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बुधवार, जनवरी 31, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 : ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते

वार्षिक संगीतमाला में अब तक आपने कुछ रूमानी और कुछ थिरकते गीतों का आनंद उठाया पर आज जिस गीत का चुनाव मैंने किया है उसका मिज़ाज मन को धीर गंभीर करने वाला है और मेरा विश्वास है कि उसमें निहित संदेश आपको अपने समाज का आईना जरूर दिखाएगा। 

हिंदी फिल्मों में फ़ैज़ की नज़्मों और ग़ज़लों का बारहा इस्तेमाल किया गया है। कभी किरदारों द्वारा उनकी कविता पढ़ी गयी तो कभी उनके शब्द गीतों की शक़्ल में रुपहले पर्दे पर आए। फ़ैज़ की शायरी की एक खासियत थी कि उन्होने रूमानी शायरी के साथ साथ तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक हालातों पर भी लगातार अपनी लेखनी चलाई और इसीलिए जनमानस ने उन्हें बतौर शायर एक ऊँचे ओहदे से नवाज़ा। लोगों ने जितने प्रेम से मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग को पसंद किया उतने ही जोश से सत्ता के प्रति प्रतिकार को व्यक्त करती उनकी नज़्म हम देखेंगे को भी हाथों हाथ लिया।



फ़ैज़ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। सर्वहारा वर्ग के शासन के लिए वो हमेशा अपनी नज़्मों से आवाज उठाते रहे। बोल की लब आजाद हैं तेरे....उनकी एक ऐसी नज़्म है जो आज भी जुल्म से लड़ने के लिए आम जनमानस को प्रेरित करने की ताकत रखती है। पिछले कुछ वर्षों में उनकी नज़्म के इस रंग को हिंदी फिल्मों में लगातार जगह मिली हो। कुछ साल पहले पल्लवी जोशी ने Buddha In A Traffic Jam'.फ़क़त चंद रोज़ मेरी जान को आवाज़ दी थी। नसीरुद्दीन शाह एक फिल्म में ये दाग दाग उजाला को अपनी आवाज़ दे चुके हैं। हैदर में उनकी ग़ज़ल का इस्तेमाल करने वाले विशाल भारद्वाज ने इस बार पिछले साल की शुरुआत में कुत्ते फिल्म के शीर्षक गीत के तौर पर फ़ैज़ की इसी नाम की नज़्म का इस्तेमाल किया।

अपने समाज के दबे कुचले, बेघर, बेरोजगार, आवारा फिरती आवाम में जागृति जलाने के उद्देश्य से फैज ने प्रतीकात्मक लहजे में उनकी तुलना गलियों में विचरते आवारा कुत्तों से की। किस तरह आम जनता नेताओं, रसूखदारों, नौकरशाहों के खुद के फायदे के लिए उनकी चालों में मुहरा बन कर भी अपना दर्द चुपचाप सहती रहती है, ये नज़्म उसी ओर इशारा करती है।

ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख्शा गया जिनको ज़ौक़ ए गदाई*
ज़माने की फटकार सरमाया** इनका
जहां भर की दुत्कार इनकी कमाई

ना आराम शब को ना राहत सवेरे
ग़लाज़त*** में घर , नालियों में बसेरे
जो बिगड़ें तो एक दूसरे से लड़ा दो
जरा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फ़ाक़ों से उकता के मर जाने वाले
ये मज़लूम मख़्लूक़^ गर सर उठाये
तो इंसान सब सरकशीं^^ भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आकाओं की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इनको एहसासे ज़िल्लत^^^ दिला ले
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे

*भीख मांगने की रुचि **संचित धन ***गंदगी ^ आम जनता ^^घमंड ^^^ अपमान की अनुभुति

फैज को विश्वास था कि गर आम जनता को अपनी ताकत का गुमान हो जाए तो वो बहुत कुछ कर सकती है।रेखा भारद्वाज की आवाज़ में ये नज़्म हमारे हालातों पर करारी चोट करती हुई दिल तक पहुँचती है। विशाल कोरस में भौं भौं का अनूठा प्रयोग करते हैं। इस भूल जाने वाले एल्बम में ये नज़्म एकमात्र ऐसा नगीना है जिसे लोग कई दशकों बाद तक याद रखेंगे।
  
 

वार्षिक संगीतमाला 2023 में मेरी पसंद के पच्चीस गीत
  1. वो तेरे मेरे इश्क़ का
  2. तुम क्या मिले
  3. पल ये सुलझे सुलझे उलझें हैं क्यूँ
  4. कि देखो ना बादल..नहीं जी नहीं
  5. आ जा रे आ बरखा रे
  6. बोलो भी बोलो ना
  7. रुआँ रुआँ खिलने लगी है ज़मीं
  8. नौका डूबी रे
  9. मुक्ति दो मुक्ति दो माटी से माटी को
  10. कल रात आया मेरे घर एक चोर
  11. वे कमलेया
  12. उड़े उड़नखटोले नयनों के तेरे
  13. पहले भी मैं तुमसे मिला हूँ
  14. कुछ देर के लिए रह जाओ ना
  15. आधा तेरा इश्क़ आधा मेरा..सतरंगा
  16. बाबूजी भोले भाले
  17. तू है तो मुझे और क्या चाहिए
  18. कैसी कहानी ज़िंदगी?
  19. तेरे वास्ते फ़लक से मैं चाँद लाऊँगा
  20. ओ माही ओ माही
  21. ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
  22. मैं परवाना तेरा नाम बताना
  23. चल उड़ चल सुगना गउवाँ के ओर
  24. दिल झूम झूम जाए
  25. कि रब्बा जाणदा

    गुरुवार, फ़रवरी 06, 2020

    वार्षिक संगीतमाला 2019 Top10 : रुआँ रुआँ, रौशन हुआ Ruan Ruan

    अगर संगीतमाला की चौथी पायदान पर पापोन की गायिकी आपके दिल को सहला गयी थी तो आज वही काम तीसरी पायदान पर अरिजीत सिंह की आवाज़ कर रही है फिल्म सोनचिड़िया के इस गीत में जिसकी धुन बनाई विशाल भारद्वाज ने और बोल लिखे वरुण ग्रोवर ने। विशाल  अपनी फिल्मों में अरिजीत की आवाज़ का बखूबी इस्तेमाल करते आए हैं। हैदर, रंगून पटाखा और अब सोनचिड़िया के गीत इसकी मिसाल हैं। हाँ ये जरूर है कि विशाल अक्सर गुलज़ार के साथ काम करते हैं पर इस फिल्म के लिए उन्होंने वरूण को चुना जो आज के दौर के एक काबिल गीतकार हैं।


    चंबल के डाकुओं से जुड़ी कई कहानियाँ फिल्मी पर्दे का हिस्सा बन चुकी है। नब्ने के बाद की बात करूँ तो पान सिंह तोमर या फिर Bandit Queen जैसी सफलता तो सोनचिड़िया के हाथ नहीं लगी  पर फिल्म को समीक्षकों द्वारा सराहा जरूर गया था। 

    इस गीत को समझने के लिए मुझे आपको इस फिल्म की कहानी से रूबरू कराना पड़ेगा। अपने सरदार के मारे जाने के बाद पुलिस से भागते गिरोह को एक महिला के साथ घायल बच्ची मिलती है जिसकी जान के पीछे उसी के परिवार वाले पड़े हैं।  गिरोह उस बच्ची की मदद करते हुए उसे अस्पताल पहुँचाने के लिए तैयार हो जाता है। गिरोह के द्वारा एक बार गलती से कुछ बच्चों की हत्या हो गयी थी। उनके मन में ये धारणा भी है कि ये पाप तभी कटेगा जब वो किसी बच्ची रूपी सोनचिड़िया को बचाएँगे।

