडी का खासा ध्यान रखते हैं और इसीलिए उनके गीत जल्द ही श्रोताओं की गुनगुनाहट में शामिल हो जाते हैं।

इस गीत को लिखा है देहदादून से ताल्लुक रखने वाले आशीष पंडित ने। भातखंडे संगीत विश्व विद्यालय से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेने वाले आशीष ने कुछ दिनों अविकल नाम के थियेटर में काम किया। दस साल पहले यानि 2003 में मुंबई आए। शुरुआती जद्दोहत के बाद वो संगीतकार प्रीतम के सानिध्य में आए। गायक, नाटककार से गीतकार बनाने का श्रेय आशीष प्रीतम को ही देते हैं। वैसे तो आशीष को प्रीतम का फिल्मों में इक्का दुक्का गीत मिलते रहे हैं पर फिल्म अजब प्रेम की गजब कहानी के गीत तेरा होने लगा हूँ ने उन्हें फिल्म जगत में पहचान दिलाने में बहुत मदद की।

प्लेयर्स फिल्म के इस गीत में भी आशीष ने वही सवाल पूछे हैं जो आशिकों के मन में जन्म जन्मांतर से आते रहे हैं। कुछ पंक्तियाँ मुलाहिजा फरमाइए

क्यूँ रातों को मैं अब चैन से सो ना सकूँ
क्यूँ आता नहीं मुझे दिन में भी चैन ओ सुकूँ
क्यूँ ऐसा होता है मैं ख़ुद से ही बातें करूँ

दिल ये बेक़रार क्यूँ है
इसपे धुन सवार क्यूँ है
क्यूँ है ये ख़ुमार क्यूँ है तू बता
तेरा इंतज़ार क्यूँ है
क्यूँ है ये ख़ुमार क्यूँ है तू बता

प्रीतम गीत का टेम्पो धीरे धीरे बढ़ाते हैं और दिल ये बेकरार क्यूँ है आते आते श्रोता गीत की लय में पूरी तरह आ चुका होता है । और हाँ गीत में करीब ढाई मिनट बाद आने वाला गिटार का इंटरल्यूड भी बेहद कर्णप्रिय बन पड़ा है।

तो आइए सुनते हैं ये नग्मा...

सोमवार, फ़रवरी 27, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 रनर अप : कुन फाया कुन जब कहीं पे कुछ नहीं, भी नहीं था, वही था, वही था !

वक़्त आ गया वार्षिक संगीतमाला 2011 के रनर अप गीत के नाम की घोषणा करने का। एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला का ये खिताब जीता है फिल्म रॉकस्टार की कव्वाली 'कुन फाया कुन' ने। यूँ तो ख़ालिस कव्वालियों का दौर तो रहा नहीं पर ए आर रहमान ने अपनी फिल्मों में बड़ी सूझबूझ और हुनर से इनका प्रयोग किया है। इससे पहले फिल्म जोधा अक़बर में उनकी कव्वाली ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा बेहद लोकप्रिय हुई थी। यूँ तो रॉकस्टार के अधिकतर गीत लोकप्रिय हुए हैं पर कुछ गीतों में रहमान का संगीत इरशाद क़ामिल के बेहतरीन बोलों को उस खूबसूरती से उभार नहीं पाया जिसकी रहमान से अपेक्षा रहती है। पर जहाँ तक फिल्म रॉकस्टार की इस कव्वाली की बात है तो यहाँ गायिकी, संगीत और बोल तीनों बेहतरीन है और इसीलिए इस गीत को मैंने इस पॉयदान के लिए चुना।

अगर संगीत की बात करें तो जिस खूबसूरती से मुखड़े या अंतरों में हारमोनियम का प्रयोग हुआ है वो वाकई लाजवाब है। कव्वाली की चिरपरिचित रिदम में बड़ी खूबसूरती से गिटार का समावेश होता है जब मोहित सजरा सवेरा मेरे तन बरसे गाते हैं। रहमान ने इस गीत के लिए अपना साथ देने के लिए जावेद अली को चुना, मोहित तो रनबीर कपूर की आवाज़ के रूप में तो पहले से ही स्वाभाविक चुनाव थे। इन तीनों ने मिलकर जो भक्ति का रस घोला है उसे मेरे लिए शब्दो में बाँधना मुश्किल है। बस इतना कहूँगा कि ये कव्वाली जब भी सुनता हूँ तो रुहानी सुकून सा मिलता महसूस होता है।

इरशाद क़ामिल के बोलों की बात करने से पहले कुछ बातें कव्वाली की पंच लाइन 'कुन फाया कुन' के बारे में। अरबी से लिया हुए  इस जुमले का क़ुरान में कई बार उल्लेख है। मिसाल के तौर पर क़ुरान के द्वितीय अध्याय के सतरहवें छंद में इसका उल्लेख कुछ यूँ है "... and when He decrees a matter to be, He only says to it ' Be' and it is." यानि एक बार परवरदिगार ने सोच लिया कि ऐसा होना चाहिए तो उसी क्षण बिना किसी विलंब के वो चीज हो जाया करती है।

अब थोड़ा इरशाद साहब के शब्दों के चमत्कार को भी देखिए। मुखड़े में एक कितने प्यारे शब्दों में वो ख़ुदा को अपने चाहनेवाले के घर में आकर दिल के शून्य को भरने की बात करते हैं। चाहे अंतरे में भगवन को शाश्वत सत्य मानने की बात हो, या अल्लाह के रूप में रंगरेज़ की कल्पना इरशाद के बोल दिल में समा जाते हैं

या निजाममुद्दीन औलिया, या निजाममुद्दीन सरकार
कदम बढ़ा ले, हदों को मिटा ले
आजा खालीपन में, पी का घर तेरा,
तेरे बिन खाली, आजा खालीपन में..तेरे बिन खाली, आजा खालीपन में
रंगरेज़ा रंगरेज़ा रंगरेज़ा हो रंगरेज़ा….

