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शनिवार, अक्टूबर 24, 2015

तुझसे होती भी तो क्या होती शिकायत मुझको..रूबरू होइए शबाना आज़मी की गायिकी से.! Shabana Azmi and songs of Anjuman

अस्सी के दशक में मुज़फ़्फ़र अली ने एक फिल्म बनाई थी अंज़ुमन। इससे पहले मुज़फ़्फ़र गमन, आगमन और उमराव जान जैसी फिल्में बना चुके थे। पर उमराव जान की सफलता से उलट लखनऊ के चिकन से काम से जुड़े कारीगरों की कहानी कहती ये फिल्म ठीक से प्रदर्शित भी नहीं हो पाई। फिर भी इस फिल्म का जिक्र इसके संगीत और गायिकी के लिए गाहे बाहे होता ही रहता है। 

ख़य्याम के संगीत निर्देशन में बनी इस फिल्म में पाँच नग्मे थे जिनमें दो तो युगल गीत थे। रोचक तथ्य ये है कि इस फिल्म के तीन एकल गीतों को मशहूर अदाकारा शबाना आज़मी ने अपनी आवाज़ दी थी। जैसा कि मुजफ्फर अली की अमूमन सभी फिल्मों में होता आया है, इस फिल्म के गीतों की की शब्द रचना जाने मने शायर शहरयार साहब ने की थी।

शबाना ने इस फिल्म तुझसे होती भी तो क्या.. के आलावा मैं राह कब से नई ज़िंदगी की तकती हूँ..हर इक क़दम पे हर इक मोड़ पे सँभलती हूँ...  और ऐसा नहीं कि इसको नहीं जानते हो तुम.आँखों में मेरी ख़्वाब की सूरत बसे हो तुम......  जैसी ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी थी। इसके आलावा भूपेंद्र के साथ उनका एक युगल गीत गुलाब ज़िस्म का भी रिकार्ड हुआ था। 



आजकल नायक व नायिकाओं की आवाज़ का इस्तेमाल निर्माता निर्देशक फिल्मों के प्रमोशन के लिए करते रहते हैं। पिछले कुछ सालों पर नज़र डालें तो आलिया भट्ट, श्रद्धा कपूर व प्रियंका चोपड़ा के साथ सलमान खाँ, संजय दत्त और अक्षय कुमार जैसे कलाकार माइक्रोफोन के पीछे अपनी आवाज़ आज़मा चुके हैं। इनमें प्रियंका और कुछ हद तक आलिया को छोड़ बाकियों की आवाज़ कामचलाऊ ही रही है जिन्हें मशीनों के माध्यम से श्रवणीय बना दिया गया है। पर नब्बे के दशक में रेडिओ के प्रायोजित कार्यक्रम के आलावा कहीं प्रमोशन की ज्यादा गुंजाइश ही नहीं हुआ करती थी और कला फिल्मों की तो वो भी नहीं। फिर भी ख़य्याम ने फिल्म की मुख्य गायिका के रूप में शबाना को ही  चुना।

शबाना जी से जब भी इस संबंध में सवाल किए गए हैं तो उन्होंने यही कहा है कि अपने पिता की ख़्वाहिश पूरी करने के लिए उन्होंने इन गीतों को गाने के लिए सहमति दी।  दरअसल कैफ़ी आज़मी अपनी बेटी को एक अभिनेत्री के आलावा एक गायिका के रूप में भी देखना चाहते थे। शबाना तो अपने आप को बाथरूम सिंगर भी मानने को तैयार नहीं होती पर ये नग्मे उनकी गायिकी के बारे में कुछ और ही कहानी कहते हैं।

भले ही उनकी आवाज़ किसी पार्श्व गायक सरीखी ना हो पर उसे नौसिखिये की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता। पहली बार सुनने पर मुझे तो उनकी आवाज़ में कुछ सलमा आगा और कुछ गीता दत्त का अक़्स आता दिखा। शबाना की गाई फिल्म की एकल ग़ज़लों में तुझसे होती भी तो क्या होती शिकायत मुझको .. सबसे ज्यादा पसंद हैं। शहरयार ने अपनी लेखनी से ग़ज़ल में जिस दर्द को व्यक्त किया है वो शबाना की आवाज़ में सहजता से उतरता दिखता है।