    इसी क्रम में ये गीत फिल्म में आता है। वरुण एक ऐसे गीतकार हैं जिनके शब्दों में एक गहराई होती है। उसकी तहों तक पहुँचने के लिए एक श्रोता को गीत की भावनाओं में डूबना होता है। अब इसी गीत को देखिए। रुआँ रुआँ एक आशा का, एक नए जीवन के संचार का गीत है। नायक द्वारा अपनी बीती हुई ज़िदगी के कलुष को धोने की चेष्टा की तुलना इस गीत में वरुण ने एक ऐसे पंक्षी से की है जो अँधेरी रातों से निकल वक़्त की पुरानी गाँठों को खोलते हुए एक नए आकाश, एक नई सुबह की ओर उड़ चला है। ऐसे करते हुए उसका रोयाँ रोयाँ पुलकित है। नायक की सदाशयता के इस नूर ने पूरे मन रूपी कुएँ को मीठा कर दिया है इसलिए वरूण ने लिखा


    पंछी चला, उस देस को
    है जहाँ, रातों में, सुबह घुली
    पंछी चला, परदेस को
    कि जहाँ, वक्त की, गाँठ खुली

    रुआँ रुआँ, रौशन हुआ
    धुआँ धुआँ, जो तन हुआ
    रुआँ रुआँ...
    हाँ नूर को, ऐसे चखा
    मीठा कुआँ, ये मन हुआ
    रुआँ रुआँ...


    नायक की ज़िदगी के इस दुखद चरण के समापन और एक नए की शुरुआत की बात कुछ अन्य बिंबों के साथ वरुण  दूसरे अंतरे में भी करते हैं। माटी के मैले घड़े के टूटकर कंचन होने की उनकी सोच वाकई लाजवाब है। 

    गहरी नदी, में डूब के
    आखिरी साँस का, मोती मिला
    सदियों से था, ठहरा हुआ
    हाँ गुज़र ही गया, वो काफ़िला
    पर्दा गिरा, मेला उठा
    खाली कोई, बर्तन हुआ
    माटी का ये, मैला घड़ा
    टूटा तो फिर, कंचन हुआ
    रुआँ रुआँ...


    विशाल ने इस गीत में गिटार और सीटी का बेहतरीन इस्तेमाल किया है। गीत के बोलों के साथ गिटार की टुनटुनाहट इस बारीकी से गूँथी गयी है कि एक के बिना दूसरे की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।  इस गीत में मधुर गिटार बजाया है अंकुर मुखर्जी ने।

    विशाल भारद्वाज व वरुण ग्रोवर
    गीत की शुरुआत में अरिजीत की रुआँ रुआँ की गूँज आपको एक अलग मूड में ले आती है और फिर तो उनकी गायिकी शब्द और संगीत के साथ ऐसे घुलती मिलती है कि आप  गीत खत्म होने तक उसके मोहपाश से अपने आप को अलग नहीं कर पाते। तो आइए सुनते हैं सोनचिड़िया का ये बेहद भावपूर्ण नग्मा। गीत में जो नदी नज़र आ रही है वो देश की सबसे साफ सुथरी नदियों में से एक चंबल नदी है।



    वार्षिक संगीतमाला 2019 
    01. तेरी मिट्टी Teri Mitti
    02. कलंक नहीं, इश्क़ है काजल पिया 
    03. रुआँ रुआँ, रौशन हुआ Ruan Ruan
    04. तेरा साथ हो   Tera Saath Ho
    05. मर्द  मराठा Mard Maratha
    06. मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए  Bharat 
    07. आज जागे रहना, ये रात सोने को है  Aaj Jage Rahna
    08. तेरा ना करता ज़िक्र.. तेरी ना होती फ़िक्र  Zikra
    09. दिल रोई जाए, रोई जाए, रोई जाए  Dil Royi Jaye
    10. कहते थे लोग जो, क़ाबिल नहीं है तू..देंगे वही सलामियाँ  Shaabaashiyaan
    11 . छोटी छोटी गल दा बुरा न मनाया कर Choti Choti Gal
    12. ओ राजा जी, नैना चुगलखोर राजा जी  Rajaji
    13. मंज़र है ये नया Manzar Hai Ye Naya 
    14. ओ रे चंदा बेईमान . बेईमान..बेईमान O Re Chanda
    15.  मिर्ज़ा वे. सुन जा रे...वो जो कहना है कब से मुझे Mirza Ve
    16. ऐरा गैरा नत्थू खैरा  Aira Gaira
    17. ये आईना है या तू है Ye aaina
    18. घर मोरे परदेसिया  Ghar More Pardesiya
    19. बेईमानी  से.. 
    20. तू इतना ज़रूरी कैसे हुआ? Kaise Hua
    21. तेरा बन जाऊँगा Tera Ban Jaunga
    22. ये जो हो रहा है Ye Jo Ho Raha Hai
    23. चलूँ मैं वहाँ, जहाँ तू चला Jahaan Tu chala 
    24.रूह का रिश्ता ये जुड़ गया... Rooh Ka Rishta 

    शुक्रवार, फ़रवरी 16, 2018

    वार्षिक संगीतमाला 2017 पायदान # 13 : आतिश ये बुझ के भी जलती ही रहती है..ये इश्क़ है. Ye Ishq Hai

    वार्षिक संगीतमाला की अगली पेशकश है फिल्म रंगून से। पिछले साल के आरंभ में आई ये फिल्म बॉक्स आफिस पर भले ही कमाल ना दिखा सकी हो पर इसका गीत संगीत बहुत दिनों तक चर्चा का विषय रहा था। यूँ तो इस फिल्म में तमाम गाने थे पर मुझे सूफ़ियत के रंग में रँगा और मोहब्बत से लबरेज़ ये इश्क़ है इस फिल्म का सबसे बेहतरीन गीत लगा।

    गुलज़ार के लिखे गीतों को एक बार सुन कर आप अपनी कोई धारणा नहीं बना सकते। उनकी गहराई में जाने के लिए आपको उनके द्वारा बनाए लफ़्ज़ों के तिलिस्म में गोते लगाने होते हैं और इतना करने के बाद भी कई बार कुछ प्रश्न अनसुलझे ही रह जाते हैं। विगत कुछ सालों से उनकी कलम का पैनापन थोड़ा कम जरूर हुआ है पर फिर भी शब्दों के साथ उनका खेल रह रह कर श्रोताओं को चकित करता ही रहता है।



    तो चलिए साथ साथ चलते हैं गुलज़ार की इस शब्द गंगा में डुबकी लगाने के लिए।  मुखड़े में गुलज़ार ने  'सुल्फे ' शब्द का इस्तेमाल किया है जिसका अभिप्राय हुक्के या चिलम में प्रयुक्त होने वाली तम्बाकू की लच्छियों से हैं। जलने के बाद भी सुलगते हुए ये जो धुआँ छोड़ती हैं वो मदहोशी का आलम बरक़रार रखने के लिए काफी होता है। गुलज़ार कहते हैं कि इश्क़ की फितरत भी कुछ ऐसी है जिसकी जलती चिंगारी रह रह कर हमारे दिल में प्रेम की अग्नि को सुलगती रहती है।

    ये इश्क़ है.. ये इश्क़ है..
    ये इश्क़ है.. ये इश्क़ है..
    सूफी के सुल्फे की लौ उठ के कहती है 
    आतिश ये बुझ के भी जलती ही रहती है
    ये इश्क़ है.. ये इश्क़ है..ये इश्क़ है..