कुन फाया कुन, कुन फाया, कुन फाया कुन,
फाया कुन, फाया कुन ,फाया कुन,
जब कहीं पे कुछ नहीं, भी नहीं था,
वही था, वही था, वही था, वही था
वो जो मुझ में समाया, वो जो तुझ में समाया
मौला वही वही माया
कुन फाया कुन, कुन फाया, कुन
सदाकउल्लाह अल्लीउल अज़ीम

रंगरेज़ा रंग मेरा तन मेरा मन
ले ले रंगाई चाहे तन चाहे मन

अब गीत के इस टुकड़े को लें

सजरा सवेरा मेरे तन बरसे
कजरा अँधेरा तेरी जान की लौ
क़तरा मिले तो तेरे दर पर से
ओ मौला….मौला…मौला….


इरशाद यहाँ कहना चाहते हैं वैसे तो तुम्हारे दिए हुए शरीर  के कृत्यों से मैं कालिमा फैला रहा था पर तुम्हारे आशीर्वाद के एक क़तरे से मेरी ज़िदगी की सुबह आशा की नई ज्योत से झिलमिला उठी है। अगले अंतरे में इरशाद पैगंबर से अपनी आत्मा को शरीर से अलग करने का आग्रह करते हैं ताकि उन्हे अल्लाह के आईने में अपना सही मुकाम दिख जाए। कव्वाली के अंत तक गायिकी और इन गहरे बोलों का असर ये होता है कि आप अपनी अभी की अवस्था भूल कर बस इस गीत के होकर रह जाते हैं।

कुन फाया कुन, कुन फाया कुन,
कुन फाया कुन, कुन फाया कुन
कुन फाया कुन, कुन फाया, कुन फाया कुन,
फाया कुन, फाया कुन ,फाया कुन,
जब........वही था

सदकल्लाह अल्लीउम अज़ीम
सदक रसुलहम नबी युनकरीम
सलल्लाहु अलाही वसललम, सलल्लाहु अलाही वसललम,

ओ मुझपे करम सरकार तेरा,
अरज तुझे, करदे मुझे, मुझसे ही रिहा,
अब मुझको भी हो, दीदार मेरा
कर दे मुझे मुझसे ही रिहा, मुझसे ही रिहा…
मन के, मेरे ये भरम, कच्चे  मेरे ये करम
ले के चले है कहाँ, मैं तो जानू ही ना,

तू ही मुझ में समाया, कहाँ लेके मुझे आया,
मैं हूँ तुझ में समाया, तेरे पीछे चला आया,
तेरा ही मैं एक साया, तूने मुझको बनाया
मैं तो जग को ना भाया, तूने गले से लगाया
हक़ तू ही है ख़ुदाया, सच तू ही है ख़ुदाया

कुन फाया, कुन..कुन फाया, कुन
फाया कुन, फाया कुन, फाया कुन, ,फाया कुन,
जब कहीं.....

सदकउल्लाह अल्लीउल अज़ीम
सदकरसूलहम नबी उलकरीम
सलल्लाहु अलाही वसल्लम, सलल्लाहु अलाही वसललम,
वैसे अगर इरशाद क़ामिल के बारे में आपकी कुछ और जिज्ञासाएँ तो एक बेहतरीन लिंक ये रही

निर्देशक इम्तियाज़ अली ने इस कव्वाली को फिल्माया है दिल्ली में स्थित हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में


तो ये था साल का रनर अप गीत? पर हुजूर वार्षिक संगीतमाला का सरताजी बिगुल अभी बजना बाकी है। अगली पोस्ट में बातें होगीं मेरे साल के सबसे दिलअज़ीज गीत और उन्हें रचने वालों के बारे में। तब तक कीजिए इंतज़ार.

शुक्रवार, जनवरी 20, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 - पॉयदान संख्या 15 : क्या आपको भी अपने दिल पे शक़ है ?

पिछले साल एक फिल्म आई थी इश्क़िया जिसका गीत दिल तो बच्चा है जी.. वार्षिक संगीतमाला का सरताज गीत बना था। निर्देशक मधुर भंडारकर को गीत का मुखड़ा इतना पसंद आया कि उन्होंने इसी नाम से एक फिल्म बना डाली। फिल्म तो मुझे ठीक ठाक लगी, पर खास लगा इसका एक प्यारा सा नग्मा जिसे लिखा है गीतकार नीलेश मिश्रा ने।

ओ हो! लगता है मैं गलत कह गया भई नीलेश को सिर्फ गीतकार कैसे कहा जा सकता है। अव्वल तो वे एक पत्रकार थे वैसे अभी भी वे शौक़िया पत्रकारिता कर रहे हैं (आजकल यूपी चुनाव कवर कर रहे हैं)। नीलेश एक लेखक, कवि और एक ब्लॉगर भी हैं। हाल ही में राहुल पंडिता के साथ मिलकर उन्होंने एक किताब लिखी जिसका नाम था The Absent State। इस किताब में उन्होंने देश में फैले माओवाद की वज़हों को ढूँढने का प्रयास किया है। 

नीलेश एक रेडिओ कलाकार व कहानीकार भी हैं। आप में से जो एफ एम रेडिओ सुनते हों वे बिग एफ़ एम पर उनके कार्यक्रम 'याद शहर' से जरूर परिचित होंगे जिसमें वो अपनी लिखी कहानियाँ गीतों के साथ सुनवाते थे। ठहरिए भाई लिस्ट पूरी नहीं हुई नीलेश एक बैंड लीडर भी हैं। उनके बैंड का नाम है A Band Called Nine। इस अनोखे बैंड में वो स्टेज पर जाकर कहानियाँ पढ़ते हैं और फिर उनके बाकी साथी गीत गाते हैं। तो चकरा गए ना आप  इस बहुमुखी प्रतिभा के बारे में जानकर..