आप किसी को चाहते हैं भली भांति जानते हुए कि वो आपका हो नहीं सकता तो फिर शिकायत करने से क्या फ़ायदा ! हाँ जो पीड़ा आपको सहनी पड़ी वो ही तो ऐसे रिश्तों की दौलत है जिसे आप हृदय में सहेज के रख सकते हैं। इसीलिए ग़ज़ल के मतले में शहरयार कहते हैं..

तुझसे होती भी तो क्या होती शिकायत मुझको
तेरे मिलने से मिली दर्द की दौलत मुझको


ऐसी हालत में मन को समझाएँ भी तो कैसे? बस यही कह कर ना कि ज़िदगी में और भी मुकाम हैं मोहब्बत के सिवा। किसे पता शायद ही उन्हें ही पूरा करने के लिए किस्मत ये दिन दिखला रही हो..

जिन्दगी के भी कई कर्ज हैं बाकी मुझ पर
ये भी अच्छा है न रास आई मुहब्बत मुझको


पर उदासी की चादर ओढ़ कर ये जीवन तो जिया नहीं जा सकता ना। सो मुझे तुम्हारी यादों की बदलियों से बाहर निकलना होगा। क्या पता शायद इस ज़हान के किसी कोने में धूप की कोई किरण मेरा इंतज़ार कर रही हो? शायद वो दुनिया ही  मेरे ख़्वाबों की तामीर करे
तेरी यादों के घने साए से रुखसत चाहूँ
फिर बुलाती है कहीं धूप की शिद्दत मुझको 


सारी दुनिया मेरे ख्वाबों की तरह हो जाए
अब तो ले दे के यही एक है हसरत मुझको





तो कैसी लगी आपको शबाना की आवाज? इस फिल्म के बाकी गाने भी फुर्सत से जरूर सुनिएगा। आज़  के इस शोर  सराबे में जरूर सुकून के कुछ पल आप अपने करीब पाएँगे। वैसे चलते चलते ये बता दूँ कि हाल फिलहाल में शबाना आज़मी ने एक फिल्म चॉक और डस्टर के लिए अपनी आवाज़ रिकार्ड की है। गणित की शिक्षिका के  रूप में यहाँ वो  कुछ तुकबंदियों के सहारे  BODMAS के  गुर को समझाती नज़र आएँगी। 

सोमवार, जुलाई 27, 2015

जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने .. उमराव जान की वो भावपूर्ण ग़ज़ल Justuju jis ki thi usko to na paya humne..

पिछले हफ्ते आपसे ख़य्याम साहब और फिल्मी ग़ज़लों के उस छोटे परंतु स्वर्णिम दौर की बात हो रही थी जिसमें दो तीन सालों के बीच बाजार, उमराव जान और अर्थ जैसी फिल्में अपने अलहदा संगीत की वज़ह से जनमानस के हृदय में अमिट छाप छोड़ गयीं।

डिस्को संगीत और मार धाड़ वाली फिल्मों के उस दौर में जब मुजफ्फर अली ख़य्याम साहब के पास लखनऊ की मशहूर तवायफ़ उमराव जान की पटकथा सामने लाए तो उन्होंने इसे चुनौती की तरह लिया। मुजफ्फर अली ख़य्याम से पहले जयदेव को फिल्म के लिए बात कर चुके थे और संगीतकार जयदेव ने लता से फिल्म के गीत गवाने का निश्चय भी कर लिया था। पर होनी को तो कुछ और मंज़ूर था । पारिश्रमिक के लिए बात अटकी और फिल्म ख़य्याम की झोली में आ गिरी।