    सदियों से बहती नदी को गुलज़ार की आँखें उस प्रेमिका के तौर पे देखती हैं जो अपने प्रेमी रूपी किनारों पर सर रखकर सोई पड़ी है। यही तो सच्चा इश्क़ है जो तन्हाई में भी अपने प्रिय की यादों में रम जाता है। अपने इर्द गिर्द उसकी चाहत की परछाई को बुन लेता है। उन रेशमी नज़रों  के अंदर के राज अपनी आँखों से सुन लेता है। इसलिए गुलज़ार लिखते हैं

    साहिल पे सर रखके, दरिया है सोया है 
    सदियों से बहता है, आँखों ने बोया है
    ये इश्क़ है.. ये इश्क़ है..
    तन्हाई धुनता है, परछाई बुनता है 
    रेशम सी नज़रों को आँखों से सुनता है
    ये इश्क़ है.. ये इश्क़ है..ये इश्क़ है...

    आख़िर इश्क़ के मुकाम क्या हैं? प्रेम की परिणिति एक दूसरे में जलते रहने के बाद उस ईश्वर से एकाकार होने की है जिसने इस सृष्टि की रचना की है। इसीलिए गुलज़ार मानते हैं कि इश्क़ की इस मदहोशी के पीछे उसका सूफ़ी होना है। इसलिए वो कभी रूमी की भाषा बोलता है तो कभी उनके भी गुरु रहे तबरीज़ी की।

    सूफी के सुल्फे की लौ उट्ठी अल्लाह हू.
    अल्लाह हू अल्लाह हू, अल्लाह हू अल्लाह हू अल्लाह हू
    सूफी के सुल्फे की लौ उट्ठी अल्लाह हू.
    जलते ही रहना है बाकी ना मैं ना तू

    ये इश्क़ है.. ये इश्क़ है..
    बेखुद सा रहता है यह कैसा सूफी है 
    जागे तो तबरेज़ी बोले तो रूमी है
    ये इश्क़ है.. ये इश्क़ है..ये इश्क़ है...

    विशाल भारद्वाज के इस गीत में नाममात्र का संगीत संयोजन है। गिटार और बाँसुरी के साथ अरिजीत का स्वर पूरे गीत में उतार चढ़ाव के साथ बहता नज़र आता है। गायिकी के लिहाज़ से इस कठिन गीत को वो बखूबी निभा लेते हैं। एलबम में इस गीत का एक और रूप भी है जिसे रेखा भारद्वाज जी ने गाया है पर अरिजीत की आवाज़ का असर कानों में ज्यादा देर तक रहता है। तो आइए सुनें रंगून फिल्म का ये नग्मा


    वार्षिक संगीतमाला 2017

    मंगलवार, फ़रवरी 14, 2017

    वार्षिक संगीतमाला 2016 पायदान # 10 : आवभगत में मुस्कानें, फुर्सत की मीठी तानें ... Dugg Duggi Dugg

    वार्षिक संगीतमाला में अब बारी है साल के दस शानदार गीतों की। मुझे विश्वास है कि इस कड़ी की पहली पेशकश को सुन कर आप मुसाफ़िरों वाली मस्ती में डूब जाएँगे। ये गीत है फिल्म जुगनी से जो पिछले साल जुगनुओं की तरह तरह टिमटिमाती हुई कब पर्दे से उतर गयी पता ही नहीं चला। इस गीत को लिखा शैली उर्फ शैलेंद्र सिंह सोढ़ी ने और संगीतबद्ध किया क्लिंटन सेरेजो ने जो बतौर संगीतकार दूसरी बार कदम रख रहे है इस संगीतमाला में। इस गीत से जुड़ी सबसे रोचक बात ये कि विशाल भारद्वाज ने पहली बार किसी दूसरे संगीतकार के लिए अपनी आवाज़ का इस्तेमाल किया है।


    पहले तो आपको ये बता दें कि ये शैली हैं कौन? अम्बाला से आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने वाले शैली के पिता हिम्मत सिंह सोढ़ी ख़ुद कविता लिखते थे और एक प्रखर बुद्धिजीवी  थे। उनके सानिध्य में रह कर शैली गा़लिब, फ़ैज़ और पाश जैसे शायरों के मुरीद हुए। शिव कुमार बटालवी के गीतों ने भी उन्हें प्रभावित किया। चंडीगढ़ से स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल करने के बाद आज 1995 में वो गुलज़ार के साथ काम करने  मुंबई आए पर बात कुछ खास बनी नहीं। हिंदी फिल्मों में पहली सफलता उन्हें 2008 में देव डी के गीतों को लिखने से मिली। इसके बाद भी छोटी मोटी फिल्मों के लिए लिखते रहे हैं। पिछले साल उड़ता पंजाब के गीतों के कारण वो चर्चा में रहे और जुगनी के लिए तो ना केवल उन्होंने गीत लिखे बल्कि संवाद लेखन का भी काम किया।

    चित्र में बाएँ से शेफाली, शैली, जावेद बशीर व क्लिंटन
    शैली को फिल्म की निर्देशिका शेफाली भूषण ने बस इतना कहा था कि फिल्म के गीतों में लोकगीतों वाली मिठास होनी चाहिए। इस गीत के लिए क्लिंटन ने शैली से पहले बोल लिखवाए और फिर उसकी धुन बनी। क्लिंटन को हिंदी के अटपटे बोलों को समझाने के लिए शैली को बड़ी मशक्कत करनी पड़ी। पर जब क्लिंटन ने उनके बोलों को कम्पोज़ कर शैली के पास भेजा तो वो खुशी से झूम उठे और तीन घंटे तक उसे लगातार सुनते रहे।

    क्लिंटन के दिमाग में गीत बनाते वक़्त विशाल की आवाज़ ही घूम रही थी। जब उन्होंने ये गीत विशाल के पास भेजा तो विशाल की पहली प्रतिक्रिया थी कि गाना तो तुम्हारी आवाज़ में जँच ही रहा है तब तुम मुझे क्यूँ गवाना चाहते हो? पर क्लिंटन के साथ विशाल के पुराने साथ की वज़ह से उनके अनुरोध को वो ठुकरा नहीं सके। गीत में जो मस्ती का रंग उभरा है उसमें सच ही विशाल की आवाज़ का बड़ा योगदान है।

    शैली चाहते थे कि इस गीत के लिए वो कुछ ऐसा लिखें जिसमें उन्हें गर्व हो और सचमुच इस परिस्थितिजन्य गीत में उन्होंने ये कर दिखाया है। ये गीत पंजाब की एक लोक गायिका की खोज करती घुमक्कड़ नायिका के अनुभवों का बड़ी खूबसूरती से खाका खींचता है । गिटार और ताल वाद्य के साथ मुखड़े के पहले क्लिंटन का बीस सेकेंड का संगीत संयोजन मन को मोहता है और फिर तो विशाल की फुरफराहट हमें गीत के साथ उड़ा ले जाती है उस मुसाफ़िर के साथ।

    हम जब यात्रा में होते हैं तो कितने अनजाने लोग अपनी बात व्यवहार से हमारी यादों का अटूट अंग बन जाते हैं। शैली एक यात्री की इन्हीं यादों को आवभगत में मुस्कानें,फुर्सत की मीठी तानें..भांति भांति जग लोग दीवाने, बातें भरें उड़ानें ...राहें दे कोई फकर से, कोई खुद से रहा जूझ रे ....एक चलते फिरते चित्र की भांति शब्दों में उतार देते हैं। निर्देशिका शेफाली भूषण की भी तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने इस गीत का फिल्मांकन करते वक़्त गीत के बोलों को अपने कैमरे से हूबहू व्यक्त करने की बेहतरीन कोशिश की। तो आइए  हम सब साथ साथ हँसते मुस्कुराते गुनगुनाते हुए ये डुगडुगी बजाएँ