बड़ी मज़ेदार बात है कि नीलेश मिश्रा के गीतकार बनने में परोक्ष रूप से स्वर्गीय जगजीत सिंह का हाथ था। लखनऊ,रीवा और फिर नैनीताल में अपनी आरंभिक शिक्षा पूरी करने वाले नीलेश कॉलेज के ज़माने से कविताएँ लिखते थे। जैसा कि उनकी उम्र का तकाज़ा था ज्यादातर इन कविताओं की प्रेरणा स्रोत उनकी सहपाठिनें होती। जगजीत सिंह के वे जबरदस्त प्रशंसक थे। सो एक बार उन्होंने उनको अपनी रचना जगजीत जी को गाने के लिए भेजी पर उधर से कोई जवाब नहीं आया। पर उनके दिल में गीत लिखने का ख्वाब जन्म ले चुका था। बाद में मुंबई में अपनी किताब के शोध के सिलसिले में वो महेश भट्ट से मिले। इस मुलाकात का नतीज़ा ये रहा कि नीलेश को भट्ट साहब ने फिल्म जिस्म के गीत लिखने को दिए। इस फिल्म के लिए नीलेश के लिखे गीत जादू है नशा है... ने सफलता के नए आयाम चूमें।

वार्षिक संगीतमालाओं में नीलेश के लिखे गीत बजते रहे हैं । फिल्म रोग का नग्मा मैंने दिल से कहा ढूँढ लाना खुशी और गैंगस्टर का गीत लमहा लमहा दूरी यूँ पिघलती है उनके लिखे मेरे सर्वप्रिय गीतों में से एक है।
वार्षिक संगीतमाला की पॉयदान पन्द्रह का गीत प्रेम में पड़े दिल की कहानी कहता है। नीलेश की धारणा रही है कि असली रोमांस छोटे शहरों में पनपता है। अपने कॉलेज की यादों में  तैरते इन लमहों को अक्सर वे अपने गीतों में ढाला करते हैं। इस गीत में भी उनका अंदाज़ दिल को जगह जगह छूता है। नीरज का दिल के लिए ये कहना....

कोई राज़ कमबख्त है छुपाये
खुदा ही जाने कि क्या है
है दिल पे शक मेरा
इसे प्यार हो गया

.....मन जीत लेता है। मुखड़े के बाद अंतरों में भी नीलेश कमज़ोर नहीं पड़े हैं। गीत के शब्द ऐसे हैं कि इस नग्में को गुनगुनाते हुए मन हल्का हो जाता है। संगीतकार प्रीतम की गिटार में महारत सर्वविदित है। इस गीत के मुखड़े में उन्होंने गिटार के साथ कोरस का बेहतरीन इस्तेमाल किया है। प्रीतम ने इस गीत को गवाया हैं युवाओं के चहेते गायक मोहित चौहान जिनकी आवाज़ इस तरह के गीतों में खूब फबती है। तो आइए सुनते हैं इस गीत को..


अभी कुछ दिनों से लग रहा है
बदले-बदले से हम हैं
हम बैठे-बैठे दिन में सपने
देखते नींदें कम हैं

अभी कुछ दिनों से सुना है दिल का
रौब ही कुछ नया है
कोई राज़ कमबख्त है छुपाये
खुदा ही जाने कि क्या है
है दिल पे शक मेरा
इसे प्यार हो गया...

अभी कुछ दिनों से मैं सोचता हूँ
कि दिल की थोड़ी सी सुन लूँ
यहाँ रहने आएगी
दिल सजा लूँ मैं
ख्वाब थोड़े से बुन लूँ
है दिल पे...

तू बेख़बर, या सब ख़बर
इक दिन ज़रा मेरे मासूम दिल पे गौर कर
पर्दों में मैं, रख लूँ तुझे
के दिल तेरा आ ना जाए कहीं ये गैर पर
हम भोले हैं, शर्मीले हैं
हम हैं ज़रा सीधे मासूम इतनी ख़ैर कर
जिस दिन कभी जिद पे अड़े
हम आएँगे आग का तेरा दरिया तैर कर

अभी कुछ दिनों से लगे मेरा दिल
धुत हो जैसे नशे में
क्यूँ लड़खड़ाए ये बहके गाए
है तेरे हर रास्ते में
है दिल पे...

बन के शहर चल रात भर
तू और मैं तो मुसाफ़िर भटकते हम फिरे
चल रास्ते जहाँ ले चले
सपनों के फिर तेरी आहों में थक के हम गिरे
कोई प्यार की, तरकीब हो
नुस्खे कोई जो सिखाये तो हम भी सीख लें
ये प्यार है, रहता कहाँ
कोई हमसे कहे उससे जा के पूछ लें

मैं सम्भालूँ पाँव फिसल न जाऊँ
नयी-नयी दोस्ती है
ज़रा देखभाल सँभल के चलना
कह रही ज़िन्दगी है
है दिल पे... लूँ


शनिवार, जनवरी 29, 2011

वार्षिक संगीतमाला 2010 पॉयदान संख्या 18:जब इरशाद क़ामिल, प्रीतम और मोहित ने रचा एक बेहद रोमांटिक नग्मा..