फिल्म की  कहानी के अनुरूप ग़ज़लों को लिखने के लिए एक ख़ालिस उर्दू  शायर की जरूरत थी। लिहाज़ा  उसके लिए शहरयार साहब चुन लिए गए। पर इन ग़ज़लों को गाने के लिए आशा जी को चुनना थोड़ा चौंकाने वाला जरूर था।  आशा जी उस दौर तक चुलबुले, शोख़ गीतों के लिए ही ज्यादा जानी जाती थीं। संज़ीदा गीतों को भी उन्होंने मिले मौकों में अच्छी तरह निभाया था पर ग़ज़ल के फ़न  में उनका कोई तजुर्बा नहीं था।

Khayyam with Asha Bhosle
ख़य्याम साहब से ये प्रश्न हमेशा से पूछा जाता रहा कि आख़िर उन्होंने लता जी की जगह आशा जी को क्यूँ चुना ? उनका कहना था कि उन्हें ये भय सता रहा था कि अगर उन्होंने इस फिल्म के लिए लता की आवाज़ का इस्तेमाल किया होता तो उनकी गायिकी की तुलना  पाकीज़ा में गाए उनके बेमिसाल मुज़रों से की जाने लगती जो वो नहीं चाहते थे । दूसरे उमराव जान के किरदार के लिए उन्हें आशा की आवाज़ ज्यादा मुफ़ीद लग रही थी। पर उनकी आवाज़ को तवायफ़ के किरदार की तरह प्रभावी बनाने के लिए उन्होंने उनके स्वाभाविक सुर से आधा सुर नीचे गवाया। आशा जी इस बदलाव से खुश तो नहीं थीं पर जब उन्होंने इसका नतीजा देखा तो वो समझ गयीं कि ख़य्याम की सोच बिल्कुल सही थी।

वैसे तो इस फिल्म में प्रयुक्त सभी ग़ज़लें मकबूल हुईं। पर जहाँ दिल चीज़ क्या है...,  ये क्या जगह है दोस्तों...., इन आँखो की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं.... का संगीत एक मुजरे के रूप में प्रस्तुत किया गया वहीं जुस्तज़ू जिसकी थी उसको तो ना पाया हमने.... का फिल्मांकन और संगीत एक खालिस ग़ज़ल का रखा गया। फिल्म देखते हुए तो मुझे इसके सारे नग्मे दिलअजीज़ लगते हैं पर कहानी के इतर दर्द में डूबी ये ग़ज़ल गाहे बगाहे ज़ेहन में आती रहती है।

अब  फिल्म की कहानी में इस ग़ज़ल की परिस्थिति को ज़रा याद कीजिए।  उमराव जान एक अच्छे घर से अगवा कर के कोठे पर बैठा दी गयीं। वहाँ नवाब साहब से मुलाकात हुई, प्रेम हुआ। नवाब नर्म दिल थे, मोहब्बत उन्हें भी थी पर अपनी माँ से बगावत करने की हिम्मत नहीं थी। शादी किसी और से कर ली और छोड़ दिया उमराव को उसके हाल पर तनहा। उमराव उन्हीं नवाब साहब के सामने इस ग़ज़ल के माध्यम से अपनी तनहा ज़िदगी की गिरहें खोलती हैं।

जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने

तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुए
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने 

शहरयार साहब की यूँ तो पूरी ग़ज़ल ही कमाल की है पर इसके ये दो शेर मुझे खास पसंद हैं। एक में उमराव कहती हैं ना तो मैंने तुम्हारी बेवफाई पर सवाल उठाए ना ही ख़ुद पश्चाताप की अग्नि में जली। बस इसी क़ायदे से अपनी मोहब्बत निभाती रही।

कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
ज़िन्दगी तुझ को तो बस ख़्वाब में देखा हमने 

तेरे वज़ूद में मैंने अपनी ज़िंदगी की झलक देखी थी। अब तो ये भी याद नहीं कि वो झलक कब आँखों से ओझल हो गई। अब तो लगता है  कि तेरा, मेरी ज़िदगी में आना बस एक ख़्वाब बनकर ही रह गया।
 
