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सोमवार, नवंबर 29, 2010

स्निति मिश्रा की आवाज़, नुसरत साहब का गीत : तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ...

सा रे गा मा पा... हमेशा से ही मेरा संगीत का पसंदीदा कार्यक्रम रहा है। इसकी दो खास वज़हें हैं। पहली तो ये कि इसमें हर साल इसमें ऐसे प्रतिभागी आते ही रहते हैं जिनकी प्रतिभा से प्रभावित ना हो पाना किसी संगीतप्रेमी के लिए बड़ा ही मुश्किल है। दूसरे ये कि यही वो कार्यक्रम है जहाँ प्रतियोगी कुछ ऐसे गीत और बंदिशें चुनते हैं जिनको स्टेज पर निभाने के लिए हुनर के साथ बड़े ज़िगर की भी जरूरत होती है।

चार महिने पहले जब ये कार्यक्रम शुरु हुआ तो कमल खाँ और अभिलाषा जैसे मँजे हुए गायकों के अलावा तीन नई प्रतिभाओं ने मेरा दिल जीत लिया था। ये तीन कलाकार थे ग़ज़लों के राजकुमार रंजीत रजवाड़ा और शास्त्रीय संगीत में महारथी दो गायिकाएँ स्निति मिश्रा और सुगंधा मिश्रा। पिछले हफ्ते स्निति अंतिम पाँच में जगह बनाने के पहले ही बाहर हो गयीं।

उड़ीसा के बोलांगीर जिले से ताल्लुक रखने वाली और फिलहाल भुवनेश्वर में अपनी पढ़ाई कर रही स्निति की आवाज़ अपने तरह की एक अलग ही आवाज़ है।



रहमान साहब ने भी कार्यक्रम में आ के ये स्वीकारा कि इस तरह की आवाज़ को वो वर्षों बाद सुन रहे हैं। स्निति फिलहाल भुवनेश्वर में अपने गुरु डा. रघुनाथ साहू से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। उनकी हिम्मत और प्रतिभा का परिचय इसी बात से मिल जाता है कि कोलकाता में हुए प्रारंभिक आडिशन में उन्होंने उस्ताद नुसरत फतेह अली खाँ का गाया गीत सुनाया। पहले ही आलाप ने जजों का मन मोह लिया और स्निति सारेगामापा की मुख्य प्रतियोगिता के लिए चुन ली गयीं। वो गीत था फिल्म बंडित क्वीन का और गीत के बोल थे

मोरे सैयाँ तो हैं परदेस, मैं क्या करूँ सावन को
सूना लागे सजन बिन देश , मैं ढूँढूँ साजन को

देखूँ राहें चढ़ के अटरिया
जाने कब आ जाए साँवरिया
जब से गए मोरी ली ना खबरिया
छूटा पनघट, फूटी गगरिया
सूना लागे सजन बिन देश , मैं ढूँढूँ सावन को
मोरे सैयाँ तो हैं परदेस, मैं क्या करूँ साजन को....

नुसरत साहब जैसे महान कलाकार की रचना को नारी स्वर में सुनना एक अलग ही आनंद दे गया। स्निति ने वैसे दो अंतरों में से एक ही गाया पर उनकी आवाज़ और गायिकी ने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया.। तो आइए सुनें स्निति को



स्निति का नुसरत प्रेम इस प्रतियोगिता में आगे भी ज़ारी रहा और एक महिने पहले उन्होंने इसी फिल्म के लिए नुसरत साहब का गाया एक और गीत तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे... चुना। दरअसल बंडित क्वीन में नुसरत साहब ने जो गीत गाए हैं वे उनके अपने अंदाज़ से थोड़ा हट के थे और स्निति ने इन्हें अपना स्वर दे कर उनका एक ताज़ा रूप हमारे मानस पटल पर अंकित कर दिया। स्निति की खासियत ये है कि वो कोई भी गीत अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में गाती हैं। देखिए तो कितने आत्मविश्वास के साथ स्निति ने निभाया इस गीत को...

सजना, सजना रे,
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे

काटूँ कैसे तेरे बिना बैरी रैना,
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे

पलकों ने बिरहा का गहना पहना
निंदिया काहे ऐसी अँखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे...सजना रे...

बूँदों की पायल बजी, सुनी किसी ने भी नहीं
खुद से कही जो कही, कही किसी से भी नहीं
भीगने को मन तरसेगा कब तक
चाँदनी में आँसू चमकेगा कब तक
सावन आया ना ही बरसे और ना ही जाए
सावन आया ना ही बरसे और ना ही जाए
हो निंदिया काहे ऐसी अँखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ..सजना रे.

जब बंडित क्वीन सिनेमा हॉल में जाकर देखी थी, पता नहीं क्यूँ फिल्म के संगीत पर ज्यादा ध्यान ही नहीं गया था। शायद फिल्म की गंभीरता की वज़ह से ही ऐसा हुआ हो। नुसरत साहब के गाए इन गीतों के बोल भी उतने ही प्यारे हैं जितनी की नुसरत साहब की गायिकी। इस गीत में एक अंतरा और भी है जो कुछ यूँ है

सरगम सुनी प्‍यार की, खिलने लगी धुन कई
खुश्‍बू से 'पर' माँगकर उड़ चली हूँ पी की गली
आँच घोले मेरी साँसों में पुरवा
डोल डोल जाए पल पल मनवा
रब जाने के ये सपने हैं या हैं साए
हो निंदिया काहे ऐसी अँखियों में आए
तेरे बिना जिया मोरा नाहीं लागे ..सजना रे.