दूर से आता आलाप. गिटार की धुन में घुलता सा हुआ और उसमें से निकलती मोहित चौहान की रूमानियत में डूबी आवाज़ ! वार्षिक संगीतमाला की अठारहवीं पॉयदान के मुखड़े को इसी तरह परिभाषित किया जा सकता है। अब अगर मैं ये कहूँ कि इस गीत को मुझे आपको सुनाना नहीं बल्कि इस मीठे से नग्मे की चाशनी आपको पिलानी हो तो क्या आप इस गीत को नहीं पहचान जाएँगे? जी हाँ वार्षिक संगीतमाला 2010 की 18 वीं सीढ़ी पर बैठा है फिल्म Once Upon A Time In Mumbai का गीत। 19 वीं पॉयदान की तरह ही इस पॉयदान पर भी संगीतकार प्रीतम और गीतकार इरशाद क़ामिल की जोड़ी काबिज़ है।

इरशाद क़ामिल और प्रीतम ने इस गीत में मिल कर दिखा दिया है कि जब अर्थपूर्ण भावनात्मक शब्दों को कर्णप्रिय धुनों का सहारा मिल जाए तो गीत में चार चाँद लग जाते हैं। गीत के मुखड़े में इरशाद कहते हैं..

पी लूँ , तेरे नीले नीले नैनों से शबनम
पी लूँ , तेरे गीले गीले होठों की सरगम

तो मन मनचला बन ही जाता है ...गीत के रस को और पीने के लिए

मुखड़े के बाद के कोरस का सूफ़ियाना अंदाज भी दिल को भाता है।

तेरे संग इश्क़ तारी है
तेरे संग इक खुमारी है
तेरे संग चैन भी मुझको
तेरे संग बेक़रारी है

दरअसल एक प्रेमी की मानसिक अवस्था को गीत की ये पंक्तियाँ बखूबी उकेरती हैं।

पिछले साल दिए अपने एक साक्षात्कार में इरशाद क़ामिल ने कहा था कि आजकल के तमाम गीतों के मुखड़े तो ध्यान खींचते हैं पर अंतरों में जान नहीं हो पाने के कारण वो सुनने वालों के दिलों तक नहीं पहुँच पाते। होना ये चाहिए कि जो भावना या विचार मुखड़े के ज़रिए श्रोताओं तक पहुँचा है उस भाव का विस्तार अंतरे में देखने को मिले।

इरशाद क़ामिल ने इस गीत में भी यही करना चाहा है। इरशाद, प्रेमिका के आंलिगन को एक बहती नदी के सागर में मिल जाने के प्राकृतिक रूपक में ढालते हैं वहीं दूसरे अंतरे में श्रोताओं को प्रेम की पराकाष्ठा पर ले जाते हुए कहते हैं

पी लूँ तेरी धीमी धीमी लहरों की छमछम
पी लूँ तेरी सौंधी सौंधी साँसों को हरदम ...

प्रीतम के इंटरल्यूड्स गीत के असर को और प्रगाढ़ करने में सफल रहे हैं और मोहित की आवाज़ तो ऍसे गीतों के साथ हमेशा से खूब फबती रही है। तो आइए आँखें बंद करें और मन को गीत के साथ भटकने दें। शायद भटकते भटकते आप अपने उन तक पहुँच जाएँ...



ये गीत आप यहाँ भी सुन सकते हैं

सोमवार, जनवरी 17, 2011

वार्षिक संगीतमाला 2010 - पॉयदान संख्या 21 : मन लफंगा बड़ा, अपने मन की करे...

वार्षिक संगीतमाला की इक्कीसवीं पॉयदान पर एक ऐसा गीत है जिसके संगीतकार पहली बार 'एक शाम मेरे नाम' की किसी संगीतमाला में दाखिल हो रहे हैं। दाखिल होते भी कैसे? इसके पहले उन्होंने 1997 में एक हिंदी फिल्म 'जोर' का संगीत निर्देशन किया था। हिन्दी फिल्म संगीत से इनका वनवास, भगवान राम के वनवास से एक साल कम यानि तेरह सालों का रहा। पर इन वर्षों में ये बिल्कुल संगीत से दूर रहे हों ऐसा भी नहीं है। इन तेरह सालों में ये कई विज्ञापनों गीतों के लिए संगीत रचते रहे। बचपन से ही वीणा बजाने में रुचि रखने वाले और इंजीनियरिंग में पढ़ते वक़्त गिटार बजाने में महारत हासिल करने वाले ये संगीतकार हैं आर आनंद

प्रदीप सरकार, जो खुद विज्ञापन जगत से जुड़े रहे हैं ने फिल्म लफंगे परिंदे के लिए अनध को संगीतकार चुना। चेन्नई से ताल्लुक रखने वाले आर अनध, रहमान के सहपाठी रह चुके हैं। फिल्म तो समीक्षकों द्वारा ज्यादा सराही नहीं गई पर अपने संगीत के लिए जरूर ये चर्चा में रही। इस संगीतमाला में इस फिल्म के दो गीत शामिल हैं। 21 वीं सीढ़ी के गीत को अपने शब्द दिए हैं स्वानंद किरकिरे ने और आवाज़ है मोहित चौहान की।

स्वानंद किरकिरे ने इस गीत में एक आम इंसान के मन की फ़ितरत को व्यक़्त करने की कोशिश की है। हमारा मन कब चंचल हो उठता है और कब उद्विग्न, कब उदास हो जाए और कब बेचैन ....क्या ये हमारे बस में है? खासकर तब जब ये किसी के प्रेम में गिरफ़्तार हो जाए। सच, मन तो अपनी मर्जी का मालिक है और इसकी इसी लफंगई को स्वानंद ने बड़े खूबसूरत अंदाज में उभारा है गीत के मुखड़े और दो अंतरों में। जब स्वानंद लिखते हैं कि
धीमी सी आँच में इश्क सा पकता रहे
हो तेरी ही बातों से पिघलता है
चाय में चीनी जैसे घुलता है
तो मन सच पूछिए गीत में और घुलने लगता है।