ऐ 'अदा' और सुनाए भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तनहा हमने

तो आइए सुनते हैं आशा जी को उनकी इस भावपूर्ण ग़ज़ल में


दरअसल फिल्म में शहरयार की शायरी का प्रयोग यूँ हुआ है कि कहानी उस में ख़ुद बा ख़ुद बयाँ हो जाती है। अब यहीं देखिए ना ग़ज़ल के पहले संवादों के बीच शहरयार की एक दूसरी ग़ज़ल के कुछ अशआर कितनी खूबसूरती से पिरोये गए हैं


तुझसे बिछुड़े है तो अब किससे मिलाती है हमें
जिन्दगी देखिये क्या रंग दिखाती है हमें 

गर्दिशे-वक़्त का कितना बड़ा अहसाँ है कि आज
ये ज़मी चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें

वैसे क्या आपको पता है कि जुस्तज़ू जिसकी थी ..शहरयार पहले ही लिख चुके थे। पर इस फिल्म के लिए अपने मतले को वही रखते हुए उन्होंने अपनी ग़ज़ल में थोड़ा रद्दोबदल कर उसे वे  इस रूप में ले आए। वैसे भी मक़ते में उमराव जान का तख़ल्लुस ''अदा'' लाने के लिए बदलाव जरूरी था। बहरहाल इस फिल्म के संगीत ने आम और खास सब से वाहवाहियाँ बटोरी। ख़य्याम को सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक के लिए फिल्मफेयर और राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। आशा जी को सर्वश्रेष्ठ गायिका का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और रही शहरयार की बात  तो वे इसके बाद जहाँ भी गए उनके साथ उमराव जान के गीतों के लेखक का तमगा साथ गया। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था
"मैं AIIMS में जाता हूँ तो वहाँ मुझे लाइन नहीं लगानी पड़ती़। डॉक्टर भी कार्ड देखे बिना बड़ी खुशी से मुआयना कर देता है। ट्रेन या हवाई जहाज में रिजर्वेशन का मसला हो या कोई और उमराव जान के गानों ने मेरी बड़ी मदद की है। मेरे बच्चों से अक़्सर ये सवाल किया जाता है कि आप उसी शहरयार के बच्चे हैं जिसने उमराव जान के गाने लिखे हैं?"

शुक्रवार, जुलाई 17, 2015

बशर नवाज़ : करोगे याद तो हर बात याद आयेगी ! Bashar Nawaz .. Karoge yaad to har baat

अस्सी का दशक हिंदी फिल्मी गीतों के लिए कोई यादगार दशक नहीं रहा। पंचम, फिर लक्ष्मीकांत प्यारेलाल से हिंदी गीतों को संगीतबद्ध करने की कमान बप्पी दा तक पहुँची तो लोग यहाँ तक सोचने लगे कि क्या गीतों के साथ जुड़ी संवेदना और मधुरता कभी लौटेगी? पर इस दौर में फूहड़ फिल्मी गीतों द्वारा पैदा किया गया शून्य ग़ज़लों को आम जनों के करीब ले आया। ग़ज़लों को मिली इसी स्वीकार्यता ने संवेदनशील और लीक से हटकर फिल्में बनाने वाले निर्देशकों को अपनी फिल्मों में ग़ज़लों और नज़्मों के इस्तेमाल के लिए प्रेरित किया।

अस्सी के दशक की शुरुआत में तीन ऐसी फिल्में आयीं जो फिल्मी ग़ज़लों की सफलता के लिए मील का पत्थर साबित हुई। ये फिल्में थी अर्थ, बाजार और उमराव जान। उस ज़माने में शायद ही कोई संगीत प्रेमी होगा जिसके पास इन तीनों फिल्मों के कैसेट्स ना रहे हों। जहाँ अर्थ का संगीत ख़ुद ग़ज़ल सम्राट कहे जाने वाले जगजीत सिंह ने दिया था वहीं उमराव जान और बाजार के संगीतकार ख़य्याम थे। 