    फुर्र फुर्र फुर्र नयी डगरिया
    मनमौज गुजरिया
    रनझुन पायलिया नजरिया
    मंन मौज गुजरिया

    ये वास्ते रास्ते झल्ले शैदां, रमते जोगी वाला कहदा
    आवभगत में मुस्कानें,फुर्सत की मीठी तानें
    दायें का हाथ पकड़ के, बाएँ से पूछ के
    ओये ओये होए डुग्गी डुग्गी डुग्ग
    ओये ओये होए डुग्गी डुग्गी डुग्ग 
    ओये ओये होए डुग्गी डुग्गी डुग्ग डुग्गी डुग्ग डुग्गी डुग्ग

    फिर फिर फिर राह अटरिया 
    सुर ताल साँवरिया
    साँझ की बाँहों नरम दोपहरिया
    सुर ताल सँवरिया
    परवाज़ ये आगाज़ ये है अलहदा
    रौनक से हो रही खुशबू पैदा
    भांति भांति जग लोग दीवाने, बातें भरें उड़ानें
    राहें दे कोई फकर से, कोई खुद से रहा जूझ रे
    ओये ओये  होए ...   डुग्ग ,

    बहते हुए पानी से, इस दुनिया फानी से ,
    है रिश्ता खारा, रंग चोखा हारा ,
    और जो रवानी ये,
    धुन की पुरानी है ये नाता अनोखा
    हाँ कूबकु के माने, दहलीज़  लांघ  के  जाने ,
    दायें का हाथ पकड़ के, बाएँ से पूछ के
    ओये ओये होए डुग्गी डुग्गी डुग्ग


    वार्षिक संगीतमाला  2016 में अब तक 

    शनिवार, जनवरी 23, 2016

    वार्षिक संगीतमाला 2015 पायदान # 15 : घुटता हैं दम दम.. दम दम घुटता है Dum Ghutta hai

    वार्षिक संगीतमाला के तीन हफ्तों से सफ़र में अब बारी है पिछले साल के मेरे सबसे प्रिय पन्द्रह गीतों की और पन्द्रहवीं पायदान पर जो गीत है ना जनाब उसमें प्रेम, विरह, खुशी जैसे भाव नहीं बल्कि एक तरह की पीड़ा और  दबी  सी घुटन है जो सीने से बाहर आने के लिए छटपटा रही है पर कुछ लोगों का डर ने उसे बाहर आने से रोक रखा है। पर इससे पहले कि मैं आपको इस गीत के बारे में बताऊँ आपसे एक रोचक तथ्य को बाँट लेता हूँ। जानते हैं काम मिलने के बाद संगीतकार व गीतकार ने सोचा हुआ था कि इस फिल्म के लिए वो कोई मस्त सा आइटम नंबर लिखेंगे। पर उनके मंसूबों पर पानी तब फिरा जब फिल्म के निर्देशक निशिकांत कामत ने उनसे आकर ये कहा कि मैं आपसे फिल्म सदमा के गीत ऐ ज़िंदगी गले लगा ले.. जैसा गीत बनवाना चाहता हूँ। 


    ये फिल्म थी दृश्यम और संगीतकार गीतकार की जोड़ी थी विशाल भारद्वाज और गुलज़ार की। विशाल इस फर्माइश को सुनकर चौंक जरूर गए पर मन ही मन खुश भी हुए ये सोचकर कि आज के दौर में ऐसे गीतों की माँग कौन करता है? विशाल फिल्म के निर्माता कुमार मंगत पाठक के बारे में कहते हैं कि ओंकारा के समय से ही मैंने जान लिया था कि अगर कुमार जी से पीछा छुड़ाना हो तो उन्हें एक अच्छा गीत बना के देना ही होगा। यानि निर्माता निर्देशक चाहें तो गीत की प्रकृति व गुणवत्ता पर अच्छा नियंत्रण रख सकते हैं।

    बकौल विशाल भारद्वाज ये गीत बहुत चक्करों के बाद अपने अंतिम स्वरूप में आया। दम घुटता है का मुखड़ा भी बाद में जोड़ा गया। पहले सोचा गया था कि ये गीत राहत फतेह अली खाँ की आवाज़ में रिकार्ड किया जाएगा। फिर विशाल को लगा कि गीत एक स्त्री स्वर से और प्रभावी बन पाएगा। तो रिकार्डिंग से रात तीन बजे लौटकर उन्होंने अपनी पत्नी व गायिका रेखा भारद्वाज जी से कहा कि क्या कल कुछ नई कोशिश कर सकती हो? रिकार्डिंग के लिए तुम्हें भी साढ़े दस बजे जाना पड़ेगा। अक्सर विशाल को रेखा उठाया करती हें पर उस दिन विशाल ने रेखा जी को साढ़े नौ बजे उठाते हुए कहा कि आधे घंटे थोड़ा रियाज़ कर लो फिर चलते हैं। ग्यारह बजे तक बाद रेखा विशाल के साथ स्टूडियो में थीं। पहले की गीत रचना को बदलते हुए विशाल ने रेखा जी के हिस्से उसी वक़्त रचे और फिर दोपहर तक राहत की आवाज़ के साथ मिक्सिंग कर गीत अपना अंतिम आकार ले पाया।

    एक व्यक्ति की अचानक हुए हादसे में हत्या का बोझ लिए एक परिवार के मासूम सदस्यों की आंतरिक बेचैनी को व्यक्त करने का जिम्मा दिया गया था गुलज़ार को और शब्दों के जादूगर गुलज़ार ने मुखड़े में लिखा

    पल पल का मरना
    पल पल का जीना
    जीना हैं कम कम
    घुटता हैं दम दम दम दम दम दम दम दम दम दम घुटता है


    उजड़े होठों , सहमी जुबां, उखड़ती सांसें, रगों में दौड़ती गर्मी जो जलकर राख और धुएँ में तब्दील हो जाना चाहती हो और अंदर से डर इतना कि इंसान अपनी ही परछाई से भी घबराने लगे। कितना सटीक चित्रण है ऐसे हालात में फँसे किसी इंसान का। गुलज़ार ने इन बिंबों से ये जतला दिया कि एक अच्छे गीतकार को व्यक्ति के अंदर चल रही कशमकश का, उसके मनोविज्ञान का पारखी होना कितना जरूरी है नहीं तो व्यक्ति के अंदर की घुटन की आँच को शब्दों में वो कैसे उतार पाएगा? 

    तो आइए एक बार फिर से सुनें ये बेहतरीन नग्मा..


    दुखता हैं दिल दुखता हैं
    घुटता हैं दम दम घुटता हैं
    डर हैं अन्दर छुपता हैं
    घुटता हैं दम दम दम दम दम दम दम दम दम दम घुटता है

    पल पल का मरना
    पल पल का जीना
    जीना हैं कम कम
    घुटता हैं दम दम घुटता हैं
    घुटता हैं दम दम ....

    मेरे उजड़े उजड़े से होंठो में
    बड़ी सहमी सहमी रहती हैं ज़बान
    मेरे हाथों पैरों मे खून नहीं
    मेरे तन बदन में बहता हैं धुआँ
    सीने के अन्दर आँसू जमा हैं
    पलके हैं नम नम
    घुटता हैं दम दम...