संगीतकार आर आनंद ने गीत के इंटरल्यूड में गिटार की मधुर धुन रची है वैसे पूरे गीत में ही गिटार का प्रयोग जगह - जगह हुआ है। मोहित की आवाज़ ऐसे रूमानी गीतों के लिए एकदम उपयुक्त है। वो गीत के बोलों से मन को उदास भी करते हैं और फिर गुनगुनाने पर भी मजबूर करते हैं। हाँ ये जरूर है कि ये गीत धीरे धीरे आपके मन में घर बनाता है। तो आइए सुनें लफंगे परिंदे फिल्म का ये गीत


मन लफंगा बड़ा, अपने मन की करे
हो यूँ तो मेरा ही है, मुझसे भी ना डरे
हो भीगे भीगे ख्यालों में डूबा रहे
मैं संभल जा कहूँ, फिसलता रहे
इश्क मँहगा पड़े, फिर भी सौदा करे
मन लफंगा बड़ा, अपने मन की करे

जाने क्यूँ उदासी इसको प्यारी लगे, चाहे क्यूँ नई सी कोई बीमारी लगे
बेचैनी रातों की नींदों में आँखें जगे, लम्हा हर लम्हा क्यूँ बोझ सा भारी लगे
ओ भँवरा सा बन कर मचलता है
बस तेरे पीछे पीछे चलता है
जुनूँ सा लहू में उबलता है
लुच्चा बेबात ही उछलता है
हो भीगे भीगे ख्यालों ..अपने मन की करे

हो अम्बर के पार ये जाने क्या तकता रहे, बादल के गाँव में बाकी भटकता रहे
तेरी ही खुशबू में ये तो महकता रहे.......
धीमी सी आँच में इश्क़ सा पकता रहे
हो तेरी ही बातों से पिघलता है,चाय में चीनी जैसे घुलता है
दीवाना ऐसा कहाँ मिलता है, प्यार मैं यारो सब चलता है
हो भीगे भीगे ख्यालों ..अपने मन की करे



रविवार, जनवरी 09, 2011

वार्षिक संगीतमाला 2010 - पॉयदान संख्या 23 : यादों के नाज़ुक परों पे चला आया प्यार...

वार्षिक संगीतमाला की 23 वीं पॉयदान पर है एक प्यारा सा मीठा सा रोमांटिक नग्मा जिसे गाया है मोहित चौहान ने। फिल्म 'आशाएँ' के इस गीत को संगीत से सँवारा हैं सलीम सुलेमान की जोड़ी ने। सलीम सुलेमान ने अपने संगीतबद्ध इस गीत में मन को शांत कर देने वाला संगीत रचा है। गीत की शुरुआत पिआनो की धुन से होती है। पूरे गीत में संगीतकार द्वय ने वेस्टर्न फील बनाए रखा है जो उनके संगीत की पहचान रहा है। भारतीयता का पुट भरने के लिए तबले का बीच बीच में अच्छा इस्तेमाल हुआ है।

पर इस गीत का सबसे मजबूत पहलू है मोहित चौहान की गायिकी और मीर अली हुसैन के बोल। मीर अली हुसैन एक गीतकार के रूप में बेहद चर्चित नाम तो नहीं पर चार साल पहले वो तब पहली बार सुर्खियों में आए थे जब फिल्म डोर का गीत संगीत खूब सराहा गया था। हुसैन को ज्यादा मौके सलीम सुलेमान ने ही दिये हैं और उन्होंने मिले इन चंद मौकों पर अपने हुनर का परिचय दिया है। सहज शब्दों में हुसैन आम संगीत प्रेमी के दिलों को छूने का माद्दा रखते हैं। मिसाल के तौर पर ये पंक्तियाँ मोहब्बत का दरिया अजूबा निराला..जो बेख़ौफ़ डूबा वही तो पहुँच पाया पार  या फिर कभी जीत उसकी है सब कुछ गया हो जो हार तुरंत ही सुनने में अच्छी लगने लगती हैं।

और जब मोहित डूबते उतराते से यादों के नाजुक परों पर उड़ते हुए हमारे कानों में प्रेम के मंत्र फूकते हैं तो बरबस होठों से गीत फूट ही पड़ता है। तो आइए सुनें और मन ही मन गुनें मोहित चौहान के साथ इस गीत को




ख़्वाबों की लहरें, खुशियों के साये
खुशबू की किरणें, धीमे से गाये
यही तो है हमदम, वो  साथी, वो  दिलबर, वो यार
यादों के नाज़ुक परों पे चला आया प्यार
चला आया प्यार, चला आया प्यार

मोहब्बत का दरिया अजूबा निराला
जो ठहरा, वो पाया कभी ना किनारा
जो बेख़ौफ़ डूबा वही तो पहुँच पाया पार
यादों के नाज़ुक परों पे चला आया प्यार
चला आया प्यार, चला आया प्यार

कभी ज़िन्दगी को सँवारे सजाये
कभी मौत को भी गले से लगाये
कभी जीत उसकी है सब कुछ गया हो जो हार
यादों के नाज़ुक परों  पे चला आया प्यार
चला  आया  प्यार, चला  आया  प्यार

ख़्वाबों की लहरें, खुशियों के साए.....