ख़य्याम साहब ने इन फिल्मों में नामाचीन शायरों जैसे मीर तकी मीर, मिर्जा शौक़ शहरयार और मखदूम मोहिउद्दीन की शायरी का इस्तेमाल किया। पर उनकी इस फेरहिस्त में एक अपेक्षाकृत गुमनाम शायर का नाम और भी था। जानते हैं कौन थे वो ? ये शायर थे बशरत नवाज़ खान जिन्हें दुनिया बशर नवाज़ के नाम से जानती है। सन 1935 में औरंगाबाद, महाराष्ट्र में जन्मे बशर नवाज़ ने पिछले हफ्ते अस्सी वर्ष की उम्र में इस दुनिया से विदाई ली।


बशर नवाज़ अपने समकालीनों की तरह युवावस्था में वामपंथी विचारधारा (जो कि वर्ग रहित समाज की परिकल्पना पर आधारित थी) से प्रभावित रहे। पिछले पाँच दशकों से वो उर्दू कविता को अपनी कलम से सींचते रहे। कविता के आलावा समालोचना, नाट्य लेखन जैसी विधाओं में भी हाथ आज़माया। दूरदर्शन के धारावाहिक अमीर खुसरो के लिए पटकथा लिखी और बाजार के आलावा लोरी और जाने वफ़ा जैसी फिल्मों के लिए गीत भी लिखे। पर हिंदी फिल्म संगीत में वो अपनी भागीदारी को बाजार फिल्म के गीत करोगे याद तो हर बात याद आयेगी ...से वो हमारे हृदय में हमेशा हमेशा के लिए अंकित कर गए।

ये तो हम सभी जानते हैं कि ज़िंदगी की पटकथा को तो ऊपर वाला रचता है। जाने कब कैसे किसी से मिलाता है। साथ बिताए पलों की खुशबू से दिल में अरमान जगने ही लगते हैं कि एक ही झटके में अलग भी कर देता है । फिर छोड़ देता है अकेला अपने आप से, अपने वज़ूद से जूझने के लिए। साथ होती हैं तो बस यादें जो उन गुजरे लमहों की कसक को रह रह कर ताज़ा करती रहती हैं।

फिल्म के किरदारों के बीच की कुछ ऐसी ही परिस्थितियों को नवाज़ साहब ने चाँद, बादल, बरसात और दीपक जैसे बिंबों में समेटा है। गीत में शीशे की तरह चमकते चाँद के बीच भटकते बादलों में बनते चेहरे की उनकी सोच हो या फिर जल जल कर पिघलती शम्मा से वियोग में डूबे दिल की तुलना..भूपेंद्र की आवाज़ में इन लफ्जों को सुन मन उदास फिर और उदास होता चला जाता है.. तो आज बशर नवाज़ साहब को याद करते हुए ये गाना फिर से सुन लीजिए.. 



करोगे याद तो हर बात याद आयेगी
गुजरते वक्त की, हर मौज़ ठहर जायेगी

ये चाँद बीते जमानों का आईना होगा
भटकते अब्र में चेहरा कोई बना होगा
उदास राह कोई दास्तां सुनाएगी

बरसता भीगता मौसम धुआँ धुआँ होगा
पिघलती शम्मो पे दिल का मेरे गुमाँ होगा
हथेलियों की हिना याद कुछ दिलायेगी

गली के मोड़ पे सूना सा कोई दरवाजा
तरसती आँखों से रस्ता किसी का देखेगा
निगाह दूर तलक जा के लौट आयेगी

बशर साहब की शायरी से ज्यादा रूबरू तो मैं नहीं हुआ हूँ। पर उनको जितना पढ़ पाया हूँ उसमें उनकी लिखी ये ग़ज़ल मुझे बहुत प्यारी लगती है। आज जब वो हमारे बीच नहीं है अपनी आवाज़ के माध्यम से उनके हुनर, उनकी शख़्सियत को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहता हूँ ..