    क्यूँ बार बार लगता हैं मुझे
    कोई दूर छुप के तकता हैं मुझे
    कोई आस पास आया तो नहीं
    मेरे साथ मेरा साया तो नहीं
    चलती हैं लेकिन नब्ज़ भी थोड़ी
    साँस भी कम कम
    घुटता हैं दम दम घुटता हैं
    घुटता हैं दम दम घुटता हैं


    साँस भी कुछ कुछ रुकता हैं
    घुटता हैं दम दम घुटता हैं
    पल पल क्यूँ दम घुटता हैं
    घुटता हैं दम दम ...

    रेखा जी की आवाज़ के साथ राहत की आवाज़ का मिश्रण तो काबिलेतारीफ़ है ही गीत के इंटरल्यूड्स में ढाई मिनट बाद गिटार के साथ घटम का संगीत संयोजन मन को सोह लेता है। वैसे अंत में राहत का साँस भी कुछ कुछ रुकती की जगह रुकता है कहना कुछ खलता है।

    फिल्म के किरदारों की मनोस्थिति को बयाँ करता ये गीत फिल्म का एक अहम हिस्सा रहा और इसी वज़ह से फिल्म के प्रोमो में इसका खूब इस्तेमाल किया गया। 

    वार्षिक संगीतमाला 2015 में अब तक

    वार्षिक संगीतमाला 2015

    मंगलवार, जनवरी 05, 2016

    वार्षिक संगीतमाला 2015 पायदान #24 : मूँछ बनानी हो कि मूँछ कटानी है, पतली गली आना Patli Gali Aana

    वार्षिक संगीतमाला 2015 की पिछली पायदान पर अपने हवाईज़ादे तुर्रम खाँ की मस्तियों का आनंद जरूर उठाया होगा। अगली पॉयदान पे जो गीत है उसमें मस्ती के वो तेवर बरक़रार हैं पर इन अगर आप सिर्फ इस अटपटे से गीत के बाहरी स्वरूप तक अपने आप को सीमित रखेंगे तो उस पतली गली तक बिल्कुल नहीं पहुँच पाएँगे जहाँ ये गीत आपको ले जाना चाहता है। दरअसल फिल्म तलवार के लिए गुलज़ार का लिखा ये गीत सहज शब्दों के बीच ढेर सारे  ऐसे प्रतीकों को समेटे हुए है जो हमारे आस पास के समाज का हिस्सा हैं। 

    आरुषि तलवार केस की बुनियाद पर बनाई फिल्म तलवार में संगीत के लिए अलग से जगह नहीं थी। फिल्म के सारे गीत पार्श्व से ही उठते हैं पात्रों की आंतरिक व्यथा को व्यक्त करने के लिए। पर फिल्म के गंभीर गीतों के बीच गुलज़ार को एक जगह मिली अपने व्यंग्यात्मक तीर चलाने के लिए। आरुषि तलवार के केस में शुरुआती जाँच में पुलिस और उसकी सहयोगी संस्थाओं से जो गफ़लत हुई उसको अपने निशाने पे लेते हुए गुलज़ार साहब ने व्यंग्य की धार पर इस गीत को कसा और विशाल भारद्वाज के संगीत और सुखविंदर की गायिकी ने उन शब्दों में जैसे जान सी डाल दी।


    फिल्म देखने के बाद मुझे तो यही लगा कि जिस पतली गली की बात गुलज़ार कर रहे हैं उसका अभिप्राय एक आम आदमी के पुलिस, कोर्ट कचहरी व मीडिया के चक्कर में फँसने से है। इसीलिए इस पतली गली में आकर आपकी मूँछ यानि इज्ज़त बन भी सकती है या उसका पलीदा भी निकल सकता है। अगर आप पाक साफ भी हो तो सिस्टम के अंदर की काई और फिसलन के सामने आपका  दामन शायद ही बदरंग होने से बच पाए। इस गली में आना है तो रसूख़दार मामुओं की रस्सियाँ खरीदनी होगी। बिना अपने काम की समझ रखने वालों के हाथों अपने भविष्य को गिरवी रखना होगा।

    गुलज़ार ने आख़िरी अंतरे में एक ही पंक्ति में जिस तरह 'आम' शब्द का प्रयोग उसके दोनों अर्थों यानि साधारण जन व एक फल के रूप में किया है वो काबिलेतारीफ़ है। आप भी ज़रा गौर फ़रमाएँ

    गुठली से रह जाते हैं, जो पूरे आते हैं
    आम लोग इस गली में, अक्सर चूस लिये जाते हैं

    इस तरह के बिना एक मीटर के गीत को निभा पाना बेहद कठिन है पर विशाल भारद्वाज जानते हैं कि जब तक सुखविंदर हैं उन्हें इसकी चिंता नहीं करनी है। विशाल भारद्वाज ने ताल वाद्यों और हारमोनियम की मदद से जो गीत की लय बनाई है वो श्रोताओं को सहज अपनी ओर खी्च लेती हें। हाँ इंटरल्यूड्स कुछ और  बेहतर हो सकते थे।

    तो अब और देर करना ठीक नहीं चलते हैं पतली गली के इस सफ़र पर..

     

    धार लगानी, तलवार चलानी
    हो कि चक्की पिसानी हो
    पतली गली आना
    मूँछ बनानी हो कि मूँछ कटानी है
    दुकान पुरानी  अरे पतली गली आना

    पतली गली में फिसलन है, अरे काई भरी है सीलन है
    हो ज़रा पैंचे उठा के आना, आना जी ज़रा पैंचे उठा के आना...
    आना जी ज़रा पैंचे उठा के आना ओ ज़रा पैंचे उठा के आना
    पतली गली आना..

    पतली गली में सारे गंजे, कंघियाँ बेच रहे हैं
    अरे फाँसी गले में डाल के मामू, रस्सियाँ बेच रहे हैं
    गंजे कंघियाँ बेच रहे हैं, मामू रस्सियाँ बेच रहे
    गर्म हवा का झोंका, गली में कोई भौंका
    है भौंका ज़रा, दुम दबा के आना...
    मूँछ बनानी हो ..पतली गली आना...

    गुठली से रह जाते हैं, जो पूरे आते हैं
    आम लोग इस गली में, अक्सर  चूस लिये जाते हैं
    बासी हो या ताज़ा
    बाअदब बामुलाहिज़ा
    पतली गली आना


    संगीतमाला का अगला गीत भी थोड़ा बोलों के मामले में अटपटा है और मुझे यकीन है कि पिछले साल उसे आप सबने सुना होगा तो इंतज़ार कीजिए कल तक का संगीतमाला की अगली पॉयदान पर चढ़ने के लिए।

    वार्षिक संगीतमाला 2015

    सोमवार, जनवरी 26, 2015

    वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 13 : गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले.. Gulon Mein Rang Bhare

    पिछले साल के बेहतरीन गीतों को ढूँढते हुए हम आ चुके हैं संगीतमाला के बीचो बीच यानि इसके बाद शुरु होगा शीर्ष की बारह पायदानों का सफ़र। संगीतमाला की तेरहवीं पॉयदान पर जो ग़ज़ल है उसके बारे में पिछले साल नवंबर में विस्तार से चर्चा कर चुका हूँ। विशाल भारद्वाज ने मेहदी हसन साहब की गाई और फै़ज़ की लिखी इस ग़ज़ल को हैदर में इतनी खूबसूरती से समाहित किया कि ये ग़ज़ल फिल्म का एक जरूरी हिस्सा बन गई।


    फ़ैज़ की लिखी ग़ज़ल के भावार्थ को आज दोबारा नहीं लिखूँगा। अगर आप ने मेरी पिछली पोस्ट ना भी पढ़ी हो तो मेरी इस पॉडकॉस्ट को सुन लें जो मेरे उसी आलेख पर आधारित थी।


    पर विशाल ने फिल्म की कहानी के साथ इस ग़ज़ल के अलग अलग मिसरों को वादी-ए-कश्मीर के हालातों से जोड़ कर उसे एक अलग माएने ही दे दिए हैं। फिल्म में पहली बार ये ग़ज़ल तब आती है जब डा. साहब (फिल्म में हैदर के पिता का किरदार) मेहदी हसन साहब की ग़ज़ल सुनते हुए गुनगुना रहे हैं और हैदर जेब खर्च माँगने के लिए वो ग़ज़ल बंद कर देता है। उसे पैसे मिलते हैं पर तभी जब वो ग़ज़ल का जुमला याद कर सुना देता है..

    चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले...

    लेखिका मनरीत सोढ़ी सोमेश्वर ने इस ग़ज़ल के मतले को फिल्म की कहानी से जोड़ते हुए अपने एक अंग्रेजी आलेख में लिखा था
    "कश्मीर के बाग बागीचों का कारोबार तो नब्बे के दशक के मध्य में ही बंद हो गया था। हैदर की कहानी भी इसी समय की है। चिनार के पेड़ ही इस वादी को उसकी रंगत बख्शते थे। वही  दरख्त जिनके सुर्ख लाल रंग को देख कर फारसी आक्रमणकारियों आश्चर्य से बोल उठे थे चिनार जिसका शाब्दिक अर्थ था क्या आग है ! और उस वक़्त वादी प्रतीतात्मक रूप में ही सही भारतीय सेना और आतंकियों की गोलीबारी के बीच जल ही तो रही थी।"
    ग़ज़ल का अगला मिसरा भी तब उभरता है जब क़ैदखाने में डा. साहब यातनाएँ झेल रहे होते हैं। फिल्म में एक संवाद है  कैदखानों की उन  कोठरियों में सारी चीखें, सारी आहें जब  दफ़्न हो जाती थीं तब एक आवाज़ बिलखते हुए सन्नाटे से सुर मिला के रात के जख्मों पर मलहम लगाया करती थी।

    कफ़स उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो
    कहीं तो बह्र-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

    सच तो ये है कि विशाल भारद्वाज ने फिल्म में अरिजित की ग़ज़ल इस्तेमाल ही नहीं की। पर उसे पहले प्रमोट कर देखने वाले के ज़ेहन में उसे बैठा दिया ताकि कहानी में जब उसके मिसरे गुनगुनाए जाएँ  तो लोग उसे कहानी से जोड़ सकें। मेहदी हसन की इस कालजयी ग़ज़ल को गाने की कोशिश कर पाना ही अपने आप में अरिजित के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। नाममात्र के संगीत (पूरे गीत में आपको गिटार की हल्की सी झनझनाहट के साथ मात्र ड्रम्स संगत में बजती हुई सुनाई देती है) के साथ अपनी आवाज़ के बलबूते पर उन्होंने इस ग़ज़ल को बखूबी निभाया है।

    तो आइए सुनते हैं इस फिल्म के लिए रिकार्ड की गई ये ग़ज़ल


    वार्षिक संगीतमाला 2014

    शनिवार, मार्च 15, 2014

    वार्षिक संगीतमाला 2013 सरताज गीत : सपना रे सपना, है कोई अपना... (Sapna Re Sapna..Padmnabh Gaikawad)

    वक़्त आ गया है वार्षिक संगीतमाला 2013 के सरताजी बिगुल के बजने का ! यहाँ गीत वो जिसमें लोरी की सी मिठास है, सपनों की दुनिया में झाँकते एक बाल मन की अद्भुत उड़ान है और एक ऐसी नई आवाज़ है जो उदासी की  चादर में आपको गोते लगाने को विवश कर देती है। बाल कलाकार पद्मनाभ गायकवाड़ के हिंदी फिल्मों के लिए गाए इस पहले गीत को लिखा है गुलज़ार साहब ने और धुन बनाई विशाल भारद्वाज ने। Zee सारेगामा लिटिल चैम्स मराठी में 2010 में अपनी गायिकी से प्रभावित करने वाले पद्मनाभ गायकवाड़ इतनी छोटी सी उम्र में इस गीत को जिस मासूमियत से निभाया है वो दिल को छू लेता है।

    पद्मनाभ गायकवाड़

    ये तीसरी बार है कि गुलज़ार और विशाल भारद्वाज की जोड़ी एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमालाओं में के सरताज़ गीत का खिताब अपने नाम कर रही है। अगर आपको याद हो तो वर्ष 2009 मैं फिल्म कमीने का गीत इक दिल से दोस्ती थी ये हुज़ूर भी कमीने और फिर 2010 में इश्क़िया का दिल तो बच्चा है जी ने ये गौरव हासिल किया था।

    विशाल भारद्वाज सपनों की इस दुनिया में यात्रा की शुरुआत गायकवाड़ के गूँजते स्वर से करते हैं। गिटार और संभवतः पार्श्व में बजते पियानो से निकलकर पद्मनाभ की ऊँ ऊँ..जब आप तक पहुँचती है तो आप चौंक उठते हैं कि अरे ये गीत सामान्य गीतों से हटकर है। गुलज़ार के शब्दों को आवाज़ देने  में बड़े बड़े कलाकारों के पसीने छूट जाते हैं क्यूँकि उनका लिखा हर एक वाक्य भावनाओं की चाशनी में घुला होता है और उन जज़्बातों को स्वर देने, उनके अंदर की पीड़ा को बाहर निकालने के लिए उसमें डूबना पड़ता है जो इतनी छोटी उम्र में बिना किसी पूर्व अनुभव के पद्मनाभ ने कर के दिखाया है।


    गुलज़ार को हम गुलज़ार प्रेमी यूँ ही अपना आराध्य नहीं मानते। ज़रा गीत के अंतरों पर गौर कीजिए सपनों की दुनिया में विचरते एक बच्चे के मन को कितनी खूबसूरती से पढ़ा हैं उन्होंने। गुलज़ार लिखते  हैं भूरे भूरे बादलों के भालू, लोरियाँ सुनाएँ ला रा रा रू...तारों के कंचों से रात भर  खेलेंगे सपनों में चंदा और तू। काले काले बादलों को भालू और तारों को कंचों का रूप देने की बात या तो कोई बालक सोच सकता है या फिर गुलज़ार !अजी रुकिये यहीं नहीं दूसरे अंतरे में भी उनकी लेखनी का कमाल बस मन को चमत्कृत कर जाता है। गाँव, चाँदनी और सपनों को उनकी कलम कुछ यूँ जोड़ती है पीले पीले केसरी है गाँव, गीली गीली चाँदनी की छाँव, बगुलों के जैसे रे, डूबे हुए हैं रे, पानी में सपनों के पाँव...उफ्फ

    विशाल भारद्वाज का संगीत संयोजन सपनों की रहस्यमयी दुनिया में सफ़र कराने सा अहसास दिलाता है। पता नहीं जब जब इस गीत को सुनता हूँ आँखें नम हो जाती हैं। पर ये आँसू दुख के नहीं संगीत को इस रूप में अनुभव कर लेने के होते हैं।

    सपना रे सपना, है कोई अपना
    अँखियों में आ भर जा
    अँखियों की डिबिया भर दे रे निदिया
    जादू से जादू कर जा
    सपना रे सपना, है कोई अपना
    अँखियों में आ भर जा.....