फिल्म में इस गीत को जान अब्राहम पर फिल्माया गया है



वार्षिक संगीतमाला 2010 से जुड़ी प्रविष्टियो को अब आप फेसबुक पर बनाए गए एक शाम मेरे नाम के पेज पर यहाँ भी देख सकते हैं।

गुरुवार, फ़रवरी 11, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पॉयदान संख्या 13 - दिलों की दूरियों की गहराई नापते मोहित चौहान

वार्षिक संगीतमाला का सफ़र तय करते करते हम आ पहुँचे हैं ठीक इसके बीचो बीच। यानि 12 पॉयदानों का सफ़र पूरा करके गीतमाला की 13 वीं पॉयदान तक। अभी भी सबसे ऊपर की 12 सीढ़ियों की चढ़ाई बाकी है। आज की पॉयदान पर का गीत एक ऐसा गीत है जिसे इस साल काफी लोकप्रियता मिली। मोहित चौहान की गायिकी का अंदाज़ , प्रीतम का कर्णप्रिय संगीत और इरशाद कामिल के बोलों की रूमानियत ने लोगों के हृदय को इस गीत से जोड़ दिया।

दरअसल शायद ही हम में से कोई हो जिसने अपने अज़ीज़ों से दूर रहने की व्यथा ना झेली हो। इसलिए इंसानी रिश्तों में दूरियों की बात करता ये गीत जल्द ही सबके ज़ेहन में समा गया। जब लव आज कल का संगीत रचा जा रहा था तो सबसे पहले इसी गीत पर काम शुरु हुआ। निर्देशक इम्तियाज़ अली इसे मोहित चौहान से ही गवाना चाहते थे। शायद मोहित का उनकी फिल्म जब वी मेट में गाया गाना ना है कुछ खोना ना पाना ही है.. उनको बेहद प्रभावित कर गया था। संगीतकार प्रीतम को मोहित को ट्रैक करने में दो महिने का वक़्त जरूर लगा पर मोहित निर्देशक और संगीतकार के विश्वास पर बिल्कुल खरे उतरे।

वैसे क्या आपको पता है कि हिमाचल के रहने वाले मोहित चौहान ने कभी भी संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं ली। बिलासपुर ,मंडी और नाहन के कॉलेजों से विचरते हुए उन्होंने अपनी परास्नातक की उपाधि धर्मशाला से ली। संगीत जगत की सुर्खियों में वो तब आए जब बतौर मुख्य गायक उनके काम को बैंड सिल्क रूट के एलबम बूँदें में सराहा गया। वैसे इस चिट्ठे पर उनके बारे में चर्चा उनके गाए गीतों गुनचा अब कोई मेरे नाम कर दिया और ना है कुछ खोना ना पाना ही है की वज़ह से पहले भी हो चुकी हैं।

वैसे शिक्षा की दृष्टि से गीत के गीतकार इरशाद क़ामिल भी पीछे नहीं हैं। हिंदी में डॉक्टरेट की उपाधि से विभूषित इरशाद, इम्तियाज़ अली और प्रीतम के साथ पहले भी काम कर चुके हैं। उनसे साक्षात्कार में जब पूछा गया कि गीतकार के लिहाज़ से सबसे कठिनाई भरी बात वो किसे मानते हैं तो उनका जवाब था

मेरे लिए सबसे कठिन किसी रूमानी गीत को रचना है। ऐसा इसलिए कि इस विषय पर इतना ज़्यादा और इतनी गहराई से लिखा जा चुका है कि लगता है कि कुछ कहने को बचा ही नहीं है। मैंने तो अपनी डिक्शनरी से दिल,धड़कन, ज़िगर, इकरार, इंतज़ार इन सभी शब्दों को हटा रखा है। अगर अपनी पसंद की बात करूँ तो मुझे सूफ़ियत और अकेलेपन का पुट लिए रूमानी गीतों को लिखना ज्यादा संतोष देता है।

इरशाद की यही सोच मोहित द्वारा इस गीत की अदाएगी में दिखाई देती है। जिंदगी के अकेलापन में पुरानी स्मृतियों के साए मन में जो टीस उभारते हैं ये गीत उसी की एक अभिव्यक्ति है। तो आइए सुनें फिल्म लव आज कल का ये नग्मा




ये दूरियाँ, ये दूरियाँ,ये दूरियाँ

इन राहों की दूरियाँ
निगाहों की दूरियाँ
हम राहों की दूरियाँ
फ़ना हो सभी दूरियाँ

क्यूँ कोई पास है
दूर है क्यूँ कोई
जाने न कोई यहाँ पे
आ रहा पास या दूर मैं जा रहा
जानूँ न मैं हूँ कहाँ पे

ये दूरियाँ....फ़ना हो सभी दूरियां

ये दूरियाँ, ये दूरियाँ

कभी हुआ ये भी,
खाली राहों पे भी
तू था मेरे साथ
कभी तुझे मिल के
लौटा मेरा दिल यह
खाली खाली हाथ
यह भी हुआ कभी
जैसे हुआ अभी
तुझको सभी में पा लिया
तेरा मुझे कर जाती है दूरियाँ
सताती हैं दूरियाँ
तरसाती हैं दूरियाँ
फ़ना हो सभी दूरियाँ

कहा भी न मैंने
नहीं जीना मैंने
तू जो न मिला
तुझे भूले से भी
बोला न मैं ये भी
चाहूँ फासला, बस फासला रहे
बन के कसक जो कहे
हो और चाहत ये ज़वां
तेरी मेरी मिट जानी है दूरियाँ
बेगानी है दूरियाँ
हट जानी हैं दूरियाँ
फ़ना हो सभी दूरियाँ

क्यूँ कोई पास है
दूर है क्यूँ कोई
जाने न कोई यहाँ पे
आ रहा पास या दूर मैं जा रहा
जानूँ न मैं हूँ कहाँ पे

ये दूरियाँ....फ़ना हो सभी दूरियाँ
ये दूरियाँ, ये दूरियाँ, ये दूरियाँ



शुक्रवार, जनवरी 08, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 - पायदान संख्या 24 - कहाँ से आई ये मसककली ?