बहुत था ख़ौफ जिस का फिर वही किस्सा निकल आया
मेरे दुख से किसी आवाज़ का रिश्ता निकल आया

वो सर से पाँव तक जैसे सुलगती शाम का मंज़र
ये किस जादू की बस्ती में दिल तन्हा निकल आया

जिन आँखों की उदासी में बयाबाँ1 साँस लेते हैं
उन्हीं की याद में नग़्मों का ये दरिया निकल आया

सुलगते दिल के आँगन में हुई ख़्वाबों की फिर बारिश
कहीं कोपल महक उट्ठी, कहीं पत्ता निकल आया

पिघल उठता है इक इक लफ़्ज़ जिन होठों की हिद्दत2 से
मैं उनकी आँच पी कर और सच्चा निकल आया

गुमाँ था जिंदगी बेसिमत ओ बेमंजिल बयाबाँ है
मगर इक नाम पर फूलों भरा रस्ता निकल आया

1. वीरानियाँ, 2. तीखापन
 

शुक्रवार, अप्रैल 01, 2011

ठहरिए होश में आ लूँ तो चले जाइएगा..मन को गुदगुदाता रफ़ी साहब का नग्मा..

1965 में एक फिल्म आई थी जिसका नाम था 'मोहब्बत इसको कहते हैं'। अख़्तर मिर्जा द्वारा लिखी और निर्देशित इस छोटे बजट की फिल्म के कुछ गीत बेहद लोकप्रिय हुए थे। वैसे ये बता दूँ की ये वही अख़्तर मिर्जा हैं जिनके सुपुत्र सईद मिर्जा की बनाई फिल्में 'सलीम लँगड़े मत रो', 'अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यूँ आता है?', 'नसीम' और अस्सी के दशक में सोमवार रात को दूरदर्शन पर आने वाला धारावाहिक 'नुक्कड़' बेहद चर्चित रहे थे।

अख्तर मिर्जा की इस प्रेम कथा पर संगीत रचने का काम सौंपा गया था 'ख़य्याम' साहब को। ख़्य्याम साहब की खासियत रही है कि वो अपने गीत चुने हुए कवियों और शायरों से ही लिखवाते थे। लिहाज़ा इस फिल्म के लिए उन्होंने उस वक़्त के मशहूर शायर मजरूह सुल्तानपुरी को चुना।

प्रेमियों की आपसी चुहल और तकरार पर यूँ तो कितने ही गीत बने हैं पर रफ़ी और सुमन कल्याणपुर द्वारा गाए इस युगल गीत में इतनी मधुरता और सादगी है कि सुनने वाला बस सुनता ही रह जाता है। मोहम्मद रफ़ी ने इस गीत के हर अंतरे को इतना दिल से गाया है कि गीत की पंक्तियों सजीव हो उठती हैं। मुझे नहीं लगता कि कोई भी संगीत प्रेमी इस गीत को सुनते वक़्त गुनगुनाने से अपने आप को रोक सके..



आइए सुनते हैं रफी और सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में ये नग्मा...



ठहरिए होश में आ लूँ तो चले जाइएगा
उह हुँह...
आप को दिल में बिठा लूँ तो चले जाइयेगा
उह हुँह..आप को दिल में बिठा लूँ .........

कब तलक रहिएगा यूँ दूर की चाहत बन के
कब तलक रहिएगा यूँ दूर की चाहत बन के
दिल में आ जाइए इकरार-ए-मोहब्बत बन के
अपनी तकदीर बना लूँ तो चले जाइएगा
उह हुँह..आप को दिल में बिठा लूँ तो चले जाइएगा
आप को दिल में बिठा लूँ....