स्निति सारेगामा का मंच छोड़ चुकी हैं पर अपनी जो आवाज़ हमें वो सुनाकर गई हैं वो श्रोताओं को बहुत दिनों तक याद रहेगी। आशा है अपनी गायिका में और परिपक्वता ला कर कुछ वर्षों में वो एक प्रतिष्ठित गायिका के रूप में अपने आप को स्थापित कर पाएँगी।

सोमवार, अप्रैल 07, 2008

शहर के दुकानदारों कारोबार-ए-उलफ़त में सूद क्या ज़ियाँ क्या है, तुम न जान पाओगे...जावेद और नुसरत साहब की आवाज़ों में

शहर के दुकानदारों ...जावेद अख्तर की नज़्मों में मेरी पसंदीदा रही है। आज की दुनिया में पैसों के बल पर कुछ लोग भावनाओं को भी बिकाऊ समझने लगे हैं। पर क्या भावनाएँ बिक सकती हैं ? क्या धन के सिलबट्टे से उन्हें तौला जा सकता है? हर संवेदनशील इंसान की प्रतिक्रिया यही होगी - नहीं, हरगिज नहीं। जावेद साहब ने भी अपनी इस खूबसूरत नज़्म में यही बात रखनी चाही है।

कुछ नज़्में सुनने से ज्यादा पढ़ने में आनंद देती हैं और मेरे लिए ये नज़्म, इसी तरह की नज़्म है। इसे पढ़ते पढ़ते आवाज़ खुद-ब-खुद ऊँची हो जाती है, रक्त का प्रवाह बढ़ जाता है और मन एक अलग से जोश मिश्रित आनंद में डूब जाता है। यूँ तो नज़्म का हर हिस्सा हृदय को छूता है पर नज़्म की आखिरी चार पंक्तियाँ मेरी जुबां हर वक़्त रहा करती हैं।

जानता हूँ कि तुम को जौक-ए-शायरी भी है
शख्सियत सजाने में इक ये माहिरी भी है
फिर भी हर्फ चुनते हो, सिर्फ लफ़्ज सुनते हो
इनके दरमियाँ क्या हैं, तुम ना जान पाओगे


जावेद साहब ने इस नज़्म को अपने एलबम 'तरकश' में अपनी आवाज से सँवारा है। 'तरकश' जावेद अख्तर की ग़ज़लों और नज़्मों का संग्रह है जो १९९५ में बाजार में आया। इसकी CD आप यहाँ से खरीद सकते हैं। मुझे लगा कि जावेद साहब पूरी नज़्म पढ़ने में थोड़ा और वक़्त लगाते तो शब्दों का असर और गहरा होता..



शहर के दुकाँदारों कारोबार-ए-उलफ़त में
सूद क्या ज़ियाँ1 क्या है, तुम न जान पाओगे
दिल के दाम कितने हैं ख़्वाब कितने मँहगे हैं
और नकद-ए-जाँ2 क्या है तुम न जान पाओगे


1-हानि 2- आत्मा की पूँजी

कोई कैसे मिलता है, फूल कैसे खिलता है
आँख कैसे झुकती है, साँस कैसे रुकती है
कैसे रह निकलती है, कैसे बात चलती है
शौक की ज़बाँ क्या है तुम न जान पाओगे

वस्ल1 का सुकूँ क्या हैं, हिज्र2 का जुनूँ क्या है
हुस्न का फुसूँ3 क्या है, इश्क के दुरूँ4 क्या है
तुम मरीज-ए-दानाई5, मस्लहत के शैदाई6
राह ए गुमरहाँ क्या है तुम ना जान पाओगे


1- मिलन, 2-विरह, 3-जादू 4 - अंदर, 5- जिसे सोचने समझने का रोग हो, 6- कूटनीति पसंद करने वाला

ज़ख़्म कैसे फलते हैं, दाग कैसे जलते हैं
दर्द कैसे होता है, कोई कैसे रोता है
अश्क़ क्या है नाले* क्या, दश्त क्या है छाले क्या
आह क्या फुगाँ** क्या है, तुम ना जान पाओगे


* दर्दभरी आवाज़ ** फरियाद


नामुराद दिल कैसे सुबह-ओ-शाम करते हैं
कैसे जिंदा रहते हैं और कैसे मरते हैं
तुमको कब नज़र आई ग़मज़र्दों* की तनहाई
ज़ीस्त बे-अमाँ** क्या है तुम ना जान पाओगे

* दुखियारों ** असुरक्षित जीवन

जानता हूँ कि तुम को जौक-ए-शायरी* भी है
शख्सियत सजाने में इक ये माहिरी भी है
फिर भी हर्फ चुनते हो, सिर्फ लफ़्ज सुनते हो
इनके दरमियाँ क्या हैं, तुम ना जान पाओगे


* शायरी का शौक

सूफी गायिकी के बादशाह स्वर्गीय नुसरत फतेह अली खाँ साहब ने जावेद अख्तर साहब के साथ एक एलबम किया था जिसका नाम था 'संगम' और जो HMV पर निकला था। ये नज्म इस एलबम का भी हिस्सा है। इसकी CD यहाँ उपलब्ध है। नुसरत ने इस नज़्म को एक अलग ही अंदाज में गाया है जो कि धीरे-धीरे आपके ज़ेहन में उतरता है। इसलिए इसे जब भी सुनें पर्याप्त समय लेकर सुनें और इसका लुत्फ़ उठाएँ।

 

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