वार्षिक संगीत माला की 24 वीं पायदान पर स्वागत कीजिए मोहित चौहान, ए आर रहमान और प्रसून जोशी की तिकड़ी का। इस तिकड़ी का ही कमाल है कि मसककली के माध्यम से इन्होंने कबूतर जैसे पालतू पक्षी की ओर हम सबका ध्यान फिर से आकर्षित कर दिया।:)

वैसे पुरानी दिल्ली की छतों पर तो नहीं पर कानपुर के अपने ननिहाल वाले घर में कबूतरों को पालने और पड़ोसियों के कबूतर को अपनी मंडली में तरह तरह की आवाज़े निकालकर आकर्षित करने के जुगाड़ को करीब से देखा है। इतना ही नहीं शाम के वक़्त उन्हीं आवाजों के सहारे झरोखों से मसककलियों को भी निकलते देख बचपन में मैं हैरान रह जाता और सोचता क्या ये गुर मामा हमें भी सिखाएँगे।

आप भी सोच रहे होंगे कि गीत के बारे में कुछ बातें ना कर ये मैं क्या कबूतरों की कहानी ले कर बैठ गया। अब क्या करें पहली बार जब टीवी के पर्दे पर मसकली को सलोनी सोनम कपूर के ऊपर फुदकते देखा तो मन कबूतर कबूतरी की जोड़ी पर अटक गया और गीत के बोल उनके पीछे भटक गए। गीत सुनते समय मुझे ये लगा था कि पहले अंतरे में मनमानी मनमानी कहते कहते मोहित की आवाज़ वैसे ही अटक गई है जैसे पुराने रिकार्ड प्लेयरों की अटकती थी।

वो तो भला हो कलर्स (Colors) वालों का जिन्होंने दिसंबर के महिने में जब ये फिल्म दिखाई तो फिर इस गीत को गौर से सुनने का मौका मिला। ये भी समझ आया कि प्रसून कबूतर के साथ कम और नायिका रूपी कबूतरी से ज्यादा बातें कर रहे हैं इस गीत के माध्यम से। प्रसून की विशेषता है कि उनका हिन्दी भाषा ज्ञान आज के गीतकारों से कहीं ज्यादा समृद्ध है। इसलिए वो जब प्यारे किंतु सहज हिंदी शब्दों का चयन अपने गीतों में करते हैं तो गीत निखर उठता है। पर कहीं कहीं मीटर से बाहर जाने की वज़ह से गीत को निभाने में जो कठिनाई आई है उसे मोहित चौहान ने चुनौती के रूप में लेकर एक बेहतरीन प्रयास किया है।

वैसे आप ये जरूर जानने को उत्सुक होंगे कि ये मसककली शब्द आया कहाँ से । इस गीत की उत्पत्ति के बारे में प्रसून ने 'मिड डे' को दिए अपने एक साक्षात्कार में बताया था

'मसककली' शब्द का निर्माण तो अनायास ही हो गया। रहमान अपनी एक धुन कंप्यूटर पर बजा रहे थे कि उनके मुँह से ये शब्द निकला। मैंने पूछा ये क्या है तो वो मुस्कुरा दिए। पर वो शब्द मेरे दिमाग में इस तरह रच बस गया कि मैंने उसे अपने गीत में इस्तेमाल करने की सोची और इसीलिए कबूतर का नाम भी मसककली रखा गया़।

और तो और एक मजेदार तथ्य ये भी है कि प्रसून के इस गीत ने लका प्रजाति के कबूतरों के दाम दिल्ली के बाजारों में आठ गुना तक बढ़ा दिए और लोग विदेशी कबूतरों से ज्यादा इसे ही लेने के पीछे पड़े रहे।

तो मोहित चाहौन की गायिकी और रहमान की धुन की बदौलत से ये गीत जा पहुँचा है मेरी इस गीतमाला की 24 वीं पायदान पर। तो इस गीत को सुनिए देखिए कहीं मसककली की तरह आपका मन हिलोरें हिलोरें लेते लेते फुर्र फुर्र करने के लिए मचल ना उठे।




ऐ मसककली मसककली, थोड़ा मटककली मटककली
ऐ मसकली मसा मसा कली, थोड़ा मटककली मटककली

ज़रा पंख झटक गई धूल अटक
और लचक मचक के दूर भटक
उड़ डगर डगर कस्बे कूचे नुक्कड़ बस्ती
तड़ी से मुड़ अदा से उड़
कर ले पूरी दिल की तमन्ना, हवा से जुड़ अदा से उड़
पुर्र भुर्र भुर्र फुर्र, तू है हीरा पन्ना रे
मसककली मसककली, थोड़ा मटककली मटककली


घर तेरा सलोनी, बादल की कॉलोनी
दिखा दे ठेंगा इन सबको जो उड़ना ना जाने
उड़ियो ना डरियो कर मनमानी मनमानी मनमानी
बढ़ियो ना मुड़ियो कर नादानी
अब ठान ले , मुस्कान ले, कह सन ननननन हवा
बस ठान ले तू जान ले,कह सन ननननन हवा

ऐ मसककली मसककली, थोड़ा मटककली मटककली
ऐ मसकली मसा मसा कली, थोड़ा मटककली मटककली

तुझे क्या गम तेरा रिश्ता, गगन की बाँसुरी से है
पवन की गुफ़्तगू से है, सूरज की रोशनी से है

उड़ियो ना डरियो कर मनमानी मनमानी मनमानी
बढ़ियो ना मुड़ियो कर नादानी

ऐ मसकली मसकली, उड़ मटककली मटककली
ऐ मसकली मसा मसा कली, उड़ मटकली मटकली
अब ठान ले , मुस्कान ले, कह सन ननननन हवा
बस ठान ले तू जान ले,कह सन ननननन हवा


सोमवार, जनवरी 28, 2008

वार्षिक संगीतमाला २००७ : पायदान १३ - ना है ये पाना, ना खोना ही है...