मुझको इकरार-ए-मोहब्बत से हया आती है
मुझको इकरार-ए-मोहब्बत से हया आती है
बात कहते हुए गर्दन मेरी झुक जाती है
देखिये सर को झुका लूँ तो चले जाइएगा
उह हुँह..देखिये सर को झुका लूँ तो चले जाइएगा
हाय... आप को दिल में बिठा लूँ.......

ऐसी क्या शर्म ज़रा पास तो आने दीजे
ऐसी क्या शर्म ज़रा पास तो आने दीजे
रुख से बिखरी हुई जुल्फें तो हटाने दीजे
प्यास आँखों की बुझा लूँ तो चले जाइएगा
ठहरिये होश में आ लूँ तो चले जाइएगा
हम हम हम... ला ला ला...
आप को दिल में बिठा लूँ तो चले जाइएगा
आप को दिल में बिठा लूँ

इस गीत को फिल्माया गया था शशि कपूर और नंदा पर...

सोमवार, जुलाई 26, 2010

लता ,ख़य्याम, नक़्श ल्यालपुरी की त्रिवेणी से निकला फिल्म दर्द का बेमिसाल संगीत... Ahl E Dil Yun Bhi Nibha Lete Hain..

बात अस्सी के दशक के शुरुआत की है जब राजेश खन्ना और हेमा जी की एक फिल्म आई थी नाम था दर्द। फिल्म के संगीतकार थे ख़य्याम साहब और इसके गीतों के बोल लिखे थे नक्श ल्यालपुरी ने। वैसे तो पूरी फिल्म का संगीत लोकप्रिय हुआ था पर आज इस पोस्ट में अपनी पसंद के दो गीतों या यूँ कहें कि एक गीत व एक ग़ज़ल का जिक्र करना चाहूँगा जिन्हें सुनना हमेशा से मन में एक अलग सा जादू जगाता रहा है।।


खासकर प्रेम के रंग से रससिक्त इस गीत की तो बात ही निराली है। मुखड़े या इंटरल्यूड्स में ख़य्याम साहब का म्यूजिकल अरेंजमेंट,लता की नर्म,सुरीली और भावों में डूबती आवाज़ या फिर नक्श ल्यालपुरी के खूबसूरत बोल हों सब मिल कर इस गीत को एक अलग ही धरातल पर ले जाते हैं। इस गीत को मैं लता जी द्वारा अस्सी के दशक में गाए नायाब गीतों में शुमार करता हूँ।

एक संगीतकार के रूप में ख़य्याम साहब ने चालिस साल से ऊपर के अपने कैरियर में मात्र पचास से कुछ ज्यादा फिल्में कीं पर संगीत की गुणवत्ता से कभी कोई समझौता नहीं किया। अपनी फिल्मों के लिए वो अक्सर ऐसे गीतकारों को लेते थे जिनमें काव्यात्मक प्रतिभा भरी हो। इसलिए उनकी फिल्मों में गीतकार के रूप में आप किसी नामी कवि या शायर को ही पाएँगे। अब इसी फिल्म दर्द को लें जिसके गीत उन्होंने नक़्श ल्यालपुरी से लिखवाए।

ये वही नक़्श ल्यालपुरी हैं जिन्होंने फिल्म घरौंदा का गीत मुझे प्यार तुमसे नहीं है नहीं है (जो मुझे बहुत बहुत पसंद है) लिखा था। वैसे उनके नाम से ये तो ज़ाहिर है कि वे ल्यालपुर से ताल्लुक रखते थे जो पाकिस्तान के पूर्वी पंजाब में पड़ता था। पर उनका असली नाम नक़्श ल्यालपुरी ना होकर जसवंत राय था। रेडिओ पर अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि उनके उर्दू शिक्षक, पुस्तिकाओं के पीछे लिखी उनकी शायरी से इतने प्रभावित थे कि पिछली कक्षा की सारी पुस्तिकाओं को अपने पास रखवा लेते थे। आज़ादी के बाद वे लखनऊ आ गए और कुछ सालों वहाँ बिताने के बाद मुंबई में डाक तार विभाग में नौकरी कर ली। पर एक शायर का मन दिन भर रजिस्ट्री करने में कहा रमता। सो मित्रों की मदद से पहले उन्होंने नाटकों में लिखना शुरु किया और फिर फिल्मों में चले आए।