    भूरे भूरे बादलों के भालू
    लोरियाँ सुनाएँ ला रा रा रू
    तारों के कंचों से रात भर  खेलेंगे
    सपनों में चंदा और तू
    सपना रे सपना, है कोई अपना
    अँखियों में आ भर जा


    पीले पीले केसरी है गाँव
    गीली गीली चाँदनी की छाँव
    बगुलों के जैसे रे, डूबे हुए हैं रे
    पानी में सपनों के पाँव
    सपना रे सपना, है कोई अपना
    अँखियों में आ भर जा....

    वार्षिक संगीतमाला 2013 का ये सफ़र आज यहीं पूरा हुआ। आशा है मेरी तरह आप सब के लिए ये आनंददायक अनुभव रहा होगा । होली की असीम शुभकामनाओं के साथ...

    सोमवार, फ़रवरी 13, 2012

    वार्षिक संगीतमाला 2011 - पॉयदान संख्या 6 : इक ज़रा चेहरा उधर कीजै इनायत होगी, आप को देख के बड़ी देर से मेरी साँस रुकी ..

    भावनाएँ तो सबके मन में होती हैं और उनकों अभिव्यक्त करने के लिए जरूरी भाषा भी । पर फिर भी दिल के दरवाजों में बंद उन एहसासों को व्यक्त करना हमारे लिए दुरूह हो जाता है। पर ये शायर, उफ्फ बार बार उन्हीं शब्दों से तरह तरह से खेलते हुए कमाल के भाव रच जाते हैं। ऐसे लफ़्ज़ जो ना जाने दिल कबसे किसी को कहने को आतुर था। दोस्तों यकीन मानिए वार्षिक संगीतमाला की छठी पॉयदान के गीत में भी कुछ ऐसे जज़्बात हैं जो शायद हम सब ने अपने किसी ख़ास के लिए ज़िंदगी के किसी मोड़ पर सोचे होंगे।
    और इन जज़्बों में डूबा अगर ऐसा कोई गीत गुलज़ार ने लिखा हो और आवाज़ संगीतकार विशाल भारद्वाज की हो तो वो गीत किस तरह दिल की तमाम तहों को पार करता हुआ अन्तरमन में पहुँचेगा, वो इन विभूतियों को पसंद करने वालों से बेहतर और कौन समझ सकता है?

    गीतकार संगीतकार जोड़ी का नाम सुनकर तो आप समझ ही गए होंगे कि ये गीत फिल्म सात ख़ून माफ़ का है। पर इससे पहले कि इस गीत की बात करूँ, आप सबको ये बताना दिलचस्प रहेगा कि ये गीत कैसे बना। ये बात तबकी है जब फिल्म  'सात ख़ून माफ़' की शूटिंग हैदराबाद में शुरु हो चुकी थी पर अब तक इसके गीतों पर काम शुरु भी नहीं हो पाया था। हैदराबाद की ऐसी ही एक शाम को ज़ामों के दौर के बीच गुलज़ार ने विशाल को अपनी एक नज़्म का टुकड़ा सुनाया और कहा अब इसे ही आगे डेवलप करो। नज़्म कुछ यूँ थी...


    गैर लड़की से कहे कोई मुनासिब तो नही
    इक शायर को मगर इतना सा हक़ है
    पास जाए और अदब से कह दे
    इक ज़रा चेहरा उधर कीजै इनायत होगी
    आप को देख के बड़ी देर से मेरी साँस रुकी है


    विशाल ने जब ये नज़्म सुनी तो उनका दिल धक्क सा रह गया। उन्हें गुलज़ार की ये सोच कि किसी लड़की की खूबसूरती इस क़दर लगे कि कोई जा कर कहे कि मोहतरमा अपना चेहरा उधर घुमा लें नहीं तो ये साँस जो आपको देखकर रुक गई है हमेशा के लिए रुक जाएगी बहुत ही प्यारी लगी। और विशाल ने आख़िर को दो पंक्तियों को लेते हुए मुखड़ा तैयार किया। विशाल से एक रेडियो इंटरव्यू में गीत के अज़ीब से लगने वाले मुखड़े के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा..
    "हाँ मुझे मालूम है कि इस गीत को सुननेवाले मुखड़े में प्रयुक्त शब्द बेकराँ को बेकरार समझेंगे पर वो शब्द गीत के मुखड़े को खूबसूरत बना देता है। दरअसल बेकराँ का मतलब है बिना छोर का.."
    बेकराँ हैं बेकरम आँखें बंद कीजै ना
    डूबने लगे हैं हम
    साँस लेने दीजै ना लिल्लाह

    (भई अब तो अपनी आँखे बँद कर लो ! बिना छोर की इन खूबसूरत आँखों की गहराई मैं मैं डूबने लगा हूँ। अब क्या तुम मेरी जान लोगी ?) है ना कितना प्यारा ख़याल !

    गुलज़ार पहले अंतरे में अपनी प्रेयसी को देख वक़्त के ठहरने की बात करते हैं और दूसरे में बीती रात के उन अतरंग क्षणों को याद कर शरमा उठते हैं। विशाल भारद्वाज ने अपनी फिल्मों में बतौर गायक गुलज़ार के लिखे वैसे गीत चुने हैं जिनमें खूबसूरत कविता हो, गहरे अर्थपूर्ण बोल हों जो गायिकी में एक ठहराव माँगते हों। चाहे वो फिल्म ओंकारा का ओ साथी रे दिन डूबे ना हो या फिर फिल्म कमीने का इक दिल से दोस्ती थी या फिर इस गीत की बात हो, ये साम्यता साफ़ झलकती है।  

    बारिश की गिरती बूँदों की आवाज़ से गीत शुरु होता एक ऐसे संगीत के साथ जो कोई रहस्य खोलता सा प्रतीत होता है। ये एक ऐसा गीत है जिसकी सारी खूबियाँ आपको एक बार सुनकर नज़र नहीं आ सकती। यही वज़ह है जितनी दफ़े इसे सुना है उतनी आसक्ति इस गीत के प्रति बढ़ी है। तो आइए सुनें इस बेहद रूमानी नग्में को जो कल के प्रेम पर्व के लिए तमाम 'एक शाम मेरे नाम' के पाठकों के लिए मेरी तरफ़ से छोटा सा तोहफा है..
    बेकराँ हैं बेकरम आँखें बंद कीजै ना
    डूबने लगे हैं हम
    साँस लेने दीजै ना लिल्लाह
    इक ज़रा चेहरा उधर कीजै इनायत होगी
    आप को देख के बड़ी देर से मेरी साँस रुकी है
    बेकराँ है बेकरम...

    इक ज़रा देखिए तो आपके पाँव तले
    कुछ तो अटका है कहीं
    वक़्त से कहिए चले
    उड़ती उड़ती सी नज़र
    मुझको छू जाए अगर
    एक तसलीम को हर बार मेरी आँख झुकी
    आपको देख के...

    आँख कुछ लाल सी है
    रात जागे तो नहीं
    रात जब बिजली गयी
    डर के भागे तो नहीं
    क्या लगा होठ तले
    जैसे कोई चोट चले
    जाने क्या सोचकर इस बार मेरी आँख झुकी
    आप को देख के बड़ी देर से मेरी साँस रुकी है
    बेकराँ है बेकरम...