तो दोस्तों गीतों के इस सफ़र पर आ पहुँचे हैं हम इस संगीतमाला के ठीक मध्य में। और मेरी तेरहवीं पायदान के हीरो हैं इस गीत के गायक मोहित चौहान ! क्या कमाल किया है उन्होंने इरशाद कामिल के लिखे और प्रीतम द्वारा संगीतबद्ध इस प्यारे से नग्मे में , ये आप गीत सुनकर ही महसूस कर सकते है।


आप में से बहुतों ने मोहित चौहान को शायद ही पहले सुना हो। मैंने पहली बार इन्हें फिल्म 'मैं, मेरी पत्नी और वो' में 'गुनचा कोई तेरे नाम कर दिया...' गाते सुना था और वास्तव में उस गीत को सुनकर मैं मोहित से मोहित हुए बिना नहीं रह पाया था । उस गीत को मैंने इस चिट्ठे पर यहाँ पेश किया था

मोहित की संगीत यात्रा शुरु हुई १९९७ में। उन्हें सफलता का स्वाद उसी साल तब मिला जब मोहित की अगुवाई में बने बैंड सिल्क रूट के पहले एलबम बूंदें के गीत डूबा डूबा... को 'चैनल वी' ने अपने शो में साल के गैर फिल्मी एलबम में सबसे बढ़िया गीत के रूप में चुना। सिल्क रूट प्रथम दो वर्षों की चर्चा के बाद धीरे धीरे अपनी लोकप्रियता खोता गया। पिछले चार पाँच वर्षों में मोहित को फिल्मों में गिने चुने मौके मिले हैं। पर चाहे वो 'मैं, मेरी पत्नी और वो' या फिर 'रंग दे वसंती' या फिर इस साल की 'जब वी मेट' , उन्होंने हर मिले मौके से अपनी प्रतिभा को साबित किया है।

मोहित चौहान, हिमाचल से आते हैं। वो कहा करते हैं कि शुरुआती दिनों में अपने गायन में वो गूँज या 'थ्रो' पैदा करने के लिए व्यास नदी के किनारे चले जाते थे। हिमाचल की ज्यादातर संगीत बिरादरी के साथ उन्होंने काम किया हुआ है और वहाँ के लोक संगीत से भी वो जुड़े रहे हैं। आठ साल की उम्र से ही मोहित संगीत में दिलचस्पी लेने लगे। गाने के साथ एकाउस्टिक गिटार में भी वो उतने ही प्रवीण हैं। उनकी गायिकी की खासियत ये है कि वो गीत की संपूर्ण भावनाएँ आत्मसात कर अपनी अदाएगी में झोंक देते हैं।

इस गीत के बोलों को लिखा है पंजाब के इरशाद कामिल ने जो तत्कालीन कविता में डॉक्टरेट की उपाधि से विभूषित है। स्क्रिप्ट लेखन से अपना फिल्मी कैरियर शुरु करने वाले इरशाद अब 'जब वी मेट' में गीतकार की हैसियत से उतरे हैं और आप तो जानते ही हैं कि इस फिल्म के गीत कितने लोकप्रिय हो रहे हैं.

क्या खूबसूरत मुखड़ा दिया है उन्होंने.... ना है ये पाना, ना खोना ही है, तेरा ना होना जाने ,क्यूँ होना ही है ?....और इस लय के साथ जब मोहित की आवाज़ बहने लगती है तो इस गीत से वशीभूत हुए बिना कोई चारा नहीं बचता...

ना है ये पाना, ना खोना ही है
तेरा ना होना जाने .
क्यूँ होना ही है ?

तुम से ही दिन होता है
सुरमयी शाम आती है
तुमसे ही तुमसे ही

हर घड़ी साँस आती है
ज़िंदगी कहलाती है
तुमसे ही तुमसे ही

ना है या पाना......होना ही है ?

आँखों मे आँखें तेरी
बाहों में बाहें तेरी
मेरा न मुझमें कुछ रहा
हुआ क्या
बातों में बातें तेरी
रातें सौगातें तेरी
क्यूँ तेरा सब ये हो गया
हुआ क्या
मैं कहीं भी जाता हूँ
तुमसे ही मिल जाता हूँ
तुमसे ही तुमसे ही
शोर में खामोशी है
थोड़ी सी बेहोशी है
तुमसे ही तुमसे ही

आधा सा वादा कभी
आधे से ज्यादा कभी
जी चाहे कर लूँ इस तरह, वफा का
छोड़े ना छूटे कभी
तोड़े ना टूटे कभी
जो धागा तुमसे जुड़ गया, वफा का...

मैं तेरा सरमाया हूँ
जो भी मैं बन पाया हूँ
तुमसे ही तुमसे ही
रास्ते मिल जाते हैं
मंजिलें मिल जाती हैं
तुमसे ही तुमसे ही

ना है ये पाना....


तो आइए सुनें जब वी मेट के इस गीत को





इस संगीतमाला के पिछले गीत

शनिवार, जुलाई 01, 2006

गुनचा कोई मेरे नाम कर दिया ...

आज सुनिये एक अलग आवाज और निराले अंदाज में मोहित चौहान को । सिवाए गिटार के इस गीत में अन्य किसी वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं हुआ है। सीधी सहज भाषा में लिखी, फिल्म 'मैं मेरी पत्नी और वह' की इस गजल में जान डालने में मोहित पूरी तरह सफल रहे हैं । आशा है आप सब भी इसे सुनने के बाद उनके इस अंदाज पर मोहित हुये बिना नहीं रह सकेंगे।

गुनचा कोई मेरे नाम कर दिया
साकी ने फिर से मेरा जाम भर दिया

तुम जैसा कोई नहीं इस जहान में
सुबह को तेरी जुल्फ ने शाम कर दिया

महफिल में बार बार इधर देखा किये
आँखों के जजीरों को मेरे नाम कर दिया

होश बेखबर से हुये उनके बगैर
वो जो हमसे कह ना सके, दिल ने कह दिया


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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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