तो आइए सुनें नक्श साहब वल्द 'जसवंत राय' का लिखा और लता का गाया ये प्यारा सा नग्मा


न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया
खिला गुलाब की तरह मेरा बदन
निखर निखर गई, सँवर सँवर गई
निखर निखर गई, सँवर सँवर गई
बना के आईना तुझे, ऐ जानेमन

न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया

बिखरा है काजल फिज़ा में, भीगी भीगी है शामे
बूँदो की रिमझिम से जागी आग ठंडी हवा में
आ जा सनम, यह हसीं आग हम ले दिल में बसा
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया, खिला गुलाब...

न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया...
आँचल कहाँ, में कहाँ हूँ, ये मुझे होश क्या है
यह बेखुदी तूने दी है, प्यार का यह नशा है
सुन ले ज़रा साज़ ऐ दिल गा रहा है नग्मा तेरा
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया, खिला गुलाब...
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया...

कलियों की ये सेज महके, रात जागे मिलन की
खो जाए धड़कन में तेरी, धड़कनें मेरे मॅन की
आ पास आ, तेरी हर साँस में, मैं जाऊँ समा
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया.....जानेमन
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया...

ख़य्याम साहब ने इस फिल्म में नक़्श ल्यालपुरी से एक नहीं बल्कि दो शीर्षक गीत लिखवाए। जहाँ गीत प्यार का दर्द है मीठा मीठा प्यारा प्यारा.. फिल्म के नौजवान किरदारों पर फिल्माया गया वहीं दूसरा गीत जिसे फिल्मी ग़ज़ल कहना ज्यादा उपयुक्त होगा पुरानी पीढ़ी के किरदारों पर फिल्माया गया। और कमाल की बात ये कि दोनों ही गीत लोकप्रिय हुए। पर इन दोनों नग्मों में मुझे ये ग़ज़ल ज्यादा पसंद आती है। इस ग़ज़ल के दो टुकड़े हैं एक में लता जी का स्वर है तो दूसरे में भूपेंद्र का। जब भी इस ग़ज़ल को सुनता हूँ लता जी की आवाज़ की कशिश और नक़्श ल्यालपुरी के सहज बोल एक बार फिर समा बाँध देते हैं।

 

अहले दिल यूँ भी निभा लेते हैं
दर्द सीने में छुपा लेते हैं

दिल की महफ़िल में उजालों के लिये
याद की शम्मा जला लेते हैं

जलते मौसम में भी ये दीवाने
कुछ हसीं फूल खिला लेते हैं

अपनी आँखों को बनाकर ये ज़ुबाँ
कितने अफ़साने सुना लेते हैं

जिनको जीना है मोहब्बत के लिये
अपनी हस्ती को मिटा लेते हैं

वहीं भूपेंद्र गीत के मूड को दो और अशआरों में बरकरार रखते हैं..

जख्म जैसे भी मिले जख़्मों से
दिल के दामन को सजा लेते हैं

अपने कदमों पे मोहब्बतवाले
आसमानों को झुका लेते हैं

तो आइए सुनें भूपेंद्र की आवाज़ में इस गीत का ये टुकड़ा....




आप जरूर सोच रहे होंगे कि आजकल नक़्श ल्यालपुरी जी क्या कर रहे हैं । आज का तो पता नहीं पर उन्होंने अंतिम बार 2005 में नौशाद की आखिरी फिल्म ताजमहल के लिए कुछ गीत लिखे थे। फिल्मों में अब वे काम करना नहीं चाहते क्यूँकि वे मानते हैं कि अब उनके लायक काम आता ही नहीं। कुछ साल पहले तक वे टीवी सीरियल की पटकथाओं को लिखकर अपना काम चला रहे थे।
 

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