    फिल्म में ये गीत फिल्माया गया है इरफ़ान खाँ और प्रियंका चोपड़ा पर । इरफ़ान का किरदार एक शायर का है। गीत के पहले वो एक शेर पढ़ते हैं

    इस बार तो यूँ होगा थोड़ा सा सुकूँ होगा
    ना दिल में कसक होगी, ना सर पर जुनूँ होगा

    गुरुवार, मार्च 17, 2011

    वार्षिक संगीतमाला 2010 - सरताज गीत पर बह रही है गुलज़ार विशाल व राहत की त्रिवेणी...

    तो भाइयों एवम बहनों वार्षिक संगीतमाला के ढाई महिने के सफ़र के बाद वक़्त आ गया है सरताजी बिगुल बजाने का। यहाँ संगीतकार व गीतकार की वही जोड़ी है जिसने पिछले साल भी मिलकर सरताज गीत का खिताब जीता था। वैसे तो पहली पाँच पॉयदानों के गीत अपने आप में कमाल हैं पर पहली पॉयदन का ये गीत हर लिहाज़ में अलहदा है। बाकी पॉयदानों के गीतों को ऊपर नीचे के क्रम में सजाने में मुझे काफी मशक्क़त करनी पड़ी थी। पर पहली सीढ़ी पर विराजमान इश्क़िया फिल्म का ये गीत कभी अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ। इस गीत के बोलों का असर देखिए कि साल पूरा हुआ नहीं कि गीत के मुखड़े को लेकर एक नई फिल्म रिलीज़ भी हो गई।


    जी हाँ इस साल एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला का सरताज बनने का गौरव हासिल किया है गुलज़ार के लिखे, विशाल भारद्वाज द्वारा संगीतबद्ध और राहत फतेह अली खाँ द्वारा गाए गीत दिल तो बच्चा है जी ने..। इस गीत के बारे में नसीर भाई (जिन पर ये गाना फिल्माया गया है)की टिप्पणी दिलचस्प है. नसीर कहते हैं..
    "गाने का काम है फिल्म में मूड को क्रिएट करना। जो जज़्बात उस वक़्त हावी हैं फिल्म में, उसको रेखांकित (underline) करना। मुझे नहीं मालूम था कि ये गाना फिल्म में बैकग्राउंड में होगा कि मैं इसे गाऊँगा। एक तरह से ये अच्छा ही हुआ कि मैंने गाया नहीं क्यूँकि इससे उससे उस आदमी (किरदार) के दिल के ख़्यालात और ज़ाहिर हुए।"

    गुलज़ार के बारे में नसीर कहते हैं 
    "आदमी उतना ही जवान या बूढ़ा होता है जितना आप उसे होने देते हैं और गुलज़ार भाई दिल से नौजवान हैं। बहुत कुछ ऐसा है गुलज़ार में जो आदमी उनसे अपेक्षा नहीं कर सकता और यही एक सच्चे कलाकार की निशानी है।"

    सच, कौन नहीं जानता कि प्यार करने की कोई उम्र नहीं होती। और ये भी कि प्रेम में पड़ जाने के बाद हमारा मस्तिष्क मन का दास हो जाता है। पर उन सर्वविदित अहसासों को गुलज़ार इतनी नफ़ासत से गीत की पंक्तियों में उतारते हैं कि सुनकर मन ठगा सा रह जाता है।

    गुलज़ार की कलाकारी इसी बात में निहित हैं कि वो हमारे आस पास घटित होने वाली छोटी से छोटी बात को बड़ी सफाई से पकड़ते हैं । अब इसी गीत में प्रेम के मनोविज्ञान को जिस तरह उन्होंने समझा है उसकी उम्मीद सिर्फ गुलज़ार से ही की जा सकती है। अब गीत की इस पंक्ति को लें

    हाए जोर करें, कितना शोर करें
    बेवजा बातों पे ऐं वे गौर करें

    बताइए इस 'ऐ वे' की अनुभूति तो हम सब ने की है। किसी की बेवजह की बकवास को भी मंत्रमुग्ध होते हुए सुना है। बोल क्या रहा है वो सुन नहीं रहे पर उसकी आवाज़ और अदाएँ ही दिल को लुभा रही हैं और मन खुश.. बहुत खुश.. हुआ जा रहा है। पर क्या कभी सोचा था कि कोई गीतकार प्रेम में होने वाले इन सहज से अहसासों को गीत में ढालेगा?

    गुलज़ार की किसी जज़्बे को देखने और महसूस करने की अद्भुत क्षमता तो है ही पर साथ ही उनके बिंब भी बड़े प्रभावशाली होते हैं।मुखड़े में ढलती उम्र का अहसास दिलाने के लिए उनका कहना दाँत से रेशमी डोर कटती.. नहीं...मन को लाजवाब कर देता है।

    संगीतकार विशाल भारद्वाज ने इस गीत का संगीत एक रेट्रो की फील देता है। ऐसा लगता है कि आप साठ के दशक का गाना सुन रहे हैं। वाद्य यंत्रों के नाम पर कहीं हल्का सा गिटार तो कहीं ताली को संगत देता हुआ हारमोनियम सुनाई दे जाता है। राहत फतेह अली खाँ को अक्सर संगीतकार वैसे गीत देते हैं जिसमें सूफ़ियत के साथ ऊँचे सुरों के साथ खेलने की राहत की महारत इस्तेमाल हो। पर वहीं विशाल ने इससे ठीक उलट सी परिस्थिति वाले (झिझकते शर्माते फुसफुसाते से गीत में) में राहत का इस्तेमाल किया और क्या खूब किया। तो आइए पहले सुनें और गुनें ये गीत



    ऐसी उलझी नज़र उनसे हटती नहीं...
    दाँत से रेशमी डोर कटती.. नहीं...
    उम्र कब की बरस के सुफेद हो गयी
    कारी बदरी जवानी की छटती नहीं


    वर्ना यह धड़कन बढ़ने लगी है
    चेहरे की रंगत उड़ने लगी है
    डर लगता है तन्हा सोने में जी

    दिल तो बच्चा है जी...थोड़ा कच्चा है जी

    किसको पता था पहलु में रखा
    दिल ऐसा पाजी भी होगा
    हम तो हमेशा समझते थे कोई
    हम जैसा हाजी ही होगा

    हाय जोर करें, कितना शोर करें
    बेवजा बातों पे ऐं वे गौर करें

    दिल सा कोई कमीना नहीं..

    कोई तो रोके , कोई तो टोके
    इस उम्र में अब खाओगे धोखे
    डर लगता है इश्क़ करने में जी


    दिल तो बच्चा है जी
    ऐसी उदासी बैठी है दिल पे
    हँसने से घबरा रहे हैं
    सारी जवानी कतरा के काटी
    बीड़ी में टकरा गए हैं

    दिल धड़कता है तो ऐसे लगता है वोह
    आ रहा है यहीं देखता ही ना हो
    प्रेम कि मारें कटार रे

    तौबा ये लम्हे कटते नहीं क्यूँ
    आँखें से मेरी हटते नहीं क्यूँ
    डर लगता है तुझसे कहने में जी

    दिल तो बच्चा है जी,थोड़ा कच्चा है जी

    पर गीत को पूरी तरह महसूस करना है इस गीत का वीडिओ भी देखिए। गीत का फिल्मांकन बड़ी खूबसूरती से किया गया है। नसीर मुँह से कुछ नहीं बोलते पर उनकी आँखें और चेहरे के भाव ही सब कुछ कह जाते हैं..




    इसी के साथ वार्षिक संगीतमाला का ये सालाना आयोजन यहीं समाप्त होता है। जो साथी इस सफ़र में साथ बने रहे उनका बहुत आभार।  

    आप सब की होली रंगारंग बीते इन्हीं शुभकामनाओं के साथ..
     

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